धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर।
पतिता भूमि, परती जमीन, वन्ध्या धरती…।
धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफ की तरह फैली हुई हैं बलूचरों की पंक्तियाँ। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगातट तक, पूर्णिमा जिले के नक्शे को दो असम भागों में विभक्त करता हुआ_फैला-फैला यह विशाल भू-भाग। लाखों एकड़-भूमि, जिस पर सिर्फ बरसात में क्षणिक आशा की तरह दूब हरी हो जाती है।
सम्भवतः तीन-चार सौ वर्ष पहले इस अंचल में कोसी मैया की यह महाविनाश-लीला हुई होगी। लाखों एकड़ जमीन को अचानक लकवा मार गया होगा। एक विशाल भू-भाग, हठात् कुछ-से-कुछ हो गया होगा। सफेद बालू से कूप, तालाब, नदी-नाले पट गए। मिटती हुई हरियाली पर हल्का बादामी रंग धीरे-धीरे छा गया।
कच्छपपृष्ठसदृश भूमि ! कछुआ पीठा जमीन ? तन्त्रसाधकों से पूछिए, ऐसी धरती के बारे में वे कहेंगे_असल स्थान वही है जहाँ बैठकर सबकुछ साधा जा सकता है। कथा है…।
कथा होगी अवश्य इस परती की भी। व्यथा-भरी कथा वन्ध्या धरती की ! इस पाँतर की छोटी-मोटी, दुबली-पतली नदियाँ आज भी चार महीने तक भरे गले से, कलकल सुर में गाकर सुना जाती हैं, जिसे हम नहीं समझ पाते।
कथा की एक कड़ी, कार्तिक से माघ तक प्रति रात्रि के पिछले प्रहर में, सुनाई पड़ती है_आज भी ! सफेद बालूचरों में चरनेवाली हंसा-चकेवा की जोड़ी रात्रि की निस्तब्धता को भंग कर किलक उठती है कभी-कभी। हिमालय से उतरी परी बोलती है_केंक्-केंके-कें-एँ-एँ-गाँ-आँ-केंक् !
एक बालूचर से दूसरे बालूचर, दूसरे से तीसरे में_हज़ारों जोड़े पखेरू अपनी-अपनी भाषा में इस कड़ी को दुहराते हैं। दूर तक फैली हुई धरती पर सरगम के सुर में प्रतिध्वनि की लहरें बढ़ती जाती हैं_एक स्वरतरंग !
हिमालय के परदेशी पँछियों की टोलियाँ, नाना जाति-वर्ण-रंग की जोड़ियाँ प्रतिवर्ष हज़ारों की संख्या में पहाड़ से उतरती हैं_हहास मारती हुईं। फिर फागुन-चैत के पहले ही लौट जाती हैं। भूल-भटकी एकाध रह जाती हैं जो कभी-कभी उदास होकर पुकारती और अपनी ही आवाज में प्रतिध्वनि सुनकर, विकल होकर पाँखें पसारकर उड़ती-पुकारती जाती हैं_केंक्-केंक्-कें-एँ-एँ !
परदेशी चिरैया की करुण पुकार से वन्ध्या धरती की व्यथा बढ़ती है। कौन समझाए भूली पहाड़ी चकई को ? तुत्तु_चुप-चुप।
वन्ध्या धरती की व्यथा को पंडुकी ही समझती है, जो बारहों मास अपना दुख-दर्द सुनाकर मिट्टी के मन की पीड़ा हरने की चेष्टा करती है। वैशाख-जेठ की भरी दोपहरी में सारी परती काँपती रहती है, सफेद बालूचरों की पंक्तियाँ मानो आकाश में उड़ने को पाँखें तौलती रहती हैं। रह-रहकर धूलों का गुब्बारा_घूर्णिचक्र-सा_ऊपर उठता है ! इस घूर्णिचक्र में देव रहते हैं।
परती पर बहुत से देव-दानव रहते हैं। किन्तु, वन्ध्या धरती की पीड़ा हरने की क्षमता किसी में नहीं। पंडुकी व्यथा समझती है, क्योंकि वह एक वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी है। वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है_तुर तुत्तु-उ-उ, तू-उ, तुःउ, तूः। अर्थात्, उठ जित्तू_चाउर पूरे, पूरे-पूरे !
वैशाख की दोपहरी और भी मनहूस हो जाती है। किन्तु, निराश नहीं होती पंडुकी। अपने मृत पुत्र जित्तू को भूलने का बहाना करती है। आँसू पोंछ, उठ खड़ी होती है, फिर नाच-नाचकर शुरू करती है। सुर बदल जाता है और छोटे घुँघरू की तरह शब्द झनक उठते हैं
तु त्तु तुर, तुरा तुत्त।
बेटा भेल-लोकी लेल।
बेटी भेल-फेंकी देल।
क्या करोगी बेटा-बेटी लेकर, ओ रानी माँ, क्या होगा बेटा लेकर ? मुझे देखो, बेटा हुआ। कलेजे से सटा लिया। खुशी से नाचने लगी। इस खुशी में बेटी को फेंक दिया।…बेटा को काल ले गया। अब ? सब विध-विधाता का खेल है रानी माँ ! दुख मत करो। मुझे देखो, दुख से कलेजा फटता है, फिर भी कूटती हूँ, पीसती हूँ, कमाती हूँ, खाती हूं, गाती हूँ, नाचती हूँ : तु त्तु-तुर, तुरा-तुत्त !
किन्तु, वन्ध्या धरती माता की पीड़ा और भी बढ़ जाती है_ओ पंडुकी सखी ! कोखजली की ग्लानि तुम क्या समझो !
तब, पंडुकी पुनः अपने प्यारे जित्तू को आतुर होकर पुकारने लगती है_उठ जित्तू-ऊ, चाउर पूरे, पूरे-पूरे !
…वन्ध्या रानी माँ का धान कूटती थी पंडुकी। जित्तू जब गोदी में ही था, डगमगाकर चलता था, थोड़ा-थोड़ा। उसी उम्र में जित्तू को कहानी सुनने का कितना शौक था ! आँचल पकड़कर रोता-फिरता। काम के बीच में कभी-कभी पंडुकी उसे गोद में लेकर दूध पिलाती और एक कथा सुनाकर सुला देती। रोज-रोज नई कथा कहाँ से आए ! रानी माँ के मुँह से सुनी रानी माँ की दुख-दर्द-भरी कहानी के एकाध टुकड़े चुपचाप सुना देती।…रानी माँ पंडुकी से सत्त कराकर अपनी कहानी सुनाती। पंडुकी सत्त करती_एक सत्त दो सत्त…किसी और से नहीं कहूँगा रानी माँ।…जित्तु तो कोई और नहीं। उसे सुनाने में क्या दोष !
एक दिन ऐसा हुआ कि भरी दोपहरी में, काम के बेर जित्तू आकर रोने लगा_बिजूबन-बिजूखंड का पता पूछना लगा।…वह देवी मन्दिर का खाँड़ा लेगा, पंखराज घोड़े पर सवार होकर बिजूबन-बिजूखंड जाएगा। राक्षस के घर में वन्ध्या रानी की सुख-समृद्धि एक कलस में बन्द है। वह लड़ाई करेगा…। भोला जित्तू !
जित्तू वन्ध्या रानी माँ की उमड़ती हुई आँखों को पोंछना चाहता है। अपनी माँ के आँसुओं को भी वही पोंछा करता था। पंडुकी बोली_देख बेटा ! रोज-रोज चावल घट जाता है। समय पर तैयार नहीं होता। चावल पुर जाए तो तुझे सब कथा सुना दूँगी। तब तक उस पाखर पेड़ के नीचे जाकर सो रहो। जित्तू चला गया, चुपचाप। सो रहा पेड़ की छाया में_माँ के मुँह से सब कथा सुनने की आशा में। पंडुकी धान कूटने में मगन हो गई। उधर काल ने आकर जित्तू की कहानी समाप्त कर दी।
चावल पूरा हो गया। धान कूटते समय ही पंडुकी कथा की कड़ी जोड़ चुकी थी। जित्तू को पुकारा_उठ बेटा जित्तू, चावल पूरा हो गया_तुर-तुत्तु-उ-उ…।
एक बार जित्तू उठ जाए, एक ही क्षण के लिए। पंडुकी ऐसी कहानी सुनाएगी, ऐसी कहानी कि फिर…। बेचारा जित्तू अधूरी कहानी के सपने देखता सोया हुआ है। आँखें खोलो, पाँखें तोलो…बोलो ! ओ जित्तू, ओ जित्तू ! उठ जित्तू…!
चिरई-चुरमुन भी कहानी पर परतीत न हो, सम्भव है।
परती की अन्तहीन कहानी की एक परिकथा वह बूढा भैंसवार भी कहता है। गँजेड़ी है तो क्या !
गुनी आदमी ज़रा अमल पाँत लेता ही है। एक चिलम गाँजा कबूलकर कितने पीर-फकीर और साई-गोसाईं से यन्त्र-मन्त्र और वाक् लेते हैं लोग !
कथा का एक खंड_परिकथा !
कोसी मैया की कथा ? जै कोसका महारानी की जै !
परिव्याप्त परती की ओर सजल दृष्टि से देखकर वह मन-ही-मन अपने गुरु को सुमरेगा, फिर कान पर हाथ रखकर शुरू करेगा मंगलाचरण जिसे वह बिन्दौनी कहता है : हे-ए-ए-ए, पूरुबे बन्दौनी बन्दौ उगन्त सिरुजे ए-ए…
बीच-बीच में टीका करके समझा देगा_कोसका मैया का नैहर ! पच्छिम-तिरहौत राज। ससुराल-पूरब।
कोसका मैया की सास बड़ी झगड़ाही। जिला-जवार, टोला-परोपट्टा में मशहूर। और दोनों ननदों की क्या पूछिए ! गुणमन्ती और जोगमन्ती। तीनों मिलकर जब गालियाँ देने लगतीं तो लगता कि भाड़ में मकई के दाने भूने जा रहे हैं : फड़र्र-र्र-र्र। कोखजली, पुतखौकी, भतारखौकी, बाँझ ! कोसी मैया के कान के पास झाँझ झनक उठते !
एक बार बड़ी ननद ने बाप लगाकर गाली दी। छोटी ने भाई से अनुचित सम्बन्ध जोड़कर कुछ कहा और सास ने टीप का बन्द लगाया_और माँ ही कौन सतवन्ती थी तेरी।…कि समझिए बारूद की ढेरी में आग की लुत्ती पड़ गई। कोसका महारानी क्रोध से पागल हो गई : आँ-आँ-रे…ए…ए…
रेशमी पटोर मैया फाड़ि फेंकाउली-ई-ई,
सोना के गहनवाँ मैया गाँव में बँटाउली-ई-ई,
आँ-आँ-रे-ए-ए, रु-उ-पा के जे सोरह मन के चू-उ-उर,
रगड़ि कैलक धू-उ-रा जी-ई-ई !
दम मारते हुए, मद्धिम आवाज में जोड़ता है गीतकथाकार_रूपा के सोलह मन के चूर ? बालूचर के बालू पर जाकर देखिए_उस चूर का धूर आज भी बिखरा चिकमिक करता है !
सास-ननद से आखिरी, लड़ाई लड़कर, झगड़कर, छिनमताही कोसी भागी। रोती-पीटती, चीखती-चिल्लाती, हहाती-फुफनाती भागी पच्छिम की ओर-तिरहौत राज, नैहर। सास-ननदों को पँचपहरिया मूर्च्छाबान मारकर सुला दिया था कोसी मैया ने !….रासेत में मैया को अचानक याद आई_जाः गौर में तो माँ के नाम दीप जला ही न पाई !
गीता-कथा-गायक अपनी लाठी उठाकर एक ओर दिखाएगा_ठीक इसी सीध में है गौर, मालदह जिला में। हर साल, अपनी माँ के नाम दीया-बत्ती जलाने के लिए औरतों का बड़ा भारी मेला लगता है।…महीना और तिथि उसे याद नहीं। किन्तु किसी अमावस्या की रात में ही यह मेला लगता है, ऐसा अनुमान है।
_अब, यहाँ का किस्सा यहीं, आगे का सुनहु हवाल। देखिए कि क्या रंग-ताल लगा है ! कोसी मैया लौटी। गौर पहुँचकर दीप जलाई। दीप जलते ही, उधर सास की मूर्चा गई टूट, क्योंकि गौर से दीप जलाने से बाप-कुल, स्वामी-कुल दोनों कुल में इँजीत होता है। उसी इँजोत से सास की मूर्च्छा टूटी। अपनी दोनों बेटियों को गुन माकर जगाया_अरी, उठ गुनमन्ती, जोगमन्ती, दुनू बहिनियाँ !
छोटी ने करवट लेकर कहा_माँ ! चुपचाप सो रहो। बीस कोस भी तो नहीं गई होगी। पचास कोस पर तो मैं उसका झोंटा धरकर घसीटती ला सकती हूँ।
बड़ी बोली_सौ कोस तरह मेरा बेड़ी-बान, कड़ी-छान गुन चलता है। भागने दो, कहाँ जाएगी भागकर ?
माँ बोली_अरी आज ही तो सब गुन-मन्तर देखूँगी तुम दोनों का। तुम्हें पता है, कोसी-पुतोहिया ने गौर में दीप जला दिया ? तुम्हारे जादू का असर उस पर अब नहीं होगा।
_एँय ? क्या-आ-आ ? दोनों बहनें, गुनमन्ती-जोगमन्ती हड़बड़ाकर उठीं। अब सुनिए कि कैसा भौचाल हुआ है। तीनों-माँ-बेटियाँ_अपनी-अपनी गुन की डिबिया लेकर निकलीं।
छोटी ने अपनी डिबिया का ढक्कन खोला_भरी दोपहरी में आट-आठ अमावस्या की रातों का अन्धकार छा गया।
बड़ी ने अपनी अँगूठी के नगीने में बन्द आँधी-पानी को छोड़ा।
_उधर कोसी मैया बेतहाशा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते की नदियों को, धाराओं को, छोटे-बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेर, खैर, साँहुड़, पनियाला, तिनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बन्द करती छिनमताही भागी जा रही है। आँ-आँ-रे-ए…
थर-थर काँपे धरती मैया, रोए जी आकास :
घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, बेर-बेर पियास :
घाट न सूझे, बाट न सूझे, सूझे न अप्पन हाथ…
मूर्च्छा खाकर गिरती, फिर उठती और भागती। अपनी दोनों बेटियों पर माँ हँसी_इसी के बले तुम लोग इतना गुमान करती थीं रे ! देख, सात पुश्त के दुश्मनों पर जो गुन छोड़ना मना है, उसे-ए-ए-छोड़ती हूँ_कुल्हड़िया आँधी, पहड़िया पानी !
कुल्हड़िया आँधी के साथ एक सहस्र कुल्हाड़ेवाले दानव रहते हैं, पहड़िया पानी तो पहाड़ को भी डुबा दे।
अब देखिए कि कुल्हड़िया और आँधी और पहड़िया पानी ने मिलकर कैसा परलय मचाया है : ह-ह-ह-र-र-र-र…! गुड़गुडुम्-आँ-आँ-सि-ई-ई-ई-आँ-गर-गर-गुडुम !
गाँव-घर, गाछ-बिरिच्छ, घर-दरवाज़ा करतली कुल्हड़िया आँधी जब गर्जना करने लगी तो पातालपुरी में बराह भगवान भी घबरा गए। पहाड़िया पानी सात समुन्दर का पानी लेकर एकदम जलामय करता दौड़ा।…तब कोसी मैया हाँफने लगी, हाथ-भर जीभ बाहर निकालकर। अन्दाज लगाकर देखा, नैहर के करीब पहुँच गई हैं और पचास कोस ! भरोसा हुआ। सौ कोसों तक फैले हुए हैं मैया के सगे-सम्बन्धी, भाई-बन्धु। मैया ने पुकारा, अपने बाबा का नाम लेकर, वंश का नाम लेकर, ममेरे-फुफेरे, मौसेरे भाइयों को_भइया रे-ए-ए-, बहिनी की इजतिया तोहरे हाथ !
फिर एक-एक भौजाई का नाम लेकर, अनुनय करके रोई_‘‘भउजी, हे भउजी, लड़िका तोहर खेलायब हे भउजी, ओढ़नी तोहर पखारब हे भउजी-ई-ई, भइया के भेजि तनि दे-ए !’’
कुल्हड़िया आँधी, पहड़िया पानी अब करीब है! एकदम करीब! अब? अब क्या हो?…कोसी की पुकार पर एक मुनियाँ भी न बोली, एक सीकी भी न डोली। कहीं से कोई-ई जवाब नहीं। तब कोसी मैया गला फाड़कर चिल्लाने लगी-अरे! कोई है तो आओ रे! कोई एक दीप जला दो कहीं!
कोई एक दीप जला दे, एक क्षण के लिए भी, तो फिर कोसी मैया से कौन जीत सकता है? कुल्हड़िया आँधी कोसी का आँचल पकड़ने ही वाली थी…कि उधर एक दीप टिमटिमा उठा! कोसी मैया की सबसे छोटी सौतेली बहन दलारीदाय, बरदियाघाट पर, आँचल में एक दीप लेकर आ खड़ी हई। बस, मैया को सहारा मिला और तब उसने उलटकर अपना आखिरी गुन मारा ।
पातालपुरी में बराह भगवान डोले और धरती ऊँची हो गई।
गुनमन्ती और जोगमन्ती दोनों बहिनियाँ अपने ही गुन की आग में जल मरीं।… सास महारानी झमाकर काली हो गई!
उजाला हुआ। कोसी मैया दौड़कर दुलारीदाय से जा लिपटी। फिर तो…आँआँ-रे-ए…
दन रे बहिनियाँ रामा गला जोड़ी बिलखय,
नयना से ढरे झर-झर लो! गला भर आया है बूढ़े कथागायक का।
दोनों बहन गला जोड़कर घंटों रोती-बिलखती रहीं।
हिचकियाँ लेती हुई बोली दुलारीदाय-“दीदी, ज़रा उलट के देख। धरती की कैसी दुर्दशा कर दी है तुम लोगों ने मिलकर। गाँव-के-गाँव उजड़ गए, हज़ारोंहज़ार लोग मर गए। अर्ध-मृतकों की आह-कराह से आसमान काँप रहा है।”
“मरें, मरें! सब मरें! मेरे पिता के टुकड़े पर पलनेवाले ऐसे आत्मीय सम्बन्धियों का न जीना ही अच्छा। जो अपने वंश की एक अभागिन कन्या की पकार पर अपने घर की खिड़की भी न खोल सके। धरती का भार हल्का हआ-वे मरें!”
“धरती कहाँ है दीदी! अब तो धरती की लाश है। सफेद बालचरों में कफन से ढकी धरती की लाश!…इस इलाके में सबसे छोटी बहन को बड़े प्यार से दाय कहकर सम्बोधित करते हैं। दुलारीदाय बहनों में सबसे छोटी-सो भी सौतेली। बड़ी प्यारी बहन! शील-सुभाव इतना अच्छा कि…।
“दीदी, अब भी समय है। उलटकर देखो। क्रोध त्यागो। दुनिया क्या कहेगी?”
कोसी मैया ने उलटकर देखा-सिकियो न डोले! कहीं हरियाली की एक रेखा भी न बची थी। सिहर पड़ी मैया भी! बोली-“नहीं, धरती मरेगी नहीं। जहाँ-जहाँ बैठकर मैं रोयी हूँ, आँसू की उन धाराओं के आसपास धरती का प्राण सिमटा रहेगा।…हर वर्ष पौष पूर्णिमा के दिन उन धाराओं में स्नान से पाप धुलेगा। युग-युग के बाद, एक-एक प्राणी पाप से मुक्त होगा। तब, फिर सारी धरती पर हरियाली छा जाएगी।…धाराओं के आसपास सिमटे हुए प्राण नए-नए रंगों में उभरेंगे।”
दुलारीदाय ने चरण-धूलि ली और मुस्कराकर खड़ी हो गई। कोसी मैया खिलखिलाकर हँस पड़ी-“पगली! दुलारी!…हँसती क्यों है?” मैया हँसी-दुलारी के आँचल में नौ मन हीरे झरे। हाँ, कोसी मैया हँसे तो नौ मन हीरा झरे और रोए तो दस मन मोती! दुलारीदाय को वरदान मिला-“युग-युग तक तुम्हारा नाम रहे। तुम्हारे इलाके का एक प्राणी न भूख से मरेगा, न दुख से रोएगा। न खेती जरेगी और न असमय में अन्न झरेंगे। गुनी-मानी लोग तुम्हारे आँगन में जनमेंगे।…कछुआ-पीठा जमीन पर तन्त्र-साधना करके तुम्हारा मान बढ़ाएगी तुम्हारी सन्तान।”
आज भी देखिए-दुलारीदाय के आँचल-तले पलते जनपद को, गाँवों को, गाँव के लोगों को। उनकी एक परम्परा है।…परानपुर की बात अभी छोड़िएयह तो इस अंचल का प्राण ही है। हाँसा, बिसनपर, पानपत्ती, गीतबास कोठी, महेन्द्रपुर, मधुचन्दा, मधुलता, कँचनार टोली, पलासबनी,…रानीडूबी।
सिर्फ रानीडूबी गाँव पुराकाल से अपनी बदनामी ढो रहा है। बाकी सभी गाँव किसी-न-किसी अंश में अपने नाम की लाज बजा रहे हैं।
दुलारीदाय के दोनों बाजुओं में पलते इन सुखी-समृद्ध गाँवों का प्राण है परानपुर! दुलारीदाय के पूरबी महार पर बसा हुआ है यह गाँव। गाँव के पश्चिम-उत्तर कोण में है बरदियाघाट जहाँ दुलारीदाय आँचल में दीप लेकर प्रकट हई थी।…
“अब तो बैमान जमाना आ गया है बाबू साहब! किसी चीज का न धरम है और न है तेज। न रहे कोई देवता, नहीं रहे देव। जब से रेलगाड़ी आई, सभी देव-देवी भागे पहाड़। एकाध पीर, फकीर, साईं-गोसाईं रह गए तो वे भी अब रेलगाड़ी में चढ़कर दूर-दराज हज, तीरथ करने चले जाते हैं। नहीं तो, दुलारीदाय के इलाके में लगातार चार साल सूखा पड़े भला? अन्धेर है! पहले तो हर साल बरदियाघाट पर मानिक दियरा जलता था, किसी-न-किसी रात में।
पिछले दस-बारह साल से वह भी जलना बन्द है। कलियुग जो समाप्ति पर है!”…बढ़े गीत-कथाकार की वाणी पर विशेष ध्यान उचित नहीं। कोसी मैया की बातों पर भी हँसने की आवश्यकता नहीं।… मैया के माँ-बाप का नाम? जिसका कोई बाप नहीं, बाबा भोला उसका बापय जिसकी कोई माँ नहीं, माता उसकी गौरा पारवती।
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किन्तु, पंडुकी का जितू आज भी सोया अधूरी कहानी का सपना देख रहा है। वन्ध्या रानी माँ का सारा सुख-ऐश्वर्य छिपा हुआ है सोने के एक कलम में, बिजूबन-बिजूखंड के राक्षस के पास। देवी का खाँड़ा कौन उठाए? पंखराज घोड़े पर सवार होकर कौन जाएगा कलस लाने?
कथा-गायक बूढ़ा भैंसवार सारे युग को बेईमान कह रहा है।…एक-एक आदमी पाप-मुक्त जिस दिन हो जाएगा, सारी परती हरी-भरी हो जाएगी।…प्राणों के नए-नए रंग उभरेंगे!
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परानपुर गाँव के पूरब-उत्तर-कछुआ-पीठा भूमि पर खड़ा होकर एक नौजवान देख रहा है-अपने कैमरे की कीमती आँख से-धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर। पतिता भूमि, बालूचरों की श्रृंखला। हिमालय की चोटी पर डूबते हुए सूरज की रोशनी चमकती है।
अर्धवृत्ताकार होकर चली गई है ईस्टर्न रेलवे की एक ब्रांच लाइन। लाइन के किनारे के खम्भों की पंक्तियों के तारों पर बैठी हुई पंक्तिबद्ध किस्म-किस्म की चिड़ियों के मुँह लाइन की ओर!…ठीक गाड़ी आने के समय, सिगनल के गिरते ही, परती पर चरती हुई चिड़ियों में एक हल्की चुनमुनाहट होती है और वे टेलीग्राफ के तारों पर जा बैठती हैं; चुपचाप बैठी नहीं रहतीं, अपनी बोली में कचर-पचर बोलती ही रहती हैं। युवक कैमरामैन श्री भवेशनाथ एम.ए. की परीक्षा देकर आया है-परती के विभिन्न रूपों का अध्ययन करने। कैमरे का व्यू-फाइंडर उसकी अपनी आँख है, असली आँख है। वह मन-ही-मन सोचता है…तीस साल! बस, तीस साल और! इसके बाद तो सारी धरती इन्द्रधनुषी हो जाएगी। तब तक रंगीन फोटोग्राफी का विकास भी हो जाएगा।…झक-झकाझक-झका…! मालगाड़ी जा रही है। रोज तीन मालगाड़ियाँ!
गाड़ी परानपुर स्टेशन पर कुछ देर रुककर खुल जाती है।…आश्चर्य! गाड़ी जाते ही चिड़ियों की टोलियाँ फुर्र हो गईं। मानो किसी की प्रतीक्षा में वे सामूहिक रूप से पंक्तिबद्ध होकर रोज बैठती हैं…निराश भी नहीं होतीं कभी।
भवेशनाथ को वराहक्षेत्र की याद आती है। पिछले आठ-नौ साल से वह वराहक्षेत्र जाता है। पुरातन तीर्थ तो है ही-भवेश का वह नया तीर्थ है। वहाँ आदमी लड़ रहा है!…बड़े-बड़े टनल के अन्दर काम होते उसने देखा है; पहाड़ काटनेवाले कितने पहाड़ी जवानों के क्लोज़-अप उसके पास हैं। अरुण, तिमुर तथा सुणकोशी के संगम पर बैठकर पानी मापनेवाले, सिल्ट की परीक्षा करनेवाले विशेषज्ञों को वह भूल नहीं पाता है। पहाड़ों की कन्दराओं में तपस्या में लीन देवगण!…प्राणों में घुले हए रंग धरती पर फैलते क्यों नहीं? वह रंगीन फोटोग्राफी में दक्ष है।
भवेश ने देखा है, धरती पर रंग फैलते हैं।…दस साल पहले, एक शुभचिन्तक व्यक्ति की कृपा से, रोटरी क्लब में, उसने एक छायाचित्र देखा था-टैनिसी वैली स्कीम का आयोजन! बीसवीं सदी के अर्थनैतिक जगत् के महान् महाजन मुल्क के अन्तर्गत टैनिसी अंचल के किसानों की अवस्था देखकर वह अवाक् हो गया था। हिन्दुस्तान के अभागे किसानों से किसी भी माने में कम नहीं। इसी तरह पुराने हल से खेती करते थे, टूटे-फूटे झोंपड़ों में रहते थे। राह-घाट-बाट ठीक इसी तरह।…इसके बाद दिखलाया गया टैनिसी योजना का सूत्रपातय इस सम्बन्ध में जनमत-ग्रहण!…योजना के पक्ष में राय लेने, इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा पैदा करने का आयोजन!…और छायाचित्र के अन्त में स्कीम के कामयाब होने के बाद, उस उजाड़, बंजर और बेकार अंचल में युगान्तरकारी परिवर्तन। दिन फिरे हैं किसानों के, खेतों में ट्रेक्टर चल रहे हैं, नई-नई मशीनों के द्वारा फसल काटी जा रही है। हाइड्रो-इलेक्ट्रिसिटी की सहायता से बड़े-बड़े कल-कारखाने खुल गए। सब मिलाकर एक स्वप्नलोक की सष्टि साकार…।
आसमान में पंचमी का चाँद हँसता है और परती पर भवेश की हल्की छाया डोलती है!
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बैलगाड़ी पर जा रहे हैं सुरपतिराय। दरभंगा जिले से आए हैं। डॉक्टरेट की तैयारी कर रहे हैं। नदियों के घाटों के नाम, नाम के साथ जुड़ी हुई कहानी नोट करते हैं, गीत सुनते हैं और थीसिस लिखते हैं।
रानीड़बी घाट, नदी दुलारीदाय, परगना हवेली, थाना…।
रहिकपुर राज की रानी ने अपने वृद्ध राजा को पान में विष मिलाकर खिला दिया और डोली में बैठाकर नवाबी दरबार में भेज दिया। रास्ते में कहारों ने देखा, राजा साहब निष्प्राण पड़े हैं। जवान कोतवाल साहब ने धोखेबाज़ी की। बोले, “रानी, राजपाट आधा दे दो, नहीं तो दरबार में भेद खोल दूँगा।” रानी के कोमल हृदय को इससे बड़ी चोट लगी, क्योंकि उसने जवान कोतवाल के प्रेम में पड़कर राजा को विष दिया था।…रात में रानी उठी और गले में घड़ा बाँधकर दुलारीदाय के एक कुंड में डूब मरी!…रानीडूबी?
सुरपति अभी तक तीन ही घाटों की कहानियाँ बटोर सका है। सो भी भूली बिसरी, आधी-पूरी कहानी के टुकड़े। आश्चर्य! सभी कहानियों के सूत्र परानपुर की ओर ही!…परानपुर के पंडित, परानपुर के ओझागुणी, परानपुर की डायन, परानपुर का ब्रह्मपिशाच…आदि-आदि! सात घाट का पानी पी चुकने पर सुरपति को भी विश्वास हो जाएगा-चिरई-चूरमन और भैंसवार ही असल कथाकार हो सकते हैं।… सैकड़ों वर्षों की कहानियाँ, सोने की पुरातन मुद्राओं की तरह।
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परानपुर बहुत पुराना गाँव है।…1880 साल में मि. बुकानन ने अपनी पूर्णिया रिपोर्ट में इस गाँव के बारे में लिखा है-परातन ग्राम परानपर। इस इलाके के लोग परानपुर को सारे अंचल का प्राण कहते हैं। अक्षरश: सत्य है यह कथन। गाँव से पश्चिम बहती हुई दुलारीदाय की धारा। तीन ओर विशाल प्रान्तर, तृण-तरुशून्य लाखों एकड़ बादामी रंग की धरती! दुलारीदाय इसकी पश्चिमी रेखा है-जहाँ से हरियाली शुरू होकर पच्छिम की ओर गहरी होती गई है। अपने दोनों हाथों से दोनों कछार की धरती पर सुख-समृद्धि बाँटती हुई दुलारीदाय, वन्ध्या धरती की संवेदना में बहती अश्रधारा-जैसी!…गाँव के दक्खिन हजारों सेमल के पेड़ों का बाग है, सेमलबनी। फूलों के मौसम में लाल आसमान को मैंने देखा है-अपलक नेत्रों से, अचरज-भरी निगाहों से। लाल आसमान!
सेमल का बाग आज भी है। हर पाँच-सात साल के बाद नई पौध। सात साल पहले एक दियासलाई कम्पनी का ठेकेदार आया और सेमल-जिसके फल को गिलहरी भी न खाए, जिसकी लकड़ी से कोई मर्दा भी न जलाए-शीशम के दर बिकने लगा। लेकिन, इसी को कहते हैं तकदीर का खेल। सेमलबनी के जमींदार के अधपगले पत्र जित्तन बाबू ने साफ जवाब दे दिया-एक भी पेड़ नहीं बेचूंगा । साठ हजार रुपए की आखिरी डाक देकर कम्पनी का ठेकेदार चला गया।…अब हाय-हाय करने से क्या होता है? जमींदारी खत्म हो गई। सेमलबनी पर सरकार का कब्जा हो गया है। सरकार जो चाहे करे। सुना है, जित्तन बाबू ने हाईकोर्ट में अरजी दी है-सेमल के बाग का सर्वनाश न किया जाए!
पागल आदमी को कौन समझाए! किन्तु जित्तन बाबू का परिवार पुराना है। परानपुर गाँव के एक उजड़े खंडहर-जैसे मकान की एक कोठरी में बैठकर जित्तन बाबू यानी श्री जितेन्द्रनाथ मिश्रजी एकटक खिड़की से देख रहे हैंपोखरे में सुपारी, नारियल, साबूदाना तथा यूक्लिप्टस के वृक्षों की परछाइयों को। हल्की चाँदनी की चदरी धीरे-धीरे बिला रही है…। कमरे में हरिकेन का प्रकाश है। दीवार पर देगाँ की एक तस्वीर की कॉपी फ्रेम में लटकी है-आधा दर्जन अर्धनग्न नर्तकियों की टोली-नृत्यरता नायिकाएँ! स्वस्थ फ्रेंच युवतियों की इन रंगीन तस्वीरों की कपा से जित्तन बाब इधर काफी कख्यात हो गए हैं गाँव में।…धौली की माँ ने गाँव-भर में प्रचार किया है, “हवेली में झाड़ देने कौन जाए? नहीं करती ऐसी नौकरी! सारी कोठरी में मार नंगी मेम की छापी टाँगे हुए है। आँख मूंदकर कोई कैसे झाडू दे, कहो?”
गाँव के प्रसिद्ध और पुराने लाल बुझक्कड़ भिम्मल मामा ने ग्राम पुस्तकालय के पठनागार में घोषणा की-“बदधि भ्रष्ट होने से आदमी सबकुछ कर सकता है।-जित्तन इज़ सफरिंग फ्रॉम सेक्सोलॉजिया। मैलेरिया, फैलेरिया, डायरिया, पायरिया आदि रोगों से भी मारात्मक रोग है यह सेक्सोलॉजिया।”
भिम्मल मामा जित्तन बाबू की ड्योढ़ी में रोज जाते हैं, किन्तु उनके कमरे में कभी पाँव नहीं देते। कहते हैं-“बूचड़खाने में लटकते हुए खस्सी बकरों की कटी-छिली हुई देह देखकर माथा चक्कर खाने लगता है। आइ कांट स्टैंड फ्लेश विद ब्लॅड…बरदाश्त नहीं कर सकता मांस के लोथड़ों के बीच…”
गाँव की सबसे फैशनेबल युवती जयवन्ती का कहना है-“उस दिन फिलिमकट ब्लाउज पहनकर हवेली के पिछवाड़े से जा रही थी। छि:-छि:, कितना असभ्य हो जाता है आदमी शहर में रहते-रहते! एकटक देखता ही रहा, देखता ही रहा। मैं डर गई-आँखें हैं उसकी या…?”
जितेन्द्रनाथ रोज इन तस्वीरों की ओर देखकर मन-ही-मन बुदबुदाते हैं-‘पिजारो, वैन गॉग, रेनोऑ, देगाँ! तुम्हारी प्रेमिकाओं को प्रणाम! मानमेंट को एक क्षण भी प्यार करनेवाली भद्र महिलाओं को श्रद्धापूर्ण नमस्कार!’
गाँव के लड़कों ने जित्तन बाबू के पागल होने का बहुत-सा प्रमाण एकत्रित किया है; सिलसिलेवार सुनने को मिलता है पठनागार में।
किन्तु इस पागल अथवा सनकी को छोड़ने से काम नहीं चलेगा। इस गाँव के सामने फैली विशाल परती की डेढ़ हजार बीघे जमीन का मालिक अकेला वही है। दुलारीदाय के बीच प्रसिद्ध कुंडों का स्वामी, बरदियाघाट से लेकर मीरघाट तक की धरती का जमींदार!
दस-पन्द्रह वर्षों के बाद गाँव लौटे हैं जित्तन बाबू।…परानपुर के पानी में अब फिर मिठास लौट आई है शायद। छह महीने हो रहे हैं, गाँव में जमकर बैठे हैं। टूटते हुए गाँव में यह साबुत किन्तु सनकी आदमी…।
परानपुर ही नहीं, सभी गाँव टूट रहे हैं। गाँव के परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति टूट रहा है-रोज-रोज, काँच के बर्तनों की तरह।…नहीं!…निर्माण भी हो रहा है।…नया गाँव, नए परिवार और नए लोग!
गाँवों का नवनिर्माण हो रहा है। टूटे हुए खंडहरों को साफ करके नींवें डाली जा रही हैं। शिलान्यास हो रहा है। खूब धूमधाम से नई इमारतों की बँधाईगँथाई चल रही है।…नई ईंट के साथ पुरानी किन्तु काम के योग्य ईंटों को मिलाकर दीवार बना रहा है राजमिस्त्री। अपनी बसूली से वह पुरानी ईंटों को बजा-बजाकर कहता है-“इसी ईंट को असली सूरजमुखी ईंट कहते हैं।…यह हमारे ठेकेदार साहब की ईंट नहीं कि मुट्ठी में मसलकर, आँख में झोक दिया…।”
गाँव के बड़े-बूढों का कहना है, कूप खोदते समय, नींव लेते समय मिस्त्री और मजदूरों की पीठ पर सवार रहना चाहिए। माटी के नीचे से न जाने कब क्या चीज निकल आए!
सतर्क दृष्टि से देखना होता है; चमकदार चीज को पैर के नीचे दबा रखते हैं ये। समय-समय पर इन गड्ढों में खुद उतरकर देखना बुद्धिमानी है। नई इमारत की बुलन्द होनेवाली दीवारों की गँथाई देखिए-कच्ची ईंटों पर नजर रखिए!
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जित्तू अधुरी कहानी के सपने देखता सोया पड़ा है। वह कैसे जगेगा? वह नहीं जगेगा तो देवी मन्दिर का खाँड़ा कौन उठाएगा…? एक-एक आदमी पापमुक्त कब तक होगा? उठ जित्तू! तुर-तुत्तु-उ-तू-ऊ-तू-ऊ!
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ग्राम परानपुर, थाना रानीगंज, परगना हवेली…।
जिले के अन्य परगनावाले हवेली परगनावालों पर व्यंग्य करत लेते हुए कहते हैं-कहाँ घर है? हवेली परगना?…हवेली परगना में लड़का भी पैदा होता है?
परानपुर के नौजवानों ने हमेशा मुँहतोड़ उत्तर दिया है-“परगना हवेली में होने से क्या हआ? हम लोग परानपुर के प्रतिष्ठित समाज के वंशधर हैं।” नौजवानों की बात में सच्चाई है। परानपुर की प्रतिष्ठा सारे जिले में है। सबसे उन्नत गाँव समझा जाता है। इस इलाके में सबसे उन्नत गाँव है परानपुर। किन्तु, जिस तरह बाँस बढ़ते-बढ़ते अन्त में झुक जाता है, उसी तरह यह गाँव भी झुका है।…अब इस सब-डिवीज़न-भर के लोग यहाँ के दस वर्ष के लड़के से भी बात करते समय अपना पॉकेट एक बार टटोलकर देख लेते हैं। फारबिसगंज बाजार की किसी दुकान में चले जाइए, ज्यों ही मालूम हआ कि परानपुर का ग्राहक आया है, दुकानदार अपनी बिखरी हुई चीजों को समेटना शुरू कर देता है।…हाकिम-हक्काम भी यहाँ के लोगों से बातें करते समय इस बात का खयाल रखते हैं कि सिर्फ एक गाँव में, एक ही वर्ष के अन्दर सरकार के तीन-तीन विभागों के अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकी गई।…ट्रेन के चेकर जानते हैं, परानपुर के लोग टिकट लेकर गाड़ी में नहीं चलते। चार्ज करनेवाले चेकर को रोड़े और पत्थरों से भाड़ा चुकाते हैं ये।
गाँव की आबादी है करीब सात-आठ हजार। विभिन्न जातियों के तेरह टोले हैं। मुसलमानटोली छोटी है, पचास घर रह गए हैं अब। परानपुर की पुरानी प्रतिष्ठा की रक्षा आज भी ये सामूहिक रूप से करने की बात सोच सकते हैं। पहले पढ़े-लिखे लोगों की ही बात लीजिए! आठ ग्रेजुएट, दो एम-ए-, एक शास्त्री (काशी विद्यापीठ), पचास मैट्रिक्युलेट, एक सौ मिडिल पास। डेढ़ दर्जन कवि, दो साहित्यालंकार और एक नाटककार। लड़कियाँ भी पढ़ी-लिखी हैं। जिले की एकमात्र साहित्यिक साप्ताहिक पत्रिका में एक कुमारी कवयित्री की रचनाएँ हमेशा सचित्र छपती हैं।…और रग्घू रामायनी को क्या कहिएगा? एक अक्षर का भी बोध जिसे नहीं, किन्तु बालकांड तक क्षेपक सहित जिसके कंठ में है! गोस्वामी तुलसीदास जिसे स्वप्न में दर्शन देते हैं…जो रामायण को गाँव की बोली में जोड़कर गाता है-सारंगी का गीत!
उस पुराने पोखरे के पास जो झंडे का बाँस दिखलाई पड़ता है, वही है स्कूल-उच्चांगल विद्यालय। सन् 1929 में ही मिडिल वर्नाकुलर स्कूल की स्थापना हुई थी। उच्चांगल तो दस साल से हुआ है। हाईस्कूल के लिए पैसे जिस वृद्ध दाता ने दिए थे, उसके लड़कों ने अपने पिता के नाम पर स्कूल के नामकरण का विरोध किया था! ‘चमरू चौधरी हाईस्कूल’ नहीं, ‘दि ब्राह्मण एच.ई.स्कल’! ‘दि’ जोड़ा है भिम्मल मामा ने। गत पाँच वर्षों से इस स्कल में कोई हेडमास्टर नहीं टिक पाते। जाति और पंचायत के झगड़े! गाँव की दलबन्दी के ऊपर चढ़े करेले की भुजिया कमिटी की कड़ाही में पूँजी जाती है न! पिछले साल हेडमास्टर ने कई मास्टरों को अपनी पार्टी में कर लिया और दूसरे ही दिन असिस्टेंट हेडमास्टर साहब की मरम्मत कर दी। असिस्टेंट हेडमास्टर साहब को विरोधी दल के लोगों के अलावा स्वजाति के लोगों की मदद मिली। गाँव में ‘मेजरौटी’ शब्द का अर्थ सभी समझते हैं। जब मेजरौटी है तो क्या बात है! सारे स्कूल को घेरकर लाठी, ईंटों और पत्थरों से सभी को अच्छी शिक्षा दी थी।…भिम्मल मामा ने इसलिए इस स्कूल के आगे ‘दि’ जोड़ दिया। एक कन्या विद्यालय है। उस केले के बड़े-बड़े पत्तों के बीच से जो नए मकान का हिस्सा दिखाई दे रहा है, वही है गर्ल स्कूल। गाँव की ही अध्यापिकाएँ हैं। विद्यालय की लड़कियाँ कोरस में जन-गण-मन बहुत सुन्दर गाती हैं।
डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने प्रस्ताव पास कर परानपुर अस्पताल को बन्द कर दिया है।… भूमिहार डॉक्टर को राजपूतों ने मिलकर धमकी दी। कायस्थ डॉक्टर के खिलाफ दरखास्त दी गई थी-पैसा लेकर भी दूसरी जातिवालों को बढ़िया दवा नहीं देता, और कायस्थों को मफ्त में दवा और सई देकर इलाज करता है।…डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने अस्पताल को बन्द कर दिया, पाँच साल पहले।
पुस्तकालय भी है। 1930 में ही स्थापना हई है। 1944 से सरकारी सहायता मिलती है। पाँच साल पहले रेडियो भी दिया गया, राज्य सरकार की ओर से। आजकल बन्द है।…पुस्तकालय के कुछ सदस्यों का कथन है-छित्तनबाबू के बड़े भाई साहब ने ही पुस्तकालय के लिए अपने बँगले की एक कोठरी दी थी। चार महीना पहले की बात है, छित्तनबाबू ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया-“यहाँ लायब्रेरी कहाँ है? खबरदार, यदि बँगले की सीढ़ी पर किसी ने पैर भी रखा तो फौजदारी हो जाएगी। ट्रेसपासिंग का मुकद्दमा कैसा होता है, किसी वकील से जाकर पूछो।”…छित्तनबाबू अन्यायी हैं, सार्वजनिक पुस्तकालय को इस तरह हथिया लेना छोटी बात नहीं! निन्दा का प्रस्ताव पास…।
छित्तनबाबू सुनाते हैं-“पिछले दस वर्षों से पुस्तकालयवाले सरकार से घरभाड़ा के नाम पर चालीस रुपए माहवार वसूलते हैं। पूछिए, कभी एक पैसा भी दिया है मुझे? चार-पाँच हजार रुपए की बात है, खेल नहीं।…कहाँ गए रुपए कुछ हिसाब तो होना चाहिए? सरकारी रेडियो बिकूबाबू की सुहागरात में बजने के लिए गया, उसी रात से उनके यहाँ खराब होकर पड़ा है। लेकिन, बैटरी का पैसा सरकार से बराबर वसूला गया है।”
बिकूबाबू और छित्तनबाबू के झगड़े में जातिवाद के पैंतरे। फिर से सेक्रेटरीप्रेसीडेंट कलह-कांडा…इसलिए, छित्तनबाब का पंचवर्षीय पत्र ‘दीपशिखा’ के पृष्ठों को काट-काटकर दीवार पर चिपकाता है, उसे कौन मना कर सकता है?
पिछले साल नवीन परानपुर ग्राम पुस्तकालय’ खुला है। नाट्यशाला का पक्का स्टेज आज भी है। टीन की ऊँची छत आँधी में उड़ गई है। स्थापना1920 में। 1921 में राजबनैली चम्पानगर के दरबार में कलकत्ता की लड्डन कम्पनी को पानी-पानी कर दिया था परानपुर-नाटक-मंडली ने। चार-पाँच साल पहले तक नाटक खेले गए हैं। अब तो…।
बहुत उन्नत गाँव है परानपुर। सात-आठ हजार की आबादी है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी की शाखा है यहाँ। धार्मिक संस्थाओं के कई धुरन्धर धर्मध्वजी इस गाँव में विराजते हैं।…पंडित नेहरू तीन बार पदार्पण कर चुके हैं इस गाँव में। लाहौर कांग्रेस के बाद पहली बार, दूसरी बार 1936 दौरे पर और पिछले साल कोसी प्रोजेक्ट देखने आए थे जब।…
पिछले आठ चुनावों में सॉलिड वोट कांग्रेस को नहीं मिला, इसलिए इस बार सॉलिड वोट प्राप्त करने के लिए हर पार्टी को शाखा प्रत्येक मास अपनी बैठक में महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पास करती है।
पिछले आठ-दस वर्षों से जातिवाद ने काफी जोर पकड़ा है। राजनीतिक पार्टियाँ भी जातिवाद की सहायता से संगठन करना जायज समझती हैं। राजनीति के दंगल में सबकुछ माफ है।
गाँव में अंग्रेजी शब्दों के शुद्ध और अपभ्रंश रूप का धड़ल्ले से व्यवहार होता है-नामनेशन, मेजरौटी, पौलटीस, पौलीसी।
और सारे गाँव के मामा-भिम्मल मामा-पढ़े-लिखे पागल समझे जाते हैं। उनके गढ़े हुए शब्दों का प्रचलन हो रहा है धीरे-धीरे-दिमाकृषि, प्रद्युस, ट्राअर्थात डेमॉक्रेसी, प्रोड्यूस, टेलीग्राम!
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परानपुर गाँव के पच्छिमी छोर पर परानपुर इस्टेट की हवेली है।
पोखरे के दक्खिनवाले महार पर नारियल, सुपारी, साबूदाना तथा यूक्लिप्टस के पेड़ों में बया के सैकड़ों घोंसले लटक रहे हैं। महार से दस रस्सी दर हैं कलमी आमों के बाग। पोखरे के पच्छिमी महार पर कचहरी-घर है; पच्छिम-दक्षिण कोण पर इस्टेट की हवेली की पुरानी इमारत का एक अंश आज भी टिका हुआ है। ढहती हुई हवेली की एक-एक ईंट पर नागरी अक्षर प. पुं. ह. का मार्को है। प. पु. ह. अर्थात् परानपुर हवेली। परानपुर इस्टेट के मालिक की ड्योढ़ी-परानपुर हवेली। परानपुर इस्टेट।
करीब सत्तर-अस्सी साल पहले हवेली की नींव डालने के दिन इस्टेट के मालिक स्वर्गीय श्री शिवेन्द्रनाथ मिश्रजी ने काली-बाडी में प्रार्थना की थी-“पतनीदार से जमींदार, जमींदार से राजा, राजा से महाराजा का खिताब हासिल करा दो…माँ तारा!”
पतनीदार शिवेन्द्र मिश्र ने मरने के दिन भी मान-भरे स्वर में कहा था-“माँ! मेरी मनोकामना तुमने पूरी नहीं की। पतनीदार का पतनीदार ही रह गया सारा जीवन!”
शिवेन्द्र मिश्र की एकान्त मनोकामना भले ही परानपुर इस्टेट का नाम जिले के कोने-कोने में फैला हुआ है-आज भी। इलाके के मकदमेबाज आज भी दीवानी तथा फौजदारी मकदमों की राय सनने के दिन शिवेन्द्र मिश्र के नाम का जाप करते हैं-पचास बार। अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए शिवेन्द्र मिश्र ने जो-जो करतब किए, वे कथा-उपकथा, परिकथा तथा किंवदन्तियों के रूप में आज भी सुने जाते हैं-घाट बरदिया का व्यवहार, करो बेगारी उतरो पार!
गाँव के उत्तर-पच्छिम कोण में, पाव कोस दूर जो अकेला ताड़ का पेड़ खड़ा है, वही है बरदियाघाट। वहीं, दुलारीदाय आँचल में दीप लेकर प्रकट हुई थी। इस घाट को पार करनेवालों को घटवारी नहीं लगती। लेकिन बेगारी? पन्द्रह साल पहले तक चाहे लाट साहब की गाड़ी हो या राजा साहब की सवारी, घाट के दोनों ओर बरसात के पहले सड़क पर एक कुदाली मिट्टी जरूर डालनी पड़ती थी। आजकल, दोनों ओर की सड़कों में कमर-भर गढ़े हो गए हैं।
बेगारी बन्द हो गई है, किन्तु घाट पार करते समय अब भी दूर के गाड़ीवान-हिन्दू हों या मुसलमान-हवेली की ओर माथा झुकाकर नमस्कार करते हैं।
हवेली के पिछवाड़े में पाँच रस्सी दूर मिट्टी का ऊँचा बुर्ज है, चालीस फीट ऊँचा।…मिसर बुरुज!
बुर्ज पर मंदिरनुमा एक छोटा-सा घर है-जो सदा से राही-बटोहियों को रहस्य-रोमांचपूर्ण परिकथाओं का सदावर्त बाँटता आया है।
और इस अकेले ताइवृक्ष पर ब्रह्मपिशाच रहता है। विशाल परती पर डेढ़डेढ़ सौ एकड़ की पाँच परिधियों पर इस ब्रह्मपिशाच का राज्य था। प्रत्येक वर्ष शरद की चाँदनी में वह इन पाँचों चक्रों में अपना रुपया पसारकर सूखने देता था। असली चाँदी के रुपए, सोने की मुहरें!…मानो, आषाढ़ की पहली वर्षा में दुलारीदाय की सारी पोठी मछलियाँ परती के बलुवाही पानी के लोभ में धरती पर छटपटा रही हों! चाँदनी में चमकते हुए चाँदी के रुपए।…छटपटाती हुई पोठी मछलियाँ! चितपट-चितपट-छटपट!…
…ब्रह्मपिशाच तथा उसके रुपयों को बहतों ने अपनी आँख से देखा, पर किसी की हिम्मत नहीं हई कि कभी उसे टोके भी। किसकी माँ ने ऐसा अगिया बैताल पैदा किया है जो ब्रह्मपिशाच को देखकर भी होश दुरुस्त रख सके?
किन्तु, होश दुरुस्त रखा था शिवेन्द्र मिश्र ने। एक चाँदनी रात के दूसरे पहर में एक बार ब्रह्मपिशाच से उनकी हो गई। एक ओर ब्रह्मपिशाच तो दूसरी ओर देवी के दो-दो पीठ का सिदध तान्त्रिक और उसका नीलबरन घोड़ा! शालिहोत्र में कहा है-नीलबरन घोड़ा…। खड़क-खड़क-खड़-ड़-ड़!
ताड़ के सूखे पत्ते हवा से खड़खड़ा उठते हैं! …
ब्रह्मपिशाच को अन्त में परास्त कर कैद किया मिश्र ने। सारे रुपए और सारी जमीन। डेढ़-डेढ़ सौ एकड़ के पाँच चक्र। आसामी बामाल! लेकिन पिशाच का धन जाता भी है पैशाचिक ढंग से ही। बाढ़ के पानी की तरह न आते देर और न जाते देर!
इस चाँदनी रात में भी मिसर-बुर्ज पर पेट्रोमेक्स जल रहा है।…बुर्ज की सीढ़ियों की मरम्मत हई है। मन्दिरनमा घर को तोड़कर नए तर्ज की एक मीनार बनाई गई है। जितेन्द्र बाबू जब से गाँव आए हैं, तीनों दिन उस पर पेट्रोमेक्स जलता है दीपक प्रमाणित करने के लिए ही, शायद!
कुलदीपक जितेन्द्रनाथ मिश्रजी दस-पन्द्रह वर्षों के बाद गाँव लौटे हैं।
मुंशी जलधारीलाल दास तहसीलदार और रामपखारनसिंह सिपाही। परानपुर इस्टेट के इन दो कर्मचारियों ने मिलकर, कलम की नोक और लाठी के जोर से, जमींदारी की रक्षा की। जमींदारी-उन्मूलन की चपेट से इस्टेट को बचाने का सारा श्रेय मंशी जलधारीलाल दास को है। साबित कर दियापरानपुर पट्टी पतनी है, जमीन खुदकाश्त है, बकाश्त है, रैयती हक है-आदि आदि!
इस लैंड सर्वे सेटलमेंट की आँधी में गाँव आए हैं जित्तन बाबू। मुंशी जलधारी के चक्षुकर्ण से देखते-सुनते हैं, और रामपखारन की विद्याबुद्धि से समझते-बूझते हैं। किसी की कोई बात नहीं सुनते। किसी से मुँह खोलकर बात नहीं करते।
नया ट्रेक्टर खरीद हुआ है। बँटाई करनेवाले किसानों को जमीन से बेदखल किए बिना फार्म बनाना असम्भव है।
दुलारीदाय-जमा की जमीनों में पाट और भदई धान की खेती करने के लिए रोज निकलते हैं जितन बाबू। ट्रेक्टर पर सवार, आँखों पर धूपछाँही चश्मा तथा सिर पर ताड़ की पत्तियों का बड़ा कनटोप!
बेदखल किए गए किसान दल बाँधकर रोज नारा लगाते हैं, गलियाते हैंजालिम, मक्कार, गिरगिट, शराबी, जुआरी इत्यादि!
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लैंड सर्वे सेटलमेंट!
जमीन की फिर से पैमाइश हो रही है, साठ-सत्तर साल बाद। भूमि पर अधिकार! बँटैयादारों, आधीदारों का जमीन पर सर्वाधिकार हो सकता है, यदि वह साबित कर दे कि जमीन उसी ने जोती-बोई है।
चार आदमी-खेत के चारों ओर के गवाह, जिसे अरिया गवाह कहते हैंगवाही दे दें, बस हो गया। कागजी सबूत ही असल सबूत नहीं!
बिहार टेनेंसी एक्ट की दफा 40 के मुताबिक लगातार तीन साल तक जमीन आबाद करनेवालों को मौरूसी हक हासिल हो जाता था, किन्तु कचहरी की करामात और कानूनी दाँव-पेंच से अनभिज्ञ किसानों की इसमें कोई भलाई नहीं हई। जमींदारी प्रथा खत्म करने के बाद राज्य सरकार ने अनुभव कियापूर्णिया जिले में एक क्रान्तिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है।…हिन्दुस्तान में, सम्भवत: सबसे पहले पूर्णिया जिले पर ही लैंड सर्वे ऑपरेशन का प्रयोग किया गया। जिले के जमींदारों और राजाओं की जमींदारियों का विनाश अवश्य हुआ। किन्तु, हिन्दुस्तान के सबसे बड़े किसान यहीं निवास करते हैं।..गुरुबंशी बाबू जमींदार नहीं, किसान हैं। दस हजार बीघे जमीन है, दो-दो हवाई जहाज रखते हैं। दूसरे हैं भोला बाबू। पन्द्रह हजार बीघे जमीन है, डेढ़ दर्जन ट्रेक्टर रखते हैं। पर यह बात भी सच्ची है कि वे जमींदार नहीं। किसान-सभा की सदस्यता से किस आधार पर वंचित करेंगे उन्हें? यहाँ पाँच सौ बीघेवाले किसान तृतीय श्रेणी के किसान समझे जाते हैं और हर गाँव पर इन्हीं किसानों का राज है। भमिहीनों की विशाल जमात! जगती हई चेतना!…जमींदारी उन्मूलन के बाद भी हर साल फसल कटने के समय एकडेढ़ सौ लड़ाई-दंगे और चालीस-पचास कत्ल होते रहे तो फिर से जमीन की बन्दोबस्ती की व्यवस्था की गई।…सारे जिले में गत तीन वर्षों से विशाल आँधी चल रही है।
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बौंडोरी! बौंडोरी!…
सर्वे का काम शुरू हो गया है। अमीनों की फौज उतरी है!… बौंडोरी, बौंडोरी!
बौंडोरी अर्थात् बाउंड्री। सर्वे की पहली मंजिल। अमीनों के साथ ही गाँव में नए शब्द आए हैं-सर्वे से सम्बन्धित! बच्चा-बच्चा बोलता है, मतलब समझता है।
सर्वे की पहली मंजिल-बाउंड्री। फिर, मुरब्बा, किश्तवार, तब खानापूरी, तनाजा, तसदीक और दफा तीन, छह, नौ!
जरीब की कड़ी, तख्ती, राइटेंगल, गुनियाँ, कम्पास आदि लेकर अमीन लोग अपने टंडैलों के साथ धरती के चप्पे-चप्पे पर घूम रहे हैं। जरीब की कड़ी खनखनाती हई सरक रही है-खन,खन, खन! सर्वे के अमीन साहब का कहना है-“यदि किसी प्लॉट पर कौआ भी आकर कह दे कि जमीन मैंने जोती-बोई है, तो उसका नाम लिखने को हम मजबूर हैं।…यही कानून है। यह मत समझो कि बौंडोरी बाँध रहा हूँ।”
जिले-भर के किसानों और भूमिहीनों में महाभारत मचा हुआ है। सिर्फ भूमिहीन नहीं, डेढ़ सौ बीघे के मालिकों ने भी दूसरे बड़े किसानों की जमीन पर दावे किए हैं!…हजार बीघेवाला भी एक इंच जमीन छोड़ने को राजी नहीं।
दुखरन साह के कुल में कोई रोनेवाला नहीं। अस्सी वर्ष की उम्र है। छोटी दुकान है और पचास बीघे जमीन। उसने सोचा-भूदान में दो बीघे जमीन दान देने से अड़तालीस बीघे तो बच जाएँगे। जब हर चप्पे पर तनाजा पड़ने लगा तो पागल हो गया, दुखरन साह बेचारा बूढ़ा, सीधे विनोबाजी के पास रवाना हुआक्या बाबा! तरत दान देकर तो मेरा महाकल्यान हो गया! लौटा दीजिए मेरी जमीन-मेरा दान-पत्तर!… ले लो अपनी कंठी-माला!
छै महीने में ही गाँव का बच्चा-बच्चा पक्की गवाही देना सीख गया!
छै महीने में ही गाँव एकदम बदल गया है। बाप-बेटे में, भाई-भाई में अपने हक को लेकर ऐसी लड़ाई कभी नहीं हुई। अजीब-अजीब घटनाएँ घटने लगीं।
सरबन बाबू की ही बात लीजिए…। सरबन बाबू इलाके के नामी-गरामी आदमी हैं। गाँव में अब भी काफी प्रतिष्ठा है। जवार-भर की पंचायतों में जाते हैं। हाल ही में काशीजी से शिवलिंग मँगवाकर स्थापना करवाई है। उनके छोटे भाई लालचन बाबू को किसी ने बताया कि सभी पर्चों पर सरबन बाबू अपने लड़कों के नाम या स्त्री का नाम चढ़वा रहे हैं। लालचन बाबू का नाम कहीं भी नहीं-एक प्लॉट पर भी नहीं। जिन पर्यों पर सरबन बाबू का नाम चढ़ा है, लालचन बाबू का नामोनिशान नहीं। सरबन बाबू के नाम के साथ वगैरा भी नहीं है, जो लालचन बाबू कभी दावा भी कर सकें।
लालचन बाबू पढ़े-लिखे नहीं हैं तो क्या हुआ? इतनी-सी बात उनको समझ में नहीं आएगी? उनके वकील साहब ने फीस लेकर सलाह दी है, मुफ्त में नहीं। आपको आगे बढ़ने-यानी कानून-कचहरी करने की कोई जरूरत नहीं; बड़े भाई को ही पहले आगे बढ़ाइए!
लालचन बाबू ने दूसरे ही दिन मार लाठी से सिर फोड़कर, सरबन बाबू को यानी अपने बड़े भाई साहब को आगे बढ़ा दिया है।
धन्य हैं सरबन बाब! भरी कचहरी में हल्फ लेकर कह दिया-“लालचन मेरा कोई नहीं।…इसके बाप का ठिकाना नहीं। मेरे बाबूजी के मरने के तीन बरस बाद…”
टेरिबल!-हाकिम ने अचरज से मुँह फाड़ते हुए कहा था-टेरिबल! बड़े-बड़े इज्जतदारों की हवेली में बन्द, चूँघटों में छिपी बेवा औरतें पर्दे को चीरकर आगे बढ़ आई हैं; अपने नाबालिग वंशधरों की उँगलियाँ पकड़े खड़ी हैं-“हुजूर! देखा जाए!… ज़रा इंसाफ किया जाए हजूर! इसका बाप कमाते-कमाते मर गया। कोल्ह के बैल की तरह सारी जिन्दगी खटते-खटते बीती। और खाते में कहीं भी उसके लड़के का नाम नहीं? नाम दरज कर लिया जाए हजूर!”
कॉलेजों में पढ़नेवाले विदयार्थी परीक्षा की तैयारी छोड़कर दौड़े आए हैं।…छोटे को प्राणों से भी बढ़कर प्यार करते हैं बाबूजी। छोटे के नाम से सारी उपजाऊ जमीनें लिखवा दे सकते हैं!…कोई भरोसा नहीं किसी का। खटा-खट, खटा-खट-खट-खट!-गाँव की अली-गली, अगवार-पिछवाड़ की ओर निकलनेवाली पगडंडियाँ बन्द की जा रही हैं। डर है नक्शा बन जाने का। खेत के बीचोबीच पगडंडी यदि दर्ज हो गई नक्शे में, तो हो चकी खेती!
तीन साल से चल रही है आँधी।
उधर, दीवानी कचहरियों में-बेदखली, फसल-जब्ती, टाइटल-सूट का बाजार गर्म है। ठलवे वकीलों को भी दस रुपए रोज की आमदनी होने लगी है।
अमीन साहब कहते हैं-“असल चीज है बाउंड्री। अभी जिसका नाम दर्ज हो गया, समझो, पत्थर पर रेखा पड़ गई।” इसीलिए जमीन के मालिक, बॅटैयादार, सभी उन्हें हमेशा घेरे रहते हैं। न जाने कब कोई आए और तनाजा दे दे जमीन पर। तनाजा सर्वे का सबसे ज्यादा धारवाला शब्द है। तनाजे का फैसला कानूनगो साहब करते हैं। इनको अमीन से ज्यादा पावर है। सभी अमीन और सुपरवाइजर इनके अंडर में रहते हैं।…दिन-रात कचहरी लगी रहती है कानूनगो साहब की। कानूनगो के चपरासीजी को इलाके के बड़े-बड़े जमीनवाले हाथ उठाकर जयहिन्द करते हैं-“जयहिन्द चपरासीजी!…कहिए, कानूनगो साहब को चावल पसन्द आया? असली बासमती चावल है, अपने खर्च के चावल से निकालकर भेजा था।…जी, जी, जी हाँ!…घी आज आ जाएगा।”
कचहरी लगी रहती है देश-सेवकों की, समाज-सेवकों की। कांग्रेसी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, सभी पार्टीवालों ने अपने बाहरी वर्कर मँगाए हैं। गाँव के वर्करों की बात उनके अपने ही परिवार के अन्य सदस्य नहीं मानते। बहुत से वर्करों का ट्रायल हआ है, होनेवाला है। सेवकों की सेवाओं की परख हो रही है। सभी पार्टी के कार्यकर्ता सतर्क हैं, सचेष्ट हैं, बँटाईदारी करनेवालों के नाम पर्चा दिलवाने का व्यापार बड़ा टेढ़ा है।
किन्तु लत्तो की बात निराली है! शासक-पार्टी का कार्यकर्ता है-थाना कमिटी के सभापति के प्रियजनों में से एक।…थाना कमिटी के सभापतिजी जाहिल हैं। उनका विश्वास है कि पढ़े-लिखे लोग काम कम, बात ज्यादा करते हैं। इसलिए थाने-भर की ग्राम कमिटियाँ एक-से-एक जाहिलों के जिम्मे लगाई गई हैं। फिर, लत्तो ने अपने एक-एक लीडर को खुश किया। वर्कर के ही बल पर लीडर, लीडर के बल पर मिनिस्टर!…बड़े लोगों की सेवा कभी निष्फल नहीं जाती।…सर्वे के समय लत्तो की कीमत और बढ़ गई है। सभी धीरे-धीरे जान गए हैं, सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टीवाले जिनकी मदद करेंगे, उन्हें जमीन हरगिज नहीं मिल सकती, ब्रह्मा-विष्णु-महेश उठकर आएँ, तब भी नहीं।…इसमें बहत बड़ा रहस्य है, जिसे सिर्फ लत्तो ही जानता है।
ब्राह्मण-छतरी उसकी चरण-पूजा कर जाते हैं। बी.ए., एम.ए. को तो लुतो बाबू गाय-बैल समझता है-गोशाला का।
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…खेत-खलिहान, घाट-बाट, बाग-बगीचे, पोखर-महार पर खनखनाती जरीब की कड़ी घसीटी जा रही है-खन-खन-खन!
नया नक्शा बन रहा है।
नया खाता, नया पर्चा और जमीन के नए मालिक।
तनाजा के बाद तसदीका तसदीक करने के लिए कानूनगो से ज्यादा पावरवाले नए हाकिम साहब आए हैं। ए.एस.ओ. साहब-असिस्टेंट सर्वे ऑफिसर। हर नया हाकिम नया एलान करता है-बाउंड्री-तनाजा हम कुछ नहीं जानते। हम फिर शुरू से जाँच करेंगे।…यही सरकुलर आया है।
आठ वर्षों से जातिवाद के दीमकों का मुख्य आहार रहा है मनुष्य का हृदय। सर्वे की आँधी में छलनी-जैसा आदमी का दिल-पीपल के सखे पत्ते की तरह उड़ रहा है।
पिछले डेढ़ साल से गाँव में न कोई पर्व ही धूमधाम से मनाया गया है और न किसी त्योहार में बाजे ही बजे हैं। इस दरम्यान, संसार में आनेवाले नए मेहमानों के स्वागत में-सोहर का गीत, सो भी कहीं नहीं गाया गया। लड़केलड़कियों के ब्याह रुके हए हैं।…गीत के नाम पर किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है मानो। मधुमक्खी के सूखे मधुचक्र-सी बन गई है यह दुनिया!
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सर्वे सेटलमेंट के हाकिम साहब परेशान हैं। परानपुर इस्टेट की कोई भी जमा ऐसी नहीं जो बेदाग़ हो। सभी जमा को लेकर एकाधिक खूनी मुकदमे हुए हैं; आदमी मरे हैं, मारे गए हैं।…ऐसे मामलों में बगैर जिला सर्वे ऑफिसर से सलाह लिये वे अपनी कोई राय नहीं दे सकते।
सर्वे की कचहरी छित्तनबाबू के गुहाल में लगी है। हाकिम इजलास पर बैठ गए।…परानपुर इस्टेट के कारपरदाज मुंशी जलधारीलाल दास की सूरत से ही नफरत है ए.एस.ओ. साहब को।
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“कहाँ-आँ-आँ जितेन्द्रनाथ मिसरा आ-आ-आ! जितेन्द्रनाथ मिसरा हा-आ-आ-जिर हो! कहाँ मीर समसुद्दीन…” सेटलमेंट ऑफिसर के चपरासी ने हाँक लगाई। दो हाँक लगाने के बाद, विरक्त होकर बड़बड़ाने लगा-“इस्टेट के कारकुन के कान के पास लौडस्पीकर कौन लगाने जाए!”
मुंशी जलधारीलाल दास कान से कम सुनते हैं। कितना कम सुनते हैं, यह कहना कठिन है। अपने काम की बात सुनते हैं जल्दी, बेकाम की बातों के समय निपट बधिर बने मुस्कराते रहते हैं।
हाकिम को मुंशी जलधारी की यह मुस्कराहट ज़रा भी नहीं सुहाती। आज दुलारीदाय-जमा की नत्थी खुलेगी। दासजी कागजात की झोली लेकर कचहरी-घर में दाखिल हुए।
हाकिम ने देखते ही चिढ़कर कहा-“जितेन्द्रनाथ आज भी कचहरी नहीं आए? मालूम है सब मिलाकर डेढ़ सौ रुपए जुर्माना हो चुका है।…पहले जुर्माना दाखिल कीजिए।”
मुंशी जलधारीलाल दास झोली से डेढ़ सौ रुपए निकालकर पेशकार साहब के सामने गिनते हैं। तीस नत्थी का, पाँच रुपए के दर से-डेढ़ सौ रुपए!
हाकिम को भी जिद सवार है, देखें कितना जुर्माना भरते हैं जितेन्द्रनाथ बहादुर!
मुंशी जलधारीलाल को भरी कचहरी में मदारी के बन्दर-जैसा नचाने में आनन्द आता है हाकिम को, कभी-कभी। मुंशी की चमड़ी निश्चय ही गैंडे की चमड़ी-जैसी है। उनकी खिचड़ी मूंछों के अन्दर की मुस्कराहट को कभी मन्द नहीं कर सके हाकिम साहब!
“इस लकड़ी के डिब्बे में क्या ले आए हैं दासजी ? बुलबुलतरंग है क्या?” हाकिम ने हँसते हुए पूछा।
“हा-हा-हा-हा-हा”-कचहरी के लोग ठठाकर हँस पड़े-“बुलबुलतरंग!”
“दस्तावेज है हुजूर। दुलारीदाय-जमा का सेलडीड-दानपत्तर।”
“दानपत्र? डिब्बे में?” हाकिम साहब पुन: मुस्कराकर कोई बात ढूँढ़ रहे हैं। डिब्बे को हाथ में लेते ही बोले-“यह तो पूरा अलादीन का चिराग मालूम होता है।”
“हा-हा-हा-हा-हा-अलादीन का चिराग-अलबत्त दिलदार यार हैं हाकिम साहेब…!”
“चिराग गोल होता है, इसकी लम्बाई बारह इंच है हुजूर!” दासजी की दबी हुई बोली मूंछों की झुरमुट से निकली।
हाकिम ज़रा अप्रतिभ हो गए।…चन्दनकाष्ठ का कास्केट। हाकिम ने कास्केट को नाक से सूंघते हुए पूछा-“दानपत्तर में इत्र लगाकर रखा गया है क्या ?”
“दानपत्तर-इत्तर-हा-हा-हा-हा!”
“नहीं हजूर! असली मलयागिरि चन्दनकाठ है।” दासजी अपनी मुस्कराहट को धीरे-धीरे खोलना जानते हैं।
कास्केट की कारीगरी पर हाकिम की आँखें हठात स्थिर हो जाती हैं।…पेड़, पहाड़, झरना और काठ का मन्दिर। चित्रकला से थोड़ी-सी दिलचस्पी रखनेवाला पहचान सकता है, यह नेपाली कारीगरी है।
“पशुपतिनाथ मेला, नेपाल में खरीद हुआ था हुजूर!”
“अच्छा?” हाकिम साहब कास्केट के कील-कब्जे को ध्यान से देखते हैं।
“असली सोना है।” कास्केट के अन्दर से गोल लपेटा हआ दानपत्र निकालकर, जरीदार रेशमी डोरी और डोरी के झब्बों को कुछ देर तक देखते हैं। दानपत्र के प्रारम्भिक अंश में जापानी पदधति से-कदलीवक्ष, मंगलघट, जौ की बालियाँ अंकित हैं। सधे हए हाथ के मोती-जैसे अंग्रेजी अक्षर!
हाकिम साहब ने पिछले साल आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी के समय ही नन्दलाल बसु का नाम सुना था-पहली बार। आजकल प्रश्नों में, साधारण ज्ञान की बातों में यह सब भी पूछा जाता है-चित्रकार, गवैया, बजवैया, नचवैया! आदमी कितने नाम याद रखे!
“क्या लिखा है? लाइखाट…?”
“लिखितम् है हुजूर। रोमन में लिखा हुआ है-लिखितम्।”
हाकिम ने मुंशी जलधारीलाल की ओर गौर से देखा-कौन कहता है यह आदमी बहरा है?
“यह मिसेज़ रोज़उड कौन थी?” ।
कौन थी वह मेम, हाकिम साहब के सिर के छोटे-छोटे बाल अचरज से खड़े हो गए, मानो! सुपुष्ट अंग्रेजी लिपि में संस्कृत वाक्य-देवपुत्रतुल्य मम प्राणाधिक चिरंजीवी जितेन्द्रनाथ-लिखनेवाली अंग्रेज महिला कौन थी?
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दुलारीदायवाली जमा में मुसलमानटोली के मीर समसुद्दीन ने तनाजा दिया है। ढाई सौ एकड़ प्रसिद्ध उपजाऊ जमीन एक चकबन्दी और पाँच कुंडों में तीन पर पन्द्रह साल से आधीदारी करने का दावा किया है उसने।
समसुद्दीन मीर मुसलमानटोली का मुखिया है। स्वराज होने से पाँच दिन पहले तक अपने चेले-चाँटियों के साथ ढोलक पर कव्वाली गाता था-‘कांगरेसी मुस्लमाँ मक्कार हैं, गद्दार हैं, काफिरों के चन्द टुकड़ों पर पले…।’ लेकिन, स्वराज्य होते ही- रातोरात सिर्फ परानपुर गाँव की मुसलमानटोली में ही नहीं आसपास के गाँवों के मसलमानों में भी एक ऐसी कानाफूसी का प्रचार उसने किया कि एक तिहाई मुसलमानों ने पाकिस्तान भाग जाने में ही अपना कल्याण समझा। समसुद्दीन कहता है-“जो रह गए हैं, सब मीर समसुद्दीन के साथ नमाज पढ़ते हैं। जो मीर समसुद्दीन कहेगा, वही बाकी मुसलमान भी दुहराएँगे।”
कुछ दिनों तक स्थानीय राजनीतिक दलों के बाजार का बिना बिका हुआ कीमती सौदा बनकर दल के नेताओं को सुनाता रहा-जिस तरह हिन्दुओं में ब्राह्मण, उसी तरह मुसलमानों में मीर-पीर-फकीर! मैं तीन हजार साढ़े आठ सौ मुसलमानों का मीर हूँ। जो कहूँगा, तीन हजार साढ़े आठ सौ मुँह से। जो करूँगा-तीन-दूना…।
थाना कांग्रेस के सभापतिजी यों ही लुत्तो को इतना नहीं मानते!…लुत्तो में एक बड़ा गुण है, उसको बात बहुत जल्दी सूझती है। किसी भी समस्या की सदरी चाबी नहीं मिल रही हो तो लुत्तो से कहिए, तुरत एक चोरचाबी तैयार कर देगा। जब समसूददीन मीर ने अपनी कीमत एम.एल.ए., एम.पी. के रूप में बताई तो सभी पार्टीवालों ने आपस में सोच-विचार करने के लिए बैठक बुलाई।…सभी पार्टीवाले तैयार हए। लेकिन थाना कांग्रेस के सभापति साहब के जिला सभापति साहब तैयार नहीं हो रहे थे।…डिस्ट्रिक्ट बोर्ड-बोर्ड की मेम्बरी समसुद्दीन क्यों लेगा, जब दूसरी पार्टीवाले उसे तकदीर लड़ जाने पर मिनिस्टर तक बनाने को तैयार हैं। लुत्तो ने कहा-“सभापतिजी! आप लोग तो बेकार परेशान हो रहे हैं। खुशामद करने की क्या जरूरत? मैं जानता हूँ साफ बात! वह पाकिस्तानी एजेंट है। कितना सबूत लीजिएगा आप? हम देंगे, चलिए…। अभी भी उसके घर में रजाकार-मार्का टोपी है।”
दोनों सभापति एक ही साथ मुस्करा उठे-“जाहिल ही है लुत्तो, लेकिन है असल राजनीतिक लंगीबाज!”
राजनीतिक लंगी लग गई मीर समसुद्दीन को और तीसरे ही दिन मीर समसुद्दीन कांग्रेसी हो गया। थाना कमिटी का मेम्बर है वह। एम.एल.ए. या एम.एल.सी. नहीं बनाएँ कोई बात नहीं, सर्वे में पैरवी करके जमीन दिलवा देना कांग्रेस का कर्तव्य है। इसलिए, समसुद्दीन की ओर से पैरवी कर रहा है खुद लुत्तो!
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दस्तावेज से प्रभावित होकर हाकिम टिफिन के लिए उठ गए हैं। इतनी देर में लत्तो ने अपनी बदधि लड़ाकर बहत-सी कटहा बातें तैयार कर ली हैं। हाकिम के आते ही लुत्तो ने कहा- हुजूर! भारी जालिया खानदान है मिसर खानदान! कौन नहीं जानता, एक जमाने में ऐसे-ऐसे दस्तावेज मिसर के घर में रोज बनते थे। हुजूर, इस खानदान का तो गाना भी छापी होकर बिक चुका है, एक जमाने में!”
हाकिम मुस्कराने लगे। तब लुत्तो का कलेजा डेढ़ हाथ का हो गया। कचहरी-घर में जमी भीड़ की ओर देखकर कहा लुत्तो ने-“भाई, कोई बूढ़ा पुराना नहीं है? याद है किसी को वह गीत?”
भीड़ में एक हल्की मस्कराहट फैली-“बालिस्टर का भी कान काट लीहिस लुत्तो! क्यों?” एक बूढ़ा गाने को तैयार है, बशर्ते कि…।
हाकिम ने कहा-“गीत-भजन छोड़िए। कागजी सबूत दिखलाइए।”
इस बात पर लुत्तो अड़ गया…। हाकिम को मालूम होना चाहिए कि लुत्तो भी कोई पोजीशन रखता है कांग्रेस में…जितेन्द्र बाबू के एक कागज के बक्से को एक घंटे तक निहारा है हाकिम ने! लुत्तो जनता का लीडर है। लत्तो की ओर से पेश होनेवाले गीत की एक कड़ी सुननी ही होगी हाकिम को। क्योंकि इसी गीत से साबित होगा कि मिसर खानदान कितना भारी जालिया खानदान है। जब जालिया खानदान एक बार साबित हो चुका है तो फिर सब कागज जाली!…शुरू करो जी भूलोटन मड़र!
“अरे, लोटवा जे जाल करि मोहर भैजउलs हो सिवेन्दर मिसिर…।” हाकिम ने अपनी मस्कराहट को समेटने की चेष्टा की। क्या किया जाए? जिला-सर्वे-ऑफिसर ने चेतावनी दी है, वे चुपचाप गीत सुन रहे हैं।
लोटवा जे जाल करि मोहर भँजउलs हो सिवेन्दर मिसिर।
पड़ल मेमनियाँ के फेर हो सिवेन्दर मिसिर।
गोरकी मेमनियाँ जे बड़ी रे जोगनियाँ हो सिवेन्दर मिसिर।
हँसी-हँसी लेलक सब टेर हो सिवेन्दर मिसर!
वाह! लुत्तो ने तो हसन इमाम बालिस्टर को भी मात कर दिया। हसन इमाम ने कचहरी में गीत पेश करवाया था कभी? नहीं, तब? लुत्तो ने गीत पेश किया है, साक्षी-पक्ष की ओर से!
“वाह! वाह! खवास के खानदान में अलबत्त निकला लुत्तो बालिस्टर!” रामपखारन सिंघ के गले की आवाज खनखनाई-“वाह! वाह!” लोगों ने उलटकर रामपखारन सिंघ की ओर इस तरह देखना शरू किया मानो गंगास्नान करके पवित्र हुए पुण्यार्थियों के बीच कोई कसाई घुस आया हो।
“देख रहे हैं न हुजूर, किस तरह हुजूर के सामने भी आँख लाल करके कूट बोली बोलता है?”
हाकिम ने कहा-“वह तो आपकी तारीफ कर रहा है।”
“खवास का बेटा जो कहा!”
“लेकिन आपके बाप के नाम के साथ खवास सिरनाम लरेना खवास।”
“ऐं! खवास लिखा हुआ है?” सब बालिस्टरी सटक गई लुत्तो की! आज तक उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया था।
“हजूर! सब कारसाजी पहले के जमींदारी अमला लोगों की है। जो मन में आया लिख दिया। मेरे बाप का नाम नारायणराय है।”
“आखिर खवास से आप चिढ़ते क्यों हैं?”
“हुजूर, खवास का माने हुआ जो जूठा बर्तन माँजता हो, उगलदान उठाता हो, चिलम सुलगाता हो”-मुशी जलधारी ने दाद खुजलाते हुए कहा-“तेलमालिश से लेकर कपड़ा-धुलाई और भंग-पिसाई…।”
लुत्तो इससे आगे नहीं सुन सकता। बोला-“हुजूर, जाति की बात लेकर बात बढ़ी तो बात बिगड़ जाएगी। समझा दीजिए मुंशी जलधारीलाल को।…कायस्थों के बारे में मैं भी बहुत कटहा बात कह सकता हूँ।”
खवास टोली के एक अधेड़ आदमी ने तैश में आकर कहा-“हुजू-उ-उ-र! मुंसीजी को समझाय दीजिए। जात लेकर बात करेंगे मुंसीजी तो….”
हाकिम ने इस झंझटवाली नत्थी में फिर दूसरी तारीख देते हुए कहा-“अगली तारीख को कागजी सबूत लेकर आइए समसुद्दीन मियाँ। मुंशीजी, सुन लीजिए। जितेन्द्रनाथ से कहिए, तारीख के दिन हाजिर होकर जो कुछ कहना हो कहें।…चपरासी, पुकारो-अनूपलाल दावेदार, रंगलाल जमींदार।”
“कहाँ अनुपलाल…!”
*****
लुत्तो को मरमचोट लगी है। मर्मस्थल में चोट लगती है उसके, जब कोई उसे खवास कह बैठता है। अपने पुरखे-पीढ़ी के पुराने लोगों पर गुस्सा होता है। दुनिया में इतने नाम रहते जाति का नाम खवास रखने की क्या जरूरत थी? और, लगता है खवास के सिवा और कोई काम ही नहीं था पुराने जमाने में! आज किसके मुँह में ताला लगावे लुत्तो!
शाम को भिम्मल मामा बात का बतंगड़ बनाकर सुननेवालों को सुना रहे थे। लुत्तो खून का यूंट पीकर रह गया। क्यों? सिर्फ इसलिए कि वह खवास का बेटा है और भिम्मल मामा कोई गैरवाजिब तो नहीं कह रहे थे। बात भी तो सही ही है। लेकिन, उसको अपने ढंग से सनाते हैं भिम्मल मामा!
खवास का अर्थ? खा-वास! पुराकाल के पुष्ट किसानों ने खैन नामक प्रथा प्रचलित की थी। कमार, कुम्हार, चमार आदि को खैन देते थे और बदले में साल-भर काम लेते थे। हल के हिसाब से ही सभी किस्म के खैन की दर नियत होती थी। एक हलवाले को अगहनी धान एक मन, भदई एक मन। लेकिन, खवास तो दिन-रात आँगन से लेकर दरवाजे तक का काम करते थे, इसलिए उन्हें ऐसी जमीन दी जाती थी, जिस पर खेती-बारी मालिक के ही हल-बैल से होती। उपज काटकर खवास ले जाते। खा-वास का अर्थ हआ-खाओ और वास करो।
खवासी जमीन? नहीं चाहिए लत्तो को ऐसी जमीन!
भिम्मल मामा से खवास का अर्थ सुनने के बाद लुत्तो की लंगीबाज बुद्धि में एक बात आई थी।…जब खवास के माने खाओ और वास करो है तो क्यों न वह फिर से एक दावा करे, अलग से? पच्चीस एकड़ पर उसने तनाजा दिया है, आधीदार हैसियत से। पच्चीस एकड़ पर और दावा कर दिया जाए, कि खवासी में मिली थी जमीन। जगजाहिर बात है कि शिवेन्दर बाबू का खवास था लरे…नारायणराय! बगैर किसी कागजी सबूत और बिना किसी पैरवी के ही जमीन खट से मिल जाएगी। खवासी जमीन!…
नहीं चाहिए लत्तो को ऐसी जमीन, जिससे जाति की इज्जत माटी में मिल जाए! और छोटी जाति के लोग तो अपनी जगह पर ठीक हैं। आजकल हरिजन भी कहलाने लगे हैं। लेकिन, खवास?-न जलो, न थलो। बामनों की चालाकी खूब समझता है लुत्तो। समझकर मन-ही-मन कुढ़ता है। सियार पंडित! डोम, चमार, काछी-हाड़ी को तो गाँव से बाहर बसाया। शूद्रों में कुछ साफ-सुथरे घराने का पानी चला दिया, नहीं तो पानी खुद भरकर पीना होगा। दही-चूड़ा का भार कौन ले जाता ढोकर-बीस कोस, पच्चीस कोस बहँगी में टाँगकर, दलकी लगाते? खवास! भिम्मल मामा की आखिरी बात लुत्तो की समझ में नहीं आई। अन्दाज से ही वह समझ गया कि कोई कटहा बात होगी।
-खवास सरूप होते हैं। सवर्णों के सत्संग. संस्कार तथा आन्तर्मिलन के फलस्वरूप…| जरूर कोई कटहा बात होगी। तो लत्तो क्या करे अकेले? जाति के लोगों की हालत तो है कुत्ते की दुम की तरह। सीधी हो, तब तो! जूठन खाई हुई जीभ बूढ़ों की पनिया जाती है। इतना बन्दिश किया, फिर भी भगेलू की बहू, लँगड़ा बूढा, मौलीदास वगैरह हैं जो चुराकर जूठन माँग लाते हैं, बबुआन टोली से। छि:-छि:! माना कि किसी-किसी मालिक के दरबार में खवासों की खूब चलती थी। मालिकों की हवेली में, उनकी बहुएँ आधी मालकिन समझी जाती थीं। किसी खानदान में आँगन की मलिकाइन अपने स्वामी के खवास पर जितना विश्वास करती उतना…! छट्ट-खवास का किस्सा कौन नहीं जानता है! दही के ऊपरवाली मलाई छटै खाए, पाँति लेके पिठौरा जाए! ऊपरली छाली छटू खाए! छाली-मलाई के लोभ से ही पुरखों ने इस मलाईदार पेशे को अपनाया था। लुत्तो को गरमचोट लगती है।
धरकट्ट कहीं के! और कोई पेशा ही नहीं मिला!
“बासी बिछावन से किसको गाली दे रहे हो लुत्तो?”
लत्तो आँख मलता हआ उठा, “जै हिन्द, जै हिन्द! आइए। बैठिए।”
बीरभददर बाब इतना भोर में आए हैं तो जरूर कोई खास बात होगी। बीरभद्दर बाबू ने इधर-उधर देखकर कहा, “चाह पिलाओ तो बैलूं। इतना सबेरे भैंस तो नहीं दुहवाया होगा?”
लुत्तो ने अपने भानजे को पुकारकर कहा, “रे बँगटा! भैंस दुह। और डेरा में जाकर कहो, चाह का पानी चढ़ाए।”
“बात यह है कि कुबेर बाबू की चिट्ठी आई है पटने से।” बीरभद्दर बाबू ने जेब से एक लिफाफा निकालकर कहा, “कुबेर बाबू को मैं भैया कहकर चिट्ठी लिखता हूँ न!”
लुत्तो की औंघाई आँखें अचानक चमक उठीं। बोला, “चिट्ठी बन्द कीजिए। गरुड़धुज झा आ रहा है। नम्बरी फोकट दलाल है।”
गरुड़धुज झा अपनी लम्बाई का फायदा सोलकन्ह टोली में खूब उठाता है। दहलीज की टट्टी से एक बालिश्त ऊपर ही उसकी गर्दन रहती है। उसने देखा, लुतो के आँगन में बटलोही चढ़ी हुई है, चाह का पानी गरम हो रहा है।
“क्यों बीरो बाबू, कांग्रेसी चाहपाटी चुपेचाप होता है!” गरुड़धुज झा ने दूर से बात फेंकी, राह चलते। बीरभद्दर बाबू गरुड़धुज को खुश रखना चाहते हैं, बीच-बीच में चाह-चू पिलाकर। बोले-“आइए, आइए!”
गरुड़धुज झा हवा का रुख देखकर बात करना जानता है। उसने बैठते ही तो एलान किया था कि जित्तन को एक महीना के अन्दर ही गाँव छोड़कर भागना होगा। सो, पाँच महीने हो रहे हैं, जित्तन तो डटा हुआ है!”
“देख लीजिएगा। जल्दी काम शैतान का! जित्तन को भागना ही होगा। शहर से आधा पागल होकर आया है, गाँव से पुरा पागल होकर जाएगा। देखिएगा तमाशा!”
“तुम चाहो तो वह कल ही सिर पर पैर लेकर भाग जाए। तुमने ढील दे दी है। ऐसे-ऐसे हाफ-मैड आदमी गाँव में तीन-चार हो जाएँ तो सारा गाँव ही चौपट समझो।”-गरुड़धुज झा अंग्रेजी नहीं जानता। लेकिन उसका लड़का अंग्रेजी पढ़ता है। आजकल गरुड़धज झा भी एकाध अंग्रेजी शब्द मिलाकर बात बोलता है। सभी बोलते हैं, फिर गरुड़धुज ही क्यों न बोले?
लुत्तो भी आजकल फर्स्टबुक पढ़ता है, अर्जुनलाल के यहाँ जाकर-ए फैट कैट सैट ऑन दैट मैट। एक मोटी बिल्ली बैठी है उस चटाई पर।…लुत्तो को थाना और जिला कमेटी के सभापति ने मिलकर परानपुर गाँव का लीडर बनाया है। सभापतिजी ने कहा था, “ज़रा-सा अंग्रेजी कटर-मटर जानता लत्तो तो थाना का सैक्रेटरी हो जाता।” लुतो ने गरुड़धज झा को जवाब देने के लिए एक शब्द ढूँढ़कर निकाला, बहुत देर के बाद। याद ही नहीं आए। आगे-आगे भागता हुआ शब्द-“झाजी! इस ‘डंजरस’ आदमी को मैं पानी पिला-पिलाकर जिलाऊँगा और नाच नचाकर मारूँगा। आप लोग यदि सहायता…” बीरभद्दर बाबू ने आँख मारकर मना किया।…इससे आगे नहीं।
गरुड़धज झा ने कहा, “मेरे गिलास में आधा पाव दूध डलवाकर चाह मँगाओ लुतो बाबू! एक तो चाह मैं पीता नहीं। बीरभद्दर बाबू जानते हैं, जब पीता हूँ तो आध पाव से एक बूंद भी कम हुआ दूध कि तुरत मैंड चकराने लगता है।”
लुत्तो मन-ही-मन कहता है-‘इतने ऊँचे आदमी का माथा नहीं चकराएगा, भला?’