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मैला आँचल द्वितीय भाग खंड11-23/फणीश्वरनाथ रेणु

11

“कमली के बाबू ! कमली के बाबू !…”

नींद में तहसीलदार साहब की नाक बहुत बोलती है-खुर्र खुर-र…कमला की माँ पलँग के पास खड़ी है। उसके चेहरे पर भय की काली रेखा छाई हुई है-“कमली के बाबू ?”

“ऊँ यें….क्या है?”

माँ धीरे-से पलँग पर बैठ जाती है।…तहसीलदार साहब और भी अचकचा जाते हैं, “क्या है ?”

“कुछ नहीं,” माँ फिसफिसाकर कहती है, “कमली ने…कमली ने तो आँचल में दाग लगवा लिया…”

“आँ यें ?…आँचल में ?” तहसीलदार साहब को लगा कि कमली के कपड़े में आग लग गई है। कमली जल रही है।

“हाँ, चार महीना…!”

तहसीलदार साहब और माँ दोनों एक ही साथ लम्बी साँस छोड़ते हैं।

“हे भगवान ।”

“अब क्या होगा ?”

“समझो !”

“कैसे पता चला ?”

“मुझे तो पिछले महीने में ही थोड़ा सन्देह हुआ था। आज पूछने लगी तो चुपचाप टुकुर-टुकुर मुँह देखने लगी।…डाक्टर ने तो खूब इलाज किया ! अब मुँह पर कालिख जो लगी है, इसको कौन छुड़ावेगा ?”

तहसीलदार साहब का मुँह सूख जाता है। आँखों के आगे भयावने दृश्य एक-एक कर आते-जाते हैं-उनके मुँह में कालिख पुती हुई है, और सभी लोग ताली बजाकर हँस रहे हैं, पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं।

“मैं पहले ही कहती थी, इतना हेलमेल अच्छा नहीं। आग और फूस एक साथ कब तक रहें ?…और तुम्हारी दुलारी पर तो मानो जादू कर दिया है डाक्टर ने। अभी भी कह रही है, डाक्टर ने कहा है…।”

“क्या कहा है डाक्टर ने ?” तहसीलदार साहब तिनके का सहारा ढूँढ़ रहे हैं।

“साफ-साफ कहाँ कहती है कुछ ! कहती है कि डाक्टर ने कहा है-जो होगा. मंगल होगा।”

“मंगल ! हुँहु ! मंगल !…पाजी, सूअर, नमकहराम, कुत्ते का बच्चा, साला ! अब गले में रस्सी का फन्दा लगाकर मरो कमली की माँ !…क्या करोगी ?”

“लेकिन मैं सपथ खाकर कह सकती हूँ, मेरी बेटी का इसमें कोई दोख नहीं।…” माँ रो पड़ती है, “कमली का कोई कसूर नहीं। डाक्टर ने फुसलाकर उसका सत्यानास किया है।”

कमली भी अपने बिछावन पर जगी हुई है। आज उसे बार-बार डाक्टर की याद आती है। डाक्टर का हँसना, बोलना, रूठना-झगड़ना, मीठी-मीठी बातें करना और बाँहों में जकड़कर…। उसकी आँखें भर-भर आती हैं। लेकिन डाक्टर ने कहा है, जो होगा, मंगलमय होगा !…यदि डाक्टर को दामुल हौज (कालापानी, आजीवन कैद) हो जाए तब ?…माँ रोती क्यों थी ? महाभारत में कुन्ती, देवयानी, अहल्या, द्रौपदी, कौन ऐसी है जिसको… ? डाक्टर ने कहा है, हम दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता।

“डाक्टर ने क्या कहा है ?” तहसीलदार साहब, सुबह-सुबह चाय पीते समय पूछते हैं, “पूछो कमली से साफ-साफ, डाक्टर ने क्या कहा है ?”

“कहती है, डाक्टर कहता था, हम लोगों को कोई अलग नहीं कर सकता !” माँ धीरे-धीरे इधर-उधर देखकर कहती है।

“सो तो समझा !” तहसीलदार साहब का चेहरा फिर बुझ-सा जाता है, “लेकिन सवाल है कि वह तो जेल में है, अब क्या सजा होती है, सो कौन जाने ?…फिर मरद की बात का क्या ठिकाना ?….कमली के पास उसकी कोई चिट्ठी-पत्तरी है ?”

तहसीलदार साहब कानूनची आदमी हैं। कागज पर आपके हाथ का ‘क’ भी लिख रहे तो उससे वह सारी दस्तावेज ऐसी बना दें कि पटना का इस्पाट (विशेषज्ञ, एक्सपर्ट) भी नहीं पहचान पाए कि असली है या जाली !

“चिट्ठी-पत्तरी यदि होगी भी तो वह देगी नहीं। वह कह रही थी कि हमको गुदाम-घर में बन्द रखो। लोग तो जानते ही हैं कि कमली बीमार है। तब तक डाक्टर आ जाएगा।…लड़की की बातें सुनकर कलेजा थिर नहीं रहता है। कहती थी, माँ, अपराध के लिए आखिर कोई सजा तो मिलनी ही चाहिए। हमको घर में ही जेहल दे दो !”

“इस्-इस् !” तहसीलदार साहब का भी दिल कसक उठता है. “कमली की माँ ! मेरी बेटी अब मेरे सामने नहीं आवेगी ? क्यों ? एक बार उससे बात करना चाहता हूँ ! तुम क्या कहती हो?”

उफ् ! कमली के चेहरे पर दिनों-दिन तेज आता जा रहा है। मुखमंडल चमक रहा है, लेकिन आज उसकी निगाहें नीची हैं। चुपचाप आकर पर्दे की आड़ में खड़ी हो जाती है।”

“दीदी!”

“…”

“इधर आओ दीदी ! तुम्हारा कोई कसूर नहीं बेटा !”

“बाबूजी, मेरी सूरत मत देखिए !…मुझे गुदाम-घर में बन्द कर दीजिए।” कमली रो पड़ती है, फफक-फफक् !

और कोई उपाय भी तो नहीं।

कमली कहती है-“लगता है कि यह डाक्टर नहीं जिन है…एक बार गौरी मौसी ने जिन-पीर की कहानी सुनाई थी।”

“डर तो नहीं लगता ?”

“नहीं माँ ! डाक्टर अब मेरे पास हमेशा रहता है। मुझे डर नहीं लगता है। इसलिए मैं एकान्त में, अँधेरे में रहना चाहती हूँ। माँ, डाक्टर का कोई कुसूर नहीं, वह सचमुच जिन है।”

सुनते हैं कि जिन जिस पर प्रसन्न हो उसको तुरत कुछ-से-कुछ बना देता है। रुपया-पैसा, जगह जमीन, तुरत ढेर लगा देता है। और जिन जब लेने लगे तो धान के बखार-के बखार में चूहे लग जाएँगे…तम्बाकू पर पत्थल गिर पड़ेगा…किसी बड़े सेशन- केस में फँसना होगा । तहसीलदार साहब हिसाब करके देखते हैं, डाक्टर जब से उस परिवार में घुला-मिला है, रोज अलाए-बलाए की आमदनी होती ही रहती है। जिस बात से सारे गाँव का नुकसान हुआ है, उसमें भी नफा ही रहा तहसीलदार को । मुकदमे में मुल्ले फँस गए और इतना बड़ा सेशन केस दूसरों के सिर पर ही खेप लिया। अपने घर से तो एक पैसा गया ही नहीं, ऊपर से पाँच हजार के करीब फायदा ही हुआ । खेलावन, रामकिरपाल सिंघ वगैरह की जमीन मिली सो मुफ्त में ही। कमला ठीक कहती है-डाक्टर जिन है।

कमली ने एक सप्ताह बहुत मजे में काट दिया। कुछ किताबें पढ़ने को माँगी हैं-“विषवृक्ष, इंदिरा, राजसिंह, आनंदमठ, देवदास, श्रीकांत, रंगभूमि, गोदान और…हरिमोहन बाबू की कन्‍यादान। बस, अभी इतना ही ! डाक्टर साहब की अलमारी में हैं किताबें । …हाँ, हाँ, निकलवाइए । …प्यारू से कहिएगा !”

गुदाम-घर की ऊपरवाली खिड़कियों से चाँद झाँकता है।… शरत्‌ की चाँदनी ! चाँद बादलों में छिप जाता है।…माँ दुर्गा के आने की सूचना मिल गई है। इस बार देवी किस चीज पर चढ़कर आवेंगी, बाबा से लिखकर पूछना होगा ! जरूर हाथी पर आई होंगी ! जिस बार हाथी पर आती हैं माँ…

12

जै ! दुर्गा माता की जै!

चम्पापुर के कुमार साहब ने इस बार फिर बड़े-बड़े पहलवानों को बुलाया है। कुश्ती शिकार, संगीत और साहित्य, सबका एक सम्मिलित पीठस्थल रही है चम्पापुर की ड्योढ़ी।

“बूढ़े राजा के समय की बात जाने दीजिए। अभी भी कुछ कम नहीं-विश्वकवि रवीन्द्र ने जिस ड्योढ़ी की साहित्य-गोष्ठी में अपनी प्रसिद्ध रचना ‘राजा-रानी’ की आवृत्ति की है, जहाँ की संगीत-मंडली में पूरे एक सप्ताह तक फैयाजखाँ की अमर स्वर-लहरी लहरा चुकी है। बूढ़े राजा ने शिकार पर कई किताबें लिखी हैं…।”

…पंजाबी पहलवान मुश्ताक का चेला ‘चाँद’ आया है, इस बार। जमेगा !.. कालीचरन बनमंखी के पास एक गाँव में है। दूर के रिश्तेदार बहुत चालाक आदमी हैं। उसका नाम बदल दिया है-रुस्तम खाँ ! लोगों से कहता है, रुस्तमखाँ तम्बाकू का दल्लाल, पूबा (पूरब का) है। कल चाँद अखाड़े में जाँघिया लगाकर उतरा, मगर सुनते हैं कि कोई जोड़ा ही नहीं मिला।…कालीचरन ऐंठ जाता है। वह जाएगा, जरूर-जरूर !

चम्पापुर मेले का दंगल है बाबू !…देखनेवालों पर कभी-कभी ऐसा जान सवार होता है कि आसपास के लोगों में धक्कममुक्की शुरू हो जाती है। सिपाही जी लोग छड़ी नहीं चमकाते रहें तो हर साल एक-दो आदमी दबकर मर जाएँ!

आज भी चाँद जाँघिया लगाकर घूम रहा है। कालीचरन भीड़ में से देखता है, “वाह ! बलिहारी दोस्त ! शरीर को खूब बनाया है ! बलिहारी है दोस्त !”

….ऐं ! आज भी चाँद का जोड़ा नहीं मिला ?…जै-जै ! दुरगा माई की जै ! जोड़ा नहीं मिला ! जै!

भेंपों-भेंपों-में-में…! पों-पों-पों !

चटाक् चट-धा। चट-धा गिड़-धा !

“अ…ज-ज-जा। आ-आली!” हाफ कमीज और पाजामा फाड़कर चित्थी-चित्थी करते हुए कालीचरन मैदान में उतर पड़ता है।

“ऐ ! ऐ ! पागल है, मारो, मारो !”

“नहीं जी !…जाँघिया है अन्दर में !”

…अरे ! वाह ! यह तो असल जोड़ा है।…कौन है ? अखाड़े में उतरने का ढंग ही कुछ ऐसा है कि सबकी आँखें चमक उठती हैं।…सभी की निगाहें आपस में मिलती हैं-हाँ, यही है चाँद की जोड़ी !

मंडल जी नाम-धाम पूछकर जल्दी से कुस्ती सुरू करवाने का हुकुम दे रहे हैं सरकार !

सभी बाजे-गाजे अचानक थम गए हैं।…क्या हुआ ? कुस्ती होगी या नहीं ? पहलवान मुश्ताक अली हाथ जोड़कर कह रहा है बड़े कुमार साहेब से ? क्या नाम कहा ?…रुस्तम अली ! जोगबनी का ? मोरंगिया है ? नहीं-नहीं, देसिया ही है।…वाह, अलबत्त जोड़ा है !

चटाक् चटधा ! चटधा गिड़धा !

“अरे वाह रे उस्ताद ! ले-ले-ले बच गया।…अरे, यह तो बिजली है-बिजली !” चाँद नाच रहा है। यह पंजाबी पैंतरा है। रुस्तम चुपचाप मुस्करा रहा है…मंगला… उस्ताद ! आज की बाजी यदि हार गए तो समझेंगे कि मंगला को छूना पाप हुआ।… यदि जीत गए तो…यह परीच्छा है मेरी !…चाँद को क्या ऐब लगा दिया है उसके गुरु ने ? इतना पागल होकर टूटता क्यों है ? काली…रुस्तम मुस्कराकर एक छोटी दुलकी लेता है; चाँद ने अचानक ही फिर हमला किया।

“अ-जा-जा !”…भैया, यह रुस्तमखाँ भी तो कमाल है ! कोई जादू जानता है क्या ? हाँ, चाँद को मालूम हो गया होगा।

“नहीं जी, कहाँ पंजाबी और कहाँ देसिया !”

…कहीं दारोगा साहेब तो देख नहीं रहे हैं ?-क्या ठिकाना ! खेल दिखाने का समय नहीं। जल्दी फैसला हो जाना चाहिए…।

“अरे, ला-ला-रा-जा-हा-हा…हा, हो-हो, जै-जै!”

पीछेवाले उचक-उचककर देखते हैं। पास के पेड़ की एक डाली टूट गई। क्या हुआ ?…साफ ?…कौन ? डेढ़ गज के एक छोटे-से चक्कर में रुस्तम घूमा और चाँद को आसमान दिखा दिया।

“कहाँ गया ? रुस्तम कहाँ गया ?” बड़े कुमार साहब भाव विह्वल होकर पुकार रहे हैं। शक्ति का पुजारी खोज रहा है-“रुस्तम !…भीड़ को हटाइए। रुस्तम कहाँ गया ?”

…..लगता है, जौहरी को कीमती पत्थर हाथ लग गया है। नहीं, नहीं, हाथ में आते-आते खो गया। कहाँ गया।

रुस्तम लापता हो गया।

बहुतों ने कहा-चलित्तर कर्मकार ही नाम बदलकर अखाड़े में उतरा था। चलित्तर को सुनते हैं, लाल-धूजा, हनुमानी झंडा का महातम मिला है-वह कहीं हार नहीं सकता है।

मेला में लाल फाहरम बाँट हुआ है। लिखा है-‘कम्यूनिस्ट पार्टी के लाल झंडा को बुलन्दी से ढोनेवाले चलित्तर कर्मकार के ऊपर से वारंट हटाओ।’

कालीचरन बनमंखी के रिश्तेदार के यहाँ से फारबिसगंज की ओर चला जाता है। सिकरेटरी साहब उससे नहीं मिलना चाहते हैं। लेकिन वह मिलेगा। सुनते हैं, सिकरेटरी साहब ने कहा है, कालीचरन वगैरह पार्टी के मेंबर नहीं, किसान सभा के दुअन्निया मेंबर हैं। मिलकर वह सारी बातें समझाएगा। उस रात वह पाटी आफिस में था।…धरमपुरी जी से भी भेंट नहीं हुई, बम्बे गए हैं। कालीचरन अपनी पूरी सफाई देकर ही हाजिर होगा।

“अरे। तुम ! काली !” मंगला डरते-डरते सँभल गई, “क्या डफाली मियाँ की तरह सूरत बनाई है ! अन्दर आ जाओ। कोई डर नहीं। अकेली हूँ।”

कालीचरन मंगला से मिलने आया है-अचानक।

कालीचरन को एक पुराने रेलवे क्वार्टर के अन्दरवाले कमरे में बिठाकर मंगला लोटा-गिलास लेकर पानी के नल पर चली जाती है। कालीचरन देखता है-चरखा है, धुनकी भी है, खाट पर कम्बल के ऊपर सफेद खादी की चादर है।…उसकी आँखों में खुमारी है। रात-भर बैलगाड़ी पर जगा ही रह गया है। रेल पर भी ऊपरवाली तखती पर लेटा आया है।…लोटा-गिलास चकमक करता है। ठंडा पानी ! नींबू का शरबत !

मंगला गिलास बढ़ाते हुए मुस्कराती है, “मैं तो डफाली मियाँ ही कहूँगी। रुस्तम । अली तो जोगबनी मिल का बूढ़ा सरदार है।”

कालीचरन हाथ में गिलास लेकर मंगला की ओर टकटकी लगाकर देखता है। मंगला कितनी दुबली हो गई है ! रंग भी जरा चरका हो गया है !

“खबरदार ! हैंडसप् !” खट-खट-खट-खट !

…दारोगासाहब, पिस्तौल ताने खड़े हैं। आठ-दस सिपाही बन्दूक की नली को इस तरह ताने हुए खड़े हैं मानो फैर कर देंगे।

“दारोगा साहब ! पानी पी लेने दीजिए !” मंगला को थाना-पुलिस का क्या डर !

“आप…तुम…कौन हो इसकी ? तुम क्या करती हो, तुमको भी गिरफ्तार किया जाता है।”

“दारोगा साहब, इनको पानी पी लेने दीजिए।”

मंगला अपना सर्टिफिकेट देखने के लिए देती है।

“ओ ! आप चरखा-सेंटर की महिला हैं…” दारोगा साहब मंगला के सर्टिफिकेट को देखकर वापिस देते हैं।

“हाँ, मेरीगंज में काम करती थी। जान-पहचान थी, एक साथ काम किया था। इसीलिए…!”

“नोच लो इस साले की दाढ़ी ! तेरी माँ को…।”

“आह!” मंगला झट से दरवाजा बन्द कर लेती है।

ऊपर से बन्दूक के कुन्दे जड़ रहे हैं काली के कन्धे पर ! वह शरबत का डकार लेता हुआ पुलिस-लारी पर जा बैठता है। कातिक महीने के कागजी नीबू में कितनी सुगन्ध होती है !…सर से झर-झर खून गिर रहा है। लेकिन, उसका सारा शरीर सन्तुष्ट है, शून्य है।

दारोगा साहब उसके मुँह में हंटर डालते हुए कहते हैं- “साला ! मर जाएगा, मगर नहीं कबूलेगा। सोमा साला भी ठीक ऐसा ही है। अरे !…चलित्तर करमकार तेरी माँ का भतार है, है न?”

कालीचरन के हाथों की हथकड़ी एक बार झनक उठी। घायल पुट्ठों में एक नया दर्द उभर आया, आँखों में खून उतर आया।…लेकिन नहीं। उसकी पाटी बदनाम हो रही है। वह सबकुछ सहेगा।

“भेज दो साले को !…बासुदेवा और सुनरा तो दो ही थप्पड़ में बक-बक उगलने लगा। उन दोनों को क्या है ? सरकारी गवाह हो गए हैं। रिहा हो जाएँगे दोनों।…मरेगा यही दोनों।…डकैती विद मर्डर !”

नीबू का शरबत !…डकार अभी भी आ रहा है कालीचरन को !

मंगला, मुझे माफ़ करना !

13

बालदेव जी रामकिसुन आसरम बहुत दिनों बाद आए हैं।…एकदम बदल गया है आसरम ! लोग भी बदल गए हैं। थोड़ा चालचलन भी बिगड़ गया है आसरम का। अब तो लोग मछली और अंडा भी चौका ही में बैठकर खाते हैं। अमीनबाबू सिकरेटरी हुए हैं। कहते हैं, “मछली-मांस आश्रम में न तो बनाया-धोया जाता है और न चूल्हे पर पकता ही है। लोग शहर से पका-पकाया ले आते हैं, खाते हैं। इसमें हर्ज ही क्या है ?”

“हरज क्या है ?” बालदेव जी हक्का-बक्का होकर अमीनबाबू का मुँह देखते हैं, “लेकिन…पहले तो आसरम के हाता में भी नहीं आता था।”

“यह जो नया रसोईघर बना है, वह आश्रम की जमीन में नहीं, कुबेर साह की जमीन में है। अब तो आप जगह-जमीनवाले आदमी हो गए, खाता-खतियान, नक्शा-परचा देखना तो जरूर सीखे होंगे।…जाइए, जाकर कचहरी में नकल निकास करवाकर देख लीजिए। समझे !” फारबिसगंज के नवतुरिया नेता छोटनबाबू कहते हैं।

बालदेव जी कटमटाकर उनकी ओर देखते हैं। छोटन, फारबिसगंज का यह लुच्चा लौंडा हर बात में फुच-फुच करता है। अमीनबाबू के साथ दिन-रात रहता है न, इसलिए मुँहजोर भी हो गया है।…झूठा तो नम्बर एक का ! फारबिसगंज का नाम फरेबगंज करेगा यह, इसमें कोई सन्देह नहीं।

“छोटनबाबू ! खाता-खतियान, नक्शा-परचा देखकर हम क्या करेंगे। रामकिसूनबाबू के जमाने में…।”

“रामकिसूनबाबू का जमाना रामकिसूनबाबू के साथ चला गया।” छोटनबाबू का टंडेल-भोलटियर (किसी नेता का व्यक्तिगत नौकर) मटरा भी बोलता है, “यह कांग्रेस आफिस है, बाबा जी का मठ नहीं।”

बालदेव जी की अकिल गुम हो रही है।

खैनी से सड़े हुए दाँतों को निकालकर मटरा हँसता है। फिर मटकी मारकर कहता है, “कबिराहा में तो ‘सब धन साहेब का’ ही होता है।…खंजड़ी बजाना सीखे हैं या नहीं ?”

“हा-हा-हा-हा !” सभी ठठाकर हँस पड़ते हैं। चन्ननपट्टी का गुदरू कहता है-“बालदेव ! अब अपने गाँव में आओगे तो जतियारी भोज से पकड़कर उठा दिए जाओगे।”

“बालदेव मेरीगंज का एकान्ती मजा छोड़कर गाँव क्यों जाएगा ?…अन्धों में काना बनकर मौज कर रहा है।”

“हा-हा-हा-हा-हा-हा !”

बालदेव जी की आँखों में आँसू आ जाते हैं। यदि दोरिक सरमा नहीं आ जाते तो वह फूटकर रो पड़ता। सरमा ने आते ही कहा-“क्या है, क्या है ? बालदेव जी को तुम लोग क्यों चिढ़ाते हो?”

“चिढ़ाते कहाँ हैं ? हम लोग सतसंग करते हैं।” छोटनबाबू हँसकर बोले।

सरमा ने पास की खाली कुर्सी पर बालदेव जी को बैठाते हुए कहा, “बालदेव जी ! यहाँ बैठिए, हम जवाब देते हैं।…सतसंग की बात कहते हैं छोटन जी ! यह बालदेव, दोरिक शर्मा, नेवालाल, फगुआ, सहदेवा, बौनदास, उजाड़ चुन्नीदास, पिरथी, जगरनथिया, छेदी, गंगाराम वगैरह के सतसंग का ही फल है कि आपके जैसे लाल पैदा हुए हैं।…अभी चेभर-लेट गाड़ी पर लीडरी सीख रहे हैं आप ! आप क्या जानिएगा कि सात-सात दिनों तक भूजा फाँककर, सौ-सौ माइल पैदल चलकर गाँव-गाँव में कांग्रेस का झंडा किसने फहराया ? मोमेंट में आपने अपने स्कूल में पंचम जारज का फोटो तोड़ दिया, हेडमास्टर को आफिस में ताला लगाकर कैद कर दिया, बस आज आप लीडर हो गए। यह भेद हम लोगों को मालूम रहता तो हम लोग भी खाली फोटो तोड़ते।…गाँव के जमींदार से लेकर थाना के चौकीदार-दफादार जिनके बैरी ! कहीं-कहीं गाँववाले दल बाँधकर हमें हड़काते थे, जैसे मुड़वलिया (बिना सिरवाला प्रेत) को लोग सूप और खपरी बजाकर हड़काते हैं।…आप नहीं जानिएगा छोटन बाबू । आपका जन्म भी नहीं हुआ था। उस समय आपके बाबू जी दारू की दुकानों की ठेकेदारी करते थे।…हम लोग उनकी गाली सुन चुके हैं। क्या बालदेव ! याद है ? वही कटफर भट्टी की बात ?”

गूदर तुरत रंग बदलना जानता है …वह भी तो नीमक कानून के समय से ही झोला टांग रहा है-“सरमा जी ! गिद्धवास हाट पर…॥”

“चुप चोट्टा कहीं का !” शर्मा जी डांटते हैं, “जिधर चाँद उधर सलाम ! …बालदेव जी को सभी मिलकर चिढ़ाता था, क्यों रे ! बालदेव जी जरा साफ कपड़ा पहनने लगे हैं, एरवदा चक्र खरीदे हैं, चेहरा मोहरा पहले से जरा चिकना लगता है, पास में पैसा है, इसीलिए तुम लोगों का कलेजा जल रहा है। चलिए बालदेवजी, गांगुली जी के यहाँ हम भी बहुत दिनों से नहीं गए हैं।”

“अभी मिटिन जो है।” बालदेव जी कहते हैं।

“अरे, आप भी तो बालदेव जी सब दिन एक ही समान रह गए ! …मिटिंग में रहकर क्या कीजिएगा। फारबिसगंजवालों का कजिया फैसला होने वाला है। खुशम बाबू एक घोड़ा-गाड़ी में भरकर कागज-पत्तर, फाइल-रजिस्टर, भौचर, डिबलूकट (डुप्लिकेट) और मुकदमों के कागज ले आए हैं। उधर फगुनीसिंघ भी एक सौ आदमी को भंजाकर ले आए हैं। आज रात-भर ख़ूब घमाघम होगा । चलिए, क्‍या देखिएगा रांड़ी-बेटखौकी का झगड़ा !”

बालदेव जी दोरिक शर्मा के साथ चले गए तो गूदर ने आँख टीपकर फिसफिसा के कहा, “अरे ! गाँगुली जी के यहाँ जाता है थोड़ो ! जा रहा है तिरपित भंडार में, अभी बालदेव जी को चोट पर चढ़ाएगा। रसगुल्ला झाड़ेगा ।”

छोटनबाबू कहते हैं, “अमीनबाबू से कहना होगा। मेरीगंज में अब बालदेव से काम नहीं चलेगा। चरखा-सेंटर को चौपट कर दिया। घर-घर में सोशलिस्ट घरघराने लगे । अभी तो सब डकैती केस में ऐरेस्ट हैं। उस गाँव का डाक्टर कोमनिस्ट था, वह भी ऐरेस्ट है।” उसको तो हम्हीं ने ऐरेस्ट कराया है। कटहा का नया दारोगा हमारा क्लास फ्रेंड है।”

“लीजिए ! एक बरमगियानी गए तो दूसरे कठपिंगलजी आ रहे हैं।…यह तो आजकल और भी काबिल हो गया है।”

बावनदास जी आ रहे हैं।…आश्रम के बूढ़े कुत्ते बिलेकपी (ब्लैक प्रिंस) ने बावनदास को दूर से ही पहचान लिया है। अशोक गाछ के नीचे वह इसी तरह लेटा रहता है और हर आने-जानेवाले को देखता है। बावनदास को देखके कान खड़ा कर गर्दन उठाकर देखता है। दुम भी हिला रहा है।…ससांक जी ने इस कुत्ते का नाम रखा था-ब्लैक प्रिंस। सोशलिस्ट पार्टी के चिनगारी जी ने ‘लाल पताका’ में, जिला के एक मारवाड़ी को ब्लैक प्रिंस लिखा था, अर्थात्‌ जो ब्लैक करने में मशहूर हो । चूँकि मारवाड़ी एकदम नौजवान था इसलिए प्रिंस लिखा था। मारवाड़ी ने मुकदमा ठोंक दिया था कि ‘लाल पताका’ के सम्पादक ने उसे कुत्ता कहा है।…बिलेकपी ने ठीक पहचाना है।…बावनदास जी भी अशोक की छाया में बिलेकपी के पास आकर बैठ गए। अहा…हा !…प्यार का भूखा बिलेकपी ! खुशी से उछल-कूदकर, दौड़कर कभी बावनदास जी की झोली दाँत से पकड़कर खींचता है, कभी लाठी लेकर भागता है ! अ-हा-हा !

“अ-हा-हा ! बिलेकपी रे !…बाल झड़ रहे हैं। पहले तो रविवार को निरजला-अनसन करते थे। तुम दूध-हलुवा भी नहीं सूंघते थे। सुनते हैं, आजकल मूर्गी की हड्डी चबाते हो। तुम्हारा क्या कसूर भैया ! घाव भी हो गया है।…बदमासी मत करो। झोली में क्या है जो देंगे ! जाओ, झोली में कुछ नहीं है !”

“काऊँ-काऊँ-क्यूँ !” बिलेकपी धरती पर चित्त होकर लेटा हुआ काऊँ-काऊँ कर रहा है और बावनदास की झोली को दाँत से खींचता है।

बावनदास जी धीरे-से एक कागज की पुड़िया निकालते हैं। बिलेकपी और भी जोर-जोर से काऊँ-माऊँ करने लगता है। उसकी यही आदत है। बावनदास जब आता है, उसके लिए एक आने का मंडा खरीदता आता है। बावनदास एक टुकड़ा मंडा उसे देता है। बिलेकपी चट से खाकर मुँह देखता है बावनदास का।

“अब क्या लेगा, अंडा ?”

14

(तहसीलदार साहब अपने नए दोमंजिले की छत पर बैठकर देखते हैं-धान के खेतों में अब धानी रंग उतर आया है। बालियाँ झुक गई हैं। पचीस दिन कातिक के बीत गए हैं। अखता धान की अब कटनी शुरू हो जाएगी ।…चारों ओर तहसीलदार साहब की जमीन ! पूरब, वह जो ताड़ का पेड़ दिखाई पड़ता है कमला के उस पार… वहाँ तक और उत्तर, बूढ़े बरगद तक । दक्खिन में, संथालों की जमीन दखल करने के बाद, पिपरा गाँव तक तहसीलदार के पेट में चला आया है। घर के पच्छिम ततमाटोला के पास पचास एकड़ जमीन की एक ही जमा है। खजाना लगता है सिर्फ दस रुपया । तहसीलदार साहब के बाप ने भी इस जमा को दखल करने की हरचंद कोशिश की थी, मगर गोटी नहीं बैठी। तहसीलदार साहब ने भी अपनी तहसीलदारी के समय बहुत कलम चलाई, लेकिन तुम कैथ तो वह भूमिहार ! वह जमीन धरमपुर के भैरोबाबू की है। तहसीलदार साहब की आँख की किरकिरी वह जमीन ! इस दोमंजिले की छत पर बैठने से जमीन की भूख और तेज हो जाती है। लिखा-पढ़ी, दलील-दस्तावेज, मरम्मत से लेकर, अकेले में बैठकर, तरह-तरह के पैंट (प्वायंट) भी यहीं सोचते हैं वह।…नीचे उतरते ही उनका चेहरा बदल जाता है। तब पोखर में स्नान करने से लेकर भोजन पर बैठने तक वह न जाने कौन शास्तर का मन्तर बुदबुदाते रहते हैं, ओं-ग-मिरिंग…शिवा…आ…य। ओं ग-मिरिंग… !

रोज खाने के समय तहसीलदार साहब धीरे से पूछते हैं, “दीदी कैसी है ?”

“आज बहुत खुश है तुम्हारी बेटी !”

“सच ? कमली की माँ, रात तो मुझे नींद ही नहीं आई।” तहसीलदार साहब जिस दिन खाने के समय खुश हुए, उस दिन जो भी सामने जला-पका, मीठा-नमकीन रहा, सब खा जाते हैं।

“अभी कहती थी कि ‘इन्दिरा’ को उसका स्वामी मिल गया।…बहुत खुश है।”

“पगली !” तहसीलदार साहब हँसते हैं।

“रात को अचानक कमली के कमरे से रोने की आवाज आई !…कमली हिचकियाँ लेकर रो रही थी। माँ को तो जड़या-बुखार की तरह कँपकँपी लग गई। तहसीलदार साहब की आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। माँ ने अपने को बहुत सँभालके पूछा, “क्या है बेटी, क्या हुआ ! बोल कमल ! कमली ! बेटी ! बोल बेटा ! मैना मोरी !”

“माँ ! मैं अपने लिए नहीं रोती हूँ।…यह…देखो न ! इन्दिरा के लिए…।” कमला कहते-कहते फिर हिचकियाँ लेती है।

“कौन इन्दिरा ?…कौन है वह ?”

“कौन इन्दिरा ?…हाँ, तुम क्या जानो ! माँ, इस किताब की इन्दिरा के लिए रो रही हूँ।…बेचारी पहले-पहल ससुराल जा रही थी, डोली पर चढ़के। मन में कितने मनसूबे बाँधकर दुलहिन इन्दिरा ससुराल जा रही थी। एक पुराने तालाब के किनारे डोली रुकी। वह पोखर बिजूवन-बिजूखंड जैसे एक जंगल के पास ही था। बहुत खुनियाँ जगह थी। इसीलिए साथ में सिपाही लोग थे। लेकिन, इन्दिरा को डकैत लोग डोली सहित उठाकर ले गए। दिन-दहाड़े डकैती हो गई। लेकिन माँ, उसकी सबसे बड़ी चीज बच गई है, उसकी इज्जत ! अभी वह उसी बिजूवन-बिजूखंड जैसे घोर जंगल में है माँ ! बेचारी इन्दिरा !”

कमला बंकिमबाबू की पुस्तक ‘इन्दिरा’ पढ़कर रो रही थी।…आज वह खुश है। इन्दिरा को उसका स्वामी फिर मिल गया।

तहसीलदार साहब कहते हैं-“यह पागलपन नहीं कमला की माँ ! बेटी मेरी बड़ी समझदार है। मोम का कलेजा है ! बाबा विश्वनाथ ! मंगल करना !”

“कल डाक्टर से भेंट किए या नहीं ?” माँ पूछती है।

“हाँ, रात में तो सुना ही नहीं सका। बड़ा झंझट का काम है। दर्खास्त दिया तो पूछा कि डाक्टर आपके कौन हैं। मैं क्या जवाब दूं ? कहा, कोई नहीं। बस, नामंजूर कर दिया दर्खास्त । किरानीबाबू बड़े भले आदमी थे। वे बोले कि डाक्टर साहब नजरबन्द हैं, इसलिए वे सिर्फ माँ, बाप, स्त्री और बहन से ही खत-किताबत कर सकते या मिल सकते हैं। क्या कानून है ! बहन को चिट्ठी दे सकते हैं, बहनोई को नहीं। स्त्री से भेंट कर सकते हैं, लेकिन साथ में ससुर रहे तो वह बेचारा अपने जमाई का मुँह भी नहीं देख सकता !” तहसीलदार साहब मुँह धोकर, बगल की कोठरी में जाते-जाते कहते हैं, “प्यारू वहीं पूर्णिया में ही रहता है। एक होटल में खाता-पीता है। जेल के अन्दर से ही डाक्टर ने गनेश का इन्तिजाम कर दिया है, वरमो-समाज मन्दिर में। हर महीने दस्तखत करके चिक भेज देता है डाक्टर। प्यारू और गनेश के नाम से अलग-अलग चिक देता है। जो भी कहो, आदमी बहुत अच्छा है यह डाक्टर ! प्यारू कहता था, एक दिन वह दूध के ठेकेदार के साथ अन्दर चला गया। अन्दर जाकर, फाटक के पास ही, डाक्टर साहब से भेंट हो गई। डाक्टर साहब जेल आफिस में आ रहे थे। प्यारू को देखकर अचकचा गए डाक्टर साहब। फिर कहा, क्यों आए ? प्यारू ने कुछ जवाब नहीं दिया तो पूछा, मेरीगंज से कब आए हो ?…कमला कैसी है ?”

“ऐं ? पूछा ? डाक्टर ने पूछा था ? प्यारू ने क्या जवाब दिया ?”

कमली की माँ एक ही साँस में उतावली होकर पूछती है, “न जाने क्या बता दिया उसने ?”

“नहीं, प्यारू बेवकूफ नहीं है। जवाब दिया, अच्छी है। आपका फोटो ले गई है, रोज सुबह उठकर देखती है।”

“अच्छा ? कहा उसने ? कितना होशियार है प्यारू ! आ-हा-हा ! भगवान भी कैसे हैं ? कोई नहीं है बेचारे को।…तब डाक्टर ने क्या कहा ?”

“कहता था, हँसते-हँसते चले गए।” तहसीलदार साहब ने मुँह में पान डाल लिया।…अब बात फुरा गई।

मारे खुशी के कमली की माँ भरपेट खा भी नहीं सकती है। माँ-बेटी साथ ही खाती हैं रोज। आज कमली बार-बार टोकती है, “माँ, खाओ भी, पुरैनियाँ की कथा पीछे होगी।…बलैया मेरी किसी का फोटो देखेगी।”

आज से माँ बैठकर उपनियास सुनेगी। कमली फिर शुरू से ‘इन्दिरा’ पढ़कर सुना रही है। कमली कहती है, “माँ शकुन्तला, सावित्री आदि की कथा पढ़ने में मन लगता है, लेकिन उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है कि यह देवी-देवता, ऋषी-मुनि की कहानी नहीं, जैसे यह हम लोगों के गाँवघर की बात हो।”

आज दो दिनों से खाने-पीने के बाद कमली के गर्भ में पलता हुआ शिशु हाथ-पाँव फड़पड़ाता है। लाज से वह कुछ कहती नहीं है माँ को। लेकिन जब से उसे आनेवाले की आहट मिली है, कमली का मन किसी दूर में खो-सा गया है। एक ही साथ बहुत-से बच्चों के मुखड़े खिलखिला उठते हैं उसकी आँखों के आगे ! बच्चे उसके साथ आँखमिचौनी खेल रहे हैं ? कौन हैं वह ? सभी प्यारे ! ताजे कमल की तरह खिले हुए। वह किसका हाथ पकड़े ? वह एक चंचल बालक को उठाकर गोद में ले लेती है। कितने कोमल हैं उसके हाथ-पैर, कैसी मीठी मुस्कराहट ! कितना चंचल ! मेरा…चुलबुला राजा रे !…कमली की छाती से दूध झरने लगता है।

“कमली की माँ !” तहसीलदार साहब दोमंजिले की कोठरी से पुकारते हैं।

“जरा इधर तो आना कमली की माँ !”

दोमंजिले पर पैर रखते ही तहसीलदार साहब की बुद्धि, उनके विचार, उनकी बोली-बानी सब बदल जाती है। जबड़े की हड्डियाँ खुद-ब-खुद चलती रहती हैं, मानो कोई चीज चबा रहे हों।

“कमली की माँ ! मैं अब फाँसी लगाकर मर जाऊँगा। मुझे नींद नहीं आती है। क्या होगा ? कुछ सोचती हो ?…कोई उपाय ? दुश्मन को भी ये दिन कभी देखने न पड़ें ! तुम तो अब दिन-रात बेटी के पास रहती हो, मेरा जी अकेले में घबराता है। तुम्हारी नागिन बेटी ने ऐसा डंसा है कि…” तहसीलदार साहब आवेश में आकर खड़े हो जाते हैं।

“छिः ! कमली के बाबू ! कैसी बातें करते हो ?”

“चुप रहो तुम ! तुम दोनों ने मुझे… । हट जाओ !”

“कमली के बाबू, बैठ जाओ ! चिल्लाओ मत, लड़की सुन लेगी।”

“सुन लेगी ! हुँ, बड़ी लाट साहब की बेटी आई है !”

“कमली के बाबू!”

“चौप !”

बूढ़ी नौकरानी आकर कहती है, “चाह पीयै ले बजबै छथिन दाय…नीचाँ !”

“चलो।”

कमली अब भी रोज दोनों वक्त अपने हाथों से चाय बनाकर भेजती है अपने बाप को। कमली कहती है, “बाबा एक सौ प्यालियों के बीच, सिर्फ रंग देखकर मेरी बनाई हुई चाय पहचान लेंगे।”

नीचे के कमरे में बैठकर, चाय की प्याली में चुस्की लेते ही तहसीलदार साहब की तनी हुई रगें ढीली पड़ जाती हैं, चेहरा स्वाभाविक हो जाता है।

“सेबिया को रजाई भरवा दो इस बार, नहीं तो बूढ़ी इस जाड़े में गठिया से नहीं उबर सकेगी।” तहसीलदार साहब कहते हैं।

“तुम्हारी बेटी तुम्हारे लिए ऊनी गंजी बिन रही है।…किताब खोलकर सामने रख लेती है, दोनों हाथों में सलाई लेकर किताब में देख-देखकर जब बिनने लगती है कमली, तो लगता है हाथ नहीं मिसीन है।”

“सच ? अहा ! बेचारी…! मेरे-जैसे अभागे के घर में जन्म लेकर बचपन से दुख-ही-दुख भोगती आ रही है दीदी मेरी ! कमली की माँ, तुमको याद है, जब सिर्फ एक साल की थी कमली, उसी समय मैंने कहा था कि मेरी बेटी सन्तोख की पुतली बनकर आई है।”

सेबिया हँसती हुई अधूरा स्वेटर ले आती है।

“यही देखो !” माँ हाथ में लेकर दिखलाती है, “अपनी बेटी की कारीगरी देखो !”

तहसीलदार साहब मुस्कराते हुए देखते हैं, फिर सेबिया को इशारा करते हुए कहते हैं, “यह तो बहुत बड़ा होगा मेरी देह में। मेरे लिए तो इतना छोटा (…एक बच्चे के बराबर)… चाहिए ! इ त ना छोटा !”

“ऊँ ।” सेबिया गाल पर हाथ रखकर हँसते हुए कहती है, “बतहा (पागल) !”

माँ कहती है, “दे आओ ! कहना, बहुत बढ़िया है।”

बहुत पुरानी नौकरानी है सेबिया। कमली की माँ के बचपन की सहेली है वह ! साथ-साथ खेली है। बचपन में ही बेवा हुई, चुमौना की बात सुनते ही हफ्तों रोती रहती और नदी में डूबने जाती। कमली की माँ के साथ यहाँ आई और अब तक है। गठिया के कारण शरीर बहुत कमजोर हो गया है और एक कान से कम सुनती है।

कमली कहती है-सेबिया माई !

“ए ! सेबिया माई !”

बूढ़ी रोज चुराकर चूल्हे की लाल मिट्टी के टुकड़े दे आती है कमली को। कितनी सोंधी लगती है चूल्हे की मिट्टी !

“माँ, सेबिया माई पूछती थी, जमाई कब आवेगा ?”

तहसीलदार साहब दोमंजिले की छत पर खड़े होकर देख रहे हैं। पच्छिम की ओर डूबते हुए सूरज की लाल रोशनी ‘धरमपुर-मिलिक’ के खेतों पर फैली हुई है। रंग धीरे-धीरे बदल रहा है। लाल धुँधला लाल, मटमैला… ! अब अँधियारी बढ़ी आ रही है।” तहसीलदार साहब की इयोढ़ी, चहारदीवारी भी अब अँधेरे में डूब गई।

15

बालदेव जी घोड़ागाड़ीवाले से कहते हैं-“देखो जी, आप यदि ‘टैन’ पकड़ा दो तो आठ आना बकसीस देंगे !”

“देखिए, अपने जानते कोसिस तो हम खूब करेंगे !…चल बेटा ! कदम-कदम बढ़ाके !” घोड़ेवाला छोकरा घोड़े को चाबुक लगाते हुए गाता है, “झगड़ा सुरू हुआ है सारे हिन्दुस्तान में, हिन्दू-मुसलमान में ना…”

बालदेव जी को आज मालूम हुआ कि महतमा जी दो महीने से लगातार पटना में थे। रोज प्रार्थना सभा में ‘भाखन’ देते थे महतमा जी !…आजकल ‘डिल्ली’ में हैं।

“…ऐं ! कौन गाड़ी बिगुल दिया जी ?”

“अभी सिंगल डौन भी नहीं हुआ है। देरी है।”

“देरी है ? वाह बहादुर !”

स्टेशन पर बालदेव जी ने भाड़ा के अलावा एक अठन्नी बकसीस में दिया तो घोडागाड़ी वाले छोकरे ने बड़े ‘कैदा’ से हाथ चमकाके सलाम किया, “सलाम हजौर !”

किसी जवान स्त्री को देखते ही बालदेव जी को झट से लछमी की याद आ जाती है। मन-ही-मन सोचते हैं, यदि थोड़ी देर गांगुली जी के यहाँ और हो जाती तो आज सरमा जी आने नहीं देते। चलते-चलते सरमा जी ने आखिर दिल्लगी कर ही लिया, “अच्छा तो बालदेव, जाओ ! हम बेकूफ हैं जो तुमको रोकेंगे ? तुमको यहाँ रोक लें और उधर तुम्हारी कोठारिन किसी से ‘सतसंग’ करने लगे तो हुआ !…हा-हा-हा ! माफ करना, अच्छा तो जै हिन्द !”

“जै हिन्न बालदेव जी !”

“कौन ? खलासी जी ! कहिए क्या हाल है ?”

“हम तो अभी आ रहे हैं मेरीगंज से।…जाइए रौतहट टीसन में आपकी बैलगाड़ी लगी हुई है। गए थे रोकसती (रुखसत) कराने के लिए। आज दस दिन के बाद लौटे हैं। हमारे जलाना को गरम हवा लग गया था। झाड़-फूंककर साथ लेते आए हैं !…अ हा ! आज दस बजे हम आपके आसरम के तरफ गए थे, एक जड़ी खोजने के लिए। आसरम देखकर मन होता था कि यहाँ से कहीं नहीं जाएँ। आप तो थे नहीं, कोठारिन जी थीं। साहेब बनगी किया, सुपाड़ी-कसैली खाया। एक नवतुरिया साधू जी इतना बढ़िया गा-गाकर बीजक पढ़ रहे थे कि जी होता था बैठे रहें।…अच्छा तो जै हिन्न !”

नवतुरिया साधू ?…काशी जी का बिदियारथी जी है। महन्थ सेवादास के समय से ही मठ पर आता है, साल-दो साल के बाद । महन्थ साहब जाने के समय धोती, चादर, किताब का दाम और राह-खर्चा देते थे।…मोती के जैसा अक्षर लिखता है।…लछमी ने जो बीजक दिया था बालदेव जी को, इसी बिदियारथी जी का लिखा हुआ था। इस बार आए हैं तो कहते हैं कि मठ पर जी नहीं लगता है। लेकिन लछमी तो अब मठ की कोठारिन नहीं ! एक भले घर की ‘इसतिरी’ है।

…जब मैं घर में नहीं था तो वह क्यों गया ? आखिर लोग क्या सोचते होंगे ? नहीं, यह अच्छी बात नहीं ? लछमी को समझा देना होगा।

बालदेव जी की मौसी रोज सुबह ही उनके आसरम के सामने आकर बैठ जाती – है और गिन-गिनकर गालियाँ सुना जाती है, “अरे भकुआ रे !…एही दिन के लिए पाल-पोसके इतना बड़ा किया था रे !…मुड़िकटौना रे ! लछमिनियाँ ने तो तुमको मोखा की माटी (भूतप्रेत की हवा) खिलाकर बस कर लिया है। भेंडा बनाकर रख लिया है। रे बेलज्जा, मोटकी-घुमसी की सूरत पर कैसे भूल गया रे !” और लछमी कभी सेर-भर चावल, पाव-भर दाल अथवा गेहूँ, आलू वगैरह देकर उसे विदा करती है।

एक पहर साँझ हो गई है। सर्दी काफी पड़ने लगी है अब । बालदेव जी चादर से कान को ढंक लेते हैं लेकिन, कान तो गर्म है।…बिदियारथी जी…

“अरे हाँ, हाँ ! ठहर ! साला ! आदमी देखकर भी भड़कता है ?” गाड़ीवान ने बैलों को रोकते हुए पुकारा, “गोसाईं जी !…उठिए, आ गए घर।”

बालदेव जी जगे ही हुए हैं। उठते ही दूर पेड़ की छाया में किसी को जाते देखते हैं।…ओ ! बिदियारथी जी अभी जा रहे हैं। इसीलिए बैल भड़के थे !

“साहेब बन्दगी !” लछमी पैर छूकर साहेब बन्दगी करती है।

बालदेव जी मिनमिनाकर कुछ कहते हैं और सीधे अपनी आसनी पर चले जाते हैं ।

“मेरा कम्बल कौन ओढ़ा था ?” बालदेव जी बिछावन पर पड़े हुए कम्बल को नाक सिकोड़कर देखते हुए पूछते हैं, “मेरा कम्बल क्यों ओढ़ा था वह ?”

“कौन ?”

“और कौन ? मालूम होता है सपना देखती हो !” बालदेव जी का माथा गर्म है।

“रामफल ! …तुम लोग खा लो ! हमको भूख नहीं ! हम नहीं खाएँगे।” बालदेव जी जोर-जोर से कम्बल झाड़ते हुए कहते हैं, “दुनियाँ-भर का आदमी आकर आसन पर सोएगा !”

लछमी कई दिनों से देखती है, बालदेव जी बात-बात पर बिगड़ जाते हैं। वह आकर दरवाजे के पास खड़ी हो जाती है, “आसन झाड़ा हुआ है।…बिदियारथी जी तो ओसारे पर बैठे थे।”

“क्यों ? ओसारे पर क्यों थे ? घर में नहीं बैठते हैं बिदियारथी जी ? सूने घर में जैसा घर, वैसा ओसारा।” बालदेव जी के ओंठ फड़क उठते हैं।

“बिदियारथी जी आते हैं सतसंग करने के लिए… !”

“हाँ, हाँ ! खूब समझते हैं। सतसंग… ! हुँ…सतसंग !” बालदेव जी घृणा से मुँह सिकोड़ लेते हैं।

न जाने क्यों, आज सतसंग सुनते ही उनकी देह में झरक-सी लगती है। छोटनबाबू ने कहा था-‘सतसंग कर रहे हैं।’…दोरिक सरमा ने आखिर कह दिया, ‘कोठारिन किसी के साथ सतसंग…!’

“सतसंग ही करना है तो उनकी आसनी यहीं लगा दो। दिन-रात खूब सतसंग करती रहना।” बालदेव जी ओंठ टेढ़ा करके एक अजीब मुद्रा बनाकर, हाथ चमकाकर कहते हैं, “सतसंग !”

“गुसाईं साहब !” लछमी के भी नथने फड़क उठते हैं, “ऐसा क्यों बकते हैं !”

“तुम हमको टिरिकबाजी दिखाती हो ?…हम सब समझते हैं।”

“क्या समझते हैं ?”

बाँहें क्यों मरोड़ती है लछमी ?…मारपीट करेगी क्या ! गुस्सा से थर-थर काँपती है, “बोलिए ! क्या समझते हैं…रंडी समझ लिया है क्या ? ठीक ही कहा है, जानवर की मूंड़ी को पोसने से गले की फाँसी छुड़ाता है मगर आदमी की मूंड़ी…”

“हम तुम्हारे पालतू कुत्ता नहीं। हम अभी चन्ननपट्टी चले जायेंगे, अभी !” बालदेव जी उठकर खड़े होते हैं।

“गोस्सा मत होइए गोसाईं साहेब ! करोध पाप को मूल ! जाते-जाते देह में अकलंग (कलंक) लगाकर मत जाइए।

बालदेव जी कुछ सोचकर बैठ जाते हैं। लछमी की देह से गंध निकलती है । चुपचाप लछमी की ओर देखते हैं वह। लछमी चुपथाप किवाड़ के सहारे ख़डी आंसू पोंछते हुए सिसकती है, “मेरी तकदीर ही खराब है।”

लछमी रो रही है !…बालदेव जी का गुस्सा धीरे-धीरे उतर जाता है। वह उठते हैं, लछमी के सर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं, “रोओ मत ! तुम पर भला संदेह करेंगे ? रोओ मत ! लेकिन तुमको अब खुद समझना चाहिए कि तुम अब मठ की कोठारिन नहीं, मेरी इसतरी हो। लोग क्या कहेंगे ।”

लछमी बालदेव जी के पाँव पर गिर पड़ती है, “छमा प्रभू ! दासी का अपराध…।”

“छि:-छि: ! लछमी, उठो; चलो भूख लगी है।”

16

डाक्टर नजरबंद है।

जेल अस्पताल के एक सेल में उसे रखा गया है। हर सप्ताह कोई-न-कोई ऑफिसर आकर उसे घंटों परेशान करता है, तरह-तरह के प्रश्न पूछता है ।” …चलित्तर कर्मकार के दल से डाक्टर का कोई संबंध प्रमाणित करने के लिए पुलिस जी-तोड़ परिश्रम कर रही है।

“आप जानते हैं चलित्तर कर्मकार किस पार्टी का मेंबर है ?”

“जी नहीं। मैंने चलित्तर कर्मकार का नाम भी नहीं सुना।”

“नहीं सुना ? जिले-भर के बच्चे तक जानते हैं।”

चलित्तर को कौन नहीं जानता ! बिहार सरकार की ओर से पंद्रह हजार इनाम का ऐलान किया गया है। हर स्टेशन के मुसाफिरखाने में उसकी बड़ी-सी तस्वीर लटका दी गई है। पुलिस, सी.आई.डी. और मिलिटरी का एक स्पेशल जत्था उसे गिरफ्तार करने के लिए साल-भर से जिले के कोने-कोने में घूम रहा है। नए एस. पी. साहब ने प्रतिज्ञा की है, या तो चलित्तर को गिरफ्तार करेंगे अथवा नौकरी छोड़ देंगे ।… घर-घर में चलित्तर की कहानियाँ होती हैं। नेताजी के सिंगापुर में आने के समय गाँव-घर, घाट-बाट, नाच-तमाशा में लोग जैसी चर्चा करते थे, वैसी ही चर्चा चलित्तर की भी होती है। …कटहा के बड़े दारोगा से थाने पर जाकर, भेंट करके, बातचीत करके, पान खाकर और नमस्ते करके जब उठा तो हँसकर कहा, हम ही चलित्तर कर्मकार हैं। दारोगा साहब को दाँती लग गई।…कलक्टर साहेब दार्जिलिंग रोड से कहीं जा रहे थे, डंगरा घाट की नाव बह गई थी । कलक्टर साहेब लौटे आ रहे थे कि एक आदमी ने आकर सलाम किया और कहा कि चलिए, उस पार पहुँचा देते हैं। कलक्टर साहेब तो मोटर में बैठे ही रहे, उस आदमी ने मोटर सहित कलक्टर साहेब को नदी तैरकर पार कर दिया। सिरिफ मोटर का एक पहिया एक हाथ से पकड़े रहा । उस पार जाकर कलक्टर साहेब ने खुश होकर इनाम देने के लिए नाम-गाम पूछा तो बताया-चलित्तर कर्मकार ।” …कलक्टर साहेब के हाथ से कलम छूटकर गिर गई ।…रोते हुए बच्चे को रात में माँ डराती है-आ रे ! चलित्तर, घोड़ा चढ़ी !

और डाक्टर कहता है कि उसने चलित्तर का नाम भी नहीं सुना ! कैसे विश्वास किया जाए ? …विराटनगर के बड़े हाकिम ने लिखा है, डाक्टर नेपाल की प्रजा नहीं ।… बंगालवालों का जवाब आया है, बंगाल से उसका कोई संबंध नहीं। तो आखिर कहाँ का आदमी है ? पुरानी फाइलों को उलटने से बातें और भी उलझ जाती हैं। अजब झंझट है ! उधर विधान सभा में सवाल पूछा गया है-डाक्टर को क्‍यों नजरबंद किया गया है ? बड़ी मुश्किल है ! एस. पी. साहब बहुत कड़े आदमी हैं। कटहा के छोटे दारोगा को गलियाकर ठीक कर दिया है।

जेल में दाखिल होने के बाद डाक्टर को लगा, इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता थी । जेल ! अस्पताल का यह सेल ! ऑफिसरों का आना-जाना और पूछताछ पंद्रह-बीस दिनों के बाद ही बंद हो गई। …गाँधी जी पटना की प्रार्थना सभा में रोज प्रवचन देते हैं। दैनिक पत्रों के ये पृष्ठ कभी पुराने नहीं होंगे। इन प्रवचनों पर बहस नहीं की जा सकती है, किसी सेल में बैठकर इसका अध्ययन किया जा राकता है। …अभी कल कुछ सम्प्रदाय-वादियों के एक बड़े जलसे का उद्घाटन किया है प्रांत के एक बड़े जग-जाहिर नेता ने। …मालूम होता है चालबाजी बहुत दूर तक चली गई है। महात्मा गाँधी से भी काली-टोपी स्वयंसेवक-दल के लिए प्रशंसा के शब्द वसूलना हँसी-खेल की बात नही ! मन में किसी ने कहा था, उन्हें धोखा दिया गया है। और तीसरे ही दिन बात स्पष्ट हो गई। गाँधी जी ने बयान में कहा, “इस संस्था के संचालकों ने मेरे पास अपनी संस्था का उद्देश्य छिपाया, इसका मतलब हुआ, उनकी आत्मा कहती है कि वे असत्य मार्ग पर हैं। फिर कोई सही दिमागवाला आदमी उन्हें कैसे कहेगा कि वे सही रास्ते पर हैं !… मेरीगंज की याद आती है! …कमला की बड़ी चिंता थी, मगर सुना है, वह ठीक है। कमला की याद आते ही जेल की सारी कुरूपताएँ सामने आकर खड़ी हो जाती हैं । कालीचरन, बासुदेव वगैरह डकैती-केस में फँसकर आए हैं। बासुदेव, सुंदर और सोमा की बात नहीं जानता, लेकिन कालीचरन ? विश्वास नहीं होता। कुछ कहा भी नहीं जा सकता है।…तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की अब पाँचों उँगलियाँ घी में होंगी। लेकिन यह अन्याय कितने दिनों तक चलेगा ?… तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद ने एक दिन हँसकर कहा था, “जिस दिन धनी, जमींदार, सेठ और मिलवालों को लोग राह चलते कोढ़ी और पागल समझने लगेंगे उसी दिन, उसी दिन असल सुराज हो जाएगा। आप कहते हैं कि ऐसा जमाना आवेगा। जब जमाना आवेगा तो हमारी संपत्ति छीनी जाएगी ही। और अभी संपत्ति बटोरने पर तो कोई प्रतिबंध नहीं । तो फिर बैठा क्यों रहूँ ?” तहसीलदार साहब भी अजीब आदमी हैं। लेकिन वह जेल से छूटकर मेरीगंज ही जाएगा । और कहाँ जाएगा वह ?…नेपाल ? नेपाल के लोगों ने ‘नेपाल राष्ट्रीय काँग्रेस’ की स्थापना की है। नहीं, राजनीति में वह नहीं जाएगा। वह राजनीति के काबिल नहीं। एक बार ममता ने बातें करते हुए राजनीति की तुलना डाइन से की थी। …डाइन ! …मौसी को लोगों ने मार ही डाला । मौसी …गणेश… कमला ! लाख चेष्टा करने पर भी उसकी सूरत आँखों के आगे आ जाती है ।

“डाक्टर साहब !” असिस्‍टेंट जेलर साहब आए है, “ब्राह्मसमाज मंदिर के सेक्रेटरी आए हैं। आपका भांजा बीमार है। आपसे उसके इलाज के बारे मे कुछ सलाह लेने आए हैं। जेलर साहब आपको बुला रहे हैं।”

“ओ ! चलिए !”

17

डेढ़ महीने से कालीचरन जेल में है। वासुदेव, सुनरा, जगदेवा, सोमा और सोनमा सब एक ही केस में नत्थी हैं । इस बीच एक तारीख को कचहरी के मजिस्टरी-इजलास में हाजिरी हुई है। एक गाड़ी मिलिटरी आगे और एक गाड़ी पीछे ! सभी को हथकड़ी और बेड़ी डालकर कचहरी लाया गया था । उस दिन कालीचरन की निगाह, पुलिस की लौरी से जितनी दूर जा सकती थी, चारदीवारी पर थी। …कचहरी की हाजत में पेशाब की गंध इतनी तेज क्यों होती है। कालीचरन की निगाह सेक्रेटरी साहेब पर पड़ी, उनसे आँखें मिलीं। कालीचरन का चेहरा खिल गया। तीन महीनों से जिनकी सूरत आँखों के आगे नाच रही थी। “सेक्रेटरी साहेब ! …कृष्णकान्त मिश्रजी !” कालीचरन ने चिल्लाकर कहा, “जय हिंद कौमरेड !” सेक्रेटरी साहेब ने तुरन्त कनपट्टी इस तरह फेर ली मानो कान के पास मधुमक्सी न अचानक काट लिया। फिर उसी हरह गर्दन टेढ़ी किए आगे बढ़ते गए। कालीचरन को सिपाही ने डाँट दिया, “का हो ससुरे ! बिना हण्टर के बात न मनबऽ !” उधर सेक्रेटरी साहब काँटेवाले तार के घेरे में फंसते-फंसते बचे। …एकमुँहा होकर जो चलेगा वह काँटे में तो जरूर फंसेगा। तिस पर इधर सिपाही जी ने कालीचरन को डाँटा सुनरा तो खिलखिलाकर हँस पड़ा । लेकिन इसमें सेक्रेटरी साहेब का क्‍या कसूर ! चोर-डकैतों से सभी भले लोगो को दूर रहना चाहिए । वासुदेव, सुनरा, सोमा, सनिचरा वगैरह आखिर डकैत ही तो है । और सिकरेटरी साहेब उसे भी डकैत समझ रहे हैं। कोई उपाय नहीं।

…कोई उपाय नहीं ? लेकिन आज मांस का दिन है। जाड़े के समय सप्ताह में एक साम, कैदियों को मांस मिलता है। साम को बैस्नव और साकट को खिलाते खिलाते काफी अँधेरा हो जाता है। अस्पताल के पिछवाड़े के वाडर साहेब मांस जोगाड़ करने के लिए चले जाते हैं। आज कोसिस करके देखना चाहिए ! …

कालीचरन ने फैसला कर लिया है। यदि मौका मिला तो वह जरूर कोसिस करेगा । हाँ, वह भागेगा। और कोई उपाए नहीं। उसने सब पता लगा लिया है। जेल से भागने की सजा सिरिफ छः महीना है। डंडा-बेड़ी और लाल टोपी पहननी पड़ेगी। …लोग कहेंगे ललटोपिया, और क्‍या ? लाल रंग खराब तो नहीं। …सिकरेटरी साहेब और धरमपुरी जी से मिलकर वह बात करना चाहता है। उसके बाद उसे फाँसी-सूल्ली जो भी मिले, वह खुशी-खुशी झेल लेगा । पाटी की इतनी बडी बदनामी कराके वह जीकर ही क्‍या करेगा !

बासुदेव, सुनरा और सनिचरा तो चोर-डकैतों के साथ इस तरह हिलमिल गए हैं कि उन्हे देखकर लाज आती है कालीचरन को । बासुदेव ने डाक्टर नटखट प्रसाद से दोस्ती कर ली है। डाक्टर नटखट ! नामी सिकचिल्ली (शेखचिल्ली) आदमी है यह डाक्टर । फारबिससगंज की तरफ का है। डकैती केस में आया है। अचरज की बात है ! उस डाक्टर को देखकर किसी को विश्वास ही नहीं होगा कि उसने आदमी को मारने के सिवा कभी जिलाने का भी काम किया है। चेहरा ठीक कसाई की तरह है। बासुदेव का उसके साथ भी खूब हेलमेल देखते हैं। रात में जूआ भी खेलता है। बासुदेव कालीचरन से नहीं बोलता है। वह दूसरे स्टाल में रहता है। उस दिन दाल-कमान में थोड़ी देर के लिए भेंट हुई। कालीचरन ने सिरिफ इतना ही पूछा, ‘बासुदेव तुमको यही करना था ?’ …बासुदेव के साथ एक कलकतिया पाकिटमार था। दोनों एक साथ खिलखिलाकर हँस पड़े । जाते समय बासुदेव ने कहा, “जिस समय सात सौ रुपैया का पुलिंदा बाँधकर सिकरेटरी साहब को देने गए थे, उस दिन क्यों नहीं पूछा था कि चार दिन के भीतर कहाँ से इतना रुपैया वसूल हुआ ? ”…उसी शाम को पानी टंकी के पास डाक्टर नटखट ने उसको रोककर कहा था, “कालीचरन, कोई रास्ता नहीं। तुम यदि चाहो तो तुम्हारा जमानतदार भी होगा और मुकदमा में बेदाग छूट भी जाओगे। सोचना ! सोचकर देखना ! पाटी-वाटी कोई काम नहीं देगी।”

…थू ! थू ! जेल में आकर काली को खैनी की आदत पड़ गई है। डाक्टर साहेब …अपने गाँव के डॉक्टर ने जमादार से उस दिन जेल-गेट पर हंसकर कहा था, “सिपाही जी ! कालीचरन का जरा ख्याल रखिएगा ।” …देवता है डॉक्टर साहेब ! जरूर देवता है !…सिरिफ खैनी ही नहीं, कभी-कभी बीड़ी भी जमादार साहेब दे देते हैं। …थू ! थू ! थूक है ऐसे पैसे पर ! डाक्टर नटखटप्रसाद की बात वह नहीं मानेगा। सोमा ने भी एक बार दबी जबान कहने की कोसिस की थी, “उस्ताद!…!” “चुप उस्ताद का बच्चा !” कालीचरन ने दांट बता दी थी।

उस्ताद ! जेल से बाहर, फिरार हालत में चलित्तर करमकार से उसकी भेंट हुई थी। …कौन कहता है कि वह बड़ा भारी कलेजावाला आदमी है । कुसियारगाँव टीसन के पास बड़का-धत्ता के बीच दोगछिया की छाया में भेंट हुई थी। कालीचरन को देखते ही वह अपने साथियों के साथ हाल-हथियार लेकर खड़ा हो गया था। “ हैंसप्‌ ! दारोगा साहेब जिस तरह चिल्लाए थे, उसी तरह चिल्ला उठा था चलित्तर । …कालीचरन को हँसी आ गई थी। उसके मुँह से अनजाने ही निकल पड़ा था, “अरे ! हम हैं उस्ताद ! खाली-हाथ पाटीवाला कालीचरन !” चलित्तर ने एक बार कहा था, “इस खाली हाथवाली पाटी में रहकर सब दिन खाली हाथ ही रहोगे !” पीछे तो बहुत बहस किया । आखिर में चलित्तर ने कहा था, “तुमने हमको उस्ताद कहा है। गाढ़े बिपत में कभी जरूरत पड़ने पर याद करना ।” कालीचरन ने हँसकर कहा था, “उसकी जरूरत नहीं होगी…” दुबारा उस्ताद कहते-कहते वह रुक गया था।…आज भी चलित्तर की वह बात कान में गूँज रही है, “देखना है तुम्हारी उस्तादी !”

…लेकिन, आज बासुदेव और सोमा की मदद लेनी ही होगी। एक बार मिल तो जाए, वह पटिया लेगा।

गोटी बैठ गई ।…सोमा और बासुदेव को कालीचरन ने पटिया लिया है । अस्पताल के पिछवाड़े में …!

ठीक है, अस्पताल के पिछवाड़े मे, दीवाल की छाया में बासुदेव और सोमा ही हैं। ठीक है ! दोनों ने कंधे की ओर इशारा किया।

…सब ठीक ! हत्तेरे की ! कालीचरन गिर पड़ा। तब बासुदेव और सोमा कंधा-से-कंधा भिड़ाकर खड़े हुए ।…ठीक है ! …जरा-सा, जरा-सा और ! बस, चार अंगुल ! बासुदेव और सोमा के कंधों पर कालीचरन जरा उचकता है। दोनों के कंधों का भार जरा हल्का मालूम होता है। “ऐ, ठीक है।…भागो !”

“भागा ! भागा !”

ट-टू-ऊ-ऊ… टु-टू-ऊ-ऊ ! जेल-अस्पताल के पिछवाड़े से सिपाही सीटी फूँकता है।

टु-टू-टू-टू ! बहुत-सी सीटियों की मिली हुई आवाज ।

ढन-ढन, ढनाँग-ढनाँग- ! जेल-फाटक का बड़ा घंटा घनघना उठा।

…कालीचरन पाँच मिनट तक जेल के बाहर, दीवार के पास जमीन पर बेसुध पड़ा रहा।… सीटी और घंटे की आवाज ने उसे सजीव कर दिया।… नहीं, ज्यादा चोट नहीं आई है। सिरिफ कमर में मोच आ गई है।- ढनाँग-ढनाँग …!“ जेल का घंटा घनघना रहा है…वह भागता है।

फर्ड़-र्र-र्र-र ! एक साथ कई बंदूकें गरज उठीं।

…अँधेरे में कुछ सूझता भी तो नहीं। एक घड़ी रात भी नहीं हुई है। ओस से धरती पच-पच करती है, पैर फिसल जाते हैं ?“

भर्र-भर्र र र र, सामने दार्जिलिंग रोड पर पाँच-सात मिलिटरी-लौरियाँ दौड़ रही हैं ।

कालीचरन, पाँचू बाबू वकील के घर के पिछवाड़े की एक झाड़ी में छिपकर हांफता है । सड़क कैसे टपा जाए ?…किधर से जाना ठीक होगा ? दाहिने ओर भी लोग हल्ला करने लगे हैं। पास की गली होकर घुड़सवार लोग जा रहे हैं।…

कालीचरन तय करता है, सामने बाँसवाड़ी पार करके मोबरली साहेब की पुरानी कोठी की बगल से जाना ही अच्छा होगा। अब देर नहीं करनी चाहिए।

…ऐं ? मोबरली साहेब की कोठी के पास कालीचरन को ऐसा लगा कि पीछे से कोई टार्च मार रहा है…हाँ, यह तो टार्च की ही रोशनी है।…वह जंगल में घुस जाता है। बस, थोड़ी देर यहाँ सुस्ताकर, टार्चवाले को देखकर, फिर एक दुलकी ! …एक जूम (खुराक) खैनी दिन में ही उसने चुनाकर, कपड़े के खूँट में बाँध ली थी। बहुत मौके पर अभी उस पर हाथ पड़ गया। खैनी खाकर वह झड़बेरी की झाड़ी से निकलकर साफ मैदान की ओर आता है ! …कहाँ है टार्च की रोशनी ? बाप ! एकदम पास ही !… कालीचरन भागता है। टार्च की तेज रोशनी उसका पीछा कर रही है और फिर जंगल की निःस्तब्धता को भंग करके राइफल की आवाज गूँज उठती है-फर्ड़-र-र-र !

जंगल-झाड़, काँट-कुस और अड्डा-खाई को टापता हुआ कालीचरन भाग रहा है। जंगल की लत्ती पैर छांद लेती है, मगर वह झाड़ देता है !…जाँघ में, लगता है, खोंच लग गई है।

…पार्टी आफिस के पिछवाड़े में जो घना जंगल है, वहाँ पहुँचकर उसे लगा, वह निरापद है।…अरे ! यह तो खोंच नहीं ! अरे बाप ! इतना खून ! आधा बित्ता माँस उधेड़ दिया है। खलरा लटक गया है। ओ ! गोली लगी है शायद ! …खून बंद नहीं हो रहा है। …

“कौ औऽन ? …काली च र न ?” आफिस सेक्रेटरी राजबल्ली जी किवाड़ खोलकर सचमुच अवाक्‌ हो गए । जीभ की नोक पर बोली चढ़ी ही नहीं ।…

“ऐं ? कौन ! कालीचरन ?” सेक्रेटरी साहब भी फड़फड़ाकर कमरे से बाहर आते हैं-“ओ कालीचरन ! तुम हो ? …इसीलिए शहर में इतना हल्ला हो रहा है ? जेल से भाग आए हो ?”

“जी ! लगता है, जांघ में गोली लग गई है… ।”

“तुम्हारे कलेजे पर गोली दागी जानी चाहिए। डकैत ! बदमाश !”

“सिकरेटरी साहेब ! इसीलिए तो… । इसीलिए तो… आपके …पास आए हैं। सुन लीजिए । …माँ कसम, गुरु कसम, देवता किरिया ! जिस रात… उस रात को हम… यहीं जिला पाटी आफिस में थे ।”

“राजबलल्‍ली जी, आपको बघोछ लग गया है ? किवाड़ बंद कीजिए, हटाइए इसे । …बाबू, मिहरवानी करो, चले जाओ। नहीं तो …।”

“आ आ आप हल्ला काहे करते हैं । आ आ प अंदर जाइए ।” राजबल्ली जी मौन भंग करते हैं।

कालीचरन पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा है।

मोबरली साहेब की कोठी की ओर धडाधड फायर हो रहे है फर्ड र्र र्र !

“साथी राजबल्ली जी ! सिकरेटरी…साहेब…को समझा दीजिएगा। मेरा कोई …कसूर …नहीं ।”

कालीचरन हिलता है। थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद, अब तो चला भी नहीं जा रहा है। वह दोनो पाँवों को बारी-बारी झाड़ता है। …सामने कच्चू के पत्तों पर कुछ झरझराकर गिरा। …वह धीरे-धीरे फिर -बगल के जंगल मे चला जाता है। …अब ? …वह पुरानी धोती के एक खूँट को चीरकर घाव को बाँधते हुए सोचता है-अब ?

…चलित्तर कर्मकार ने कहा था -“गाढ़े बिपद मे ख़बर करना, याद करना !”

चलित्तर कर्मकार!

18

“भाग ! भाग ! मलेटरी, मलेटरी… !”

अरे बाप । लाल पगड़ीवाला पुलिस नहीं है, एकदम…गोरखा मलेटरी ! सुनते हैं, गोरा मलेटरी से भी ज्यादा चांस वाला होता है गोरखा । मारने लगेगा तो मारते मारते जान से ही मार देगा। …हसलगंज हाट पर कटिहारवाले बाबू साहेब की कचेहरी पर सुबह से ही आकर खड़ी है-दो मोटरगराड़ी-ठसमठस ! मोहर्रिलिजी बोले कि गाँव में रौन (राउंड) देने आया है। …रात में कौन देगा ? …गोरखा मलेटरी ?

“अरे, क्‍या बात है ? …कौन झूठमूठ खबर लाया ?”

“झूठ नहीं । ततमाटोली का बबुअन अभी दौड़ता-हांफता आया है। उसको इमान-धरम सौर माय का किरिया खिलाकर पूछिए तो !”

“ऐ ! सुनो ! मोटरगाड़ी की आवाज हुई न ?”

“हाँ…पछियारीटोला के पास आ रही हैं मोटरगाड़ी।”

“…भागो ! एकदम लाल इड़हुल रंग की मोटरगाड़ी आ रही है।”

“…भागो किधर ? मोटरगाड़ी तो आ गई !”

भर्र- केंक-केंक भर्र-र…! मिलिटरी लारी लीक छोड़कर बेलीक ही अड्डा-खाई-आल-गोड़ा टपते, तहसीलदार साहब के दरवाजे की ओर जाती है।

“कौन ? सुमरितदास बेता…?”

“सिस् चुप… !” सुमरितदास फिसफिसाकर कहता है, “कलिया जेहल से भाग गया है। इसीलिए मलेटरी आया है।…खबरदार ? सुसलिट पाटी का नाम भी नहीं लेना। पूछे तो कहना, हम लोग काँगरेस में हैं। कालीचरन से कोई रिस्ता मत बताना।…समझे ? लाल झंडा जिसके घर से निकलेगा तुरन्त गिरिफ्फ हो जाएगा।”

सुमरितदास बेतार की देह में इस ‘बुढ़ारी’ में भी कितना तेज है ! पुराना पानी पिया हुआ बुड्ढा है।…कलिया तो अपने साथ अपने गर-गरामत, पर-परोसिया और गाँव-समाज सबको ले डूबना चाहता है।…क्या है, लाल सालू ? खबरदार ! झंडा और सालू में क्या फरक है ! फाहरम-परचा सब जलाओ !…सब फँसेगा !

“खबरदार ! कलिया ‘घसकंतोबाचः’ हो गया है। सुसलिट पाटी और कालीचरन का नाम…हरगिस नहीं।…लच्छन लगता है समूचे गाँव को ‘कुरुक’ करेगा।”

“ऐ !…कौन ?” कालीचरन की अन्धी माँ हुक्का पीना बन्द कर पूछती है, “कौन भाग गया ?…सरसतिया, परमेसरी,…तराबत्ती…अरे, कौन भाग गया बेटी ?”

“अरे कौन ?…तुम्हारे कुलबोरन बेटा कालीचरन के चलते आज सारा गाँव बन्हा रहा है।”

“भाग ! भाग !…मलेटरी !”

गुरखा सिपाहियों ने कालीचरन के घर को चारों ओर से घेर लिया है। एस.पी. साहब कालीचरन की बूढ़ी माँ से पूछते हैं, “हुँ…अन्धी है या ढंग करती है ? सुन बुड्ढी ! तेरा कलिया जेल से भाग आया है। अब रोना-गाना छोड़कर सीधे-सीधे बता कि वह यहाँ आया है या नहीं ?”

“मेरा बेटा !…वह डकैत नहीं दारोगाबाबू !…दुसमन लगा हुआ है उसके पीछे हजुर ! जाने सुरुज भगवान।”

“ठीक-ठीक बताओ? उसके साथ और कौन-कौन…उसके साथी-संगी का नाम बताओ !”

“हजूर…हमरा कुछ नै मालूम।”

“अच्छा, सब मालूम हो जाएगा।…ले चलो बुढ़िया को !”

कालीचरन की माँ को जड़ैया बुखार आ गया।…जैसे ही नेपाली सिपाही ने उसकी कलाई पकड़ी, वह जोर-जोर से डिकरने लगी-लोहे से दागने के समय बैल-गाय वगैरह जैसे डिकरते हैं, उसी तरह।

“अ य बाँ-बाँ-बाँ-आँ…।”

माघ की संध्या ठिठुरते हुए गाँव को धीरे-धीरे अपने आँचल में छिपा रही है। भयार्त पशु की आँखों की तरह किसी-किसी घर में ढिबरी भुकभुका रही है।…घूर के पास आज कौन बैठेगा ! सभी अपने-अपने घर के कोने में छुपे हुए हैं।…सन्नाटा ! और इस सन्नाटे को चीरकर कालीचरन की माँ की यह दर्द-भरी पुकार गाँव के कोने-कोने में फैली !…

“एह ! अरे बाप ! मालूम होता है बुढ़िया को कीरिच से जबेह कर रहा है।…हे भगवान !”

कालीचरन की माँ की डिकराहट में कुछ ऐसी बात थी कि एस.पी. साहब का दिल पसीज गया। उन्होंने कहा, “छोड़ दो !…छोड़ दो बुढ़िया को !”

बुढ़िया अचानक चुप हो गई।

गाँव-घर, बगीचा-बाड़ी और अगवारे-पिछवारे में दम साधकर छिपे लोगों ने समझा-बुढ़िया को सचमुच जबेह कर दिया।

“किसकी बोली है, पहले पहचान लो।…टट्टी में कान लगाकर सुनो।”

“अगमू चौकीदार है।…सुमरितदास भी है।”

“जै भगमान ! जै भगमान !”

“ऐ भगमान भगत ! भगमान भगत…दरवाजा खोलो जी !” सुमरितदास खखारते हैं, “अह-ख-ख् !…भगमान भगत ! डरने की बात नहीं।…सिकरेट है, सिकरेट ? मलेटरी साहेब हैं…पैसा देते हैं।”

पछियारी घर में सन्दूक के पीछे भगमान भगत दम साधकर घुसके हुए हैं। “आहि रे दादा रे दादा ! ई त हमरे नाम लेके…।” भगताइन फिसफिसाकर कहती है, “अरे जा न !…कौनो बाघ थोड़ो बा !” भगत डाँटता है-“अरे, चुप !”

“अहूँख्!..के ? दास जी ?” भगताइन खखारकर अन्दर से पूछती है, “का लेंब हो ?”

“अरे खोलो भगताइन !…भगत जी कहाँ है ?”

भगताइन टीन की टट्टी खोलते हुए देखती है, “बाप रे बाप !…ई कौन देस के आदमी बा रे देवा ? हुँडार (भेड़िया) जैसन मुँह बा।…”

“दास जी ! अन्दर आके जे लेब से ले जा।…बुढ़वा के बुखार बा, हमरो सिर बथता…”

सुमरितदास टीन की टट्टी को ठेलकर अन्दर जाता है, “इस्… ! तुम लोगों को लगता है कि कलेजा है ही नहीं। झूठ नहीं कहा है, बनियाँ का कलेजा धनियाँ ! ‘इसपी’ साहेब अभी तुरन्त सबों को बुला रहे हैं तहसीलदार साहेब का दरवाजे पर।…मिटिन है। इसमें जो नहीं जाएगा अभी, उसको कालीचरन की पाटी का आदमी समझा जाएगा।…लाओ पाँच पाकिट असली कैंचीमार सिकरेट !…कलिया जेहल से भाग गया।”

“हँ-हँ-ख !…के ? सुमरित भाई ?” भगमान भगत काँखते हुए आता है, “अरे ! ई बुखार त जान लेके छोड़ी। का बात बा ?”

“बात का बा !” सुमरितदास हाथ चमका-चमकाकर कहते हैं, “…चीनी पाँच सेर, गरम मसाला आठ आने का, चार पाकिट सिकरेट लेकर अभी तुरत तहसीलदार साहेब बुलाए हैं।…इसपी साहब मिटिन बुला रहे हैं, सबों को।…हाँ, सिपाही जी को पाँच पाकिट दिया, उसका भी पैसा लोगे ?”

“अरे ! हम का हुकुम से बाहर बानी !…चलीं, हम आबतानी।” भगत बात चबाते हुए कान खुजलाता है।

‘गोरखा मलेटरी’ कहता है, “ऊँह ! नहीं !…हम मुफ्त में नहीं लेगा। काहे लेगा ? हम पैसा तीरकर (पैसा चुराकर) चुरुट लेगा…काहे लेगा ? हम बायर का मलेटरी नहीं, हम इसी देस का। मुफ्त में काहे लेगा ?”

तहसीलदार साहब के दरवाजे पर लोग जमा हो रहे हैं। अगमू चौकीदार और अब्दुल्ला बक्सी सबों को हाँकते आ रहे हैं, “डेग बढ़ाओ !…घसर-फसर काहे करते हो…लगता है धान की दबनी करने के लिए बैलों को हाँककर लाया जा रहा है !… बालदेव जी भी हैं, रामकिरपालसिंह भी हैं। बहुत दिनों से रामकिरपालसिंह, पर-पंचायत या सभा-मिटिन में नहीं जाते हैं। एकदम गुमसुम रहते हैं।…पचास बीघा जमीन धनहर, एक लाटबन्दी (होल्डिंग), एक ही जमा, और खजाना सिर्फ पाँच रुपए। ऐसी जमीन जिसकी बिक जाए, या महाजन के यहाँ सूद-रेहन लग जाए तो दिल चकनाचूर होगा नहीं ?… खेलावनसिंह यादव का कलेजा धकधक कर रहा है-जगह-जमीन, रुपैया-पैसा तो पहले ही मुकदमा में सोहा हो गया, अब एक कोरी भैंस है। तहसीलदार की नजर लगी हुई है।”

एस.पी. साहब चाय पीकर खड़े हो जाते हैं। जै भगवान ! दुहाई काली माई !

“प्यारे भाइयो ! मैंने आप लोगों को एक बहुत बड़े काम में मदद के लिए बुलाया है। आप लोग डरिए नहीं। मैं बदमाशों के लिए महा-बदमाश हूँ, और सीधे लोगों का सेवक !…हाँ, हम तो आप लोगों के नौकर हैं।”

“जै हो ! जै हो ! धन्न हैं, धन्न हैं !” लोगों की देह में अब थोड़ी गर्मी आती है।

एस.पी. साहेब कहते हैं, “अभी इस जिले में एक बड़ा भारी डकैत उत्पात मचा रहा है। उसका नाम आप लोगों ने जरूर सुना होगा… !”

“जी नहीं।…हम लोग तो कूपमंडूक हैं।”

“देखिए ! झूठ मत बोलिए ! डगरिन से पेट छुपाते हैं ?…चलित्तर कर्मकार इस गाँव में कभी नहीं आया है ?”

“हाँ, हाँ, चलित्तर !”

“नहीं, नहीं…नहीं आया है।”

“…देखिए ! जरा रोशनी और करीब लाइए।…देखिए, यही है उसका फोटो।”

“हाँ, ठीक है। यही है। यही है।”

“तब देखिए। आप लोग झूठ काहे कहते थे। जानते हैं, डकैत से बढ़कर होता है डकैत का झँपैत (छुपानेवाला), आप लोगों ने झँपैत का काम किया है।”

“नहीं हजूर, माये-बाप ! मालूम नहीं था।”

“…खैर ! सुन लीजिए। चलित्तर कर्मकार को न तो देश से मतलब है, न गाँव से और न समाज से। उसका पेशा है डकैती करना, लूटना। वह समाज का दुश्मन है, देश का दुश्मन है।…अभी देखिए, हाल ही में कम्यूनिस्ट पार्टीवालों ने एक पर्चा निकाला है। लिखा है, कामरेड चलित्तर पर से वारंट हटाओ। चलित्तर कर्मकार किसानों और मजदूरों का प्यारा नेता है।…अब आप ही बताइए कि कोई हत्यारा और डकैत कैसे किसी का प्यारा नेता हो सकता है !…खैर, मेरा भी नाम बजरंगीसिंह है। मैंने ऐसे-ऐसे बहुत-से हत्यारों को ठीक किया है, फाँसी पर लटकवाया है।…ऐसा आदमी किसी की भी हत्या कर सकता है।…”

“बाबा !…गाँधी जी मारे गए !” कमली अन्दर हवेली से ही पगली की तरह चिल्लाती है-“गाँधी जी…!”

“क्या हुआ ?”

“क्या हुआ ?”

तहसीलदार साहब अन्दर हवेली की ओर दौड़ते हैं।…सुमरितदास कहता है, “हुजूर, तहसीलदार साहेब की बेटी का मगज जरा खराब है।”

“अनर्थ हो गया हुजूर !” तहसीलदार साहब दौड़ते हुए आते हैं, “गाँधी जी मारे गए।”

“ऐं ?…कहाँ ? कैसे ?”

“रेडियो में खबर आई है।”

“कहाँ है रेडियो। अन्दर हवेली में ? मेहरबानी करके यहाँ ले आइए।” एस.पी. गिड़गिड़ाते हैं।

“अरे रे-रे ! बालदेव जी को सँभालो !…बेहोश हो गए।”

तहसीलदार साहब ‘पोर्टेबल रेडियो सेट’ ले आते हैं, “हुजूर, इसके कल-काँटे का भेद हमको मालूम नहीं।…डाक्टर साहब का है।”

“इधर लाइए।” एस.पी. साहब जल्दी-जल्दी मीटर ठीक करते हैं।…चारों ओर एक…एक मनहूस अँधेरा छाया हुआ है…हमारी आँखों के आगे अँधेरा है, दिल में अँधेरा है।…ऐसे मौके पर हम किन लफ्जों में, कै…से, किन शब्दों में आपको ढाढ़स बँधाएँ ! गम के बादल में सारा मुल्क गर्क है।…एक पागल ने बापू की हत्या कर डाली। जाहिर है, पागल के सिवा कोई ऐसा काम नहीं कर सकता। अब हमें अपने गम और गुस्से को दबाकर सोचना है…”

“नेहरू जी बोल रहे थे सायद !”

नेहरू जी !…जमाहिरलाल बोल रहे थे ! बीच में एक जगह गला एकदम भर गया था; लगा-रो रहे हैं।

“सुनिए ! अब पटेल साहब, सरदार पटेल बोल रहे हैं।” एस.पी. साहब का चेहरा एकदम काला हो गया है।

बेतार के खबर में क्या बोला ? गाँधी जी का हत्यारा पकड़ा जा चुका है ?…अरे ! कैसे नहीं पकड़ावेगा भाई ! हाय रे पापी। साला…जरूर जंगली देश का आदमी होगा। हत्यारा !…मराठा ? यह कौन जात है भाई ! मारा ढा ! अरे, बाभन कभी ऐसा काम नहीं कर सकता, जरूर वह साला चंडाल होगा।

एस.पी. साहब हाथ जोड़कर कहते हैं, “भाइयो ! कहा-सुना माफ करेंगे। आप लोग जैसा समझें करें…लेकिन देखते हैं न ! अरे जिसने एक गरीब बनिया को बाल-बच्चा सहित मार डाला…वही हत्यारा गाँधी, जवाहर, पटेल की सबकी हत्या कर सकता है।…हत्यारा !…हम अभी जाते हैं। आप लोग कल शाम को, नदी के किनारे जल-प्रवाह कीजिएगा।…और खबर सब तो रेडियो में आती ही रहेगी; तहसीलदार साहब हैं, सबों को सुना देंगे ! अच्छा तो चलते हैं। जय हिन्द !”

भर्र-र-र-र-र-र!

“रघुपति राघव राजाराम, पतीत पामन सीताराम…।” बालदेव जी आँखें मूंदकर गाना शुरू करते हैं।

आज आखर धरनेवाला भी कोई नहीं-काली, बासुदेव, सुनरा सनिचरा, कोई नहीं। जाड़े से दलक रहे हैं बालदेव जी।…जरा, यहाँ एक धूनी लगा दी जाती, तो अच्छा होता।

“अरे कोठारिन, लछमी दासिन।”

लछमी आई है। साथ में है रामफल पहलवान, लालटेन लेकर !…बालदेव आँखें मूंदकर गा रहे हैं- “इसवर अल्ला तेरो नाम, सबको सम्पत दो भगमान।”

“जै रघुनन्दन जै घनश्याम, जानकीबल्लभ सीताराम।” लछमी दासिन अगला आखर उठाती है।

इस बार भीड़ के आधे लोगों ने साथ दिया।…

“रघुपति राघव राजा राम…!”

बावन ठीक ही कहता था, भारथमाता और भी जार-बेजार रो रही है !…बालदेव जी का सारा शरीर सुन्न हो गया है। रास्ते में नाचते-नाचते गिर पड़ते हैं।

“सीताराम…सीताराम…जै रघुनन्दन…!”

…31 जनवरी, 48 की रात ! कमली सोचती है-सारा संसार अभी बस एक ही महा-मानव के लिए रो रहा है।…रेडियो पर गीतापाठ हो रहा है। लगता है, गीता के एक-एक श्लोक की सीढ़ी महात्मा जी को ऊपर उठाए लिए जा रही है-ऊपर-ऊपर-और ऊपर !

अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्यध्यस्व भारत।।

अँधेरे में एक महाप्रकाश !…आँखें चौंधिया जाती हैं कमली की ! महात्मा जी खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं-“रोती है क्यों माँ !…माँ ! रोती क्यों है ?”

“मत रोओ बेटी !” माँ समझाती है, “बेटी, रोओ मत !” अचानक डाक्टर की याद आती है-डाक्टर !…डाक्टर को कौन ढाढ़स बँधाता होगा। मत रोओ डाक्टर ! मत रोओ! कमली रेडियो की आवाज को और तेज कर देती है :

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।
नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः !…

19

जोतखी काका के दरवाजे पर भीड़ लग गई है।

“ठीक कहते थे जोतखी काका। अभी क्या हुआ है, अभी और बाकी है। अच्छर-अच्छर सब बात फल गई ।…ऐसे अगरजानी आदमी की बात काटने का नतीजा सारा गाँव भोग रहा है।

जंगली जड़ी-बूटी से ही जोतखी काका टनमना गए हैं। खुद उठ नहीं सकते बोली साफ नहीं हुई है; घिघियाकर, मुँह टेढ़ा करके बोलते हैं, “छयअआँछ ! छयअआँछ आँ, आँ !”

अर्थात सर्वनाश ! सर्वनाश ! हाँ, सर्वनाश होगा।

“जोतखी काका, आज हुकुम हुआ है कि सारा दिन बासी-मुँह रहकर साम को कमला के किनारे जलपरवाह करना होगा ।” खेलावन यादव अब जोतखी जी की बात कभी नहीं काट सकता।…जोतखी जी ने कहा था, अट्ठारह साल की उमेर में सकलदीप को माता-पिता-बिओग लिखा हुआ है।…एकदम फल गई बात। सकलदीप दो महीने तक बिलल्ला की तरह कलकत्ते में भटकता रहा।…ससुर पकड़ लाया है। उसका भी पराच्छित करना होगा।…होटल में बर्तन माँजता था।

जोतखी जी इशारे से कहते हैं, “नहीं हरगिज नहीं ! ऐसा काम मत करो !”

जोतखी काका ने क्या कहा ? गाँधी जी काहे मारे गए।…क्या कहते थे, अच्छा हुआ ! धेत्त ! उनका मगज अब सही नहीं है।

दूसरे पहर को जुलूस निकला। बाँस की एक रंथी बनाकर सजाई गई है-लाल, हरे, पीले, कागजों से। एक ओर बालदेव जी ने कन्धा दिया है, दूसरी ओर सुमरितदास, जिबेसर मोची और सकलदीप ने।…खेलावन यादव नहीं आया है। सकलदीप को बहुत समझाया, गाली दिया-मगर सकलदीप ने तो आकर रंथी में कन्धा ही लगा दिया।

टन-टनाँग ! घड़ीघंट बजता है।

तिन्न तिरकिट-तिन्ना ! धिन्ना धा-धा-धिन्ना !

आँ रे ! काँ च हि बाँस के खाट रे खटोलना…

गाँव के भकतिया लोगों ने समदाउन शुरू किया। समदाउन की पहली कड़ी ने सबके रोएँ को कलपा दिया, सबके दिल गम्हड़ उठे और आँखें छलछला आईं।

आँ रे काँचहि बाँस के खाट रे खटोलना
आखैर मूंज के र हे डोर !
हाँ रे मोरी रे ए ए ए हाँ आँ आँ रामा रामा !
चार समाजी मिली डोलिया उठाओल
लई चलाल जमूना के ओर !
हाँ रे मोरी रे ए… !

अब कोई अपने को नहीं सँभाल सकता है। सब फफक-फफककर रो पड़ते हैं। जुलूस आगे को बढ़ रहा है। धीरे-धीरे सभी जुलूस में आकर मिल जाते हैं, रोते हुए चलते हैं। बूढ़े रोते हैं; जवान रो रहे हैं, औरतें रो रही हैं।…सकलदीप की जवान बहू दहलीज से देखती है। उसके ओठ काँप रहे हैं। रह-रहकर ओठ थरथराते हैं और अन्त में वह अपने को सँभाल नहीं सकती है। वह दौड़ती है जुलूस के पीछे। खेलावनसिंह चिल्लाते हैं, “कनियाँ, कनियाँ !…ऐ कनियाँ !”

हाँ आँ रे गोड़ तोरा लागौं हम भैया रे कहरिवा से
घड़ी भर डोली बिलमाव !
माई जे रोवय… …

माँ रो रही है। भारथमाता रो रही है।

रामदास हाथ में खंजड़ी लिए चुपचाप रो रहा है।…उसी के पाप से महात्मा जी मारे गए हैं। उसने साधु के अखाड़े को भरस्ट किया है।…परसों रमपियरिया की माये गाँव से मछली का सालन माँगकर लाई थी। रमपियरिया रात में उठकर चुराकर खा रही थी। महंथ रामदास ने रंगे हाथ पकड़ लिया था–बुआरी मछली की कुट्टा !

रमजूदास की स्त्री छाती पीट-पीटकर रो रही है। ठिठरा चमार की बारह साल की बेटी रो रही है-बाबा हो ! बाबू हो !

बापू !

“कमली रेडियो अगोरकर बैठी हुई है। उसकी आँखों से आँसू टप-टपकर गिर रहे हैं। माँ आँचल से बेटी के आँसू पोंछती है और खुद रोती है, “वे तो नर-रूप धारन कर आए थे-लीला दिखाकर चले गए ।”

रेडियो से आँखों देखा हाल प्रसारित हो रहा है। “अब…अब चंदन की चिता तैयार है। बस, अब कुछ ही क्षणों में… देखिए, पंडित नेहरू देवदास गाँधी जी से …महात्मा जी के सुपुत्र से कुछ कह रहे हैं।…नरमुंड… नरमुंड, कहीं भी एक तिल रखने की जगह नहीं… (कोलाहल की आवाज क्रमशः तेज हो रही है।… जय… जय !) अपार जन-समूह में मानो लहरें आ गई हैं; सभी एक बार, अंतिम बार महामानव की पवित्र चिता को अंतिम बार देखना चाहते हैं।…एंबुलेंस गाड़ियाँ बेहोश लोगों को ढो रही हैं ! …और… और… आह ! अब… पश्चिम आकाश में सूर्य अपनी लाली बिखेरकर अस्त हो रहा है और इधर-महामानव की चिता में अग्निशिखा …धरती का सूरज अस्त हो रहा है। क्षिति-जल-पावक… पाँच तत्त्वों का पुतला …(गीता-वाणी सुनाई पड़ती है)-जन्मबंधविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यानामयम्‌– ।

“माँ, माँ !”

“माँ, माँ” कमली स्पष्ट सुनती है, कोई पुकार रहा है। कौन पुकारता है उसे माँ !

“क्या हुआ बेटी ?” माँ बाहर से दौड़ी आती है।

“मेरा बच्चा…मेरा… मेरा बेटा… !”

ओं शांति ! शां…ति… ! )

20

“सेत्ताराम ! सेत्ताराम !”

“ओ बावनदास जी ! आइए !” लछमी मोढ़ा देती है।

“बालदेव जी कहाँ हैं ?”

“आइए, साहेब बन्दगी, जै हिन्द !” बालदेव जी आ गए।

“जै हिन्द !”

बावनदास को देखकर डर लगता है-एकदम सूखकर काँटा हो गए हैं।…बाल इतना ज्यादा कैसे पक गया ?…ओ ! आज टोपी नहीं पहने हैं, इसीलिए। आवाज भी बदल गई है। बालदेव जी कहते हैं, “आपको तो अब यहाँ समय ही नहीं है।…उस दिन हम अकेले जिस समय से रेडियो में सुने, उसी समय से लेकर दूसरे दिन जलपरवाह तक, सबकुछ किए। किसी तरह सँभाल लिया। सराध के दिन तहसीलदार साहब भोज देनेवाले हैं; बामन राजपूत, यादव और हरिजन सभी एक पंगत में बैठकर खाएँगे। अच्छा हुआ, आप भी आ गए। अकेले हम…।”

“नहीं बालदेव जी, हम रहेंगे नहीं। हम जरूरी काम से जा रहे हैं।”

“सोचा, एक बार आप लोगों से भेंट करते चलें। हम तुरत…अभी चले जाएँगे।”

“अच्छा, उधर का हाल-समाचार क्या है, सुनाइए!”

“हाल क्या सुनिएगा ! अब सुनना-सुनाना क्या है ! रामकिसुन आसरम में भी हरिजन-भोजन होगा।…बिलेकपी कल मर गया। सिवनाथबाबू आए हैं पटना से।… ससांक जी परांती (प्रान्तीय) सभापति हो गए हैं, वह भी पटना में ही रहेंगे।…सब आदमी अब पटना में रहेंगे। मेले (एम.एल.ए.) लोग तो हमेशा वहीं रहते हैं।…सुराज मिल गया, अब क्या है !…छोटनबाबू का राज है। एक कोरी बेमान, बिलेक मारकेटी के साथ कचेहरी में घूमते रहते हैं। हाकिमों के यहाँ दाँत खिटकाते फिरते हैं। सब चौपट हो गया…” बावनदास कहते-कहते रुक जाता है।

“छोटनबाबू की बात मत पूछिए। अब तो घर-घराना सहित काँगरेसी हो गए हैं।”

“नहीं बालदेव, छोटनबाबू-जैसे छोटे लोगों की बात जाने दो। यह बेमारी ऊपर से आई है। यह पटनियाँ रोग है।…अब तो और धूमधाम से फैलेगा। भूमिहार, रजपूत, कैथ, जादव, हरिजन, सब लड़ रहे हैं।…अगले चुनाव में तिगुना मेले चुने जाएँगे। किसका आदमी ज्यादे चुना जाए, इसी की लड़ाई है। यदि रजपूत पाटी के लोग ज्यादा आए तो सबसे बड़ा मन्तरी भी राजपूत होगा।…परसों बात हो रही थी आसरम में। छोटनबाबू और अमीनबाबू बतिया रहे थे-गाँधी जी का भसम लेकर ससांक जी आयेंगे। छोटनबाबू बोले, जिला का कोटाभसम जिला सभापति को ही लाना चाहिए।…ससांक जी क्यों ला रहे हैं। इसमें बहुत बड़ा रहस (रहस्य)। हा-हा-हा-हा !” बावनदास विचित्र हँसी हँसता है। ऐसी हँसी तो कभी नहीं देखी-बालदेव जी ने भी नहीं।

“काहे ?” हँसते काहे हैं दास जी ?”

“हा-हा-हा-हा !…अरे, वही अमीनबाबू तुरत उठकर बैठ गए; बोले, आप ठीक कहते हैं छोटनबाबू। गाड़ी तो चली गई। कटिहार जाने से गाड़ी मिल सकती है।… तुरन्त मोटर इस्टाट करके दोनों रमाना हो गए। सभापति-मन्तरी…हो राम ! राम मिलाए जोड़ी…हा-हा ! चले दोनों…हा-हा ! भसम लाने…हा-हा ! देस को भसम कर देंगे ये लोग ! भसमासुर !”

“दास जी, मालूम होता है कोई सोसलिट ने आपको…”

“सोसलिस? सोसलिस ? क्या कहेगा सोसलिस हमको ?…सब पाटी समान। उस पाटी में भी जितने बड़े लोग हैं, मन्तरी बनने के लिए मार कर रहे हैं। सब मेले-मन्तरी होना चाहते हैं बालदेव ! देस का काम, गरीबों का काम, चाहे मजूरों का काम, जो भी करते हैं, एक ही लोभ से।…उस पाटी में बस एक जैपरगासबाबू हैं। हा-हा-हा ! उनको भी कोई गोली मार देगा।…फिर भसम लेने के लिए सभापति-मन्तरी साथे-साथ… !”

नया चूड़ा और नया गुड़ एक थरिया में ले आती है लछमी-“जरा बालभोग कर लीजिए।…थोड़ा-सा है। दूध-दही तो भोज के लिए जमाया जा रहा है।”

बावनदास बगल की झोली का मुँह फैलाते हैं। लछमी कहती है, “यह क्या ?… जलपान कीजिए। झोली में क्यों लेते हैं ?”

लछमी की आँखें न जाने क्यों सजल हो जाती हैं।…इतने दिनों के बाद एक वैष्णव आया और बिना पत्तल जुठाए चला जाएगा ?…नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगी।

“नहीं। बालभोग तो आपको करना ही होगा,” लछमी जिद्द करती है, “दास जी, बिनती करती हूँ…!”

बालदेव जी देखते हैं, बावनदास को कुछ हो गया है…बड़ा अटर-पटर बोलते हैं ! चेहरा भी एकदम बदल गया है, आँखें लाल हैं, कपड़ा कितना मैला हो गया है ! वह सोलह-सत्रह साल से बावनदास के साथ हैं, कभी तो ऐसा हँसते नहीं देखा।…अलमुनियाँ का लोटा और बाटी नहीं छोड़ते हैं कभी।

जलपान करके हाथ धोते हुए बावनदास जी कहते हैं, “बालदेव जी, अब हम चलेंगे। पुवरिया-लैन की गाड़ी कोदलिया टीसन में जाकर पकड़ेंगे।…आपसे एक काम है।

बावनदास झोली से लाल रंग का एक बस्ता निकालते हैं। बस्ता खोलकर कागज का छोटा-सा पुलिन्दा निकालते हैं। “बालदेव जी !…सब महतमा जी के खत हैं। गंगुली जी ने एक बार कहा था-ज़रूरत पड़ने पर हमें दीजिएगा…आने के समय याद ही नहीं रहा। आप पुरैनियाँ कब तक जाइएगा ?…चार-पाँच दिन के बाद ? तब ठीक है, आप रख लीजिए। गंगुली जी को दे दीजिएगा…ज़रूर !”

परम श्रद्धा-भक्ति से सहेजी हुई पवित्र चिट्ठियों को बावनदास एकटक देख रहा है।…फिर एक-एक कर अलग-अलग छाँटता है। हवा से एक चिट्ठी उड़कर बिछावन के नीचे चली गई, बावनदास ने चट से उठकर सर से छुला लिया।…उसे एक अक्षर का भी बोध नहीं, लेकिन वह प्रत्येक चिट्ठी के एक-एक शब्द पर निगाह डालता है; लगता है, सचमुच पढ़ रहा है।…आखिरी चिट्ठी खत्म कर वह एक लम्बी साँस लेता है।

बस्ता हाथ में लेकर बावनदास थोड़ी देर तक बेकार ही उसकी डोरी को उँगलियों में लपेटता और खोलता है। फिर एक लम्बी साँस लेकर अचानक ही खड़ा हो जाता है, “लीजिए…सेत्ताराम-सेत्ताराम !”

बालदेव जी बस्ता लेकर लछमी के हाथ में दे देते हैं, “पौंती-पिटारी में रख दीजिए !”

लछमी बस्ता लेकर सर से छुलाती है, फिर छाती से लगाती है। वह एकटक , बावनदास को देख रहा है।…इस चिरकुट खद्धड़ की दोलाई से जाड़ा कैसे काटते हैं बावनदास जी?

“दास !…इस चादर से जाड़ा कैसे काटते हैं ?…ठहरिए, एक पुराना कम्बल है। ले लीजिए।” लछमी विनती के सुर में ही कहती है।

“नहीं माई !” बावनदास कन्धे से झोली को लटकाते हुए कहता है, “नहीं माई, कम्बल की जरूरत नहीं।”

लछमी चुप हो जाती है।…बावनदास जी को अब कम्बल की जरूरत नहीं। अब उन्हें किसी चीज की जरूरत नहीं। लछमी मानो सबकुछ समझ जाती है।

धरती फाटे मेघ जल
कपड़ा फाटे डोर।
तन फाटे की औखदी
मन फाटे नहीं ठौर !

“अच्छा तो अब…जै हिन्द !”

“जै हिन्द !”

बावनदास लुढ़कता हुआ जा रहा है।..सोबरन का कटहा कुत्ता खिटखिटाकर भूँकते हुए उस पर टूटता है। लेकिन, बावनदास उधर देखता तक नहीं है।…कुत्ता भी आश्चर्य से चुप हो जाता है। जरा-सा धेत्त-धेत्त भी नहीं किया ?…कैसा आदमी है ! कुत्ता बावनदास के पीछे-पीछे दुम हिलाते, मिट्टी सूंघते कुछ दूर तक जाता है।

“बावनदास जी का मन एकदम फट गया है।” लछमी कहती है।

बालदेव जी कहते हैं, “अरे मन फटेगा क्या ! थोड़ा ढंग भी करता है।…गंगुली जी चिट्ठी लेकर क्या करेंगे ?…दूसरे की चिट्ठी भले लोग नहीं पढ़ते हैं, दोख होता है।”

कोदलिया टीसन पर गाड़ी में बैठकर बावनदास को लगता है, वह कोई तीरथ करने जा रहा है। बहुत दिनों से उसके मन में लालसा है-एक बार जगरनाथ जी जाने की !…केदारनाथ, बदरिकानाथ वह गया है। उसकी आँखों के आगे जगरनाथ का पट-छाता और छड़ी-लिए तीर्थ से लौटे हुए बावनदास की मूर्ति आ खड़ी होती है।

जगरनथिया रौ भाय,
बाबा रौ बिराजे उड़िया देस में।

एक यात्री ने कहा, “अरे, माघ महीना में कौन जगरनाथ से लौटा है भाई !”

दूसरे ने कहा, “जरा जोर से बावन गुसाईं जी !”

बावनदास खिड़की से बाहर की ओर देखता है। खेतों में लोग धान काट रहे हैं।…नदी में मछली मार रहे हैं, भैंस चरा रहे हैं। बावन ने बहुत सफर किया है, लैन से-कलकत्ता काँगरेस, लखनौ काँगरेस, बैजवाड़ा, साबरमती आसरम, महात्मा गाँधी की जन्मभूमि काठियावाड़, फिर बम्बै।…रेलवे लैन के किनारे काम करते हुए लोगों के मुखड़े, विभिन्न प्रदेश के लोगों के मुखड़े, उसकी आँखों के आगे इकट्ठे हो जाते हैं।…खगड़ा टीसन पर उतरकर एक बार नत्थूबाबू के यहाँ जाने का विचार था, लेकिन नत्थूबाबू कलकत्ता गए हैं। खोखी दीदी और काकी जी भी गई हैं।…खोखी दीदी ने एक बार बावनदास की तस्वीर बनाई थी।…बोली, बस आप जैसे बैठे हैं, बैठे रहिए। एक कागज पर पेंसिल से तस्वीर बनाने लगी।….काकी जी ठीक माये जी की तरह बोलती हैं। नाथबाबू रहते तो बावन को आज बहुत भारी मदद मिलती।…बहुत कड़े आदमी हैं। गोस्सा में जब होते हैं तो किसी को कुछ नहीं बूझते हैं।….कंफ जेहल के साहेब को जिनगी भर याद रहेगा।…नाथबाबू का चेहरा लाल हो गया था उस दिन, एकदम लाल टेसु।…पिछले साल नाथबाबू और चौधरी जी बम्बै जा रहे थे। बावन भी साथ में था।…मोगलसराय टीसन पर गाड़ी में भीड़ देखकर होस गुम ! इस छोर से उस छोर तक घूम आए, मगर कहीं घुसने ही नहीं दिया।…चौधरी जी,हँसते हुए बोले, “एहो गाड़ी छूटतऽ लच्छन लगैछेहों।” नाथबाबू ने एक डिब्बा के हैंडिल को जैसे ही पकड़ा कि अन्दर से एक आदमी ने गुस्सा होकर कहा, “देखता है नहीं, इस पर लिखा हुआ-बंगाल के मेम्बर के वास्ते रिजप है।” ।

नाथबाबू ने भी गुसाकर जवाब दिया था-“खूब देखता है।…बंगाल में अब आप लोगों के जैसा आदमी फलने लगा है, यह भी देखता है। हाम भी ए.आई.सी.सी. का मेम्बर है, आप भी उसी का मेम्बर है, मगर आदमियत…।”

भीतर से किसी ने रसिकता की थी, “आदमियत तूले आर कोथा बोलबेन ना मोशाय।…आसून, आपनार तो देखची ऐकेबारे त्रिमूर्ति…”(कृपया आदमियत का प्रश्न मत उठाइए। जाइए, हमें तो एक साथ ही त्रिमूर्ति के दर्शन का सौभाग्य मिल रहा है)

बात भी कुछ ऐसी ही हो गई कि सभी हँस पड़े-चौधरी जी भी, नाथबाबू भी और डिब्बे के सभी मेम्बर।…हँसनेवाली बात नहीं है ? चौधरी जी एकदम लम्बा, याने चौधरी जी की लम्बाई की बात तो सभी जानते हैं। पूरा ऊँचे कद का आदमी भी उनके कन्धे के बराबर होता है। और, इधर नाथबाबू ठेठ-नाटे कद के ! गोल चेहरा, चेहरे पर हरदम मुस्कराहट, वह भी छोटी-सी ! और तीसरा मूर्ति-सेवक बावनदास !…विचार कर देखिए-हँसने की बात है या नहीं !…चौधरी जी ने ऊपर बेंच पर अपना बिस्तर लम्बा किया था, नाथबाबू और बावनदास नीचे।

“ऐं ? खगड़ा आ गया ?…सेत्ताराम ! सेत्ताराम !”

खगड़ा स्टेशन पर उतरकर, बावनदास एक बार ऊपर आसमान की ओर देखता है। वह शाम तक पहुँच जाएगा।…नहीं, नाथबाबू से नहीं भेंट होगी तो अब किससे भेंट करने जाए वह !…

कलीमुद्दींपुर की ओर जा रहा है बावन !…कलीमुद्दींपुर पाकिस्तान में जाते-जाते बच गया है। एक बार हल्ला हुआ कि पाकिस्तानवाले कहते थे कि गाँव का नाम इस्लामी है, इसलिए इसको…! क्या बच्चों-जैसी बुद्धि !…

…सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! बावनदास जल्दी-जल्दी डेग बढ़ाता है,…आज जैसे हो, शाम तक उसे पहुँचना ही है एक जगह।…उस जगह का नाम भी अभी वह अपने मन में नहीं लाएगा।

चलते-चलते वह कभी-कभी रुककर उसाँसें लेता है-बहुत देर तक रोने पर बच्चे जिस तरह उसाँसें लेते हैं, उसी तरह ! बावन की झोली में खँजड़ी है। खँजड़ी में लगी हुई झुनकी उसकी गति को एक लय में बाँध रही है-किन्न, किन्न, किन्न, किन्न ! खेतों की मेड़ों पर, मैदान में, सड़कों पर, ऊँची-नीची जमीन पर उसके चरण पड़ते हैं। मंजिल करीब है अब। किन्न, किन्न, किन्न, किन्न…! और थोड़ी दूर…और आधा कोस ! किन्न, किन्न…!

…जै महतमा जी ! जै बापू !…माँ ! माँ…धन्न हो प्रभू ! एक परीक्षा से तो पार करा दिया प्रभू ! बस यहीं…इसी साँहुड़ के नीचे ! इसी कच्ची लीक के पास…डाल दो डेरा रे मन !

…नागर नदी के किनारे ! नागर को एक बहुत बड़ा गवाह बनाया गया है, दोनों देसवालों ने। नागर नदी ही सीमा-रेखा है।…एक किनारा हिन्दुस्तान, दूसरा किनारा पाकिस्तान ! इस पार हिन्दुस्तान, दूसरी ओर पाकिस्तान। नागर बारहों मास बहती है, सूखती नहीं कभी। शायद इसीलिए… !” रामडंडी माथा पर आ गया।

माघ की ठिठुरती हुई सर्दी !…पछिया हवा भी चलती है। लगता है, आज की रात बदरीनाथ की तरह यहाँ भी बरफ गिरेगी। रामडंडी सिर पर आ गया…! बावन निराश नहीं होता है। जब तक सूरज नहीं उगेगा, वह टलेगा नहीं।…बात ही कुछ ऐसी है। यदि इस रास्ते से नहीं आई गाड़ी तो… ! वह दूर, बहुत दूर किसी गाँव की रोशनी को देखता है। दोनों हाथों को मलकर गर्म हो लेता है।…हाँ. गाडियाँ आएँगी। पचासों गाड़ियाँ !…कपड़े और चीनी और सीमेंट से लदी हुई गाड़ियाँ…जिसने खबर दी है उसे-उसका नाम वह जान जाने पर भी नहीं खोलेगा। बावन ने गाँधी जी की कसम खाई है। बेचारा गरीब…उसकी नौकरी चली जाएगी।…कटहा के दुलारचन्द कापरा, वही जूआ कम्पनीवाला, जिसकी जूए की दुकान पर नेवीलाल, भोलाबाबू और बावन ने फारबिसगंज मेला में पिकेटिन किया था। जूआ भी नहीं, एकदम पाकिटकाट खेला करता था और मोरंगिया लड़कियों, मोरंगिया दारू-गाँजा का कारबार करता था।…आज कटहा थाना कांग्रेस का सिकरेटरी है !…उसी की गाड़ियाँ हैं। सपलाई निसपिट्टर और कटहा थाना के दारोगा और यहाँ कलीमुद्दींपुर के नाकावाले हवलदार मिलाकर रकम आठ आना और इधर दुलारचन्द कापरा रकम आठ आना। गाड़ियाँ सदर-चालू सड़क से नहीं आएँगी। चौरपैड़ा (चोर रास्ता) होकर चोरघाट होकर पार करेंगी। फिर उधर के व्यापारी को उस पार पहुँचा देगा। उधर के हाकिम-हुक्कामों को भी इसी तरह हिस्सा मिलेगा। लाखों रुपया का कारबार है।…वे आ गईं हाँ, गाड़ियाँ…कच्ची लीक में पहियों की आवाज !…हाँ गाड़ी ही है।

“जै भगवान ! जै महतमा जी ! सेत्ताराम ! सेत्ताराम !…बल दो प्रभू ! परीक्षा में पार करो गुरु ! बापू ! बापू ।… माँ, माँ, ! झोली के अंदर वह कुछ टटोलता है।

वह झोली को कंधे से लटकाकर खड़ा हो जाता है।…नदी किनारे कोई पखेरू बोला, टिंटिक्‌।…किन्‍न ! खँजड़ी की झुनकी जरा झनकी ।

“भगवान ! महतमा जी ! …बापू ! माँ ! मुझे बुला लो अपने पास ! क्‍या करूँगा इस दुनिया में रहकर !… धरम नहीं बचेगा।”

गाड़ियाँ आ गईं, एकदम करीब ।

“अरे बा-आ-आ-प रे-भू-ऊ-त ।” अगला गाड़ीवान डरा और दबी आवाज में अपने साथी से कहता है, “भूत !”

“छिऊँ…”बैल भड़कते हैं। कचकचाकर गाड़ियाँ रुक जाती हैं।

“सेत्ताराम ! सेत्ताराम !”

कलीमुद्दींपुर नाका के सिपाही जी आगे बढ़ आते हैं, खखारकर पूछते हैं, “कौन है?”

बगल की झाड़ी से सामने आकर बावन ने कहा, “हम हैं । सेवक बावनदास !”

“बावन दा स!” सिपाही जी का मुँह खुला-का-खुला रह जाता है। इस आदमी को वह सन्‌ तीस से ही जानता है। चान टरे, सूरुज टरे… !

सिपाही जी मुरेठा की पूछरी से मुँह छिपाते हैं। बावनदास हँसकर कहता है, “मुँह क्‍यों छिपाते हैं रामबुझावनसिंह जी । आज खुलकर खेला होना चाहिए ! मुँह मत छिपाइए !”

“दास जी, हमारा क्‍या कसूर ! आप तो जानते ही हैं…”

“सिंघ जी, बातचीत कुछ नहीं। गाड़ियाँ जाएँगी खगड़ा ! लौटाइए ।”

“गाड़ी त ना लौटी ।”

“लौटी ना त ठाढ़ रही ।”

अढ़ाई हजार रुपऐ हिस्से में मिल चुके हैं रामबुझावनसिंह को। क्‍या किया जाए ?…

“दास जी ठहरिए !” हम तुरत आते हैं।”

“अच्छी बात ! ले आइए आज जो लोग पर्दे में हैं। जाइए !”

कलीमुद्दींपुर में एक होटिल-बँगला (हास्टिंग बंगला) है।…हाकिम-हुक्काम लोग बराबर आते रहते हैं। बाँस-फूस का बड़ा-सा चौखड़ा है, गाँव के एकदम बाहर ।

होटिल-बँगला में सप्लाई इंस्पेक्टर, दुलारचंद कापरा और कलीमुद्दींपुर के हवलदार साहब टेबल के चारों ओर बैठकर मोरंगिया माल पी रहे हैं। कलीमुद्दींपुर होटिल-बंगला के वेरसपतिया बावर्ची के हाथ का मुर्ग-मुसल्लम जिसने खाया, उसी ने जी खोलकर बक्सीस दिया।

सप्लाई इंस्पेक्टर साहब गिलास में चुस्की लगाते हुए मुस्कराते हैं, “अरे धत्त ! इस मुर्ग-मुसल्लम से गर्मी थोड़ी आएगी ! हवलदार साहब ! अरे, कोई दो टाँगवाली मुर्गी…”

“क्या पूछते हैं, आज…महतमा जी के सराध की वजह से सभी भोज खाने चली गई हैं।”

दुलारचन्द कापरा कहता है, “ऊँह ! ऐसा जानता तो कटहा से ही दो रेफ्यूजिनी को उठा लाते। सब मजा किरकिरा कर दिया।”

कड़कड़-कड़क् ! सप्लाई इंस्पेक्टर चतुरानन्दसिंह जी मुर्गी की टाँग चबाते हैं।

कड़कड़ कड़क् ! बाहर साइकिल की आवाज होती है।

“कौन ?”

“सलाम ! हम रामबुझावनसिंह।”

“क्या हाल है ?”

“सब चौपट ! बावनदास…”

“आँ यें ! बावनदास ? कहाँ ?”

…सभी गुम हो गए। बेरसपतिया बावर्ची इशारे से कहता है हवलदार साहब को, “मिल सकती है मुर्गी…, मगर…” रुककर दोनों हाथों की उँगलियाँ दिखलाता है।

हवलदार साहब कहते हैं, “अच्छा अभी ठहरो, तुम बाहर जाओ।”

“क्या हो अब ?” सभी एक साथ लम्बी साँस लेते हैं।

“अकेला है या…?”

“एकदम अकेला!”

“मगर इसका मतलब जानते हैं ?”

“दुलारचन्द जी !…कापरा जी!”

सबकी निगाहें मिलती हैं आपस में। दुलारचन्द गिलास में बोतल से शराब ढालकर गटगटाकर पी जाता है। सभी उसकी ओर आशा-भरी दृष्टि से देखते हैं-“मैं पंजाबी हूँ जी !…मगर आगे आप लोग जानो। मैं अपना फरज अदा करने जाता हूँ।”

…सिटसिट कर पछिया हवा चल रही है। हवलदार साहब साइकिल का पैडल चलाते हुए कहते हैं, “कापरा जी, आसपास के गाँववालों का डर जरा भी मत कीजिए।…ऐलान किया हुआ है कि सरहद के आस-पास रात-बरात जो निकलेगा, उसे गोली लग जा सकती है।”

बावनदास ठीक पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा है-बीच लीक पर। दुलारचन्द कापरा देखता है-हाँ, बावन ही है।

“कौन ?…कापरा जी ! गाड़ी के पीछे से क्या झाँकते हैं ? सामने आइए !” बावनदास हँसता है।

“बावन !…रास्ता छोड़ दो। गाड़ी पास होने दो।”

“आइए सामने। पास कराइए गाड़ी। आप भी काँगरेस के मेम्बर हैं और हम भी। खाता खुला हुआ है; अपना-अपना हिसाब-किताब लिखाइए।…आज के इस पवित्तर दिन को हम कलंक नहीं लगने देंगे।”

कापरा जानता है, इससे माथा-पच्ची करना बेकार है। वह हवलदार के कान में कुछ कहता है। फिर पुकारता है, “इसपिरिंग खाँ ! कहाँ…”

यह इसपिरिंग खाँ कापरा का अपना आदमी है। नाम फर्जी है।…एक गाड़ी पर से उतरता है, फिर चुपचाप अगली गाड़ी पर जाकर बैठ जाता है।

“बावनदास…मान जाओ।”

“………….”

“हाँको जी गाड़ी इसपिरिंग खाँ !”

गाड़ी में जुते हुए दोनों जानवर अचरज से चौंक पड़ते हैं। भड़कते हैं। छिऊँ, छिऊँ ! नाक से आवाज करके आगे बढ़ने से इन्कार करते हैं। कापरा एक बैल की पूंछ पकड़कर ऐंठता है। हड्डी पट् से बोली, मगर बैलों ने लीक छोड़ दिया और गाड़ी को बगल की ओर लेकर भागे। दूसरी गाड़ी… ! एक बैल को हवलदार और दूसरे को कापरा, पूँछ मरोड़कर आगे बढ़ाते हैं। गाड़ीवान अवाक् होकर हाथ में रास थामे हुए है।…यह क्या हो रहा है?

बैलगाड़ी पास हो गई।…पास हो रही है। बावनदास बीच लीक पर खड़ा है और गाड़ियाँ ऊपर से आर-पार कर रही हैं। बैल भड़के जरूर, मगर… ।

तीन-चार ! चार गाड़ियाँ ?

अब बावनदास ठीक बैल के सामने आकर खड़ा होता है। बैल उसे हुँत्था मारकर गिरा देता है। वह लीक पर लुढ़क जाता है।…ठीक पहिए के नीचे।

मड़-मड़-मड़ !

…बापू ! माँ…!

गाड़ी पास ! कट-कर्रर-कट !

गाड़ियाँ पास हो रही हैं। पचास गाड़ियाँ !

आखिरी गाड़ी जब गुजर गई तो हवलदार और रामबुझावनसिंह मिलकर, बावन की चित्थी-चित्थी लाश, लहू के कीचड़ में लथ-पथ लाश को उठाकर चलते हैं।…नागर नदी के उस पार पाकिस्तान में फेंकना होगा। इधर नहीं…हरगिस नहीं।

दुलारचन्द कापरा बावन की झोली लेकर उनके पीछे-पीछे जाता है।

नागर पार करते समय बावन के गले की तुलसी-माला नागर की बहती हुई धारा में गिर पड़ती है-सेत्ताराम !

चार बजे भोर को पाकिस्तान पुलिस ने घाट-गश्त लगाने के समय देखा-लाश !

“अरे यह तो उस पार के बौने की है। यहाँ कैसे आई ? ओ, समझ गए।…उठाओ जी, हनीफ और जुम्मन, ले चलो उस पार !”

बावन की ठंडी लाश झोली-झंडा के साथ फिर उठी।

बावन ने दो आजाद देशों की, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की-ईमानदारी को, इंसानियत को, बस दो डेग में ही नाप लिया !

नागर नदी के बीच में पहुँचकर पाकिस्तान के पुलिस अफसरसाहब ने कहा-“नदी में ही डाल दो। इसकी झोलवी को उस पार दरख्त से लटका दो। जल्दी।”

नागर की धारा हठात् कलकला उठी। सिपाही खंजड़ी को पानी में फेंकते हुए कहता है-“डमरू बजाके रघुपति राघव गाते रहो !”

झनक…!

21

मेरीगंज गाँव के एकमात्र मालिक, एकछत्र जमींदार, तहसीलदारबाबू विश्वनाथ मल्लिक का खम्हार देख लो !…जिस बड़े चौताल पर एक पंक्ति में बैठकर, गाँधी जी के सराध के दिन लोगों ने सरबघटन भोज खाया, उसी को घेरकर खलिहान बनाया है तहसीलदार साहब ने। दस बीघे का घेराव है।

रामकिरपालसिंह अपनी बची-खुची जमीन, फसल-सहित, तहसीलदार के यहाँ सूद-रेहन रखकर तीरथ करने जा रहे हैं काशी, केदार जी, जहाँ तक जा सकें। तहसीलदार साहब ने कहा है, “बाकी रुपया जहाँ से लिखिएगा, मनीआर्डर से भेजते रहेंगे।”

बाकी खजाना, घर-खर्चा, जाड़े का कपड़ा, सकलदीप के प्राच्छित और सतनारायणपूजा के लिए खेलावन दो सौ रुपया माँगने गया। तहसीलदार साहब ने साफ जवाब दे दिया-“हाथ में एक पैसा नहीं है।”…घर के पिछवाड़े की जमीन, जिसमें धान करीब-करीब तैयार हो गया था, लिख दी तो तीन सौ रुपए दिए।

सब मिलाकर पाँच हजार मन से क्या कम होगा धान इस बार !

तन्त्रिमा-छत्रीटोली, कुर्म-छत्रीटोली, कुसवाहा-छत्रीटोली, धनुषधारी-छत्रीटोली और गहलोत छत्रीटोली के जन-मजदूरों की हाँड़ी माघ महीने में ही टँग गई है।…खम्हार में जितना धान हिस्सा होगा, उससे चौगुना तो कर्जा है। सब काट लिया जाएगा…और इस बार तो लगता है गाँव में गुजर नहीं चलेगा। खेलावन यादव पाँच हल चलाते थे, इस साल एक ही हल चलावेंगे, एक हल अधहरी (आधा हल) पर चलेगा। रामकिरपालसिंह ने तो खेती-बारी उठा ही दी। बुढ़िया को लेकर तीरथ चले गए। शिवशक्करसिंह दो हल चलावेंगे।-तहसीलदार साहब इस बार टक्टर (ट्रेक्टर) खरीद रहे हैं। बेतार कहता था, “उसी में सबकुछ होगा-हल, चौंगी, विधा, कोड़कमान, कादी-गोरा और धनकटनी भी ! आदमी की क्या जरूरत ? पानी का पम्पू आवेगा। इन्दर भगवान् की खुशामद की जरूरत नहीं। कमला नदी में पम्पू लगा दिया, मिसिन इसटाट कर दिया, और हथिया सूँड (इन्द्रधनुष) की तरह सब पानी सोखकर खेत पटा देगा।”…जब इन्दर भगवान को ही नून-नेबू चटा रहे हैं तहसीलदार साहेब, तो आदमी उनके हुजूर में क्या है ? कटिहार में एक जूट मिल और खुला है। तीन जूट मिल ?…चलो, चलो, दो रुपैया रोज मजदूरी मिलती है। गाँव में अब क्या रखा है !

एक महतमा जी का भरोसा था, उनको भी मार दिया।…बालदेव से पूछो न, महतमा जी की जगह पर अब कौन आवेंगे ! जमाहिरलाल ? मगर महतमा जी तो एक ही कोपिन पहनते थे।

विरची कहता है, “जहाँ सभी जात भाई का, बारहो बरन का, ऊँच-नीच का पत्ता जूठा हुआ है, उस खम्हार में बरक्कत तो उधियाकर होगा।…तहसीलदार साहेब आज कह रहे थे, इस बार सभी को अपने हिस्से में से औकाद मुताबिक धान देना होगा-एक कट्ठा, आध कट्ठा, एक सेर, आध सेर !…महतमा जी का चन्ना हो रहा है।”

“महतमा जी का चन्ना ? क्या होगा चन्ना ? सराध तो हो गया !”

“नहीं !…रहुआ के गुरुबंसीबाबू ने डिल्ली में आकर एक करोड़ या…एक लाख…पता नहीं एक हजार…याद नहीं, मगर एक मोट रुपैया गुरुबंसीबाबू ने जमाहिरलाल को जाकर दिया है।…महतमा जी का चन्ना ! सुनते हैं, और भी देंगे।”

“ऐं ! कौन हल्ला करता है उधर ?”

“अरे कौन, रमपियरिया है।”

रमपियरिया और रमपियरिया की माँ के गले की आवाज सुनी जाती है।…मठ पर झगड़ा हो रहा है। आज लगता है, मारपीट ज्यादा हुई है।

“रामदास गुसाईं आजकल दिन-भर गाँजा पीता है। एक-न-एक दिन वह भी खून करेगा।”

“साला, इन्हीं लोगों के पाप से धरती दलमला रही है।…भरस्ट कर दिया। अब वह मठ है ! लालबाग मेला का मीनाबाजार हो गया है। दस-दस कोस का लुच्चा-लफंगा सब आकर जमा होता है।”

तहसीलदार साहब आजकल रात में ऊपर के कोठे पर सुमरितदास के साथ कागज-पत्तर ठीक करते रहते हैं। किसी-किसी दिन सुमरितदास सीढ़ी पर लड़खड़ाकर गिर जाता है।…संथालों के घर में चुलाया हुआ महुआ का दारू बड़ा तेज होता है। गंगाई माँझी रोज आधा कंटर दे जाता है। कभी-कभी तहसीलदार साहब भी नीचे उतरकर खूब हल्ला करते हैं; कमली की माँ को, कमली को, सेबिया बूढ़ी सबको गोली से उड़ा देने की धमकी देते हैं।

… एक रात को तो इतना मात गए तहसीलदार साहब कि कमली की माँ डर से छाती पीटने लगी थी।…ऐसी खराब-खराब गाली तो जिंदगी में कभी एक बार भी उनके मुँह से नहीं सुनी गई, कमली की बंद किवाड़ के सामने आकर जोर-जोर से बकने लगे । कमली दरवाजा खोलकर बाहर आई और बोली, “बाबा ! मुझे जो सजा देनी हो दो। मगर माँ को गाली मत दो। उनका क्‍या कुसूर है ?”

कमली को देखते ही तहसीलदार साहब का नशा उतर गया, वे ऊपर भागे।

उस दिन से माँ कमली को एक मिनट भी अकेली नहीं छोड़ती है। बिलार को देखकर बच्चेवाली बिल्ली की सतर्क आँखें कैसी तेज हो जाती हैं। कमली की माँ को डर है, तहसीलदार साहब किसी दिन कोई कांड करेंगे। एक सप्ताह पहले शराब में एक दवा मिलाकर दिया उन्होंने-“कमली को पिला दो। एकदम खलास हो जाएगी। बड़ी मुश्किल से जोगाड़ किया है।”

उन पर कैसे विश्वास किया जाए ! न जाने कब क्‍या कर दें।

गाँव के घर-घर में ‘हे भगवान’ की पुकार मची हुर्ड है। सुबह से शाम तक रात-भर धान-दबनी कर जो मजदूरी मिलती है, खलिहान पर रही बाकी मोजर हो जाता है। नाई-धोबी और मोची का खन भी नही जुड़ेगा इस बार।…मिल का भोंपा बजता है रोज, सुनते नहीं ? बुला रहा है–आओ-ओ-ओ-हो-हो-हो-हो !’

रात के सन्‍नाटे में जोतखी काका की खाँसी बड़ी डरावनी सुनाई पड़ती है-खाँयें-खाँयें ।…दिन में ठीक दोपहर को अमड़ा गाछ पर बैठकर कागा जिस तरह बोलता है, ठीक उसी तरह खाँएँ-खाएँ !

…खाएगा ! सबको खा जाएगा। पिंगलवर्णा देवी क्रमशः बढ़ी आ रही है। उसके हजारों गण दाँत निकाले हैं, जीभ लपलपा रही है। खाएगा खाएगा !

भयार्त शिशु की तरह सारा गाँव कुहरे में दुबका हुआ थर-थर काँप रहा है !

“ख़बरदार-हो-य-य-य-य-खबरदार !”

तहसीलदार साहब ने ख़लिहान जोगाने के लिए तीन संथालों को और डयोढ़ी के पहरा के लिए पहड़िया सिपाहियों को बहाल किया है। एक नाल बंदूक का लैसन फिर मिला है।…चलित्तर कर्मकार जब तक पकड़ाता नहीं है, पैसेवालों को रात में नींद नहीं आएगी। …पहरेवालों की बोली भी डरावनी मालूम होती है। आजकल कोठी के जंगल में शाम को ही एक रोशनी जलती है-बहुत तेज; फिर रात में और फिर भोर को। बालदेव जी जगे हुए हैं। शाम को पुरैनियाँ से लौटे हैं…उनको नींद नहीं आ रही है। पुरैनियाँ जाने के समय लछमी ने बावनदास का बस्ता, गाँधी जी की चिट्ठियोंवाला बस्ता देते हुए कहा था, लघुसंका करने के समय पॉकिट से निकालकर…गांगुली जी से वह भेंट करने गया था। गांगुली जी ने पूछा था, “बावनदास ने कुछ दिया है आपको ?”

“जी, ऊँहूँ…नहीं !” बालदेव जी इस जाड़े के मौसम में भी पसीना-पसीना हो गए थे।

न जाने क्यों गांगुली जी अचानक उदास हो गए।

…बालदेव अब जान रहते इन चिट्ठियों को नहीं दे सकता। इन चिट्ठियों को देखते ही जमाहिरलाल नेहरू जी बावनदास को मेनिस्टर बना देंगे, नहीं तो डिल्ली जरूर बुला लेंगे।…यों भी आज तक जितने लीडर आए, सबों ने बावनदास से ही हँसकर बातें कीं।

…उस बार मेनिस्टर साहेब आए। बड़े-बड़े लीडरों, मारवाड़ियों ने, वकीलों, मुक्तियारों और जमींदारों ने दसखत करके दरखास दिया, “भगवतीबाबू सरकारी वकील को कांग्रेस का मेम्बर बहाल कर दिया जाए।” मगर मेनिस्टर साहब ने बावनदास से पूछा, “क्यों बावनदास जी ?” भगवतीबाबू बहाल नहीं हुए। आखिर बावन की ही बात रही।…भगवतीबाबू ने बियालीस में सुराजिया को फाँसी पर झुलाने के लिए खूब बहस किया था।

और ये चिट्ठियाँ !…नहीं, वह हरगिस नहीं देगा।…लछमी को न जाने क्या हो गया है ! जिस दिन से बस्ता मिला, दोनों बखत सतसंग के समय सिर छुलाकर सामने रखती थी।…रोज चन्दन और फूल चढ़ाती थी इस पर। कभी-कभी चिट्ठियों को खोलकर पढ़ती और रोती। पुरैनियाँ से लौटने पर कुशल-मंगल पूछना तो दूर, पूछ बैठी, “गंगुली जी को दे दिया न ?”

“हाँ-हाँ दे दिया। इतना ना-परतीत था तो मेरे हाथ में दिया ही क्यों था ?”

बालदेव जी को नींद नहीं आ रही है। बैलगाड़ी पर पुआल के नीचे बस्ता छिपाकर रख दिया है। धूनी तो धू-धू कर जल रही है।…

बालदेव जी उठकर बाहर जाते हैं।

“होये !…खबरदार !” पहरू चिल्लाता है। बालदेव जी धूनी के पास बैठकर लकड़ियों को जरा इधर-उधर करते हैं, फिर कनखी से लछमी के बिछावन की ओर देखते हैं। धीरे से बस्ता निकालकर खोलते हैं। उनका सारा देह सिहर रहा है, जीभ सूखकर काठ हो गई है, मुँह में थूक नहीं है।… धूनी की आग लहलहा उठी है, लकड़ियाँ चिट्-चिट् बोलती हैं।…बालदेव ने एक चिट्ठी निकाली…।

“दुहाई गाँधीबाबा ! बाबा रे…!” लछमी बिछावन पर से ही झपटती है-“गुसाईं साहेब ! छिः छिः यह क्या कर रहे हैं !…सतगुरु हो, छिमा करो ! बालदेव !…पापी,… हत्यारा !”

धूनी की आग लछमी के कपड़े में लग जाती है। “लगने दो आग ! मुट्ठी खोलिए। बस्ता दीजिए बालदेव जी ! मैं जलकर मर जाऊँगी, मगर…।”

बालदेव जी की कसी हुई मुट्ठी खुल जाती है। लछमी बस्ते को कलेजे से चिपकाकर खड़ी होती है। कमर से लिपटा हुआ कपड़ा खुद-ब-खुद गिर पड़ता है। बालदेव जी कमंडल से पानी लेकर छींटते हैं।

“हे भगवान ! सतगुरु हो ! जै गाँधी जी !…बाबा…जै बावनदास जी ! ह: हः !” लछमी रो रही है।

वस्त्रहीन खड़ी लछमी रो रही है। लछमी के हाथ-पाँव जल गए हैं; बड़े-बड़े फफोले निकल आए हैं। बालदेव जी अपनी मसहरी में आकर छिप जाते हैं। लेटकर सोचते हैं-नहीं, अब यहाँ रहना अच्छा नहीं। वह किस मुँह से यहाँ रहेगा ?…लछमी की ओर अब वह निगाह उठाकर कभी देख नहीं सकेगा।…वह पुरैनियाँ जाएगा, वहीं से चन्ननपट्टी चला जाएगा। वह अब अपने गाँव में रहेगा, अपने समाज में, अपनी जाति में रहेगा।…जाति बहुत बड़ी चीज है।…जाति की बात ऐसी है कि सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पाटी में हैं। यह तो राजनीति है ! लछमी क्या समझेगी ?…कासी जी का बरमचारी तो लगता है, अब यहीं खुट्टा गाड़ेगा…ठीक है।…नहीं, लछमी पर जाते-जाते अकलंग लगाकर नहीं जाएगा वह…

“गुसाईं साहेब, उठिए। सतसंग का समय हो गया !” लछमी कराहते हुए उठती है। सारा देह जल गया है।

रोज की तरह लछमी उठती है, उठकर बालदेव जी के बिछावन के पास आती है। मसहरी हटाकर बालदेव जी के अँगूठों में आँखें लगाती है, “सा हे ब-बन्दगी !”

बालदेव जी रोते हैं-सिसकियाँ लेकर, “ल-छ-मी !”

“उठिए, गुसाईं साहेब !”

22

(तीन महीने बाद !

1948 साल के अप्रैल की एक सुबह ।

इस इलाके में अखतिया पदुआ-भदै बानेवाले किसानों को चाहिए कि सूरज उगने के पहले ही खेत को चार चास कर दें ! भुरुकुआ तारा जगमग कर रहा है। कमला नदी के गड्ढे में उसकी छाया झिलमिला रही है। लगता है, नीलकमल खिला है।

कंधे पर हल लिए मरियल बैलों को हाँकता हुआ जा रहा है विरंची… कोयरीटोला के सोबरन का तीन बीघा खेत मनकुत्ता पर जोतता है। मगर इस साल टोटा पड़ेगा । उसकी सूरत, दियासलाई की डिबिया में जैसे हलवाहे की छापी रहती है-एकदम दुबला-पतला, काला-कलूटा, कमर में बिस्ठी-वैसी ही है।

खेलावन अब खुद भैंस चराता है। तीन बजे रात में भैंस जैसा चरती है वह दिन-भर में नहीं चरेगी। अब तो उसको अपना रमना (चरागाह) भी नहीं है, इसीलिए धत्ता की ओर ले जाता है। खेलावन यादव, यादवटोली का मड़र, भैंस चराकर लौट रहा है।

आसमान साफ हो रहा है। सबके चेहरों पर सुबह का प्रकाश पड़ता है-झमाई हुई ईंट जैसे चेहरे !

तहसीलदार साहब का ट्रैक्टर लेकर डलेवर साहब निकले-भट-भट-भट-भट-भट !

तहसीलदार साहब दोमंजिले की छत पर खड़े, हाथों को पीछे की ओर बाँधे टहल रहे हैं। भट-भट-भट-भट-भट ! छत्त दलकती है। उसी के ताल पर उनका कलेजा धुकधुका रहा है।…कौन आ रहा है ? कौन ? सेबिया ?…चुप !…धीरे से ! क्या ?

“क्या ?” तहसीलदार साहब पूछते हैं।

“ऊँ ! बतहा ! नाती भेलहौं !” सेबिया हँसती है।

“चुप ! जिन्दा है या…।”

“ऊँह ! गुजुर-गुजुर हेरैछै !”

…उफ ! भगवान ! तहसीलदार साहब थरथर काँप रहे हैं।

कमला नदी के उस पार, अधपके रब्बी की फसल के उस पार, सेमलबाड़ी के जंगल के उस पार आसमान लाल हो गया है। दक्खिन…कोठी के बाग में गुलमुहर की लाल-लाल डालियाँ दमक उठती हैं।

ड्योढ़ी के उस पार बच्चे के रोने की आवाज नहीं जाने पावे ! इन्तिजाम हो रहा है।…कोई इन्तिजाम ज़रूर हो जाएगा।….यदि बच्चा जोर से रोए ! ऐं, गला टी…प दो। मार डालो !

दिल्ली में, राजघाट पर, बापू की समाधि पर रोज श्रद्धांजलियाँ अर्पित होती हैं। संसार के किसी भी कोने का, किसी भी देश का आदमी आता है, वहाँ पहुँचकर अपनी जिन्दगी को सार्थक समझता है।

कलीमुद्दींपुर में, नागर नदी के किनारे, चोरघट्टा के पास साँहुड़ के पेड़ की डाली से लटकती हुई खद्दर की झोली को किसी ने शायद टपा दिया है।…कौन लेगा ? दुलारचन्द कापरा ने एक महीने के बाद जाकर देखा, झोली तो लटक रही है…डाली से। जिला कांग्रेस का कोई भी वरकर देखते ही पहचान लेगा-बावनदास की झोली है। झोली । कापरा ने टपा दी। मगर झोली का फीता अभी भी डाली में झूल रहा है।

किसी दुखिया ने इसे चेथरिया पीर (जिस पेड़ को पीर समझकर चीथड़ा चढ़ाते हैं) समझकर मनौती की है, अपने आँचल का एक खूँट फाड़कर बाँध दिया है-“मनोकामना पूरी हो तो नया चेथरा चढ़ाऊँगी !” बहुत बड़ी आशा और विश्वास के साथ वह गिरह बाँध रही है।…दो चीथड़े।

पूर्णिया जेल के सामने बड़ा पुराना वटवृक्ष है। उसके नीचे सूखी हुई पत्तियाँ हवा में इधर-उधर उड़ रही हैं। वट के बँधाए चबूतरे के पास एक युवती खड़ी है।…साथ में है प्यारू !

खाली देह पर एक पुराना गमछा रखे, सिर्फ जाँघिया पहने एक वार्डर साहब बार-बार बारिक से निकलकर युवती को देखते हैं, “आप डाक्टर साहेब की वाइफ हैं ?”

युवती ने गर्दन हिलाकर कहा-“नहीं !”

वार्डर साहेब प्यारू की ओर देखते हैं। प्यारू इस वार्डर को जानता है-बड़ा बेकूफ है। हमेसा खराब-खराब बात बोलता रहता है। वह मुँह फेर लेता है।

जेल का लौह-कपाट झनझनाकर खुलता है। युवती के चेहरे पर से प्रतीक्षा की बेचैनी हट जाती है। उसके चेहरे पर हाल ही में जो छोटी-छोटी झुर्रियाँ पड़ गई थीं धीरे-धीरे खिल पड़ती हैं।

डाक्टर इस तरह मुस्कराता, डेग बढ़ाता, हाथ में छोटा बैग लिए आ रहा है, मानो लेबोरेटरी से छुट्टी पाकर लौटा है।

प्यारू का चेहरा देखने काबिल हो रहा है। वह अपने अन्दर में उठनेवाले खुशी के आवेगों को दबाता है, किन्तु उसका मुँह अस्वाभाविक रूप से खुला हुआ है।

“तुम भी किसी जेल में थीं क्या ?”

“नहीं बाबा ! ऐसी किस्मत लेके नहीं आई।…झुको ! बाबा विश्वनाथ का प्रसाद है!” युवती रूमाल से सूखे बेलपत्तर और फल निकालकर डाक्टर प्रशान्त के सिर से छुलाती है।

“तब प्यारू…क्या हाल है ? ममता ! प्यारू से बातचीत हुई है या नहीं ?”

“सुबह से और कर क्या रही हूँ !” ममता हँसते हुए कहती है, “घोड़ा-गाड़ी बुलाइए प्यारिचाँद सरकार !”

प्यारू हँसता-लँगड़ाता कचहरी की ओर जाता है।

“तीन बजे रात में पहुँची पूर्णिया स्टेशन।…ज्योति-दी तो आजकल यहीं हैं न ! उनके डेरे पर गई, सुबह उठकर कलक्टर साहब के बँगले पर गई। दस्ता आर्डर साथ में था तुम्हारी रिलीज़ का । ज्योति-दी ने कहा, यदि कलक्टर साहब टूर पर निकल गए तो फिर देर हो सकती है !…तो अभी कहाँ चलना है ?” ममता मुस्कराती है।

“तुम मेरीगंज नहीं चलोगी?”

“क्यों नहीं ?…मैंने पन्द्रह दिन की छुट्टी ले ली है।”

एस.पी. साहब का चपरासी खत लेकर आया है। एस.पी. साहब ने डाक्टर को अपने बँगले पर निमन्त्रित किया है।

23

तहसीलदार साहब अब नीचे नहीं उतरते हैं। ऊपर ही रहते हैं। दिन भर ताड़ी पीकर रहते हैं, रात में संथालटोली का महुआ का रस । कभी होश में नहीं रहते हैं। सुमरितदास बेतार से रोज पूछते हैं, “सोचा उपाय ?”

“मेरा तो मगज नहीं काम कर रहा है।”

“नहीं काम कर रहा है, तो लो एक गिलास। पियो साले ! यदि कहीं बोले तो देख लो बन्दूक!” कमली की माँ दरवाजा कभी नहीं खोलती। कुएँ की ओर खुलनेवाला दरवाजा कभी-कभी खोलती है।…कमरे के अन्धकार में, एक कोने में, एक छोटा-सा दीप जल रहा है। कमली की गोदी में उसका शिशु कपड़े में लिपटा सो रहा है।…कमली कजरौटी में काजल पार रही है।

भट-भट भर्र र्र

एक स्टेशन वैगन पूर्णिया-मेरीगंज रोड पर भागी जा रही है।

चलते समय ममता की नजर बचाकर प्यारू ने डाक्टर के हाथ में एक लिफाफा दिया है। आगे ड्राइवर की बगल में बैठा हुआ प्यारू कभी-कभी गर्दन उलटकर पीछे की ओर देखता है। डाक्टर साहब चिट्टी पढ़ रहे हैं।

“प्राणनाथ !”

कमला की चिट्ठी है-एक सप्ताह पहले की चिट्ठी ।

“प्राणनाथ !”

पता नही, समय पर यह पत्र तुमको मिले या नहीं। देर या सबेर, कभी भी मेरी यह चिट्ठी तुम्हें मिल ही जाएगी, मुझे पूरा विश्वास है। तुम मेरे पास दौड़े आओगे । तुम जानते हो, अब मुझे डर लगने लगा है। तुम्हारा…तुम्हारा…कैसे लिखूँ ? …माँ कहती है, यदि तुम किसी तरह बाबा को लिख दो या मालूम करा दो कि मेरी होने वाली संतान के तुम पिता हो, तो मैं जी जाऊँ। विश्वास नहीं करती माँ ! बाबू जी अब एकदम पागल हो गए हैं। न जाने कब क्या हो ! तुम्हारी किताबों ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। मुझे कितना बडा सहारा मिला है तुम्हारी किताबों से । लेकिन अब एक नई किताब चाहिए जिसके पृष्ठ पृष्ठ में लिखा हुआ हो-कमला ! विश्वास करो ! डरो मत ! जो होगा, मंगलमय होगा ।

डाक्टर एक ही साँस मे इतना पढ़ गया। इसके बाद उसने ममता की ओर निगाह डाली। रात भर की जगी ममता गाड़ी के हिचकोलों पर मीठी झपकी ले रही है। चोट लग जाएगी !

“और कितनी दूर ?” ममता जागकर पूछती है।

“और एक घंटा,” प्यार कहता है।

डाक्टर आगे पढ़ता है-“ बाबा तुम्हारे बच्चे का मार डालेंगे ।”

“नहीं ! नहीं !”

“ऐं ?” ममता पूछती है, “क्या है ?”

डाक्टर ममता के हाथ में पत्र देकर बाहर की और देखता है। प्यारू गर्दन उलट उलटकर डाक्टर साहब की आर देखता है।

ममता आँखें मलते हुए पढ़ती है-“प्राणनाथ ! …किसकी चिट्ठी है ? कमला की ?”

ममता पढ़ रही है। डाक्टर ने एक बार ममता की आर देरा -ममता को नींद से माती आँखें एक बार चमकती हैं। पत्र शेष करके वह पूछती है, “और कितनी दूर ?”

“अब और एक घंटा। रास्ता कच्चा है !”

“और वह गणेश कहाँ है ?”

“उसकी तो एक लबी कहानी है। ब्रह्मममाज मंदिर में उसे रखवा दिया था। न जाने कहाँ से उसके एक चाचा ऊपर हो गए। बहुत बखेड़ा हुआ, जाति-धर्म का बवंडर उठाया। मैंने भी कह दिया ले जाओ!”

“उससे भैंस चरवाता है,” प्यारू कहता है, “उसके गाँव का आदमी बराबर कचहरी आता है न!”

“मैंने मेडिकल गजट में तुम्हारी रिपोर्ट दे दी है। एक संक्षिप्त रिपोर्ट है-जंगली जड़ी-बूटी और यहाँ के गाँवों में प्रचलित टोटकों के बारे में-तुम्हारी चिट्ठियों से सार्ट करके लिख दिया।”

“लेकिन, मैंने तो फैसला कर लिया है, रिसर्च असफल होने की घोषणा कर दूंगा।”

“कोई रिसर्च कभी असफल नहीं होता है डाक्टर ! तुमने कम-से-कम मिट्टी को तो पहचाना है।…मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत। छोटी बात नहीं।”

डाक्टर ममता की ओर देखता है-एकटक। ममता बाहर की ओर देख रही है-विशाल मैदान !…वंध्या धरती !…यही है वह मशहूर मैदान-नेपाल से शुरू होकर गंगा किनारे तक-वीरान, धूमिल अंचल। मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है-पंक्तिबद्ध दीपों-जैसी लगती है दूर से।…तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते हुए सूरज की लाली क्रमशः मटमैली हो रही है।

भर्र र र्र…

“सुमरितदास ! अभी ट्रैक्टर क्यों चला रहा है ? कहाँ ले जा रहा है, ड्राइवर से पूछो तो।” तहसीलदार साहब दोमंजिले की छत पर से पुकारते हैं।

“ट्रैक्टर नहीं। मोटर है, मोटर !”

“मोटर ?…कौन है ?”

“डागडर !”

“कौन डाक्टर ?”

सुमरितदास दौड़कर छत पर जाता है, “अपने…डागडरबाबू। साथ में एक जलाना है।…प्यारू भी है।”

तहसीलदार साहब हाथ में बन्दूक लेते हैं। सुमरितदास थर-थर काँपते हुए कहता है-“दुहाई ! ऐसा काम मत कीजिए।”

“ऐसा काम नहीं करूँ ?…तब क्या करूँ ?”

प्यारू पुकारता है, “मौसी !…ओ मौसी !”

“कौन ? प्यारू ?” माँ दरवाजे की फाँक से कहती है, “क्या है ?”

“डागडरबाबू !”

“ऐंहें-ऐंहें-आँ-आँ,” सौर-गृह में कमली का नन्हा रोता है, “ऐं-हें-ऐं-हाँ !”

ममता जल्दी से किवाड़ के पास जाकर कहती है, “किवाड़ खोलो मौसी !…मैं हूँ ममता। खोलो तो पहले !”

किवाड़ के पल्ले खुल जाते हैं। ममता सौर-गृह के अन्दर चली जाती है।…डाक्टर अकेला, चुपचाप खड़ा है। सीढ़ी पर खड़ाऊँ की आवाज होती है-भारी-भरकम आवाज ! कोई जोर-जोर से पैर पटककर चल रहा है।

“कौन है ? डाक्टर ?” तहसीलदार साहब चिल्लाते हैं।

“आइए ! बैठिए डागडरबाबू।”

सुमरितदास मसूढ़े निकालकर हँसता है, “आइए !”

“नहीं !…सुमरितदास, इससे पूछो, कहाँ आया है ? किसके यहाँ आया है ? क्या करने आया है ? क्या लेने आया है ?…पूछो !”

सुमरितदास बेतार डाक्टर के पास आकर कनखी और इशारों से समझाता है, “आजकल जरा ज्यादा ढलने लगी है न…इसीलिए !”

सौर-गृह के दरवाजे की फाँक से कमली की माँ कहती है, “कमली के बाबू ! कैसे हो तुम ? जमाई को…”

“जमाई को क्या ? अपने जमाई को क्यों नहीं कहती हो ? वह मेरा पैर छूकर प्रणाम कहाँ करता है ?”

डाक्टर तहसीलदार की चरण-धूलि लेता है।

तहसीलदार साहब अचानक फूटकर रो पड़ते हैं, डाक्टर साहब को बाँहों में जकड़कर रोते हैं, “मेरा बेटा ! बाबू !…मेरा बेटा !”

सुमरितदास बेतार ने रात में ही घर-घर खबर पहुँचा दी-“कमली की सादी तो पहले ही डागडर बाबू से हो गई थी।…तुम लोग तो जानते हो ! पाँच पंच को जानकर जब-जब सादी की बात पक्की हुई, एक-न-एक विघिन पड़ गया। इसीलिए कासी के पंडितों ने गंधरब-बिवाह कराने को कहा। गंधरब बिवाह की बात किसी को मालूम नहीं होने दी जाती है। यदि बच्चा हो तो सबसे पहले बाप उसको देखेगा तब और लोग।…डागडरबाबू आ गए हैं। अब कल छट्ठी के भोज का निमन्त्रण देने आया हूँ तुम लोगों को। कल सुबह से ही आनन-बधावा मचेगा।”

“इस्स् ! यह तो खिस्सा-कहानी जैसा हो गया ! एकदम किसी को पता नहीं !”

ब्राह्मणटोली के पुरोहित देवानन झा ने लोगों से कहा, “अँगरेजी फैसनवालों का सात खून माफ है।”

जोतखी जी के कानों में बात पड़ी; उन्होंने घृणा से मुँह सिकोड़ लिया।

खेलावन यादव ने कहा, “पैसावाला अधरम भी करेगा तो वह धरम ही होगा।”

लेकिन निमन्त्रण अस्वीकार करने की हिम्मत किसी में नहीं।

सुबह को गाँव के चमारों ने आकर नाच-नाचकर ढोल बजाना शुरू किया। औरतें झुंड बाँध-बाँधकर सोहर गाती हुई आने लगीं। लेकिन सबके चेहरे पर एक उदासी एक मनहूस काली रेखा खिंची हुई है।…मन में रंग नहीं।

तहसीलदार साहब बहुत देर तक अपने कमरे में चुपचाप बैठकर कुछ सोचते हैं; फिर बाहर आकर कहते हैं, “सुमरितदास ! लोगों से कह दो…हरेक परिवार को पाँच बीघा के दर से जमीन मैं लौटा दूँगा । साँझ पड़ते-पड़ते मैं सब कागज-पत्तर ठीक कर लेता हूँ।… और संथालटोली में जाकर कहो…वे लोग भी आकर रसीद ले जाएँ। एक पैसा सलामी या नजराना, कुछ भी नहीं ! अरे, मैं क्‍यों दूँगा ? दे रहा है नया मालिक ! मालिक साहब का हुकुम है, सुनते हो नहीं ! रो रहा है वह ! वह हुकुम दे रहा है। लौटा दो ! दे दो, खेलावन को उसकी जमीन का सब धान दे दो।”

डाक्टर प्रशांत और ममता की आँखें चार होती हैं।

मुँह क्या देखते हो ? मुझे पागल समझते हो ? ठीक है, पागल क्‍यों नहीं समझोगे ?…योगेश्वर कृष्ण ने अपनी सारी विद्याबुद्धि लगाकर कोशिश की, मगर दुर्योधन ने साफ कह दिया-सूई की नोक पर जितनी मिट्टी चढ़ती है उतनी भी नहीं दूँगा ।… जमीन !… धरती ! एक इंच जमीन के लिए हायकोठ तक मुकदमा लड़ते हैं लोग ! और मैं सौ बीघे जमीन दे रहा हूँ। पागल तो तुम लोग हो ! अरे, यह जमीन तो उन्हीं किसानों की है, नीलाम की हुई, जब्त की हुई, उन्हें वापस दे रहा हूँ। मैं कहता हूँ, ऐलान कर दो, मालिक का हुकुम है !”

जै ! जै ! जै हो !

बोलिए प्रेम से-महतमा जी की जै !

डिग-डिग-डिडग ।
रिंग-रिंग-ता-धिन-ता ।
डा-डिग्गा-डा-डिग्गा !
झुमुर-झुमुर… हुर्रर हुर्रर्र हुर्रर्र !

हाँ …अब…अब ठीक है। अब देखो, सब चेहरों पर, मुर्दा चमड़ों पर लाली लौट रही है। सैकड़ों जोड़ी आँखें खुशी से चमक उठती हैं, मानों दीप जले हों ।

कुमार नीलोत्पल की आज बरही है।

हाँ, ममता ने कमला के पुत्र को नाम दिया है-कुमार नीलोत्पल। डाक्टर ने आज पहली बार अपने पुत्र को गोद में लिया और देखा है। दुबला-पतला, पीले रंग का रक्‍त-मांस का पिंड ! ममता कहती है, “पटना ले चलो। एक महीने में ही तुम्हारा बेटा लाल हो जाएगा !” डाक्टर ने सैकड़ों ‘डिलिवरी” केस किए हैं। किंतु कुमार नीलोत्पल ! कमला का पीला चेहरा लाज से लाल हो गया था । डाक्टर की गोद में शिशु को देते वक्‍त उसकी बड़ी-बड़ी आँखों की पलकें झुकी हुई थीं । उसके ललाट पर सिंदूर का बड़ा-सा टीप जगमगा रहा था – अँधेरे में खड़ी ‘सिल्हुटिड’ तस्वीर-सी खड़ी माँ हाथ बढ़ाकर एक भयावनी छाया के हाथ में अपने शिशु को सौंप रही है। …अँधेरा… ! भयावनी छाया ! …नहीं, नहीं। डाक्टर ने अपने बाएँ हाथ की उँगलियों से नीलोत्पल के ‘हार्ट’ की धड़कन का अनुभव किया था, “अहा ! नन्‍हा-सा दिल, धुक-धुक कर रहा है।”

सौर-गृह में, बारह दिन के शिशु की लंबी उम्र, सुंदर स्वास्थ्य, विद्याबुद्धि और धन-सम्पत्ति के लिए मंगलगीत गाए जा रहे हैं। डाक्टर जगा हुआ है।…उसका रिसर्च ? ममता कहती है, “असफल नहीं हुआ है। मिट्टी और मनुष्य से इतनी गहरी मुहब्बत किसी ‘लेबोरेटरी’ में नहीं बनती।”

लेबोरेटरी !…विशाल प्रयोगशाला। ऊँची चहारदीवारी में बन्द प्रयोगशाला।… साम्राज्य-लोभी शासकों की संगीनों के साये में वैज्ञानिकों के दल खोज कर रहे हैं, प्रयोग कर रहे हैं।…गंजी खोपड़ियों पर लाल-हरी रोशनी पड़ रही है।…मारात्मक, विध्वंसक और सर्वनाशा शक्तियों के सम्मिश्रण से एक ऐसे बम की रचना हो रही है जो सारी पृथ्वी को हवा के रूप में परिणत कर देगा…ऐटम ब्रेक कर रहा है मकड़ी के…जाल की तरह ! चारों ओर एक महा-अन्धकार ! सब वाष्प ! प्रकृति-पुरुष…अंड-पिंड ! मिट्टी और मनुष्य के शुभचिन्तकों की छोटी-सी टोली अँधेरे में टटोल रही है। अँधेरे में वे आपस में टकराते हैं।

…वेदान्त…भौतिकवाद…सापेक्षवाद…मानवतावाद !…हिंसा से जर्जर प्रकृति रो रही है। व्याध के तीर से जख्मी हिरण-शावक-सी मानवता को पनाह कहाँ मिले ?… हा-हा-हा ! अट्टहास ! व्याधों के अट्टहास से आकाश हिल रहा है। छोटा-सा, नन्हा-सा हिरण हाँफ रहा है। छोटे फेफड़े की तेज धुकधुकी !…नीलोत्पल ! नहीं-नहीं ! यह अँधेरा नहीं रहेगा। मानवता के पुजारियों की सम्मिलित वाणी गूंजती है-पवित्र वाणी ! उन्हें प्रकाश मिल गया है। तेजोमय ! क्षत-विक्षत पृथ्वी के घाव पर शीतल चन्दन लेप रहा है। प्रेम और अहिंसा की साधना सफल हो चुकी है। फिर कैसा भय ! विधाता की सृष्टि में मानव ही सबसे बढ़कर शक्तिशाली है। उसको पराजित करना असम्भव है, प्रचंड शक्तिशाली बमों से भी नहीं…पागलो ! आदमी आदमी है, गिनीपिग नहीं।…सवारि ऊपर मानुस सत्य !

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेक दिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।
दिवि सूर्यसहस्र…।

…ममता गा रही है ! सुबह हो रही है। बगल के कमरे में तहसीलदार साहब खर्राटे ले रहे हैं। डाक्टर उठकर खिड़कियाँ खोल देता है। मटमैली, अँधियारी में कोठी का बाग ठिठका हुआ किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। गुलमुहर, अमलतास और योजनगन्धा की नई कलियाँ मुस्कराने को तैयार हैं।…नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं…।

“प्रशान्त !” ममता मुस्कराती हुई कमरे में प्रवेश करती है-सुबह को हौले-हौले बहने वाली हवा-जैसी। सद्यःस्नाता ममता के भीगे-बिखरे केशगुच्छ को डाक्टर छू लेता है।

“अरे धेत्त ! औरतों का भीगा केश नहीं छूना चाहिए। दोष होता है। पूछती हूँ, चाय पियोगे ? कुमार साहब का दूध गर्म हो रहा है। लगता है, रात-भर जगे रहे हों। कुल्ली कर लो। मैं चाय ले आती हूँ।” ममता मुस्कराती हुई जाती है।

बेचारी ममता की जिन्दगी का एकमात्र विलास-चाय ! शीला कहती थी एक बार, “ममता-दी चाय पीने का बहाना ढूँढ़ती रहती है। दिन-भर में दस-पन्द्रह प्याली…”

चाय की प्याली प्रशान्त के हाथ में देते हुए ममता पूछती है, “पढ़ गए…महात्मा जी की आखिरी लालसा ? मैं तो कहती हूँ, यह वह महाप्रकाश है, जिसकी रोशनी में दुनिया निर्भय हजारों बरस का सफर तय कर सकती है।”

“ममता ! मैं फिर काम शुरू करूँगा-यहीं, इसी गाँव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएँगे। मैं साधना करूँगा, ग्रामवासिनी भारतमाता के मैले आँचल तले ! कम-से-कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए ओठों पर मुस्कराहट लौटा सकूँ, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ…।”

ममता हँसती है-“मन करता है, किसी को आँचल पसारकर आशीर्वाद दूँ-तुम सफल होओ ! मन करता है, किसी कर्मयोगी के बढ़े हुए चरणों की धूलि लेकर कहूँ….” कहकर ममता प्रशान्त के पैरों की ओर हाथ बढ़ाती है।

“ममता !”

“ममता-दी !…लो इसे। दूध फेंकता है।” कमली अपने शिशु को गोदी में लेकर हँसती हुई आती है।

“दो ! कैसे फेंकता है ? कैसे पिलाती हो ? बोतल दो।” ममता आलथी-पालथी मारकर बैठ जाती है और बच्चे को गोद में ले लेती है। “तुमने टेब्लेट खा लिया कमला ? खा लो !”

प्रशान्त चुपचाप ममता को देख रहा है। शरतबाबू के उपन्यासों की यह नारी अपने विश्वास पर अडिग होकर आज भी आगे बढ़ रही है; रूप बदल दो, नाम बदल दो, समय बदल दो, जगह बदल दो, पर यह कभी बदल नहीं सकती।

कमली पूछती है, “प्यारू भी पटना चलेगा ?”

“हाँ,” ममता संक्षिप्त-सा उत्तर देती है।

“आएँ-ऐं…ऐं…,” नीलू रोता है।

“ना-ना… । पी लो बाबू ! राजा ! सोना !…मानिक !…नीलू !…रोओ मत ! अब रोने की क्या बात है प्यारे ?” ममता हँसती है।

कलीमुद्दींपुर घाट पर चेथरिया-पीर में किसी ने मानत करके एक चीथड़ा और लटका दिया।

लेखक

  • फणीश्वरनाथ रेणु

    हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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मैला आँचल द्वितीय भाग खंड11-23/फणीश्वरनाथ रेणु

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