अल्मोड़े में पादरियों तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषण प्रायः ही सुनने को मिलते थे, जिनसे मैं छुटपन में बहुत प्रभावित रहा हूँ। वे पवित्र जीवन व्यतीत करने की बातें करते थे और प्रभु की शरण आने का उपदेश देते थे जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। गिरजे के घंटे की ध्वनि से प्रेरणा पाकर मैंने जितनी रचनाएँ लिखी हैं उन सब में इन्हीं पादरियों के उपदेशों का सार भाग किसी न किसी रूप में प्रकट होता रहा है। ‘गिरजे का घंटा’ शीर्षक एक रचना मैंने अपने आत्म विश्वास तथा प्रथम उत्साह के कारण श्री गुप्त जी के पास भेज दी थी, जिन्होंने अपने सहज सौजन्य के कारण उसकी प्रशंसा में दो शब्द लिखकर उसे मेरे पास लौटा दिया था।
अब एक दूसरा उदाहरण लीजिए। मेरे भाई एक बार अल्मोड़े में किसी मेले से काग़ज़ के फूलों का एक गुलदस्ता ले आए, जिसे उन्होंने अपने कमरे में फूलदान में रख दिया था। मैं जब भी अपने भाई के कमरे में जाता था काग़ज़ के उन रंग-बिरंगे फूलों को देखकर मेरे मन में अनेक भाव उदय हुआ करते थे। मैं बचपन से ही प्रकृति की गोद में पला हूँ। काग़ज़ के वे फूल अपनी चटक-मटक से मेरे मन में किसी प्रकार की भी सहानुभूति नहीं जगा पाते थे। मैं चुपचाप अपने कमरे में आकर अनेक छदों में अनेक रूप से अपने मन के उस असंतोष को वाणी देकर काग़ज़ के फूलों का तिरस्कार किया करता था। अंत में मैंने सुस्पष्ट शब्दों में अपने मन के आक्रोश को एक चतुर्दशपदी में छन्दबद्ध करके उसे अल्मोड़े के एक दैनिक पत्र में प्रकाशनार्थ भेज दिया जिसका आशय इस प्रकार था-
हे काग़ज़ के फूलों, तुम अपने रूप-रंग में उद्यान के फूलों से अधिक चटकीले भले ही लगो पर न तुम्हारे पास सुगंध है, न मधु। तुम स्पर्श को भी तो वैसे कोमल नहीं लगते हो। हाय, तुम्हारी पंखुड़ियाँ कभी कली नहीं रही न वे धीरे-धीरे मुसकुराकर किरणों के स्पर्श से विकसित ही हुईं। अब तुम्हीं बतलाओ तुम्हारे पास भ्रमर किस आशा से, कौन सी प्रेम-याचना लेकर मँडराए? क्या तुम अब भी नहीं समझ पाए कि झूठा, नकली और कृत्रिम जीवन व्यतीत करना कितना बड़ा अभिशाप है? हृदय के आदान प्रदान के लिये जीवन में किसी प्रकार की तो सच्चाई होनी चाहिए। इत्यादि…।
एक और उदाहरण लीजिए- मेरे फुफेरे भाई हुक्का पिया करते थे। सुबह-शाम जब भी मैं उनके पास जाता उन्हें हुक्का पीते पाता था। उनका कमरा तम्बाकू के धुएँ की नशीली गंध से भरा रहता था। उन्हें धुआँ उड़ाते देखकर तम्बाकू के धुएँ पर मैंने अनेक छन्द लिखे हैं, जिनमें से एक रचना अल्मोड़े के दैनिक में प्रकाशित भी हुई है। इस रचना की दो पक्तियाँ मुझे स्मरण हैं जो इस प्रकार हैं-
सप्रेम पान करके मानव तुझे हृदय में
रखते, जहाँ बसे हैं भगवान विश्वस्वामी।
इस रचना में मैंने धुएँ को स्वतंत्रता का प्रेमी मानकर उसकी प्रशंसा की थी। आशय कुछ-कुछ इस प्रकार था- ‘हे धूम! तुम्हें वास्तव में अपनी स्वतंत्रता अत्यन्त प्रिय है। मनुष्य तुम्हें सुगन्धित सुवासित कर, तुम्हें जल से सरस शीतल बनाकर अपने हृदय में बंदी बनाकर रखना चाहता है, उस हृदय में जिसमें भगवान का वास है। किन्तु तुम्हें अपनी स्वतंत्रता इतनी प्रिय है कि तुम क्षण भर को भी वहाँ सिमट कर नहीं रह सकते और बाहर निकल कर इच्छानुरूप चतुर्दिक व्याप्त हो जाना चाहते हो। ठीक है, स्वतंत्रता के पुजारी को ऐसा ही होना चाहिए, उसे किसी प्रकार का हृदय का लगाव या बंधन नहीं स्वीकार होना चाहिए… इत्यादि।
इस प्रकार अपने आस-पास से छोटे मोटे विषयों को चुन कर मैं अपनी प्रारम्भिक काव्य-साधना में तल्लीन रहा हूँ। मेरे भावना तथा विचार तो उम समय अत्यन्त अपरिपक्व एव अविकसित रहे ही होंगे किन्तु उन्हें छन्दबद्ध करने में तब मुझे विशेष आनन्द मिलता था। छन्दों के मधुर संगीत ने मुझे इतना मोह लिया था कि मैंने अनेक पत्र भी उन दिनों छन्दों ही में गूँथ कर लिखे हैं। यदि प्रारम्भिक रचनाओं के महत्व के सम्बन्ध में तब थोड़ा भी ज्ञान मुझे होता तो मैं उन कविता तथा पत्रों की प्रतिलिपियाँ अपने पास अवश्य सुरक्षित रखता। अब मुझे इतना ही स्मरण है कि अपने पास-पड़ोस और दैनदिन की परिस्थितियों एवं घटनाओं से प्रभावित होकर ही मेरी प्रारम्भिक रचनाएँ निःसृत हुई हैं और अपनी अस्फुट अबोध भावना को भाषा की अस्पष्ट तुतलाहट में बाँधकर मैं अपने छन्द-रचना के प्रेम को चरितार्थ करता रहा हूँ। एक प्रकार से प्रारम्भ से ही मुझे अपने मधुमय गान अपने चारों ओर धूलि की ढेरी में अनजान बिखरे पड़े मिले हैं।
वैसे एक प्रकार से मैं अल्मोड़े आने से और भी बहुत पहिले छन्दों की गलियों में भटकता और चक्कर खाता रहा हूँ। तब मैं अपने पिता जी के साथ कौसानी में रहता था और वहीं ग्राम पाठशाला में पढ़ता था। मेरे फुफेरे भाई तब वहाँ अध्यापक थे और मेरे बड़े भाई बी. ए. की परीक्षा दे चुकने के बाद स्वास्थ्य सुधारने के लिए वहाँ आये हुए थे। मेरे बड़े भाई भी उन दिनों कविता किया करते थे। उनके अनेक छन्द मुझे अब भी कंठस्थ है। वह अत्यन्त मधुर लय में राजा लक्ष्मण सिंह कृत मेघदूत के अनुवाद को भाभी को सुनाया करते थे। शिखरिणी छन्द तब मुझे बड़ा प्रिय लगता था और मैं, “सग्वा तेरे पी को जलद प्रिय मैं हूँ?” आदि पंक्तियों को गुनगुना कर उन्हीं के अनुकरण में लिखने की चेष्टा करता था। कभी-कभी मैं भाई साहब के मुंह से कोई ग़ज़ल की धुन सुन कर उस पर भी लिखने की कोशिश करता था। लेकिन अब मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरी तब की रचनाओं में छन्द अवश्य ही ठीक नहीं रहता होगा और मैं बाल्य-चापल्य के कारण छन्द की धुन में बहुत कुछ असम्बद्ध और बेतुका लिखता रहा हूँगा। मुझे स्मरण है, एक बार भाई साहब को मेरी पीले काग़ज़ की कापी मिल गई थी और उन्होंने मेरी ग़ज़लों की खूब हँसी उड़ाई थी। अतएव उस समय की कविता को मैं अपनी पहली कविता नहीं मान सकता।
व्यवस्थित एव सुसबद्ध रूप से लिखना तो मैंने पाँच-छः साल बाद अल्मोड़ा आकर ही प्रारम्भ किया। तब स्वामी सत्यदेव आदि अनेक विद्वानों के व्याख्यानों से अल्मोड़े में हिन्दी के लिए उपयुक्त वातावरण प्रस्तुत हो चुका था, नगर में शुद्ध साहित्य समिति के नाम से एक वृहत् पुस्तकालय की स्थापना हो चुकी थी, और नागरिकों का मातृभाषा के प्रति आकर्षण विशेष रूप से अनुराग में परिणत हो चुका था। मुझे घर में तथा नगर में भी नवोदित साहित्यिकों, लेखकों एवं कवियों का साहचर्य सुलभ हो गया था। मैंने हिन्दी पुस्तकों का संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया था, विशेष कर काव्य-ग्रन्थों का, और ‘नदन पुस्तकालय’ के नाम से घर में एक लाइब्रेरी की भी स्थापना कर दी थी। इसमें द्विवेदी युग के कवियों की रचना के अतिरिक्त मध्य युग के कवियों के ग्रन्थ, तथा प्रेमचद जी के उपन्यासों के साथ बंगला, मराठी आदि उपन्यासों के अनुवाद भी रख लिये थे और कुछ पिंगल अलङ्कार आदि काव्यग्रन्थ भी जोड़ लिये थे। सरस्वती, मर्यादा आदि उस समय की प्रसिद्ध मासिक पत्रिकाएँ भी मेरे पास आने लगी थीं और मैंने नियमित रूप से हिन्दी साहित्य का अध्ययन आरम्भ कर दिया था।
आदरणीय गुप्त जी की कृतियों ने और विशेषकर भारत-भारती, जयद्रथ वध तथा विरहिणी ब्रजागना ने तब मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया था। प्रिय प्रवास के छन्द भी मुझे विशेष प्रिय लगते थे। ‘कविता कलाप’ को मैं कई बार पढ़ गया था। सरस्वती में प्रकाशित मकुटधर पांडेय जी की रचना में नवीनता तथा मौलिकता का आभास मिलता था। इन्हीं कवियों के अध्ययन तथा मनन से प्रारम्भ में मेरी काव्य साधना का श्रीगणेश हुआ और मैंने सुसङ्गठित रूप से विविध प्रकार के छन्दों के प्रयोग करने सीखे। छन्दों की साधना में मुझे विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा। श्रवणों को सङ्गीत के प्रति अनुराग होने के कारण तथा लय को पकड़ने की क्षमता होने के कारण सभी प्रकार के छोटे-बड़े छन्द धीरे-धीरे मेरी लेखनी से सरलता पूर्वक उतरने लगे। जो भी विषय मेरे सामने आते और जो भी विचार मन में उदय होते उन्हें मैं नये-नये छन्दों मे नये-नये रूप से प्रकट करने का प्रयत्न करता रहा। काव्य साधना में मेरा मन ऐसा रम गया कि स्कूल की पाठ्य-पुस्तको की ओर मेरे मन में अरुचि उत्पन्न हो गई और मैंने खेल-कूद में भी भाग लेना बन्द कर दिया।
इन्ही दिनों अल्मोड़े के हाई स्कूल में पढ़ने के लिए एक नवयुवक आकर हमारे मकान में रहने लगे जिन्हें साहित्य से विशेष अनुराग था। उनके संपादन में हमारे घर से एक हस्तलिखित मासिक पत्र निकलने लगा जिसमें नियमित रूप में दो एक वर्ष तक मेरी रचनाएँ निकलती रहीं। उनके साहचर्य से मेरे साहित्यिक प्रेम को प्रगति मिली और नगर के अनेक नवयुवक साहित्यिकों से परिचय हो गया। मेरे मित्र अनेक प्रकाशकों के सूचीपत्र मंगवाकर पुस्तकों तथा चित्रों के पार्सल मँगवाते और उन्हें हम लोगों से बेचा करते थे। इस प्रकार उनकी सहायता से हिन्दी की अनेक उत्कृष्ट प्रकाशन संस्था तथा उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का मेरा ज्ञान सहज ही बढ़ गया।
हरिगीतिका, गीतिका, रोला, वीर, मालिनी, मदक्रान्ता, शिखरिणी आदि छन्दों में मैंने प्रारम्भ में अनेकानेक प्रयोग किये हैं। और छोटे-बड़े अनेक गीतों में प्रकृति-सौंदर्य का चित्रण भी किया है। प्रकृति-चित्रण के मेरे दो-एक गीत सम्भवतः ‘मर्यादा’ नामक मासिक पत्रिका में भी प्रकाशित हुए हैं।
‘भारतभारती’ के आधार पर अनेक राष्ट्रीय रचनाएँ तथा ‘कविता कलाप’ के अनुकरण में राजा रवि वर्मा के तिलोत्तमा आदि चित्रों का वर्णन भी अपने छन्दों में मैंने किया है। अनेक पत्र तथा कल्पित प्रेम-पत्र लिखकर भी, जो प्रायः सखाओं के लिये होते थे, मैंने अपने छन्दों के तारों को साधा है। अपने प्रारम्भिक काव्य साधना काल में, न जाने क्यों, कविता का अभिप्राय मेरे मन में छन्दबद्ध पंक्तियों तक ही सीमित रहा है। छन्दों में संगीत होता है यह बात मुझे छन्दों की ओर विशेष आकृष्ट करती थी और अनुप्रासो या ललित मधुर शब्दों द्वारा छन्दों में संगीत की झंकार पैदा करने की ओर मेरा ध्यान विशेष रूप से रहता था। कविता के भाव पक्ष से मैं इतना ही परिचित था कि कविता में कोई अद्भुत या विलक्षण बात अवश्य कही जानी चाहिए। कालिदास की अनोखी सूझ की बात मैं अपने भाई साब से बहुत छुटपन में ही सुन चुका था, जब वह भाभी को मेघदूत पढ़ाया करते थे। किन्तु उस विलक्षण भाव को संगीत के पंख लगाकर छन्द में प्रवाहित करने की भावना तब मुझे विशेष आनन्द देती थी और मैं अपनी छन्द-साधना में इस पक्ष पर विशेप ध्यान देना प्रारम्भ से ही नहीं भूला हूँ।
मेरी उस प्रारम्भिक काल की रचनाएँ, जिन्हें मैं अपनी पहली कविता कहता हूँ, न जाने, पतझर के पत्तों की तरह मर्मर करती हुई , कब और कहाँ उड़कर चली गईं, यह मैं नहीं कह सकता। अपनी बहुत सी रचनाएँ काशी जाने से पहले मैं अल्मोड़े ही में छोड़ गया था जो मुझे घर की अव्यवस्था के कारण पीछे नहीं मिलीं। संभव है उन्हें कोई ले गया हो या किसी रद्दी काग़ज़ों के साथ फेंक दिया हो या बाजार भेज दिया हो। वीणा-काल से पहले के दो कविता संग्रह, जब मैं हिन्दू बोर्डिङ्ग हाउस में रहता था, मेरी चारपाई में आग लग जाने के कारण, जल कर राख हो गये थे। कीट्स और शेली के दो सचित्र संग्रह भी, जो मुझे प्रो. शिवाधार पांडेय जी ने पढ़ने के लिये दिये थे, उनके साथ ही भस्म हो गये। अपने उन दो संग्रहों के जल जाने का दुःख मुझे बहुत दिनों तक रहा। उनमें मेरी काव्य-साधना के द्वितीय चरण की रचनाएँ थीं। मेरी आँखों में अब उन अस्फुट प्रयासों का क्या महत्व होता यह तो मैं नहीं कह सकता, पर ममत्व की दृष्टि से वे मुझे अपनी प्रारम्भिक काव्य साधना के साक्षी के रूप में सदैव प्रिय रहते, इसने मुझे संदेह नहीं। अपने कवि जीवन के प्रथम उषाकाल में स्वर्ग की सुन्दरी कविता के प्रति मेरे हृदय में जो अनिवर्चनीय आकर्षण, जो अनुराग तथा उत्साह था, उसका थोड़ा-सा भी आभास क्या मैं इस छोटी-सी वार्ता में दे पाया हूँ? शायद नहीं।