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कला और बूढ़ा/सुमित्रानंदन पंत

  1. बूढ़ा चाँद

बूढ़ा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है ।

यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढ़ा प्रहरी
प्रेम की ढाल ।

हाथी दांत की
स्‍वप्‍नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही ।
ओ बाहरी

खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा।

राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढ़ा चांद
कला के विछोह में
म्‍लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया।

पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है।

वही कला,
राका शशि,-
वही बूढ़ा चांद,
छाया शशि है।

  1. कला

कला ओ पारगामी
गर्जन मौन
शुभ्र ज्ञान घन,

अगम नील की चिन्ता में
मत घुल ।

यह रूप कला ही
प्रेम कला
अमरों का गवाक्ष है ।-

उस पार की उयोति से
तेरा अंतर
दीपित कर देगी ।
तेरी आत्म रिक्तता
अक्षय वैभव से
भर जाएगी ।

ओ शरद अभ्र
तूने अपने मुक्त पंखों से
आंसू का मुक्ता भार
आकांक्षा का गहरा
श्यामल रंग
धरती पर बरसा कर
उसे हरी भरी कर दिया ।

तेरा व्यथा धुला
नग्र मन

व्यापक प्रकाश वहन करेगा,
शाश्वत मुख का दर्पण बनेगा ।

तेरे द्रवित हृदय में
स्वर्ग
स्वजनों का इंद्रधनु नीड़
बसाएगा ।

जिनकी कला ही सत्य और सुंदर है ।

  1. धेनुएं

ओ रंभाती नदियो,
बेसुध
कहाँ भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है।

ओ, फेन-गुच्छ
लहरों की पूँछ उठाए
दौड़ती नदियो,

इस पार उस पार भी देखो,-
जहाँ फूलों के कूल
सुनहरे धान से खेत हैं।

कल-कल छल-छल
अपनी ही विरह व्यथा
प्रीति कथा कहते
मत चली जाओ।

सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं
वह तो गतिमय स्रोत की तरह
गनि हीन स्थिति भर है ।
तुम्हारा सत्य तुम्हारे भीतर है ।-

राशि का ही अनंत
अनंत नहीं,-
गुण का अनंत
बूंद-बूंद में है ।

ओ दूध धार टपकाती
शुभ प्रेरणा धेनुओ,
तुम जिस वत्स के लिए
व्याकुल हो
वह मैं ही हूं ।

मुझे अपना धारोष्ण प्रकाश
अनामय अमृत पिलाओ ।
अपनी शक्ति
अपना जय दो ।

मुझे उस पार खड़ी
मानवता के लिए
सत्य का वोहित्य
खेना है ।

ओ तट सीमा में बहने वाली
सीमा हीन स्रोतस्विनियो,
मैं जल से ही
स्थल पर आया हूं ।

  1. देहमान

उत्तर दिशा को
अकेले न जाना
लाड़िली,
वहाँ
गंधर्व किन्नर रहते हैं ।

चाँदनी की मोहित खोहों में
ओसों के
दर्पण-से सरोवर हैं,
द्वार पर
झीने कुहासों के परदे पडे हैं ।

उत्तर दिशा में
अपनी वीणा न ले जाना
बावरी,
वहाँ अप्सर रहते हैं ।

वे मन के तारों में
ऐसे बोल छेड़ते हैं,…
देह लाज छूट जाती है ।
प्राणों की गुहाएं
आनंद निर्झरों से
गूँज उठती हैं ।

उत्तर दिशा में
ग्यारह तारों की
भाव वीणा न बजाना
मानिनी,
वहाँ इंद्र रहते हैं ।

रक्त पदम-से
ह्रदय पात्र में
शची
स्वर्णिम मधु ढालती है,-
स्वप्नों के मद से
इंद्रियों की नींद
उचट जाती है ।

वहाँ आलोक की भूलभुलैया में
अंधकार
खो जाता है ।

उत्तर दिशा को
ज्ञान शिखर की
अनंत चकाचौध में
देह मान लेकर
अकेले न जाना,
भामिनी,
वहाँ कोई नहीं,
कोई नहीं है ।

  1. मधुछत्र

ओ ममाखियो,
यह सोने का मधु
कहाँ से लाईं ?
वे किस पार के वन थे
सद्य: खिले फूल ?

जिनकी पंखुड़ियां
अंजलियों की तरह
अनंत दान के लिए
खुली रहती हैं ।

कितने स्रष्टा
स्वप्न द्रष्टा
चितवन तूली से
उनके रूप रंग अंकित कर लाए ।

फूलों के हार
पुष्पों के स्तवक संजोकर
उन्होंने
कुम्हलाई हाटें लगाईं ।
रूप के प्यासे नयन
मधु नहीं चीन्ह सके ।

ओ सोने की माखी,
तुम गर्म ही में पैठ गईं,
स्वर्ग में प्रवेश कर
हिमालय-से अचेत
शुभ्र मौन को
गुंजित कर गईं ।

उन माणिक पुष्पराग के
जलते कटोरों में
कैसा पावक रहा,
हीरक रश्मियों भरा ?-
जिसे दुह कर
तुम घट भर लाईं ।
तुम घट भर लाईं ।
कौन अरुप गंध तुम्हें
कल का संदेश दे गई ?

ओ गीत सखी
ये बोलते पंख मुझे भी दो,
जो गाते रहते हैं,-
और,
वह मधु की गहरी परख,-
मैं भी
मधुपायी उड़ान भरूँगा ।

मानवता की रचना
तुम्हारे छत्ते-सी हो ।
जिसमें स्वर्ग फूलों का मधु,
युवकों के स्वप्न,
मानव ह्रदय की
करुणा ममता,-
मिट्टी की सौंधी गंध भरा
प्रेम का अमृत,
प्राणों का रस हो ।

  1. खोज

सांझ के धुंधलके में
धीमी धीमी
टिनटिनाती घंटियों की ध्वनि
किन अनजान चरागाहों से
आ रहीं है ।

भेड़ों के झुंड-सी
अवचेतन की
घाटियों में छिपी
परंपराओं को
संस्कार
अपने अभ्यास की
पैतृक लाठी से
हाँक रहे हैं ।

धरती के जघनों के बीच
फैली
घाटियों के अंग
कुम्हलाने लगे हैं ।
नाभि-से गहरे
पोखर के जल में
अंधियाला डूब रहा है ।

शिखरों पर से
चीलों के पंख खोल
अंतिम सुनहली किरणें
आकाश की खोहों में
सोने चली गई हैं ।

चारों और
नैराश्य, संदेह
अवसाद का कुहासा
गहराने लगा है ।

मन क्या खोज रहा है ?

इन क्षण दृश्यों के
बदलते रूपों में
समग्रता, संगति
कहाँ है ?
वह तो तुम से
संयुक्त रहने में है ।

  1. अमृत क्षण

यह वन की आग है ।
डाल डाल
पात पात
जल रहे हैं ।
कोपलें
चिनगियों-सी
चटक रही हैं ।

शुभ्र हरी लपटें
लाल पीली लपटें
ऋतु शोभा को
चूमती चाटती
बढ़ती जाती हैं…
आनंद सिन्धु
सुलग उठा है ।

ओ वन की परियो,
गाओ ।
यह अमरों का यौवन है ।
अपने अंगों से
धूपछाँह
खिसक जाने दो ।
नए गंध वसन बुनो,
नए पराग में सनो ।

प्रभात आ गया ।
ओ वन पाखियो,
गाओ ।
यह नया प्रकाश है ।

वन लपटों से नए पंख माँगो,
तुम मन के नभ में उड़ सको,
मर्म में बस सको,
हृदय छू सको ।

अब नया आकाश ही
नीड़ हो,
उड़ान ही
स्वप्न शयन ।

यह आग शोभा ही में
सीमित न रहेगी,
फागुन लाज ही में
लिपटा न रहेगा ।

सांसें आग न बरसाएँगी,
ओंठ ओंठ न जलाएँगे ।
अमृत पीते रहेंगे हम,
नए पराग सूँघेंगे ।

यह मिट्टी ही
शाश्वत है,
असीम है,
चैतन्य है ।

प्राणों के पुत्र हम,
स्वप्नों के रथ पर आएँगे;
रस की संतानें,
अनंत यौवन के गीत गाएँगे ।

भावों का मधु पीएंगे,
मदिर लपटों का
प्रकाश संचय करेंगे,

हमने मृत क्षणों में से
अमृत क्षण चुने है ।

  1. शरद शील

शरद आ गई है
श्वेत कृष्ण बलाकों की
मदिर चितवन लिए,–
शरद छा गई ।

स्वच्छ जल
नील नभ
उसी का कक्ष है ।
कांसों की दूध फेन सेज पर
चंदिरा सोई है ।
गौर पद्म सरोवर
उठता गिरता
उसी का वक्ष है ।

यह प्रिया की कल्पना है,
चंद्रमुखी प्रिया की ।
शोभा स्वप्न कक्ष में
देह भार मुक्त
शील उज्वल लौ
चंदिरा की ।

सरोवर जल में
रुपहरी आग है,-
राजहंस
स्वप्नों के पंख खोले हैं,
तुम्हारी रूप तरी में
प्राणों के शुभ्र पाल हैं,
नवले ।

ओ युवक युवतियो,
स्वच्छ चाँदनी में नहाओ,
नग्न गात्र, नग्न मन,-
आत्म दीप लिए,
मुक्त चाँदनी में आओ ।

नवीन देह बोध पाओ,-
रूप रेखाएँ देखो,
रूप सीमाएँ
पहचानो ।

ए तटस्थ प्रेमियो,
रूप विरक्त मत होओ;
रस स्रोत मन में है,
सौन्दर्य आनंद
भीतर हैं,-
देह में न खोजो ।

देह लजाती है,
अपनी सीमा जानती है;
प्रेम विरत होता है
रज गंध में सन कर;-
उसका मंदिर ह्रदय है ।

काले मेघों के महल
ढह गए,
चपला की चमक
कामना की दमक
मिट गई;-

यह सामाजिकता का
प्रासाद है,
शरद शुभ्र
भाव गौर,-
मानवता का स्फटिक प्रांगण ।

ओ युवक युवतियो,
शील सौम्य
शरद शुभ्र
चरण धर आओ ।

  1. रिक्त मौन

मैंने
हिमालय के
शुभ्र श्वेत मौन को
फूँका,

मानस शंख से
छोटा था वह ।

सूरज ने प्रकाश
चाँद ने चाँदनी लुटाई,
हिमालय की सतरंग देह
मेरी छाया निकली ।

स्वर्ग शोभा
कनक गौर उभरे उरोजों को
पीन जघनों से सटाए
सोई थी,…
छेड़कर देखा,
कामना तृप्ति से
बौनी थी ।

ऊषा आई, साँझ आई,
वैदिक ऋषि और नये कवि–

हिमालय की
उलटी हथेली सी सीप
उस मोती से सूनी थी
जिसे प्रेम ने
हृदय को सौंपा था ।

  1. सहज गति

तुम्हारी वेणी के प्रकाश नीड़ में
मैरे स्वप्न चहकते हैं,-
ओ शुभ्र नीलिमे ।

जब तक अंधकार है
प्रकाश भी है ।
तुम्हारे पथ की
बाधा है ज्ञान,-
सबसे बडा अज्ञान ।
वैसे तुम चीन्ही हो,
चिर परिचित हो ।

जब तक अंधकार है
ज्ञान बंधन बनता रहेगा;
ज्ञान का फल खाकर
मैं अज्ञान में डूब गया ।
मन के
काले सुफेद
पंख उग आए ।

ड्योढ़ी के भीतर
केवल शांति,
नि:स्वर शांति,
नि:सीम शांति है ।

जिसका छोर पकड़े
ज्ञान अज्ञान शून्य
मैं बढ़ता जाता हूँ,…
बढ़ता जाता हूँ ।

ओ अंतरमयि,
तुम्हारा करुणा कर ही
ध्यान बन कर
गति हीन गति से
मुझे खींचता है ।

अपने स्थान पर
मैं तुम्हें पाता हूँ ।

  1. दृष्टि

अमृत सरोवर में
रति सागर में डूब
मैं पूर्ण हो गया ।

किसी वृहत् शतदल का
पराग है यह स्वर्ण धूलि,-
इसके कण कण में
मधु है ।

यह नील
अंत: स्पर्शी एकाग्र दृष्टि है,
जिसमें अनंत सृजन स्वप्न
मचल रहे हैं ।

तुम्हारी कामदेह शोभा
आदर्श है,
जिसमें शाश्वत बिम्बित है ।
रोम हर्ष
प्रकाश अंकुर हैं,
जिनमें नवीन प्रभात उदित है ।

वस्तु कभी वस्तु न थी,
तुम्हीं थी ।
भले दृष्टि न हो ।

तुम,-
जिसे प्रेम आनंद
प्रकाश, शांति
वाणी नहीं दे पा रहे,
अनंद शाश्वत
छू नहीं पा रहे;-

तुम्हीं हो,
भले दृष्टि न हो ।

  1. मुख

सिन्धु मेरी हथेली में समा जाते हैं,
उन्हें पी जाता हूँ मैं,
जब प्यासा होता हूँ ।

प्राणों की आग में गल कर,
मैं ही उन्हें भरता हूँ ।
जब
सूख जाते हैं वे ।

सोने के दर्पण सी दमकती-
प्राणों की आग,
जिसमें आनंद
मुख देखता है ।

मुख,-चूर्ण नील अलकों घिरा,
अनिमेष, प्रेम दृष्टि भरा–
जो ज्ञान को हृदय देती है ।
अधर, अग्नि रेख से लाल
तृप्ति चूमती है जिन्हें ।
मेरा ही मन बनता है
वह मुख,…
जब मैं तुम्हें
स्मरण करता हूँ ।

मेरा ही मन बनता है
वह सुख,-
जब मैं तुम्हें
वरण करता हूँ ।

  1. अनुभूति

तुम आती हो,
नव अंगों का
शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।

बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,
सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,
तुम आती हो,
अंतस्थल में
शोभा ज्वाला लिपटाती हो।

अपलक रह जाते मनोनयन
कह पाते मर्म-कथा न वचन,
तुम आती हो,
तंद्रिल मन में
स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।

अभिमान अश्रु बनता झर-झर,
अवसाद मुखर रस का निर्झर,
तुम आती हो,
आनंद-शिखर
प्राणों में ज्वार उठाती हो।

स्वर्णिम प्रकाश में गलता तम,
स्वर्गिक प्रतीति में ढलता श्रम
तुम आती हो,
जीवन-पथ पर
सौंदर्य-रहस बरसाती हो।

जगता छाया-वन में मर्मर,
कंप उठती रुध्द स्पृहा थर-थर,
तुम आती हो,
उर तंत्री में
स्वर मधुर व्यथा भर जाती हो।

  1. अज्ञात स्पर्श

शरद के
एकांत शुभ्र प्रभात में
हरसिंगार के
सहस्रों झरते फूल
उस आनंद सौन्‍दर्य का
आभास न दे सके

जो

तुम्‍हारे अज्ञात स्‍पर्श से
असंख्‍य स्‍वर्गिक अनुभूतियों में
मेरे भीतर
बरस पड़ता है ।

  1. प्रज्ञा

वन फूलों में
मैंने नए स्वप्न रंग दिए,
कल देखोगे ।
कोकिल कंठ में
नयी झंकार भर दी
कल सुनोगे ।

ये तितलियों के पंख
वन परियों को दे दो ;
चेतने,
तुम्हारी शोभा
विदेह चाँदनी है,
अपना ही परिधान ।

धरती अब
लट्टू सी घूमती है
तो क्या ?
हम बड़े हो गए ।

पर्वतों की बड़ी बड़ी उमंगें
अँगूठे के बल खड़ीं
शांत, मौन, स्थिर हैं ।

समतल दृष्टि
समूची पृथ्वी न देख पाई पी,-
ऊपर के प्रकाश से
समाधान हो गया ।

अब पंकस्थल पर भी चलें
तो ऊपर की दृष्टि
डूबने न देगी ।

  1. प्रेम

मैंने
गुलाब की
मौन शोभा को देखा ।

उससे विनती की
तुम अपनी
अनिमेष सुषमा की
शुभ्र गहराइयों का रहस्य
मेरे मन की आँखों में
खोलो ।

मैं अवाकू रह गया ।
वह सजीव प्रेम था ।

मैंने सूँघा,
वह उन्मुक्त प्रेम था ।
मेरा ह्रदय
असीम माधुर्य से भर गया ।

मैंने
गुलाब को
आठों से लगाया ।
उसका सौकुमार्य
शुभ्र अशरीरी प्रेम था ।

मैं गुलाब की
अक्षय शोभा को
निहारता रह गया ।

  1. यज्ञ

यह ज्योति दुग्ध है,
शुभ्र, तैल धारवत्,
जो शील है,
अमृत ।

ओ मुग्धाओ,
ओ शोभाओ,
अपना तारुण्य अर्पित करो
रचना मंगल को ।

यह मानवता का यज्ञ है,
मानव प्रेम का यज्ञ ।
तुम्हारे कोमल अंग
समिधा हों ।
लावण्य घृत हो,
प्रेम,–प्रेरणा,
मंत्र ।

रस यज्ञ है यह ।
नील विहग
रक्त किसलय
स्वर्ण हंस
फूल निर्झर-
सब आहुति हों,
पूर्णाहुति ।
छाया जल जाय,
नारी शेष रहे ।

मानस यज्ञ यह,
भाव यज्ञ ।
श्रद्धा, आस्था
लौ उठे ।
मन का मानव जगे ।
स्वर्ण चेतन
अमृत पुरुष,
रस मनुष्य ।

वह प्रकारों का प्रकाश है,
स्वर्ग रश्मि,
भू प्रदीप ।

ओ छायाओ,
मायाओ,
ओ कायाओ,
आहुति बनो,
पूर्णाहुति ।

  1. अंतर्मानस

आ:, यह माणिक सरोवर,
रजत हरित, अमृत जल
अरुण सरोवर ।

नव सूर्योदय हुआ,…
अंत: तृष्णाओं के
रेशमी कुहासे
छंट गए,
देह लाज मान
मिट गए ।

आ:, यह उज्जवल लावण्य,
रस शुभ्र जल ।
ज्ञान ध्यान डूब गए,
श्रद्धा विश्वास
उतने स्वच्छ न निकले ।
समाधि ? निष्क्रिय,…
तन्मयता प्रेम मूढ़ थी ।

यह माणिक मदिर आलोक
नव जागरण निकला ।

देह अंधकार न थी,
अंत: सुख का पात्र बन गई;
इंद्रियाँ क्षणिक न थीं
नया बोध द्वार बन गईं ;
जीवन मृत्यु न था
नयी शोभा, नयी क्षमता बन गया ।

आकाश फालसई,
धरती मणि पद्म को घेर
हरित स्वर्ण हो उठी ।

ह्रदय का अनंत यौवन,
प्राणों की स्वच्छ आग निकला-
यह रत्न ज्वाल सरोवर ।

  1. प्रतीक्षा

नया चाँद निकल आया है
अतल गहराइयों से,
समुद्र से भी अतल गहराइयों से ।
स्वप्न तरी पर बैठा
स्फटिक ज्वाल,
लहरों की रुपहली लपटों से घिरा ।

रात की गहराइयाँ
सूरज को निगल जाती हैं;
तभी,
चाँद बन आई
तुम्हारी स्मृति ।

सभी रत्न नहीं भाते,
विष वारुणी
स्फटिक, प्रवाल
सर्प, शंख,–.
अमृत स्रोतस्विनी के तट पर
बिखरी पड़ी सृष्टि ।

चाँद भी…
कलंक न सही,—
उपचेतन गहराइयों का ही
प्रकाश है ।
प्यास नहीं बुझा पाता ।
अचेतन को
नहीं पिघला पाता ।

मन के मौन श्रृंगों पर
सुनहले क्षितिज
नव सूर्योदय की प्रतीक्षा में हैं ।

शुभ्र
अवाक्
आत्मोदय की ।

  1. गीत खग

ओ अवाक् शिखरो,
भू के वक्ष-से उभरे,
प्रकाश में कसे,…
दृष्टि तीरों-से तने,…

हृदय मत बेधो,
मर्म मत छेदो ।

कौन रहश्चंद्र था
क्षितिज पर,
कैसा तमिस्र सागर ?
कव का उद्दाम ज्वार ।

धरती के उपचेतन से
उन्मत्त हिल्लोलें उठ
अँगूठे के बल
खड़ी की खड़ी रह गईं ।

नील गहराइयों में डूबी
मन की
अवाक् ऊंचाइयों पर
शुभ्र चापें सुन पड़ती हैं ।

फालसई सोपानों पर
ललछौंहे पग धर
उषाएँ उतरती हैं ।

ओ स्वर्ण हरित छायाओ,
इन सूक्ष्म चेतना सूत्रों में
मुझे मत बाँधो ।
मैं गीत खग हूँ,
उड़ता हूँ,…
ज्योति जाल में
नहीं फंसूँगा ।

ऊंचाइयों को
समतल में बिछा,
गहराइयों को
समजल में डुबा,
इंद्रधनुषी तिनकों का
नीड़ बसा
कलरव बरसाऊँगा ।-

नील हरी छाँहों में छिप
स्वप्नों के पंख खोल
धरती को सेऊँगा ।

  1. अयुगल

ओ शाश्‍वत दंपति,
तुम्‍हारा असीम,
अक्षय
परस्‍पर का प्‍यार ही
मेरा
आनंद
मंगल
और
चेतना का आलोक है ।

  1. पट परिवर्तन

किरणों की
सुनहली आभा में
लिपटा नील
तुम्हारा उत्तरांग
और
तरंगित सागर
मुक्ताफेन जड़ी
हरी रेशमी साड़ी पहने
तुम्हारी
कटि तक डूबी
आधी देह है ।

किसे ज्ञात था,
पलक मारते ही
ओस के धुएँ के
बादल-सा
यह संसार
आँखों से ओझल हो जाएगा ।
अंतर में
तुम्हीं
शेष रह जाओगी ।

ओ विराट, चैतन्य
यह मैं क्या देखता हूँ

कि घर बाग पेड़
और मनुष्य
किसी अदृश्य पट में
चित्रित भर हैं ।
ये वास्तविक सत्य नहीं,
मोम के पुतले भर हैं ।

रथवान
अश्व को चाबुक मारता है,
वह तुम्हारी ही
पीठ पर पड़ रहा है ।
और तुम
खिलखिलाकर
भीतर
हँस रहे हो ।

ओ अद्वितीय,
अतुलनीय,
मैं आश्चर्य में डूबा
अवाक्
तुम्हीं में डूबा हूँ ।

  1. पारदर्शी

ओ दुग्ध श्वेत
माखन पर्वत के सूर्य,
ओ श्वेत कमलों के वन,
प्राणों के सुनहले जल, …
तुम्हारे सूक्ष्म कोमल
उरोज मांसल प्रकाश ने
मुझे घेर लिया !

तुम्हारी आभा
गुह्य सौरभ है—
जिसने मेरी इंद्रियों को
लपेट लिया !
तुम्हारे अनंत यौवन की सुरा पी
मेरा मन
तीनों अवस्थाओं के परे
जाग उठा !

मेरी कामना की आग में
डूब कर
तुम चाँद बन गए हो !
और
निशाओं के
उभरे नील उरोजों से
भ्रमर-से चिपक गए हो !

मैंने तुम्हारे लिए
स्वप्नों का मौन
मधु कुंज बनाया है,-
ओ विधुत् अनल,
तुम प्रीति सौम्य बनकर
मानवीय रूप ग्रहण करो !

तुम मानव के
अंतर में छिपे प्रकाश के
माध्यम बन सको,
वह अधिक चेतन
अधिक पारदर्शी है !

  1. अमृत

मैं सूर्य की किरणें दुहूँ
तुम चाँद की ।
मैं तुम्हें प्रकाश हूँ
तुम प्यार ।

मैं उच्च पर्वत शिखरों से
बोलूं…
जहाँ पौ फटने के पहिले
फालसई नीलिमाओं के कुंज में
उषा की सलज लालिमा में लिपटी
श्वेत कमल कली सी
शांति, मौन सोई है ।

तुम सागर की गहराइयों से गाना,
जहाँ फेनों के मोती डालती
लहरों पर
रुपहली चंद्र ज्वाल तरी का
मोहित गवाक्ष खोले
स्तनों की सतरेंग छाया में लिपटी
स्वप्न पंख
भावना अप्सरी रहती है,
अनिमेष शोभा में जगी ।

समुद्र तल में अनेक रत्न हैं,
जिनके मूल रंग
और आदि ज्योति
ऊपर की अमलताओं में-
हीरक झरनों के सूतों सी
दमकतीं
सूर्य किरणों में हैं ।

चन्द्रमा का
शुभ्र पीत पावक भी
सूर्य प्रकाश का ही
नवनीत है ।

सूर्य चंद्र
सत्य ही के वत्स हैं-
शांति और शोभा
श्रद्धा और भक्ति
उसी की धेनुएँ हैं ।

ये किरणें भी
कामधेनु हैं,-
जिनके स्तनों से
धारोष्ण प्रकाश
मधूशीत अमृत
बहता है ।

जो आनंद,
प्रेम सत्य ही का दुग्ध है,
जिसे पीकर
सूर्य चंद्र पलते हैं ।
वही
प्रकाश और अमृत है ।

  1. कोपलें

अनाज कोई काम नहीं,-
सोने के तार सा खिंचा
प्यारा दिन है !

कल-
गुलाबों में
काट छाँट की थी,

तब से

आँखों के सामने
नयी नयी कोंपलें
फूट रही हैं !-

ललछौहीं कोंपलें
स्वप्न भरी
रतनार चितवन सी,

शुभ्र पीत चिनगियों सी,-
लपटों के पग धर
नयी पीढी बढ़ रही है !
ज्यों ही आँखें मूँदता हूँ
कोंपलें केवल कोंपलें,..
रेशमी मूँगी कोंपलें,
रुपहले सुनहले इंगितों सी
बरस पड़ती हैं !

जो सृजन उन्मेष,
मन ने बहुत काट छांट की,
पुराने ठूँठ उखाड़े,
रही जड़ें खोदीं
भद्दी डालियाँ
काटीं तरासीं,–

इधर उधर
कला शिल्प के हाथों से
भाव बोध के स्पर्शों से
सहस्रों नये वसंत संवारे !

अभी असंख्य शरदों को
अपने अंग
पावक में नहला कर
रूप ग्रहण करना है !

आज मुझे
नये स्वप्न
नये जागरण
नये चैतन्य की कोंपलें
दिखाई देनी हैं !

सर्वत्र

कोंपलें ही कोंपलें
आँखों के सामने
भाव भरा मुख
स्वप्न भरी चितवन
खोल रही हैं !

  1. पादपीठ

तुम
किरणों के मुक्ताभ प्यालों में
सुनहली हाला लाई हो !…
मेरा हृदय
शुभ्र पद्म सा खिल उठा है !
उसमें चंद्रकला ने
अंत: प्रेम का
रुपहला नीड़ बना लिया है !
पिघली आग सी हाला
नहीं पीएगी
वह, अमृत पीती है !
ओ सुनहली किरणों,
तुच्छारा स्वागत करता हूँ,
तुम ज्ञान नील गवाक्ष से
मुझ पर बरसती रहो !

यह हीर रश्मि
चन्द्रकला
परात्पर ज्योति है !
उसे मेरी
अंतर रचना करने दो,
वह अनन्य प्रेयसी है !
तुम
अपने वैश्व ऐश्वर्य से
मेरे तन मन संवारो,–

तुम्हारे स्वर्णिम पंखों पर
मैं अनंत शोभाओं के
नि:सीम प्रसारों में विचरण करूँ
नव प्रभात का दूत बन सकूँ !

यह सुभ्र चंद्रकला
रजत पावक का कुंड है !
अचेतन काले सिन्धु में
इसकी असंव्य लपटें
कूद पड़ी हैं !
प्रेम, आनंद और रस का रूप
बदल गया है !

ह्रदय
शांति की स्वच्छ अतलताओं में
लीन होता जा रहा है !
विश्व कहाँ खो गया है!
देश काल ? जन्म मरण ?

ओ चंद्रकले,
केवल अमृतत्व ही अमृतत्व
अनिर्वचनीय
अस्तित्व ही अस्तित्व
शेष है !
मेरी पाद पीठ
अंधकार है,
जहाँ तुझे
खड़ा रहना है !

  1. भाव रूप

अप्सराएँ ।–
हिम कलशों पर
साँस प्रात
मूँगी लाली,–
सात लपटों वाली
इंद्रधनुष छाया,–

हेम गौर
स्वप्न चरण चाँदनी की
रूप हीन शोभा,—
तितली, जुगनूँ
हिलोर,–
ओस,
अप्सराएँ ।

लीला, लावण्य,
तनिमा,-
अजान चितवन
निश्चल भंगिमा,
अदृश्य रोमांच,-
आशा, लज्जा, सज्जा,-
अप्सराएँ ।

ओं सुर सुन्दरियो,
सुर बालाओ,
इस रूप ज्वाला की देह को
प्राणों की धूपछाँह में
नहलाओ,
डुबाओ,-
यह धरती की हंसमुख सहेली,
उसका सौंधा पराग है ।

हंसों की पीठ पर
कमलों का कनक मरंद
बिखरा है,
सीप की हथेली में
सुनहला मोती हँस रहा,
लहरों के धड़कते वक्ष:स्थल पर
रूपहले अंगार सा
चाँद ऊब डूब कर रहा है ।

ओ भाव देही

अनंत यौवनाओ,
यह मृणाल तंतु है,.
पागल आशा का सेतु ।-
इसी से आओ जाओ ।

अभी मानव चेतना में
किरणों का तोरण
नहीं खुला,-
जिससे स्वर्ग सुषमा
अगुंठित
अभिसार कर सके ।

  1. विकास

नीली नीहारिकाएँ
शिखरों की हैं,
हरीतिमाएँ,
घाटियों की ।-

जिनके आर पार
रश्मि छाया सेतु बाँध
तुम आती जाती हो ।

अंत: सौरभ से खिंच
भौंरों की भीड़
तुम्हें घेरे
गूँजती रहती है ।

और
ये सदियों के खंडहर हैं ।
जहाँ देह मन प्राण
बासी अंधकार की सडाँध में
दिवांधों-से
औंधे मुंह लटके हैं ।
झिल्लियों की सेना
अंतर पुकार को रौंद
चीत्कार भरती है ।

एक दिन में
मीनारें मेहराबें
कैसे उग आएँगी ?-
कि रश्मि रेखाओं से
दीपित की जा सकें ।
हैं ऐसे विद्युद्दीप
मन का अंधकार
मिटा सकें ?

ओ विज्ञान,
देह भले ही
वायुयान में उडे,
मन अभी
ठेले, बैलगाड़ी पर ही
धक्के खाता है ।

हाय री, रूढ़िप्रिय
जड़ते,
तेरी पशुओं की सी
साशंक, त्रस्त चितवन देख
दया आती है ।

  1. वर्जनाएँ

तुम स्वर्ण हरित अंधकार में
लपेट कर
कई रेंगने वाली
इच्छाएँ ले आते हो,
जिन की रीढ़
उठ नहीं सकती ।

इनका क्या होगा
मैं नहीं जानता ।
पिटारी खोलते ही
टेढ़े मेढ़े सांपों सी
ये
धरती भर में
फैल जाती हैं ।

कौन शक्ति इन्हें बाँधेगी ?
कौन कला समझाएगी,
कौन शोभा अलंकृत करेगी ?
ये मधु-तिक्त ज्वलित-शीत
वर्जनाएँ हैं ।-
जो अब मुक्त हो रही हैं ।
तुम्हारी सुनहली अलकों की
ये फूल माल बनेंगी,
इनकी मादन गंध पीकर
मृत्यु जी उठेगी ।

तुम स्वर्ण हरित अंधकार में
लपेट कर
अमृत के स्रोत
ले आये थे,

जो हृदय शिराएँ बन
समस्त अस्तित्व में
नवीन रक्त
संचार कर रही हैं ।

  1. घर

समुद्र की
सीत्कार भरतीं
आसुरी आँधियों के बीच
वज्र की चट्टान पर
सीना ताने
यह किसका घर है ?
सुदूर दीप स्तंभ से
ज्योति प्रपात बरसाता हुआ !…
या जलपोत है ?

नाथुनों से फेन उगलतीं
अजगर तरंगें
सहस्र फन फैलाए
इसे चारों ओर घेरे
फूत्कार कर रही हैं !
उनकी नाड़ियों में
लालसा का कालकूट
दौड़ रहा है !

वे अतृप्ति की
ऐंठती रस्सियों सी
इसे कसे हैं !
इस निर्जन
स्फटिक स्वच्छ मंदिर के
मुक्ताभ कक्ष में
कल रात चाँद
चाँदनी के संग
सोया था !
किरणों की बाँहों में
चंदिरा की
अनावृत ज्वाला को
लिपटाए !

तब
लहरों के फेनिल फनों में
स्वप्नों की मणियां
दमक रही थीं !
सवेरे
इसी मंदिर के अजिर में
अरुणोदय हुआ !
रक्त मदिरा पिए !

रात और प्रभात
पाहुन भर थे !–
यह धरती का घर है,-
(आकाश मंदिर नहीं ! )
हरिताभ शांति में
निमज्जित !

सिन्धु तरंगें
पंक सनी टाँगों से बहती
धरा योनि की दुर्गंध
धो धोकर
कड़ुवाती
मुंह बिचकाती,
पछाड़ खाती रहती हैं !

यह धरती पुत्र
किसान का घर है,–
द्वार पर
पीतल के चमचमाते
जल भरे कलस लिये,
सिर पर आँचल दिये,
युवती बहू खडी है,–
अनंत यौवना
बहू !

  1. दंतकथा

पुरानी ही दुनिया अच्छी
पुरानी ही दुनिया ।

नदी में कमल बह रहे—
कहाँ से आ रहे ?

किनारे किनारे
स्रोत की ओर
जाते-जाते-देखा,

नदी के बीच
रंगीन भंवर पड़ा है;—
उसी से फुहार की तरह
कमल बरस रहे हैं ।

हाय रे, गोरी की नाभि-से भंवर ।
पास जाते ही
भंवर ने लील लिया । …
यह परियों के महल का
द्वार था ।

परियाँ खिलखिला कर
हँसीं ।-
भौंहों के संकेत से कहा,
राजकुमारी से व्याह करो ।

परियों की राजकुमारी
नत चितवन
मुसकुरा दी ।
उसके जूड़े में
वैसा ही कमल था ।

पुरानी ही दुनिया अच्छी,
पुरानी ही दुनिया ।

वह सीधा था,
हदय में दया थी ।
झाड़ फूँस की कुटी,…

भगवान परीक्षा लेने आए ।
भस्म रमाए, झोली लटकाए,…
उन्होंने हाथ फैलाए
भीख मांगी ।
मुट्ठी भर अन्न पाकर
चुपके,
वरदान दे गए ।
झाड़ पात की कुटी
सोने का महल बन गई ।
द्वारपाल चंवर डुला रहे हैं—-

बुढिया ब्राह्मणी
नवयुवती बन गई,
शची सा श्रृंगार किए है ।

पुरानी ही दुनिया अच्छी,
पुरानी ही दुनिया ।

एक थी रुत्री, एक था पुरुष.
दोनों प्रेम डोर में बंधे,
सच्चे प्रेमी प्रेमिका थे ।
मंदिर के अजिर में पड़े रहते,
देवी का प्रसाद पाते ।

दोनों एक साथ मरे ।.…
मर कर

हरे भरे लंबे
पेड़ बन गए ।

अब
दोनों धूप छाँह में
आंख मिचौनी खेलते,
दिन भर पत्तों के ओंठ हिला
गुपचुप
बातें करते ।

वसंत में कोयल पूछती,
कुहू, कुहू,
कौन है, कौन है ?
बरसात में
पपीहा उत्तर देता,
पिऊ पिऊ,
प्रिय हूँ, प्रिय हूँ ।

पुरानी ही दुनिया अच्छी,
सच,
पुरानी ही दुनिया ।

  1. बिम्ब

तुम रति की भौं हो
कि काम का धनु खंड ?
ओ चाँद,
यह रेशमी आशा बंध
तुम्हीं ने बुना ।
जिसमें
किरणों के असंख्य रंग
उभर आए हैं ।

ओ प्यार के टूटे दर्पण,
तुम्हारा खंड खंड पूर्ण है ।
जिसमें अपूर्ण भी
संपूर्ण दिखाई देता है ।
यह कौन सी आग है
माखन सी कोमल,
स्तन सी मांसल ।
इसमें जलना ही
सोना बनना है ।

विरह का गरल
अमृत बन
कब का शिव हो गया,-
तुम्हारा शशि सा पद नख
भाल पर धारण कर ।

लाल फूलों की लौ-
मेरी लालसा–
जीभ चटकारती है ।
निर्जन में लेटी चाँदनी
तुम्हारी ओर ताकती है ।
तुम्हारी सात्विक सुधा
प्राणों की समस्त ज्वाला
पी लेती है ।

ओ अमृत घट,
ज्ञान के नि:सीम नील में
सुनहले आशा के बंध के भीतर
तुम्हीं हो,-
प्यास की अनंत लहरियों में
रुपहली नाव खेने वाले
आत्म मग्न
तुम्हीं हो ।-
मैं नहीं ।

  1. इंद्रिय प्रमाण

शरद के
रजत नील अंचल में
पीले गुलाबों का
सूर्यास्‍त
कुम्‍हला न जाय,-
वायु स्‍तब्‍ध…
विहग मौन … ।

सूक्ष्‍म कनक परागों से
आदिम स्‍मृति सी
गूढ गंध
अंत में समा गई ।

जिस सूर्य मंडल में
प्रकाश
कभी अस्‍त नहीं होता,
उसकी यह
कैसी करूण अनुभूति,-
लीला अनुभव ।

  1. नयी नींव

ओ आत्म व्यथा के गायक,
विश्व वेदना के पहाड़ को
तिल की ओट कर,

अपने क्षुद्र तिल-से दुख का
पहाड़ बनाकर
विश्व ह्रदय पर
रखना चाहते हो ?

अहंता में पथराई
निजत्व की दीवार तोड़ी,
यह वज्र कपाट
तुम्हें बंदी बनाए है ।

आत्म मोह के
इस घने अंधियाले
वन के पार
नये अरुणोदय के
क्षितिज खुले हैं ।

जहाँ
ममता अहंता और
आत्म रति के कृमियों को
पैरों तले रौंदते-कुचलते
असंख्य चरण
श्रम स्वेद के पंक में सने-
निरंतर
आगे बढ़ रहे हैं ।

ओ निजत्व के वादक,
इस अरण्य रोदन से लाभ ?
अपने पर
आँसू मत बहाओ ।

अरण्य और सत्य के बीच
कांति धैर्य और निष्ठा की
दुर्भेद्य मेखला है,—
जिसके पार
तेरा रिक्त रुदन
नहीं पहुँचेगा ।

वहाँ,
अपने सुख दुख भूलकर
प्रबुध्द मानवता
सुनहले अंतरिक्षों में
नवीन
भू रचना की नींव’
डाल रही है ।

  1. मूर्धन्य

ओ इस्पात के सत्य,
मनुष्य की नाड़ियों में बह,
उसके पैरों तले बिछ,-
लोहे की टोपी बन
उसके सिर पर मत चढ़ ।

सिर पर
फूलों का ही मुकुट
शोभा देता है ।

स्वप्नों से घर की नींव
पड़ सकती है,

इस्पात
गला कर
नहीं पिया जा सकता ।

फूल ही पात्र हैं
जिनसे मधु पिया जाता है ।
मैं ही हूँ वह मधु
जिसे प्रकृति ने
असंख्य फूलों से चुना है ।
जिसमें सभी आकाशों का
सुनहरा मरंद है ।

ओ इस्पात के तथ्य
मैं तेरा जूता पहन
दृढ़ संकल्प के चरण
वढ़ाऊँगा,-

पर तुझे
मूर्धन्य स्थान
नहीं दे सकता ।
तू साधन रह,
साध्य न बन ।

  1. धर्मदान

यह प्रकाश है,
तुम इसमें क्या खोजोगे,
क्या पाओगे ?-
यह दीप
तुम्हें सौंपता हूँ !

यह अग्नि है,
तुम किन आनंदों के
यज्ञ करोगे,
किन कामनाओं की
हवि दोगे ?-
यह वेदी
तुम्हें सौंपता हूँ !

यह प्रकाश और अग्नि ही नहीं,
गति है, जीवन है,
तुम किन लोकों में
जा पाओगे ?-
यह किरण
तुम्हें सौंपता हूँ ।

यह अग्नि
अंतर अनुभूति है,
तुम सत्य के स्रोत को
देख पाओगे कि नहीं ?
यह अभीप्सा
यह प्रेरणा
तुम्हें सौंपता हूँ !

  1. सान्निध्य

तुम्हारी शोभा देख
फूलों की आंखें
अपलक रह गईं ।

तुम फूलों की फूल हो,
माखन सी कोमल । …
तुम्हारे शुभ्र वक्ष में
मुंह छिपाकर
मैं
ध्यान की
तन्मय अतलताओं में
डूब जाता हूँ ।

ओ कभी न खो जाने वाली,
मेरे इंद्रिय द्वारों से
तुम्हारे आनंद का
अति प्रवाह
दिगंतों के उस पार
टकराता रहता है ।

मेरी शांति
तुम्हारे
केन्द्र वृन्त पर
कभी न कुम्हलाने वाले
अस्तित्व की तरह
खिली है ।

  1. चाँद

चाँद ?
मैं उसे अवश्य पकड़ूँगा ।
प्रेम के पिंजड़े में पालूंगा,
ह्रदय की डाल पर सुलाऊँगा,…
प्यार की पंखुड़ी
चाह की अँखड़ी
चाँद—
उससे
स्वप्नों का नीड़ सजाऊँगा ।
तुम्हारा ही तो मुकुर है ।

फूल के मुख पर
तितली सा बैठकर
वह सतरंगे पर फैलाएगा ।
मैं उसे
इंद्रधनु की झूल में झुलाऊँगा,
प्यार का माखन खिलाऊँगा ।
तुम्हारा ही तो मुख है ।

चाँद ?
मैं उसे निश्चय चखूँगा,
फूल की हथेली पर रखूँगा,…
तुम्हारा तो प्रकाश है ।
भावों से सजोऊँगा,
आँसू से धोऊँगा ।
तुम्हारी तो शोभा है ।

पत्तों के अंतराल से
अलकों के जाल से
मैं चाँद को
अवश्य पकड़ूँगा ।

दृष्टि नीलिमा में,
रूप चाँदनी में बखेरूँगा,
तुम्हारा तो बोध है ।

  1. भाव पथ

शपथ ! _
अशुभ न करूँगा,
असुंदर न वरूँगा,
तुम मुरझा जाती हो !

ओ भावना सखी,
तुमने मुझ पर
सर्वस्व
वार दिया ! _
मैं दूसरों पर निछावर हो सकूँ !
प्रीति चेतने,
जीवन सौन्दर्य
तुम्हारी छाया है !
बिना स्पर्श
निर्जीव, निष्प्राण
हो उठता !
रिक्त गुंठन है
स्त्री की शोभा,
रूप का झाग !
मैं उससे न बोलूँगा,
न छूऊँगा,-
वह देह बोध ही बनी रही तो !
पथ रोध है
देह बोध,
भूत बाधा !

ओ प्राण सखी,
स्वप्न सखी,
तुम्हारा लावण्य,-
अमृत निर्झर
उतरता है
चंद्र किरण
रथ से !
बिना छुए
रोमांच हो उठता,
बिना बोले
मन समझ लेता है !
अदृश्य स्थल है यह,
गुह्य कुंज,
गंध वन,–
जहाँ मिलते हैं हम !

शाश्वत वसंत…
अनंत तारुण्य…
अन्निद्ध सौन्दर्य…
पहरा देते हैं यहाँ !

  1. प्रकाश

सुनहली
धान की बाली सी
दीप शिखाएँ
अंधियाली के वृन्त पर कांपतीं,…
क्या जानें ?

हीरक सकोरों में
आलोक छटाएँ
स्वप्न शीश
इंद्रधनुष सी सुलगीं…
उनकी गूढ़ कथा है ।

जिसने सूर्य ही का मुख ताका
इन्हें न पहचानेगा ।
इनका प्रकाश
उस अँधेरे को हरता है
जिसे सूरज नहीं हरता ।

कितने ही प्रकाश हैं ।_
दूध के झाग सा
रूई के सूत सा
उजियाला
सब से साधारण ।

मन की स्नेह ज्योति
अंधेरे को बिना मिटाए
सोना बनाती है,…
वह भी प्रकाश है ।

अंधकार के पार
प्रकाश के हृदय में
जो लौ जलती है,…
अनिमेष,
ध्यान मौन,—
वह बिना देखे
सब कुछ समझती है ।

  1. कालातीत

वे नीरव नीलिमा घाटियाँ
स्वप्नों की हैं ।
जहाँ शोभा चलती है
अशरीरी ।-
आनंद निर्झरी सी
हीरक रव ।

यहाँ शाँति की
स्वच्छ सरसी में
प्रीति नहाती है,
सुनहला परिधान खिसका
मुक्ति में डूबी।

असीम का स्वभाव,—
वह शोभा की
नयन नीलिमा में बँधा
असीम ही रहता । ….
सरसी में सोया भी ।
अनिमेष दृष्टि का अवाक् क्षण
शाश्वत अनुभूति है ।

ये नीलिमा घाटियाँ हैं
कालातीत—-
जहाँ अशरीरी शोभा
रहती,
दृष्टि परिधान हटा
आत्म मग्न,
ज्योति नग्न ।

  1. कीर्ति

किसी एक की नहीं
यह कीर्ति,
समस्त मानवता की है !
पूर्व पश्चिम से मुक्त
जन भू की प्रतिभू
मानवता की ।

शस्य बालियों भरी,
आम्र मंजरियों सजी–
मुकुट नहीं कीर्ति,
मन की
व्यक्तित्व की
विभा है !

कोयल कूक रही !
तरु लता वन में
तरुण रुधिर दौड़ रहा !
किरणों से अनुराग
सुनहला पराग
बरस रहा !

सृजन क्रांति यह,
रचना रूपांतर !
जीवन शोभा का सिन्धु
हिल्लोलित हो उठा,
दृगों को नयी दृष्टि
कानों को अर्थ बोध के
नये स्वर मिल गए !

ओ नयी आग,
बाहुओं वक्षों में
जघनों योनियों में
नया आनंद कूद रहा !
भाल से, भ्रुनों से
कपोलों अधरों से
नया लावण्य निखर रहा !

औ शुभ्र शक्तिमत्ते,
रस की नयी चेतने,
व्यक्ति तुम्हें बंदी नहीं वना सकेगा,
ममता कलुषित नहीं करेगी !

तुम नयी शक्ति, नयी वेदना,
शील स्वच्छ
नयी सामाजिकता हो !
रक्त मांस की
सुनहली शिखा,
नयी प्राणेच्छा
प्रणयेच्छा बन
नयी एकता, नये बोध के
प्राण बीज बो
नव यौवन आग भरी
भू जीवन अनुराग हरी
मानवता की सौम्य पीढ़ी
उपजाएगी !

नयी मानसिकता की धात्री,
रचना मंगल का
स्वर्णिम तोरण बनेगी !

उसी मानवता की है
विश्व कीर्ति,
स्वप्न बालियों भरी
गीत मंजरियों गुंथी !

  1. भाव

चंद्रमा
मेरा यज्ञ कुंड है,
शोभा के हाथ
हवि अर्पित करते हैं !

भावना कल्पना
स्वप्न प्रेरणा–
सभी चरु हैं,
समिधा हैं,
आहुति हैं !

ओ आनंद की लपटो,
उठो !
ओ प्रीति, ओ प्रकाश,
जगो !

यह सौन्दर्य यज्ञ है,
कला यज्ञ !
शांति ही होत्री है ।

आत्मा
इंद्रियों की
रुपहली लपटों का
अमृत पान कर रही है !

प्राणों की
स्वत: जलने वाली समित्
जल जल उठती है !
अवचेतन की गुहाएं
औषधियों से दीप्त हैं !

यह सूक्ष्म यज्ञ है,
भाव यज्ञ ।
चंद्रमा ही
यज्ञ वेदी है !

  1. अवरोहण

मेरी दुर्बल इंद्रियाँ
तुम्हारे आनंद का उत्पात
नहीं सहेंगी,-
उन्हें वज्र का बनाओ !

तुम्हारा आनंद
समुद्री अतिवात है,
मेरे रोम रोम
दिशाओं में शुभ्र अट्टहास भर
जग की सीमा से टकराकर
मंथित हो उठते हैं ।

मन के समस्त दुर्ग
यम नियम की दीवारें
टूट कर
छिन्न भिन्न हो गई !

तुम्हारे उन्मत्त शक्तिपात की
रति क्रीड़ा के लिए
मेरी कोमल तृणों की देह
लोट पोट हो
बिछ बिछ जाती है !

तुम कामोन्मत्त
प्रेमोन्मत्त पगों से
उसे रौंद कर
जीवन विह्वल
बना देते हो !

सौ सौ अग्नि लपटों में उठ
मेरी चेतना
सजग हो उठती है !
तुम्हारा विद्युत् आनंद
भाव प्रलय मचाकर
नयी सृष्टि करता है !

  1. रक्षित

तुम संयुक्त हो ?

फूल के कटोरों का मधु
मधुपायी पी गये
तो, पीने दो उन्हें !

नया वसंत
कल नये कटोरों में
नया आसव ढालेगा !

तुम्हारी देह का लावण्य
यदि इंद्रिय तृष्णा
पी गई हो
तो, छक कर पी लेने दो !
आत्मा के दूत
कल, नये क्षितिजों का सौन्दर्य
आँखों के सामने
खोलेंगे !

प्रेम
देह मन में सीमित,–
वियोगानल में
जल रहा हो,
जलने दो,-
वह सोने सा तपकर
नवीन कारुण्य
नवीन मांगल्य के
ऐश्वर्यों में
विकसित होगा !

तुम संयुक्त हो न !

  1. नया देश

ओ अन्धकार के
सुनहले पर्वत,
जिसने अभी
पंख मारना नहीं सीखा,-

जो मानस अतलताओं में
मैनाक की तरह पैठा है,
जिसमें स्वर्ग की’
सैकडों गहराइयाँ
डूब गई हैं ।

मैं आज
तुम्हारे ही शिखर से
बोल रहा हूँ । ….

तुम, जिससे
स्वप्न देही
शंख गौर ज्योत्स्नाएँ…
कनक तन्वी
अहरह कांपती
विद्युल्लताएँ’ “

भावी रंभा उर्वशियों सी
फूल बाँह डाले
आनंद कलश सटाए
लिपटी हैं,…

ओ अवचेतन सम्राट,
यह नया प्रभात
शुभ्र रश्मि मुकुट बन
तुम्हारे ही शिखर पर
उतरा है ।

तुम सत्य के
नये इंद्रासन हो ।
यह नाग लोक का
चितकबरा अंधकार
तुम्हारा रथ है ।

शची
रक्त पद्म पात्र में
अनंत यौवन मदिरा लिए
खड़ी है ।
रंभा मेनका
उसीकी परछाई हैं ।

ओ हेम दंड नृप
तुम विष्णु के अग्रज हो,…
यह आनंद पर्व है,
अपने द्वार खोलो ।
इन नील हरी
पेरोज घाटियों में
फालसई मूँगिया प्रकाश
छन कर आ रहा है ।

मयूर
रत्नच्छाय बर्हभार खोले हैं ।
मोनाल डफिए
अँगड़ाई लेकर
पंखों का इंद्रधनुषी ऐश्वर्य
बरसा रहे हैं,.…

एक नया नगर ही बस गया है । _
ओ मुक्ताभ,
यह नया देश, नया ग्राम
तुम्हारी राजधानी है ।
हृदय सिंहासन
ग्रहण करो ।

  1. रहस्य

इन रजत नील ऊंचाइयों पर
सब मूल्य, सब विचार
खो गए ।

यहाँ के शुभ्र रक्ताभ
प्रसारों में
मन बुद्धि लीन हो गए ।

तुम आती भी हो
तो अनाम अरूप गंध बन कर,
स्वर्णिम परागों में लिपटी
आनन्द सौन्दर्य का
ऐश्वर्य बरसाती हुई ।

ओ रचने,
तुम्हारे लिए कहाँ से
ध्वनि, छंद लाऊँ ?
कहाँ से शब्द, भाव लाऊँ ?

सब विचार, सब मूल्य
सब आदर्श लय हो गए ।
केवल
शब्दहीन संगीत
तन्मय रस,….
प्रेम, प्रकाश और प्रतीति ।

कहाँ पाऊँ रूपक,
अलंकरण, कथा ?
ओ कविते,
ये मन के पार के
पवित्र भुवन हैं,…

यहाँ रूप रस गंध स्पर्श से परे
अवाक् ऊंचाइयों
असीम प्रसारों
अतल गहराइयों में
केवल
अगम शांति है ।
अरूप लावण्य,
अकूल आनंद,
प्रेम का
अभेद्य रहस्य ।

  1. सूर्य मन

लज्जा नम्र
भाव लीन
तुम अरुणोदय की
अर्ध नत
शुभ्र पद्म कली सी
लगती हो ।

औ मानस सुषमे,
प्रभात से पूर्व का
यह घन कोमल अंधकार
तुम्हारा कुंतल जाल सा
मुझे घेरे है ।

सामने
प्रकाश के
पर्वत पर पर्वत
खड़े हैं ।…
उनकी ऊँची से ऊँची
चोटियों के फूलों का मधु
मेरा गीत भ्रमर
चख चुका है ।

अब,
मन
तुम्हारी शोभा का प्रेमी है,
तुम्हारे चरण कमलों का मधु पीकर
आत्म विस्मृत हो
वह गुंजरण करना
भूल जाना चाहता है ।

मन का गुंजरण
थम जाने पर
तुम्हारा शुभ्र संगीत
स्वत: सूर्यवत्
प्रकाशित हो ।

  1. एक

नील हरित प्रसारों में
रंगों के धब्बों का
चटकीला प्रभाव है,……

शुभ्र प्रकाश
अंतर्हित हो गया ।

सूरज, चाँद और मन
प्रकाश के टुकड़े हैं,
बहु रूप ।

दर्पण के टुकड़ों में
एक ही छबि है,
अपनी छवि ।

तुम्हारा प्रकाश
अनेक रूप है,
जिसका सर्व भी दर्पण नहीं ।

यह इंद्रधनुष
द्रोपदी का चीर है,
इसका अशेष छोर
शुभ्र किरण थामे है…
जो हाथ नहीं आती ।

शब्द चींटियों की पाँति से
चलते रहेंगे-
देश काल अनंत हैं ।

तुम सीमा रहित
अस्तित्व मात्र
कौन बिन्दू हो ?.…
जिसके सामने
चींटी
पर्वत-सी लगती है ।

अकूल, कौन सिन्धु हो ।
अश्रु कण में भी
समा जाती हो ।

  1. शरद

श्यामल मेघ
रूपहले सूपों की तरह
सिन्धु जल की
निर्मलता बटोरकर
तुम पर उलीचते रहे ।

ओ सुनहली आग,
अविराम वृष्टि से
धुलने पर
तुम्हारी दीप्ति बढ़ती गई ।

ओ स्वच्छ अंगों की
शरद ।
तुम्हारे लावण्य का स्पर्श
मुझसे सहा नहीं जाता । _
स्वप्न गौर शोभे,
ओ शीत त्वक् अग्नि ।

धुली अँधियाली के
रेशमी कुंतल,-
स्निग्ध नीलिमा नत
चितवन,
रक्त किसलय अधर
नवल मुकुलों के अंग ।-
ओ गंध मुग्ध फूल देह,
दुग्ध स्नात, सौम्य
चंद्रमुख
वसंत ।

तुम्हारा रूप देख
सूरज, नत मुख,
सहम गया ।
उसकी रेशमी किरणें
पक्षियों के रोमिल पंखों सी
सिमट गईं ।

लो,
साँझ उषाएँ
प्रसाधन लिए
द्वार पर खडी हैं ।

ताराएँ
पलक मारना
भूल गई हैं ।

ओ सुखद, वरद,
शरद ।
आनंद
तुम्हारी शुभ्र सुरा पी
अवाक् है ।

  1. शंख ध्वनि

शंखध्वनि
गूँजती रहती,–
सुनाई नहीं पड़ती ।

त्याग का शुभ्र प्रसार,
ध्यान की मौन गहराई,
समर्पण की
आत्म विस्मृत तन्मयता,
आवेग की
अवचनीय व्यथा
और,
प्रेम की गूढ़ तृप्ति
शंखध्वनि ,…
सुनाई नहीं पड़ती,
सुनाई नहीं पड़ती ।

श्रवण गोचर ?
इंद्रिय गोचर ?
ऐसी स्थूल
कैसे हो सकती है
शंख ध्वनि ?…

गूँजती रहती,
वह
गूँजती रहती ।

हे वन पर्वत, आकाश सागर,
तुम निविड़ हो, उच्च हो,
व्यापक हो, निस्तल हो ।
कहाँ है अनंत और शाश्वत ?

शंखध्वनि
अणु अणु में व्याप्त
इन सब से परे,
परे, परे,
सुनाई पड़ती,
निश्चय
सुनाई पड़ती ।

  1. पद

केवल
शोभा की सृष्टि करो,
चाँदनी की अलकों में
स्वप्नों का नीड़
बसा कर ।

केवल
प्यार की वृद्धि करो,
सांस लेती हिलोरों पर
हेम गौर हंस मिथुन
सटा कर ।

केवल
आनंद अमृत पिलाओ,
वासंती आग के दोने
किसलय पुटों का
गंधोच्छवास पिला कर ।

केवल
चंपई चैतन्य में डुबाओ,
तन्मयता के सुनहले अतल में
स्वप्न हीन सुख में मग्न कर ।

  1. वरदान

सीमा और क्षण को
खोज कर हार गया,
कहीं नहीं मिले ।

ओ नि:सीम
शाश्वत,
मैं रिक्त और पूर्ण से
शून्य और सर्व से
मुक्त हो गया ।

जहाँ कुछ न था,
कुछ-नहीं भी न था,
उसके गवाक्ष से
स्वत: ही
सुनहली अलकों से घिरा
तुम्हारा मुख दिखाई दिया ।

तुम्हारी अमित स्मिति से
शोभा, प्रीति और आनंद
स्वयं उदित हो गए ।

अकूल अतल शांति
साँस लेने लगी,
जिसके
उठते-दबते वक्ष पर
स्वर्ग मर्त्य मैत्री के
दो अमृत गौर कलश
शोभित थे ।

तुम्हारे सर्वगामी
सहल स्थिर
रश्मि चरणों पर
दिशा काल
ज्ञान शून्य पड़े थे ।

  1. अव्यक्त

देह मूल्यों के नहीं
मेरे मनुष्य ।
रस वृन्त पर खिले,
मानस कमल हैं वे,
पंक मूल, …
आत्मा के विकास ।

मुक्त-दृष्टि भावों के दल
आनंद संतुलित ।

कलुष नहीं छूता उन्हें,
रंग गंध वे
मधु मरंद,
गीत पंख
मनुष्य ।

छंद, शब्द बँधे नहीं,
भाव, शिल्प सधे नहीं,
स्वप्न, सोए जगे नहीं ।

सूरज चाँद, सांझ प्रभात?
अधूरे उपमान ।
शोभा ?
बाहरी परिधान ।

रूप से परे
अंत: स्मित,
गहरे
अंत: स्थित,–
मूल्यों के मूल्य हैं
मेरे मनुष्य ।

  1. करुणा

शब्दों के कंधों पर
छंदों के बंधों पर
नहीं आना चाहता ।
वे बहुत बोलते हैं ।

तब ?
ध्यान के यान में
सूक्ष्म उड़ान में,
रुपहीन भावों में
तत्व मात्र गात्र धर
खो जाऊँ?
अर्थ हीन प्रकाश में
लीन हो जाऊँ ।
-तुम परे ही रहोगी ।

नहीं,…
तुम्हीं को बुलाऊँ
शब्दों भावों में
रूपों रंगों में,
स्वप्नों चावों में,-
तुम्हीं आओ
सर्वस्व हो ।
मैं न पाऊँगा
नि:स्व हो ।

  1. सदानीरा

तुम्हें नहीं दीखी?
बिना तीरों की नदी,
बिना स्रोत की
सदानीरा।

वेगहीन, गतिहीन,
चारों ओर बहती,
नहीं दीखी तुम्हें
जलहीन, तलहीन
सदानीरा?

आकाश नदी है, समुद्र नदी,
धरती पर्वत भी
नदी हैं।

आकाश नील तल,
समुद्र भंवर,
धरती बुदबुद, पर्वत तरंग हैं,
और वायु
अदृश्य फेन।

तुम नहीं देख पाए।
धंदहीन, शब्दहीन, स्वरहीन, भावहीन,
स्फुरण, उन्मेष, प्रेरणा, –
झरना, लपट,
आंधी।

नीचे, ऊपर सर्वत्र
बहती सदानीरा-
नहीं दीखी तुम्हें?

  1. फूल

वह तटस्थ था,
अनासक्त,
तन्मय ।
कब पलकें खुलीं,
शोभा पंखुरियाँ डुलीं,…
रंग निखरे,
कुम्हलाए,…

वह अजान था,
आत्मस्थ,
वृन्तस्थ ।

गंध की लपटें
असीम में समा गईं,
स्वर्ण पंख मरदों से
धरा योनि भर गई ।
वह समाधिस्थ,
मौन,
मग्न ।

धीरे धीरे
दल झरे,
रूप रंग बिखरे,-

वह अवाक्,
रिक्त,
नग्न । …

जन्म मरण
ऊपरी क्रम था,-
वह,
मात्र
फूल ।

  1. देन

काल नाल पर खिला
नया मानव,
देश धूलि में सना नहीं ।

समतल द्वन्द्वों से ऊपर,
दिक् प्रसारों के
रूप रंग
गंध रज मधु
सौम्य पंखड़ियों में संवारे,
हीरक पद्म ।

एक है वह
अंत: स्थित
बाह्य संतुलित,
भविष्य मुखी
रश्मि पंख
प्राण विहग,…
सूर्य कमल ।

वह काल शिखर
देख रहा,
बहिर्देश
बहिर्जीवन
सीमाओं के पार
इतिहास पंक मुक्त ।

अंत: प्रबुध्द
वहि: शुद्ध,
पूर्व पश्चिम का नहीं,
काल की देन
अत्याधुनिक
अंतर्विकसित
चैतन्य पुरुष,
ज्योति पद्म ।

  1. सूक्ष्म गति

वह चलती रहती,
थकती नहीं,-
ठंढी, बहती आग,
टटकी वायु !

धुंध के भुजंगों में उड़ती
फेनों के पर्वत उगलती,
कूड़ा कचरा निगलती,
प्राणोज्वल होती
जगत् प्राण !

कर्म गति शक्ति है,
रक्त की, मन की,
मस्तिष्क की,–
वह

धूल के पहाड़ उठाती,
क्रांति मचाती,
आगे बढ़ती
नए क्षितिजों को निखारती !

चेतना गति-सी शुभ्र नहीं,–
चेतना गति-सी !
जो मूक अतलताओं को छू
चुपचाप
स्वर्णिम आरोहों में उभारती
संवारती है ।

  1. शील

ओ आत्म नम्र,
तुम्हें ज्वालाएँ
नहीं जलातीं ।

तुम्हारी
छंदों की पायलें
उतारे दे रहा हूँ,.…

तुम स्वप्नों के पग धर
चुपचाप
भाव कोमल
मर्म भूमि पर चल सको ।
तुम्हारी चापें
न सुनाई दें,
पदचिह्न
न पड़ें ।

बाहर
हालाहल सागर है,….
विद्वेष विष दग्ध
सहस्रों उफनाते फन
फूत्कार कर रहे हैं ।

उनका दर्प
शील के चरण धर
चुपके
पदनत करो ।

तुम्हीं हो
वह हालाहल,
फन,
और
फूत्कार,-
अपने से
मत डरो ।
तुम्हीं हो शील,
त्याग,
प्रेम,…
अनजान
मत बनो । …

तुम कांटों के वन में
फूलों के पग धर
नि:संशय विचरो,
घृणा का पतझर
वसंत बनने को है ।

लोक चेतना के व्यापक
रुपहले क्षितिज खुले हैं,
तुम रचना मंगल के पंखों पर
उन्मुक्त वायु में
निशब्द
विहार करो,—
छंदों की पायलें
उतार रहा हूँ ।

  1. प्रश्न

शशक
मूषक में
कौन महान् है ?—

कला के सामने
गंभीर प्रश्न
उपस्थित हुआ ।

सांप
मूषक को
निगल गया,
मयूर
साँप को ।

मयूर की
सतरंग
बर्हभार छाया में
मेंढक
कीचड़ उछालता
टर्राया,-
जैसे को तैसा ।

पर हाय,
खरहा
भले मुंदर हो,
मेंढक
आत्म विज्ञापन
जानता हो,
कलाकार
मूषक ही था ।

कुत्ता
बेमन भौका…
धन्य रे
हितोपदेश कार ।

  1. बाह्य बोध

तुम चाहते हो
मैं अधखिली ही रहूँ ।
खिलने पर
कुम्हला न जाऊँ,
झर न जाऊँ ।

-हाय रे दुराशा ।
मुझमें
खिलना
कुम्हलाना ही
देख पाए ।

  1. आत्मानुभूति

कैसे कहूँ
अपने अछूते आँचल में
रंगों के धब्बे,
मधुपों के
षट्पद चिह्न
न पड़ने दे । …
यह कल की बात है ।

आज
अपनी भीनी शोभा
लुटाना चाहे
लुटा ।

मीठी कोमल पंखुरियाँ
आँधियाँ दलें-मलें ।
गौर वर्ण
आरक्त हो जाय,
स्वर्णिम मरंद
झर जायें ।

नयी पीढ़ियां
मधुरस की तीव्रता में
आत्म विभोर हो जायें ।
तुझे अपनी
गुंठित शोभा का मूल्य
पहचानना है ।

ओ स्रजयित्री
भावयित्री
कारयित्री प्रतिभे,
तू ही लाई
जातियों
संस्कृतियों
सभ्यताओं को ।

असंख्य पिपीलिकाओं-से
हाथ पांव
जो धरातल पर
हिलडुल रहे हैं—-

यह तेरे ही प्राणों का आवेश,
रोम हर्षों की सिहर,
अवश अंगों की थरथर् है ।
जीवन
विकास पथ है,
साध्य साधन में
संगति ला ।

  1. रूपांध

सत्य कथा
सत्य से-
प्रेम व्यथा
प्रेम से
अधिक बढ़ गई ।

रूपहले बौर
झर न जायें,
बने रहें ।-
आम्र रस सृष्टि
भले न हो ।
सूनी डालों पर
कुहासे घिरे
ओस भरे
आशा बंध

(मानस व्यथा के प्रतीक)
पतझर की सुनहली धूल
आँचल में समेटे रहें,-
कोयल न बोले ।

तंतुवाय सा
मैं-अपने ही जाल में
फँसा रहे, …
सूरज चाँद तारे भी
उसी में उतर आएँ ।

ओ छिछले जल में
वंशी डालने वाले,
ये कीड़े मकौड़े
सांप घोंघे हैं ।
जिन्हें तुम मछलियाँ
रुपहली कलियाँ समझे हो ।

जल अप्सरियाँ
रत्न आभाओं में लिपटीं
अमेय गहराइयों में
रहती हैं ।

यदि निर्मल
मुक्ताभ अतलताओं से-
सुनहली किरणों सी
जल देवियाँ

कभी बाहर
लहरों पर तिरने आ जायें,
तो यह नहीं
सत्य सत ही होता है,

और
छिछली तलैया में डूबकर
तुम
फेन के मोती चुगो ।

ओ मेरे रूप के मन,
तेरी भावना की गहराइयाँ
अरुप हैं ।

  1. वाचाल

‘मोर को
मार्जार-रव क्यों कहते हैं मां’

‘वह बिल्ली की तरह बोलता है,
इसलिए ।’

‘कुत्ते् की तरह बोलता
तो बात भी थी ।
कैसे भूंकता है कुत्ता,
मुहल्ला गूंज उठता है,
भौं-भौं ।’
‘चुप रह !’

‘क्यों मां ?…
बिल्ली बोलती है
जैसे भीख मांगती हो,
म्या उं.., म्या उं..
चापलूस कहीं का ।
वह कुत्तेी की तरह
पूंछ भी तो नहीं हिलाती ‘-
‘पागल कहीं का ।’

‘मोर मुझे फूटी आंख नहीं भाता,
कौए अच्छे लगते हैं ।’
‘बेवकूफ ।’

‘तुम नहीं जानती, मां,
कौए कितने मिलनसार,
कितने साधारण होते हैं ।…
घर-घर,
आंगन, मुंडेर पर बैठे
दिन रात रटते हैं
का, खा, गा …
जैसे पाठशाला में पढ़ते हों ।’

‘तब तू कौओं की ही
पांत में बैठा कर ।’

‘क्यों नहीं, मां,
एक ही आंख को उलट पुलट
सबको समान दृष्टि से देखते हैं ।-
और फिर,
बहुमत भी तो उन्हीं का है, मां ।’
‘बातूनी ।’

लेखक

  • सुमित्रानंदन पंत

    पंत जी का मूल नाम गोसाँई दत्त था। इनका जन्म 1900 ई. में उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक स्थान पर हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी के गाँव में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर इन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। उसके बाद वे स्वतंत्र लेखन करते रहे। साहित्य के प्रति उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए इन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिले। भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। इनकी मृत्यु 1977 ई. में हुई। रचनाएँ-पंत जी ने समय के अनुसार अनेक विधाओं में कलम चलाई। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य- वीणा, ग्रंथि , पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, चिदंबरा, उत्तरा, स्वर्ण किरण, कला, और बूढ़ा चाँद, लोकायतन आदि हैं। नाटक-रजत रश्मि, ज्योत्स्ना, शिल्पी। उपन्मस-हार। कहानियाँ व संस्मरण-पाँच कहानियाँ, साठ वर्ष, एक रेखांकन। काव्यगत विशेषताएँ-छायावाद के महत्वपूर्ण स्तंभ सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेर कवि हैं। हिंदी कविता में प्रकृति को पहली बार प्रमुख विषय बनाने का काम पंत ने ही किया। इनकी कविता प्रकृति और मनुष्य के अंतरंग संबंधों का दस्तावेज है। प्रकृति के अद्भुत चित्रकार पंत का मिजाज कविता में बदलाव का पक्षधर रहा है। आरंभ में उन्होंने छायावाद की परिपाटी पर कविताएँ लिखीं। पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश इन्हें जादू की तरह आकृष्ट कर रहा था। बाद में चलकर प्रगतिशील दौर में ताज और वे आँखें जैसी कविताएँ लिखीं। इसके साथ ही अरविंद के मानववाद से प्रभावित होकर मानव तुम सबसे सुंदरतम जैसी पंक्तियाँ भी लिखते रहे। उन्होंने नाटक, कहानी, आत्मकथा, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में भी काम किया है। रूपाभ नामक पत्रिका का संपादन भी किया जिसमें प्रगतिवादी साहित्य पर विस्तार से विचार-विमर्श होता था। पंत जी भाषा के प्रति बहुत सचेत थे। इनकी रचनाओं में प्रकृति की जादूगरी जिस भाषा में अभिव्यक्त हुई है, उसे स्वयं पंत चित्र भाषा की संज्ञा देते हैं।

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कला और बूढ़ा/सुमित्रानंदन पंत

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