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एक लड़की, पाँच दीवाने/हरिशंकर परसाई

 

गोर्की की कहानी है, ‘26 आदमी और एक लड़की’। इस लड़की की कहानी लिखते मुझे वह कहानी याद आ गयी। रोटी के एक पिंजड़ानुमा कारखाने में 26 मजदूर सुअर से भी बदतर हालत में रहते और काम करते हैं। मालिक की जवान लड़की जब निकलती है, वे सब सीखचों से उसे देखते हैं। जीवन के रेगिस्तान में थोड़ी हरियाली आती है। वे उसे देवी जैसी पूजते हैं। अलग-अलग और इकट्ठे उससे प्रेम करते हैं। एक दिन जब वह अपने उच्चवर्गीय प्रेमी के साथ बाहर निकलती है, वे आदतन उसे झाँकते हैं। लड़की कहती है-सुअर कहीं के ! और प्रेमी के साथ चली जाती है।

पर जिस लड़की की कहानी मैं लिख रहा हूँ, वह बड़े आदमी की लड़की नहीं, गरीब मध्यमवर्गीय परिवार की बड़ी लड़की है। पिता सरकारी नौकर है। पत्नी बच्चे पैदा करने में गांधारी की स्पर्धा करती है। गांधारी ने अंधे पति से 100 बेटे पैदा कर दिये थे, इस औरत ने जवानी में ही आँखों वाले पति से 4 पैदा कर लिये हैं। पाँचवें का शिलान्यास हो गया है। मरियल है। पूरा खाने को नहीं मिलता। शरीर में खून नहीं। हड्डी ही हड्डी है।

बड़ी लड़की विशेष दुर्बल नहीं है। वही खाना बनाती है। माँ तो लगातार प्रसूती ही रहती है। लगता है, लड़की खाना, बनाते-बनाते एकाध रोटी ज्यादा निगल लेती होगी। रोटी बड़े-बड़े क्रांतिकारियों को कमजोर बनाती है। चे गुएवारा ने डायरी में लिखा है कि एक बहादुर गुरिल्ला साथी एक दिन चोरी से डबलरोटी के दो टुकड़े खा गया। दूसरे दिन उसे दंड में नाश्ता नहीं दिया गया। लड़की छरहरी है। सुंदरी है। और गरीब की लड़की है।

मुहल्ला ऐसा है कि लोग 12-13 साल की बच्ची को घूर-घूर कर जवान बना देते हैं। वह समझने लगती है कि कहाँ घूरा जा रहा है। वह इन अंगों पर ध्यान देने लगती है। ब्लाउज को ऊंचा करने लगती है। नीचे कपड़ा रख लेती है। कटाक्ष का अभ्यास करने लगती है। पल्लू कब खसकाना और कैसे खसकाना-यह अभ्यास करने लगती है। घूरने से शरीर बढ़ता है।
आँखें बड़ी ताकतवर होती हैं।
रहीम ने कहा है-

रहिमन मन महाराज के, दृग सों नहीं दिवान।
जाहि देख रीझे नयन, मन तेहि हाथ बिकान।।

मन के दीवान जी होते हैं, नयन। नयनों के उपयोग के ज्ञानी उनका असर जानते हैं। अगर आँखों का असर भीतर पड़ रहा है, तो स्त्री लॉकेट हाथ में लेकर उसे हिलाने लगती है। लॉकेट न हो तो साड़ी के पल्ले को अँगुली पर लपेटने लगती है। थोड़ी कठिनाई उसके साथ होती है, जो स्वेटर बुन रही है। पर ध्यान से देखो तो वह भी दो-चार खाने गलत बुन देती है और उन्हें उकेलकर फिर बुनने लगती है। बाकी चलतू साफ ही कह देती हैं-आज तो आपसे ही आइसस्क्रीम खायेंगे। चलिये। लड़की को बाकी घूरने वाले अब हताश होकर कहीं और घूर रहे हैं। अब कुल पाँच दीवाने बचे हैं, जो सामने बैठते या चक्कर लगाते हैं। चक्कर लगाता प्रेमी बैठे प्रेमी से सवाया पड़ता है क्योंकि वह मेहनत करता है। फिर परम्परा से कूचे की खाक छानता चला आ रहा है। लड़की अठारह साल की हो रही है। उभार पर है। छज्जे पर आकर देखने लगती है, तो उपस्थित दीवाना समझता है कि मेरे ही लिए खड़ी है और मुझी को देख रही है। पाँचों दीवाने एक साथ सिर्फ शाम को होते हैं, क्योंकि वे दिन में काम पर जाते हैं। दिन में जो हाजिर होता है, वह छज्जा देखता रहता है। आँखें मिलाता है, हावभाव करता है।

सामने एक अधेड़ जनरल मर्चेंट की दूकान है। नीचे क्राकरी की। क्राकरी वाला जवान है, मगर उसकी मुसीबत यह है कि छज्जा सिर के ऊपर पड़ता है। जनरल मर्चेंट के बगल में किताबों की दूकान है, जिसका मालिक 40 साल का खूबसूरत आदमी है। ठीक सामने के दो कमरे के मकान में एक जवान आदमी रहता है जो बीमा कंपनी में काम करता है और 5-6 सौ से ऊपर की कमा लेता है। यह 3-4 घंटे ही बाहर रहता है। बाकी समय घर में काटता है। क्वाँरा है। घर के सामने एक हलवाई की दूकान है। 50 पर पहुँचता होगा, पर वह भी दीवाना है।

दीवाना नम्बर 1

इसे कुल 3-4 घंटे का काम है। माल यहाँ से वहाँ सप्लाई करके वरी हो जाता है और जनरल मर्चेंट की दूकान पर आकर बैठ जाता है। आर्थिक कठिनाई में रहता है। इसने दाढ़ी बढ़ा ली है। दाढ़ी अलग-अलग तरह की होती है-प्रेमी की दाढ़ी अलग, मुल्ला की अलग और मुफलिस की अलग। इसने प्रेमी की दाढ़ी बढ़ा ली है। ‘ट्रिम’ करवाता है। दाढ़ी दीन भी होती है और रोबदार भी। यह दाढ़ी वाले के व्यक्तित्व और आँखों के भाव से मालूम हो जाता है। कुछ दाढ़ियाँ क्षमा-याचना करती मालूम होती हैं। इस प्रेमी का विश्वास है कि दाढ़ी बढ़ा कर आँखों में भिखारीपन लेकर औरत का सामना करो तो वह आकर्षित हो जाती है। यह दाढ़ी और दीनता लिये कभी दूकान पर बैठकर छज्जा देखता रहता है या फिर सामने की सड़क पर टहलता है।

यह सही है कि कुछ औरतों को दाढ़ी पसंद होती है। मैंने सुना है कुछ औरतें पति की दाढ़ी को इतना पसंद करती हैं कि सुबह दाढ़ी में टूथपेस्ट लगा कर उसी से ब्रश कर लेती हैं।

यह प्रेमी सिर्फ देखता है। वह छज्जे पर आक्सीजन लेने आती है, तो दाढ़ी वाला समझता है कि वह उसी को देखने आयी है और दीन हो जाता है। वह करुणा में से प्रेम निकालना चाहता है। करुणा में से प्रेम निकलता भी है। गाँव की चलतू औरत कहती है-इत्ते बड़े-बड़े आदमी के लड़के और मेरे गोड़ (पाँव) पड़े। मेरा तो जी पसीज जाए है। नहीं करते नहीं बनै।

दाढ़ी वाले को कभी-कभी लड़की का सामीप्य प्राप्त होता है। नीचे के नल से लड़की का भाई बालटियाँ भर कर ऊपर ले जाता है। कभी वह नहीं होता, लड़की पानी भरने आती है। तब दाढ़ी वाला प्रेमी पानी की बालटियाँ उठा कर दरवाजे तक रख आता है। वह कहती है-बड़ी तकलीफ की तुमने भैया ! दाढ़ी वाला ‘भैया’ संबोधन से बहुत डरता है। कहीं यह राखी न बाँधने लगे ! दाढी वाले प्रेमी को 7-8 घंटे जनरल मर्चेंट की दुकान पर बैठने के लिए बहाना चाहिए। वह कहता है-बड़े भैया, मैं तो फुरसत में रहता हूँ। कुछ काम हो, तो बता दिया करिये। दुकानदार उसे पार्सल छुड़ाने और माल सप्लाई करने भेज देता है। सेठ ने बाहर का काम करने वाले नौकर को निकाल दिया है।

दीवाना नम्बर 2

यह 30 साल के लगभग है। गोरा और साधारणत: देखने में अच्छा है। इसे दूसरों से कुछ ज्यादा सुभीते भी हैं और कुछ असुविधाएँ भी। सुभीता यह है वह रुपये उधार दे देता है, पर उधार लेने लड़की का बाप आता है। वह चाहता है, लड़की आये। कहता है-तुम क्यों तकलीफ करते हो ? बच्चों को भेज दिया करो। पर बाप खुद ही उधार लेने आता है, या लड़की की माँ आ जाती है। असुविधा इस दीवाने को यह है कि लड़की ऊपर रहती है। वह उसे देख नहीं सकता। पीछे की तरफ जाता है, तो वहाँ ऊपर लकड़ी की जाली लगी है। लड़की उसे दिखती नहीं है। मजबूरी में वह पुस्तक-प्रेमी हो गया है। वह सामने कि किताब की दुकान पर बैठता है एकाध घंटे और मुआवजे के रूप में गुलशन नंदा की कोई किताब खरीद लाता है।

इधर एक तरीका उसने और निकाला। सब्जी का ठेले वाला थोड़ी दूर पर, जहाँ रोज काफी सब्जी खरीदने वाले परिवार रहते हैं, खड़ा होता है। क्राकरी वाले ने सोचा कि ठेले वाला यहाँ भी खड़ा हो, तो वह सब्जी खरीदने नीचे आया करेगी। उसने ठेले वाले से कहा-इधर भी खड़े रहा करो। उसने उम्मीद की कि भाव-ताव को लेकर बात होगी। कभी उसके पास पैसे न होंगे, तो मैं उधार में दिला दूँगा और बाद में चुकता कर दूँगा।
ठेले वाले ने कहा-यहाँ, भाई साब, खरीदने वाले ही नहीं है।
दीवाने ने कहा-हैं क्यों नहीं ? एक-दो रोज देखो।
ठेले वाला दरवाजे के पास खड़ा होकर आवाज लगाने लगा। लड़की ऊपर से आयी। उसने पूछा-आलू क्या भाव दिये ?
इतने में दीवाना क्राकरी के ग्राहक को छोड़ कर ठेले के पास आ गया। प्रेम में बड़ा त्याग करना पड़ता है। ग्राहक खोना पड़ता है।
ठेले वाले से कहा-ठीक भाव से देना। और लड़की से आँखें मिलाने लगा।
लड़की ने कहा-पाव किलो आलू दे दो। सब्जी वाला निराश हुआ। क्राकरी वाला नैतिक संकट में आ गया।
उसने कहा-ए, एक किलो दे दो। बाकी पैसे कल ले जाना।

सब्जी वाले ने भरोसा कर लिया। उसने एक किलो तौल दिये। पर सब्जी वाले को रोज वहाँ रोकने के लिए इतनी खरीद काफी नहीं थी। क्राकरी वाले ने लड़की के बाकी पैसे दिये और घर के लिए दो-तीन किलो सब्जी और खरीद ली। उसे भरोसा हो गया कि सब्जी वाला अब रोज यहाँ खड़ा होगा और मेल-जोल बढ़ेगा।

पर प्रेम का रास्ता काँटों का रास्ता है। पता नहीं, इस सनातन मार्ग पर कब कांक्रीट की सड़कें बनेंगी। अभी भी प्रेम में काँटों भरी पगदंडी पर से चलना पड़ता है। योजना आयोग को अगली योजना में प्रेम की कांक्रीट की सड़कों का प्रावधान करना चाहिए।

बात यह हुई कि जब क्राकरी वाला जवान दोपहर को सब्जी लेकर घर पहुंचा और उसके पिता ने सब्जी देखी, तो डाँटा-तुझसे किसने कहा था कि सब्जी ला ? यह कचरा उठा लाया।
बात यह है कि पिता रिटायर्ड बेकार आदमी हैं। वह सुबह झोला लेकर सब्जी-बाजार चल देते हैं। दस दुकानें हैं और बढ़िया सब्जी खरीदते हैं।

नतीजा प्रेमी के लिए बुरा हुआ। दूसरे दिन से उसने सब्जी खरीदना बंद कर दिया और ठेले वाले ने वहाँ रुकना बंद कर दिया। अब ऊपर के परिवार को सब्जी चाहिए, तो छोटी लड़की दूर खड़े ठेले से पाव किलो आलू खरीद लाती है। अब इस दीवाने को कुल इतना सहारा है कि सामने की किताब की दुकान पर बैठे, देखे और नजर बचा कर हलका-सा इशारा कर दे।

दीवाने अपने बरताव से लड़की को चतुर बनाये दे रहे हैं। भोली लड़की सुविधा की होती है। उसे पटाना आसान होता है। पर ये दीवाने उसे काइयाँ बना रहे हैं। यह इन्हीं के हित के विरुद्ध जा रहा है। अब वह लड़की आसान नहीं रही।

दीवाना नंबर 3

यह सामने वाला हलवाई है। निहायत गंदी चड्डी और मैल से काली बनियान पहन कर भट्टी के सामने सवेरे बैठ जाता है। दाढ़ी खिचड़ी है और कई दिन बनाता नहीं है। दाँत पीले हैं, नाक को नाक नहीं, आलू बंडा कहा जा सकता है। जलेबी के बाद वह आलू बंडे और…और भजिये बनाता है। यह विकट दीवाना है। छज्जे की तरफ देखते हुए कड़ाही में चमचा चलाता है। जलेबी जल भी जाती है। कभी कच्चे-कच्चे आलू-बंडे निकाल लेता है। तेल खाली जलता रहता है और वह छज्जे पर लड़की को देखता रहता है। फिर उसे जलेबी दिखा कर अपने पीले दाँतों से हँसता है। समझता है, गरीब की लड़की है, आकर जलेबी ले जायेगी। पर वह नहीं आती। एक दिन छोटी लड़की को उसने जलेबी दे दी थी। कहने लगा-सब लोग बाँट कर खाना। उसका मतलब था, वह मेहबूबा भी खा ले। पर मेहबूबा ने छोटी को डाँट दिया-फिर उससे जलेबी लेगी, तो पिट जायेगी।

इधर यह दीवाना पीले दाँत निकाले और नथुने फैलाये छज्जे की तरफ देख रहा था कि वह अब आयी, पर वह नहीं आयी। तब दीवाना दुकान के इस कोने, उस कोने खड़ा होकर देखने लगा कि भीतर ही दिख जाये। लड़की सब कुछ भीतर से देख रही थी। आखिर वह बाहर छज्जे पर आकर खड़ी हो गयी और हलवाई की तरफ देख लिया। वह कृतार्थ हो गया। उस वक्त वह आकर कहती है कि मैं तुम्हारा तला हुआ हाथ खाऊँगी, तो वह पंजा तल कर उसे खिला देता।

लोग उससे पूछते हैं-तुम्हारी उम्र कितनी है ? 50 के पार तो होगी ? वह कहता है-30 से ऊपर नहीं है। पाँच साल से भट्ठी के सामने बैठ रहा हूँ, इसलिए उमर ज्यादा लगती है। पाँच साल पहले देखते। अच्छे-अच्छे घरों की मरती थी। दो-तीन तो जल कर मर गयी थी मेरे प्रेम में।
जब वह छज्जे पर आती है, हलवाई पीले दाँत निकाल कर, थुथने फैला कर साँड की तरह दूर से सूँघता है कि तैयार हुई कि नहीं।

दीवाना नंबर 4

यह खिलाड़ी है। कई जगह खेलता है। पैसे वाले का लड़का है। चेन सावधानी से कुरते के बाहर रखता है। यह अक्सर शाम को आता है। इसका विश्वास है, टयूबलाइट में आदमी ज्यादा खूबसूरत लगता है। इसका आना किसी को पसंद नहीं- इसके अच्छे कपड़ों और चेन के कारण। पर तब लड़की चूल्हा फूंकती रहती है। आसपास के टयूब-लाइट बेकार चले जाते हैं। एक-दो बार वह लड़की छो पर आकर पसीना पोंछने लगती है।

यह दीवाना समझता है कि चेन उसे दिख गई। यह सोने की चेन से बांधकर उसे खींचना चाहता है। यह प्रेमी बड़े जोर-जोर से शेखियां बघारता है, ठहाका लगाता है… वह सुन ले कि कोई मस्ताना उसके लिए बेताब है। पर लड़की तब भीतर चूल्हा फूंकती होती है। दीवाना वहां लोगों को चाय पिलाता है… वह देख ले कि मैं इतना उदार हूं। पर वह चूल्हा फूंकती है। जोर से कहता है- अरे, हजारों रुपए फूंक दिए हैं, यहां तो पैसे को मिट्टी समझते हैं। जरूरतमंद हो और मांगें, तो हजार-दो हजार दे देते हैं। और भूल जाते हैं।

पर लड़की इसकी वह दैवी उदारता सुन नहीं पाती, क्योंकि रोटी बनाती होती है। इस दीवाने ने समय गलत चुना। इसे शाम के पहले, सबेरे या दोपहर को आना चाहिए। पर इसकी भी मजबूरी है। इसके चेहरे पर चेचक के हल्के दाग हैं, इसलिए इसे टयूबलाइट में ही आना पड़ता है। यह भी किताब की दुकान पर थोड़ी देर बैठता है। वहां से रसोई बनाने का कोना दिख जाता है। फिर यह याद लिए हुए घर चला जाता है।

दीवाना नंबर 5

इसे सबके बाद इसलिए ले रहा हूं कि यह 100 फीसदी दीवाना है। एकमात्र गंभीर और समर्पित दीवाना। गोरा आदमी है। अकेले जिंदगी काट रहा है। हर स्त्री पर मोहित हो जाता है। पर जब से उस लड़की पर इसकी नजर पड़ी है, यह बिलकुल उसी का हो गया है। रात-दिन उसी की याद में लिप्त रहता है। काम में मन नहीं लगता। लोगों से बात करता है, तो या तो उसी की बात करता है, या गुमसुम उसके बारे में सोचता रहता है। ठीक सामने रहने के कारण भीतर से भी उसे बैठकर या लेटे हुए देखता रहता है। यों सेक्स यहां-वहां जमाता रहता है। इसे हर 6 महीने में मकान बदलना पड़ता है।

एक दोपहर को घबराया मेरे पास आया, कहने लगा- मोहल्ले में पिटने की नौबत आ गई है। मैंने पूछा- तो उसने बताया- मकान मालकिन गरीब है। उसने एक कमरा मुझे किराए पर देख रखा है। वह खुद एक से फंसी है। लड़की को मैंने पटा लिया था। एक लड़का भी है, जो मैट्रिक की परीक्षा में बैठने वाला है। आज दोपहर को लड़की आ गई, माँ ऊपर सो रही थी। हम दोनों बिस्तरे में थे कि माँ आ गई।

देखा तो चिल्लाई- अरे, इसे क्या चकलाघर समझ रखा है? भले आदमियों के मोहल्ले में ये कारनामे? मेरी लड़की को बिगाड़ रहे हो! मैं अभी मोहल्लेवालों को पुकारती हूं और तुम्हारी बोटी-बोटी करवाती हूं!
मैंने पूछा- फिर तुमने क्या किया? उसने कहा- मैंने उसके पांव पकड़ लिए और कहा, मुझे माफ कर दो।
मैंने पूछा- लड़की से उसने क्या किया?
कहने लगा- कुछ खास नहीं। एक हल्का-सा चांटा मारा और कहा- चल, हरामजादी, ऊपर! लफंगों के चक्कर में फंसती है! मैंने फौरन साइकिल उठाई और आपके पास भागा चला आ रहा हूं। क्या करूं? मेरा वहां सामान पड़ा है। एक पेटी में काफी रुपया भी है। मैं लौटने में डरता हूं। क्या सचमुच वह मुझे पिटवा देगी?

मैंने कहा- हाँ। उसने कहा- पर मोहल्लेवालों को क्या मतलब? वे जानते हैं, वह औरत एक से फंसी है। क्या वे लोग मेरी बात नहीं मानेंगे?
मैंने कहा- बिलकुल नहीं मानेंगे। उसी की बात मानेंगे, हंगामा करेंगे। तुम्हें पीटेंगे। ऐसे हंगामे मोहल्ले की नीरसता भंग करते हैं। महीने में एकाध लड़की भगाई न जाए, या कोई बलात्कार न हो तो मोहल्ले के निवासी बहुत बोर होते हैं। वह काफी घबराया हुआ था।
मैंने पूछा- आज या कल लड़की की माँ से तुम्हारी कुछ बात हुई थी?
उसने कहां- हाँ, रात को और सबेरे मेरे पास बैठी रही। पैसे की तकलीफ बताती रही। कह रही थी- परसों मुन्ना की 50 रुपए परीक्षा फीस भरनी है। बड़ी परेशानी है। कुछ समझ में नहीं आता। सुबह भी वही चिंता बताती रही कि मुन्ना की फीस भरनी है।
मैं मामला समझ गया। मैंने कहा- फौरन घर जाओ, पेटी से पचास रुपए निकालो, ऊपर उसके पास जाकर उसे रुपए दो और कहो- लो, मुन्ना की फीस भर दो। जैसा तुम्हारा लड़का, वैसा मेरा भाई। पैसा तो आता-जाता रहता है। लड़के का साल बरबाद नहीं होना चाहिए। इसके सिवा कोई और रास्ता पिटने से बचने का नहीं है।
कहने लगे- पर उसने पीटने वाले इकट्ठे कर रखे हों तो?
मैंने कहा- मैं निश्चित कहता हूं, उसने अभी तक किसी से कुछ भी नहीं कहा होगा। वह तुम्हारी राह देख रही होगी।
वह बोले- पचास तो बहुत होते हैं। मेरा काम तो आधा भी नहीं हुआ था।
मैंने कहा- पचास दे दोगे, तो पिटने से तो बचोगे ही, रात को वह तुम्हारा पूरा काम करवा देगी। इस तरह डेवढ़ा काम हो जाएगा। वह बड़ी घबराहट में गए।
दूसरे दिन मिले, तो मैंने पूछा- पिटे तो नहीं?
उन्होंने कहा- नहीं।
मैंने पूछा- उसने रुपए ले लिए?
वह बोले- हाँ, कहने लगी कि अरे भैया, तुम तो घर के ही हो। मुसीबत में तुम का नहीं आओगे तो कौन आएगा!
मैंने पूछा- और रात को उसने पूरा काम तुम्हारा करवा दिया न?
वह बोले- हाँ, करवा दिया, आपने ठीक कहा था कि डेवढ़ा हो जाएगा।
मैंने कहा- अब उस मकान को फौरन छोड़ो और बहुत ही तकलीफ ‘उस’ मामले में हो, सुभीते का मामला न जमे, तो गांधी जी की शिक्षा के अनुसार चलो।
उन्होंने पूछा- गांधी जी ने इस ‘सेक्स’ के मामले में क्या सिखाया है, सिवा ब्रम्हचर्य के?
मैंने कहा- नहीं, उन्होंने अछूतोध्दार भी सिखाया है। 1-2 रुपयों में अछूतोध्दार कर लिया करो। वह गांधीभक्त हो गए। अछूतोध्दार पर अधिक ध्यान देने लगे।

ब्राम्हण 500-600 रुपए कमाने वाला, देखने में अच्छा- फिर भी शादी न हो, यह एक सवाल बहुत लोगों के मन में उठता है। परदेशी है यहां। एक समस्या तो यही है कि लड़की वालों के सामने कौन सिध्द करे कि यह ब्राम्हण ही है? उसकी वंशावली कौन बताए? परिवार के कोई बुजुर्ग दिलचस्पी लेते दिखते नहीं है। ऐसा नहीं है कि लड़की वाले आते नहीं है। वह खुद भी तलाश करके लड़की वालों के यहां जाता है। पर सुना है, एक विशेषता है उसमें। वह लड़की की अपेक्षा उसकी माँ पर ज्यादा ध्यान देने लगता है। इससे एक तो लड़की बिचकती है, दूसरे माँ उसे कुछ ‘यों ही’ समझने लगती है।
कुछ लोगों ने समझाया कि माँ को जरूरत खुश करो, पर उसे माँ समझकर खुश करो।

वह जवाब देता है- मैं क्या करूं? जिस परिवार में जाता हूं, वहां माँ और लड़की दोनों मेरे ऊपर मरने लगती हैं। यह समस्या बढ़ी टेढ़ी है। माँ पर ध्यान देता है तो लड़की बिचकती है और माँ लफंगा समझने लगती है, जहां माँ अनुकूल होने लगे, वहां वह लड़की को काटती है- तेरा यहां क्या काम है? जाकर पढ़ती क्यों नहीं? माँ और बेटी दोनों पर एक साथ डोरे डालना खतरनाक होता है।

कुछ पुरुष सोचते हैं कि लड़की नहीं तो माँ ही हाथ लग जाए। लड़की से तो शादी भी करनी पड़ सकती है। पर इधर यह प्रेमी लोगों से कहता जरूर है कि माँ मेरे पीछे पड़ी है। उस आदमी की बड़ी आफत है, जिसे दुनिया की हर स्त्री अच्छी लगती है और यह समझता है कि दुनिया की हर स्त्री मुझ पर जान देती है। ऐसे में एक भी स्त्री हाथ नहीं पड़ती।

यह प्रेमी नम्बर 5 लड़की के पीछे दीवाना है। वह उससे शादी करना चाहता है। बिलकुल डूबा है। लड़की भी अनुकूल लगती है। वह इसी की तरफ ज्यादा ध्यान देती है। दीवानों ने खुद एक सीधी लड़की को जो सहज ही फंसती, कांइयां बना दिया है और अपना ही नुकसान कर लिया है।

प्रेमी रोज एक-दो प्रेम-कविताएं लिखता है। प्रेमानुभूति प्रसार मांगती है। वह लोगों को सुनाता भी है। कविताएं अच्छी होती है। सीधी भी होती है- मेरे पास आओ तो- बैठो तो, मैं तुम्हारा हाथ सहलाऊं और चूम लूं- वगैरह। देखा-देखी तो बहुत हो चुकी। निकटता कैसे हो? प्रेमी बड़ा आविष्कारक होता है। लड़की का बाप शराब-प्रेमी है। इतवार की एक शाम उसने उसे बुलाया मिसिरजी, आइए न। यहीं बैठें। मिसिरजी आकर बैठ गए। प्रेमी ने ठर्रे का अध्दा खोल लिया और चालू हो गया। मिसिरजी जब आधी से ज्यादा पी गए तो प्रेमी ने कहा- आपको लड़की की शादी भी तो करना है।

मिसिरि जी ने झोंकते हुए कहा- मुझे क्या चिंता? तुम जैसा दामाद किस… वाले को मिलेगा? तुम तो मेरे दामाद ही हो गए। दुनिया कुछ भी कहे। सबकी माँ की… उसने प्रेमी को गले लगा लिया।

प्रेमी को रात-भर नींद नहीं आई। सुबह मिसिरजी घर से निकले तो प्रेमी ने पुकारा- मिसिरजी, जरा सुनिये तो। मिसिरिजी ने चलते-चलते कहा- डयूटी का टाइम हो रहा है, फिर मिलूंगा। उनका नशा उतर गया था।

एक नैतिकतावादी यह सीधा-खूबसूरत पुस्तक विक्रेता है। तीन बच्चे हैं। अच्छी पत्नी है। इसके लिए दुनिया में दूसरी और कोई औरत नहीं है। मैं कभी-कभी उनके पास बैठता हूं। वे पीड़ित हैं। कहते हैं- यह क्या चला है मुहल्ले में? बड़ी खराब बात है। तमाम हल्ला फैला हुआ है। यह बंद होना चाहिए।

फिर कहने लगे- हमारी भी बदनामी हो रही है। वे तीन दीवाने हमारी दूकान पर आकर उससे आंखें लड़ाते हैं और इशारे करते हैं। इससे हमारे धंधे पर असर पड़ेगा। मैंने उनमें से दो से तो साफ कह दिया कि यहां न बैठा करो।

मैंने थोड़े हल्के ‘मूड’ में कहा- तुम तो हो बुध्दू! मैंने देखा कि वह लड़की तुम्हारी तरफ बहुत देखती है। वह तुमसे बहुत आकर्षित है। तुम एकाध बार उसकी तरफ देख लिया करो।
उन्होंने कहा- फालतू बात मत करो। हम इन झंझटों में नहीं पड़ते। हमारी ‘वाइफ’ है।

लेखक

  • हरिशंकर परसाई

    हरिशंकर परसाईजी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 ईस्वी को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के इटारसी के निकट जमावी नामक ग्राम में हुआ था। परसाई जी की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही हुई और नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। खण्डवा में 6 माह तक अध्यापन कार्य किया तथा सन् 1941 से 1943 ई० तक 2 वर्ष जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालेज में शिक्षण कार्य किया। सन् 1943 ई० में वहीं मॉडल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। सन् 1952 ई० में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वर्ष 1953 से 1957 ई० तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। सन् 1957 ई० में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरुआत की। कलकत्ता के ललित कला महाविद्यालय से सन् 1960 ई० में डिप्लोमा किया। अध्यापन-कार्य में ये कुशल थे, किन्तु आस्था के विपरीत अनेक बातों का अध्यापन इनको यदा-कदा खटक जाता था। 10 अगस्त, सन् 1995 ईस्वी को इनका निधन हो गया। हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय साहित्य में इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अध्यापन कार्य के साथ-साथ ये साहित्य सृजन की ओर मुड़े और जब यह देखा कि इनकी नौकरी इनके साहित्यिक कार्य में बाधा पहुँचा रही है तो इन्होंने नौकरी को तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करके साहित्य-साधना में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसके प्रकाशक व संपादक ये स्वयं थे। वर्षों तक विषम आर्थिक परिस्थिति में भी पत्रिका का प्रकाशन होता रहा और बाद में बहुत घाटा हो जाने पर इसे बन्द कर देना पड़ा। सामयिक साहित्य के पाठक इनके लेखों को वर्तमान समय की प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं। परसाई जी नियमित रूप से ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए अपनी रचनाएँ लिखते रहे। परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर इन्होंने पेरिस-प्रवास किया। ये उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे। हरिशंकर परसाई की प्रमुख रचनाएं परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं— कहानी संग्रह — 1. हँसते हैं, रोते हैं, 2. जैसे उनके दिन फिरे आदि। उपन्यास — 1. रानी नागफनी की कहानी, 2. तट की खोज आदि। निबंध-व्यंग्य — 1. तब की बात और थी, 2. भूत के पाँव पीछे, 3. बेईमान की परत, 4. पगडंडियों का जमाना, 5. सदाचार की तावीज, 6 शिकायत मुझे भी है, 7. और अन्त में आदि। परसाई जी द्वारा रचित कहानी, उपन्यास तथा निबंध व्यक्ति और समाज की कमजोरियों पर चोट करते हैं। समाज और व्यक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियाँ होती हैं जो जीवन को आडम्बरपूर्ण और दूभर बना देती हैं। इन्हीं विसंगतियों का पर्दाफाश परसाई जी ने किया है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी हमारे व्यक्तित्त्व को विघटित कर देती हैं। परसाई जी के लेख पढ़ने के बाद हमारा ध्यान इन विसंगतियों और कमजोरियों की ओर बरबस चला जाता है। हरिशंकर परसाई की भाषा शैली परसाई जी एक सफल व्यंग्यकार हैं और व्यंग्य के अनुरूप ही भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में भाषा के बोलचाल के शब्दों एवं तत्सम तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्चकोटि का है। अर्थवत्ता की दृष्टि से इनका शब्द चयन अति सार्थक है। लक्षणा एवं व्यंजना का कुशल उपयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक पहुँचाने में समर्थ रहा है। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं में शैली के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं— व्यंग्यात्मक शैली — परसाई जी की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य का आश्रय लिया है। सामाजिक तथा राजनीतिक फरेबों पर भी इन्होंने अपने व्यंग्य से करारी चोट की है। इस शैली की भाषा मिश्रित है। सटीक शब्द चयन द्वारा लक्ष्य पर करारे व्यंग्य किए गए हैं। विवरणात्मक शैली — प्रसंगवश, कहीं-कहीं, इनकी रचनाओं में शैली के इस रूप के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा मिश्रित है। उद्धरण शैली — अपने कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शैली के इस रूप का उन्मुक्त भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने रचनाओं में गद्य तथा पद्य दोनों ही उद्धरण दिये हैं। इस शैली के प्रयोग से इनकी रचनाओं में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। सूक्ति कथन शैली — सूक्तिपरक कथनों के द्वारा परसाई जी ने विषय को बड़ा रोचक बना दिया है। कहीं इनकी सूक्ति तीक्ष्ण व्यंग्य से परिपूर्ण होती है तो, कहीं विचार और संदेश लिए हुए होती है।

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एक लड़की, पाँच दीवाने/हरिशंकर परसाई

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