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रानी नागफनी की कहानी भाग2/हरिशंकर परसाई

होना बीमार और लगना पेनिसिलिन

अस्तभान अब रात-दिन नागफनी के चित्रों को देखता रहता और ‘हाय ! हाय !’ करता रहता । प्रेम की पीड़ा से आठों पहर तड़पता रहता। उसकी यह हालत देखकर मुफतलाल घबड़ाया और एक नामी डॉक्टर को बुला लाया ।

डॉक्टर स्टेथिस्कोप की माला पहने अस्तभान के पलंग के पास बैठ गया । नाड़ो, जीभ और हृदय की परीक्षा करने के बाद पूछा – ‘दस्त साफ होता है ?”

‘जी हाँ ।’

‘भूख कैसी लगती है ?’

‘मामूली ।’

‘नींद आती है ?’

‘नहीं ।’

डॉक्टर सोच में पड़ गया। अपने-आप कहने लगा, ‘सिस्टम सब ठीक है, नाड़ी बराबर है, हार्ट दुरुस्त है । फिर क्या गड़बड़ ?’

मुफतलाल ने उसकी उलझन देख कहा, ‘इन्हें प्रेम की बीमारी है ।’

डॉक्टर ने कहा, ‘ठीक है । पेनिसिलिन मँगा लो ।’

मुफतलाल बोल पड़ा, ‘डॉक्टर साहब, यद्यपि चिकित्सा शास्त्र में मेरा दखल नहीं है, फिर भी मन में प्रश्न उठता है कि क्या प्रेम की बीमारी में भी पेनिसिलिन ही दिया जाएगा ?”

डॉक्टर ने कड़ी नजर से उसे देखा और कहा, ‘हाँ, कोई भी बीमारी हो ।’

‘तो फिर बीमारी की जाँच और रोग का निदान करने की क्या जरूरत है ?’

‘कोई नहीं । पर अगर डॉक्टर यह सब दिखाने के लिए न करे, तो उस पर विश्वास न किया जाये और उसे फीस न मिले ।’

‘तो डॉक्टर साहब, क्या हर बीमारी पर पेनिसिलिन दिया जाएगा ?’

‘हाँ ।’

‘सर्दी-बुखार में ?’

‘पेनिसिलिन ।’

‘पेट की पीड़ा में ?’

‘पेनिसिलिन ।’

‘क्षय में ?’

‘पेनिसिलिन ।’

‘कैंसर में ?’

‘पेनिसिलिन ।’

‘भाई- भाई में अनबन हो जाये तो ?’

‘दोनों को पेनिसिलिन देना चाहिए ।’

‘और लड़का अगर बिगड़ गया हो तो ?’

डॉक्टर चिढ़ गया | बोला, ‘जिस बात को जानते नहीं हो, उसके बारे में बहस क्यों करते हो? तुम्हें क्या मालूम नहीं कि पेनिसिलिन की खोज से चिकित्सा पद्धति में क्रांति हो गई है ? अब सिर्फ एक ही दवा रह गई है – पेनिसिलिन । ‘अखिल विश्व डॉक्टर संघ’ ने हाल ही में प्रस्ताव पास किया है कि सब मैडिकल कालेज बंद कर दिए जायँ और चिकित्सा शास्त्र की पुस्तकें नष्ट कर दी जायँ । अब किसी डॉक्टर को पढ़ने, सीखने या प्रयोग करने की जरूरत नहीं है । अब बीमारी का नाम जानने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि बीमारी कोई भी हो, पेनिसिलिन ही दिया जाएगा । पेनिसिलिन से बीमारी ही अच्छी नहीं होती, मनुष्य की सब समस्याएँ भी हल होती हैं। पेनिसिलिन से अगर रोगी मर भी जाए तो उसे स्वर्ग में स्थान मिलता है । इस तरह पेनिसिलिन से दोनों लोक सुधरते हैं। जो बिना पेनिसिलिन के मर जाते हैं, उन्हें फिर जन्म लेकर पेनिसिलिन लगवाना पड़ता है। एक बार पेनिसिलिन लेने से प्राणी आवागमन के बंधन से छूट जाता है । जाओ, बारह पेनिसिलिन इंजेक्शन और एक ‘डिबिया मरहम लेकर आओ ।’

मुफतलाल प्रभावित हुआ। एक सेवक को भेजकर इंजेक्शन और मरहम मँगवाया गया | डॉक्टर ने एक इंजेक्शन अस्तभान को दिया और कहा, ‘एक इजेक्शन शाम को लगेगा । इनके कलेजे पर मरहम लगा दो ।’

एक सेवक घंटे भर कलेजे पर मरहम चुपड़ता रहा । पर दर्द कम नहीं हुआ । तब एक दूसरा प्रसिद्ध डॉक्टर बुलवाया गया।

डॉक्टर ने अस्तभान की अच्छी तरह जांच की और एक कागज पर दवाइयाँ लिख दीं । मुफतलाल ने कागज देखा और जरा परेशान हुआ । डरते-डरते कहा, ‘डॉक्टर साहब, गुस्ताखी माफ हो । आपने तो ‘क्लोरो- माइसिन’ लिख दिया है । जहाँ तक मैं जानता हूँ, यह तो…”

डॉक्टर ने बात काटकर कहा, ‘तुम्हारा मतलब है कि यह बीमारी में नहीं दी जाती ? ठीक है। यह मैं भी जानता हूँ। पर बाजार में क्लोरोमाइसिन का जो भारी स्टॉक पड़ा है, उसका क्या होगा ? साल-भर से टाइफाइड के केस लगभग नहीं हुए। दवाइयों का स्टॉक पड़ा सड़ रहा है । न जाने बीमारियों को कौन-सी बीमारी लग गई है ! सारी गर्मी और बरसात निकल गई, पर इस अभागे शहर में एक भी मरीज हैजे से नहीं मरा । ऐसी स्थिति में डॉक्टर क्या करें ? और दवा विक्रेता क्या करें ?’

मुफतलाल की दिलचस्पी बढ़ी। पूछा, ‘डॉक्टर साहब, रोग के अनुसार दवाएँ बनती हैं या दवाओं के अनुसार रोग होते हैं ?”

डॉक्टर ने कहा, ‘दवाओं के अनुसार रोग होते हैं। उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में जो नियम लागू होते हैं, वही यहाँ भी होते हैं । वस्तु का उत्पादन अधिक करके फिर उसकी आवश्यकता पैदा की जाती है और उसे बेचा जाता है । हमारे पास दवा बनाने वाले कारखानों के एजेन्ट आते रहते हैं । बता जाते हैं कि इस समय क्लोरोमाइसिन का उत्पादन बहुत हुआ है, इसलिए लोगों को टाइफाइड होना चाहिए। इसके बाद उसे उसकी बीमारी की दवा भी दी जाएगी। फिर कुछ ऐसी दवाएँ भी दी जाएंगी जिनसे न लाभ होगा, न हानि ।’

मुफतलाल बोला, ‘याने एक तो सर्वसामान्य यानी ‘जनरल’ बीमारी होती है और एक व्यक्तिगत बीमारी ।’

‘डॉक्टर ने कहा, ‘हाँ, अब तुम समझ गये । ‘जनरल’ बीमारी वह है जिसकी दवा का स्टॉक निकालना है । यह हर एक को लेनी होगी। इसके बाद उस मरीज की जो अपनी बीमारी होगी, उसकी दवा दी जाएगी ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘पद्धति तो बहुत अच्छी है । इससे दूकानदारों को ही फायदा होता है या आपको भी ?’

डॉक्टर ने जवाब दिया, ‘दोनों को। यह तो सहकारी उद्योग है । हमें वे कमीशन देते हैं । हम भी यह प्रयत्न करते हैं कि एक बार मरीज हमारे पास आ जाय तो जिन्दगी-भर न छूटे। इलाज जितना लंबा चलेगा उतनी ही फीस हमें मिलेगी और उतनी ही दवा बिकेगी, जिससे व्यवसायियों को लाभ होगा और हमें भी कमीशन मिलेगा ।’

अस्तभान चुपचाप सुन रहा था। उससे नहीं रहा गया । वह बोल उठा, ‘और मरीज को ?’

डॉक्टर ने सहज ही जवाब दिया, ‘मरीज तो वस्तु का उपभोक्ता (Consumer) है | उसे पूरा लाभ हो जाएगा तो दवा की बिक्री बन्द न हो जाएगी ? कुमार, आप स्वतन्त्र उद्योग का अर्थशास्त्र नहीं पढ़े। तभी ऐसे प्रश्न पूछते हैं ।’

मुफतलाल ने पर्चा लेकर रख लिया । अस्तभान ने फीस देकर डॉक्टर को विदा किया।

मुफतलाल ने कहा, ‘कुमार, डॉक्टरों से कुछ नहीं होगा। बीमारी जिनकी आमदनी का जरिया हो, वे भला बीमारी कैसे कम होने देंगे ? डॉक्टर से एक ही लाभ है— अभी तक मरने वाला ईश्वरेच्छा समझकर मरता था; अब डॉक्टर उसे बता देते हैं कि वह किस बीमारी से मर रहा है । इस तरह ईश्वर का उत्तरदायित्व काफी कम हो गया है ।’

इसी समय राजा साहब ने एक प्रेम की बीमारी का विशेषज्ञ भेजा ।

उसने ध्यान से अस्तभान को देखा। फिर पूछा, ‘पहले भी प्रेम किया है ?”

‘हाँ, कई बार,’ अस्तभान ने कहा ।

प्रेम – विशेषज्ञ बोला, ‘तो जल्दी ठीक हो जाओगे । यह बीमारी पहले प्रेम में अधिक सताती है, जो अनुभवी प्रेमी होते हैं, वे सरलता से ठीक हो जाते हैं । यह एक तरह का भूत है । इस समय आप पर नागफनी के प्रेम का भूत सवार है । एक भूत के पीछे दूसरे भूत को लगाना चाहिए। आप अपनी भूतपूर्व प्रेमिकाओं का नाम जल्दी-जल्दी जपिये । १५ मिनट में फायदा मालूम होगा ।’

अस्तभान ने जल्दी-जल्दी रटना शुरू किया- ‘फूलमती, विडालनयनी, कोकिल रंगी, कर्कशबैनी…”

जादू जैसा असर हुआ । तबियत में सुधार होने लगा। आधा घंटा नाम रटने के बाद वह पूर्ण स्वस्थ हो गया ।

उसने प्रेम-विशेषज्ञ को बहुत-सी भेंट देकर कहा, ‘आप बड़े गुणी आदमी हैं। आपका बताया नुस्खा मैं हमेशा याद रखूंगा ।’

प्रेम-विशेषज्ञ ने कहा, ‘कोई बड़ा नुस्खा नहीं है, कुमार । ‘नाम’ का प्रताप है । नाम का माहात्म्य भक्तों ने गाया है । ‘नाम’ के उच्चारण से गणिका और अजामिल तर गए थे । गोस्वामी तुलसीदास ने अपने बारे में ही कहा है-

का गिनती महँ गिनती जस बन घास ।
नाम जपत भा तुलसी तुलसीदास ॥

‘नाम’ की ऐसी महिमा है । पर आजकल के लोग प्राचीन विद्याओं को भूल गये हैं । जानते भी हैं तो अधूरा । लोग नहीं जानते कि घूस के मामले में फँसने पर कितने बार किस देव का नाम जपना चाहिए, चोरी में पकड़ाने पर कितने बार काला बाजार के मामले में फँसने पर कितने बार । यदि विधि से उचित संख्या में नाम जपा जाए तो संकट से मुक्ति मिल जाती है । आपने ऐसे लोग देखे होंगे जो जीवन-भर घूस लेते हैं और एक बार भी नहीं पकड़ाते । वे ‘नाम’ का सही प्रयोग करते हैं । कुछ लोग अज्ञानवश गलत नाम जपते हैं। शादी के लिए कुछ लोग हनुमान का जप करते हैं। इससे शादी होती भी हो तो न होगी । हनुमान बाल- ब्रह्मचारी हैं, वे शादी के विरोधी हैं। भला, उन्हें मालूम हो जाएगा, तो क्या वे शादी होने देंगे ? हर नाम अलग फल देता है । मैंने आपको बताया कि वर्तमान प्रेम की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए, भतपूर्व प्रेमिकाओं का नाम लेना चाहिए ।’

इतना कहकर प्रेम – विशेषज्ञ चला गया और अस्तभान विश्राम करने लगा । मुफतलाल ने देखा कि उसकी जरूरत नहीं है, इसलिए वह भी वहाँ से चल दिया ।

भेजना प्रेमपत्र और खुलना भेद का

नागफनी ने कहा, ‘सखि करेलामुखी, कितने दिन हो गये, कुमार का कोई समाचार नहीं मिला । वे कैसे हैं ? मुझे बड़ी चिंता लगी है ।’

करेलामुखी ने कहा, ‘राजकुमारी, वे अब अच्छे हैं । उन्हें डॉक्टर ने एक दर्जन पेनिसिलिन के इंजेक्शन लगाये हैं जिससे उनकी तबियत, अब काफी ठीक हो गई है । ‘

नागफनी ने कहा, ‘सखि, क्या मैं उन्हें फिर देख नहीं पाऊँगी ?”

‘राजकुमारी, तुम तो जानती हो कि उनसे भेंट होना असम्भव है । राजा साहब ने कड़ा पहरा लगा रखा है ।’

‘वे क्या आ नहीं सकते ? वे तो वीर-वंश के हैं । उनके पूर्वज कमंद से किले की दीवारों पर चढ़ जाते थे ।’

‘राजकुमारी, कमंद से चढ़ने के दिन गये । अब कहीं-कहीं किसी होस्टल में ऊपर से साड़ी नीचे डाली जाती है और उसके सहारे प्रेमी चढ़ जाता है । पर कुमार तुम्हारे विरह में इतने दुर्बल हो गये हैं कि उनसे यह भी नहीं बनेगा ।’

‘तो सखि, वे मुझे प्रेमपत्र क्यों नहीं लिखते ?’

‘प्रेमपत्र भी कैसे भेजें ? सारी डाक पहले राजा साहब के सामने जाती है । कहीं चिट्ठी पकड़ ली गई, तो अनर्थ हो जायेगा। राजा साहब का गुस्सा बड़ा खराब है । परसों एक बिल्ली ने उनके कमरे में ‘म्याऊँ’ किया, तो राजा साहब ने एक ही वार में उसका सिर काट लिया ।’

नागफनी उदास हो गई ।

करेलामुखी ने कहा, ‘कुमारी, मेरे पास एक पुस्तक है जिसमें प्रेम करने की पद्धति विस्तार से समझाई गई है । मैं वह पुस्तक लाती हूँ । शायद प्रेमपत्र भेजने का कोई रास्ता निकल आये ।’

करेलामुखी अपने कमरे में गयी और ‘प्रेम करने की कला’ नामक पुस्तक ले आयी । उसमें उसने ‘प्रेमपत्र भेजना’ शीर्षक अध्याय निकाला और उसे पढ़कर सुनाने लगी-

‘… प्रेमियों में पत्र-व्यवहार होना बहुत आवश्यक है । पत्र के द्वारा बार-बार यह विश्वास दिलाना जरूरी है कि मैं तुमसे प्रेम करता या करती हूँ। बहुत दिनों तक यदि पत्र न आये, तो किसी दूसरे को पत्र लिखने का मन होने लगता है । कई प्रेमी अपनी प्रेमिका के सामने घबड़ा जाते हैं और हकलाने लगते हैं । इनके लिए पत्र लिखना बहुत आवश्यक है, जो बात वे सामने नहीं कह पाते, वह पत्र में लिख सकते हैं । प्रेम पत्र लिखते समय मनुष्य का मन मुक्त हो जाता है। प्रकांड विद्वान् के प्रेमपत्र भी पढ़े जाएँ, तो उनसे मालूम होता है कि वह बड़ा बेवकूफ आदमी है जो प्रेमपत्र में मूर्खतापूर्ण बातें न लिखे, उसका प्रेम कच्चा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए । पत्र जितना मूर्खतापूर्ण हो, उतना ही गहरा प्रेम समझना चाहिए ।

‘… प्रेमपत्र भेजना एक बड़ी समस्या रही है । प्राचीन काल में कबू तरों के द्वारा प्रेमपत्र भेजे जाते थे। पर प्रेमिकाओं के पिता पत्रवाहक कबूतर को बहकाकर या उस पर अपना शिक्षित बाज छोड़कर पत्र प्राप्त कर लेते थे । किसी मित्र के द्वारा पत्र भेजने की भी प्रथा है, पर इसमें बड़ा धोखा है। अक्सर ऐसा हुआ है कि प्रेमी या प्रेमिका चिट्ठी लाने वाले से ही प्रेम करने लगे हैं। उर्दू के कवियों ने मित्र के द्वारा पत्र भेजने की गलती की थी जिसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा था ।

‘… प्रेमपत्र भेजने का सबसे नवीन और सरल तरीका है उसे पुस्तक में छिपाकर भेजना | प्रेमी या प्रेमिका के छोटे भाई-बहिनों को चाकलेट देकर उनसे पहले आत्मीयता पैदा करनी चाहिए। यदि भाई-बहिन न हों तो मुहल्ले के छोटे बच्चों से भी काम चल सकता है । चाकलेट छिपाकर देना चाहिए, क्योंकि यह तरीका इतना लोकप्रिय हो गया है कि जब लोग किसी को, बच्चों को चाकलेट बाँटते देखते हैं तो समझ जाते हैं कि इसे प्रेमपत्र भेजना है । जब बच्चा विश्वास में आ जाए, तब प्रेमिका उससे कहे, ‘मुन्नू, दादा से पढ़ने के लिए पुस्तक ले आओ ।’ (दादा अर्थात् प्रेमी) मुन्नू भर – दोपहरी में दौड़ते हुए दादा के पास पुस्तक माँगने पहुँचेंगे। दादा को समझ जाना चाहिए कि दीदी पुस्तक नहीं चाहतीं, पुस्तक में चिट्ठी चाहती हैं। वह मुन्नू को एक चाकलेट दे और किसी उपन्यास में चिट्ठी रखकर पुस्तक उसके हाथ में रख दे । मुन्नू भागते हुए जाएँग और दीदी के हाथ में ‘पुस्तक रख देंगे। अब दीदी भी मुन्नू को एक चाकलेट दे । इस प्रकार जब तक मुन्नू दो चाकलेटों के लोभ में किसी और को पुस्तक न दे दें, पत्र- व्यवहार चल सकता है ।

…’ पुस्तकों का बड़ा महत्त्व है । कहते हैं छापे की मशीन ने मनुष्य के जीवन में क्रान्ति कर दी है। यह सही है । अब पुस्तकें बड़ी संख्या में छपती हैं, इसलिए सबसे बड़ी क्रान्ति यह हुई है कि प्रेमपत्र भेजना सरल गया है । इसी कारण प्रेम भी बहुतायत से होने लगा है । प्राचीन काल का युवक प्रेम क्यों नहीं कर सकता था ? उन दिनों पुस्तकें आसानी से नहीं मिलती थीं । गुरुकुल में पढ़ने वाले युवक के पास एकाध हस्तलिखित पोथी होती थी । यदि वह उसी में प्रेमपत्र भेज देता तो पढ़ता कैसे ? और जब गुरु पूछते कि वह पोथी कहाँ है, तो उत्तर क्या देता ?…’

यह अध्याय सुनकर नागफनी की आँखें खुल गईं। उसने कहा, ‘सखि, रीति तो अच्छी है । पर राजकुमार बहुत दूर रहते हैं । यहाँ से वहाँ बच्चे नहीं आ-जा सकते।’

करेलामुखी ने यह समस्या भी हल कर दी । उसने कहा, ‘अपने महल के पास जो इन्जीनियरिंग कॉलेज के प्रोफेसर रहते हैं, वे मुफतलाल के मित्र हैं। उनके छोटे भाई द्वारा चिट्ठी प्रोफेसर साहब को भेज देंगे और वे उसे मुफतलाल के पास भेज देंगे । इस सेवा के लिए हम लोग प्रोफेसर को कुछ पारिश्रमिक दे दिया करेंगे। तुम जानती हो, प्रोफेसर को वेतन बहुत कम मिलता है ।’

करेलामुखी ने प्रोफेसर से बात करके सब योजना बना ली। नागफनी ने प्रोफेसर के छोटे भाई के द्वारा एक पुस्तक पढ़ने को मँगाई और दो-तीन – दिन बाद जब पुस्तक लौटाई, तो उसमें चिट्ठी रख दी ।

जब मुफतलाल ने वह चिट्ठी अस्तभान को दी, तो वह प्रसन्नता से बेहोश सा हो गया । ८-१० बार उसे पढ़ने के बाद बोला, ‘यह चिट्ठी आयी कैसे ?’ मुफतलाल ने प्रोफेसर की सेवाओं का उल्लेख किया ।

अस्तभान ने कहा, ‘मित्र, मुझे इन प्रोफेसरों पर जरा भी भरोसा नहीं है । जो मुझे ५ नम्बर नहीं दे सके, वे क्या मेरे प्रेमपत्र पहुँचाएँगे ?”

मुफतलाल ने कहा, ‘नहीं कुमार, सब एक जैसे नहीं होते । यह प्रोफसर मेरा मित्र है । ईमानदार आदमी है। जो पैसे दे देता है उसके नम्बर अवश्य बढ़ा देता है । ‘

अस्तभान ने नागफनी को एक चिट्ठी लिखी और मुफतलाल ने उसे प्रोफेसर के पास पहुँचा दिया। प्रोफेसर ने चिट्ठी एक उपन्यास में रखकर प्यारे मुन्न के हाथ नागफनी को भेज दी ।

इस तरह दोनों की चिट्टी-पत्री चलने लगी ।

एक दिन की बात है। प्रोफेसर जरा जल्दी में था । अस्तभान की चिट्ठी भेजनी थी। जल्दी में जो पुस्तक उसके हाथ में आई, उसी में उसने चिट्टी रख कर मुन्नू को दे दी । मुन्नू एकदम पुस्तक लेकर महल में घुस गया ।

नागफनी के कमरे के पास ही राजा राखड़सिंह खड़े थे । उन्होंने मुन्नू पूछा ‘कहाँ जा रहा है ?”

‘दीदी के पास ।’

‘क्यों ?’

‘पुस्तक देने ।’

‘किसने भेजी ?’

‘हमारे बड़े भैया ने । दीदी ने पढ़ने के लिए मँगाई थी ।’

‘देखूं,’ कहकर राजा साहब ने पुस्तक हाथ में ले ली । पुस्तक का नाम देखा – ‘मेकेनिकल इंजीनियरिंग’ । बड़े चकराए – यह तो सुना है कि जवान लड़कियाँ उपन्यास पढ़ती हैं; पर जवानी में इंजीनिरिंग की पुस्तक पढ़ने वाली यही एक निकली। राजा को शक हुआ। पुस्तक खोलकर देखी । चिट्ठी हाथ में आ गयी । खोली, तो आँख चढ़ गई । मुन्नू ने राजा का मुँह देखा, तो हवा हो गया ।

राजा ने नागफनी को पुकारा । नागफनी आकर खड़ी हो गयी ।

‘क्या है पिताजी ?”

‘बेटा, तू बहुत अध्ययन करने लगी है ।’

‘हाँ पिताजी, अब तो मैं रात-दिन पढ़ती ही रहती हूँ ।’

‘बड़ी अच्छी बात है । तू आजकल इंजीनियरिंग का अध्ययन कर रही है ?’

‘इंजीनियरिंग ? पिताजी, आपको क्या हो गया है ? मैं इंजीनियरिंग क्यों पढ़ूँगी?’

राजा साहब ने पुस्तक आगे करके कहा, ‘प्रोफेसर का भाई यह पुस्तक तेरे लिए पढ़ने को लाया था ।’

नागफनी गड़ गई ।

राजा साहब ने कहा, ‘और उसमें रखी चिट्ठी मुझे मिल गई है । मैंने तुझे आगे प्रेम करने से मना किया था न ? फिर क्यों किया ?”

नागफनी ने धीरे से कहा, ‘किया नहीं है।’

‘किया नहीं है ? फिर यह चिट्ठी ?’

‘किया नहीं है । हो गया है ।’

राजा क्रोध से थरथर काँपने लगे। कहा, ‘हो गया है ? मैं देखता हूँ कैसे होता है। अब अगर उस बदमाश अस्तभान को चिट्ठी लिखी तो मैं तुम दोनों का सिर काट लूंगा। मैं तेरी शादी जल्दी ही करने वाला हूँ ।’

नागफनी ने नीचे देखते हुए कहा, ‘तो उन्हीं से कर दीजिए ।’

राजा ने आँखें तरेरकर देखा । कहा, ‘उससे नहीं हो सकती । वह बदमाश है । वह दूसरों की लड़कियों को प्रेमपत्र लिखता है । लुच्चा कहीं का ।’

नागफनी की आँखों से आँसू टपकने लगे ।

राजा ने कड़ककर कहा, ‘खड़ी खड़ी रोती क्यों है ? जा कमरे में । मेरी बात भूलना मन ।’

नागफनी ने साड़ी का पल्ला मुँह में ठूँसा और कमरे में भाग गयी ।

उस दिन से पहरा और कड़ा हो गया ।

कई दिन तक नागफनी की चिट्ठी नहीं पहुँची तो अस्तभान घबड़ाया । उसने मुफतलाल से कहा । मुफतलाल प्रोफेसर से मिला । लौटकर आया तो कहने लगा, ‘कुमार, बड़ा अनर्थ हो गया। प्रोफेसर ने असावधानी में आपकी चिट्ठी मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पुस्तक में रखकर भेज दी। राजा – साहब को शक हो गया और उन्होंने चिट्ठी पकड़ ली ।’

अस्तभान कुर्सी में लुढ़क गया । बोला, ‘मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि इन प्रोफेसरों का मुझे जरा-सा भरोसा नहीं है । ये मेरे पीछे पड़े हैं । विद्या के क्षेत्र में मुझे मारा और अब प्रेम के क्षेत्र में मार रहे हैं । कैसा नालायक है। जिसे प्रेमपत्र भेजने का शऊर नहीं है, वह पढ़ाता क्या होगा ?’

मुफतलाल अपराधी की तरह खड़ा रहा। दोनों बड़ी देर तक मौन रहे । अस्तभान कराहते हुए बोला, ‘अब क्या होगा ? अब तो मुझे उसका – समाचार भी नहीं मिल सकता । वह बड़ी साँसत में होगी, यह सोच सोच- – कर मेरा कलेजा लौकता है ।’

मुफतलाल कुछ नहीं बोला । कराहते – कराहते अस्तभान को नींद आ गई। मुफतलाल दबे पाँव बाहर हो गया ।

इन्टरव्यू मुफतलाल का होना डिप्टी कलेक्टर

पाठक भूले न होंगे कि मुफतलाल ने डिप्टी कलेक्टर के पद के लिए आवेदन किया था ।

राज्य में शासकीय नौकरियों के लिए भरती दो स्थितियों में होती थी — तब, जब पद खाली हो और उन्हें भरने के लिए उम्मीदवारों की जरूरत हो, और तब, जब विशेष उम्मीदवार खाली हों और उन्हें भरने के लिए पदों की आवश्यकता हो । शासकीय सेवा संहिता के अनुच्छेद २ की धारा ११, उपधारा ३ में ‘विशेष उम्मीदवार’ की परिभाषा यह दी गई थी — ‘ऐसा पदेच्छु नागरिक, जिसकी योग्यता अविशेष हो, पर सम्बन्ध विशेष हों – अर्थात् राज्य में किसी ऐसे व्यक्ति का वह कृपापात्र हो, जो स्वयं शासक हो या जिसका शासनकर्ताओं पर प्रभाव हो ।’

जब पदों को आदमियों की, या आदमियों को पदों की आवश्यकता होती, तब सरकार ‘आवश्यकता है’ शीर्षक के अन्तर्गत आवेदन-पत्र मँगाने के लिए विज्ञप्ति प्रकाशित कराती । राज्य के अखबार केवल इस विज्ञप्ति के कारण ही खरीदे जाते थे । जिस अखबार में यह शीर्षक नहीं दिखता, उसे कोई नहीं खरीदता था । बिक्री बढ़ाने के लिए कुछ अखबार धोखा भी करते थे । एक अखबार ऊपर बड़े अक्षरों में छापता – ‘आवश्यकता है, और जब लोग इस शीर्षक से आकर्षित होकर अखबार खरीद लेते, तब नीचे यह लिखा हुआ मिलता – ‘नदी को पर्वत की, वृक्ष को भूमि की, गाय को घास की, बच्चे को माँ की, नंगे को कपड़े की, अंधे को आँख की, कुत्ते को पट्टे की, बैल को सींग की, मालिक को नौकरी की, भगवान को भक्त की, गधे को चन्दन की, बन्दर को आभूषण की — आवश्यकता किसे नहीं है ? अर्थात् सब को है ।’ यह धाँधली देख कर दूसरे अखबार ने चेतावनी छापी – ‘नक्कालों से सावधान । हमारे पत्र की बिक्री देखकर कुछ पत्र ‘आवश्यकता है’ शीर्षक देकर निरर्थक बातें छापकर भोली-भाली जनता को धोखा देते हैं । इन विज्ञप्तियों में नौकरी के लिए आवेदन करने की सूचना नहीं रहती । हम जनता को चेतावनी देते हैं कि असली विज्ञप्ति देखकर और पूरा मजमून पढ़कर ही अखबार खरीदें । नक्कालों से सावधान रहें ।’

एक-एक पद के लिए कई हजार आवेदन पत्र आते । इन्हें छाँटने में दो-तीन साल लग जाते। इसके बाद उम्मीदवारों की परीक्षा और इण्टरव्यू होता । नियम के अनुसार हर उम्मीदवार को हर तीन महीने में सूचित करना पड़ता था कि मैं अभी जीवित हूँ। जो सूचना नहीं देता, उसे मरा मानकर उसका नाम काट दिया जाता था । इससे चुनाव में सुविधा होती थी ।

दो वर्ष बाद मुफतलाल को ‘शासकीय सेवा विभाग’ के कार्यालय से सचिव के एक पत्र को नकल, संचालक, सेवा विभाग के मार्फत, मिली । उस समय विभाग के सचिव श्रीमान् अस्पष्टजी थे । पत्र की नकल नीचे दी जा रही है-

‘कार्यालय, शासकीय सेवा विभाग

प्रति,

श्री मुफतलाल, बी० ए०

संदर्भ :- डिप्टी कलेक्टरी के लिए आपका आवेदन-पत्र

आपको सूचित किया जाता है कि आपका आवेदन-पत्र यथासमय इस कार्यालय में प्राप्त हो गया । ‘शासकीय सेवा अधिनियम की धारा १७ के अनुसार आप एक माह के भीतर इस कार्यालय को प्रमाण पत्र सहित यह सूचित करें कि आप किसके ‘आदमी’ हैं, तथा वे किस श्रेणी में हैं ।

सही – ( अस्पष्ट )

सचिव ।’

मुफतलाल ने एक सप्ताह के भीतर ही कार्यालय को सूचित कर दिया। उसके पत्र की नकल नीचे दी जा रही है-

‘सेवा में,

श्रीमान् अस्पष्ट साहब,

सचिव,

शासकीय सेवा विभाग ।

महाशय,

मुझे सूचित करते गर्व होता है कि मैं कुंअर अस्तभान का ‘आदमी’ हूँ। मैं उनके परिवार के सदस्य जैसा हूँ । अपने सम्बन्ध के प्रमाण हेतु मैं एक फोटोग्रुप की नकल भेज रहा हूँ जिसमें मैं उनके साथ खड़ा हूँ ।

विनम्र,

मुफतलाल ।’

स्पष्ट है कि हर उम्मीदवार किसी ‘बड़े’ का ‘आदमी’ होने की कोशिश करता था । इन ‘बड़ों’ की तीन श्रेणियां होती थीं । राजपरिवार के सदस्य, मंत्री और उपमन्त्री ‘क’ श्रेणी में आते थे; विधानमंडल के सदस्य और विभागीय सचिव ‘ख’ श्रेणी में होते थे और इन्हें प्रभावित कर सकने वाले ‘ग’ श्रेणी में । यह श्रेणी – विभाजन पद के अनुसार ही नहीं, प्रभाव के अनुसार भी होता था । मुख्य आमात्य का निजी डॉक्टर ससम्मान ‘अ’ श्रेणी में रखा गया था। उसके प्रभाव का कारण स्पष्ट है ।

कार्यालय में सूचनाएँ आ जाने पर बड़े आदमी की श्रेणी के अनुसार उम्मीदवारों का वर्गीकरण हो जाता। इसके बाद एक फर्म की उपादेयता स्पष्ट करने के लिए मुफतलाल से सम्बन्धित जानकारी सामने के पृष्ठ पर दी जाती है-

उम्मीदवारों के इंटरव्यू और चुनाव के लिए पाँच अफसरों का एक आयोग बैठता था। आयोग के सदस्यों के पास फार्म ‘ख’ पहले ही भेज दिया जाता था और वे दो प्रकार के प्रश्न तैयार कर लेते थे – जिसे लेना है, उसके लिए एक प्रकार के प्रश्न और जिसे नहीं लेना, उसके लिए दूसरे प्रकार के ।

शासकीय सेवा विभाग

फार्म ख

नाम – मुफतलाल

योग्यता – बी० ए०

उम्र – २८ वर्ष

किसका आदमी ? – कुंअर अस्तभान का

श्रेणी – क

सम्बन्ध – मित्र

भेंटआदि का विवरण – कुछ नहीं

लेना या नहीं – लेना

विशेष – …

जैसा कि फार्म ‘ख’ से स्पष्ट होगा, जो किसी का ‘आदमी’ नहीं होता था, उसकी नियुक्ति की कोई संभावना नहीं होती थी। ऐसों को इंटरव्यू के लिए भी नहीं बुलाया जाता था। इनमें जो असाधारण योग्यता वाला होता, उसे न्याय के प्रदर्शन के हेतु इंटरव्यू के लिए बुला तो लिया जाता, पर वहाँ वह अयोग्य सिद्ध कर दिया जाता था ।

………………………..

उस युवक ने पूछा, ‘और आप किसके आदमी हैं ?’

मुफतलाल ने गर्व से उत्तर दिया, ‘कुँवर अस्तभान का ।’

‘और आपकी योग्यता ?’

‘और योग्यता किसे कहते हैं ?’ मुफतलाल ने तुनककर जवाब दिया ।

युवक मुस्कुराया । मुफतलाल को पहली बार बुरा लगा। उसे लगा, जैसे उसका फर्स्ट क्लास मेरे थर्ड क्लास के पीछे हँसी उड़ाता, आवाजें कसता भाग रहा है | उसने जहरीली आवाज में कहा, ‘डिप्टी कलेक्टर मैं ही बनूंगा, तुम नहीं बन सकते। कभी तुम भूखे मरने लगो और अपनी प्रतिभा को खा न सको तो मेरे पास आना । मैं तुम्हें अपने दफ्तर में क्लर्क बना लूंगा ।’

युवक कुछ जवाब देना चाहता था कि इसी समय उसका नाम पुकारा गया और वह रूमाल मुँह पर फेरकर भीतर चला गया ।

भीतर पाँच सयाने बैठे थे । वे उम्मीदवारों के इंटरव्यू लेते थे, उनसे प्रश्न पूछते थे और योग्य उम्मीदवारों का चुनाव करते थे ।

एक सयाने ने उस युवक से नाम पूछा। नाम सुनकर उन सबने फार्म ‘ख’ देखा । उसमें लिखा था- ‘किसी का आदमी नहीं ।’

सयाने उससे प्रश्न पूछने लगे ।

एक ने पूछा, ‘वेदांत की माया और सांख्य की प्रकृति में क्या भेद है ?”

उम्मीदवार ने दर्शन का इतना अध्ययन नहीं किया था। वह नहीं जानता था कि डिप्टी कलेक्टरी के लिए दार्शनिक की आवश्यकता है । फिर भी वह सोचकर उत्तर देने का प्रयत्न करने लगा ।

सयानों के मुखिया ने मुँह बनाकर कहा, ‘कितनी देर लगाते हो ! डल ! वेरी डल !’

दूसरे सयाने ने प्रश्न किया, ‘कान्ट ने विशुद्ध तर्क की क्या प्रवृत्ति प्रतिपादित की है ?”

उम्मीदवार फिर चकरा गया। उसने दर्शन नहीं पढ़ा था। वह मुँह देखने लगा । उसे पसीना आने लगा ।

…………………..

तीन साल भी और दस साल भी । किसी-किसी को तो रिटायर होने की उम्र में नियुक्ति पत्र मिलता है । पर तुम कुँअर साहब के आदमी हो, इसलिए तुम्हारी नियुक्ति जल्दी हो जाएगी । जाओ, तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है ।’

मुफतलाल ने सयानों को प्रणाम किया और बाहर आ गया ।

…………………….

विलास-मन्त्री ने आज तक अपने राजा की इच्छा पूरी करने में देर नहीं की थी । वह तुरन्त विवाह का प्रस्ताव लेकर राजा राखड़सिंह के दरबार में पहुँचा ।

उसने दो थाल हीरे-जवाहरात राखड़सिंह के सामने रखकर कहा, “महाराज, हमारे राजा साहब ने आपके श्रीचरणों में तुच्छ भेंट सादर समर्पित की है ।’

राखड़सिंह ने मुस्कराते हुए कहा, ‘मैं बहुत प्रसन्न हुआ । राजा निर्बल- सिंह अब दूसरे लोक जाने की तैयारी कर चुके हैं। ऐसी हालत में भी, यह भेंट ईश्वर- अर्पण न करके मुझे अर्पित की है, तो इसमें अवश्य उनका कोई महान् प्रयोजन होना चाहिए।’

विलास-मन्त्री ने निवेदन किया, ‘महाराज का अनुमान सत्य है । हमारे महाराज मृत्यु के पहले एक बार और विवाह करना चाहते हैं । उन्होंने राजकुमारी नागफनी के रूप और गुण की प्रशंसा सुनी है और आपकी सेवा में मुझे सम्बन्ध निश्चित करने के लिए भेजा है ।’

यह सुनकर राजा राखड़सिंह विचार में पड़ गये। विचार करने का उन्हें कभी अभ्यास नहीं था, इसलिए विचार की पीड़ा उनके मस्तक पर स्पष्ट उभर आई । उन्होंने कहा, ‘मन्त्री, यह मेरा सौभाग्य है कि राजा निर्बलसिंह जैसे यशस्वी राजा मेरे दामाद बनना चाहते हैं । पर वे तो मृत्युशय्या पर हैं। संभव है तुम मेरी स्वीकृति लेकर जब पहुँचो, तब उनकी अर्थी बँधती हो । ऐसी स्थिति में वे विवाह क्यों करना चाहते हैं ?”

विलास – मन्त्री ने उत्तर दिया, ‘महाराज, हमारे राजा इस लोक के सुख के लिए नहीं, उस लोक के सुख के लिए विवाह करना चाहते हैं । वे ज्ञानी हैं। जानते हैं कि यदि उनकी अर्थी पर तरुणी पत्नी की चूड़ियाँ नहीं फूटीं, तो उस लोक में उन्हें सुख नहीं मिलेगा ।’

राजा राखड़सिंह ने कहा, ‘मन्त्री, उनका विचार नीति-संगत है । परन्तु मैं यदि अपनी लड़की देकर उनका परलोक सुधारने में सहायता करूंगा, तो मेरे और मेरी लड़की के इहलोक का ध्यान भी तो उन्हें रखना चाहिए ।’

विलास मंत्री अनुभवी था । वह इस स्थिति के लिए तैयार था । उसने कहा, ‘सो सब हमारे राजा साहब के ध्यान में है । इस विवाह में उनका एक उद्देश्य और है । उनके पुत्रों में राजगद्दी के लिए कठिन स्पर्धा है । वे नहीं तय कर पा रहे हैं कि किसे राजगद्दी दें। यदि राजकुमारी नागफनी से उनका विवाह हो गया, तो वे यह कहकर इस समस्या को टाल देंगे कि मैंने वचन दिया है कि नवीन रानी का पुत्र राजगद्दी प्राप्त करेगा । यह तो निश्चित ही है कि नवीन पत्नी से पुत्र प्राप्त करने के पहले ही वे स्वर्ग सिधार जाएँगे । उनके बाद नागफनी देवी राज करेंगी। ऐसा तो होता आया है । महाराज शान्तनु ने सत्यवती को यही वचन तो दिया था । जब राजा वृद्धावस्था में नया विवाह करता है तो उसके पुत्र समझ जाते हैं कि नई रानी के पुत्र को गद्दी मिलेगी ।’

राखड़सिंह को प्रस्ताव पसंद आया । पर वे भविष्य में दूर तक विश्वास नहीं करते थे । उन्होंने कहा, ‘यह तो दूर की बात हुई । पास की बात कहो । तुम्हें याद रखना चाहिए कि राजा निर्बलसिंह की सद्गति के लिए. मैं कितना बड़ा बलिदान कर रहा हूँ ।’

विलास-मन्त्री ने पुनः नमन करके कहा, ‘महाराज, उसका भी विचार किया है । आप ऐसा समझें कि आप पुत्र का विवाह कर रहे हैं, पुत्री का नहीं । हमारे महाराज बिस्तर से नहीं उठ सकते । इसलिए बारात लेकर आपको आना पड़ेगा। इससे आप एक नई परम्परा को जन्म देंगे और भविष्य में विवाह-लोलुप वृद्ध आपको आशीर्वाद देंगे । आप नहीं जानते, वृद्धों को बारात लेकर जाने में कितनी तकलीफ होती है । यदि यह नई परम्परा आरंभ हो गई, तो अरथी उठते-उठते भी बूढ़ों का विवाह हो सकेगा । आप जब बारात लेकर आयेंगे तो दहेज वगैरह राजा साहब की ओर से आपको मिलेगा और राजा साहब मुँह माँगा देंगे ।’

राजा राखड़सिंह को इस व्यवस्था से संतोष हुआ। पर वे चतुर उन्होंने कहा, ‘मैं चार-पांच दिनों में अपना निर्णय बतलाऊँगा ।’

विलास मंत्री का हृदय बैठने लगा । वह हाथ जोड़कर बोला, ‘महाराज, वहाँ तो घड़ी घट रही है । न जाने चार दिनों में क्या हो जाए !’

राजा राखड़सिंह हँसे । कहने लगे, ‘तुम निश्चित रहो । वे अभी मरेंगे नहीं । एकाध महीने उनका मन विवाह में अटका रह सकता है । मैं निर्बल सिंह को जानता हूँ । तुम जाओ और मेरे संदेश की प्रतीक्षा करो ।’

विलास – मंत्री प्रणाम करके चला गया ।

इधर जब नागफनी को यह बात मालूम हुई तो वह रोने लगी । रोती- रोती वह अपने पिता के पास आयी और बोली, ‘पिताजी, आप मुझे कुएँ में क्यों नहीं डाल देते ?”

‘वही कर रहा हूँ,’ असावधानी में उनके मुँह से निकल गया । सँभल- कर कहा, ‘तुझे शर्म नहीं आती ? बाप के सामने मुंह खोलती है ?’

‘पर मैं चुप भी कैसे रहूं ? आप मेरा जीवन नष्ट करने पर तुले हैं।’

‘सुन, लड़की का जीवन अपना नहीं होता, विवाह के पहले बाप के अधिकार में होता है और विवाह के बाद पति के । वे उसे नष्ट कर सकते हैं और मैं तो तेरे भले की सोच रहा हूँ ।’

‘इसमें मेरा क्या भला है ? वे इतने वृद्ध हैं ।’

‘पुरुष कभी बूढ़ा नहीं होता । निर्बलसिंह अभी कुल १०० साल के तो हुए ही हैं और फिर तेरे सामने महान् परम्परा है। पति जैसा हो, पत्नी को भी वैसी हो जाना चाहिए। धृतराष्ट्र अंधे थे तो गांधारी जीवन-भर आँखों पर पट्टी बाँधे रही ।’

नागफनी ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, पर राखड़सिंह तुरन्त बोल उठे, ‘बेटी, तेरा भाग्य खुल रहा है। निर्बलसिंह की यह अंतिम शादी होगी और अस्तभान की पहली । निर्बलसिंह के यहाँ सबसे ऊँची प्रतिष्ठा तेरी होगी। पर अस्तभान तो अभी और विवाह भी करेगा और तेरी प्रतिष्ठा ‘घटती जाएगी। इसलिए अस्तभान का ख्याल छोड़कर निर्बलसिंह से शादी कर ले ।’

नागफनी ने पुनः विरोध किया। तब राखड़सिंह ने क्रोध से कहा, ‘अब मैं तेरी कोई बात सुनने को तैयार नहीं। अगर तू नहीं मानेगी, तो मैं तुझे मारकर तेरी लाश की शादी कर दूंगा । जा, दूर हो मेरे सामने से ।’

नागफनी रोती हुई अपने कमरे में चली गयी ।

थोड़ी देर बाद करेलामुखी आयी । नागफनी ने उसे सब बातें बताईं और कहा, ‘चौथे दिन मेरी शादी हो जाएगी और पाँचवें दिन मैं विधवा हो जाऊँगी ।’ दोनों सखियाँ बड़ी देर तक गले लगकर रोती रहीं ।

करेलामुखी ने पहले आँसू पोंछे । सहसा उसके मुख पर दृढ़ता आ गई, उसमें अद्भुत तेज का उदय हुआ और उसने कहा, ‘राजकुमारी, तुम घबड़ाओ मत। यह अन्याय मेरे प्राण रहते नहीं हो सकेगा । तुम्हारा प्रेमी भी क्षत्रिय है । कितना भी पतला हो, पर है तो उसकी नसों में भी उन्हीं प्राचीन वीरों का रक्त । तुम तो वीरों का इतिहास जानती हो । जब किसी राजकुल की कन्या पर ऐसा संकट आया है, उसने प्रेमी को अन्तिम सन्देशा भेज दिया है और प्रेमी आकर उसे ले गया है । संयोगिता को पृथ्वीराज चौहान इसी प्रकार ले गये थे । तुम कुँअर अस्तभान को अन्तिम संदेशा भेजो ।’

नागफनी ने पूछा, ‘संदेशा ले कौन जाएगा ?’

‘मैं ले जाऊँगी, चाहे मेरी जान चली जाए, करेलामुखी ने कहा ।

दोनों ने मिलकर सन्देशे का मसौदा बनाया और दोपहर को जब पहरे- दार अफीम खाकर ऊँघ रहे थे, करेलामुखी महल के बाहर निकल गई । बाहर निकलकर उसने एक मोटर किराये पर ली और शाम होते-होते अस्तभान के महल पहुँच गई ।

अस्तभान और मुफतलाल ने उसे देखा तो अचरज में आ गए । उन्हें आशंका ने घेर लिया । कुछ अनर्थ हो गया है !

करेलामुखी ने जाते ही कहा, ‘मेरे पास बहुत समय नहीं है । राज- कुमारी का संदेश देने मैं आयी हूँ । उन्होंने कहलाया है—’आज से चौथे दिन मेरा विवाह राजा निर्बलसिंह से कर दिया जायगा । अगर आपकी भुजाओं में बल है, तो मुझे यहाँ से निकाल ले जाएँ ।’

अस्तभान सन्नाटे में आ गया । उससे पहले तो कुछ बोलते नहीं , फिर घबड़ाता हुआ बोला, ‘तुम बैठो। मुझे विस्तार से सब बातें तो ‘बताओ ।’

करेलामुखी ने कहा, ‘इसमें विस्तार कुछ है ही नहीं । कुल इतनी सी बात है । आपकी भुजाओं में बल हो तो अपनी चहेती को प्राप्त करें ।’

इतना कहकर वह चली गयी ।

…………………….

कीमत पर दोनों को हथियार बेचने लगे । पिताजी चाहते थे कि दोनों में युद्ध हो जाए । पर एक दिन सुना कि दोनों ने संधि कर ली। यह सुनकर पिताजी के हृदय को बड़ा आघात लगा । दो-तीन दिन तो वे किसी से बोले नहीं । अब हमारे हथियार कौन खरीदेगा ? चौथे दिन उन्होंने हमारी सेना से १०० सैनिक निर्बलसिंह के सैनिकों के रूप में राखड़सिंह के राज्य में भेज दिए । उन्होंने सीमा पर लड़ाई शुरू कर दी । परिणाम जो चाहा था, वही हुआ। दोनों राज्यों में भयंकर युद्ध शुरू हो गया और हमारे सब हथियार बिक गए ।’

मुफतलाल का सिर चकराने लगा। उसने कहा, ‘कुमार, मुझे इन रहस्यों से कोई मतलब नहीं। मैं तो आपका सेवक हूँ । मैं तो चाहता हूँ कि आपका विवाह देवी नागफनी से हो जाए तो मैं अपनी नौकरी पर जाऊँ । पर निर्बलसिंह के बीच में आ जाने से परिस्थिति बिगड़ गई है ।’

अस्तभान, जो अपने कुल की युद्ध – परम्परा के वर्णन में खो गया था, अब फिर चिन्ता में पड़ गया। बोला, ‘मित्र, तू ही कुछ कर । मेरी अक्ल कुछ काम नहीं करती। किसी तरह नागफनी को यहाँ लाना होगा ।’

मुफतलाल थोड़ी देर सोचता रहा। फिर बोला, ‘कुमार, नगर के पास एक आश्रम में बड़े पहुँचे हुए महात्मा, जोगी, प्रपंचगिरि रहते हैं । वे बड़े- बड़े चमत्कार करते हैं। मैं उनके पास जाऊँगा । वे देवी नागफनी को प्राप्त करने की तरकीब बताएँगे ।’

अस्तभान के चेहरे पर आशा चमक उठी । बोला, ‘मित्र, तू एकदम जा। देर मत कर । मेरी साँस अटकी है ।’

मुफतलाल उठकर चला गया ।

इधर अस्तभान ने अपनी भुजाओं को फिर खोलकर देखा और अर्द्ध- मूर्च्छित हो बिस्तर पर लेट गया । बड़बड़ाता जाता था – ‘अगर आपकी भुजाओं में बल हो तो…’

आना जोगी प्रपंच गिरि का

जोगी प्रपंचगिरि बड़े पहुँचे हुए महात्मा थे । वे पहले राखड़सिंह के राज्य में चोरी करते और डाका डालते थे। तब उनका नाम जालमसिंह था । एक बार पकड़े गये । जिस अफसर का उन्होंने मासिक अलाउंस बाँध रखा था उसे तीन महीने से अपना पैसा नहीं मिला था, इसलिए उसने उन्हें पकड़ लिया । जालमसिंह पर डाका डालने और हत्या करने का मुकदमा चला और आजन्म कैद की सजा हो गई। एक साल बाद ही जालमसिंह जेल से भाग गया और गिरोह बनाकर फिर डाका डालने लगा ।

एक दिन उसकी भेंट एक संत से हो गई । संत के कारण सारे डाकू परेशान थे । वे पुलिस से इतना नहीं डरते थे जितना इस संत से । जो डाकू मिल जाता, संत उसका हृदय परिवर्तन कर देते । डाकू अपना-अपना हृदय बचाए भागे फिरते थे । संत आते दिखते तो डाकू चिल्लाकर एक-दूसरे को सावधान कर देते – ‘अरे भागो ! संत आ रहे हैं। पकड़ लिया तो हृदय बदल देंगे ।’

एक दिन जालमसिंह बड़ा हठ करके सन्त के पास गया । उसके साथियों ने रोका तो उसने बड़ी अकड़ से कहा, ‘वे कोई और होंगे जिनका हृदय बदल जाता होगा । मेरा तो हृदय ही नहीं है, बदलेगा क्या ?”

जालमसिंह सन्त के पास गया । वहाँ जाते ही उसका मारा अभिमान मिट्टी में मिल गया । एक दिन में ही उसका हृदय परिवर्तन हो गया । उसने वैराग्य ले लिया और शेष जीवन मानव सेवा में लगाने का संकल्प

………………………….

प्रपंचगिरि पर झपटा। मुफतलाल एकदम बीच में आ गया । अस्तभान ने तलवार नीची कर ली । मुफतलाल ने कहा, ‘आप एकाएक इतने उत्तेजित हो गए ?”

अस्तभान क्रोध से फुफकार रहा था। कहा, ‘मैं इस जोगी का सिर काट लूंगा । इसने नागफनी को ‘हरामजादी’ कहा ।’

मुफतलाल जोर से हँस पड़ा । बोला, ‘कुमार, आप भी बहुत भोले हैं । आप यह तो सोचिए कि जोगी प्रपंचगिरि पहुँचे हुए महात्मा हैं, परमहंस हैं | महात्मा ऐसा बोला ही करते हैं । जो जितना अंडबंड बकता है, वह उतना ही बड़ा महात्मा होता है । उनकी गाली तो आशीर्वाद होती है । अगर उन्होंने राजकुमारी नागफनी को ‘हरामजादी’ कह दिया है तो निश्चित मानिए कि उनका सौभाग्य अटल रहेगा ।’

अस्तभान को अपने पर लज्जा आने लगी। उसने तलवार म्यान में डाली और प्रपंचगिरि से क्षमा माँगने लगा, ‘क्षमा करिए संतवर, मैंने आपको पहचाना नहीं था । अब मेरी आँखें खुल गईं ।’

प्रपंचगिरि के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘कोई बात नहीं, कुमार ! अज्ञान में ऐसी भूलें हो ही जाती हैं। मैं आपका काम करूँगा । राजकुमारी नागफनी को भगाकर आश्रम में ले जाऊँगा । काम जरा कठिन है, इसलिए अपने चेलों को न भेजकर मैं स्वयं जाऊँगा । मेरे साथ साधु-भेष में मुफतलाल होंगे और मेरे चार विश्वासी चेले । अच्छा, अब मैं चलता हूँ ।’

थोड़ी देर बाद जोगी प्रपंचगिरि अन्तर्धान हो गए ।

दूसरे ही दिन राजा राखड़सिंह के राजमहल वाली सड़क पर जोगी प्रपंचगिरि चले जा रहे थे, उनके साथ था साधु-वेश में मुफतलाल और पीछे चार तगड़े चेले ।

सहसा एक पुलिस की गाड़ी आकर रुकीं और उसमें से दो-तीन पुलिस अफसर कूदे । पन्द्रह-बीस सिपाही भी निकले और पलक मारते प्रपंचगिरि और उनके साथियों को घेर लिया ।

एक अफसर ने बढ़कर प्रपंचगिरि से पूछा, ‘क्या नाम है तुम्हारा ?’

प्रपंचगिरि हँसते-हँसते बोले, ‘हमारा याने किसका ? इस ढाँचे का जिसे ‘देह’ कहते हैं, या उस आत्मा का जो इस देह में स्थित है ? उसका तो कोई नाम नहीं ।’

अफसर को क्रोध आ गया। उसने कहा, ‘ठीक से नाम बताता है कि लगवाऊँ कोड़े ?’

प्रपंचगिरि ने उसी प्रकार हँसते हुए कहा, ‘कोड़े ही लगवा ले ! कोड़े देह को ही तो लगेंगे। तू आत्मा को कोड़े नहीं मार सकता । नैनं छिन्दंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’

मुफतलाल प्रपंचगिरि के उस सौम्य, अविचल रूप को देखकर मुग्ध हो गया । पुलिस न होती तो वह उनके चरणों पर गिर पड़ता । उसने किसी साधु को पुलिस के सामने इतना अविचल नहीं देखा था ।

उधर अफसर अधीर हो उठा था । उसने हुक्म दिया, ‘बलभद्दर, लगाओ साले को दो-चार हाथ ।’

यह सुनते ही प्रपंचगिरि बोल उठे, ‘बताता हूँ। मेरा नाम जोगी प्रपंचगिरि है ।’

‘कहाँ रहते हो ?’

‘हमारा क्या ठिकाना, बच्चा ! रमता जोगी, बहता पानी । घूमते रहते हैं ।’

अफसर ने फिर बलभद्दर को पुकारा और प्रपंचगिरि ने तुरन्त पता-ठिकाना बता दिया ।

पुलिस वाले सब साधुओं को गाड़ी में बिठाकर कोतवाली ले गए । वहाँ एक फोटो निकालकर उससे प्रपंचगिरि के चेहरे का मिलान करके एक अफसर ने दूसरे से कहा, ‘यह जालिमसिंह है ।’

यह सुनकर प्रपंचगिरि का चेहरा फक् हो गया ।

दूसरे अफसर ने कहा, ‘जालिमसिंह दाढ़ी-मूंछ नहीं रखता था । इसकी दाढ़ी-मूंछ मुँड़वा दें तो ठीक शिनाख्त हो सकती है ।’

एक नाई बुलाया गया । उसने प्रपंचगिरि का मुण्डन किया, दाढ़ी- मूंछ साफ की। तब उन अफसरों ने फोटो से मिलान करके कहा, ‘यह जालिम सिंह ही है ।’

प्रपंचगिरि को हथकड़ी पड़ गई । मुफतलाल ने उनके कान में कहा, ‘क्या मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ ? मुश्किल यह है कि यह दूसरे का राज्य है । अपना राज्य होता तो इन अफसरों को बरखास्त करवा देता ।’

प्रपंचगिरि ने कहा, ‘तुम मेरी चिंता मत करो। तुम्हें ये लोग पूछताछ के बाद छोड़ देंगे। तुम सीधे आश्रम जाकर मेरे सहकारी स्वामी कपटानन्द को खबर दे देना । वह सब ठीक कर लेगा । मैं दो-चार दिनों में तुमसे आकर मिलता ही हूँ ।’

कुछ झिझकते हुए मुफतलाल ने कहा, ‘बुरा न मानें तो एक बात कहूँ । आप पकड़े तो गये ही हैं। आपको गिरफ्तार करवाने पर दो हजार रुपयों के इनाम की घोषणा हुई थी । अगर आपको एतराज न हो तो मैं यह कहकर कि मैंने आपको गिरफ्तार करवाया है, दो हजार इनाम ले लूं ?”

प्रपंच गिरि ने जवाब दिया, ‘कोई हर्ज नहीं । तुम दाढ़ी-मूंछ निकाल फेंको और इन लोगों से कहो कि तुम्हीं मुझे फँसाकर यहाँ गिरफ्तार करवाने लाये थे । लेकिन एक शर्त है- आधा इनाम आश्रम को दान करना होगा ।’

मुफतलाल ने दाढ़ी-मूंछ निकालकर फेंक दी और सबसे बड़े अफसर के पास जाकर बयान दिया कि मैं ही जालिम सिंह को फँसाकर गिरफ्तार करवाने लाया था ।

उसका नाम, पता आदि लिखकर उसे छोड़ दिया गया । वह प्रपंच गिरि के आश्रम पहुँचा और कपटानन्द को सब समाचार बताकर अस्तभान के पास चला गया ।

होना बातचीत राजा से मुफतलाल की

अस्तभान ने आह भरकर कहा, ‘मित्र, तरकीब एक के बाद एक असफल होती जाती है । किसने जाना था कि प्रपंचगिरि जैसे सिद्ध पुरुष भी पुलिस के चंगुल में फँस जाएँगे। यह मेरी किस्मत का ही दोष है जो उस महात्मा को कष्ट हो रहा है ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘कुमार, जोगी प्रपंचगिरि के कष्ट का ख्याल मत कीजिए। उन्हें कोई कष्ट नहीं होगा। वे बीसों बार पुलिस की गिरफ्त में आ चुके हैं। पुलिस में उनकी बडी इज्जत है । वे किसी तरह छुटकर आते ही होंगे । आपकी समस्या यह है कि राजा निर्बलसिंह से राजकुमारी का ‘विवाह कैसे रोका जाए ? सबसे पहले हमें यह विवाह रुकवाना है ।’

अस्तभान ने कहा, ‘विवाह रुकवाने का तरीका तो यह होता है कि लडकी वाले को वर की कोई खराबी बता दी जाती है। वह बिचक जाता है। पर यहाँ तो लड़की का बाप जो जानता है, उससे अधिक बुराई क्या बताई जाए ? वह जानता है कि निर्बलसिंह की लड़की मरघट पहुँच चुकी है; फिर भी वह विवाह करने को तैयार है। उसे कैसे रोका जा सकता है ?’

मुफतलाल को एक तरकीब सूझी। वह बोला, ‘कुमार, एक तरकीब है । थोड़ा छल करना पड़ेगा । आप जानते हैं कि निर्बलसिंह के प्राण राजकुमारी नागफनी में अटके हैं । यदि कोई आदमी उनके पास जाये और कह दे कि मुझे राखड़सिंह ने यह संदेशा देकर भेजा है कि वे अपनी लड़की का विवाह आपसे करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो तुरन्त निर्बलसिंह के प्राण उड़ जाएँगे, क्योंकि उनका कोई प्रयोजन संसार में रहने का न बचेगा !

अस्तभान को बात जँची । उसने कहा, ‘ तरकीब तो ठीक है । पर संदेशा देने जायेगा कौन ? जोगी प्रपंचगिरि तो हवालात में बन्द हैं । हाय, वे यदि होते तो कितना अच्छा होता !’

इतना कहना था कि दरवाजा खुला और जोगी प्रपंचगिरि ने प्रवेश किया। बाल मुंडे होने के कारण अस्तभान उन्हें नहीं पहचान सका, पर मुफतलाल एकदम पहचान गया, क्योंकि उनका मुंडन उसके सामने ही हुआ था। वह उछलकर उनके चरणों पर लेट गया। बोला, ‘महात्मन्, इतनी जल्दी कैसे आ गये ? उन दुष्टों के फंदे से आप कैसे छूटे ?’

प्रपंचगिरि ने शांति से कहा, ‘सो जानकर क्या करोगे, वत्स ? साधु-सन्तों के गुर हैं; सबको नहीं बताए जाते । भक्त जब सच्चे हृदय से हमें याद करता है, तभी हम प्रगट हो जाते हैं । हाँ, अब आगे की कहो ।’

मुफतलाल ने निर्बलसिंह का विवाह रोकने की योजना उन्हें समझाई और कहा, ‘यह कार्य आपके सिवा और कौन कर सकता है ? आप ही राजा निर्बल सिंह के पास जायें ।’

प्रपंचगिरि ने कहा, ‘ठीक है । ऐसे नाजुक वक्त पर धर्मात्माओं के शब्द ही कारगर होते हैं । महाभारत के द्रोणाचार्य से अस्त्र रखवाने के लिए स्वयं धर्मराज को झूठ बोलना पड़ा था। मैं जाता हूँ ।’

इतना कहकर प्रपंच गिरि चले गये ।

इधर अस्तभान ने कहा, ‘मित्र, इस तरह कब तक नागफनी की शादी टालते रहेंगे ? दूसरों की शादी उचटाने से ही किसी की शादी कैसे हो सकती है ? हमें अपनी शादी का प्रयत्न भी तो करना चाहिए।’

मुफतलाल ने कहा, ‘प्रयत्न तो कर रहे हैं । यदि प्रपंचगिरि सफल हो जाते तो आज राजकुमारी इसी महल में होती । कुमार, फिर भी मुझे लगता है कि हम सीधा रास्ता छोड़कर चल रहे हैं। शादी का सीधा रास्ता है – पिता के मार्फत बात करवाना। इसका हमने प्रयत्न ही नहीं किया | अगर महाराज विवाह का प्रस्ताव भेजें तो शायद राजा राखड़सिंह स्वीकार कर लें । आप महाराज से कहिए न ।’

अस्तभान ने कहा, ‘भला पिताजी के सामने मेरा मुँह कैसे खुलेगा ? मैं उनका कितना आदर करता हूँ, तू जानता है । उनसे विवाह की बात करते मुझे शर्म नहीं आएगी ? मुफतलाल, तू मेरा मित्र है । तू ही उनसे बात क्यों नहीं कर लेता ?’

मुफतलाल ने आनाकानी की, ‘कुमार, मैं भी उनसे बहुत डरता हूँ । वे कभी प्यार से भी मेरी ओर देख लेते हैं तो मैं काँप जाता हूँ। उनके सामने मेरी नजर ही नहीं उठती। बात क्या करूंगा ?’

अस्तभान ने समझाया, ‘मित्र, मेरे लिए इतना और कर । तू नीची नजर करके ही बात कर लेना । मैंने तेरे लिए कितना किया है ? डिटी कलेक्टरी के लिए तेरा चुनाव मैंने ही करवाया है और अभी तो तेरी नियुक्ति होनी है ।’

मुफतलाल के सब एतराज इस मित्रतापूर्ण धमकी के सामने उड़ गए । उसने कहा, ‘आप चाहते हैं तो जाऊँगा ।’

दूसरे दिन मुफतलाल ने राजा साहब से भेंट के लिए समय माँगा । भेंट के लिए विषय बताया- ‘कुँअर अस्तभान के जीवन की समस्या ।’

राजा साहब ने उसे आधा घंटे का समय दिया । वह डरते-डरते उनके कमरे में पहुँचा। राजा साहब आईना सामने रखे बैठे थे और मूंछों में से एक सफेद बाल चिमटी में पकड़ कर आँखें बन्द करके उखाड़ रहे थे । मुफतलाल चुपचाप सामने खड़ा रहा । जब बाल उखड़ गया तब राजा साहब ने एक आँख खोल कर देखा और कहा, ‘तू अस्तभान के जीवन की समस्या पर बात करने आया है ?’

‘जी !’ अस्तभान ने बाअदब कहा ।

राजा साहब मूंछों में सफेद बाल खोजते हुए बोले, ‘उसका बाप कौन है — मैं कि तू ?’

‘…….’

‘जवाब दे । मैं कि तू ? ‘

‘जी, आप ।’

‘फिर तू कौन होता है उसके जीवन की चिंता करने वाला ?

‘जी, मैं उनका मित्र हूँ ।’

‘मित्र ? मित्र क्या होता है ? मेरी इतनी उम्र हो गई, मेरा तो कोई मित्र नहीं हुआ ।’

आँखें बन्द करके उन्होंने झटके से एक बाल उखाड़ा ।

‘हाँ, बोल ? मित्र किसे कहते हैं ?’

‘हम लोग बचपन के साथी हैं। साथ पढ़े हैं ।’

‘पर साथ फेल तो नहीं हुए। वह फेल हो गया और तू पास ।’

‘यह मेरा दुर्भाग्य है ।’

‘हूँ, दुर्भाग्य है । यानी मित्र वह जो बिगाड़े। उसे तूने ही तो बिगाड़ा है । शराब, जुआ, व्यभिचार – सब तूने ही उसे सिखाया है।’

मुफतलाल सकपका गया । बड़ी विनय से बोला, ‘जी, मेरी क्या सामर्थ्य है जो इतने बड़े आदमी के लड़के को ये सब गुण सिखा सकूं । ये गुण तो उच्च कुल के आभूषण हैं। ये तो कुँअर के रक्त में ही विद्यमान थे; उन्होंने परम्परा से प्राप्त किए हैं ।’

राजा साहब ने एक आंख खोलकर उसे देखा और मुस्कुराए ।

‘तू बातें करने में होशियार है । क्या बात करना चाहता है कुँअर के बारे में ? बोल ।’

‘जी, मेरा निवेदन है कि वे अब जवान हो गए हैं।’

‘वह तो जन्म से ही जवान है । मेरा बेटा है; किसी कारकुन का थोड़े ही है ।’

‘आपका कहना सत्य है । इसीलिए मेरी क्षुद्र मति के अनुसार उनका विवाह हो जाना चाहिए ।’

‘तेरी क्षुद्र मति के अनुसार विवाह क्यों होगा ? मेरी तीव्र बुद्धि के अनुसार क्यों नहीं होगा ?’

‘जी हाँ, यही मेरा मतलब है ।’

‘इसका क्या मतलब ? तेरी क्षुद्र मति और मेरी तीव्र बुद्धि बराबर है ?’

मुफतलाल फिर सकपकाया। राजा साहब का ध्यान बाल उखाड़ने में लग गया, इसलिए वह जवाब देने से बच गया । बाल उखाड़कर उन्होंने उसे देखा और प्रसन्न हुए। बोले, ‘विवाह होना है तो हो जाएगा ।’

‘जल्दी हो जाना चाहिए ।’

‘जल्दी हो जाएगा । इसी वक्त हो सकता है ।’

‘किससे होगा ?’

‘किसी लड़की से ।’

‘राजा राखड़सिंह की राजकुमारी नागफनी से होना चाहिए ।’

‘क्यों ? उससे ही क्यों ?’

राजा ने एक आँख खोलकर फिर देखा और मुफतलाल फिर सकपका गया । खाँसकर हिम्मत जुटाई और बोला, ‘उनसे राजकुमार का प्रेम है ।’

राजा खिलखिलाकर हँसे । बोले, ‘प्रेम ? प्रेम किसे कहते हैं ?’

‘वे एक-दूसरे को चाहते हैं ।’

‘क्यों चाहते हैं ?’ एक बाल और उखाड़ा ।

‘इसलिए कि चाहते हैं ।’ मुफतलाल घबड़ाकर बोला, ‘वे एक-दूसरे के पास जाना चाहते हैं । वे एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते । ‘

‘क्यों नहीं जी सकते ?’

‘क्योंकि प्रेम है ।’

‘और अभी तक कैसे जी रहे हैं ?”

‘उन्हें उम्मीद है कि उनका विवाह हो जाएगा ।’

‘अच्छा तो हो जाएगा । पर कैसे होगा ?’

‘आप राजा राखड़सिंह के पास विवाह का प्रस्ताव भेजें ।’

राजा ने बाल उखाड़ना बन्द कर दिया और मूंछें उमेठना शुरू कर दिया । चेहरा तमतमा उठा । गुस्से से बोले, ‘तू अपनी अक्ल क्या जंगल में घास चरने भेजकर फिर यहाँ आया है ? मैं लड़के वाला हूँ । क्या मैं पहले प्रस्ताव करूँगा ? मेरी सातवीं पीढ़ी में हमारे एक पूर्वज ने लड़के की शादी के लिए अपनी तरफ से बात चलाई थी; लेकिन पहले अपने हाथ से अपनी नाक काटकर रख ली थी । मुझे नाक नहीं खोना । पहले राखड़सिंह को प्रार्थना करनी चाहिए। मैं उस पर विचार करूँगा ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘देर होने से कुंअर की जान जाने का डर है ।’

राजा बोले, ‘मर जाने दो। ऐसे लड़के का न होना अच्छा जो बाप से पहले शादी की बात करवाए ।’

मुफतलाल वहाँ से भागने का मौका खोजने लगा । राजा ने कहा, ‘राखड़सिंह से कहो कि वह मेरे पास प्रार्थना भिजवाए। साथ ही यह भी खवर भिजवाए कि कितना रुपया देगा ।’

इतना कहकर राजा ने निजी सचिव को बुलवाया और कहा, ‘कुँअर पर जितना खर्च हुआ है, उसका हिसाब तुमने रखा है ? बताओ ।’

सचिव ने एक बही उठाई और जोड़ करने लगा। थोड़ी देर बाद बोला, ‘जी, हिसाब हो गया । जन्म से लेकर अब तक भोजन, निवास, कपड़े, शिक्षा, शौक और जेबखर्च मिलाकर लगभग २५ लाख होता है ।’

राजा ने पूछा, ‘जन्म से ही खर्च लगाया है ? प्रसव का खर्च क्यों छोड़ दिया ? वह भी तो लड़की वाले से लेना पड़ेगा। वह भी जोड़ो। पच्चीस लाख से ऊपर होगा ।’

मुफतलाल का जी बैठने लगा । वह आँखें फाड़े दीवार को देख रहा था। राजा ने कहा, ‘सुन रे मुफतलाल, जो आदमी इतना रुपया देगा, उसकी लड़की से शादी होगी । लड़के पर जितना खर्च हुआ है वह सब लड़की वाले को देना चाहिए।’

मुफतलाल ने डरते-डरते कहा, ‘मेरा निवेदन है कि प्रेम-विवाह में रुपया नहीं लिया जाना चाहिए ।’

राजा की भृकुटि तन गई । बोले, ‘क्या कहा ? प्रेम-विवाह ? मैं सब समझता हूँ प्रेम वगैरह की चालाकी । जब किसी बाप को बिना पैसे दिये लड़की की शादी करनी होती है तब वह प्रेम करा देता है । मेरे सामने चालाकी नहीं चलेगी । अस्तभान का अब तक का सारा खर्च देना होगा । आखिर मैंने लड़का इसीलिए तो पैदा किया है और पाला है कि उनकी लड़की को पति मिल सके। मैंने क्या उसे अपने लिए पाला है ? अगर मैं उसे नहीं पालता तो लड़की को पति कैसे मिलता ? तू समझता नहीं है कि लड़के पैदा करना व्यवसाय है, यह गृह उद्योग है। अभी तक मैंने इसमें पूँजी लगाई है। अब माल जब बाजार में आ गया है, तब क्या मैं उसकी अच्छी कीमत नहीं लूंगा ? जा भेज दे राखड़सिंह को खबर – अगर इतना – रुपया देता है, तो मैं उसके घर की नौकरानी से भी कुँअर की शादी कर दूंगा ।’

मुफतलाल जाने की तैयारी करने लगा । उसने एक नजर राजा साहब पर डाली और प्रणाम करके मुड़ा । राजा ने कहा, ‘उनसे कहना कि अगर वे २५ लाख नहीं दे सकते, तो मैं २० लाख में भी मान जाऊँगा । अगर २० लाख भी उन्हें भारी पड़े, तो १५ लाख भी ले लूंगा । अगर १५ लाख की भी उनकी हैसियत नहीं हो, तो मैं १० लाख में भी मान जाऊँगा । मगर १० लाख से एक कौड़ी कम नहीं लूंगा । समझ गया ? जा अब ।’

मुफतलाल चल दिया और राजा दर्पण सामने रखकर मूंछ में सफेद बाल खोजने लगे ।

मिलना मुख्य आमात्य से

करेलामुखी ने कहा, ‘राजकुमारी, तुमने कुछ सुना ?’

‘क्या ?’ नागफनी ने चौंककर कहा ।

‘तुम तो बिलकुल ही बेसुध रहती हो। ऐसी खोयी खोयी मत रहा करो। कोई दुर्वासा श्राप देगा तो कुंअर तुम्हें भूल जाएँगे,’ करेलामुखी ने कहा ।

नागफनी ने कहा, ‘सखि, हँसी मत कर । मेरा जी अच्छा नहीं है । जो बात बताने आयी है, वह बता ।’

करेलामुखी ने कहा, ‘कुमार अस्तभान के पिता राजा भयभीत सिंह अपने बेटे की तुमसे शादी करने के लिए कम-से-कम १० लाख माँगते हैं । तुम्हारे पिता के पास संदेशा आया था ।’

नागफनी का जी बैठ गया । वह अपने पिता को जानती थी। राजा निर्बलसिंह से दो थाल हीरे-जवाहरात वे हड़प कर बैठे थे । १० लाख देने की अपेक्षा वे प्राण देना पसंद करेंगे। उसने पूछा, ‘फिर पिताजी ने क्या जवाब दिया ?’

‘उन्होंने कहला भेजा कि मुझे लड़की के लिए पति चाहिए, खेत में हल चलाने के लिए बैल नहीं खरीदना है । भयभीतसिंह बेटे को मवेशी-बाजार में खड़ा कर दें और ऊँची से ऊँची कीमत पर नीलाम कर दें ।’

यह सुनकर नागफनी सन्न रह गई। इस अपमान को भयभीत सिंह जैसे क्षत्रिय कैसे सहन करेंगे ?

नागफनी रोने लगी । बोली, ‘सखि, इस जीवन में मैं उनकी नहीं हो सकती । अब तो मैं मरकर उस लोक में उनकी राह देखूंगी।’

करेलामुखी समझाने लगी, ‘कुमारी, इतनी निराश मत होवो । कुछ उपाय सोचो। तुम्हारे पिता यदि १० लांख देने को तैयार हो जाएँ तो बात अभी भी बन सकती है। पर उन्हें समझाए कौन ?’

नागफनी ने कहा, ‘एक ही आदमी की बात वे आँख मूंदकर मानते हैं और वह है राज्य का मुख्य आमात्य । वह कह दे तो वे १० क्या २० लाख दे सकते हैं ।’

करेलामुखी बोली, ‘पर वह क्यों कहेगा ? वह बड़ा काँइयाँ आदमी है । बिना मतलब के कोई काम नहीं करता ।’

‘मैं उससे कहूँ ?”

‘तुम्हारे कहने से कुछ नहीं होगा । तुमसे उसका कोई काम नहीं सध सकता । यदि कुँअर अस्तभान उससे मिलें और कुछ लोभ दें तो वह मान सकता है।’

‘तो सखि, तू उनके पास संदेशा भिजवा दे । यह आखिरी प्रयत्न कर लें । नहीं तो मैं इस देह का त्याग कर दूंगी।’

करेलामुखी ने अस्तभान के पास संदेशा भिजवाया ।

उधर राजा भयभीतसिंह के पास जब राजा राखड़सिंह का उत्तर पहुँचा तो वे आग-बबूला हो गए। बोले, ‘इतना अभिमान है उसे ! मैं उसे बता दूंगा । मैं १० नहीं, २० लाख लेकर बेटे की शादी करके बता दूंगा ।’ उन्होंने सचिव को बुलाकर कहा, ‘अस्तभान की शादी के लिए ‘टेंडर’ बुलाने की सूचना अखबारों में छपवाओ। लिखो, मैं लिखवाता हूँ ।’

राजा साहब ने ‘टेंडर’ का जो मजमून लिखाया और जो दूसरे दिन अखबार में छपा, वह नीचे दिया जाता है-

टेंडर नोटिस

एक २४ वर्षीय, स्वस्थ तरुण को विवाह के बाजार में वर के रूप में बेचना है | तरुण बी० ए० तक पढ़ा है और सुन्दर है। लड़कियों के पिता

…………………..

तीनों बैठ गए और बातचीत शुरू हो गई ।

मुख्य आमात्य — ‘कैसे कष्ट किया आपने ? मुझे ही खबर देकर बुला लिया होता ।’

अस्तभान—’मैंने सोचा, मैं ही मिल आऊँ । आप व्यस्त आदमी हैं ।’

मुख्य आमात्य – ‘हें हें, सो तो है ही। क्या सेवा करूँ आपकी ?”

अस्तभान – ‘ बात यह है कि आप तो जानते हैं, नागफनी से मैं शादी करना चाहता हूँ ।’

मुख्य आमात्य – ‘जी हाँ, प्रेम का मामला है ।’

अस्तभान – ‘हाँ, यही बात है । पर मेरे पिता और आपके राजा साहब में मतभेद हो गया है ।’

मुख्य आमात्य – ‘कैसा मतभेद ?’

मुफतलाल – ‘आपसे कोई बात छिपी थोड़े ही होगी ।’

मुख्य आमात्य – ‘तुम चुप रहो जी ! दो कौड़ी के डिप्टी कलेक्टर, बड़ों के बीच में क्यों बोलते हो ?’

मुफतलाल दुबक गया। कातर नेत्रों से अस्तभान की ओर देखने लगा ।

अस्तभान – ‘ मुख्य आमात्यजी, यह मेरा मित्र है । मैं सारा काम इसकी सलाह से करता हूँ । जब मैं राजा बनूँगा तब यह आपके ही जैसा मुख्य आमात्य होगा । आप इससे क्षमा माँगिए ।’

मुख्य आमात्य – ‘अगर इनका भविष्य इतना उज्ज्वल है तो क्षमा माँगे लेता हूँ । हाँ, तो दोनों राज्यों के राजाओं में तनातनी की बात मैं जाता हूँ । आपके पिता १० लाख चाहते हैं और हमारे राजा ने उन्हें अपमानजनक उत्तर भेज दिया है।’

अस्तभान – ‘अब क्या करना है, यह मुफतलाल बतलाएगा ।’

मुफतलाल इस ठाठ से बोला जैसे एक मुख्य आमात्य दूसरे मुख्य आमात्य से राजकीय विषय पर सलाह करता है – ‘ देखिए मुख्य आमात्यजी, राजा साहब आपकी चंगुल में हैं । अगर आप उनसे कहें तो वे १० क्या ५ लाख दे सकते हैं । हम आपसे यही प्रार्थना करने आये हैं ।’

मुख्य आमात्य – ‘पर अब तो टेंडर नोटिस छप गया है ।’

मुफतलाल – ‘तो क्या हुआ ? राज्य की ओर से टेंडर भरा जा सकता है ।

हम अपने राजा के निजी दफ्तर के मुंशी से मिलकर ऊँचे टेंडर दवबा देंगे। आप १० लाख का टेंडर भिजवा दीजिए ।’

मुख्य आमात्य सोचने लगे । अस्तभान और मुफतलाल समझ गए। कि वे क्या सोच रहे हैं ।

अस्तभान ने कहा, ‘इस कार्य के बदले में हम जो सेवा कर सकें, बतलाइए । यों तो आप जानते ही हैं कि कभी राजा बनूंगा ही । तब आपके उपकार को नहीं भूलूंगा ।’

मुख्य आमात्य खिन्न हँसी हँसे । बोले, ‘आपका काम करने की मैं कोशिश करूँगा । बदले की क्या आवश्यकता है ?’

दोनों मित्र समझ गए कि वह टाल रहा है ।

अस्तभान ने कहा, ‘नहीं, हम आपके लिए कुछ करना ही चाहते हैं । बतलाइए ।’

मुख्य आमात्य थोड़ी देर मौन रहे, फिर बोले, ‘अगर आप मेरा कुछ उपकार करना ही चाहते हैं तो बतलाता हूँ । आप समर्थ हैं, इसलिए शायद कर पाएँ । आज तक मैंने हजारों आदमियों से कहा, पर कोई वह काम नहीं कर सका । बड़ा कठिन कार्य है।’

मुफतलाल ने कहा, ‘बतलाइए तो ऐसा कौन सा काम है ? क्या दफ्तरों से भ्रष्टाचार समाप्त करना है ? अफसरों को समय पर दफ्तर बुलाना है ? लालफीता काटना है ? भत्ते के सच्चे बिल बनाने की आदत डालना है ?’

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘नहीं, ये कुछ नहीं । ये तो शासन की शोभाएँ हैं। बात यह है कि इस राज्य में मेरा एक विकट राजनैतिक शत्रु है । वह ‘भैया सा’ब’ कहलाता है । वह भी विधान मंडल में है और उसी दल का सदस्य है जिसका मैं हूँ । पर दल के भीतर वह मेरा दुश्मन है । मैं केवल चार मतों से उससे जीता था; वरना वही मुख्य आमात्य हो जाता । वह मेरा हमेशा विरोध करता है और मुझे डर है कि अगले चुनाव में वह मुझे हटाकर स्वयं मुख्य आमात्य बन जाएगा । मैं उसे वश में करना चाहता हूँ । पर उस पर कोई उपाय कारगर नहीं होता । वह बिल्कुल निर्भय रहता है । बात यह है कि वह अपना जीव कहीं और रखता है। किसी को नहीं मालूम कि उसका जीव कहाँ रहता है। आप लोग उसके जीव का पता लगाकर, वह मुझे लाकर दे दें, तो वह मेरे चंगुल में आ जाए ।’

यह सुनकर अस्तभान और मुफतलाल विचार में पड़ गए। बड़ा कठिन काम था ।

अस्तभान ने कहा, ‘सरकार के गुप्तचर विभाग से आपने उनके जीव का पता नहीं लगवाया ?’

मुख्य आमात्य बोले, ‘गुप्तचर विभाग तो सालों से इसी काम में लगा है । आप तो जानते हैं कि प्रजातंत्र में गुप्तचर विभाग राजनैतिक विरोधियों के पीछे पड़े रहने का ही काम करता है । अपराधों का पता लगाना तो एक बहाना है । मैंने बहुत योग्य व्यक्ति इस विभाग में रखे हैं, पर वे भी कुछ नहीं जान सके ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘देखिए, हम लोग कोशिश करेंगे। पर काम बहुत कठिन है । आप कृपा करके राजा साहब से १५ लाख का टेंडर भिजवा दीजिए । यदि टेंडर स्वीकार करने की आखिरी तारीख निकल गई तो हमारा सारा करा-धरा बेकार हो जाएगा ।’

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘सो मैं सब करवा दूंगा । १५ दिन के अन्दर भी यदि मुझे भैया सा’ब का जीव मिल गया तो मैं आपकी शादी राजकुमारी से करवा दूंगा । आप निश्चिन्त रहें ।’

अस्तभान मुफतलाल के साथ मुख्य आमात्य से विदा लेकर बँगले के बाहर आया ।

अस्तभान बोला, ‘बड़ा विचित्र आदमी है यह भैया सा’ब भी ! अपने जीव को कहीं अलग रखता है ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘इन राजनैतिक पुरुषों की शारीरिक बनावट ही अलग होती है । इन लोगों में कुछ तो अपनी आत्मा को शरीर में या शरीर के बाहर कहीं भी रख सकते हैं । कुछ नेताओं का हृदय पेट में होता है, किसी-किसी का टाँग में एक नेता को मैं जानता हूँ जो अपना हृदय नाबदान में रखता है । एक और नेता है जिसकी आत्मा तलुए में रहती है । जब चलता है, आत्मा को कुचलता जाता है । पर भैया सा’ब के जीव का किसी को पता नहीं है । हम लोग वेश बदलकर पहले उन्हीं से मिलें। उनसे बात करने पर शायद कुछ पता चले ।’

अस्तभान को यह योजना पसंद आई। दोनों ने वेश बदला और भया सा’ब से मिलने के लिए चल पड़े ।

होना भेंट भैया सा’ब से और लगना पता जीव का

नगर में भैया सा’ब का मकान खोजने में कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि आधी सड़कें उनके बँगले जाती थीं और आधी मुख्य आमात्य के बँगले ।

बड़ा विशाल बंगला था। बंगले के गैरिज में दो कारें रखी थीं और एक जीप, जिसमें लाउड स्पीकर लगा था। कई नौकर यहाँ वहाँ आ जा रहे थे ।

बंगले के सामने के हिस्से में भैया सा’ब की बैठक थी। बैठक में भैया सा’ब नहीं थे । उनका निजी सचिव एक पत्रकार को समाचार लिखा रहा था । कुमार और मुफतलाल ने दरवाजे पर पहुंचकर उसे नमस्कार किया । सचिव ने मुस्कुराकर नमस्कार का उत्तर दिया और बड़े आदर से कहा, ‘ तशरीफ लाइए । बैठिए ।’

वे बैठ गए । सचिव ने पत्रकार की ओर संकेत करके कहा, ‘मैं जरा इनसे निपट लूं; फिर आपकी बात…”

पत्रकार परेशान नजर आ रहा था। उसने कहा, ‘लेकिन आप जरा सोचिए तो भैया सा’ब को सबेरे दो छींकें आईं, यह समाचार कैसे छपेगा ? आखिर समाचार में कुछ महत्त्व तो…’

सचिव ने उसे वहीं डाँटा, ‘क्या कहते हो ? महत्त्व नहीं है ? बड़े आदमी की छींक का कोई महत्त्व नहीं ? जरा अक्ल से काम लो । पत्रकार में काल्पनाशक्ति बहुत जरूरी है। दो छींकों का समाचार देकर आगे लिख सकते हो — ‘ पाठकों को स्मरण होगा कि जब बुद्ध ने गृह-त्याग किया था, तब उन्हें भी इसी तरह दो छींकें आई थीं। समझे ?’

पत्रकार फिर कुछ कहने वाला था कि सचिव ने उसे डाँटा, ‘देखो, इस बात को मत भूला करो कि तुम्हारे अखबार के आधे विज्ञापन भैया सा’ब के दिलाए हुए हैं और यह भी याद रखना तुम्हारे लिए फायदेमंद है कि मैनेजर से कह देने पर तुम्हारी नौकरी इसी क्षण समाप्त हो सकती है ।’

पत्रकार का सिर अब लटक गया । वह गोमुद्रा में आ गया ।

सचिव ने एक लिफाफे में से एक फोटोग्राफ निकालकर पत्रकार को दिया और कहा, ‘लो, यह उस प्रसंग की तस्वीर है । इसके नीचे छापना, ‘भैया सा’ब छींकते हुए ।’

पत्रकार ने गर्दन हिलाई और फोटो लेकर बस्ते में रख ली ।

सचिव ने जेब में से एक नोट बुक निकालकर देखते हुए कहा, ‘तुमसे एक-दो बातें और करनी हैं ।’

नोट-बुक के पन्ने उलटते हुए वह एक जगह रुका और पढ़कर बोला, ‘हाँ, देखो जी – तुम ‘भैया सा’ब का बँगला’ क्यों लिखते हो ? तुम जानते हो इसे भैया सा’ब ‘झोपड़ी’ कहते हैं ? जन सेवक का बँगला नहीं होता, झोपड़ी होती है । आगे ऐसी भूल मत करना ।’

पत्रकार ने फिर बड़ी तत्परता से गर्दन हिलाई ।

अस्तभान ने मुफतलाल के कान में कहा, ‘अगर इस पत्रकार के गले में एक घंटी होती, तो बज उठती ।’

मुफतलाल ने हँसी दबाकर कहा, ‘और यदि यह मुँह में घास के चार तिनके रख ले, तो बछड़े रंभाने लगें ।’

इसी समय सचिव पत्रकार से कहने लगा, ‘पिछले महीने भैया सा’ब की शीर्षासन करते हुए जो तस्वीर दी थी, वह तुमने क्यों नहीं छापी ?”

पत्रकार ने हकलाते हुए कहा, ‘बात यह थी…बात यह है कि उसमें भैया सा’ब की धोती थोड़ी उलट गई है । ‘

सचिव ने तपाक से कहा, ‘इसका निर्णय करने वाले तुम कौन ? तुम्हें दी गई थी तो छापना तुम्हारा कर्त्तव्य था । तुम लोग जरा भी विचार नहीं करते । खजुराहो की मूर्तियों के चित्र तुम बड़े शौक से छापते हो। मगर भैया सा’ब जैसे नेता की धोती जरा-सी ..”

पत्रकार ने परेशान होकर कह दिया, ‘आगे ख्याल रखूंगा ।’

सचिव ने कहा, ‘ठीक है । अब तुम जाओ ।’

पत्रकार अपने टुकड़े बटोरकर उठा और दरवाजे से बाहर हो गया ।

सचिव ने मुस्कुराहट भरा मुख आगंतुकों की ओर घुमाया ।

‘आपका परिचय ?’ उसने पूछा ।

मुफतलाल ने कल्पित नाम और नगर बताए ।

‘कैसे कष्ट किया ?’ सचिव ने प्रश्न किया ।

अस्तभान ने कहा, ‘हमें भैया सा’ब से मिलना है ।’

‘क्या सेवा है !’ सचिव का प्रश्न था ।

मुफतलाल ने उत्तर दिया, ‘हम अपने नगर में एक बड़ा सम्मेलन कर रहे हैं । हम भैया सा’ब से प्रार्थना करने आये हैं कि उसका उद्घाटन वे करें ।’

सचिव बहुत प्रसन्न हुआ। बोला, ‘अवश्य, अवश्य ! भैया सा’ब को बड़ी प्रसन्नता होगी। वे तो जनता के बीच जाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। किस तारीख को है सम्मेलन ?’

अस्तभान ने कहा, ‘अगले महीने की बारह को ।’

सचित्र ने डायरी में लिख लिया ।

यहाँ-वहाँ की बातें करने के बाद सचिव ने एकाएक मुफतलाल के कंधे पर बड़ी आत्मीयता से हाथ रखा और कहा, ‘समारोह के प्रबंध में कोई कठिनाई तो नहीं है ? हो तो बताइये । हम कोई बाहर के नहीं हैं । कोई सामान तो नहीं चाहिए ? हमारे पास झंडियाँ हमेशा तैयार रहती हैं; दरियाँ भी बहुत हैं । लाउडस्पीकर लगी जीप आपने बाहर देखी ही होगी । मान- पत्र हम स्वयं छपवाकर लेते आयेंगे। ऊपरी खर्च के लिए दो-चार सौ रुपये चाहिए तो भैया सा’ब दे सकते हैं। भैया सा’ब अधिक से अधिक सुविधा देते हैं और चाहते हैं कि समारोह अच्छे से अच्छा हो ।’

दोनों को प्रभावित देखकर सचिव आगे कहने लगा, ‘पिछले साल भैया सा’ब का जो अभिनन्दन हुआ, उसका सारा खर्च भी भैया सा’ब ने ही बरदाश्त किया था । किसी पर कोई भार उन्होंने नहीं छोड़ा। अपनी सेवाओं का उल्लेख करते हुए परिपत्र भी स्वयं लिखा । अभिनंदन ग्रंथ की सारी तैयारी उन्होंने ही की। प्रमुख नगरों में समारोह करने के लिए उन्होंने कई लोगों को आर्थिक सहायता भी दी ।’

इतना कहकर सचिव उदास हो गया। कहने लगा, ‘मगर दुनिया में ईमानदारी तो रह नहीं गई । कुछ लोगों ने समारोह भी नहीं किया और चाहते, तो क्या नालिश करके पैसा वसूल नहीं कर सकते थे ।’

दोनों ने स्वीकारात्मक सिर हिलाया । वे भैया सा’ब की सज्जनता से बड़े प्रभावित हुए। सोचने लगे- ऐसे श्रेष्ठ मनुष्य का जीव मुख्य आमात्य क्यों चाहता है ?

अस्तभान ने कहा, ‘भैया सा’ब के दर्शन करना चाहते हैं ।’

सचिव ने घड़ी देखकर कहा, ‘वे एक अनाथालय का उद्घाटन करने पहुँच ही रहे होंगे। मुझे भी वहाँ जाना है । आप मेरे साथ चल सकते हैं ।’ वे दोनों सचिव के साथ मोटर में बैठ गए और थोड़ी देर बाद अनाथालय के प्रांगण में पहुँचे ।

वहाँ शामियाने लगे थे । एक ओर बड़ा ऊँचा मंच था। हजारों आदमियों के बैठने का प्रबन्ध था, पर वहाँ कुल १००-१५० आदमी ही थे । मंच पर भैया सा’ब कार्यकर्त्ताओं से घिरे बैठे थे ।

अस्तभान और मुफतलाल मंच के सामने ही जाकर बैठ गए।

समारोह प्रारम्भ हुआ । अनाथालय के मन्त्री ने सबका स्वागत किया और अपनी संस्था का परिचय दिया। इसके बाद अध्यक्ष ने भैया सा’ब का परिचय देकर उनसे उद्घाटन भाषण देने की प्रार्थना की।

भैया सा’ब ने उद्घाटन भाषण आरम्भ कर दिया-

भाइयो और बहनो,

हमें अपने देश का विकास करना है, निर्माण करना है। प्रश्न उठता है — निर्माण कैसे होगा ? निर्माण अकेली सरकार से नहीं होगा, जनता के हर आदमी को परिश्रम करके निर्माण करना होगा। आज हमें जनसेवा की संस्थाओं की बड़ी आवश्यकता है । अनाथालय एक ऐसी ही संस्था है । इस अनाथालय का निर्माण करके आप लोगों ने देश के विकास में महत्त्वपूर्ण

……………………

वहाँ उनकी ऐसी शिक्षा-दीक्षा हुई, वे ऐसे वीर बने कि लक्ष्मण तक उनके सामने नहीं ठहर सके। ऐसी है हमारी गौरवमय परम्परा । और आज उसी महान् देश का यह हाल है कि नगर में मुश्किल से एकाध अनाथालय मिलता है । ऐसे देश का पतन न होगा, तो क्या होगा ?

पर भाइयो, निराश होने की बात नहीं है । हर जाति के उत्थान और पतन के क्षण आते हैं । हमारी जाति आज जाग उठी है । सब क्षेत्रों में विकास हो रहा है । हम अनाथालयों के निर्माण को पूरी तरह प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि आगामी पीढ़ियों का भविष्य इन्हीं से उज्ज्वल बन सकता है ।

आपने बड़ी सुन्दर संस्था का निर्माण किया है । मुझे विश्वास है कि आप इसे इस प्रकार चलाएंगे कि हमारे बच्चे इसे देखें तो उनका मन भी यहाँ रहने को हो जाए । अनाथालय की सफलता की यही कसौटी है—- – दर्शक का मन स्वयं रहने के लिए लालायित हो उठे। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे। मैंने एक दिन जब एक अच्छा विधवाश्रम देखा तो मेरा मन वहाँ रहने को होने लगा ।

भाइयो, यह कार्य का अन्त नहीं, आरम्भ है । आपने राष्ट्र-निर्माण -की नींव डाली है । आगे आपको बहुत कुछ करना है । देश की आबादी जिस गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए मुझे यह कहने में तनिक संकोच नहीं कि हमारा प्रमुख कार्य अनाथालयों का निर्माण होगा ।

आज इस महान् पर्व पर मैं आप लोगों का अभिनन्दन करता हूँ और कामना करता हूँ कि आपका यह कार्य सारे देश का निर्माण पथ आलोकित करे ।

मुझे अनाथालय का उद्घाटन करने के लिए बुलाकर आप लोगों ने मेरा जो सम्मान किया है उसके लिए मैं किन शब्दों में आपका आभार मानूं ! बचपन से ही मैंने अनाथालय के प्रति एक आकर्षण अनुभव किया है । पिताजी मुझे होस्टल मे रखना चाहते थे, पर मैं अनाथालय में रहने लगा । पिताजी मुझे पकड़ लाए और घर में मेरी बड़ी पिटाई की। मेरे हृदय पर बड़ा आघात लगा । मैंने निश्चय किया कि एक दिन ऐसा आएगा, जब मैं गर्व से किसी अनाथालय का उद्घाटन करूँगा । मेरे जीवन में यह स्वर्णिम दिवस आज उदित हुआ है। मैं अधिक कुछ नहीं कह सकता, मेरा हृदय भर आया है । मैं इस शुभ घड़ी में इस अनाथालय का उद्घाटन करता हूँ ।…”

इस तरह भैया सा’ब बड़ी देर तक सारगर्भित भाषण करते रहे । जनता बीच-बीच में ताली बजाती जाती थी ।

समारोह समाप्त होने पर भैया सा’ब मोटर में बैठकर बँगले चले गये । उनके पीछे सचिव के साथ अस्तभान और मुफतलाल भी गये । बँगले पर पहुँचकर सचिव ने भैया सा’ब से उन दोनों का परिचय कराया और उनके आने का उद्देश्य बतलाया ।

अस्तभान ने प्रशंसा के स्वर में कहा, ‘आपका भाषण सुनकर हम लोग मुग्ध हो गए । आप कितना सारगर्भित भाषण देते हैं । कितना उत्साह है आपके शब्दों में ।’

भैया सा’ब ने सकुचाकर प्रशंसा को ग्रहण किया ।

मुफतलाल ने कहा, ‘भैया सा’ब, विधान मंडल में आपका ‘रोल’ बड़ा स्वतन्त्र रहता है । जिस दल की सरकार है, उसके आप सदस्य हैं। पर आप सरकार की भी निर्भय आलोचना करते हैं ।’

भैया सा’ब ने कहा, ‘भाई, मैं तो विरोध में हूँ और तब तक विरोध करूँगा जब तक मैं मुख्य आमात्य नहीं हो जाता । मैं विधान मंडल में डट- कर विरोध करता हूँ, सरकार के सब कार्यों को गलत बतलाता हूँ, पर जब मतदान का मौका आता है, तब मैं वोट सरकार को ही देता हूँ ।’

‘याने जिन चीजों को आप गलत समझते हैं, उन्हें समर्थन दे देते हैं,’ मुफतलाल के मुंह से निकल गया ।

भैया सा’ब एक क्षण को सहम गए । फिर बोले, ‘प्रजातन्त्र का यही मतलब है । यही संसदीय प्रजातन्त्र का सिद्धान्त है ।’

अस्तभान ने काम की बात जानने के लिए कहा, ‘पर आप इतने निर्भय कैसे रह लेते हैं ? आप सबको गाली देते हैं, मुख्य आमात्य तक आपसे परेशान रहते हैं। पर आप तनिक भी नहीं डरते । आप अकेले घूमते हैं। एक अंग रक्षक तक नहीं रखते ।’

भैया सा’ब हँसे । बोले, ‘यही तो रहस्य है । बात यह है कि मुझे कोई मार नहीं सकता । मैं अपना जीव अपने पास रखता ही नहीं हूँ ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘घोर आश्चर्य की बात है। ऐसा तो कभी नहीं सुना । भला अपना जीव भी कोई बाहर रखता है ?”

भैया सा’ब ने कहा, ‘हर एक के वश की बात नहीं है ।’

अस्तभान ने सहज ही पूछा, ‘भला ऐसी कौन-सी जगह जीव रखते होंगे ?’

भैया सा’ब ने घूरकर उसे देखा और कहा, ‘कोई जासूस मालूम होते हो ! क्यों जानना चाहते हो ? यही भेद बता दूंगा तो मेरी अजेयता समाप्त नहीं हो जाएगी ।’

अस्तभान अपनी जल्दबाजी पर पछताया । वह समझ गया कि इससे भेद मालूम नहीं हो सकता ।

उसने भैया सा’ब से अपने कल्पित सम्मेलन का कार्यक्रम तय किया और मुफतलाल को लेकर बंगले से बाहर आ गया ।

बाहर निकलकर मुफतलाल ने कहा, ‘बड़ी बँधी मुट्ठी है इसकी ।’

अस्तभान ने कहा, ‘हाँ, अब तो एक ही तरीका और है। नगर के लोगों से बातचीत में कुछ संकेत प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए ।’

वे दिन-भर नगर में विभिन्न लोगों से बातचीत करते रहे। कॉफी- हाउस और चायघर में बैठे । शराबखाने में मतवालों से बातें करते रहे । चौराहों पर लोगों से पूछा । पर कुछ पता नहीं चला ।

शाम होते-होते वे बहुत थक गए। दिन-भर का परिश्रम और निराशा ! उनकी बड़ी खराब हालत थी । वे वापिस लौटे ।

अँधेरी रात थी और रास्ता खराब था। नगर से तीन-चार मील हो चले होंगे कि अस्तभान गिर पड़ा।

मुफतलाल ने उसे नाले का पानी पिलाया ।

वह बड़ी मुश्किल से उठा और बोला, ‘अब तो मैं मर जाऊँ तो अच्छा ।’

मुफतलाल ने समझाया, ‘मन को छोटा मत करो। प्रेम के मार्ग में ऐसी बाधाएँ तो आती ही रहती हैं । अन्त में आप अवश्य सफल होंगे । अब हम यहीं इस वृक्ष के नीचे विश्राम करें ।’

आम के उस वृक्ष के नीचे उन दोनों ने गमछे बिछाये और लेट गए ।

मुफतलाल तो थोड़ी देर में सो गया, पर अस्तभान को नींद कहाँ ! वह आँखें बन्द किए पड़ा रहा ।

आधी रात के लगभग वृक्ष पर बैठे कबूतर के एक जोड़े में बातचीत होने लगी !

कबूतर ने कहा, ‘तू बड़ी लापरवाह है। दिन-भर न जाने कहाँ घूमती रही । तू तो बच्चों को ऐसे छोड़ देती है जैसे उस भैया सा’ब ने अपने जीव को छोड़ रखा है ।’

अस्तभान कान खोलकर सुनने लगा ।

कबूतरी ने कहा, ‘भैया सा’ब अपना जीव कहाँ छोड़ते हैं ?’

कबूतर ने कहा, ‘तुझे नहीं मालूम ? सचिवालय में मुख्य आमात्य की कुर्सी है, उसमें एक बड़ा दीमक रहता है। उसी दीमक में भैया सा’ब का जीव है । वह दीमक कुर्सी काटता रहता है ।’

कबूतरी अचम्भे में आ गई। कहने लगी, ‘बड़ी अजीब बात है । उनके इतने दुश्मन हैं, कोई दीमक को मसलकर उन्हें मार क्यों नहीं डालता ?”

कबूतर ने कहा, ‘किसी को मालूम नहीं है और मालूम भी हो जाए तो वहाँ पहुँचना बहुत कठिन है। दिन को तो वहाँ चपरासी और सन्तरी रहते हैं और रात को वहाँ भूत नाचते हैं जो आमात्य बने बिना मर गये या जो चुनाव में हार गए, वे सब भूत बनकर विधानसभा और सचिवालय में मँडराते हैं ।’

कबूतरी ने कहा, ‘तब तो वहाँ कोई नहीं जा सकता ।’

कबूतर ने कहा, ‘जा सकता है, पर इसके लिए मन्त्र जानना चाहिए । मन्त्रों से वे भूत शान्त हो जाते हैं ।’

कबूतरी की जिज्ञासा बढ़ी। उसने पूछा, ‘कौन-सा मन्त्र ? तुम्हें मालूम है ?’

कबूतर अपना ज्ञान बताने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उसने कहा, ‘हाँ, मालूम क्यों नहीं ! वहाँ जाकर आदमी ये मन्त्र जोर-जोर से चिल्लाकर जपे तो भूत शांत हो जाते हैं-

‘लाल पेटी में वोट दो !’

‘मुर्गा छाप पेटी में वोट दो !’

‘हाथी छाप पेटी में वोट दो !’

‘बैल छाप पेटी में वोट दो !’

‘आमात्य जंगल – विभाग !’

‘इसी तरह के मन्त्रों को सुनकर वे सब भूत तृप्त होकर गायब हो जाते हैं ।’

कबूतर – कबूतरी की बात समाप्त हुई । अस्तभान उठ बैठा। मुफत लाल को झकझोरा । वह हड़बड़ाकर उठ बैठा ।

‘क्या बात है ?’ उसने कहा ।

अस्तभान खुशी के मारे मुश्किल से बोल सका, ‘किला फतह हो गया। भैया सा’ब के जीव का पता लग गया । उसे पकड़ने की विधि भी मालूम हो गई ।’

मुफतलाल अब पूरा जाग गया था । उसने पूछा, ‘कहाँ रहता है भैया सा’ब का जीव ?’

अस्तभान ने कहा, ‘मुख्य आमात्य की कुर्सी में, दीमक के रूप में ।’

‘कैसे मालूम हुआ ?’ आश्चर्यचकित मुफतलाल ने पूछा ।

अस्तभान ने उसे कबूतर – कबूतरी की बातचीत का विवरण दिया । फिर कहा, ‘अब घर लौटने की जरूरत नहीं है । वापिस राजधानी चलो । आज रात को भैया सा’ब का जीव पकड़ना है ।’

वे उसी समय वापिस लौटे ।

पकड़ना जीव को और देना मुख्य आमात्य को

अस्तभान की खुशी की सीमा न थी। रास्ते में वह उड़ता – सा जा रहा था । मुफतलाल का मन कहीं और था। वह सोच रहा था कि इतने दिन हो गए, पर डिप्टी कलेक्टरी का आदेश अभी तक नहीं आया । अब कुँवर की शादी हो जाएगी। अपना काम हो जाने के बाद पता नहीं ये मेरी सहायता कर सकते हैं या नहीं । वह चाहता था कि पहले उसकी नियुक्ति हो जाए, फिर कुमार का विवाह हो। इसी प्रयोजन से उसने बीच में अड़ंगा डालने की कोशिश की । वह बोला, ‘कुमार, इसके पहले कि आप भैया सा’ब का जीव पकड़कर मुख्य आमात्य को दें, आपको अपने पिताजी से मिल लेना चाहिए। वे राजा राखड़सिंह से बेहद नाराज हैं। कहीं ऐसा न हो कि अपना सारा परिश्रम व्यर्थ चला जाए ।’

अस्तभान कुछ आपत्ति सुनने को तैयार नहीं था । उसने कहा, ‘इसकी क्या जरूरत है ? शादी तो मुझे करनी है ।’

मुफतलाल ने समझाया, ‘पर वे आपके पिता हैं । उनके और आपके विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है ।’

अस्तभान ने रोष से कहा, ‘अन्तर तो होगा ही । मेरे पिता बेवकूफ हैं, ऐसा माने बिना प्रगति ही नहीं हो सकती । हर पीढ़ी को यह मानना चाहिए कि बाप-दादे बेवकूफ हैं और उनकी कम-से-कम आधी बातें गलत हैं । उनकी आधी सही बातें लेकर उनमें अपनी आधी मिलानी चाहिए । इस तरह के मिश्रण से जो मान्यताएँ बनेंगी, वही प्रगतिशील मान्यताएँ कहलाएँगी । अगर बेटा बाप को आधा खब्ती न समझे तो समाज जहाँ- का-तहाँ खड़ा रह जाए ।’

मुफतलाल को पहली बार अस्तभान की प्रतिभा का भान हुआ । जिसे वह मूढ़ समझता रहा, वह नीति की बातें कर रहा था । उसने निष्कर्ष निकाला कि मूर्ख-से-मूर्ख आदमी तब बुद्धिमान हो जाता है जब उसकी शादी पक्की हो जाती है। इसी से यह विलोम सिद्धांत भी प्रगट हुआ कि बुद्धिमान आदमी तब बेवकूफ हो जाता है जब उसकी शादी पक्की हो जाती है । उसने हार मान ली । नीति और सिद्धांत की आड़ लेकर शादी नहीं टाली जा सकती । उसने व्यवहार की आड़ ली। कहा, ‘पर वे टेंडर मँगवा चुके हैं। कहीं उन्होंने राजा राखड़सिंह का टेंडर नामंजूर कर दिया तो ?’

अस्तभान जैसे इस स्थिति के लिए तैयार था । उसने जवाब दिया, ‘तुम बहुत बुद्ध हो । मुख्य आमात्य को जब तक भैया सा’ब का जीव मिलने का भरोसा न हो जाएगा, तब तक क्या वे टेंडर भिजवायेंगे ? मैं तुमसे निश्चित कहता हूँ कि अभी तक टेंडर नहीं पहुँचा । जब हम जाकर उससे कहेंगे कि हम जीव का पता पा गए हैं और आज रात को उसे पकड़ लेंगे, तब वह टेंडर भिजवाएगा और बड़ी से बड़ी रकम का भिजवाएगा । मेरा बाप लोभी है । पैसे के सामने उसका क्षत्रित्व नाक रगड़ता है । अगर कोई उससे कहे कि एक लाख रुपये देंगे, तुम अपनी ऐंठी मूँछें मुँड़ा दो तो वह मुँड़ा देगा। तुम उसे नहीं जानते, मैं जानता हूँ। चलो, अब मुख्य आमात्य के पास चलें ।’

मुफतलाल निराश हुआ । ऊपर से उसने उत्साह दिखाया । मित्रता सिद्धांत वह जानता था – भीतर कुछ और ऊपर कुछ और होना चाहिए ।

दोनों चले जा रहे थे। मुफतलाल को नियुक्ति की चिन्ता परेशान कर रही थी । उसने धीरे से कहा, ‘मेरा आर्डर अभी तक नहीं आया ।’

अस्तभान का मन भला नौकरी जैसी शुष्क बातों में कैसे लगता ? उसने बेमन से कहा, ‘आ जाएगा। क्या जल्दी है । तुम भूखे तो मरते नहीं हो ।’

मुफतलाल का मन और गिर गया। कहने लगा, फिर भी कुछ काम

……………….

कराऊँगा ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘मुख्य आमात्यजी, जीव तो आपको मिल जाएगा । पर इस बात का हमें बड़ा दुःख है कि बेचारे भया सा’ब की जान आप ले लें ।’

मुख्य आमात्य ने कान पर हाथ रखकर कहा, ‘राम ! राम ! कौन कहता है कि मैं उसे मारूंगा ? मैं उसे हरगिज नहीं मारूंगा, मैं अहिंसावादी हूँ। किसी को मारना हिंसा है; पर मारने की धमकी देना अहिंसा है । जब वह गड़बड़ करेगा, मैं उसे धमकी दे दूंगा । वह हमेशा मेरे चंगुल में रहेगा । जब सब सदस्य अपने चंगुल में रहें, तब संसदीय प्रजातन्त्र का मजा आता है। समझे आप ?’

अस्तभान ने कहा, ‘आपके इस कथन से हमारे हृदय का बोझ उतर गया। हमें बड़ी ग्लानि हो रही थी कि हम एक नेता की मृत्यु का कारण बन रहे हैं ।’

मुख्य आमात्य केवल मन्द हँसी हँसे । अस्तभान ने विदा ली और दोनों मित्र बँगले से बाहर आये। मुफतलाल ने कहा, ‘अब हम लोग अच्छे होटल में जाकर डेरा डालें। स्नान, भोजन से निवृत्त होकर फिर सचिवालय चलें । वहाँ दिन में ही सब स्थितियों का अध्ययन कर लें ।’

वे एक बड़े होटल में ठहरे। स्नान और भोजन से निबटकर सचिवालय गये । फाटक के बाहर कारों का ताँता लगा था । भीतर कमरों में बड़ी चहल- पहल थी । वे मुख्य आमात्य के कमरे के सामने पहुँचे । कमरे की जाँच की; दरवाजे को देखा । मुख्य आमात्य भीतर बैठे थे । मुफतलाल ने कहा, ‘इन्हें क्या मालूम कि जिस कुर्सी पर वे रोज बैठते हैं उसी में भैया सा’ब का जीव दीमक के रूप में छिपा है ।’

अस्तभान ने कहा, ‘राज करने वाले में यही तो कमजोरी होती है । वह पास की चीज नहीं देख सकता, उसे दूर की ही दिखाई देती है ।’

जाँच-पड़ताल करने के बाद उन्होंने उस दरबान का पता लगाया जो रात में वहाँ पहरा देता था । उससे अस्तभान ने कहा, ‘हम परदेशी हैं । हमारे राजा ने हमें आदेश दिया है कि इस राज्य के मुख्य आमात्य की कुर्सी

………………..

अचरज में आ गए कि एक रात में यह परिवर्तन कैसे हो गया। वे बैठे- बैठे, बातें करते-करते एकदम कराह उठते और हृदय पर हाथ रख लेते। लोग पूछते तो कह देते, ‘रात से दिल का दौरा हो रहा है ।’

भैया सा’ब की चैन और निडरता जाती रही । उन्हें विश्वास हो गया था कि उनका जीव पकड़ लिया गया और मुख्य आमात्य की कुर्सी से हटाकर कहीं और रखा गया है। मुख्य आमात्य की कुर्सी से दूर होने के कारण उन्हें बड़ी व्याकुलता थी । उधर अस्तभान दीमक को तनिक भी छूता तो इधर भैया सा’ब तड़प उठते ।

सुबह होते ही अस्तभान और मुफतलाल मुख्य आमात्य के पास गये और कहा, ‘भैया सा’ब का जीव हमारे कब्जे में आ गया ।’

मुख्य आमात्य हर्ष से पागल हो गए। बोले, ‘कहाँ मिला ?’

अस्तभान ने कहा ‘ सचिवालय में आपकी कुर्सी को दीमक के रूप में कुतर रहा था ।’ अस्तभान ने उन्हें पूरा विवरण सुनाया। मुख्य आमात्य आश्चर्यचकित रह गए। बोले, ‘लाइए, मेरे हवाले कीजिए ।’

अस्तभान काफी चालाक हो गया था । उसने कहा, ‘एक जगह सुरक्षित रखा है | ला देंगे। पहले आप टेंडर की रसीद दिखलाइए । राजनीतिज्ञों की धोखेबाजी से मैं अच्छी तरह परिचित हूँ । अपना काम निकालकर दूध की मक्खी की तरह फेंक देते हैं ।’

मुख्य आमात्य हँसे । कहने लगे, ‘कुमार, आपकी अवस्था कम है, फिर भी आपकी राजनैतिक समझ-बूझ उच्चकोटि की है । आप सच कहते हैं, किसी भी राजनीतिज्ञ का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए ।’ इतना कहकर उन्होंने टेबिल की दराज से २५ लाख के टेंडर की रसीद निकाल दिखाई ।

अस्तभान को संतोष हुआ और उसने जेब से डिबिया निकाली । उसे खोलकर धागे को खींचा और धागे से बंधा दीमक मुख्य आमात्य के सामने झुलाने लगा । अस्तभान ने कहा, ‘यह है भैया सा’ब का जीव ।’

मुख्य आमात्य उसे बड़े ध्यान से देखते रहे। फिर बोले, ‘जैसे आपने मेरा भरोसा नहीं किया, वैसे ही मैं भी एकदम यह मानने को तैयार नहीं कि भैया सा’ब का जीव यही है । हो सकता है आप कोई भी दीमक पकड़ लाए हों। मैं परीक्षा करूँगा ।’

ऐसा कहकर उन्होंने एक गुप्तचर को बुलाया और उसे आदेश दिया कि भैया सा’ब के पास किसी बहाने से जाओ और उनमें क्या विशेष परिवर्तन होते हैं, देखकर आओ ।

गुप्तचर भैया सा’ब के पास आकर बैठ गया । इधर मुख्य आमात्य ने दीमक को हलके से दबाया। उधर भैया सा’ब कराहकर कुर्सी में लुढ़क गए । गुप्तचर ने लौटकर सारा हाल सुनाया । तब मुख्य आमात्य ने अस्तभान से कहा, ‘मुझे विश्वास हो गया। भैया सा’ब का जीव यही है । अब राजकुमारी से आपकी शादी कराने की जिम्मेदारी मेरी है । आप कृपा कर हमारी अतिथिशाला में ठहरिए । मैं महाराज से बात करके आपको सूचित करता हूँ ।’

दोनों मित्र सेवक के साथ अतिथिशाला चले गये ।

होना बातचीत शादी की

इधर मुख्य आमात्य राजा राखड़सिंह के पास गये । राजा ने पूछा, ‘टेंडर भिजवा दिया ?’

‘जी हाँ, तभी भिजवा दिया था ।’

‘फिर क्या हुआ ? टेंडर खुले कि नहीं ? मुझे बड़ी चिन्ता है । इस लड़की को जल्दी ठिकाने लगवाओ ।’

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘मैं रात-दिन इसी प्रयत्न में लगा हूँ। टेंडर कोई भरोसा नहीं । अपना टेंडर मंजूर भी हो सकता है और नहीं भी। आप जानते हैं कि राजा भयभीतसिंह बड़ा लोभी है। कोई अगर दस अशर्फियाँ बढ़ा देगा तो उसी को लड़का दे देगा । इसलिए मैंने इस मामले में कूटनीति से काम लिया है। मैंने अस्तभान को यहीं बुला लिया है ।’

राजा को आश्चर्य हुआ । बोले, ‘तो क्या वह यहीं है ?’

मुख्य आमात्य बोले, ‘जी हाँ, अतिथिशाला में है । वह राजकुमारी से विवाह करने के लिए बहुत उत्सुक है । जब बेटा लड़की से प्रेम करता हो तो बाप की एक नहीं चलती । बाप से लड़ने का काम बेटे को ही सौंपा जा सकता है । मैं ऐसी चाल चला हूँ कि अस्तभान को बिना कुछ दिये शादी हो सकती है । हम आज ही दोनों की सरकारी शादी करवा दें । अस्तभान इतना बेताब है कि वह एकदम कर लेगा। इस तरह हमारा पच्चीस लाख भी बच जाएगा ।’

राजा ने कहा, ‘योजना तो बहुत अच्छी है । पर मैं उसके बाप को जानता हूँ । उस बाप का बेटा इतना बुद्धू नहीं हो सकता जितना तुम उसे समझ रहे हो ।’

मुख्य आमात्य ने निवेदन किया, ‘महाराज, यह आवश्यक नहीं है। कि चतुर बाप का बेटा भी चतुर हो । हर बेटा बाप से आगे बढ़ना चाहता है । जब वह देखता है कि चतुराई में वह आगे नहीं बढ़ सकता तो बेवकूफी में आगे बढ़ जाता है’। अस्तभान को मैंने जाँच लिया है। हाँ, उसका साथी अलबत्ता जरा तेज है ।’

राजा ने कहा, ‘खैर तुम प्रयत्न करो। जितने कम में हो सके, मामला निबटाओ । कब शादी होनी है ?”

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘आज ही हो जाए। दोपहर बाद । मैं अस्तभान के पास जाता हूँ । आप राजकुमारी की तैयारी कराइये ।’

मुख्य आमात्य अतिथिशाला चले गये । राजा ने रानी से नागफनी की तैयारी करने के लिए कहा ।

जिस समय मुख्य आमात्य अतिथिशाला पहुँचे, वहाँ एक ब्राह्मण अस्तभान और नागफनी की जन्मपत्रियाँ खोले बैठा था । वह फल बतला रहा था, ‘राजकुमार, भगवान ने दोनों को एक-दूसरे के लिए ही बनाया है | ऐसी जोड़ी त्रिलोक में नहीं मिल सकती है । ३६ गुण और ७२ दुर्गुण मिलते हैं। जीवन सुखी रहेगा। भरा-पूरा परिवार रहेगा ।’

मुफ्तलाल ने पूछा, ‘संतति का क्या योग है ?’

ब्राह्मण ने ग्रह-दशा देखकर बताया, ‘ग्रहों को देखते हुए १६ संतानों का योग है । अगर बीच में ‘फेमिली प्लानिंग’ ( परिवार नियोजन) आ गया तो कुछ नहीं कहा जा सकता। बात यह है कुमार, कि विज्ञान ने ग्रह-फल में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। हम नौ ग्रह मानते हैं । उनके फल से मनुष्य का भाग्य निर्णय होता है । अब कुछ देश कृत्रिम ग्रह बनाकर छोड़ रहे हैं जो पृथ्वी के चक्कर लगा रहे हैं । ये हमारे ग्रहों के फल में हस्तक्षेप करते हैं । इसलिए फल निश्चित नहीं रहा ।’

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘अच्छा विप्रदेव, अब आप पोथी-पत्रा समेटें, विज्ञान के कारण आपकी दक्षिणा में फर्क नहीं पड़ेगा ।’

ब्राह्मण ने पोथी- पत्रा समेटा । अस्तभान ने उसे एक अशर्फी दी और वह आशीर्वाद देकर चला गया ।

मुख्य आमात्य ने एक क्षण में मुख पर घोर पवित्रता और सद्भावना धारण कर ली और कहा, ‘कुमार, आपने मेरा राजनैतिक जीवन कम-से- कम २५ वर्ष बढ़ा दिया । मैं जीवन के अन्तिम क्षण तक अपने पद पर रह सकूंगा और पद पर ही मरूँगा । मेरी बड़ी लालसा है कि मेरी अन्त्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ हो ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘ऐसी इच्छा स्वाभाविक है । सत्ता का मोह किसे नहीं होता । इन्द्र सत्ता के लिए कितनी अप्सराओं से कितने तपस्वियों की साधना भंग करवा चुका है । पद की कुर्सियों में गीली गोंद लगी रहती है । जो बैठता है चिपक जाता है । जब मामूली कुर्सियों में इतनी गोंद होती है तब आपकी तो मुख्य आमात्य की कुर्सी है। वह तो पूरी गोंद की ही बनी होगी । ‘

मुख्य आमात्य को यह बात कुछ अच्छी नहीं लग रही थी । वे तुरन्त अपने विषय पर आये । बोले, ‘कुमार मैं चाहता हूँ कि जैसे मेरी मनो- कामना पूरी हुई, वैसे ही आपकी हो जाए। आपके उपकार का बदला जितने अंश में चुक जाएगा, उतनी ही मेरी आत्मा हल्की होगी। मैं चाहता हूँ कि आपकी शादी आज ही और यहीं हो जाए ।’

अस्तभान यह सुनकर खुशी से उछल पड़ा और बोला, ‘सचमुच ? क्या सचमुच आज ही शादी हो सकती है ?’

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘हाँ, मैं ऐसा प्रयत्न कर रहा हूँ । हमारे राज्य के कानून कुछ भिन्न प्रकार के हैं । इनके अनुसार आप आज ही सरकारी विवाह – दफ्तर में जाकर शादी कर सकते हैं । आपको प्रमाण-पत्र मिल जाएगा जिस पर किसी राज्य में आपत्ति नहीं उठाई जाएगी। मैंने महाराज से अभी बात की है। पहले तो वे इतने जल्दी विवाह करने को तैयार नहीं थे; पर जब मैंने इस प्रश्न पर इस्तीफा देने की धमकी दी तब वे राजी हो गए ।’

मुफतलाल ध्यान से मुख्य आमात्य के चेहरे को देख रहा था । मुख्य आमात्य भी सशंकित दृष्टि से उसकी प्रतिक्रिया को ताड़ रहे थे। दोनों एक-दूसरे को समझ गए थे। मुफतलाल ने कहा, ‘मेरा एक विनम्र निवेदन है । जब पच्चीस लाख का टेंडर भर ही दिया गया है और आप इस संबंध के लिए तैयार हैं, तो दो-चार दिन बाद विधिवत् विवाह ही क्यों न हो ? आखिर कुमार के भी पिता हैं । वे भी शादी बड़े ठाठ से करना चाहेंगे ।’

मुख्य आमात्य के चेहरे पर कठोरता आ गई । अस्तभान भी इस बात से प्रसन्न नहीं हुआ । वह कुछ बोलने ही वाला था कि मुफतलाल ने उसे चुप रहने का इशारा किया।

मुख्य आमात्य वाणी में खूब मिठास लाकर बोले, ‘मैं तो कुमार के हित की दृष्टि से ही जल्दी करना चाहता हूँ । आप जानते हैं कि आपके महाराज हठी स्वभाव के हैं। हो सकता है कि वे किसी कीमत पर यह सम्बन्ध न करें। तब आप क्या करेंगे ? तब मैं भी क्या कर सकता हूँ ? इसलिए शुभ काम में देर नहीं करनी चाहिए।’

अस्तभान स्वीकृति दे ही रहा था कि मुफतलाल ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसे उठाते हुए कहा कि हम लोग जरा आपस में सलाह कर लेना चाहते हैं। वह कुमार को उठाकर भीतर कमरे में ले गया और वहाँ कहा; ‘कुमार, आप बहुत उतावले हो रहे हैं। आप जानते हैं कि राजनीतिज्ञ की हर बात में कोई दाँव-पेंच होता है । उसे एकदम स्वीकार नहीं करना चाहिए। वह जो कहता है, प्रयोजन ठीक उससे उल्टा होता है । यदि वह आपको भला आदमी कहे तो समझना चाहिए कि वह बुरा आदमी समझता है । यदि वह आपकी भलाई करने को उत्सुक हो तो निश्चय ही वह अपनी भलाई करना चाहता है । मुख्य आमात्य आपके भले के लिए इतने व्याकुल हो रहे हैं कि मुझे उनकी नीयत पर शक होने लगा है ।’

अस्तभान ने खीझकर कहा, ‘पर अब उसका क्या स्वार्थ हो सकता है ?’

मुफतलाल ने कहा, ‘वह पच्चीस लाख बचाना चाहता है । यदि आपका विवाह आपके पिता के मारफत होगा तो यह रकम देनी होगी । यहाँ जल्दी शादी कर देने से यह रकम बच जाएगी ।’

अस्तभान ने मुफतलाल की बुद्धि की बहुत तारीफ की और कहा कि तुम आगे चलकर बहुत सफल कलेक्टर बनोगे ।

मुफतलाल बोला, ‘आप उससे साफ कह दीजिए कि हम अपने नगर जाकर विधिवत् विवाह करेंगे । अपनी चाल कटती देख वह समझौता करना चाहेगा । तब हम दस-पन्द्रह लाख झटक लेंगे ।’

वे दोनों बाहर आये । मुख्य आमात्य ने उत्सुकता से उनकी ओर देखा । अस्तभान ने कहा, ‘हम यहाँ शादी नहीं करेंगे। पहले घर जायेंगे ।’

मुख्य आमात्य बेचैन हो उठा। पूछा, ‘क्यों ? आपका विचार क्यों बदल गया ?’

अस्तभान ने कहा, ‘इसलिए कि हम आपकी चाल समझ गए। आप अपने पच्चीस लाख बचाना चाहते हैं । हम कोई नादान बच्चे नहीं हैं । मरी नाड़ियों में राज-रक्त है और मेरा यह मित्र मुफतलाल जब कलेक्टर बनेगा तब अच्छे-अच्छे आमात्यों को जेब में रखेगा ।’

मुख्य आमात्य ने देखा कि उनके पत्ते उघड़ गए हैं । वे समझौते के स्वर में बोले, ‘कुमार, मैं अपने राज्य का हित देख रहा था और यह कोई बुरी बात नहीं है । आप भी यही कर रहे हैं। अब हम लोग खुलासा बात कर लें । बीच की कोई रकम तय हो जाय । हम आपको दस लाख दें तो क्या आप अभी विवाह कर लेंगे ?’

अस्तभान ने यह रकम स्वीकार कर ली। मुख्य आमात्य यह कहकर विदा हुए कि हम राजकुमारी की तैयारी कर देते हैं । आप भी विवाह – दफ्तर जाने के लिए तैयार हो जाइए ।

होना शादी और रहना सुख से सबका

इधर महल में नागफनी का श्रृंगार होने लगा । उबटन से स्नान कराया गया । सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनाए गए ।

नागफनी ने करेलामुखी से कहा, ‘सखि, एक बात तो बता । मेरे भूत- पूर्व प्रेमियों ने जो कपड़े और आभूषण दिये हैं, उनका क्या करूँ ? क्या उन्हें वापिस कर दूं ?”

करेलामुखी ने कहा, ‘नहीं राजकुमारी, इतना कठोर न बनो। इससे उन बेचारों का हृदय फट जाएगा । इनको अपने साथ ले जाओ ।’

नागफनी ने कहा, ‘पर वे ( अस्तभान) क्या सोचेंगे ? प्रेमियों के उपहार ससुराल ले जाना क्या अच्छा है ?”

करेलामुखी ने कहा, ‘कुमार बहुत उदार विचारों के हैं । वे स्वयं प्रेम कर चुके हैं और उनके दिये वस्त्र आभूषण कई कुलवधुएँ पहन रही हैं । वे जानते हैं कि तुम्हारा स्वभाव बहुत प्रेमपूर्ण है । जब तुम विवाह के पूर्व प्रेम कर चुकी हो तो विवाह के बाद तुम पति को बहुत प्रेम करोगी ही ।’

नागफनी ने वे वस्त्र, आभूषण भी पेटियों में रखवा लिए ।

सखियाँ इकट्ठी हो गईं और मंगलगान होने लगे ।

नागफनी और करेलामुखी गले मिलकर ‘सावन-भादों के रूप’ रोने लगीं। नागफनी ने कहा, ‘सखि, तुझे छोड़ते हुए मेरा हृदय फटा जा रहा है | यदि अपने पति के आचरण पर मुझे विश्वास होता तो मैं तुझे अपने साथ ले चलती । पर जैसा कि तू जानती है, वे बहुत चंचल स्वभाव के हैं । मेरा जी यह सोचकर फटा जाता है कि अब तेरा क्या होगा ? तू अब विवाह कर ले ।’

करेलामुखी बोली, ‘किससे करूँ ? मैंने अभी तक इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि मुझे विवाह भी करना है। एक आदमी ने मेरे मन को जीता है ।’

नागफनी ने उत्सुकता से पूछा, ‘वह भाग्यवान् कौन है ?’

करेलामुखी ने लजाते हुए कहा, ‘राजकुमार के सखा श्रीमान् मुफतलाल जी ।’

यह सुन नागफनी बहुत प्रसन्न हुई । उसने कहा, ‘सखि, वह आदमी मुझे भी बहुत पसन्द है । यदि राजकुल में शादी करने की मजबूरी न होती तो मैं उसी से शादी करना चाहती । तू अवश्य उससे शादी कर ले ।’

करेलामुखी ने कहा, ‘नहीं, अब नहीं करूंगी। यदि आपका मन भी उसके प्रति आकर्षित हो चुका है तो उससे शादी मेरे लिए खतरनाक है | जैसे तुम्हें राजकुमार के मन पर भरोसा नहीं है, वैसे ही मुझे तुम्हारे मन पर नहीं है । मैं उनसे शादी कर लूं और फिर तुम उन्हें हथिया लो, तो मेरा क्या होगा ?’

नागफनी ने करेलामुखी को बहुत समझाया कि मैंने तो यों ही वह बात कह दी थी ।

उसने कहा, ‘सखि, तू निश्चित रहा । मुफतलाल जैसे दो कौड़ी के आदमी पर क्या मेरा मन आ सकता है ? न उसके पास धन है, न सौंदर्य । उस जैसे निकम्मे आदमी से भला मैं प्रेम कर सकती हूँ ?”

ये उद्गार सुनकर करेलामुखी आश्वस्त हुई । उसने कहा, ‘यदि वास्तव में तुम उनके बारे में ऐसा सोचती हो तो मैं उनसे शादी कर लूंगी । स्त्री निकृष्ट-से-निकृष्ट आदमी से भी शादी कर लेगी, पर श्रेष्ठतम पुरुष का भी दूसरी स्त्री से बँटवारा नहीं करेगी । हे राजकुमारी, तुम ससुराल जाकर उनका मन मेरी ओर फेरना ।’

नागफनी ने उसे वचन दिया और दोनों सखियाँ फिर गले मिलीं ।

इतने में विवाह दफ्तर जाने का समय हो गया ।

नागफनी अपनी सखियों के साथ धीरे-धीरे दफ्तर की ओर चली ।

उधर मुफतलाल ने भी अस्तभान को अच्छे कपड़े पहनाए और दोनों विवाह-दफ्तर पहुँच गए।

वहाँ अस्तभान की आँखें नागफनी से मिलीं तो दोनों सुध-बुध भूल गए । नागफनी हर्ष से मूर्च्छित हो गई । करेलामुखी ने उसके मुख पर पानी छिड़का तब उसे होश आया ।

विवाह अधिकारी ने कागजों में खानापूरी की। उसने पहले नागफनी से दस्तखत कराए । इसके पश्चात् अस्तभान के आगे कागज बढ़ाया । अस्तभान ने कलम हाथ में लिया । तभी मुफतलाल ने पीछे से उसके कान में कहा, ‘पहले पैसे ले लो ।’ अस्तभान मुख्य आमात्य की तरफ देखने लगा । मुख्य आमात्य ने कहा, ‘कुमार, दस्तखत कीजिए न ।’

अस्तभान ने कहा, ‘पहले दस लाख का चेक दीजिए ।’

मुख्य आमात्य ने कहा, ‘हाँ, हाँ, चेक तो हम देंगे ही। आपको जरा भी विश्वास नहीं है । ‘

अस्तभान कलम को लिये खड़ा रहा। आखिर मुख्य आमात्य ने जेब से चेक निकालकर उसके हाथ में रख दिया ।

अस्तभान ने दस्तखत कर दिए।

बाहर शहनाई बजने लगी । फूलों की वर्षा होने लगी। नगर में जय- जयकार होने लगा ।

सारे नगर में खुशी छा गई । सब लोग इस जोड़ी की तारीफ कर रहे थे । समझदार कहते थे, ‘जोड़ी ऐसी होती है। एक-दूसरे के बिलकुल योग्य हैं । इस शादी में दो घर बिगड़ने से बच गए। अगर दोनों की शादी परस्पर न होकर अलग-अलग होती तो दो घर बरबाद होते । इस जोड़ी की बलिहारी है ।’

सब सुख से रहने लगे ।

अस्तभान और नागफनी अपने महल में सुखपूर्वक रहते । उनके विवाह के दिन दोनों राज्यों में हर साल उत्सव होता था । इस दिन प्रेमी-प्रेमिका उपवास रखते थे और प्रार्थना करते थे कि हे भगवान्, जैसी नागफनी-अस्तभान की जोड़ी जुड़ी, वैसी हमारी भी जुड़े ।

मुफतलाल की शादी करेलामुखी से हो गई थी। वह कलेक्टर हो गया था । कई बार वह घूस खाने के मामले में फँस गया, पर इस कारण छोड़ दिया गया कि रानी साहिबा की सखि का पति है ।

राजा भयभीतसिंह सफेद बाल उखाड़ने से परेशान होकर अब बचे हुए काले बाल उखाड़ने लगे थे ।

गोबरधन, वृद्धावस्था और रोग के कारण, उठ बैठ नहीं सकते थे । वे बहरे और गूँगे हो,गए थे, पर अभी भी मुख्य आमात्य बने हुए थे । वे ‘एम्बुलैंस’ में विधान-मंडल जाते थे और इशारे से जवाब देते थे ।

भैया सा’ब रोज सबेरे गोबरधन बाबू के बंगले पर हाजिरी देने पहुँचते थे ।

कुमार के प्रेमपत्र पहुँचाने वाला प्रोफेसर एकदम प्रिंसिपल बना दिया गया था ।

जिन पुलिस अफसरों ने जोगी प्रपंचगिरी को पकड़ा था, वे बरखास्त कर दिए गए थे ।

जोगी प्रपंच गिरी अपने नगर की नगरपालिका के अध्यक्ष हो गए थे और नागरिक जीवन सुधार रहे थे ।

राजा निर्बलसिंह यह लोक छोड़ गए थे। उनके बेटों में गद्दी के लिए लड़ाई हुई जिसमें आधे बेटे मारे गए। उस राज्य में अराजकता देखकर पड़ोसी राजा राखड़सिंह ने शांति और सुरक्षा के लिए उस राज्य पर कब्जा कर लिया था ।

अस्तभान जिस विश्वविद्यालय से बी० ए० में फेल हुआ था, उसने उसे ससम्मान (आनरेरी) डाक्टरेट दे दी थी और स्वयं गौरवान्वित हुआ था।

(अधूरी रचना)

लेखक

  • हरिशंकर परसाईजी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 ईस्वी को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के इटारसी के निकट जमावी नामक ग्राम में हुआ था। परसाई जी की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही हुई और नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। खण्डवा में 6 माह तक अध्यापन कार्य किया तथा सन् 1941 से 1943 ई० तक 2 वर्ष जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालेज में शिक्षण कार्य किया। सन् 1943 ई० में वहीं मॉडल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। सन् 1952 ई० में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वर्ष 1953 से 1957 ई० तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। सन् 1957 ई० में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरुआत की। कलकत्ता के ललित कला महाविद्यालय से सन् 1960 ई० में डिप्लोमा किया। अध्यापन-कार्य में ये कुशल थे, किन्तु आस्था के विपरीत अनेक बातों का अध्यापन इनको यदा-कदा खटक जाता था। 10 अगस्त, सन् 1995 ईस्वी को इनका निधन हो गया। हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय साहित्य में इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अध्यापन कार्य के साथ-साथ ये साहित्य सृजन की ओर मुड़े और जब यह देखा कि इनकी नौकरी इनके साहित्यिक कार्य में बाधा पहुँचा रही है तो इन्होंने नौकरी को तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करके साहित्य-साधना में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसके प्रकाशक व संपादक ये स्वयं थे। वर्षों तक विषम आर्थिक परिस्थिति में भी पत्रिका का प्रकाशन होता रहा और बाद में बहुत घाटा हो जाने पर इसे बन्द कर देना पड़ा। सामयिक साहित्य के पाठक इनके लेखों को वर्तमान समय की प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं। परसाई जी नियमित रूप से ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए अपनी रचनाएँ लिखते रहे। परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर इन्होंने पेरिस-प्रवास किया। ये उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे। हरिशंकर परसाई की प्रमुख रचनाएं परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं— कहानी संग्रह — 1. हँसते हैं, रोते हैं, 2. जैसे उनके दिन फिरे आदि। उपन्यास — 1. रानी नागफनी की कहानी, 2. तट की खोज आदि। निबंध-व्यंग्य — 1. तब की बात और थी, 2. भूत के पाँव पीछे, 3. बेईमान की परत, 4. पगडंडियों का जमाना, 5. सदाचार की तावीज, 6 शिकायत मुझे भी है, 7. और अन्त में आदि। परसाई जी द्वारा रचित कहानी, उपन्यास तथा निबंध व्यक्ति और समाज की कमजोरियों पर चोट करते हैं। समाज और व्यक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियाँ होती हैं जो जीवन को आडम्बरपूर्ण और दूभर बना देती हैं। इन्हीं विसंगतियों का पर्दाफाश परसाई जी ने किया है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी हमारे व्यक्तित्त्व को विघटित कर देती हैं। परसाई जी के लेख पढ़ने के बाद हमारा ध्यान इन विसंगतियों और कमजोरियों की ओर बरबस चला जाता है। हरिशंकर परसाई की भाषा शैली परसाई जी एक सफल व्यंग्यकार हैं और व्यंग्य के अनुरूप ही भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में भाषा के बोलचाल के शब्दों एवं तत्सम तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्चकोटि का है। अर्थवत्ता की दृष्टि से इनका शब्द चयन अति सार्थक है। लक्षणा एवं व्यंजना का कुशल उपयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक पहुँचाने में समर्थ रहा है। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं में शैली के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं— व्यंग्यात्मक शैली — परसाई जी की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य का आश्रय लिया है। सामाजिक तथा राजनीतिक फरेबों पर भी इन्होंने अपने व्यंग्य से करारी चोट की है। इस शैली की भाषा मिश्रित है। सटीक शब्द चयन द्वारा लक्ष्य पर करारे व्यंग्य किए गए हैं। विवरणात्मक शैली — प्रसंगवश, कहीं-कहीं, इनकी रचनाओं में शैली के इस रूप के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा मिश्रित है। उद्धरण शैली — अपने कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शैली के इस रूप का उन्मुक्त भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने रचनाओं में गद्य तथा पद्य दोनों ही उद्धरण दिये हैं। इस शैली के प्रयोग से इनकी रचनाओं में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। सूक्ति कथन शैली — सूक्तिपरक कथनों के द्वारा परसाई जी ने विषय को बड़ा रोचक बना दिया है। कहीं इनकी सूक्ति तीक्ष्ण व्यंग्य से परिपूर्ण होती है तो, कहीं विचार और संदेश लिए हुए होती है।

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रानी नागफनी की कहानी भाग2/हरिशंकर परसाई

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