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भोलाराम का जीव/हरिशंकर परसाई

ऐसा कभी नहीं हुआ था. धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास-स्थान ‘अलॉट’ करते आ रहे थे. पर ऐसा कभी नहीं हुआ था.

सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे. गलती पकड़ में ही नहीं आ रही थी. आखिर उन्होंने खीझ कर रजिस्टर इतने जोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गई. उसे निकालते हुए वे बोले – “महाराज, रिकार्ड सब ठीक है. भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा.”

धर्मराज ने पूछा – “और वह दूत कहाँ है?”

“महाराज, वह भी लापता है.”

इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बदहवास वहाँ आया. उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था. उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे – “अरे, तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?”

यमदूत हाथ जोड़ कर बोला – “दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया. आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया. पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम का देह त्यागा, तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की. नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्यों ही वह मेरी चंगुल से छूट कर न जाने कहाँ गायब हो गया. इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला.”

धर्मराज क्रोध से बोला – “मूर्ख ! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया.”

दूत ने सिर झुका कर कहा – “महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी. मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके. पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया.”

चित्रगुप्त ने कहा- “महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है. लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं. होजरी के पार्सलों के मोजे रेलवे अफसर पहनते हैं. मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं. एक बात और हो रही है. राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बन्द कर देते हैं. कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद खराबी करने के लिए तो नहीं उड़ा दिया?”

धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा – “तुम्हारी भी रिटायर होने की उमर आ गई. भला भोलाराम जैसे नगण्य, दीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?”

इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि यहाँ आ गए. धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले – “क्यों धर्मराज, कैसे चिन्तित बैठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?”

धर्मराज ने कहा – “वह समस्या तो कब की हल हो गई. नरक में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं. कई इमारतों के ठेकेदार हैं जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं. बड़े बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया. ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मजदूरों की हाजिरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गए ही नहीं. इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं. वह समस्या तो हल हो गई, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है. भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई. उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया. इस ने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला. अगर ऐसा होने लगा, तो पाप पुण्य का भेद ही मिट जाएगा.”

नारद ने पूछा – “उस पर इनकमटैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो.”

चित्रगुप्त ने कहा – “इनकम होती तो टैक्स होता. भुखमरा था.”

नारद बोले – “मामला बड़ा दिलचस्प है. अच्छा मुझे उसका नाम पता तो बताओ. मैं पृथ्वी पर जाता हूँ.”

चित्रगुप्त ने रजिस्टर देख कर बताया – “भोलाराम नाम था उसका. जबलपुर शहर में धमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ़ कमरे टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था. उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और एक लड़की. उम्र लगभग साठ साल. सरकारी नौकर था. पाँच साल पहले रिटायर हो गया था. मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया, इस लिए मकान मालिक उसे निकालना चाहता था. इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया. आज पाँचवाँ दिन है. बहुत सम्भव है कि अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा. इस लिए आप को परिवार की तलाश में काफी घूमना पड़ेगा.”

मां-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए.

द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज लगाई – “नारायण! नारायण!” लड़की ने देखकर कहा- “आगे जाओ महाराज.”

नारद ने कहा – “मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछ-ताछ करनी है. अपनी मां को जरा बाहर भेजो, बेटी!”

भोलाराम की पत्नी बाहर आई. नारद ने कहा – “माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी?”

“क्या बताऊँ? गरीबी की बीमारी थी. पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे. पर पेंशन अभी तक नहीं मिली. हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले में विचार हो रहा है. इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए. फिर बरतन बिके. अब कुछ नहीं बचा था. चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दी.”

नारद ने कहा – “क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी.”

“ऐसा तो मत कहो, महाराज ! उम्र तो बहुत थी. पचास साठ रुपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं कर के गुजारा हो जाता. पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गये और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली.”

दुःख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं. वे अपने मुद्दे पर आए, “मां, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उन का विशेष प्रेम था, जिस में उन का जी लगा हो?”

पत्नी बोली – “लगाव तो महाराज, बाल बच्चों से ही होता है.”

“नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है. मेरा मतलब है, किसी स्त्री…”

स्त्री ने गुर्रा कर नारद की ओर देखा. बोली – “अब कुछ मत बको महाराज ! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो. जिंदगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री की ओर आँख उठाकर नहीं देखा.”

नारद हँस कर बोले – “हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है. यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है. अच्छा, माता मैं चला.”

स्त्री ने कहा – “महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरूष हैं. कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उन की रुकी हुई पेंशन मिल जाए. इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए.”

नारद को दया आ गई थी. वे कहने लगे – “साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं. फिर भी मैं सरकारी दफ्तर जाऊँगा और कोशिश करूंगा.”

वहाँ से चल कर नारद सरकारी दफ़्तर पहुँचे. वहाँ पहले ही से कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के केस के बारे में बातें कीं. उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला – “भोलाराम ने दरख्वास्तें तो भेजी थीं, पर उन पर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गई होंगी.”

नारद ने कहा – “भई, ये बहुत से ‘पेपर-वेट’ तो रखे हैं. इन्हें क्यों नहीं रख दिया?”

बाबू हँसा – “आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती. दरख्वास्तें ‘पेपरवेट’ से नहीं दबतीं. खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए.”

नारद उस बाबू के पास गए. उस ने तीसरे के पास भेजा, तीसरे ने चौथे के पास चौथे ने पांचवे के पास. जब नारद पच्चीस-तीस बाबुओं और अफ़सरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा – “महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड़ गए. अगर आप साल भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहे, तो भी काम नहीं होगा. आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिए. उन्हें खुश कर दिया तो अभी काम हो जाएगा.”

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे. बाहर चपरासी ऊँघ रहा था. इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं. बिना ‘विजिटिंग कार्ड’ के आया देख साहब बड़े नाराज हुए. बोले – “इसे कोई मन्दिर वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आए! चिट क्यों नहीं भेजी?”

नारद ने कहा – “कैसे भेजता? चपरासी सो रहा है.”

“क्या काम है?” साहब ने रौब से पूछा.

नारद ने भोलाराम का पेंशन केस बतलाया.

साहब बोले- “आप हैं बैरागी. दफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते. असल में भोलाराम ने गलती की. भई, यह भी एक मन्दिर है. यहाँ भी दान पुण्य करना पड़ता है. आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं. भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं. उन पर वज़न रखिए.”

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई. साहब बोले – “भई, सरकारी पैसे का मामला है. पेंशन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है. देर लग ही जाती है. बीसों बार एक ही बात को बीस जगह लिखना पड़ता है, तब पक्की होती है. जितनी पेंशन मिलती है उतने की स्टेशनरी लग जाती है. हाँ, जल्दी भी हो सकती है मगर…” साहब रुके.

नारद ने कहा – “मगर क्या?”

साहब ने कुटिल मुसकान के साथ कहा, “मगर वज़न चाहिए. आप समझे नहीं. जैसे आपकी यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है. मेरी लड़की गाना बजाना सीखती है. यह मैं उसे दे दूंगा. साधु-सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं.”

नारद अपनी वीणा छिनते देख जरा घबराए. पर फिर संभल कर उन्होंने वीणा टेबिल पर रख कर कहा – “यह लीजिए. अब जरा जल्दी उसकी पेंशन ऑर्डर निकाल दीजिए.”

साहब ने प्रसन्न्ता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजाई. चपरासी हाजिर हुआ.

साहब ने हुक्म दिया – बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फ़ाइल लाओ.

थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़-सौ दरख्वास्तों से भरी फ़ाइल ले कर आया. उसमें पेंशन के कागजात भी थे. साहब ने फ़ाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा – “क्या नाम बताया साधु जी आपने?”

नारद समझे कि साहब कुछ ऊँचा सुनता है. इसलिए जोर से बोले – “भोलाराम!”

सहसा फ़ाइल में से आवाज आई – “कौन पुकार रहा है मुझे. पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?”

नारद चौंके. पर दूसरे ही क्षण बात समझ गए. बोले – “भोलाराम ! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?”

“हाँ ! आवाज आई.”

नारद ने कहा – “मैं नारद हूँ. तुम्हें लेने आया हूँ. चलो स्वर्ग में तुम्हारा इंतजार हो रहा है.”

आवाज आई – “मुझे नहीं जाना. मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों पर अटका हूँ. यहीं मेरा मन लगा है. मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता.”

लेखक

  • हरिशंकर परसाईजी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 ईस्वी को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के इटारसी के निकट जमावी नामक ग्राम में हुआ था। परसाई जी की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही हुई और नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। खण्डवा में 6 माह तक अध्यापन कार्य किया तथा सन् 1941 से 1943 ई० तक 2 वर्ष जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालेज में शिक्षण कार्य किया। सन् 1943 ई० में वहीं मॉडल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। सन् 1952 ई० में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वर्ष 1953 से 1957 ई० तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। सन् 1957 ई० में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरुआत की। कलकत्ता के ललित कला महाविद्यालय से सन् 1960 ई० में डिप्लोमा किया। अध्यापन-कार्य में ये कुशल थे, किन्तु आस्था के विपरीत अनेक बातों का अध्यापन इनको यदा-कदा खटक जाता था। 10 अगस्त, सन् 1995 ईस्वी को इनका निधन हो गया। हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय साहित्य में इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अध्यापन कार्य के साथ-साथ ये साहित्य सृजन की ओर मुड़े और जब यह देखा कि इनकी नौकरी इनके साहित्यिक कार्य में बाधा पहुँचा रही है तो इन्होंने नौकरी को तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करके साहित्य-साधना में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसके प्रकाशक व संपादक ये स्वयं थे। वर्षों तक विषम आर्थिक परिस्थिति में भी पत्रिका का प्रकाशन होता रहा और बाद में बहुत घाटा हो जाने पर इसे बन्द कर देना पड़ा। सामयिक साहित्य के पाठक इनके लेखों को वर्तमान समय की प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं। परसाई जी नियमित रूप से ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए अपनी रचनाएँ लिखते रहे। परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर इन्होंने पेरिस-प्रवास किया। ये उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे। हरिशंकर परसाई की प्रमुख रचनाएं परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं— कहानी संग्रह — 1. हँसते हैं, रोते हैं, 2. जैसे उनके दिन फिरे आदि। उपन्यास — 1. रानी नागफनी की कहानी, 2. तट की खोज आदि। निबंध-व्यंग्य — 1. तब की बात और थी, 2. भूत के पाँव पीछे, 3. बेईमान की परत, 4. पगडंडियों का जमाना, 5. सदाचार की तावीज, 6 शिकायत मुझे भी है, 7. और अन्त में आदि। परसाई जी द्वारा रचित कहानी, उपन्यास तथा निबंध व्यक्ति और समाज की कमजोरियों पर चोट करते हैं। समाज और व्यक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियाँ होती हैं जो जीवन को आडम्बरपूर्ण और दूभर बना देती हैं। इन्हीं विसंगतियों का पर्दाफाश परसाई जी ने किया है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी हमारे व्यक्तित्त्व को विघटित कर देती हैं। परसाई जी के लेख पढ़ने के बाद हमारा ध्यान इन विसंगतियों और कमजोरियों की ओर बरबस चला जाता है। हरिशंकर परसाई की भाषा शैली परसाई जी एक सफल व्यंग्यकार हैं और व्यंग्य के अनुरूप ही भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में भाषा के बोलचाल के शब्दों एवं तत्सम तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्चकोटि का है। अर्थवत्ता की दृष्टि से इनका शब्द चयन अति सार्थक है। लक्षणा एवं व्यंजना का कुशल उपयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक पहुँचाने में समर्थ रहा है। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं में शैली के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं— व्यंग्यात्मक शैली — परसाई जी की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य का आश्रय लिया है। सामाजिक तथा राजनीतिक फरेबों पर भी इन्होंने अपने व्यंग्य से करारी चोट की है। इस शैली की भाषा मिश्रित है। सटीक शब्द चयन द्वारा लक्ष्य पर करारे व्यंग्य किए गए हैं। विवरणात्मक शैली — प्रसंगवश, कहीं-कहीं, इनकी रचनाओं में शैली के इस रूप के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा मिश्रित है। उद्धरण शैली — अपने कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शैली के इस रूप का उन्मुक्त भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने रचनाओं में गद्य तथा पद्य दोनों ही उद्धरण दिये हैं। इस शैली के प्रयोग से इनकी रचनाओं में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। सूक्ति कथन शैली — सूक्तिपरक कथनों के द्वारा परसाई जी ने विषय को बड़ा रोचक बना दिया है। कहीं इनकी सूक्ति तीक्ष्ण व्यंग्य से परिपूर्ण होती है तो, कहीं विचार और संदेश लिए हुए होती है।

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