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गुलकी बन्नो/धर्मवीर भारती

‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !’’ मारे डर के कि कहीं घेघा बुआ सारा कूड़ा उसी के सर पर न फेक दें, मिरवा थोड़ा खिसक गया और ज्यों ही घेघा बुआ अन्दर गयीं कि फिर चौतरे की सीढ़ी पर बैठ, पैर झुलाते हुए उसने उल्टा-सुल्टा गाना शुरू कर किया, ‘‘तुमें बछ याद कलते अम छनम तेरी कछम !’’ मिरवा की आवाज़ सुनकर जाने कहाँ से झबरी कुतिया भी कान-पूँछ झटकारते आ गयी और नीचे सड़क पर बैठकर मिरवा का गाना बिलकुल उसी अन्दाज़ में सुनने लगी जैसे हिज़ मास्टर्स वॉयस के रिकार्ड पर तसवीर बनी होती है।
अभी सारी गली में सन्नाटा था। सबसे पहले मिरवा (असली नाम मिहिरलाल) जागता था और आँख मलते-मलते घेघा बुआ के चौतरे पर आ बैठता था। उसके बाद झबरी कुतिया, फिर मिरवा की छोटी बहन मटकी और उसके बाद एक-एक कर गली के तमाम बच्चे-खोंचेवाली का लड़का मेवा, ड्राइवर साहब की लड़की निरमल, मनीजर साहब के मुन्ना बाबू-सभी आ जुटते थे। जबसे गुलकी ने घेघा बुआ के चौतरे पर तरकारियों की दुकान रखी थी तब से यह जमावड़ा वहाँ होने लगा था। उसके पहले बच्चे हकीमजी के चौतरे पर खेलते थे। धूप निकलते गुलकी सट्टी से तरकारियाँ ख़रीदकर अपनी कुबड़ी पीठ पर लादे, डण्डा टेकती आती और अपनी दुकान फैला देती। मूली, नीबू, कद्दू, लौकी, घिया-बण्डा, कभी-कभी सस्ते फल ! मिरवा और मटकी जानकी उस्ताद के बच्चे थे जो एक भंयकर रोग में गल-गलकर मरे थे और दोनों बच्चे भी विकलांग, विक्षिप्त और रोगग्रस्त पैदा हुए थे। सिवा झबरी कुतिया के और कोई उनके पास नहीं बैठता था और सिवा गुलकी के कोई उन्हें अपनी देहरी या दुकान पर चढ़ने नहीं देता था।

आज भी गुलकी को आते देखकर पहले मिरवा गाना छोड़कर, ‘‘छलाम गुलकी !’’ और मटकी अपने बढ़ी हुई तिल्लीवाले पेट पर से खिसकता हुआ जाँघिया सँभालते हुए बोली, ‘‘एक ठो मूली दै देव ! ए गुलकी !’’ गुलकी पता नहीं किस बात से खीजी हुई थी कि उसने मटकी को झिड़क दिया और अपनी दुकान लगाने लगी। झबरी भी पास गयी कि गुलकी ने डण्ड उठाया। दुकान लगाकर वह अपनी कुबड़ी पीठ दुहराकर बैठ गयी और जाने किसे बुड़बुड़ाकर गालियाँ देने लगी। मटकी एक क्षण चुपचाप रही फिर उसने रट लगाना शुरू किया, ‘‘एक मूली ! एक गुलकी !…एक’’ गुलकी ने फिर झिड़का तो चुप हो गयी और अलग हटकर लोलुप नेत्रों से सफेद धुली हुई मूलियों को देखने लगी। इस बार वह बोली नहीं। चुपचाप उन मूलियों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि गुलकी चीख़ी, ‘‘हाथ हटाओ। छूना मत। कोढ़िन कहीं की ! कहीं खाने-पीने की चीज देखी तो जोंक की तरह चिपक गयी, चल इधर !’’ मटकी पहले तो पीछे हटी पर फिर उसकी तृष्णा ऐसी अदम्य हो गयी कि उसने हाथ बढ़ाकर एक मूली खींच ली। गुलकी का मुँह तमतमा उठा और उसने बाँस की खपच्ची उठाकर उसके हाथ पर चट से दे मारी ! मूली नीचे गिरी और हाय ! हाय ! हाय !’’ कर दोनों हाथ झटकती हुई मटकी पाँव पटकपटक कर रोने लगी। ‘‘जावो अपने घर रोवो। हमारी दुकान पर मरने को गली-भर के बच्चे हैं-’’ गुलकी चीख़ी ! ‘‘दुकान दैके हम बिपता मोल लै लिया। छन-भर पूजा-भजन में भी कचरघाँव मची रहती है !’’ अन्दर से घेघा बुआ ने स्वर मिलाया। ख़ासा हंगामा मच गया कि इतने में झबरी भी खड़ी हो गयी और लगी उदात्त स्वर में भूँकने। ‘लेफ्ट राइट ! लेफ्ट राइट !’ चौराहे पर तीन-चार बच्चों का जूलूस चला आ रहा था। आगे-आगे दर्जा ‘ब’ में पढ़नेवाले मुन्ना बाबू नीम की सण्टी को झण्डे की तरह थामे जलूस का नेतृत्व कर रहे थे, पीछे थे मेवा और निरमल। जलूस आकर दूकान के सामने रूक गया। गुलकी सतर्क हो गयी। दुश्मन की ताक़त बढ़ गयी थी।

मटकी खिसकते-खिसकते बोली, ‘‘हमके गुलकी मारिस है। हाय ! हाय ! हमके नरिया में ढकेल दिहिस। अरे बाप रे !’’ निरमल, मेवा, मुन्ना, सब पास आकर उसकी चोट देखने लगे। फिर मुन्ना ने ढकेलकर सबको पीछे हटा दिया और सण्टी लेकर तनकर खड़े हो गये। ‘‘किसने मारा है इसे !’’
‘‘हम मारा है !’’ कुबड़ी गुलकी ने बड़े कष्ट से खड़े होकर कहा, ‘‘का करोगे ? हमें मारोगे !’’ मारोगे !’’ मारेंगे क्यों नहीं ?’’ मुन्ना बाबू ने अकड़कर कहा। गुलकी इसका कुछ जवाब देती कि बच्चे पास घिर आये। मटकी ने जीभ निकालकर मुँह बिराया, मेवा ने पीछे जाकर कहा, ‘‘ए कुबड़ी, ए कुबड़ी, अपना कूबड़ दिखाओ !’’ और एक मुट्ठी धूल उसकी पीठ पर छोड़कर भागा। गुलकी का मुँह तमतमा आया और रूँधे गले से कराहते हुए उसने पता नहीं क्या कहा। किन्तु उसके चेहरे पर भय की छाया बहुत गहरी हो रही थी। बच्चे सब एक-एक मुट्ठी धूल लेकर शोर मचाते हुए दौड़े कि अकस्मात् घेघा बुआ का स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘ए मुन्ना बाबू, जात हौ कि अबहिन बहिनजी का बुलवाय के दुई-चार कनेठी दिलवायी !’’ ‘‘जाते तो हैं !’’ मुन्ना ने अकड़ते हुए कहा, ‘‘ए मिरवा, बिगुल बजाओ।’’ मिरवा ने दोनों हाथ मुँह पर रखकर कहा, ‘‘धुतु-धुतु-धू।’’ जलूस आगे चल पड़ा और कप्तान ने नारा लगाया:
अपने देस में अपना राज !
गुलकी की दुकान बाईकाट !

नारा लगाते हुए जलूस गली में मुड़ गया। कुबड़ी ने आँसू पोंछे, तरकारी पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी के छींटे देने लगी।

गुलकी की उम्र ज़्यादा नहीं थी। यही हद-से-हद पच्चीस-छब्बीस। पर चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगी थीं और कमर के पास से वह इस तरह दोहरी हो गयी थी जैसे अस्सी वर्ष की बुढ़िया हो। बच्चों ने जब पहली बार उसे मुहल्ले में देखा तो उन्हें ताजुज्ब भी हुआ और थोड़ा भय भी। कहाँ से आयी ? कैसे आ गयी ? पहले कहाँ थी ? इसका उन्हें कुछ अनुमान नहीं था ? निरमल ने ज़रूर अपनी माँ को उसके पिता ड्राइवर से रात को कहते हुए सुना, ‘‘यह मुसीबत और खड़ी हो गयी। मरद ने निकाल दिया तो हम थोड़े ही यह ढोल गले बाँधेंगे। बाप अलग हम लोगों का रुपया खा गया। सुना चल बसा तो डरी कि कहीं मकान हम लोग न दखल कर लें और मरद को छोड़कर चली आयी। खबरदार जो चाभी दी तुमने !’’ ‘‘क्या छोटेपन की बात करती हो ! रूपया उसके बाप ने ले लिया तो क्या हम उसका मकान मार लेंगे ? चाभी हमने दे दी है। दस-पाँच दिन का नाज-पानी भेज दो उसके यहाँ।’’
‘‘हाँ-हाँ, सारा घर उठा के भेज देव। सुन रही हो घेघा बुआ !’’
‘‘तो का भवा बहू, अरे निरमल के बाबू से तो एकरे बाप की दाँत काटी रही।’’ घेघा बुआ की आवाज़ आयी-‘‘बेचारी बाप की अकेली सन्तान रही। एही के बियाह में मटियामेट हुई गवा। पर ऐसे कसाई के हाथ में दिहिस की पाँचै बरस में कूबड़ निकल आवा।’’
‘‘साला यहाँ आवे तो हण्टर से ख़बर लूँ मैं।’’ ड्राइवर साहब बोले, ‘‘पाँच बरस बाद बाल-बच्चा हुआ। अब मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ तो उसमें इसका क्या कसूर ! साले ने सीढ़ी से ढकेल दिया। जिन्दगी-भर के लिए हड्डी खराब हो गयी न ! अब कैसे गुजारा हो उसका ?’’
‘‘बेटवा एको दुकान खुलवाय देव। हमरा चौतरा खाली पड़ा है। यही रूपया दुइ रूपया किराया दै देवा करै, दिन-भर अपना सौदा लगाय ले। हम का मना करित है ? एत्ता बड़ा चौतरा मुहल्लेवालन के काम न आयी तो का हम छाती पर धै लै जाब ! पर हाँ, मुला रुपया दै देव करै।’’

दूसरे दिन यह सनसनीख़ेज ख़बर बच्चों में फैल गयी। वैसे तो हकीमजी का चबूतरा पड़ा था, पर वह कच्चा था, उस पर छाजन नहीं थी। बुआ का चौतरा लम्बा था, उस पर पत्थर जुड़े थे। लकड़ी के खम्भे थे। उस पर टीन छायी थी। कई खेलों की सुविधा थी। खम्भों के पीछे किल-किल काँटे की लकीरें खींची जा सकती थीं। एक टाँग से उचक-उचककर बच्चे चिबिड्डी खेल सकते थे। पत्थर पर लकड़ी का पीढ़ा रखकर नीचे से मुड़ा हुआ तार घुमाकर रेलगाड़ी चला सकते थे। जब गुलकी ने अपनी दुकान के लिए चबूतरों के खम्भों में बाँस-बाँधे तो बच्चों को लगा कि उनके साम्राज्य में किसी अज्ञात शत्रु ने आकर क़िलेबन्दी कर ली है। वे सहमे हुए दूर से कुबड़ी गुलकी को देखा करते थे। निरमल ही उसकी एकमात्र संवाददाता थी और निरमल का एकमात्र विश्वस्त सूत्र था उसकी माँ। उससे जो सुना था उसके आधार पर निरमल ने सबको बताया था कि यह चोर है। इसका बाप सौ रूपया चुराकर भाग गया। यह भी उसके घर का सारा रूपया चुराने आयी है। ‘‘रूपया चुरायेगी तो यह भी मर जाएगी।’’ मुन्ना ने कहा, ‘‘भगवान सबको दण्ड देता है।’’ निरमल बोली ‘‘ससुराल में भी रूपया चुराये होगी।’’ मेवा बोला ‘‘अरे कूबड़ थोड़े है ! ओही रूपया बाँधे है पीठ पर। मनसेधू का रूपया है।’’ ‘‘सचमुच ?’’ निरमल ने अविश्वास से कहा। ‘‘और नहीं क्या कूबड़ थोड़ी है। है तो दिखावै।’’ मुन्ना द्वारा उत्साहित होकर मेवा पूछने ही जा रहा था कि देखा साबुनवाली सत्ती खड़ी बात कर रही है गुलकी से-कह रही थी, ‘‘अच्छा किया तुमने ! मेहनत से दुकान करो। अब कभी थूकने भी न जाना उसके यहाँ। हरामजादा, दूसरी औरत कर ले, चाहे दस और कर ले। सबका खून उसी के मत्थे चढ़ेगा। यहाँ कभी आवे तो कहलाना मुझसे। इसी चाकू से दोनों आँखें निकाल लूँगी !’’
बच्चे डरकर पीछे हट गये। चलते-चलते सत्ती बोली, ‘‘कभी रूपये-पैसे की जरूरत हो तो बताना बहिना !’’

कुछ दिन बच्चे डरे रहे। पर अकस्मात् उन्हें यह सूझा कि सत्ती को यह कुबड़ी डराने के लिए बुलाती है। इसने उसके गु़स्से में आग में घी का काम किया। पर कर क्या सकते थे। अन्त में उन्होंने एक तरीक़ा ईजाद किया। वे एक बुढ़िया का खेल खेलते थे। उसको उन्होंने संशोधित किया। मटकी को लैमन जूस देने का लालच देकर कुबड़ी बनाया गया। वह उसी तरह पीठ दोहरी करके चलने लगी। बच्चों ने सवाल जवाब शुरू कियेः
‘‘कुबड़ी-कुबड़ी का हेराना ?’’
‘‘सुई हिरानी।’’
‘‘सुई लैके का करबे’’
‘‘कन्था सीबै! ’’
‘‘कन्था सी के का करबे ?’’
‘‘लकड़ी लाबै !’’
‘‘लकड़ी लाय के का करबे ?’’
‘‘भात पकइबे! ’’
‘‘भात पकाये के का करबै ?’’
‘‘भात खाबै !’’
‘‘भात के बदले लात खाबै।’’
और इसके पहले कि कुबड़ी बनी हुई मटकी कुछ कह सके, वे उसे जोर से लात मारते और मटकी मुँह के बल गिर पड़ती, उसकी कोहनिया और घुटने छिल जाते, आँख में आँसू आ जाते और ओठ दबाकर वह रूलाई रोकती। बच्चे खुशी से चिल्लाते, ‘‘मार डाला कुबड़ी को । मार डाला कुबड़ी को।’’ गुलकी यह सब देखती और मुँह फेर लेती।

एक दिन जब इसी प्रकार मटकी को कुबड़ी बनाकर गुलकी की दुकान के सामने ले गये तो इसके पहले कि मटकी जबाव दे, उन्होंने ने अनचिते में इतनी ज़ोर से ढकेल दिया कि वह कुहनी भी न टेक सकी और सीधे मुँह के बल गिरी। नाक, होंठ और भौंह ख़ून से लथपथ हो गये। वह ‘‘हाय ! हाय !’’ कर इस बुरी तरह चीख़ी कि लड़के कुबड़ी मर गयी चिल्लाते हुए सहम गये और हतप्रभ हो गये। अकस्मात् उन्होंने देखा की गुलकी उठी । वे जान छोड़ भागे। पर गुलकी उठकर आयी, मटकी को गोद में लेकर पानी से उसका मुँह धोने लगी और धोती से खून पोंछने लगी। बच्चों ने पता नहीं क्या समझा कि वह मटकी को मार रही है, या क्या कर रही है कि वे अकस्मात् उस पर टूट पड़े। गुलकी की चीख़े सुनकर मुहल्ले के लोग आये तो उन्होंने देखा कि गुलकी के बाल बिखरे हैं और दाँत से ख़ून बह रहा है, अधउघारी चबूतरे से नीचे पड़ी है, और सारी तरकारी सड़क पर बिखरी है। घेघा बुआ ने उसे उठाया, धोती ठीक की और बिगड़कर बोलीं, ‘‘औकात रत्ती-भर नै, और तेहा पौवा-भर। आपन बखत देख कर चुप नै रहा जात। कहे लड़कन के मुँह लगत हो ?’’ लोगों ने पूछ तो कुछ नहीं बोली। जैसे उसे पाला मार गया हो। उसने चुपचाप अपनी दुकान ठीक की और दाँत से खू़न पोंछा, कुल्ला किया और बैठ गयी।
उसके बाद अपने उस कृत्य से बच्चे जैसे खु़द सहम गये थे। बहुत दिन तक वे शान्त रहे। आज जब मेवा ने उसकी पीठ पर धूल फेंकी तो जैसे उसे खू़न चढ़ गया पर फिर न जाने वह क्या सोचकर चुप रह गयी और जब नारा लगाते जूलूस गली में मुड़ गया तो उसने आँसू पोंछे, पीठ पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी छिड़कने लगी। लड़के का हैं गल्ली के राक्षस हैं !’’ घेघा बुआ बोलीं। ‘‘अरे उन्हें काहै कहो बुआ ! हमारा भाग भी खोटा है !’’ गुलकी ने गहरी साँस लेकर कहा….।
इस बार जो झड़ी लगी तो पाँच दिन तक लगातार सूरज के दर्शन नहीं हुए। बच्चे सब घर में क़ैद थे और गुलकी कभी दुकान लगाती थी, कभी नहीं, राम-राम करके तीसरे पहर झड़ी बन्द हुई। बच्चे हकीमजी के चौतरे पर जमा हो गये। मेवा बिलबोटी बीन लाया था और निरमल ने टपकी हुई निमकौड़ियाँ बीनकर दुकान लगा ली थी और गुलकी की तरह आवाज़ लगा रही थी, ‘‘ले खीरा, आलू, मूली, घिया, बण्डा !’’ थोड़ी देर में क़ाफी शिशु-ग्राहक दुकान पर जुट गये। अकस्मात् शोरगुल से चीरता हुआ बुआ के चौतरे से गीत का स्वर उठा बच्चों ने घूम कर देखा मिरवा और मटकी गुलकी की दुकान पर बैठे हैं। मटकी खीरा खा रही है और मिरवा झबरी का सर अपनी गोद में रखे बिलकुल उसकी आँखों में आँखें डालकर गा रहा है।
तुरन्त मेवा गया और पता लगाकर लाया कि गुलकी ने दोनों को एक –एक अधन्ना दिया है दोनों मिलकर झबरी कुतिया के कीड़े निकाल रहे हैं। चौतरे पर हलचल मच गयी और मुन्ना ने कहा, ‘‘निरमल ! मिरवा-मटकी को एक भी निमकौड़ी मत देना। रहें उसी कुबड़ी के पास !’’ ‘‘हाँ जी !’’ निरमल ने आँख चमकाकर गोल मुंह करके कहा, ‘‘हमार अम्माँ कहत रहीं उन्हें छुयो न ! न साथ खायो, न खेलो। उन्हें बड़ी बुरी बीमारी है। आक थू !’’ मुन्ना ने उनकी ओर देखकर उबकायी जैसा मुँह बनाकर थूक दिया।
गुलकी बैठी-बैठी सब समझ रही थी और जैसे इस निरर्थक घृणा में उसे कुछ रस-सा आने लगा था। उसने मिरवा से कहा, ‘‘तुम दोनों मिल के गाओ तो एक अधन्ना दें। खूब जोर से !’’ भाई-बहन दोनों ने गाना शुरू किया-माल कताली मल जाना, पल अकियाँ किछी से…’’ अकस्मात् पटाक से दरवाजा खुला और एक लोटा पानी दोनों के ऊपर फेंकती हुई घेघा बुआ गरजीं, दूर कलमुँहे। अबहिन बितौ-भर के नाहीं ना और पतुरियन के गाना गाबै लगे। न बहन का ख्याल, न बिटिया का। और ए कुबड़ी, हम तुहूँ से कहे देइत है कि हम चकलाखाना खोलै के बरे अपना चौतरा नहीं दिया रहा। हुँह ! चली हुँआ से मुजरा करावै।’’
गुलकी ने पानी उधर छिटकाते हुए कहा, ‘‘बुआ बच्चे हैं। गा रहे हैं। कौन कसूर हो गया।’’
‘‘ऐ हाँ ! बच्चे हैं। तुहूँ तो दूध पियत बच्ची हौ। कह दिया कि जबान न लड़ायों हमसे, हाँ ! हम बहुतै बुरी हैं। एक तो पाँच महीने से किराया नाहीं दियो और हियाँ दुनियाँ-भर के अन्धे-कोढ़ी बटुरे रहत हैं। चलौ उठायो अपनी दुकान हियाँ से। कल से न देखी हियाँ तुम्हें राम ! राम ! सब अघर्म की सन्तान राच्छस पैदा भये हैं मुहल्ले में ! धरतियौ नहीं फाटत कि मर बिलाय जाँय।’’
गुलकी सन्न रह गयी। उसने किराया सचमुच पाँच महीने से नहीं दिया था। ब्रिक्री नहीं थी। मुहल्ले में उनसे कोई कुछ लेता ही नहीं था, पर इसके लिए बुआ निकाल देगी यह उसे कभी आशा नहीं थी। वैसे भी महीने में बीस दिन वह भूखी सोती थी। धोती में दस-दस पैबन्द थे। मकान गिर चुका था एक दालान में वह थेड़ी-सी जगह में सो जाती थी। पर दुकान तो वहाँ रखी नहीं जा सकती। उसने चाहा कि वह बुआ के पैर पकड़ ले, मिन्नत कर ले। पर बुआ ने जितनी जोर से दरवाजा खोला था उतनी ही जोर से बन्द कर दिया। जब से चौमास आया था, पुरवाई बही थी, उसकी पीठ में भयानक पीड़ा उठती थी। उसके पाँव काँपते थे। सट्टी में उस पर उधार बुरी तरह चढ़ गया था। पर अब होगा क्या ? वह मारे खीज के रोने लगी।
इतने में कुछ खटपट हुई और उसने घुटनों से मुँह उठाकर देखा कि मौका पाकर मटकी ने एक फूट निकाल लिया है और मरभुखी की तरह उसे हबर-हबर खाती जा रही थी है, एक क्षण वह उसके फूलते-पचकते पेट को देखती रही, फिर ख्याल आते ही कि फूट पूरे दस पैसे का है, वह उबल पड़ी और सड़ासड़ तीन-चार खपच्ची मारते हुए बोली, ‘‘चोट्टी ! कुतिया ! तोरे बदन में कीड़ा पड़ें !’’ मटकी के हाथ से फूट गिर पड़ा पर वह नाली में से फूट के टुकड़े उठाते हुए भागी। न रोयी, न चीख़ी, क्योंकि मुँह में भी फूट भरा था। मिरवा हक्का-बक्का इस घटना को देख रहा था कि गुलकी उसी पर बरस पड़ी। सड़-सड़ उसने मिरवा को मारना शुरू किया, ‘‘भाग, यहाँ से हरामजादे !’’ मिरवा दर्द से तिलमिला उठा, ‘‘हमला पइछा देव तो जाई।’’ ‘‘देत हैं पैसा, ठहर तो।’’ सड़ ! सड़।… रोता हुआ। मिरवा चौतरे की ओर भागा।

निरमल की दुकान पर सन्नाटा छाया हुआ था। सब चुप उसी ओर देख रहे थे। मिरवा ने आकर कुबड़ी की शिकायत मुन्ना से की। और घूमकर बोला, ‘‘मेवा बता तो इसे !’ मेवा पहले हिचकिचाया, फिर बड़ी मुलायमियत से बोला, ‘‘मिरवा तुम्हें बीमारी हुई है न ! तो हम लोग तुम्हें नहीं छुएँगे । साथ नहीं खिलाएँगें तुम उधर बैठ जाओ।’’
‘‘हम बीमाल हैं मुन्ना ?’’
मुन्ना कुछ पिघला, ‘‘हाँ, हमें छूओ मत। निमकौड़ी खरीदना हो तो उधर बैठ जाओ हम दूर से फेंक देंगे। समझे !’’ मिरवा समझ गया सर हिलाया और अलग जाकर बैठ गया। मेवा ने निमकौड़ी उसके पास रख दी और चोट भूलकर पकी निमकौड़ी का बीजा निकाल कर छीलने लगा। इतने में उधर से घेघा बुआ की आवाज आयी, ‘‘ऐ मुन्ना !’’ तई तू लोग परे हो जाओ ! अबहिन पानी गिरी ऊपर से !’’ बच्चो ने ऊपर देखा। तिछत्ते पर घेघा बुआ मारे पानी के छप-छप करती घूम रही थीं। कूड़े से तिछत्ते की नाली बन्द थी और पानी भरा था। जिधर बुआ खड़ी थीं उसके ठीक नीचे गुलकी का सौदा था। बच्चे वहाँ से दूर थे पर गुलकी को सुनने के लिए बात बच्चों से कही गयी थी। गुलकी कराहती हुई उठी। कूबड़ की वजह से वह तनकर चिछत्ते की ओर देख भी नहीं सकती थी। उसने धरती की ओर देखा ऊपर बुआ से कहा, ‘‘इधर की नाली काहे खोल रही हो ? उधर की खोलो न !’’
‘‘काहे उधर की खोली ! उधर हमारा चौका है कि नै !’’
‘‘इधर हमारा सौदा लगा है।’’
‘‘ऐ है !’’ बुआ हाथ चमका कर बोलीं, सौदा लगा है रानी साहब का ! किराया देय की दायीं हियाव फाटत है और टर्राय के दायीं नटई में गामा पहिलवान का जोर तो देखो ! सौदा लगा है तो हम का करी। नारी तो इहै खुली है !’’
‘‘खोलो तो देखैं !’’ अकस्मात् गुलकी ने तड़प कर कहा। आज तक किसी ने उसका वह स्वर नहीं सुना था-‘‘पाँच महीने का दस रूपया नहीं दिया बेशक, पर हमारे घर की धन्नी निकाल के बसन्तू के हाथ किसने बेचा ? तुमने। पच्छिम ओर का दरवाजा चिरवा के किसने जलवाया ? तुमने। हम गरीब हैं। हमारा बाप नहीं है सारा मुहल्ला हमें मिल के मार डालो।’’
‘‘हमें चोरी लगाती है। अरे कल की पैदा हुई।’’ बुआ मारे ग़ुस्से के खड़ी बोली बोलने लगी थीं।

बच्चे चुप खड़े थे। वे कुछ-कुछ सहमे हुए थे। कुबड़ी का यह रूप उन्होंने कभी न देखा न सोचा था
‘‘हाँ ! हाँ ! हाँ। तुमने, ड्राइवर चाचा से, चाची ने सबने मिलके हमारा मकान उजाड़ा है। अब हमारी दुकान बहाय देव। देखेंगे हम भी। निरबल के भी भगवान हैं !’’
‘‘ले ! ले ! ले ! भगवान हैं तो ले !’’ और बुआ ने पागलों की तरह दौड़कर नाली में जमा कूड़ा लकड़ी से ठेल दिया। छह इंच मोटी गन्दे पानी की धार धड़-धड़ करती हुई उसकी दुकान पर गिरने लगी। तरोइयाँ पहले नाली में गिरीं, फिर मूली, खीरे, साग, अदरक उछल-उछलकर दूर जा गिरे। गुलकी आँख फाड़े पागल-सी देखती रही और फिर दीवार पर सर पटककर हृदय-विदारक स्वर में डकराकर रो पड़ी, ‘‘अरे मोर बाबू, हमें कहाँ छोड़ गये ! अरे मोरी माई, पैदा होते ही हमें क्यों नहीं मार डाला ! अरे धरती मैया, हमें काहे नहीं लील लेती !’’
सर खोले बाल बिखेरे छाती कूट-कूटकर वह रो रही थी और तिछत्ते का पिछले पहले नौ दिन का जमा पानी धड़-धड़ गिर रहा था।
बच्चे चुप खड़े थे। अब तक जो हो रहा था, उनकी समझ में आ रहा था। पर आज यह क्या हो गया, यह उनकी समझ में नहीं आ सका । पर वे कुछ बोले नहीं। सिर्फ मटकी उधर गयी और नाली में बहता हुआ हरा खीरा निकालने लगी कि मुन्ना ने डाँटा, ‘‘खबरदार ! जो कुछ चुराया।’’ मटकी पीछे हट गयी। वे सब किसी अप्रत्याशित भय संवेदना या आशंका से जुड़-बटुरकर खड़े हो गये। सिर्फ़ मिरवा अलग सर झुकाये खड़ा था। झींसी फिर पड़ने लगी थी और वे एक-एक कर अपने घर चले गये।

दूसरे दिन चौतरा ख़ाली थी। दुकान का बाँस उखड़वाकर बुआ ने नाँद में गाड़कर उस पर तुरई की लतर चढ़ा दी थी। उस दिन बच्चे आये पर उनकी हिम्मत चौतरे पर जाने की नहीं हुई। जैसे वहाँ कोई मर गया हो। बिलकुल सुनसान चौतरा था और फिर तो ऐसी झड़ी लगी कि बच्चों का निकलना बन्द। चौथे या पाँचवें दिन रात को भयानक वर्षा तो हो ही रही थी, पर बादल भी ऐसे गरज रहे थे कि मुन्ना अपनी खाट से उठकर अपनी माँ के पास घुस गया। बिजली चमकते ही जैसे कमरा रोशनी से नाच-नाच उठता था छत पर बूदों की पटर-पटर कुछ धीमी हुई, थोड़ी हवा भी चली और पेड़ों का हरहर सुनाई पड़ा कि इतने में धड़-धड़-धड़-धड़ाम ! भयानक आवाज़ हुई। माँ भी चौंक पड़ी। पर उठी नहीं। मुन्ना आँखें खोले अँधेरें में ताकने लगा। सहसा लगा मुहल्ले में कुछ लोग बातचीत कर रहे हैं घेघा बुआ की आवाज़ सुनाई पड़ी-‘‘किसका मकान गिर गया है रे’’ ‘‘गुलकी का !’’-किसी का दूरागत उत्तर आया। ‘‘अरे बाप रे ! दब गयी क्या ?’’ ‘‘नहीं, आज तो मेवा की माँ के यहाँ सोई है ! मुन्ना लेटा था और उसके ऊपर अँधेरे में यह सवाल-जवाब इधर-से-उधर और उधर-से-इधर आ रहे थे। वह फिर काँप उठा, माँ के पास घुस गया और सोते-सोते उसने साफ़ सुना-कुबड़ी फिर उसी तरह रो रही है, गला फाड़कर रो रही है ! कौन जाने मुन्ना के ही आँगन में बैठकर रो रही हो ! नींद में वह स्वर कभी दूर कभी पास आता हुआ लग रहा है जैसे कुबड़ी मुहल्ले के हर आँगन में जाकर रो रही है पर कोई सुन नहीं रहा है, सिवा मुन्ना के।
बच्चों के मन में कोई बात इतनी गहरी लकीर बनाती कि उधर से उनका ध्यान हटे ही नहीं। सामने गुलकी थी तो वह एक समस्या थी, पर उसकी दुकान हट गयी, फिर वह जाकर साबुन वाली सत्ती के गलियारे में सोने लगी और दो-चार घरों से माँग-मूँगकर खाने लगी, उस गली में दिखती ही नहीं थी। बच्चे भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गये। अब जाड़े आ रहे थे। उनका जमावड़ा सुबह न होकर तीसरे पहर होता था। जमा होने के बाद जूलूस निकलता था। और जिस जोशीले नारे से गली गूँज उठती थी वह था-‘घेघा बुआ को वोट दो।’’ पिछले दिनों म्युनिसिपैलिटी का चुनाव हुआ था और उसी में बच्चों ने यह नारा सीखा था। वैसे कभी-कभी बच्चों में दो पार्टियाँ भी होती थीं, पर दोनों को घेघा बुआ से अच्छा उम्मीदवार कोई नहीं मिलता था अतः दोनों गला फाड़-फाड़कर उनके ही लिए बोट माँगती थीं।
उस दिन जब घेघा बुआ के धैर्य का बाँध टूट गया और नयी-नयी गालियों से विभूषित अपनी पहली इलेक्शन स्पीच देने ज्यों ही चौतरे पर अवतरित हुईं कि उन्हें डाकिया आता हुआ दिखाई पड़ा। वह अचकचाकर रूक गयीं। डाकिये के हाथ में एक पोस कार्ड था और वह गुलकी को ढूँढ़ रहा था। बुआ ने लपक कर पोस्टकार्ड लिया, एक साँस में पढ़ गयीं। उनकी आँखें मारे अचरज के फैल गयीं, और डाकिये को यह बताकर कि गुलकी सत्ती साबुनवाली के ओसारे में रहती है, वे झट से दौड़ी-दौड़ी निरमल की माँ ड्राइवर की पत्नी के यहाँ गयीं। बड़ी देर तक दोनों में सलाह-मशविरा होता रहा और अन्त में बुआ आयीं और उन्होंने मेवा को भेजा, ‘‘जा गुलकी को बुलाय ला !’’
पर जब मेवा लौटा तो उसके साथ गुलकी नहीं वरन् सत्ती साबुनवाली थी और सदा की भाँति इस समय भी उसकी कमर से वह काले बेंट का चाकू लटक रहा था, जिससे वह साबुन की टिक्की काटकर दुकानदारों को देती थी। उसने आते ही भौं सिकोड़कर बुआ को देखा और कड़े स्वर में बोली, ‘‘क्यों बुलाया है गुलकी को ? तुम्हारा दस रूपये किराया बाकी था, तुमने पन्द्रह रूपये का सौदा उजाड़ दिया ! अब क्या काम है !’’ ‘‘अरे राम ! राम ! कैसा किराया बेटी ! अन्दर जाओ-अन्दर जाओ !’ बुआ के स्वर में असाधारण मुलायमियत थी। सत्ती के अन्दर जाते ही बुआ ने फटाक् से किवाड़ा बन्द कर लिये। बच्चों का कौतूहल बहुत बढ़ गया था। बुआ के चौके में एक झँझरी थी। सब बच्चे वहाँ पहुँचे और आँख लगाकर कनपटियों पर दोनों हथेलियाँ रखकर घण्टीवाला बाइसकोप देखने की मुद्रा में खड़े हो गये।
अन्दर सत्ती गरज रही थी, ‘‘बुलाया है तो बुलाने दो। क्यों जाए गुलकी ? अब बड़ा खयाल आया है। इसलिए की उसकी रखैल को बच्चा हुआ है जो जाके गुलकी झाड़ू-बुहारू करे, खाना बनावे, बच्चा खिलावे, और वह मरद का बच्चा गुलकी की आँख के आगे रखैल के साथ गुलछर्रे उड़ावे !’’

निरमल की माँ बोलीं, ‘‘अपनी बिटिया, पर गुजर तो अपने आदमी के साथ करैगी न ! जब उसकी पत्नी आयी है तो गुलकी को जाना चाहिए। और मरद तो मरद। एक रखैल छोड़ दुई-दुई रखैल रख ले तो औरत उसे छोड़ देगी ? राम ! राम !’’
‘‘नहीं, छोड़ नहीं देगी तो जाय कै लात खाएगी ?’’ सत्ती बोली।
‘‘अरे बेटा !’’ बुआ बोलीं, ‘‘भगवान रहें न ? तौन मथुरापुरी में कुब्जा दासी के लात मारिन तो ओकर कूबर सीधा हुइ गवा। पती तो भगवान हैं बिटिया। ओका जाय देव !’’
‘‘हाँ-हाँ, बड़ी हितू न बनिये ! उसके आदमी से आप लोग मुफ्त में गुलकी का मकान झटकना चाहती हैं। मैं सब समझती हूँ।’’
निरमल की माँ का चेहरा ज़र्द पड़ गया। पर बुआ ने ऐसी कच्ची गोली नहीं खेली थी। वे डपटकर बोलीं, ‘‘खबरदार जो कच्ची जबान निकाल्यो ! तुम्हारा चरित्तर कौन नै जानता ! ओही छोकरा मानिक…’’
जबान खींच लूँगी, ‘‘सत्ती गला फाड़कर चीख़ी जो आगे एक हरूफ़ कहा।’’ और उसका हाथ अपने चाकू पर गया-
‘‘अरे ! अरे ! अरे !’’ बुआ सहमकर दस क़दम पीछे हट गयीं-‘‘तो का खून करबो का, कतल करबो का ?’’ सत्ती जैसे आयी थी वैसे ही चली गयी।
तीसरे दिन बच्चों ने तय किया कि होरी बाबू के कुएँ पर चलकर बर्रें पकड़ी जायें। उन दिनों उनका जहर शान्त रहता है, बच्चे उन्हें पकड़कर उनका छोटा-सा काला डंक निकाल लेते और फिर डोरी में बाँधकर उन्हें उड़ाते हुए घूमते। मेवा, निरमल और मुन्ना एक-एक बर्रे उड़ाते हुए जब गली में पहुँचे तो देखा बुआ के चौतरे पर टीन की कुरसी डाले कोई आदमी बैठा है। उसकी अजब शक्ल थी। कान पर बड़े-बड़े बाल, मिचमिची आँखें, मोछा और तेल से चुचुआते हुए बाल। कमीज और धोती पर पुराना बदरंग बूट। मटकी हाथ फैलाये कह रही है, “एक डबल दै देव! एक दै देव ना?” मुन्ना को देखकर मटकी ताली बजा-बजाकर कहने लगी, “गुलकी का मनसेधू आवा है। ए मुन्ना बाबू! ई कुबड़ी का मनसेधू है।” फिर उधर मुड़कर- “एक डबल दै देव।” तीनों बच्चे कौतूहल में रुक गये। इतने में निरमल की माँ एक गिलास में चाय भरकर लायी और उसे देते-देते निरमल के हाथ में बर्रे देखकर उसे डाँटने लगी। फिर बर्रे छुड़ाकर निरमल को पास बुलाया और बोली, “बेटा, ई हमारी निरमला है। ए निरमल, जीजाजी हैं, हाथ जोड़ो! बेटा, गुलकी हमारी जात-बिरादरी की नहीं है तो का हुआ, हमारे लिए जैसे निरमल वैसे गुलकी। अरे, निरमल के बाबू और गुलकी के बाप की दाँत काटी रही। एक मकान बचा है उनकी चिहारी, और का?”; एक गहरी साँस लेकर निरमल की माँ ने कहा।
“अरे तो का उन्हें कोई इनकार है?”; बुआ आ गयी थीं, “अरे सौ रुपये तुम दैवे किये रहय्यू, चलो तीन सौ और दै देव। अपने नाम कराय लेव?”
“पाँच सौ से कम नहीं होगा?” उस आदमी का मुँह खुला, एक वाक्य निकला और मुँह फिर बन्द हो गया।
“भवा! भवा! ऐ बेटा दामाद हौ, पाँच सौ कहबो तो का निरमल की माँ को इनकार है?”
अकस्मात् वह आदमी उठकर खड़ा हो गया। आगे-आगे सत्ती चली आ रही थी | पीछे-पीछे गुलकी। सत्ती चौतरे के नीचे खड़ी हो गयी। बच्चे दूर हट गये। गुलकी ने सिर उठाकर देखा और अचकचाकर सर पर पल्ला डालकर माथे तक खींच लिया। सत्ती दो-एक क्षण उसकी ओर एकटक देखती रही और फिर गरजकर बोली, “यही कसाई है! गुलकी, आगे बढ़कर मार दो चपोटा इसके मुँह पर! खबरदार जो कोई बोला?”; बुआ चट से देहरी के अन्दर हो गयीं, निरमल की माँ की जैसे घिग्घी बँध गयी और वह आदमी हड़बड़ाकर पीछे हटने लगा।
“बढ़ती क्यों नहीं गुलकी! बड़ा आया वहाँ से बिदा कराने?”
गुलकी आगे बढ़ी ; सब सन्न थे ; सीढ़ी चढ़ी, उस आदमी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। गुलकी चढ़ते-चढ़ते रुकी, सत्ती की ओर देखा, ठिठकी, अकस्मात् लपकी और फिर उस आदमी के पाँव पर गिर के फफक-फफककर रोने लगी, “हाय! हमें काहे को छोड़ दियौ! तुम्हारे सिवा हमारा लोक-परलोक और कौन है! अरे, हमरे मरै पर कौन चुल्लू भर पानी चढ़ायी।
सत्ती का चेहरा स्याह पड़ गया। उसने बड़ी हिकारत से गुलकी की ओर देखा और गुस्से में थूक निगलते हुए कहा, “कुतिया!”; और तेजी से चली गयी। निरमल की मां और बुआ गुलकी के सर पर हाथ फेर-फेरकर कह रही थीं, “मत रो बिटिया! मत रो! सीता मैया भी तो बनवास भोगिन रहा। उठो गुलकी बेटा! धोती बदल लेव कंघी चोटी करो। पति के सामने ऐसे आना असगुन होता है। चलो!”;
गुलकी आँसू पोंछती-पोंछती निरमल की माँ के घर चली। बच्चे पीछे-पीछे चले तो बुआ ने डाँटा, “ऐ चलो एहर, हुँआ लड्डू बँट रहा है का?”;
दूसरे दिन निरमल के बाबू (ड्राइवर साहब), गुलकी और जीजाजी दिन-भर कचहरी में रहे। शाम को लौटे तो निरमल की माँ ने पूछा, “पक्का कागज लिख गया?” “हाँ-हाँ रे, हाकिम, के सामने लिख गया।” फिर जरा निकट आकर फुसफुसाकर बोले, “मट्टी के मोल मकान मिला है। अब कल दोनों को बिदा करो।” “अरे, पहले सौ रुपये लाओ! बुआ का हिस्सा भी तो देना है?” निरमल की माँ उदास स्वर में बोली, “बड़ी चंट है बुढ़िया। गाड़-गाड़ के रख रही है, मर के साँप होयगी।”;
सुबह निरमल की माँ के यहाँ मकान खरीदने की कथा थी। शंख, घण्टा-घड़ियाली, केले का पत्ता, पंजीरी, पंचामृत का आयोजन देखकर मुन्ना के अलावा सब बच्चे इकट्ठा थे। निरमल की माँ और निरमल के बाबू पीढ़े पर बैठे थे; गुलकी एक पीली धोती पहने माथे तक घूँघट काढ़े सुपारी काट रही थी और बच्चे झाँक-झाँककर देख रहे थे। मेवा ने पहुँचकर कहा, “ए गुलकी, ए गुलकी, जीजाजी के साथ जाओगी क्या?”; कुबड़ी ने झेंपकर कहा, “धत्त रे! ठिठोली करता है”; और लज्जा-भरी जो मुसकान किसी भी तरुणी के चेहरे पर मनमोहक लाली बनकर फैल जाती, उसके झुर्रियोंदार, बेडौल, नीरस चेहरे पर विचित्र रूप से बीभत्स लगने लगी। उसके काले पपड़ीदार होठ सिकुड़ गये, आँखों के कोने मिचमिचा उठे और अत्यन्त कुरुचिपूर्ण ढंग से उसने अपने पल्ले से सर ढाँक लिया और पीठ सीधी कर जैसे कूबड़ छिपाने का प्रयास करने लगी। मेवा पास ही बैठ गया। कुबड़ी ने पहले इधर-उधर देखा, फिर फुसफुसाकर मेवा से कहा, “क्यों रे! जीजाजी कैसे लगे तुझे?” मेवा ने असमंजस में या संकोच में पड़कर कोई जवाब नहीं दिया तो जैसे अपने को समझाते हुए गुलकी बोली, “कुछ भी होय। है तो अपना आदमी! हारे-गाढ़े कोई और काम आयेगा? औरत को दबाय के रखना ही चाहिए।” फिर थोड़ी देर चुप रहकर बोली, “मेवा भैया, सत्ती हमसे नाराज है। अपनी सगी बहन क्या करेगी जो सत्ती ने किया हमारे लिए। ये चाची और बुआ तो सब मतलब के साथी हैं हम क्या जानते नहीं? पर भैया अब जो कहो कि हम सत्ती के कहने से अपने मरद को छोड़ दें, सो नहीं हो सकता।” इतने में किसी का छोटा-सा बच्चा घुटनों के बल चलते-चलते मेवा के पास आकर बैठ गया। गुलकी क्षण-भर उसे देखती रही फिर बोली, “पति से हमने अपराध किया तो भगवान् ने बच्चा छीन लिया, अब भगवान् हमें छमा कर देंगे।” फिर कुछ क्षण के लिए चुप हो गयी। “क्षमा करेंगे तो दूसरी सन्तान देंगे?” “क्यों नहीं देंगे? तुम्हारे जीजाजी को भगवान् बनाये रखे। खोट तो हमी में है। फिर सन्तान होगी तब तो सौत का राज नहीं चलेगा।”;
इतने में गुलकी ने देखा कि दरवाजे पर उसका आदमी खड़ा बुआ से कुछ बातें कर रहा है। गुलकी ने तुरत पल्ले से सर ढंका और लजाकर उधर पीठ कर ली। बोली, “राम! राम! कितने दुबरा गये हैं। हमारे बिना खाने-पीने का कौन ध्यान रखता! अरे, सौत तो अपने मतलब की होगी। ले भैया मेवा, जा दो बीड़ा पान दे आ जीजा को?” फिर उसके मुँह पर वही लाज की बीभत्स मुद्रा आयी- “तुझे कसम है, बताना मत किसने दिया है।”
मेवा पान लेकर गया पर वहाँ किसी ने उसपर ध्यान ही नहीं दिया। वह आदमी बुआ से कह रहा था, “इसे ले तो जा रहे हैं, पर इतना कहे देते हैं, आप भी समझा दें उसे- कि रहना हो तो दासी बनकर रहे। न दूध की न पूत की, हमारे कौन काम की; पर हाँ औरतिया की सेवा करे, उसका बच्चा खिलावे, झाड़ू-बुहारू करे तो दो रोटी खाय पड़ी रहे। पर कभी उससे जबान लड़ाई तो खैर नहीं । हमारा हाथ बड़ा जालिम है। एक बार कूबड़ निकला, अगली बार परान निकलेगा।”
“क्यों नहीं बेटा! क्यों नहीं?” बुआ बोलीं और उन्होंने मेवा के हाथ से पान लेकर अपने मुँह में दबा लिये।
करीब तीन बजे इक्का लाने के लिए निरमल की माँ ने मेवा को भेजा। कथा की भीड़-भाड़ से उनका मूड़ पिराने; लगा था, अतः अकेली गुलकी सारी तैयारी कर रही थी। मटकी कोने में खड़ी थी। मिरवा और झबरी बाहर गुमसुम बैठे थे। निरमल की माँ ने बुआ को बुलवाकर पूछा कि बिदा-बिदाई में क्या करना होगा, तो बुआ मुँह बिगाड़कर बोलीं, “अरे कोई जात-बिरादरी की है का? एक लोटा में पानी भर के इकन्नी-दुअन्नी उतार के परजा-पजारू को दे दियो बस?” और फिर बुआ शाम को बियारी में लग गयीं।
इक्का आते ही जैसे झबरी पागल-सी इधर-उधर दौड़ने लगी। उसे जाने कैसे आभास हो गया कि गुलकी जा रही है, सदा के लिए। मेवा ने अपने छोटे-छोटे हाथों से बड़ी-बड़ी गठरियाँ रखीं, मटकी और मिरवा चुपचाप आकर इक्के के पास खड़े हो गये। सर झुकाये पत्थर-सी चुप गुलकी निकली। आगे-आगे हाथ में पानी का भरा लोटा लिये निरमल थी। वह आदमी जाकर इक्के पर बैठ गया। “अब जल्दी करो!”; उसने भारी गले से कहा। गुलकी आगे बढ़ी, फिर रुकी और टेंट से दो अधन्नी निकाले- “ले मिरवा, ले मटकी?” मटकी जो हमेशा हाथ फैलाये रहती थी, इस समय जाने कैसा संकोच उसे आ गया कि वह हाथ नीचे कर दीवार से सट कर खड़ी हो गयी और सर हिलाकर बोली, “नहीं ?”–“नहीं बेटा! ले लो!” गुलकी ने पुचकारकर कहा। मिरवा-मटकी ने पैसे ले लिये और मिरवा बोला, “छलाम गुलकी! ए आदमी छलाम?”;
“अब क्या गाड़ी छोड़नी है?” वह फिर भारी गले से बोला।
“ठहरो बेटा, कहीं ऐसे दामाद की बिदाई होती है?” सहसा एक बिलकुल अजनबी किन्तु अत्यन्त मोटा स्वर सुनायी पड़ा। बच्चों ने अचरज से देखा, मुन्ना की माँ चली आ रही हैं। “हम तो मुन्ना का आसरा देख रहे थे कि स्कूल से आ जाये, उसे नाश्ता करा लें तो आयें, पर इक्का आ गया तो हमने समझा अब तू चली। अरे! निरमल की माँ, कहीं ऐसे बेटी की बिदाई होती है! लाओ जरा रोली घोलो जल्दी से, चावल लाओ, और सेन्दुर भी ले आना निरमल बेटा! तुम बेटा उतर आओ इक्के से!”;
निरमल की माँ का चेहरा स्याह पड़ गया था। बोलीं, “जितना हमसे बन पड़ा किया। किसी को दौलत का घमण्ड थोड़े ही दिखाना था?” “नहीं बहन! तुमने तो किया पर मुहल्ले की बिटिया तो सारे मुहल्ले की बिटिया होती है। हमारा भी तो फर्ज था। अरे माँ-बाप नहीं हैं तो मुहल्ला तो है। आओ बेटा?” और उन्होंने टीका करके आँचल के नीचे छिपाये हुए कुछ कपड़े और एक नारियल उसकी गोद में डालकर उसे चिपका लिया। गुलकी जो अभी तक पत्थर-सी चुप थी सहसा फूट पड़ी। उसे पहली बार लगा जैसे वह मायके से जा रही है। मायके से अपनी माँ को छोड़कर छोटे-छोटे भाई-बहनों को छोड़कर और वह अपने कर्कश फटे हुए गले से विचित्र स्वर से रो पड़ी।
“ले अब चुप हो जा! तेरा भाई भी आ गया?” वे बोलीं। मुन्ना बस्ता लटकाये स्कूल से चला आ रहा था। कुबड़ी को अपनी माँ के कन्धे पर सर रखकर रोते देखकर वह बिल्कुल हतप्रभ-सा खड़ा हो गया- “आ बेटा, गुलकी जा रही है न आज! दीदी है न! बड़ी बहन है। चल पाँव छू ले! आ इधर?” माँ ने फिर कहा। मुन्ना और कुबड़ी के पाँव छुए? क्यों? क्यों? पर माँ की बात! एक क्षण में उसके मन में जैसे एक पूरा पहिया घूम गया और वह गुलकी की ओर बढ़ा। गुलकी ने दौड़कर उसे चिपका लिया और फूट पड़ी- “हाय मेरे भैया! अब हम जा रहे हैं! अब किससे लड़ोगे मुन्ना भैया? अरे मेरे वीरन, अब किससे लड़ोगे?” मुन्ना को लगा जैसे उसकी छोटी-छोटी पसलियों में एक बहुत बड़ा-सा आँसू जमा हो गया जो अब छलकने ही वाला है। इतने में उस आदमी ने फिर आवाज दी और गुलकी कराहकर मुन्ना की माँ का सहारा लेकर इक्के पर बैठ गयी। इक्का खड़-खड़ कर चल पड़ा। मुन्ना की माँ मुड़ी कि बुआ ने व्यंग्य किया, “एक आध गाना भी बिदाई का गाये जाओ बहन! गुलकी बन्नो ससुराल जा रही है!” मुन्ना की माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया, मुन्ना से बोली, “जल्दी घर आना बेटा, नाश्ता रखा है?”
पर पागल मिरवा ने, जो बम्बे पर पाँव लटकाये बैठा था, जाने क्या सोचा कि वह सचमुच गला फाड़कर गाने लगा, “बन्नो डाले दुपट्टे का पल्ला, मुहल्ले से चली गयी राम?” यह उस मुहल्ले में हर लड़की की बिदा पर गाया जाता था। बुआ ने घुड़का तब भी वह चुप नहीं हुआ, उलटे मटकी बोली, “काहे न गावें, गुलकी नै पैसा दिया है?” और उसने भी सुर मिलाया, “बन्नो तली गयी लाम! बन्नो तली गयी लाम! बन्नो तली गयी लाम!”
मुन्ना चुपचाप खड़ा रहा। मटकी डरते-डरते आयी- “मुन्ना बाबू! कुबड़ी ने अधन्ना दिया है, ले लें?”
“ले ले” बड़ी मुश्किल से मुन्ना ने कहा और उसकी आँख में दो बड़े-बड़े आँसू डबडबा आये। उन्हीं आँसुओं की झिलमिल में कोशिश करके मुन्ना ने जाते हुए इक्के की ओर देखा। गुलकी आँसू पोंछते हुए परदा उठाकर मुड़-मुड़कर देख रही थी। मोड़ पर एक धचके से इक्का मुड़ा और फिर अदृश्य हो गया।
सिर्फ झबरी सड़क तक इक्के के साथ गयी और फिर लौट गयी।

लेखक

  • धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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गुलकी बन्नो/धर्मवीर भारती

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