सकीना की बुखार से जलती हुई पलकों पर एक आँसू चू पड़ा।
‘‘अब्बा!’’ सकीना ने करीम की सूखी हथेलियों को स्नेह से दबाकर कहा, ‘‘रोते हो! छिह।’’
बूढ़े करीम ने बाँह से अपनी धुँधली आँखें पोंछते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम बुखार में जल रही हो और मैं तुम्हारे ओढ़ने के लिए एक चादर भी न ला सका।’’
सकीना बात काटकर बोली, ‘‘तो इसमें रोने की क्या बात? सुनते हैं, सरकार ने इंतजाम किया है। बहुत सा सस्ता कपड़ा आने वाला है। तब खरीद लेना। फिर मुझे तो जाड़ा भी नहीं लगता।’’ सकीना मुश्किल से अपनी कँपकँपी रोक पा रही थी।
‘‘सरकार!’’ करीम एक ठंडी साँस लेकर रह गया।
सकीना ने देखा, करीम बहुत दुःखी हो रहा है। फौरन ध्यान बँटाने के लिए बोली, ‘‘नींद नहीं आ रही अब्बा, कोई कहानी सुनाओ!’’
‘‘पगली! तुझे भी इस वक्त कहानी सूझती है। बेटा, हमीं लोगों के हालात कोई अखबार में छपा दे तो बड़ी दर्दनाक कहानी बन जाए!’’
‘‘नहीं, नहीं! कहानी सुनाओ!’’ सकीना छोटे बच्चों की तरह मचलकर बोली।
‘‘अच्छा, सुन!’’ करीम बोला, ‘‘यहीं लखनऊ का किस्सा है। नवाबी अमल था। छतरमंजिल में नवाब साहब की ऐशगाह थी। दिन भर दोस्तों के साथ ऐश करने के बाद जब नवाब साहब आरामगाह में जाते थे तो उनकी पलकों में गुलाबियों का नशा रहता और उनके कदमों में शराब की छलकन। उन्हें सहारा देने के लिए जीने की हर सीढ़ी पर दोनों ओर नौजवान बाँदियाँ रहती थीं, जिनके कंधों पर हाथ रखकर वे धीरे-धीरे ऊपर जाते थे। सुन रही है न?’’
‘‘हूँ!’’
‘‘अच्छा, तो एक दिन सभी बाँदियाँ मुर्शिदाबादी रेशम की पोशाक पहनकर खड़ी हुईं। नवाब साहब ने पहली बाँदी के कंधे पर हाथ रखा ही था कि रेशम की चिकनाहट की वजह से दुपट्टा फिसल गया और वे गिरते-गिरते बचे। नीचे से ऊपर तक बाँदियों में भय की एक लहर दौड़ गई। नवाब साहब सँभले और गरजकर बोले, ‘‘बदजातो! कल से तुम लोगों के कंधे नंगे रहने चाहिए।’’ और दूसरे दिन से उनके कंधे नंगे रहने लगे।
‘‘समझी बेटी, तब कपड़ों की कमी नहीं थी और न अब है; मगर हम गुलाम और गरीब तब भी नंगे रहते थे और अब भी नंगे रहते हैं। जानती है क्यों, ताकि अमीर लोग हमारे नंगे कंधों पर आसानी से हाथ जमाकर सोने और चाँदी की सीढि़यों पर चढ़ सकें…सो गई, सकीना!’’
सकीना सो गई थी।
करीम उठा। एक फटी चटाई पर बाँहों पर सिर रखकर लेट रहा। उसने दोपहर से कुछ नहीं खाया था। भूख लगी थी, मगर वह धीरे-धीरे सो गया। हिंदुस्तानियों की आदत है कि जब वे भूखे होते हैं तो सो जाते हैं और सपने देखने लगते हैं। करीम ने भी एक सपना देखा…।
हिंदुस्तानियों की तरह वह भी इस दुनिया से ऊबकर बहिश्त चला गया। आगे-आगे काँपता हुआ करीम और पीछे-पीछे अपने फटे कुरते को सँभालती हुई मासूम सकीना।
सामने तख्त पर खुदा था। करीम ने सिर झुकाकर कहा, ‘‘या खुदा! हम लोग नंगे हैं, भूखे हैं।’’
खुदा ने अपनी आँखें उठाईं। सकीना पर उसकी निगाह गड़ गई और उन्होंने बगल में बैठे हुए एक फरिश्ते से कहा, ‘‘हजरत, मैं देखता हूँ कि भूख में भी आदमी का हुस्न निखरता जाता है।’’
फरिश्ते ने अदब से सिर झुकाकर कहा, ‘‘हुजूर की नायाब कुदरत!’’
खुदा ने खुश होकर कहा, ‘‘अच्छा, तो इस हसीना का नाम हूरों में दर्ज कर लो।’’
फरिश्ते सकीना की ओर बढ़े।
‘‘खबरदार!’’ करीम की भूखी पसलियाँ गरज उठीं।
खुदा ने उसे देखा, ‘‘यह कौन है? निकालो इसे!’’
‘‘कमबख्त, तूने इनसाफ का ठेका लिया है।’’ करीम चीखा, ‘‘उफ, तुझमें खुदाई हो, मगर तूने अभी तक इनसानियत नहीं सीखी है, ओ धोखेबाज खुदा!’’
सकीना फरिश्तों के हाथों में छटपटाती हुई चीखी, ‘‘अब्बा!’’
करीम की आँखें खुल गईं। छटपटाती हुई सकीना चीख रही थी, ‘‘अब्बा!’’
करीम घबराकर उठा।
‘‘अब्बा जूड़ी चढ़ रही है।’’ थरथराती हुई सकीना बोली। वह पानी से निकली हुई मछली की तरह छटपटा रही थी। करीम लाचार होकर उसकी ओर देखता रहा। उसके पास नाम के लिए एक धोती भी न थी कि पूस की रात में जूड़ी से काँपती हुई रोगिन बेटी को ओढ़ा दे।
‘‘हाथ ऐंठ रहे हैं, अब्बा!’’ कहकर उसने हाथ झटके और महीनों का पहना हुआ जर्जर कुरता बगल के पास से चर्राकर फट गया। सकीना ने कुहनियों से लाज ढँकने की कोशिश की, मगर उसके हाथ की नसें तनी जा रही थीं। वह शर्म से तड़प गई।
करीम से अब न बरदाश्त हुआ। उसकी आँखों में खून उतर आया। उसका रोम-रोम सुलग उठा और उसने पैर पटककर कहा, ‘‘सकी! सकी! मैं कहीं से तुम्हारे लिए कपड़ा लाऊँगा, बेटी! कहीं से!’’ और झोंके की तरह वह बाहर निकल पड़ा।
कब्रगाह में लगे हुए पीपल के नीचे एक मुसलमान भिखमंगा बैठा था। सामने थोड़ी सी आग जल रही थी। उसने एक लकड़ी से आग कुरेदते हुए कहा, ‘‘या खुदा! गजब की सर्दी है। सुना था, चौदहवीं सदी में कयामत होगी, इनसाफ होगा। कयामत बरपा है, मगर इनसाफ का पता भी नहीं।’’
एकाएक तीसरी कब्र के पास एक मनुष्य की छाया दीख पड़ी। वह कब्र आज ही खुदी थी और जुड़ाई करनेवाले मजदूर फावड़ा और कन्नी वहीं छोड़कर चले गए थे। उस छाया ने फावड़ा उठाया और चलाना शुरू कर दिया। भिखमंगा डर से काँप गया। यह कौन है? कोई जिन? जिन नहीं, फरिश्ता होगा। कब्र खोदकर गुनाहों का लेखा दर्ज करने आया है। उसके मन में एक खयाल आया, मगर वह इससे अरज करे तो दुनियावी मुसीबतों से छुटकारा पा जाएगा। वह काँपते हुए उठा और उसके नजदीक गया। फरिश्ते ने फावड़ा चलाना बंद कर दिया।
‘‘हुजूर! आप पैगंबर हैं, खुदा के फरिश्ते हैं। मैं…’’
‘‘चुप रहो, बेइज्जती मत करो। मैं फरिश्ता नहीं, इनसान हूँ।’’ फरिश्ते ने चीखकर कहा।
‘‘नहीं हुजूर! फरिश्ता…’’
‘‘फरिश्ता! फरिश्ता! मैं चोर हूँ, बुड्ढे! कफन चुराने आया हूँ। मेरी बेटी बिना कपड़े के मर रही है। तू भी नंगा है। अच्छा, आधा कफन तू भी ले लेना।’’
भिखमंगा सहमकर पीछे हट गया। डर से उसकी घिग्घी बँध गई और उसके बाद चीखकर बोला, ‘‘चोर! चोर!’’
रखवाले की झोंपड़ी से कई लोग दौड़ पड़े।
दूसरे दिन लखनऊ में बिजली की तरह इस अनोखी चोरी की खबर फैल गई।
सुबह क्लाथ कंट्रोल ऑफिसर जब चाय पीने बैठे तो उनकी पत्नी ने चाय ढालते हुए कहा, ‘‘सुना तुमने, कल एक आदमी कफन चुराते पकड़ा गया।’’
‘‘पागल हो गई हो क्या?’’ ओवरकोट और मफलर से कान और छाती को ढँकते हुए उन्होंने कहा, ‘‘कपड़े की ऐसी भी क्या कमी! और फिर आदमी चाहे मर जाए, कब्र खोदकर कफन चुराने नहीं जाएगा।’’ फर के दस्ताने से ढकी उँगलियों से चाय का प्याला उठाते हुए उन्होंने जवाब दिया।