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प्रिय प्रवास सर्ग11-17/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

11. एकादश सर्ग
मालिनी छन्द

यक दिन छवि-शाली अर्कजा-कूल-वाली।
नव-तरु-चय-शोभी-कुंज के मध्य बैठे।
कतिपय ब्रज-भू के भावुकों को विलोक।
बहु-पुलकित ऊधो भी वहीं जा बिराजे॥1॥
प्रथम सकल-गोपों ने उन्हें भक्ति-द्वारा।
स-विधि शिर नवाया प्रेम के साथ पूजा।
भर-भर निज-ऑंखों में कई बार ऑंसू।
फिर कह मृदु-बातें श्याम-सन्देश पूछा॥2॥
परम-सरसता से स्नेह से स्निग्धता से।
तब जन-सुख दानी का सु-सम्वाद प्यारा।
प्रवचन-पटु ऊधो ने सबों को सुनाया।
कह-कह हित-बातें शान्ति दे-दे प्रबोध॥3॥
सुन कर निज-प्यारे का समाचार सारा।
अतिशय-सुख पाया गोप की मंडली ने।
पर प्रिय-सुधि आये प्रेम-प्राबल्य द्वारा।
कुछ समय रही सो मौन हो उन्मना सी॥4॥
फिर बहु मृदुता से स्नेह से धीरता से।
उन स-हृदय गोपों में बड़ा-वृध्द जो था।
वह ब्रज-धन प्यारे-बन्धु को मुग्ध-सा हो।
निज सु-ललित बातों को सुनाने लगा यों॥5॥

वंशस्थ छन्द

प्रसून यों ही न मिलिन्द वृन्द को।
विमोहता औ करता प्रलुब्ध है।
वरंच प्यारा उसका सु-गंध ही।
उसे बनाता बहु-प्रीति-पात्र है॥6॥
विचित्र ऐसे गुण हैं ब्रजेन्दु के।
स्वभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
निबध्द सी है जिनमें नितान्त ही।
ब्रजानुरागीजन की विमुग्धता॥7॥
स्वरूप होता जिसका न भव्य है।
न वाक्य होते जिसके मनोज्ञ हैं।
मिली उसे भी भव-प्रीति सर्वदा।
प्रभूत प्यारे गुण के प्रभाव से॥8॥
अपूर्व जैसा घन-श्याम-रूप है।
तथैव वाणी उनकी रसाल है।
निकेत वे हैं गुण के, विनीत हैं।
विशेष होगी उनमें न प्रीति क्यों॥9॥
सरोज है दिव्य-सुगंध से भरा।
नृलोक में सौरभवान स्वर्ण है।
सु-पुष्प से सज्जित पारिजात है।
मयंक है श्याम बिना कलंक का॥10॥
कलिन्दजा की कमनीय-धार जो।
प्रवाहिता है भवदीय-सामने।
उसे बनाता पहले विषाक्त था।
विनाश-कारी विष-कालिनाग का॥11॥
जहाँ सुकल्लोलित उक्त धार है।
वहीं बड़ा-विस्तृत एक कुण्ड है।
सदा उसी में रहता भुजंग था।
भुजंगिनी संग लिये सहस्रश:॥12॥
मुहुर्मुहु: सर्प-समूह-श्वास से।
कलिन्दजा का कँपता प्रवाह था।
असंख्य फूत्कार प्रभाव से सदा।
विषाक्त होता सरिता सदम्बु था॥13॥
दिखा रहा सम्मुख जो कदम्ब है।
कहीं इसे छोड़ न एक वृक्ष था।
द्वि-कोस पर्यंत द्वि-कूल भानुजा।
हरा भरा था न प्रशंसनीय था॥14॥
कभी यहाँ का भ्रम या प्रमाद से।
कदम्बु पीता यदि था विहंग भी।
नितान्त तो व्याकुल औ विपन्न हो।
तुरन्त ही था प्रिय-प्राण त्यागता॥15॥
बुरा यहाँ का जल पी, सहस्रश:।
मनुष्य होते प्रति-वर्ष नष्ट थे।
कु-मृत्यु पाते इस ठौर नित्य ही।
अनेकश: गो, मृग, कीट कोटिश:॥16॥
रही न जानें किस काल से लगी।
ब्रजापगा में यह व्याधि-दुर्भगा।
किया उसे दूर मुकुन्द देव ने।
विमुक्ति सर्वस्व-कृपा-कटाक्ष से॥17॥
बढ़े दिवानायक की दुरन्तता।
अनेक-ग्वाले सुरभी समूह ले।
महा पिपासातुर एक बार हो।
दिनेशजा वर्जित कूल पै गये॥18॥
परन्तु पी के जल ज्यों स-धेनू वे।
कलिन्दजा के उपकूल से बढ़े।
अचेत त्योंही सुरभी समेत हो।
जहाँ तहाँ भूतल-अंक में गिरे॥19॥
बढ़े इसी ओर स्वयं इसी घड़ी।
ब्रजांगना-वल्लभ दैव-योग से।
बचा जिन्होंने अति-यत्न से लिया।
विनष्ट होते बहु-प्राणि-पुंज को॥20॥
दिनेशजा दूषित-वारि-पान से।
विडम्बना थी यह हो गई यत:।
अत: इसी काल यथार्थ-रूप से।
ब्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का॥21॥
स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा।
विगर्हणा देख मनुष्य-मात्रा की।
विचार के प्राणि-समूह-कष्ट को।
हुए समुत्तोजित वीर-केशरी॥22॥
हितैषणा से निज-जन्म-भूमि की।
अपार-आवेश हुआ ब्रजेश को।
बनीं महा बंक गँठी हुई भवें।
नितान्त-विस्फारित नेत्र हो गये॥23॥
इसी घड़ी निश्चित श्याम-ने किया।
सशंकता त्याग अशंक-चित्त से।
अवश्य निर्वासन ही विधेय है।
भुजंग का भानु-कुमारिकांक से॥24॥
अत: करूँगा यह कार्य्य मैं स्वयं।
स्व-हस्त मैं दुर्लभ प्राण को लिये।
स्व-जाति औ जन्म-धरा निमित्त मैं।
न भीत हूँगा विकराल-व्याल से॥25॥
सदा करूँगा अपमृत्यु सामना।
स-भीत हूँगा न सुरेन्द्र-वज्र से।
कभी करूँगा अवहेलना न मैं।
प्रधान-धार्माङ्ग-परोपकार की॥26॥
प्रवाह होते तक शेष श्वास के।
स-रक्त होते तक एक भी शिरा।
स-शक्त होते तक एक लोम के।
किया करूँगा हित सर्वभूत का॥27॥
निदान न्यारे-पण सूत्र में बँधे।
ब्रजेन्दु आये दिन दूसरे यहीं।
दिनेश-आभा इस काल भूमि को।
बना रही थी महती-प्रभावती॥28॥
मनोज्ञ था काल द्वितीय याम था।
प्रसन्न था व्योम दिशा प्रफुल्ल थी।
उमंगिता थी सित-ज्योति-संकुला।
तरंग-माला-मय-भानु-नन्दिनी॥29॥
विलोक सानन्द सु-व्योम मेदिनी।
खिले हुए-पंकज पुष्पिता लता।
अतीव-उल्लासित हो स्व-वेणु ले।
कदम्ब के ऊपर श्याम जा चढ़े॥30॥
कँपा सु-शाखा बहु पुष्प को गिरा।
पुन: पड़े कूद प्रसिध्द कुण्ड में।
हुआ समुद्भिन्न प्रवाह वारि का।
प्रकम्प-कारी रव व्योम में उठा॥31॥
अपार-कोलाहल ग्राम में मचा।
विषाद फैला ब्रज सद्म-सद्म में।
ब्रजेश हो व्यस्त-समस्त दौड़ते।
खड़े हुए आ कर उक्त कुण्ड पै॥32॥
असंख्य-प्राणी ब्रज-भूप साथ ही।
स-वेग आये दृग-वारि मोचते।
ब्रजांगना साथ लिये सहस्रश:।
बिसूरती आ पहुँचीं ब्रजेश्वरी॥33॥
द्वि-दंड में ही जनता-समूह से।
तमारिजा का तट पूर्ण हो गया।
प्रकम्पिता हो बन मेदिनी उठी।
विषादितों के बहु-आर्त-नाद से॥34॥
कभी-कभी क्रन्दन-घोर-नाद को।
विभेद होती श्रुति-गोचरा रही।
महा-सुरीली-ध्वनि श्याम-वेणु की।
प्रदायिनी शान्ति विषाद-मर्दिनी॥35॥
व्यतीत यों ही घड़ियाँ कई हुईं।
पुन: स-हिल्लोल हुई पतंगजा।
प्रवाह उद्भेदित अंत में हुआ।
दिखा महा अद्भुत-दृश्य सामने॥36॥
कई फनों का अति ही भयावना।
महा-कदाकार अश्वेत शैल सा।
बड़ा-बली एक फणीश अंक से।
कलिन्दजा के कढ़ता दिखा पड़ा॥37॥
विभीषणाकार-प्रचण्ड-पन्नगी।
कई बड़े-पन्नग, नाग साथ ही।
विदार के वक्ष विषाक्त-कुण्ड का।
प्रमत्त से थे कढ़ते शनै: शनै:॥38॥
फणीश शीशोपरि राजती रही।
सु-मूर्ति शोभा-मय श्री मुकुन्द की।
विकीर्णकारी कल-ज्योति-चक्षु थे।
अतीव-उत्फुल्ल मुखारविन्द था॥39॥
विचित्र थी शीश किरीट की प्रभा।
कसी हुई थी कटि में सु-काछनी।
दुकूल से शोभित कान्त कन्धा था।
विलम्बिता थी वन-माल कण्ठ में॥40॥
अहीश को नाथ विचित्र-रीति से।
स्व-हस्त में थे वर-रज्जु को लिये।
बजा रहे थे मुरली मुहुर्मुहु:।
प्रबोधिनी-मुग्धकरी-विमोहिनी॥41॥
समस्त-प्यारा-पट सिक्त था हुआ।
न भींगने से वन-माल थी बची।
गिरा रही थीं अलकें नितान्त ही।
विचित्रता से वर-बूँद वारि की॥42॥
लिये हुए सर्प-समूह श्याम ज्यों।
कलिन्दजा कम्पित अंक से कढ़े।
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे।
सभी महा शंकित-भीत हो उठे॥43॥
हुए कई मूर्छित घोर-त्रास से।
कई भगे भूतल में गिरे कई।
हुईं यशोदा अति ही प्रकम्पिता।
ब्रजेश भी व्यस्त-समस्त हो गये॥44॥
विलोक सारी-जनता भयातुरा।
मुकुन्द ने एक विभिन्न-मार्ग से।
चढ़ा किनारे पर सर्प-यूथ को।
उसे बढ़ाया वन-ओर वेग से॥45॥
ब्रजेन्द्र के अद्भुत-वेणु-नाद से।
सतर्क-संचालन से सु-युक्ति से।
हुए वशीभूत समस्त सर्प थे।
न अल्प होते प्रतिकूल थे कभी॥46॥
अगम्य-अत्यन्त समीप शैल के।
जहाँ हुआ कानन था, ब्रजेन्द्र ने।
कुटुम्ब के साथ वहीं अहीश को।
सदर्प दे के यम-यातना तजा॥47॥
न नाग काली-तब से दिखा पड़ा।
हुई तभी से यमुनाति निर्मला।
समोद लौटे सब लोग सद्म को।
प्रमोद सारे ब्रज-मध्य छा गया॥48॥
अनेक यों हैं कहते फणीश को।
स-वंश मारा वन में मुकुन्द ने।
कई मनीषी यह हैं विचारते।
छिपा पड़ा है वह गर्त में किसी॥49॥
सुना गया है यह भी अनेक से।
पवित्रा-भूता-ब्रज-भूमि त्याग के।
चला गया है वह और ही कहीं।
जनोपघाती विष-दन्त-हीन हो॥50॥
प्रवाद जो हो यह किन्तु सत्य है।
स-गर्व मैं हूँ कहता प्रफुल्ल हो।
व्रजेन्दु से ही व्रज-व्याधि है टली।
बनी फणी-हीन पतंग-नन्दिनी॥51॥
वही महा-धीर असीम-साहसी।
सु-कौशली मानव-रत्न दिव्य-धी।
अभाग्य से है ब्रज से जुदा हुआ।
सदैव होगी न व्यथा-अतीव क्यों॥52॥
मुकुन्द का है हित चित्त में भरा।
पगा हुआ है प्रति-रोम प्रेम में।
भलाइयाँ हैं उनकी बड़ी-बड़ी।
भला उन्हें क्यों ब्रज भूल जायगा॥53॥
जहाँ रहें श्याम सदा सुखी रहें।
न भूल जावें निज-तात-मात को।
कभी-कभी आ मुख-मंजु को दिखा।
रहें जिलाते ब्रज-प्राणि-पुंज को॥54॥

द्रुतविलम्बित छन्द

निज मनोहर भाषण वृध्द ने।
जब समाप्त किया बहु-मुग्ध हो।
अपर एक प्रतिष्ठित-गोप यों।
तब लगा कहने सु-गुणावली॥55॥

वंशस्थ छन्द

निदाघ का काल महा-दुरन्त था।
भयावनी थी रवि-रश्मि हो गयी।
तवा समा थी तपती वसुंधरा।
स्फुलिंग वर्षारत तप्त व्योम था॥56॥
प्रदीप्त थी अग्नि हुई दिगन्त में।
ज्वलन्त था आतप ज्वाल-माल-सा।
पतंग की देख महा-प्रचण्डता।
प्रकम्पिता पादप-पुंज-पंक्ति थी॥57॥
रजाक्त आकाश दिगन्त को बना।
असंख्य वृक्षावलि मर्दनोद्यता।
मुहुर्मुहु: उध्दत हो निनादिता।
प्रवाहिता थी पवनाति-भीषणा॥58॥
विदग्ध होके कण-धूलि राशि का।
हुआ तपे लौह कण समान था।
प्रतप्त-बालू-इव-दग्ध-भाड़ की।
भयंकरी थी महि-रेणु हो गई॥59॥
असह्य उत्ताप दुरंत था हुआ।
महा समुद्विग्न मनुष्य मात्र था।
शरीरियों की प्रिय-शान्ति-नाशिनी।
निदाघ की थी अति-उग्र-ऊष्मता॥60॥
किसी घने-पल्लववान-पेड़ की।
प्रगाढ़-छाया अथवा सुकुंज में।
अनेक प्राणी करते व्यतीत थे।
स-व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त-काल को॥61॥
अचेत सा निद्रित हो स्व-गेह में।
पड़ा हुआ मानव का समूह था।
न जा रहा था जन एक भी कहीं।
अपार निस्तब्ध समस्त-ग्राम था॥62॥
स्व-शावकों साथ स्वकीय-नीड़ में।
अबोल हो के खग-वृंद था पड़ा।
स-भीत मानो बन दीर्घ दाघ से।
नहीं गिरा भी तजती स्व-गेह थी॥63॥
सु-कुंज में या वर-वृक्ष के तले।
असक्त हो थे पशु पंगु से पडे।
प्रतप्त-भू में गमनाभिशंकया।
पदांक को थी गति त्याग के भगी॥64॥
प्रचंड लू थी अति-तीव्र घाम था।
मुहुर्मुहु: गर्जन था समीर का।
विलुप्त हो सर्व-प्रभाव-अन्य का।
निदाघ का एक अखंड-राज्य था॥65॥
अनेक गो-पालक वत्स धेनू ले।
बिता रहे थे बहु शान्ति-भाव से।
मुकुन्द ऐसे अ-मनोज्ञ-काल को।
वनस्थिता-एक-विराम कुंज में॥66॥
परंतु प्यारी यह शान्ति श्याम की।
विनष्ट औ भंग हुई तुरन्त ही।
अचिन्त्य-दूरागत-भूरि-शब्द से।
अजस्र जो था अति घोर हो रहा॥67॥
पुन: पुन: कान लगा-लगा सुना।
ब्रजेन्द्र ने उत्थित घोर-शब्द को।
अत: उन्हें ज्ञात तुरन्त हो गया।
प्रचंड दावा वन-मध्य है लगी॥68॥
गये उसी ओर अनेक-गोप थे।
गवादि ले के कुछ-काल-पूर्व ही।
हुई इसी से निज बंधु-वर्ग की।
अपार चिन्ता ब्रज-व्योम-चंद्र को॥69॥
अत: बिना ध्यान किये प्रचंडता।
निदाघ की पूषण की समीर की।
ब्रजेन्द्र दौड़े तज शान्ति-कुंज को।
सु-साहसी गोप समूह संग ले॥70॥
निकुंज से बाहर श्याम ज्यों कढ़े।
उन्हें महा पर्वत धूमपुंज का।
दिखा पड़ा दक्षिण ओर सामने।
मलीन जो था करता दिगन्त को॥71॥
अभी गये वे कुछ दूर मात्र थे।
लगीं दिखाने लपटें भयावनी।
वनस्थली बीच प्रदीप्त-वह्नि की।
मुहुर्मुहु: व्योम-दिगन्त-व्यापिनी॥72॥
प्रवाहिता उध्दत तीव्र वायु से।
विधूनिता हो लपटें दवाग्नि की।
नितान्त ही थीं बनती भयंकरी।
प्रचंड-दावा-प्रलयंकरी-समा॥73॥
अनन्त थे पादप दग्ध हो रहे।
असंख्य गाठें फटतीं स-शब्द थीं।
विशेषत: वंश-अपार वृक्ष की।
बनी महा-शब्दित थी वनस्थली॥74॥
अपार पक्षी पशु त्रस्त हो महा।
स-व्यग्रता थे सब ओर दौड़ते।
नितान्त हो भीत सरीसृपादि भी।
बने महा-व्याकुल भाग थे रहे॥75॥
समीप जा के बलभद्र-बंधु ने।
वहाँ महा-भीषण-काण्ड जो लखा।
प्रवीर है कौन त्रि-लोक मध्य जो।
स्व-नेत्र से देख उसे न काँपता॥76॥
प्रचंडता में रवि की दवाग्नि की।
दुरन्तता थी अति ही विवर्ध्दिता।
प्रतीति होती उसको विलोक के।
विदग्ध होगी ब्रज की वसुंधरा॥77॥
पहाड़ से पादप तूल पुंज से।
स-मूल होते पल मध्य भस्म थे।
बडे-बड़े प्रस्तर खंड वह्नि से।
तुरन्त होते तृण-तुल्य दग्ध थे॥78॥
अनेक पक्षी उड़ व्योम-मध्य भी।
न त्राण थे पा सकते शिखाग्नि से।
सहस्रश: थे पशु प्राण त्यागते।
पतंग के तुल्य पलायनेच्छु हो॥79॥
जला किसी का पग पूँछ आदि था।
पड़ा किसी का जलता शरीर था।
जले अनेकों जलते असंख्य थे।
दिगन्त था आर्त-निनाद से भरा॥80॥
भयंकरी-प्रज्वलिताग्नि की शिखा।
दिवांधाता-कारिणि राशि धूम की।
वनस्थली में बहु-दूर-व्याप्त थी।
नितान्त घोरा ध्वनि त्रास-वर्ध्दिनी॥81॥
यहीं विलोका करुणा-निकेत ने।
गवादि के साथ स्व-बन्धु-वर्ग को।
शिखाग्नि द्वारा जिनकी शनै: शनै:।
विनष्ट संज्ञा अधिकांश थी हुई॥82॥
निरर्थ चेष्टा करते विलोक के।
उन्हें स्व-रक्षार्थ दवाग्नि गर्भ से।
दया बड़ी ही ब्रज-देव को हुई।
विशेषत: देख उन्हें अशक्त-सा॥83॥
अत: सबों से यह श्याम ने कहा।
स्व-जाति-उध्दार महान-धर्म में।
चलो करें पावक में प्रवेश औ।
स-धेनू लेवें निज-जाति को बचा॥84॥
विपत्ति से रक्षण सर्व-भूत का।
सहाय होना अ-सहाय जीव का।
उबारना संकट से स्व-जाति का।
मनुष्य का सर्व-प्रधान धर्म है॥85॥
बिना न त्यागे ममता स्व-प्राण की।
बिना न जोखों ज्वलदग्नि में पड़े।
न हो सका विश्व-महान-कार्य्य है।
न सिध्द होता भव-जन्म हेतु है॥86॥
बढ़ो करो वीर स्व-जाति का भला।
अपार दोनों विधा लाभ है हमें।
किया स्व-कर्तव्य उबार जो लिया।
सु-कीर्ति पाई यदि भस्म हो गये॥87॥
शिखाग्नि से वे सब ओर हैं घिरे।
बचा हुआ एक दुरूह-पंथ है।
परन्तु होगी यदि स्वल्प-देर तो।
अगम्य होगा वह शेष-पंथ भी॥88॥
अत: न है और विलम्ब में भला।
प्रवृत्त हो शीघ्र स्व-कार्य में लगो।
स-धेनू के जो न इन्हें बचा सके।
बनी रहेगी अपकीर्ति तो सदा॥89॥
ब्रजेन्दु ने यद्यपि तीव्र-शब्द में।
किया समुत्तोजित गोप-वृन्द को।
तथापि साथी उनके स्व-कार्य में।
न हो सके लग्न यथार्थ-रीति से॥90॥
निदाघ के भीषण उग्र-ताप से।
स्व-धर्य्य थे वे अधिकांश खो चुके।
रहे-सहे साहस को दवाग्नि ने।
किया समुन्मूलन सर्व-भाँति था॥91॥
असह्य होती उनको अतीव थी।
कराल-ज्वाला तन-दग्ध-कारिणी।
विपत्ति से संकुल उक्त-पंथ भी।
उन्हें बनाता भय-भीत भूरिश:॥92॥
अत: हुए लोग नितान्त भ्रान्त थे।
विलोप होती सुधि थी शनै: शनै:।
ब्रजांगना-वल्लभ के निदेश से।
स-चेष्ट होते भर वे क्षणेक थे॥93॥
स्व-साथियों की यह देख दुर्दशा।
प्रचंड-दावानल में प्रवीर से।
स्वयं धाँसे श्याम दुरन्त-वेग से।
चमत्कृता सी वन-भूमि को बना॥94॥
प्रवेश के बाद स-वेग ही कढ़े।
समस्त-गोपालक-धेनू संग वे।
अलौकिक-स्फूर्ति दिखा त्रि-लोक को।
वसुंधरा में कल-कीर्ति वेलि बो॥95॥
बचा सबों को बलवीर ज्यों कढ़े।
प्रचंड-ज्वाला-मय-पंथ त्यों हुआ।
विलोकते ही यह काण्ड श्याम को।
सभी लगे आदर दे सराहने॥96॥
अभागिनी है ब्रज की वसुन्धरा।
बड़े-अभागे हम गोप लोग हैं।
हरा गया कौस्तुभ जो ब्रजेश का।
छिना करों से ब्रज-भूमि रत्न जो॥97॥
न वित्ता होता धन रत्न डूबता।
असंख्य गो-वंश-स-भूमि छूटता।
समस्त जाता तब भी न शोक था।
सरोज सा आनन जो विलोकता॥98॥
अतीव-उत्कण्ठित सर्व-काल हूँ।
विलोकने को यक-बार और भी।
मनोज्ञ-वृन्दावन-व्योम-अंक में।
उगे हुए आनन-कृष्णचन्द्र को॥99॥

12. द्वादश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

ऊधो को यों स-दुख जब थे गोप बातें सुनाते।
आभीरों का यक-दल नया वाँ उसी-काल आया।
नाना-बातें विलख उसने भी कहीं खिन्न हो हो।
पीछे प्यारा-सुयश स्वर से श्याम का यों सुनाया॥1॥

द्रुतविलम्बित छन्द

सरस-सुन्दर-सावन-मास था।
घन रहे नभ में घिर-घूमते।
विलसती बहुधा जिनमें रही।
छविवती-उड़ती-बक-मालिका॥2॥
घहरता गिरि-सानु समीप था।
बरसता छिति-छू नव-वारि था।
घन कभी रवि-अंतिम-अंशु ले।
गगन में रचता बहु-चित्र था॥3॥
नव-प्रभा परमोज्ज्वल-लीक सी।
गति-मती कुटिला-फणिनी-समा।
दमकती दुरती घन-अंक में।
विपुल केलि-कला-खनि दामिनी॥4॥
विविध-रूप धरे नभ में कभी।
विहरता वर-वारिद-व्यूह था।
वह कभी करता रस सेक था।
बन सके जिससे सरसा-रसा॥5॥
सलिल-पूरित थी सरसी हुई।
उमड़ते पड़ते सर-वृन्द थे।
कर-सुप्लावित कूल प्रदेश को।
सरित थी स-प्रमोद प्रवाहिता॥6॥
वसुमती पर थी अति-शोभिता।
नवल कोमल-श्याम-तृणावली।
नयन-रंजनता मृदु-मूर्ति थी।
अनुपमा-तरु-राजि-हरीतिमा॥7॥
हिल, लगे मृदु-मन्द-समीर के।
सलिल-बिन्दु गिरा सुठि अंक से।
मन रहे किसका न विमोहते।
जल-धुले दल-पादप पुंज के॥8॥
विपुल मोर लिये बहु-मोरिनी।
विहरते सुख से स-विनोद थे।
मरकतोपम पुच्छ-प्रभाव से।
मणि-मयी कर कानन कुंज को॥9॥
बन प्रमत्त-समान पपीहरा।
पुलक के उठता कह पी कहाँ।
लख वसंत-विमोहक-मंजुता।
उमग कूक रहा पिक-पुंज था॥10॥
स-रव पावस-भूप-प्रताप जो।
सलिल में कहते बहु भेक थे।
विपुल-झींगुर तो थल में उसे।
धुन लगा करते नित गान थे॥11॥
सुखद-पावस के प्रति सर्व की।
प्रकट सी करती अति-प्रीति थी।
वसुमती-अनुराग-स्वरूपिणी।
विलसती-बहु-वीर बहूटियाँ॥12॥
परम-म्लान हुई बहु-वेलि को।
निरख के फलिता अति-पुष्पिता।
सकल के उर में रम सी गई।
सुखद-शासन की उपकारिता॥13॥
विविध-आकृति औ फल फूल की।
उपजती अवलोक सु-बूटियाँ।
प्रकट थी महि-मण्डल में हुई।
प्रियकरी-प्रतिपत्तिा-पयोद की॥14॥
रस-मयी भव-वस्तु विलोक के।
सरसता लख भूतल-व्यापिनी।
समझ है पड़ता बरसात में।
उदक का रस नाम यथार्थ है॥15॥
मृतक-प्राय हुई तृण-राजि भी।
सलिल से फिर जीवित हो गई।
फिर सु-जीवन जीवन को मिला।
बुध न जीवन क्यों उसको कहें॥16॥
ब्रज-धरा यक बार इन्हीं दिनों।
पतित थी दुख-वारिधि में हुई।
पर उसे अवलम्बन था मिला।
ब्रज-विभूषण के भुज-पोत का॥17॥
दिवस एक प्रभंजन का हुआ।
अति-प्रकोप, घटा नभ में घिरी।
बहु-भयावह-गाढ़-मसी-समा।
सकल-लोक प्रकंपित-कारिणी॥18॥
अशनि-पात-समान दिगन्त में।
तब महा-रव था बहु्र व्यापता।
कर विदारण वायु प्रवाह का।
दमकती नभ में जब दामिनी॥19॥
मथित चालित ताड़ित हो महा।
अति-प्रचंड-प्रभंजन-वेग से।
जलद थे दल के दल आ रहे।
घुमड़ते घिरते ब्रज-घेरते॥20॥
तरल-तोयधि-तुंग-तरंग से।
निविड़-नीरद थे घिर घूमते।
प्रबल हो जिनकी बढ़ती रही।
असितता-घनता-रवकारिता॥21॥
उपजती उस काल प्रतीति थी।
प्रलय के घन आ ब्रज में घिरे।
गगन-मण्डल में अथवा जमे।
सजल कज्जल के गिरि कोटिश:॥22॥
पतित थी ब्रज-भू पर हो रही।
प्रति-घटी उर-दारक-दामिनी।
असह थी इतनी गुरु-गर्जना।
सह न था सकता पवि-कर्ण भी॥23॥
तिमिर की वह थी प्रभुता बढ़ी।
सब तमोमय था दृग देखता।
चमकता वर-वासर था बना।
असितता-खनि-भाद्र-कुहू-निशा॥24॥
प्रथम बूँद पड़ी ध्वनि-बाँध के।
फिर लगा पड़ने जल वेग से।
प्रलय कालिक-सर्व-समाँ दिखा।
बरसता जल मूसल-धार था॥25॥
जलद-नाद प्रभंजन-गर्जना।
विकट-शब्द महा-जलपात का।
कर प्रकम्पित पीवर-प्राण को।
भर गया ब्रज-भूतल मध्य था॥26॥
स-बल भग्न हुई गुरु-डालियाँ।
पतित हो करती बहु-शब्द थीं।
पतन हो कर पादप-पुंज को।
क्षण-प्रभा करती शत-खंड थी॥27॥
सदन थे सब खंडित हो रहे।
परम-संकट में जन-प्राण था।
स-बल विज्जु प्रकोप-प्रमाद से।
बहु-विचूर्णित पर्वत-शृंग थे॥28॥
दिवस बीत गया रजनी हुई।
फिर हुआ दिन किन्तु न अल्प भी।
कम हुई तम-तोम-प्रगाढ़ता।
न जलपात रुका न हवा थमी॥29॥
सब-जलाशय थे जल से भरे।
इसलिए निशि वासर मध्य ही।
जलमयी ब्रज की वसुधा बनी।
सलिल-मग्न हुए पुर-ग्राम भी॥30॥
सर-बने बहु विस्तृत-ताल से।
बन गया सर था लघु-गर्त भी।
बहु तरंग-मयी गुरु-नादिनी।
जलधि तुल्य बनी रविनन्दिनी॥31॥
तदपि था पड़ता जल पूर्व सा।
इसलिए अति-व्याकुलता बढ़ी।
विपुल-लोक गये ब्रज-भूप के।
निकट व्यस्त-समस्त अधीर हो॥32॥
प्रकृति की कुपिता अवलोक के।
प्रथम से ब्रज-भूपति व्यग्र थे।
विपुल-लोक समागत देख के।
बढ़ गई उनकी वह व्यग्रता॥33॥
पर न सोच सके नृप एक भी।
उचित यत्न विपत्ति-विनाश का।
अपर जो उस ठौर बहुज्ञ थे।
न वह भी शुभ-सम्मति दे सके॥34॥
तड़ित सी कछनी कटि में कसे।
सु-विलसे नव-नीरद-कान्ति का।
नवल-बालक एक इसी घड़ी।
जन-समागम-मध्य दिखा पड़ा॥35॥
ब्रज-विभूषण को अवलोक के।
जन-समूह प्रफुल्लित हो उठा।
परम-उत्सुकता-वश प्यार से।
फिर लगा वदनांबुज देखने॥36॥
सब उपस्थित-प्राणि-समूह को।
निरख के निज-आनन देखता।
बन विशेष विनीत मुकुन्द ने।
यह कहा ब्रज-भूतल-भूप से॥37॥
जिस प्रकार घिरे घन व्योम में।
प्रकृति है जितनी कुपिता हुई।
प्रकट है उससे यह हो रहा।
विपद का टलना बहु-दूर है॥38॥
इसलिए तज के गिरि-कन्दरा।
अपर यत्न न है अब त्राण का।
उचित है इस काल सयत्न हो।
शरण में चलना गिरि-राज की॥39॥
बहुत सी दरियाँ अति-दिव्य हैं।
बृहत कन्दर हैं उसमें कई।
निकट भी वह है पुर-ग्राम के।
इसलिए गमन-स्थल है वही॥40॥
सुन गिरा यह वारिद-गात की।
प्रथम तर्क-वितर्क बड़ा हुआ।
फिर यही अवधरित हो गया।
गिरि बिना ‘अवलम्ब’ न अन्य है॥41॥
पर विलोक तमिस्र-प्रगाढ़ता।
तड़ित-पात प्रभंजन-भीमता।
सलिल-प्लावन-वर्षण-वारि का।
विफल थी बनती सब-मंत्रणा॥42॥
इसलिए फिर पंकज-नेत्र ने।
यह स-ओज कहा जन-वृन्द से।
रह अचेष्टित जीवन त्याग से।
मरण है अति-चारु सचेष्ट हो॥43॥
विपद-संकुल विश्व-प्रपंच है।
बहु-छिपा भवितव्य रहस्य है।
प्रति-घटी पल है भय प्राण का।
शिथिलता इस हेतु अ-श्रेय है॥44॥
विपद से वर-वीर-समान जो।
समर-अर्थ-समुद्यत हो सका।
विजय-भूति उसे सब काल ही।
वरण है करती सु-प्रसन्न हो॥45॥
पर विपत्ति विलोक स-शंक हो।
शिथिल जो करता पग-हस्त है।
अवनि में अवमानित शीघ्र हो।
कवल है बनता वह काल का॥46॥
कब कहाँ न हुई प्रतिद्व्न्दिता।
जब उपस्थित संकट-काल हो।
उचित-यत्न स-धर्य्य विधेय है।
उस घड़ी सब-मानव-मात्र को॥47॥
सु-फल जो मिलता इस काल है।
समझना न उसे लघु चाहिए।
बहुत हैं, पड़ संकट-स्रोत में।
सहस में जन जो शत भी बचें॥48॥
इसलिए तज निंद्य-विमूढ़ता।
उठ पड़ो सब लोग स-यत्न हो।
इस महा-भय-संकुल काल में।
बहु-सहायक जान ब्रजेश को॥49॥
सुन स-ओज सु-भाषण श्याम का।
बहु-प्रबोधित हो जन-मण्डली।
गृह गई पढ़ मंत्र-प्रयत्न का।
लग गई गिरि ओर प्रयाण में॥50॥
बहु-चुने-दृढ़-वीर सु-साहसी।
सबल-गोप लिये बलवीर भी।
समुचित स्थल में करने लगे।
सकल की उपयुक्त सहायता॥51॥
सलिल प्लावन से अब थे बचे।
लघु-बड़े बहु-उन्नत पंथ जो।
सब उन्हीं पर हो स-सतर्कता।
गमन थे करते गिरि-अंक में॥52॥
यदि ब्रजाधिप के प्रिय-लाडिले।
पतित का कर थे गहते कहीं।
उदक में घुस तो करते रहे।
वह कहीं जल-बाहर मग्न को॥53॥
पहुँचते बहुधा उस भाग में।
बहु अकिंचन थे रहते जहाँ।
कर सभी सुविधा सब-भाँति की।
वह उन्हें रखते गिरि-अंक में॥54॥
परम-वृध्द असम्बल लोक को।
दुख-मयी-विधवा रुज-ग्रस्त को।
बन सहायक थे पहुँचा रहे।
गिरि सु-गह्नर में कर यत्न वे॥55॥
यदि दिखा पड़ती जनता कहीं।
कु-पथ में पड़ के दुख भोगती।
पथ-प्रदर्शन थे करते उसे।
तुरत तो उस ठौर ब्रजेन्द्र जा॥56॥
जटिलता-पथ की तम गाढ़ता।
उदक-पात प्रभंजन भीमता।
मिलित थीं सब साथ, अत: घटी।
दुख-मयी-घटना प्रति-पंथ में॥57॥
पर सु-साहस से सु-प्रबंधा से।
ब्रज-विभूषण के जन एक भी।
तन न त्याग सका जल-मग्न हो।
मर सका गिर के न गिरीन्द्र से॥58॥
फलद-सम्बल लोचन के लिए।
क्षणप्रभा अतिरिक्त न अन्य था।
तदपि साधन में प्रति-कार्य्य के।
सफलता ब्रज-वल्लभ को मिली॥59॥
परम-सिक्त हुआ वपु-वस्त्र था।
गिर रहा शिर ऊपर वारि था।
लग रहा अति उग्र-समीर था।
पर विराम न था ब्रज-बन्धु को॥60॥
पहुँचते वह थे शर-वेग से।
विपद-संकुल आकुल-ओक में।
तुरत थे करते वह नाश भी।
परम-वीर-समान विपत्ति का॥61॥
लख अलौकिर्क-स्फूत्तिा-सु-दक्षता।
चकित-स्तंभित गोप-समूह था।
अधिकत: बँधाता यह ध्यान था।
ब्रज-विभूषण हैं शतश: बने॥62॥
स-धन गोधन को पुर ग्राम को।
जलज-लोचन ने कुछ काल में।
कुशल से गिरि-मध्य बसा दिया।
लघु बना पवनादि-प्रमाद को॥63॥
प्रकृति क्रुध्द छ सात दिनों रही।
कुछ प्रभेद हुआ न प्रकोप में।
पर स-यत्न रहे वह सर्वथा।
तनिक-क्लान्ति हुई न ब्रजेन्द्र को॥64॥
प्रति-दरी प्रति-पर्वत-कन्दरा।
निवसते जिनमें ब्रज-लोग थे।
बहु-सु-रक्षित थी ब्रज-देव के।
परम-यत्न सु-चारु प्रबन्ध से॥65॥
भ्रमण ही करते सबने उन्हें।
सकल-काल लखा स-प्रसन्नता।
रजनि भी उनकी कटती रही।
स-विधि-रक्षण में ब्रज-लोक के॥66॥
लख अपार प्रसार गिरीन्द्र में।
ब्रज-धराधिप के प्रिय-पुत्र का।
सकल लोग लगे कहने उसे।
रख लिया उँगली पर श्याम ने॥67॥
जब व्यतीत हुए दुख-वार ए।
मिट गया पवनादि प्रकोप भी।
तब बसा फिर से ब्रज-प्रान्त, औ।
परम-कीर्ति हुई बलवीर की॥68॥
अहह ऊद्धव सो ब्रज-भूमि का।
परम-प्राण-स्वरूप सु-साहसी।
अब हुआ दृग से बहु-दूर है।
फिर कहो बिलपे ब्रज क्यों नहीं॥69॥
कथन में अब शक्ति न शेष है।
विनय हूँ करता बन दीन मैं।
ब्रज-विभूषण आ निज-नेत्र से।
दुख-दशा निरखें ब्रज-भूमि की॥70॥
सलिल-प्लावन से जिस भूमि का।
सदय हो कर रक्षण था किया।
अहह आज वही ब्रज की धरा।
नयन-नीर-प्रवाह-निमग्न है॥71॥

वंशस्थ छन्द

समाप्त ज्योंही इस यूथ ने किया।
अतीव-प्यारे अपने प्रसंग को।
लगा सुनाने उस काल ही उन्हें।
स्वकीय बातें फिर अन्य गोप यों॥72॥

वसन्ततिलका छन्द

बातें बड़ी-‘मधुर औ अति ही मनोज्ञा।
नाना मनोरम रहस्य-मयी अनूठी।
जो हैं प्रसूत भवदीय मुखाब्ज द्वारा।
हैं वांछनीय वह, सर्व सुखेच्छुकों की॥73॥
सौभाग्य है व्यथित-गोकुल के जनों का।
जो पाद-पंकज यहाँ भवदीय आया।
है भाग्य की कुटिलता वचनोपयोगी।
होता यथोचित नहीं यदि कार्य्यकारी॥74॥
प्राय: विचार उठता उर-मध्य होगा।
ए क्यों नहीं वचन हैं सुनते हितों के।
है मुख्य-हेतु इसका न कदापि अन्य।
लौ एक श्याम-घन की ब्रज को लगी है॥75॥
न्यारी-छटा निरखना दृग चाहते हैं।
है कान को सु-यश भी प्रिय श्याम ही का।
गा के सदा सु-गुण है रसना अघाती।
सर्वत्र रोम तक में हरि ही रमा है॥76॥
जो हैं प्रवंचित कभी दृग-कर्ण होते।
तो गान है सु-गुण को करती रसज्ञा।
हो हो प्रमत्त ब्रज-लोग इसीलिए ही।
गा श्याम का सुगुण वासर हैं बिताते॥77॥
संसार में सकल-काल-नृ-रत्न ऐसे।
हैं हो गये अवनि है जिनकी कृतज्ञा।
सारे अपूर्व-गुण हैं उनके बताते।
सच्चे-नृ-रत्न हरि भी इस काल के हैं॥78॥
जो कार्य्य श्याम-घन ने करके दिखाये।
कोई उन्हें न सकता कर था कभी भी।
वे कार्य्य औ द्विदश-वत्सर की अवस्था।
ऊधो न क्यों फिर नृ-रत्न मुकुन्द होंगे॥79॥
बातें बड़ी सरस थे कहते बिहारी।
छोटे बड़े सकल का हित चाहते थे।
अत्यन्त प्यार दिखला मिलते सबों से।
वे थे सहायक बड़े दुख के दिनों में॥80॥
वे थे विनम्र बन के मिलते बड़ों से।
थे बात-चीत करते बहु-शिष्टता से।
बातें विरोधाकर थीं उनको न प्यारी।
वे थे न भूल कर भी अप्रसन्न होते॥81॥
थे प्रीति-साथ मिलते सब बालकों से।
थे खेलते सकल-खेल विनोद-कारी।
नाना-अपूर्व-फल-फूल खिला-खिला के।
वे थे विनोदित सदा उनको बनाते॥82॥
जो देखते कलह शुष्क-विवाद होता।
तो शान्त श्याम उसको करते सदा थे।
कोई बली नि-बल को यदि था सताता।
वे तो तिरस्कृत किया करते उसे थे॥83॥
होते प्रसन्न यदि वे यह देखते थे।
कोई स्व-कृत्य करता अति-प्रीति से है।
यों ही विशिष्ट-पद गौरव की उपेक्षा।
देती नितान्त उनके चित को व्यथा थी॥84॥
माता-पिता गुरुजनों वय में बड़ों को।
होते निराद्रित कहीं यदि देखते थे।
तो खिन्न हो दुखित हो लघु को सुतों को।
शिक्षा समेत बहुधा बहु-शास्ति देते॥85॥
थे राज-पुत्र उनमें मद था न तो भी।
वे दीन के सदन थे अधिकांश जाते।
बातें-मनोरम सुना दुख जानते थे।
औ थे विमोचन उसे करते कृपा से॥86॥
रोगी दुखी विपद-आपद में पड़ों की।
सेवा सदैव करते निज-हस्त से थे।
ऐसा निकेत ब्रज में न मुझे दिखाया।
कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवें॥87॥
संतान-हीन-जन तो ब्रज-बंधु को पा।
संतान-वान निज को कहते रहे ही।
संतान-वान जन भी ब्रज-रत्न ही का।
संतान से अधिक थे रखते भरोसा॥88॥
जो थे किसी सदन में बलवीर जाते।
तो मान वे अधिक पा सकते सुतों से।
थे राज-पुत्र इस हेतु नहीं; सदा वे।
होते सुपूजित रहे शुभ-कर्म्म द्वारा॥89॥
भू में सदा मनुज है बहु-मान पाता।
राज्याधिकार अथवा धन-द्रव्य-द्वारा।
होता परन्तु वह पूजित विश्व में है।
निस्स्वार्थ भूत-हित औ कर लोक-सेवा॥90॥
थोड़ी अभी यदिच है उनकी अवस्था।
तो भी नितान्त-रत वे शुभ-कर्म्म में हैं।
ऐसा विलोक वर-बोध स्वभाव से ही।
होता सु-सिध्द यह है वह हैं महात्मा॥91॥
विद्या सु-संगति समस्त-सु-नीति शिक्षा।
ये तो विकास भर की अधिकारिणी हैं।
अच्छा-बुरा मलिन-दिव्य स्वभाव भू में।
पाता निसर्ग कर से नर सर्वदा है॥92॥
ऐसे सु-बोध मतिमान कृपालु ज्ञानी।
जो आज भी न मथुरा-तज गेह आये।
तो वे न भूल ब्रज-भूतल को गये हैं।
है अन्य-हेतु इसका अति-गूढ़ कोई॥93॥
पूरी नहीं कर सके उचिताभिलाषा।
नाना महान जन भी इस मेदिनी में।
होने निरस्त बहुधा नृप-नीतियों से।
लोकोपकार-व्रत में अवलोक बाधा॥94॥
जी में यही समझ सोच-विमूढ़-सा हो।
मैं क्या कहूँ न यह है मुझको जनाता।
हाँ, एक ही विनय हूँ करता स-आशा।
कोई सु-युक्ति ब्रज के हित की करें वे॥95॥
है रोम-रोम कहता घनश्याम आवें।
आ के मनोहर-प्रभा मुख की दिखावें।
डालें प्रकाश उर के तम को भगावें।
ज्योतिर्विहीन-दृग की द्युति को बढ़ावें॥96॥
तो भी सदैव चित से यह चाहता हूँ।
है रोम-कूप तक से यह नाद होता।
संभावना यदि किसी कु-प्रपंच की हो।
वो श्याम-मूर्ति ब्रज में न कदापि आवें॥97॥
कैसे भला स्व-हित की कर चिन्तनायें।
कोई मुकुन्द-हित-ओर न दृष्टि देगा।
कैसे अश्रेय उसका प्रिय हो सकेगा।
जो प्राण से अधिक है ब्रज-प्राणियों का॥98॥
यों सर्व-वृत्त कहके बहु-उन्मना हो।
आभीर ने वदन ऊधो का विलोका।
उद्विग्नता सु-दृढ़ता अ-विमुक्त वांछा।
होती प्रसूत उसकी खर-दृष्टि से थी॥99॥
ऊधो विलोक करके उसकी अवस्था।
औ देख गोपगण को बहु-खिन्न होता।
बोले गिरा ‘मधुर शान्ति-करी विचारी।
होवे प्रबोध जिससे दुख-दग्धितों का॥100॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त गये गृह को सभी।
ब्रज विभूषण-कीर्ति बखानते।
विबुध पुंगव ऊधो को बना।
विपुल बार विमोहित पंथ में॥101॥

13. त्रयोदश सर्ग
वंशस्थ छन्द

विशाल-वृन्दावन भव्य-अंक में।
रही धरा एक अतीव-उर्वरा।
नितान्त-रम्या तृण-राजि-संकुला।
प्रसादिनी प्राणि-समूह दृष्टि की॥1॥
कहीं-कहीं थे विकसे प्रसून भी।
उसे बनाते रमणीय जो रहे।
हरीतिमा में तृण-राजि-मंजु की।
बड़ी छटा थी सित-रक्त-पुष्प की॥2॥
विलोक शोभा उसकी समुत्तमा।
समोद होती यह कान्त-कल्पना।
सजा-बिछौना हरिताभ है बिछा।
वनस्थली बीच विचित्र-वस्त्र का॥3॥
स-चारुता हो कर भूरि-रंजिता।
सु-श्वेतता रक्तिमता-विभूति से।
विराजती है अथवा हरीतिमा।
स्वकीय-वैचित्रय विकाश के लिए॥4॥
विलोकनीया इस मंजु-भूमि में।
जहाँ तहाँ पादप थे हरे-भरे।
अपूर्व-छाया जिनके सु-पत्र की।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी॥5॥
कहीं-कहीं था विमलाम्बु भी भरा।
सुधा समासादित संत-चित्त सा।
विचित्र-क्रीड़ा जिसके सु-अंक में।
अनेक-पक्षी करते स-मत्स्य थे॥6॥
इसी धरा में बहु-वत्स वृन्द ले।
अनेक-गायें चरती समोद थीं।
अनेक बैठी वट-वृक्ष के तले।
शनै: शनै: थीं करती जुगालियाँ॥7॥
स-गर्व गंभीर-निनाद को सुना।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते।
विमोहिता धेनू-समूह को बना।
स्व-गात की पीवरता प्रभाव से॥8॥
बड़े-सधे-गोप-कुमार सैकड़ों।
गवादि के रक्षण में प्रवृत्त थे।
बजा रहे थे कितने विषाण को।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का॥9॥
कई अनूठे-फल तोड़-तोड़ खा।
विनोदिता थे रसना बना रहे।
कई किसी सुन्दर-वृक्ष के तले।
स-बन्धु बैठे करते प्रमोद थे॥10॥
इसी घड़ी कानन-कुंज देखते।
वहाँ पधारे बलवीर-बन्धु भी।
विलोक आता उनको सुखी बनी।
प्रफुल्लिता गोपकुमार-मण्डली॥11॥
बिठा बड़े-आदर-भाव से उन्हें।
सभी लगे माधव-वृत्त पूछने।
बड़े-सुधी ऊद्धव भी प्रसन्न हो।
लगे सुनाने ब्रज-देव की कथा॥12॥
मुकुन्द की लोक-ललाम-कीर्ति को।
सुना सबों ने पहले विमुग्ध हो।
पुन: बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने।
व्यथा बढ़े यों हरि-बंधु से कहा॥13॥
मुकुन्द चाहे वसुदेव-पुत्र हों।
कुमार होवें अथवा ब्रजेश के।
बिके उन्हीं के कर सर्व-गोप हैं।
बसे हुए हैं मन प्राण में वही॥14॥
अहो यही है ब्रज-भूमि जानती।
ब्रजेश्वरी हैं जननी मुकुन्द की।
परन्तु तो भी ब्रज-प्राण हैं वही।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा॥15॥
मुकुन्द चाहे यदु-वंश के बनें।
सदा रहें या वह गोप-वंश के।
न तो सकेंगे ब्रज-भूमि भूल वे।
न भूल देगी ब्रज-मेदिनी उन्हें॥16॥
वरंच न्यारी उनकी गुणावली।
बता रही है यह, तत्तव तुल्य ही।
न एक का किन्तु मनुष्य-मात्र का।
समान है स्वत्व मुकुन्द-देव में॥17॥
बिना विलोके मुख-चन्द श्याम का।
अवश्य है भू ब्रज की विषादिता।
परन्तु सो है अधिकांश-पीड़िता।
न लौटने से बलदेव-बंधु के॥18॥
दयालुता-सज्जनता-सुशीलता।
बढ़ी हुई है घनश्याम मुर्ति की।
द्वि-दंड भी वे मथुरा न बैठते।
न फैलता व्यर्थ प्रपंच-जाल जो॥19॥
सदा बुरा हो उस कूट-नीति का।
जले महापावक में प्रपंच सो।
मनुष्य लोकोत्तर-श्याम सा जिन्हें।
सका नहीं रोक अकान्त कृत्य से॥20॥
विडम्बना है विधि की बलीयसी।
अखण्डनीया-लिपि है ललाट की।
भला नहीं तो तुहिनाभिभूत हो।
विनष्ट होता रवि-बंधु-कंज क्यों॥21॥
‘विभूतिशाली-ब्रज, श्री मुकुन्द का।’
निवास भू द्वादश-वर्ष जो रहा।
बड़ी-प्रतिष्ठा इससे उसे मिली।
हुआ महा-गौरव गोप-वंश का॥22॥
चरित्र ऐसा उनका विचित्र है।
प्रविष्ट होती जिसमें न बुध्दि है।
सदा बनाती मन को विमुग्ध है।
अलौकिकालोकमयी गुणावली॥23॥
अपूर्व-आदर्श दिखा नरत्व का।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता।
सिखा उन्होंने चित की समुच्चता।
बना दिया मानव गोप-वृन्द को॥24॥
मुकुन्द थे पुत्र ब्रजेश-नन्द के।
गऊ चराना उनका न कार्य था।
रहे जहाँ सेवक सैकड़ों वहाँ।
उन्हें भला कानन कौन भेजता॥25॥
परन्तु आते वन में स-मोद वे।
अनन्त-ज्ञानार्जन के लिए स्वयं।
तथा उन्हें वांछित थी नितान्त ही।
वनान्त में हिंसक-जन्तु-हीनता॥26॥
मुकुन्द आते जब थे अरण्य में।
प्रफुल्ल हो तो करते विहार थे।
विलोकते थे सु-विलास वारि का।
कलिन्दजा के कल कूल पै खड़े॥27॥
स-मोद बैठे गिरि-सानु पै कभी।
अनेक थे सुन्दर-दृश्य देखते।
बने महा-उत्सुक वे कभी छटा।
विलोकते निर्झर-नीर की रहे॥28॥
सु-वीथिका में कल-कुंज-पुंज में।
शनै: शनै: वे स-विनोद घूमते।
विमुग्ध हो हो कर थे विलोकते।
लता-सपुष्पा मृदु-मन्द-दूलिता॥29॥
पतंगजा-सुन्दर स्वच्छ-वारि में।
स-बन्धु थे मोहन तैरते कभी।
कदम्ब-शाखा पर बैठ मत्त हो।
कभी बजाते निज-मंजु-वेणु वे॥30॥
वनस्थली उर्वर-अंक उद्भवा।
अनेक बूटी उपयोगिनी-जड़ी।
रही परिज्ञात मुकुन्द-देव को।
स्वकीय-संधन-करी सु-बुध्दि से॥31॥
वनस्थली में यदि थे विलोकते।
किसी परीक्षा-रत-धीर-व्यक्ति को।
सु-बूटियों का उससे मुकुंद तो।
स-मर्म्म थे सर्व-रहस्य जानते॥32॥
नवीन-दूर्वा फल-फूल-मूल क्या।
वरंच वे लौकिक तुच्छ-वस्तु को।
विलोकते थे खर-दृष्टि से सदा।
स्व-ज्ञान-मात्र-अभिवृध्दि के लिए॥33॥
तृणाति साधरण को उन्हें कभी।
विलोकते देख निविष्ट चित्त से।
विरक्त होती यदि ग्वाल-मण्डली।
उसे बताते यह तो मुकुन्द थे॥34॥
रहस्य से शून्य न एक पत्र है।
न विश्व में व्यर्थ बना तृणेक है।
करो न संकीर्ण विचार-दृष्टि को।
न धूलि की भी कणिका निरर्थ है॥35॥
वनस्थली में यदि थे विलोकते।
कहीं बड़ा भीषण-दुष्ट-जन्तु तो।
उसे मिले घात मुकुन्द मारते।
स्व-वीर्य से साहस से सु-युक्ति से॥36॥
यहीं बड़ा-भीषण एक व्याल था।
स्वरूप जो था विकराल-काल का।
विशाल काले उसके शरीर की।
करालता थी मति-लोप-कारिणी॥37॥
कभी फणी जो पथ-मध्य वक्र हो।
कँपा स्व-काया चलता स-वेग तो।
वनस्थली में उस काल त्रास का।
प्रकाश पाता अति-उग्र-रूप था॥38॥
समेट के स्वीय विशालकाय को।
फणा उठा, था जब व्याल बैठता।
विलोचनों को उस काल दूर से।
प्रतीत होता वह स्तूप-तुल्य था॥39॥
विलोल जिह्ना मुख से मुहुर्मुहु:।
निकालता था जब सर्प क्रुध्द हो।
निपात होता तब भूत-प्राण था।
विभीषिका-गर्त नितान्त गूढ़ में॥40॥
प्रलम्ब आतंक-प्रसू, उपद्रवी।
अतीव मोटा यम-दीर्घ-दण्ड सा।
कराल आरक्तिम-नेत्रवान औ।
विषाक्त-फूत्कार-निकेत सर्प था॥41॥
विलोकते ही उसको वराह की।
विलोप होती वर-वीरता रही।
अधीर हो के बनता अ-शक्त था।
बड़ा-बली वज्र-शरीर केशरी॥42॥
असह्य होतीं तरु-वृन्द को सदा।
विषाक्त-साँसें दल दग्ध-कारिणी।
विचूर्ण होती बहुश: शिला रहीं।
कठोर-उद्बन्धान-सर्प-गात्र से॥43॥
अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी।
विदग्ध होते नित थे पतंग से।
भयंकरी प्राणि-समूह-ध्वंसिनी।
महादुरात्मा अहि-कोप-वह्नि थी॥44॥
अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह में।
निवास प्राय: करता भुजंग था।
परन्तु आता वह था कभी-कभी।
यहाँ बुभुक्षा-वश उग्र-वेग से॥45॥
विराजता सम्मुख जो सु-वृक्ष है।
बड़े-अनूठे जिसके प्रसून हैं।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे।
तले इसी पादप के स-मण्डली॥46॥
दिनेश ऊँचा वर-व्योम मध्य हो।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था।
इतस्तत: थे बहु गोप घूमते।
असंख्य-गायें चरती समोद थीं॥47॥
इसी अनूठे-अनुकूल-काल में।
अपार-कोलाहल आर्त-नाद से।
मुकुन्द की शान्ति हुई विदूरिता।
स-मण्डली वे शश-व्यस्त हो गये॥48॥
विशाल जो है वट-वृक्ष सामने।
स्वयं उसी की गिरि-शृंग-स्पर्ध्दिनी।
समुच्च-शाखा पर श्याम जा चढ़े।
तुरन्त ही संयत औ सतर्क हो॥49॥
उन्हें वहीं से दिखला पड़ा वही।
भयावना-सर्प दुरन्त-काल सा।
दिखा बड़ी निष्ठुरता विभीषिका।
मृगादि का जो करता विनाश था॥50॥
उसे लखे पा भय भाग थे रहे।
असंख्य-प्राणी वन में इतस्तत:।
गिरे हुए थे महि में अचेत हो।
समीप के गोप स-धेनू-मण्डली॥51॥
स्व-लोचनों से इस क्रूर-काण्ड को।
विलोक उत्तेजित श्याम हो गये।
तुरन्त आ, पादप-निम्न, दर्प से।
स-वेग दौड़े खल-सर्प ओर वे॥52॥
समीप जा के निज मंजु-वेणु को।
बजा उठे वे इस दिव्य-रीति से।
विमुग्ध होने जिससे लगा फणी।
अचेत-आभीर सचेत हो उठे॥53॥
मुहुर्मुहु: अद्भुत-वेणु-नाद से।
बना वशीभूत विमूढ़-सर्प को।
सु-कौशलों से वर-अस्त्र-शस्त्र से।
उसे वध नन्द नृपाल नन्द ने॥54॥
विचित्र है शक्ति मुकुन्द देव में।
प्रभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
सदैव होता जिससे सजीव है।
नितान्त-निर्जीव बना मनुष्य भी॥55॥
अचेत हो भू पर जो गिरे रहे।
उन्हीं सबों ने विविधा-सहायता।
अशंक की थी बलभद्र-बंधु की।
विनाश होता अवलोक व्याल का॥56॥
कई महीने तक थी पड़ी रही।
विशाल-काया उसकी वनान्त में।
विलोप पीछे यह चिह्न भी हुआ।
अघोपनामी उस क्रूर-सर्प का॥57॥
बड़ा-बली एक विशाल-अश्व था।
वनस्थली में अपमृत्यु-मुर्ति सा।
दुरन्तता से उसकी, निपीड़िता।
नितान्त होती पशु-मण्डली रही॥58॥
प्रमत्त हो, था जब अश्व दौड़ता।
प्रचंडता-साथ प्रभूत-वेग से।
अरण्य-भू थी तब भूरि-काँपती।
अतीव होती ध्वनित दिशा रही॥59॥
विनष्ट होते शतश: शशादि थे।
सु-पुष्ट-मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ठ-अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का॥60॥
बड़ा-बली उन्नत-काय-बैल भी।
विलोक होता उसको विपन्न सा।
नितान्त-उत्पीड़न-दंशनादि से।
न त्राण पाता सुरभी-समूह था॥61॥
पराक्रमी वीर बलिष्ठ-गोप भी।
न सामना थे करते तुरंग का।
वरंच वे थे बने विमूढ़ से।
उसे कहीं देख भयाभिभूत हो॥62॥
समुच्च-शाखा पर वृक्ष की किसी।
तुरन्त जाते चढ़ थे स-व्यग्रता।
सुने कठोरा-ध्वनि अश्व-टाप की।
समस्त-आभीर अतीव-भीत हो॥63॥
मनुष्य आ सम्मुख स्वीय-प्राण को।
बचा नहीं था सकता प्रयत्न से।
दुरन्तता थी उसकी भयावनी।
विमूढ़कारी रव था तुरंग का॥64॥
मुकुन्द ने एक विशाल-दण्ड ले।
स-दर्प घेरा यक बार बाजि को।
अनन्तराघात अजस्र से उसे।
प्रदान की वांछित प्राण-हीनता॥65॥
विलोक ऐसी बलवीर-वीरता।
अशंकता साहस कार्य्य-दक्षता।
समस्त-आभीर विमुग्ध हो गये।
चमत्कृता हो जन-मण्डली उठी॥66॥
वनस्थली कण्टक रूप अन्य भी।
कई बड़े-क्रूर बलिष्ठ-जन्तु थे।
हटा उन्हें भी जिन कौशलादि से।
किया उन्होंने उसको अकण्टका॥67॥
बड़ा-बली-बालिश व्योम नाम का।
वनस्थली में पशु-पाल एक था।
अपार होता उसको विनोद था।
बना महा-पीड़ित प्राणि-पुंज को॥68॥
प्रवंचना से उसको प्रवंचिता।
विशेष होती ब्रज की वसुंधरा।
अनेक-उत्पात पवित्र-भूमि में।
सदा मचाता यह दुष्ट-व्यक्ति था॥69॥
कभी चुराता वृष-वत्स-धेनू था।
कभी उन्हें था जल-बीच बोरता।
प्रहार-द्वारा गुरु-यष्टि के कभी।
उन्हें बनाता वह अंग-हीन था॥70॥
दुरात्मता थी उसकी भयंकरी।
न खेद होता उसको कदापि था।
निरीह गो-वत्स-समूह को जला।
वृथा लगा पावक कुंज-पुंज में॥71॥
अबोध-सीधे बहु-गोप-बाल को।
अनेक देता वन-मध्य कष्ट था।
कभी-कभी था वह डालता उन्हें।
डरावनी मेरु-गुहा समूह में॥72॥
विदार देता शिर था प्रहार से।
कँपा कलेजा दृग फोड़ डालता।
कभी दिखा दानव सी दुरन्तता।
निकाल लेता बहु-मूल्य-प्राण था॥73॥
प्रयत्न नाना ब्रज-देव ने किये।
सुधार चेष्टा हित-दृष्टि साथ की।
परन्तु छूटी उसकी न दुष्टता।
न दूर कोई कु-प्रवृत्ति हो सकी॥74॥
विशुध्द होती, सु-प्रयत्न से नहीं।
प्रभूत-शिक्षा उपदेश आदि से।
प्रभाव-द्वारा बहु-पूर्व पाप के।
मनुष्य-आत्मा स-विशेष दूषिता॥75॥
निपीड़िता देख स्व-जन्मभूमि को।
अतीव उत्पीड़न से खलेन्द्र के।
समीप आता लख एकदा उसे।
स-क्रोध बोले बलभद्र-बन्धु यों॥76॥
सुधार-चेष्टा बहु-व्यर्थ हो गई।
न त्याग तूने कु-प्रवृत्ति को किया।
अत: यही है अब युक्ति उत्तम।
तुझे वधूँ मैं भव-श्रेय-दृष्टि से॥77॥
अवश्य हिंसा अति-निंद्य-कर्म है।
तथापि कर्तव्य-प्रधान है यही।
न सद्म हो पूरित सर्प आदि से।
वसुंधरा में पनपें न पातकी॥78॥
मनुष्य क्या एक पिपीलिका कभी।
न वध्य है जो न अश्रेय हेतु हो।
न पाप है किंच पुनीत-कार्य्य है।
पिशाच-कर्म्मी-नर की वध-क्रिया॥79॥
समाज-उत्पीड़क धर्म्म-विप्लवी।
स्व-जाति का शत्रु दुरन्त पातकी।
मनुष्य-द्रोही भव-प्राणि-पुंज का।
न है क्षमा-योग्य वरंच वध्य है॥80॥
क्षमा नहीं है खल के लिए भली।
समाज-उत्सादक दण्ड योग्य है।
कु-कर्म-कारी नर का उबारना।
सु-कर्मियों को करता विपन्न है॥81॥
अत: अरे पामर सावधान हो।
समीप तेरे अब काल आ गया।
न पा सकेगा खल आज त्राण तू।
सम्हाल तेरा वध वांछनीय है॥82॥
स-दर्प बातें सुन श्याम-मुर्ति की
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी।
उठा स्वकीया-गुरु-दीर्घ यष्टि को।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को॥83॥
अपूर्व-आस्फालन साथ श्याम ने।
अतीव-लाँबी वह यष्टि छीन ली।
पुन: उसी के प्रबल-प्रहार से।
निपात उत्पात-निकेत का किया॥84॥
गुणावली है गरिमा विभूषिता।
गरीयसी गौरव-मुर्ति-कीर्ति है।
उसे सदा संयत-भाव साथ गा।
अतीव होती चित-बीच शान्ति है॥85॥
वनस्थली में पुर मध्य ग्राम में।
अनेक ऐसे थल हैं सुहावने।
अपूर्व-लीला व्रत-देव ने जहाँ।
स-मोद की है मन-मुग्धकारिणी॥86॥
उन्हीं थलों को जनता शनै: शनै:।
बना रही है ब्रज-सिध्द पीठ सा।
उन्हीं थलों की रज श्याम-मुर्ति के।
वियोग में हैं बहु-बोध-दायिनी॥87॥
अपार होगा उपकार लाडिले।
यहाँ पधारें यक बार और जो।
प्रफुल्ल होगी ब्रज-गोप-मण्डली।
विलोक ऑंखों वदनारविन्द को॥88॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

श्रीदामा जो अति-प्रिय सखा श्यामली मुर्ति का था।
मेधावी जो सकल-ब्रज के बालकों में बड़ा था।
पूरा ज्योंही कथन उसका हो गया मुग्ध सा हो।
बोला त्योंही ‘मधुर-स्वर से दूसरा एक ग्वाला॥89॥

मालिनी छन्द

विपुल-ललित-लीला-धाम आमोद-प्याले।
सकल-कलित-क्रीड़ा कौशलों में निराले।
अनुपम-वनमाला को गले बीच डाले।
कब उमग मिलेंगे लोक-लावण्य-वाले॥90॥
कब कुसुमित-कुंजों में बजेगी बता दो।
वह मधु-मय-प्यारी-बाँसुरी लाडिले की।
कब कल-यमुना के कूल वृन्दाटवी में।
चित-पुलकितकारी चारु आलाप होगा॥91॥
कब प्रिय विहरेंगे आ पुन: काननों में।
कब वह फिर खेलेंगे चुने-खेल-नाना।
विविध-रस-निमग्ना भाव सौंदर्य्य-सिक्ता।
कब वर-मुख-मुद्रा लोचनों में लसेगी॥92॥
यदि ब्रज-धन छोटा खेल भी खेलते थे।
क्षण भर न गँवाते चित्त-एकाग्रता थे।
बहु चकित सदा थीं बालकों को बनाती।
अनुपम-मृदुता में छिप्रता की कलायें॥93॥
चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं।
वर सब-विषयों में जो उन्हें हैं बनाती।
अति-कठिन-कला में केलि-क्रीड़ादि में भी।
वह मुकुट सबों के थे मनोनीत होते॥94॥
सबल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिले को।
निज छल बल-द्वारा था नहीं जीत पाता।
बहु अवसर ऐसे ऑंख से हैं विलोके।
जब कुँवर अकेले जीतते थे शतों को॥95॥
तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा।
वह निज-सुहृदों से थे स्वयं हार खाते।
वह कतिपय जीते-खेल को थे जिताते।
सफलित करने को बालकों की उमंगें॥96॥
वह अतिशय-भूखा देख के बालकों को।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी-शीघ्रता से।
निज-कमल-करों से तोड़ मीठे-फलों को।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हें यत्न-द्वारा॥97॥
सरस-फल अनूठे-व्यंजनों को यशोदा।
प्रति-दिन वन में थीं भेजती सेवकों से।
कह-कह मृदु-बातें प्यार से पास बैठे।
ब्रज-रमण खिलाते थे उन्हें गोपजों को॥98॥
नव किशलय किम्वा पीन-प्यारे-दलों से।
वह ललित-खिलौने थे अनेकों बनाते।
वितरण कर पीछे भूरि-सम्मान द्वारा।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को॥99॥
अभिनव-कलिका से पुष्प से पंकजों से।
रच अनुपम-माला भव्य-आभूषणों को।
वह निज-कर से थे बालकों को पिन्हाते।
बहु-सुखित बनाते यों सखा-वृन्द को थे॥100॥
वह विविध-कथायें देवता-दानवों की।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से।
वह हँस-हँस बातें थे अनूठी सुनाते।
सुखकर-तरु-छाया में समासीन हो के॥101॥
ब्रज-धन जब क्रीड़ा-काल में मत्त होते।
तब अभि मुख होती मुर्ति तल्लीनता की।
बहु थल लगती थीं बोलने कोकिलायें।
यदि वह पिक का सा कुंज में कूकते थे॥102॥
यदि वह पपीहा की शारिका या शुकी की।
श्रुति-सुखकर-बोली प्यार से बोलते थे।
कलरव करते तो भूरि-जातीय-पक्षी।
ढिग-तरु पर आ के मत्त हो बैठते थे॥103॥
यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता।
यदि कलित कलापी-तुल्य वे नाचते थे।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनों को॥104॥
यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी।
मृग-गण समता की तो न थे ताब लाते।
यदि वह वन में थे गर्जते केशरी सा।
थर-थर कँपता तो मत्त-मातङ्ग भी था॥105॥
नवल-फल-दलों औ पुष्प-संभार-द्वारा।
विरचित करके वे राजसी-वस्तुओं को।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो।
वह छवि बन आती थी विलोके दृगों से॥106॥
यह अवगत होता है वहाँ-बन्धु मेरे।
कल कनक बनाये दिव्य-आभूषणों को।
स-मुकुट मन-हारी सर्वदा पैन्हते हैं।
सु-जटित जिनमें हैं रत्न आलोकशाली॥107॥
शिर पर उनके है राजता छत्र-न्यारा।
सु-चमर ढुलते हैं, पाट हैं रत्न शोभी।
परिकर-शतश: हैं वस्त्र औ वेशवाले।
विरचित नभ चुम्बी सद्म हैं स्वर्ण द्वारा॥108॥
इन सब विभवों की न्यूनता थी न याँ भी।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे।
यह हरित-तृणों से शोभिता भूमि रम्या।
प्रिय-तर उनको थी स्वर्ण-पर्यङ्क से भी॥109॥
यह अनुपम-नीला-व्योम प्यारा उन्हें था।
अतुलित छविवाले चारु-चन्द्रातपों से।
यह कलित निकुंजें थीं उन्हें भूरि प्यारी।
मयहृदय-विमोही-दिव्य-प्रासाद से भी॥110॥
समधिक मणि-मोती आदि से चाहते थे।
विकसित-कुसुमों को मोहिनी मूर्ति मेरे।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण-आभूषणों से।
वह सुललित पुष्पों के अलंकार ही को॥111॥
अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का।
अहह वह नहीं तो क्यों सभी भूल जाते।
यह नित-नव कुंजें भूमि शोभा-निधाना।
प्रति-दिवस उन्हें तो क्यों नहीं याद आतीं॥112॥
सुन कर वह प्राय: गोप के बालकों से।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट-गाथा।
वन तज उन गेहों मध्य थे शीघ्र जाते।
नियमन करने को सर्ग-संभूत-बाधा॥113॥
यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते।
रुज-ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते।
यदि कलह वितण्डावाद की वृध्दि होती।
वह मृदु-वचनों से तो उसे भी भगाते॥114॥
‘बहु नयन, दुखी हो वारि-धारा बहा के।’
पथ प्रियवर का ही आज भी देखते हैं।
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होंने नहीं ली।
वह प्रथित दया का धाम भूला उन्हें क्यों॥115॥
पद-रज ब्रज-भू है चाहती उत्सुका हो।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपों का।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनों की।
सरसिज मुख-शोभा देखने की पिपासा॥116॥
प्रतपित-रवि तीखी-रश्मियों से शिखी हो।
प्रतिपल चित से ज्यों मेघ को चाहता है।
ब्रज-जन बहु तापों से महा तप्त हो के।
बन घन-तन-स्नेही हैं समुत्कण्ठ त्योंही॥117॥
नव-जल-धर-धारा ज्यों समुत्सन्न होते।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती।
हितकर दुख-दग्धों का उसी भाँति होगा।
नव-जलद शरीरी श्याम का सद्म आना॥118॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कथन यों करते ब्रज की व्यथा।
गगन-मण्डल लोहित हो गया।
इस लिए बुध-ऊद्धव को लिये।
सकल ग्वाल गये निज-गेह को॥119॥

14. चतुर्दश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।
छोटे-छोटे सु-द्रुम उसके मुग्ध-कारी बड़े थे।
ऐसे न्यारे प्रति-विटप के अंक में शोभिता थी।
लीला-शीला-ललित लतिका पुष्पभारावनम्रा॥1॥
बैठे ऊधो मुदित-चित से एकदा थे इसी में।
लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।
धीरे-धीरे तपन-किरणें फैलती थीं दिशा में।
न्यारी-क्रीड़ा उमंग करती वायु थी पल्लवों से॥2॥
बालाओं का यक दल इसी काल आता दिखाया।
आशाओं को ध्वनित करके मंजु-मंजीरकों से।
देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग में थीं।
भोली-भाली कपितय बड़ी-सुन्दरी-बालिकायें॥3॥
नीला-प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा।
बोली हो के विरस-वदना अन्य-गोपांगना से।
कालिन्दी का पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।
लीला-मग्ना जलद-तन की मुर्ति है याद आती॥4॥
श्यामा-बातें श्रवण करके बालिका एक रोई।
रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।
ज्यों-ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारि-धारा।
त्यों-त्यों ऑंसू अधिकतर थे लोचनों मध्य आते॥5॥
ऐसा रोता निरख उसको एक मर्म्मज्ञ बोली।
यों रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी।
कैसे तेरे युगल-दृग ए ज्योति-शाली रहेंगे।
तू देखेगी वह छविमयी-श्यामली-मुर्ति कैसे॥6॥
जो यों ही तू बहु-व्यथित हो दग्ध होती रहेगी।
तेरे सूखे-कृशित-तन में प्राण कैसे रहेंगे।
जी से प्यारा-मुदित-मुखड़ा जो न तू देख लेगी।
तो वे होंगे सुखित न कभी स्वर्ग में भी सिधा के॥7॥
मर्म्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली।
तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता-बालिका को।
जो बालायें विरह-दव में दग्धिता हो रही हैं।
आँखों का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है॥8॥
वाष्प-द्वारा बहु-विधा-दुखों वर्ध्दिता-वेदना के।
बालाओं का हृदय-नभ जो है समाच्छन्न होता।
तो निर्ध्दूता तनिक उसकी म्लानता है न होती।
पर्जन्यों सा न यदि बरसें वारि हो, वे दृगों से॥9॥
प्यारी-बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी।
न्यारा-प्यारा-वदन जिसने था कभी देख पाया।
वे होती हैं बहु-व्यथित जो श्याम हैं याद आते।
क्यों रोवेगी न वह जिसके जीवनाधार वे हैं॥10॥
प्यारे-भ्राता-सुत-स्वजन सा श्याम को चाहती हैं।
जो बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो।
प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है।
हा! क्यों बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी॥11॥
ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई।
त्यों सारी ही करुण-स्वर से रो उठीं कम्पिता हो।
ऐसा न्यारा-विरह उनका देख उन्माद-कारी।
धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये॥12॥
ज्यों पाते ही सम-तल धार वारि-उन्मुक्त-धारा।
पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विता को।
त्योंही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी।
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का॥13॥
प्यारी-बातें स-विधा कह के मान-सम्मान-सिक्ता।
ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया।
पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये।
क्या वे भूले कमल-पग की प्रेमिका गोपियों को॥14॥
ऊधो बोले समय-गति है गूढ़-अज्ञात बेंड़ी।
क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता।
आवेंगे या न अब ब्रज में आ सकेंगे बिहारी।
हा! मीमांसा इस दुख-पगे प्रश्न की क्यों करूँ मैं॥15॥
प्यारा वृन्दा-विपिन उनको आज भी पूर्व-सा है।
वे भूले हैं न प्रिय-जननी औ न प्यारे-पिता को।
वैसी ही हैं सुरति करते श्याम गोपांगना की।
वैसी ही है प्रणय-प्रतिमा-बालिका याद आती॥16॥
प्यारी-बातें कथन करके बालिका-बालकों की।
माता की और प्रिय-जनक की गोप-गोपांगना की।
मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते।
उच्छ्वासों से व्यथित-उर के नेत्र में वारि लाते॥17॥
सायं-प्रात: प्रति-पल-घटी है, उन्हें याद आती।
सोते में भी ब्रज-अवनि का स्वप्न वे देखते हैं।
कुंजों में ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है।
देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी-मुर्ति का है॥18॥
हो के भी वे ब्रज-अवनि के चित्त से यों सनेही।
क्यों आते हैं न प्रति-जन का प्रश्न होता यही है।
कोई यों है कथन करता तीन ही कोस आना।
क्यों है मेरे कुँवर-वर को कोटिश: कोस होता॥19॥
दोनों ऑंखें सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हों।
जो वारों को कुँवर-पथ को देखते हैं बिताते।
वे हो-हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी।
तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य्य ही है॥20॥
ऐ संतप्ता-विरह-विधुरा गोपियों किन्तु कोई।
थोड़ा सा भी कुँवर-वर के मर्म का है न ज्ञाता।
वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियों के हितैषी।
प्राणों से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा॥21॥
स्वार्थों को औ विपुल-सुख को तुच्छ देते बना हैं।
जो आ जाता जगत-हित है सामने लोचनों के।
हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त।
लिप्साओं से भरित उर की सैकड़ों लालसायें॥22॥
ऐसे-ऐसे जगत-हित के कार्य्य हैं चक्षु आगे।
हैं सारे ही विषम जिनके सामने श्याम भूले।
सच्चे जी से परम-व्रत के व्रती हो चुके हैं।
निष्कामी से अपर-कृति के कूल-वर्ती अत: हैं॥23॥
मीमांसा हैं प्रथम करते स्वीय कर्तव्य ही की।
पीछे वे हैं निरत उसमें धीरता साथ होते।
हो के वांछा-विवश अथवा लिप्त हो वासना से।
प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य-कर्तव्य से हैं॥24॥
घूमूँ जा के कुसुम-वन में वायु-आनन्द मैं लूँ।
देखूँ प्यारी सुमन-लतिका चित्त यों चाहता है।
रोता कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे।
तो जावेंगे न उपवन में शान्ति देंगे उसे वे॥25॥
जो सेवा हों कुँवर करते स्वीय-माता-पिता की।
या वे होवें स्व-गुरुजन को बैठ सम्मान देते।
ऐसे वेले यदि सुन पड़े आर्त-वाणी उन्हें तो।
वे देवेंगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ों की॥26॥
जो वे बैठे सदन करते कार्य्य होवें अनेकों।
औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के।
गेहों को है दहन करती वधिता-ज्वाल-माला।
तो दौड़ेंगे तुरत तज वे कार्य्य प्यारे-सहस्रों॥27॥
कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व-जातीय-प्राणी।
दुष्टात्मा हो, मनुज-कुल का शत्रु हो, पातकी हो।
तो वे सारी हृदय-तल की भूल के वेदनायें।
शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे॥28॥
हाथों में जो प्रिय-कुँवर के न्यस्त हो कार्य्य कोई।
पीड़ाकारी सकल-कुल का जाति का बांधवों का।
तो हो के भी दुखित उसको वे सुखी हो करेंगे।
जो देखेंगे निहित उसमें लोक का लाभ कोई॥29॥
अच्छे-अच्छे बहु-फलद औ सर्व-लोकोपकारी।
कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनों के।
पूरे-पूरे निरत उनमें सर्वदा हैं बिहारी।
जी से प्यारी ब्रज-अवनि में हैं इसी से न आते॥30॥
हो जावेंगी बहु-दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा।
जो देवेंगी सु-फल मति के साथ सम्पन्न हो के।
ऐसी नाना-परम-जटिला राज की नीतियाँ भी।
बाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति में हो रही हैं॥31॥
तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण-प्यारे।
आवेंगे ही न अब ब्रज में औ उसे भूल देंगे।
जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं।
निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे॥32॥
हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है।
होते-होते जगत कितने काम ही हैं न होते।
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये।
तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियो! खो न देना॥33॥
जो संतप्ता-सलिल-नयना-बालिकायें कई हैं।
ऐ प्राचीन-तरल-हृदया-गोपियों स्नेह-द्वारा।
शिक्षा देना समुचित इन्हें कार्य्य होगा तुमारा।
होने पावें न वह जिससे मोह-माया-निमग्ना॥34॥
जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक-सेवा किसे हैं।
जो जानेगा न वह, भव के श्रेय का मर्म क्या है।
जो सोचेगा न गुरु-गरिमा लोक के प्रेमिकों की।
कर्तव्यों में कुँवर-वर को तो बड़ा-क्लेश होगा॥35॥
प्राय: होता हृदय-तल है एक ही मानवों का।
जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।
जो पीड़ायें-प्रबल बन के एक को हैं सताती।
तो होने से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है॥36॥
जो ऐसी ही रुदन करती बलिकायें रहेंगी।
पीड़ायें भी विविध उनको जो इसी भाँति होंगी।
यों ही रो-रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।
तो आवेगा ब्रज-अधिप के चित्त को चैन कैसे॥37॥
जो होवेगा न चित उनका शान्त स्वच्छन्दचारी।
तो वे कैसे जगत-हित को चारुता से करेंगे।
सत्काय्र्यों में परम-प्रिय के अल्प भी विघ्न-बाधा।
कैसे होगी उचित, चित में गोपियो, सोच देखो॥38॥
धीरे-धीरे भ्रमित-मन को योग-द्वारा सम्हालो।
स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो।
भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मुर्तियों को।
यों होवेगा दुख शमन औ शान्ति न्यारी मिलेगी॥39॥
ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी।
खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व-गोपी-जनों ने।
पीछे बोलीं अति-चकित हो म्लान हो उन्मना हो।
कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझें॥40॥
हो जाते हैं भ्रमित जिसमें भूरि-ज्ञानी मनीषी।
कैसे होगा सुगम-पथ सो मंद-धी नारियों को।
छोटे-छोटे सरित-सर में डूबती जो तरी है।
सो भू-व्यापी सलिल-निधि के मध्य कैसे तिरेगी॥41॥
वे त्यागेंगी सकल-सुख औ स्वार्थ-सारा तजेंगी।
औ रक्खेंगी निज-हृदय में वासना भी न कोई।
ज्ञानी-ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो।
कैसे त्यागें हृदय-धन को प्रेमिका-गोपिकायें॥42॥
भोगों को औ भुवि-विभव को लोक की लालसा को।
माता-भ्राता स्वप्रिय-जन को बन्धु को बांधवों को।
वे भूलेंगी स्व-तन-मन को स्वर्ग की सम्पदा को।
हा! भूलेंगी जलद-तन की श्यामली मुर्ति कैसे॥43॥
जो प्यारा है अखिल-ब्रज के प्राणियों का बड़ा ही।
रोमों की भी अवलि जिसके रंग ही में रँगी है।
कोई देही बन अवनि में भूल कैसे उसे दे।
जो प्राणों में हृदय-तल में लोचनों में रमा हो॥44॥
भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो।
देखी जा के सु-छवि जिसकी लोचनों में रमी हो।
कैसे भूले कुँवर जिनमें चित्त ही जा बसा है।
प्यारी-शोभा निरख जिसकी आप ऑंखें रमी हैं॥45॥
कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दें गोपिकायें।
प्यारा-न्यारा निज-हृदय तो वे उसे काढ़ देंगी।
हो पावेगा न यह उनसे देह में प्राण होते।
उद्योगी हो हृदय-तल से श्याम को काढ़ देवें॥46॥
मीठे-मीठे वचन जिसके नित्य ही मोहते थे।
हा! कानों से श्रवण करती हूँ उसी की कहानी।
भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती।
जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनों में सदा थे॥47॥
मैं रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा।
या ऑंखों से पग-युगल की माधुरी देखती थी।
या है ऐसा कु-दिन इतना हो गया भाग्य खोटा।
मैं प्यारे के चरण-तल की धूलि भी हूँ न पाती॥48॥
ऐसी कुंजें ब्रज-अवनि में हैं अनेकों जहाँ जा।
आ जाती है दृग-युगल के सामने मूर्ति-न्यारी।
प्यारी-लीला उमग जसुदा-लाल ने है जहाँ की।
ऐसी ठौरों ललक दृग हैं आज भी लग्न होते॥49॥
फूली डालें सु-कुसुममयी नीप की देख ऑंखों।
आ जाती है हृदय-धन की मोहनी मुर्ति आगे।
कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा।
हो जाती है उदय उर में माधुरी अम्बुदों सी॥50॥
सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हों कुंज-पुंजें।
फूटें ऑंखें, हृदय-तल भी ध्वंस हो गोपियों का।
सारा वृन्दा-विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे।
तो भूलेंगे प्रथित-गुण के पुण्य-पाथोधि माधो॥51॥
आसीना जो मलिन-वदना बालिकायें कई हैं।
ऐसी ही हैं ब्रज-अवनि में बालिकायें अनेकों।
जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो।
रोना-धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना॥52॥
पूजायें त्यों विविध-व्रत औ सैकड़ों ही क्रियायें।
सालों की हैं परम-श्रम से भक्ति-द्वारा उन्होंने।
ब्याही जाऊँ कुँवर-वर से एक वांछा यही थी।
सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यों न होंगी॥53॥
जो वे जी सो कमल-दृग की प्रेमिका हो चुकी हैं।
भोला-भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी हैं।
जो ऑंखों में सु-छवि बसती मोहिनी-मुर्ति की है।
प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यों वे धरा-मध्य होंगी॥54॥
नीला-प्यारा-जलद जिनके लोचनों में रमा है।
कैसे होंगी अनुरत कभी धूम के पुंज में वे।
जो आसक्ता स्व-प्रियवर में वस्तुत: हो चुकी हैं।
वे देवेंगी हृदय-तल में अन्य को स्थान कैसे॥55॥
सोचो ऊधो यदि रह गईं बालिकायें कुमारी।
कैसे होगी ब्रज-अवनि के प्राणियों को व्यथाएँ।
वे होवेंगी दुखित कितनी और कैसे विपन्ना।
हो जावेंगे दिवस उनके कंटकाकीर्ण कैसे!॥56॥
सर्वांगों में लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।
जो है घोरा परम-प्रबला औ महोछ्वास-शीला।
तोड़े देती प्रबल-तरि जो ज्ञान औ बुध्दि की है।
घातों से है दलित जिसके धर्य का शैल होता॥57॥
ऐसे ओखे-उदक-निधि में हैं पड़ी बालिकायें।
झोंके से है पवन बहती काल की वामता की।
आवर्तों में तरि-पतित है नौ-धानी है न कोई।
हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे हैं॥58॥
शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।
वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।
हा! सो शोभा-सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।
सारे प्यारे कुसुम-कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते॥59॥
जो मर्य्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।
फूँके देती परम-तप से प्राप्त सं-सिध्द को है।
ये बालाएँ परम-सरला सर्वथा अप्रगल्भा।
कैसे ऐसी मदन-दव की तीव्र-ज्वाला सहेंगी॥60॥
चक्री होते चकित जिससे काँपते हैं पिनाकी।
जो वज्री के हृदय-तल को क्षुब्ध देता बना है।
जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियों को।
कैसे ऐसे रति-रमण के बाण से वे बचेंगी॥61॥
जो हो के भी परम-मृदु है वज्र का काम देता।
जो हो के भी कुसुम-करता शैल की सी क्रिया है।
जो हो के भी ‘मधुर बनता है महा-दग्ध-कारी।
कैसे ऐसे मदन-शर से रक्षिता वे रहेंगी॥62॥
प्रत्यंगों में प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।
जो हो जाता अति विषम है काल-कूटादिकों सा।
मद्यों से भी अधिक जिसमें शक्ति उन्मादिनी है।
कैसे ऐसे मदन-मद से वे न उन्मत्त होंगी॥63॥
कैसे कोई अहह उनको देख ऑंखों सकेगा।
वे होवेंगी विकटतम औ घोर रोमांच-कारी।
पीड़ायें जो ‘मदन’ हिम के पात के तुल्य देगा।
स्नेहोत्फुल्ला-विकच-वदना बालिकांभोजिनी को॥64॥
मेरी बातें श्रवण करके आप जो पूछ बैठें।
कैसे प्यारे-कुँवर अकेले ब्याहते सैकड़ों को।
तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च-ज्ञानी।
क्या ज्ञाता है न बुध-विदिता प्रेम की अंधता का॥65॥
आसक्ता हैं विमल-विधु की तारिकायें अनेकों।
हैं लाखों ही कमल-कलियाँ भानु की प्रेमिकाएँ।
जो बालाएँ विपुल हरि में रक्त हैं चित्र क्या है?
प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है॥66॥
जो धाता ने अवनि-तल में रूप की सृष्टि की है।
तो क्यों ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।
माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।
क्यों मोहेंगी न बहु-सुमना-सुन्दरी-बालिकाएँ॥67॥
जो मोहेंगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।
वे होवेंगी न यदि सफला क्यों न उद्भ्रान्त होंगी।
ऊधो पूरी जटिल इनकी हो गई है समस्या।
यों तो सारी ब्रज-अवनि ही है महा शोक-मग्ना॥68॥
जो वे आते न ब्रज बरसों, टूट जाती न आशा।
चोटें खाता न उर उतना जी न यों ऊब जाता।
जो वे जा के न मधुपुर में वृष्णि-वंशी कहाते।
प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के॥69॥
ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले बड़े हैं।
ऐसा न्यारा-रतन जिनको आज यों हाथ आया।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के हैं बड़े ही अभागे।
जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं॥70॥
भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग की रीति जानें।
कैसे बूझें अ-बुध अबला ज्ञान-विज्ञान बातें।
देते क्यों हो कथन करके बात ऐसी व्यथायें।
देखूँ प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे बता दो॥71॥
न्यारी-क्रीड़ा ब्रज-अवनि में आ पुन: वे करेंगे।
आँखें होंगी सुखित फिर भी गोप-गोपांगना की।
वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज में काननों में।
आवेंगे वे दिवस फिर भी जो अनूठे बड़े हैं॥72॥
श्रेय:कारी सकल ब्रज की है यही एक आशा।
थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है।
ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा।
क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी॥73॥
देखो सोचो दुखमय-दशा श्याम-माता-पिता की।
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको।
गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो।
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो॥74॥

वसन्ततिलका छन्द

बोली स-शोक अपरा यक गोपिका यों।
ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ।
जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ।
लौटाल श्याम-घन को ब्रज-मध्य लाओ॥75॥
अत्यन्त-लोक-प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी।
जैसा तुम्हें चरित मैं अब हूँ सुनाती।
ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा।
लावण्य-धाम फिर दिव्य-कला दिखावें॥76॥
भू में रमी शरद की कमनीयता थी।
नीला अनन्त-नभ निर्मल हो गया था।
थी छा गई ककुभ में अमिता सिताभा।
उत्फुल्ल सी प्रकृति थी प्रतिभात होती॥77॥
होता सतोगुण प्रसार दिगन्त में है।
है विश्व-मध्य सितता अभिवृध्दि पाती।
सारे-स-नेत्र जन को यह थे बताते।
कान्तार-काश, विकसे सित-पुष्प-द्वारा॥78॥
शोभा-निकेत अति-उज्ज्वल कान्तिशाली।
था वारि-बिन्दु जिसका नव मौक्तिकों सा।
स्वच्छोदका विपुल-मंजुल-वीचि-शीला।
थी मन्द-मन्द बहती सरितातिभव्या॥79॥
उच्छ्वास था न अब कूल विलीनकारी।
था वेग भी न अति-उत्कट कर्ण-भेदी।
आवर्त्त-जाल अब था न धरा-विलोपी।
धीरा, प्रशान्त, विमलाम्बुवती, नदी थी॥80॥
था मेघ शून्य नभ उज्ज्वल-कान्तिवाला।
मालिन्य-हीन मुदिता नव-दिग्वधू थी।
थी भव्य-भूमि गत-कर्दम स्वच्छ रम्या।
सर्वत्र धौत जल निर्मलता लसी थी॥81॥
कान्तार में सरित-तीर सुगह्नरों में।
थे मंद-मंद बहते जल स्वच्छ-सोते।
होती अजस्र उनमें ध्वनि थी अनूठी।
वे थे कृती शरद की कल-कीर्ति गाते॥82॥
नाना नवागत-विहंग-बरूथ-द्वारा।
वापी तड़ाग सर शोभित हो रहे थे।
फूले सरोज मिष हर्षित लोचनों से।
वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे॥83॥
नाना-सरोवर खिले-नव-पंकजों को।
ले अंक में विलसते मन-मोहते थे।
मानो पसार अपने शतश: करों को।
वे माँगते शरद से सु-विभूतियाँ थे॥84॥
प्यारे सु-चित्रित सितासित रंगवाले।
थे दीखते चपल-खंजन प्रान्तरों में।
बैठी मनोरम सरों पर सोहती थी।
आई स-मोद ब्रज-मध्य मराल-माला॥85॥
प्राय: निरम्बु कर पावस-नीरदों को।
पानी सुखा प्रचुर-प्रान्तर औ पथों का।
न्यारे-असीम-नभ में मुदिता मही में।
व्यापी नवोदित-अगस्त नई-विभा थी॥86॥
था क्वार-मास निशि थी अति-रम्य-राका।
पूरी कला-सहित शोभित चन्द्रमा था।
ज्योतिर्मयी विमलभूत दिशा बना के।
सौंदर्य्य साथ लसती क्षिति में सिता थी॥87॥
शोभा-मयी शरद की ऋतु पा दिशा में।
निर्मेघ-व्योम-तल में सु-वसुंधरा में।
होती सु-संगति अतीव मनोहरा थी।
न्यारी कलाकर-कला नव स्वच्छता की॥88॥
प्यारी-प्रभा रजनि-रंजन की नगों को।
जो थी असंख्य नव-हीरक से लसाती।
तो वीचि में तपन की प्रिय-कन्यका के।
थी चारु-पूर्ण मणि मौक्तिक के मिलाती॥89॥
थे स्नात से सकल-पादप चन्द्रिका से।
प्रत्येक-पल्लव प्रभा-मय दीखता था।
फैली लता विकच-वेलि प्रफुल्ल-शाखा।
डूबी विचित्र-तर निर्मल-ज्योति में थी॥90॥
जो मेदिनी रजत-पत्र-मयी हुई थी।
किम्वा पयोधि-पय से यदि प्लाविता थी।
तो पत्र-पत्र पर पादप-वेलियों के।
पूरी हुई प्रथित-पारद-प्रक्रिया थी॥91॥
था मंद-मंद हँसता विधु व्योम-शोभी।
होती प्रवाहित धारातल में सुधा थी।
जो पा प्रवेश दृग में प्रिय अंशु-द्वारा।
थी मत्त-प्राय करती मन-मानवों का॥92॥
अत्युज्ज्वला पहन तारक-मुक्त-माला।
दिव्यांबरा बन अलौकिक-कौमुदी से।
शोभा-भरी परम-मुग्धकरी हुई थी।
राका कलाकर-मुखी रजनी-पुरंध्ररी॥93॥
पूरी समुज्ज्वल हुई सित-यामिनी थी।
होता प्रतीत रजनी-पति भानु सा था।
पीती कभी परम-मुग्ध बनी सुधा थी।
होती कभी चकित थी चतुरा-चकोरी॥94॥
ले पुष्प-सौरभ तथा पय-सीकरों को।
थी मन्द-मन्द बहती पवनाति प्यारी।
जो थी मनोरम अतीव-प्रफुल्ल-कारी।
हो सिक्त सुन्दर सुधाकर की सुधा से॥95॥
चन्द्रोज्ज्वला रजत-पत्र-वती मनोज्ञा।
शान्ता नितान्त-सरसा सु-मयूख सिक्ता।
शुभ्रांगिनी-सु-पवना सुजला सु-कूला।
सत्पुष्पसौरभवती वन-मेदिनी थी॥96॥
ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा में।
ऐसे मनोरम-अलंकृत-काल को पा।
वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।
आनन्द-कन्द ब्रज-गोप-गणाग्रणी की॥97॥
भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध-कारी।
आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त-व्यापी।
पीछे पड़ा श्रवण में बहु-भावकों के।
पीयूष के प्रमुद-वर्ध्दक-बिन्दुओं सा॥98॥
पूरी विमोहित हुईं यदि गोपिकायें।
तो गोप-वृन्द अति-मुग्ध हुए स्वरों से।
फैलीं विनोद-लहरें ब्रज-मेदिनी में।
आनन्द-अंकुर उगा उर में जनों के॥99॥
वंशी-निनाद सुन त्याग निकेतनों को।
दौड़ी अपार जनताति उमंगिता हो।
गोपी-समेत बहु गोप तथांगनायें।
आईं विहार-रुचि से वन-मेदिनी में॥100॥
उत्साहिता विलसिता बहु-मुग्ध-भूता।
आई विलोक जनता अनुराग-मग्ना।
की श्याम ने रुचिर-क्रीड़न की व्यवस्था।
कान्तार में पुलिन पै तपनांगजा के॥101॥
हो हो विभक्त बहुश: दल में सबों ने।
प्रारंभ की विपिन में कमनीय-क्रीड़ा।
बाजे बजा अति-मनोहर-कण्ठ से गा।
उन्मत्त-प्राय बन चित्त-प्रमत्त से॥102॥
मंजीर नूपुर मनोहर-किंकिणी की।
फैली मनोज्ञ-ध्वनि मंजुल वाद्य की सी।
छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई।
अत्यन्त कान्त कर से कमनीय-वीणा॥103॥
थापें मृदंग पर जो पड़ती सधी थीं।
वे थीं स-जीव स्वर-सप्तक को बनाती।
माधुर्य-सार बहु-कौशल से मिला के।
थीं नाद को श्रुति मनोहरता सिखाती॥104॥
मीठे-मनोरम-स्वरांकित वेणु नाना।
हो के निनादित विनोदित थे बनाते।
थी सर्व में अधिक-मंजुल-मुग्धकारी।
वंशी महा-‘मधुर केशव कौशली की॥105॥
हो-हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से।
कान्तार में मुरलिका जब गूँजती थी।
तो पत्र-पत्र पर था कल-नृत्य होता।
रागांगना-विधु-मुखी चपलांगिनी का॥106॥
भू-व्योम-व्यापित कलाधार की सुधा में।
न्यारी-सुधा मिलित हो मुरली-स्वरों की।
धारा अपूर्व रस की महि में बहा के।
सर्वत्र थी अति-अलौकिकता लसाती॥107॥
उत्फुल्ल थे विटप-वृन्द विशेष होते।
माधुर्य था विकच, पुष्प-समूह पाता।
होती विकाश-मय मंजुल बेलियाँ थीं।
लालित्य-धाम बनती नवला लता थीं॥108॥
क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली।
धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी।
थी नाचती उमगती अनुरक्त होती।
उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी॥109॥
पाई अपूर्व-स्थिरता मृदु-वायु ने थी।
मानो अचंचल विमोहित हो बनी थी।
वंशी मनोज्ञ-स्वर से बहु-मोदिता हो।
माधुर्य-साथ हँसती सित-चन्द्रिका थी॥110॥
सत्कण्ठ साथ नर-नारि-समूह-गाना।
उत्कण्ठ था न किसको महि में बनाता।
तानें उमंगित-करी कल-कण्ठ जाता।
तंत्री रहीं जन-उरस्थल की बजाती॥111॥
ले वायु कण्ठ-स्वर, वेणु-निनाद-न्यारा।
प्यारी मृदंग-ध्वनि, मंजुल बीन-मीड़ें।
सामोद घूम बहु-पान्थ खगों मृगों को।
थीं मत्तप्राय नर-किन्नर को बनाती॥112॥
हीरा समान बहु-स्वर्ण-विभूषणों में।
नाना विहंग-रव में पिक-काकली सी।
होती नहीं मिलित थीं अति थीं निराली।
नाना-सुवाद्य-स्वन में हरि-वेणु-तानें॥113॥
ज्यों-ज्यों हुई अधिकता कल-वादिता की।
ज्यों-ज्यों रही सरसता अभिवृध्दि पाती।
त्यों-त्यों कला विवशता सु-विमुग्धता की।
होती गई समुदिता उर में सबों के॥114॥
गोपी समेत अतएव समस्त-ग्वाले।
भूले स्व-गात-सुधि हो मुरली-रसार्द्र।
गाना रुका सकल-वाद्य रुके स-वीणा।
वंशी-विचित्र-स्वर केवल गूँजता था।115॥
होती प्रतीति उर में उस काल यों थी।
है मंत्र साथ मुरली अभिमंत्रिता सी।
उन्माद-मोहन-वशीकरणादिकों के।
हैं मंजु-धाम उसके ऋजु-रंध्र-सातों॥116॥
पुत्र-प्रिया-सहित मंजुल-राग गा-गा।
ला-ला स्वरूप उनका जन-नेत्र-आगे।
ले-ले अनेक उर-वेधक-चारु-तानें।
कीं श्याम ने परम-मुग्धकरी क्रियायें॥117॥
पीछे अचानक रुकीं वर-वेणु तानें।
चावों समेत सबकी सुधि लौट आई।
आनंद-नादमय कंठ-समूह-द्वारा।
हो-हो पड़ीं ध्वनित बार कई दिशाएँ॥118॥
माधो विलोक सबको मुद-मत्त बोले।
देखो छटा-विपिन की कल-कौमुदी में।
आना करो सफल कानन में गृहों से।
शोभामयी-प्रकृति की गरिमा विलोको॥119॥
बीसों विचित्र-दल केवल नारि का था।
यों ही अनेक दल केवल थे नरों के।
नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रों।
उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम-बातें॥120॥
सानन्द सर्व-दल कानन-मध्य फैला।
होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना।
देने लगा उर कभी नवला-लता को।
गाने लगा कलित-कीर्ति कभी कला की॥121॥
आभा-अलौकिक दिखा निज-वल्लभा को।
पीछे कला-कर-मुखी कहता उसे था।
तो भी तिरस्कृत हुए छवि-गर्विता से।
होता प्रफुल्ल तम था दल-भावुकों का॥122॥
जा कूल स्वच्छ-सर के नलिनी दलों में।
आबध्द देख दृग से अलि-दारु-वेधी।
उत्फुल्ल हो समझता अवधरता था।
उद्दाम-प्रेम-महिमा दल-प्रेमिकों का॥123॥
विच्छिन्न हो स्व-दल से बहु-गोपिकायें।
स्वच्छन्द थीं विचरती रुचिर-स्थलों में।
या बैठ चन्द्र-कर-धौत-धरातलों में।
वे थीं स-मोद करती मधु-सिक्त बातें॥124॥
कोई प्रफुल्ल-लतिका कर से हिला के।
वर्षा-प्रसून चय की कर मुग्ध होता।
कोई स-पल्लव स-पुष्प मनोज्ञ-शाखा।
था प्रेम साथ रखता कर में प्रिया के॥125॥
आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली में।
बातें बड़ी-सरस थे सबको सुनाते।
हो भाव-मत्त-स्वर में मृदुता मिला के।
या थे महा-मधु-मयी-मुरली बजाते॥126॥
आलोक-उज्ज्वल दिखा गिरि-शृंग-माला।
थे यों मुकुन्द कहते छवि-दर्शकों से।
देखो गिरीन्द्र-शिर पै महती-प्रभा का।
है चन्द्र-कान्त-मणि-मण्डित-क्रीट कैसा॥127॥
धारा-मयी अमल श्यामल-अर्कजा में।
प्राय: स-तारक विलोक मयंक-छाया।
थे सोचते खचित-रत्न असेत शाटी।
है पैन्ह ली प्रमुदिता वन-भू-वधू ने॥128॥
ज्योतिर्मयी-विकसिता-हसिता लता को।
लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के।
थे भाखते पति-रता-अवलम्बिता का।
कैसा प्रमोदमय जीवन है दिखाता॥129॥
आलोक से लसित पादप-वृन्द नीचे।
छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के।
थे यों मुकुन्द कहते मलिनान्तरों का।
है बाह्य रूप बहु-उज्ज्वल दृष्टि आता॥130॥
ऐसे मनोरम-प्रभामय-काल में भी।
म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को।
थे यों ब्रजेन्दु कहते कुल-कामिनी को।
स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता॥131॥
फूले हुए कुमुद देख सरोवरों में।
माधो सु-उक्ति यह थे सबको सुनाते।
उत्कर्ष देख निज अंक-पले-शशी का।
है वारि-राशि कुमुदों मिष हृष्ट होता॥132॥
फैली विलोक सब ओर मयंक-आभा।
आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी।
है कीर्ति, भू ककुभ में अति-कान्त छाई।
प्रत्येक धूलि-कणरंजन-कारिणी की॥133॥
फूलों दलों पर विराजित ओस-बूँदें।
जो श्याम को दमकती द्युति से दिखातीं।
तो वे समोद कहते वन-देवियों ने।
की है कला पर निछावर-मंजु-मुक्ता॥134॥
आपाद-मस्तक खिले कमनीय पौधो।
जो देखते मुदित होकर तो बताते।
होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से।
फूले नहीं नवल-पादप हैं समाते॥135॥
यों थे कलाकर दिखा कहते बिहारी।
है स्वर्ण-मेरु यह मंजुलता-धारा का।
है कल्प-पादप मनोहरताटवी का।
आनन्द-अंबुधि महामणि है मृगांक॥136॥
है ज्योति-आकर पयोनिधि है सुधा का।
शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का।
है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा।
सर्वस्व है परम-रूपवती कला का॥137॥
जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी।
वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी।
जैसी बही रससरी इस शर्वरी में।
वैसी कभी न ब्रज-भूतल में बही थी॥138॥
जैसी बजी ‘मधुर-बीन मृदंग-वंशी।
जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना।
जैसा बँधा इस महा-निशि में समाँ था।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥139॥
न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी।
वंशी-निनाद मन दे जिसने सुना है।
देखा विहार जिसने इस यामिनी में।
कैसे मुकुन्द उसके उर से कढ़ेंगे॥140॥
हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे।
देवे मयंक-कर को तज माधुरी भी।
तो भी नहीं ब्रज-धरा-जन के उरों से।
उत्फुल्ल-मुर्ति मनमोहन की कढ़ेगी॥141॥
धारा वही जल वही यमुना वही है।
है कुंज-वैभव वही वन-भू वही है।
हैं पुष्प-पल्लव वही ब्रज भी वही है।
ए हैं वही न घनश्याम बिना जनाते॥142॥
कोई दुखी-जन विलोक पसीजता है।
कोई विषाद-वश रो पड़ता दिखाया।
कोई प्रबोध कर, ‘है’ परितोष देता।
है किन्तु सत्य हित-कारक व्यक्ति कोई॥143॥
सच्चे हितू तुम बनो ब्रज की धारा के।
ऊधो यही विनय है मुझ सेविका की।
कोई दुखी न ब्रज के जन-तुल्य होगा।
ए हैं अनाथ-सम भूरि-कृपाधिकारी॥144॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

बातों ही में दिन गत हुआ किन्तु गोपी न ऊबीं।
वैसे ही थीं कथन करती वे व्यथायें स्वकीया।
पीछे आई पुलिन पर जो सैकड़ों गोपिकायें।
वे कष्टों को अधिकतर हो उत्सुका थीं सुनाती॥145॥

वंशस्थ छन्द

परन्तु संध्या अवलोक आगता।
मुकुन्द के बुध्दि-निधन बंधु ने।
समस्त गोपी-जन को प्रबोध दे।
समाप्त आलोचित-वृत्त को किया॥146॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त अतीव सराहना।
कर अलौकिक-पावन प्रेम की।
ब्रज-वधू-जन की कर सान्त्वना।
ब्रज-विभूषण-बंधु बिदा हुए॥147॥

15. पंचदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

छाई प्रात: सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवों में।
कुंजों में थे भ्रमण करते हो महा-मुग्ध ऊधो।
आभा-वाले अनुपम इसी काल में एक बाला।
भावों-द्वारा-भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई॥1॥
नाना बातें कथन करते देख पुष्पादिकों से।
उन्मत्त की तरह करते देख न्यारी-क्रियायें।
उत्कण्ठा के सहित उसका वे लगे भेद लेने।
कुंजों में या विटपचय की ओट में मौन बैठे॥2॥
थे बाला के दृग-युगल के सामने पुष्प नाना।
जो हो-हो के विकच, कर में भानु के सोहते थे।
शोभा पाता यक कुसुम था लालिमा पा निराली।
सो यों बोली निकट उसके जा बड़ी ही व्यथा से॥3॥
आहा कैसी तुझ पर लसी माधुरी है अनूठी।
तूने कैसी सरस-सुषमा आज है पुष्प पाई।
चूमूँ चाटूँ नयन भर मैं रूप तेरा विलोकूँ।
जी होता है हृदय-तल से मैं तुझे ले लगा लूँ॥4॥
क्या बातें हैं ‘मधुर इतना आज तू जो बना है।
क्या आते हैं ब्रज-अवनि में मेघ सी कान्तिवाले?।
या कुंजों में अटन करते देख पाया उन्हें है।
या आ के है स-मुद परसा हस्त-द्वारा उन्होंने॥5॥
तेरी प्यारी ‘मधुर-सरसा-लालिमा है बताती।
डूबा तेरा हृदय-तल है लाल के रंग ही में।
मैं होती हूँ विकल पर तू बोलता भी नहीं है।
कैसे तेरी सरस-रसना कुंठिता हो गई है॥6॥
हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ।
जो जिह्ना हूँ कथन-रहिता-पंखड़ी को बनाती।
तू क्यों होगा सदय दुख क्यों दूर मेरा करेगा।
तू काँटों से जनित यदि है काठ का जो सगा है॥7॥
आ के जूही-निकट फिर यों बालिका व्यग्र बोली।
मेरी बातें तनिक न सुनी पातकी-पाटलों ने।
पीड़ा नारी-हृदय-तल की नारि ही जानती है।
जूही तू है विकच-वदना शान्ति तू ही मुझे दे॥8॥
तेरी भीनी-महँक मुझको मोह लेती सदा थी।
क्यों है प्यारी न वह लगती ‘आज’ सच्ची बता दे।
क्या तेरी है महँक बदली या हुई और ही तू।
या तेरा भी सरबस गया साथ ऊधो-सखा के॥9॥
छोटी-छोटी रुचिर अपनी श्याम-पत्रावली में।
तू शोभा से विकच जब थी भूरिता साथ होती।
ताराओं से खचित नभ सी भव्य तो थी दिखाती।
हा! क्यों वैसी सरस-छवि से वंचिता आज तू है॥10॥
वैसी ही है सकल दल में श्यामता दृष्टि आती।
तू वैसी ही अधिकतर है वेलियों-मध्य फूली।
क्यों पाती हूँ न अब तुझमें चारुता पूर्व जैसी।
क्यों है तेरी यह गत हुई क्या न देगी बता तू॥11॥
मैं पाती हूँ अधिक तुझसे क्यों कई एक बातें।
क्यों देती है व्यथित कर क्यों वेदना है बढ़ाती।
क्यों होता है न दुख तुझको वंचना देख मेरी।
क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी॥12॥
हो-हो पूरी चकित सुनती वेदना है हमारी।
या तू खोले वदन हँसती है दशा देख मेरी।
मैं तो तेरा सुमुखि! इतना मर्म्म भी हूँ न पाती।
क्या आशा है अपर तुझसे है निराशामयी तू॥13॥
जो होता है सुखित, उसको अन्य की वेदनायें।
क्या होती हैं विदित वह जो भुक्त-भोगी न होवे।
तू फूली है हरित-दल में बैठ के सोहती है।
क्या जानेगी मलिन बनते पुष्प की यातनायें॥14॥
तू कोरी है न, कुछ तुझ में प्यार का रंग भी है।
क्या देखेगी न फिर मुझको प्यार की ऑंख से तू।
मैं पूछूँगी भगिनि! तुझसे आज दो-एक बातें।
तू क्या हो के सदय बतला ऐ चमेली न देगी॥15॥
थोड़ी लाली पुलकित-करी पंखड़ी-मध्य जो है।
क्या सो वृन्दा-विपिन-पति की प्रीति की व्यंजिका है।
जो है तो तू सरस-रसना खोल ले औ बता दे।
क्या तू भी है प्रिय-गमन से यों महा-शोक-मग्ना॥16॥
मेरा जी तो व्यथित बन के बावला हो रहा है।
व्यापीं सारे हृदय-तल में वेदनायें सहस्रों।
मैं पाती हूँ न कल दिन में, रात में ऊबती हूँ।
भींगा जाता सब वदन है वारि-द्वारा दृगों के॥17॥
क्या तू भी है रुदन करती यामिनी-मध्य यों ही।
जो पत्तों में पतित इतनी वारि की बूँदियाँ हैं।
पीड़ा द्वारा मथित-उर के प्रायश: काँपती है।
या तू होती मृदु-पवन से मन्द आन्दोलिता है॥18॥
तेरे पत्तों अति-रुचिर हैं कोमला तू बड़ी है।
तेरा पौधा कुसुम-कुल में है बड़ा ही अनूठा।
मेरी ऑंखें ललक पड़ती हैं तुझे देखने को।
हा! क्यों तो भी व्यथित चित की तू न आमोदिकाहै॥19॥
हा! बोली तू न कुछ मुझसे औ बताईं न बातें।
मेरा जी है कथन करता तू हुई तद्गता है।
मेरे प्यारे-कुँवर तुझको चित्त से चाहते थे।
तेरी होगी न फिर दयिते! आज ऐसी दशा क्यों॥20॥
जूही बोली न कुछ, जतला प्यार बोली चमेली।
मैंने देखा दृग-युगल से रंग भी पाटलों का।
तू बोलेगा सदय बन के ईदृशी है न आशा।
पूरा कोरा निठुरपन के मुर्ति ऐ पुष्प बेला॥21॥
मैं पूछूँगी तदपि तुझसे आज बातें स्वकीया।
तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।
क्यों होते हैं पुरुष कितने, प्यार से शून्य कोरे।
क्यों होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा॥22॥
आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मैं हूँ।
तेरी तीखी महँक मुझको कष्टिता है बनाती।
क्यों होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की।
क्यों तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू॥23॥
तेरी सारे सुमन-चय से श्वेतता उत्तम है।
अच्छा होता अधिक यदि तू सात्तिवकी वृत्ति पाता।
हा! होती है प्रकृति रुचि में अन्यथा कारिता भी।
तेरा एरे निठुर नतुवा साँवला रंग होता॥24॥
नाना पीड़ा निठुर-कर से नित्य मैं पा रही हूँ।
तेरे में भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है।
हो-हो खिन्ना परम तुझसे मैं अत: पूछती हूँ।
क्यों देते हैं निठुर जन यों दूसरों को व्यथायें॥25॥
हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है।
मैं कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ।
खोटे होते दिवस जब हैं भाग्य जो फूटता है।
कोई साथी अवनि-तल में है किसी का न होता॥26॥
जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के।
पीड़ा मेरे हृदय-तल की पाटलों ने न जानी।
तो तू हो के धवल-तन औ कुन्त-आकार-अंगी।
क्यों बोलेगा व्यथित चित की क्यों व्यथा जान लेगा॥27॥
चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली।
पाई जाती सुरभि तुझमें एक सत्पुष्प-सी है।
तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता।
क्या है ऐसी कसर तुझमें न्यूनता कौन सी है॥28॥
क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।
क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।
तू ने की है सुमुखि! अलि का कौन सा दोष ऐसा।
जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है॥29॥
सर्वांगों में सरस-रज औ धूलियों को लपेटे।
आ पुष्पों में स-विधि करती गर्भ-आधन जो है।
जो ज्ञाता है ‘मधुर-रस का मंजु जो गूँजता है।
ऐसे प्यारे रसिक-अलि से तू असम्मानिता है॥30॥
जो ऑंखों में ‘मधुर-छवि की मूर्ति सी ऑंकता है।
जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका-शशी है।
जो वंशी के सरस-स्वर से है सुधा सी बहाता।
ऐसे माधो-विरह-दव से मैं महादग्धिता हूँ॥31॥
मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनायें कई हैं।
आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।
जो रोती हैं दिवस-रजनी दोष जाने बिना ही।
ऐसी भी हैं अवनि-तल में जन्म लेती अनेकों॥32॥
मैंने देखा अवनि-तल में श्वेत ही रंग ऐसा।
जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।
तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखी।
क्या तू मेरे हृदय-तल के रंग में भी रँगेगा॥33॥
क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते हैं।
तू कैसा है रुचिर लगता पत्तियों-मध्य फूला।
तो भी कैसी व्यथित-कर है सो कली हाय! होती।
हो जाती है विधि-कुमति से म्लान फूले बिना जो॥34॥
मेरे जी की मृदुल-कलिका प्रेम के रंग राती।
म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली।
क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू।
या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा॥35॥
वे हैं मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को।
जो तू मेरे हृदय-तल में अल्प भी ला सकेगा।
हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा।
तो तू मेरे मलिन-मन की म्लानता पा सकेगा॥36॥
हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी।
जो तू होगा व्यथित न किसी कष्टिता की व्यथा से।
कैसे तेरी सुमन-अभिधा साथ ऐ कुन्द होगी।
जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितों से॥37॥
सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया।
चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है।
यों काँटों से भरित तुझको क्यों उसी ने किया है।
दी है धूली अलि अवलि की दृष्टि-विध्वंसिनी क्यों॥38॥
कालिन्दी सी कलित-सरिता दर्शनीया-निकुंजें।
प्यारा-वृन्दा-विपिन विटपी चारु न्यारी-लतायें।
शोभावाले-विहग जिसने हैं दिये हा! उसी ने।
कैसे माधो-रहित ब्रज की मेदनी को बनाया॥39॥
क्या थोड़ा भी सजनि!इसका मर्म्म तू पा सकी है।
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती।
कैसा होता जगत सुख का धाम और मुग्धकारी।
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती॥40॥
मैंने देखा अधिकतर है भृंग आ पास तेरे।
अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है।
आ जाती है दृग-युगल में अंधता धूलि-द्वारा।
काँटों से हैं उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते॥41॥
क्यों होती है अहह इतनी यातना प्रेमिकों की।
क्यों बाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता।
जो प्यारा औ रुचिर-विटपी जीवनोद्यान का है।
सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटकों से भरा है॥42॥
पूरा रागी हृदय-तल है पुष्प बन्धु तेरा।
मर्य्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है।
तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती।
पूरा-पूरा दिवस-पति के प्रेम में तू पगा है॥43॥
तेरे जैसे प्रणय-पथ के पान्थ उत्पन्न हो के।
प्रेमी की हैं प्रकट करते पक्वता मेदनी में।
मैं पाती हूँ परम-सुख जो देख लेती तुझे हूँ।
क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा॥44॥
मैं गोरी हूँ कुँवर-वर की कान्ति है मेघ की सी।
कैसे मेरा, महर-सुत का, भेद निर्मूल होगा।
जैसे तू है परम-प्रिय के रंग में पुष्प डूबा।
कैसे वैसे जलद-तन के रंग में मैं रँगूँगी॥45॥
पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियों का।
मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ।
मैं पाऊँगी हृदय-तल में उत्तम-शांति कैसे।
जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही में॥46॥
‘ऐसी, हो के कुसुम तुझमें प्रेम की पक्वता है।
मैं हो के भी मनुज-कुल की, न्यूनता से भरी हूँ।
कैसी लज्जा-परम-दुख की बात मेरे लिए है।
छा जावेगा न प्रियतम का रंग सर्वांग में जो॥47॥

वंशस्थ छन्द

खिला हुआ सुन्दर-वेलि-अंक में।
मुझे बता श्याम-घटा प्रसून तू।
तुझे मिली क्यों किस पूर्व-पुण्य से।
अतीव-प्यारी-कमनीय-श्यामता॥48॥
हरीतिमा वृन्त समीप की भली।
मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता।
लसी हुई श्यामलताग्रभाग में।
नितान्त है दृष्टि विनोद-वर्ध्दिनी॥49॥
परन्तु तेरा बहु-रंग देख के।
अतीव होती उर-मध्य है व्यथा।
अपूर्व होता भव में प्रसून तू।
निमग्न होता यदि श्याम-रंग में॥50॥
तथापि तू अल्प न भाग्यवान है।
चढ़ा हुआ है कुछ श्याम रंग तो।
अभागिनी है वह, श्यामता नहीं।
विराजती है जिसके शरीर में॥51॥
न स्वल्प होती तुझमें सुगंधि है।
तथापि सम्मानित सर्व-काल में।
तुझे रखेगा ब्रज-लोक दृष्टि में।
प्रसून तेरी यह श्यामलांगता॥52॥
निवास होगा जिस ओर सूर्य का।
उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू।
विलोकती है जिस चाव से उसे।
सदैव ऐ सूर्यमुखी सु-आनना॥53॥
अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय भी।
अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी।
विलोकती थी जब हो विनोदिता।
मुकुन्द के मंजु-मुखारविन्द को॥54॥
परन्तु मेरे अब वे न वार हैं।
न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता।
तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू।
विभावरी में बनती मलीन है॥55॥
निशान्त में तू प्रिय स्वीय कान्त से।
पुन: सदा है मिलती प्रफुल्ल हो।
परन्तु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये।
मदीय घोरा रजनी-वियोग की॥56॥
नृलोक में है वह भाग्य-शालिनी।
सुखी बने जो विपदावसान में।
अभागिनी है वह विश्व में बड़ी।
न अन्त होवे जिसकी विपत्ति का॥57॥

मालिनी छन्द

कुवलय-कुल में से तो अभी तू कढ़ा है।
बहु-विकसित प्यारे-पुष्प में भी रमा है।
अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की।
सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें॥58॥
यह समझ प्रसूनों पास में आज आई।
क्षिति-तल पर हैं ए मुर्ति-उत्फुल्लता की।
पर सुखित करेंगे ए मुझे आह! कैसे।
जब विविध दुखों में मग्न होते स्वयं हैं॥59॥
कतिपय-कुसुमों को म्लान होते विलोका।
कतिपय बहु कीटों के पड़े पेच में हैं।
मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।
कतिपय-सुमनों की पंखड़ी भू पड़ी है॥60॥
तदपि इन सबों में ऐंठ देखी बड़ी ही।
लख दुखित-जनों को ए नहीं म्लान होते।
चित व्यथित न होता है किसी की व्यथा से।
बहु भव-जनितों की वृत्ति ही ईदृशी है॥61॥
अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती।
मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।
अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है।
थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥
यदि तज करके तू गूँजना धर्य्य-द्वारा।
कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।
तब अवगत होगा बालिका एक भू में।
विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो॥63॥
अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।
निज दुख तुझसे मैं आज तो भी कहूँगी।
कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता।
क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मुर्ति पाती॥64॥
इस क्षिति-तल में क्या व्योम के अंक में भी।
प्रिय वपु छवि शोभी मेघ जो घूमते हैं।
इकटक पहरों मैं तो उन्हें देखती हूँ।
कह निज मुख द्वारा बात क्या-क्या न जानें॥65॥
मधुकर सुन तेरी श्यामता है न वैसी।
अति-अनुपम जैसी श्याम के गात की है।
पर जब-जब ऑंखें देख लेती तुझे हैं।
तब-तब सुधि आती श्यामली-मूर्ति की है॥66॥
तव तन पर जैसी पीत-आभा लसी है।
प्रियतम कटि में है सोहता वस्त्र वैसा।
गुन-गुन करना औ गूँजना देख तेरा।
रस-मय-मुरली का नाद है याद आता॥67॥
जब विरह विधाता ने सृजा विश्व में था।
तब स्मृति रचने में कौन सी चातुरी थी।
यदि स्मृति विरचा तो क्यों उसे है बनाया।
वपन-पटु कु-पीड़ा बीज प्राणी-उरों में॥68॥
अलि पड़ कर हाथों में इसी प्रेम के ही।
लघु-गुरु कितनी तू यातना भोगता है।
विधि-वश बँधाता है कोष में पंकजों के।
बहु-दुख सहता है विध्द हो कंटकों से॥69॥
पर नित जितनी मैं वेदना पा रही हूँ।
अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी।
मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है।
तब दुख उसकी ही पीतता तुल्य तो है॥70॥
बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा।
अपहृत चित होता है अनायास तेरा।
कतिपय-मति-शाली हेतु आसक्तता का।
अनुपम-मधु किम्वा गंध को हैं बताते॥71॥
यदि इन विषयों को रूप गंधदिकों को।
मधुकर हम तेरे मोह का हेतु मानें।
यह अवगत होना चाहिए भृङ्ग तो भी।
दुख-प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं॥72॥
पर मुझ अबला की वेदना-दायिनी हा।
समधिक गुण-वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।
तदुपरि कितनी हैं मानवी-वंचनायें।
विचलित-कर होंगी क्यों न मेरी व्यथायें॥73॥
जब हम व्यथिता हैं ईदृशी तो तुझे क्या।
कुछ सदय न होना चाहिए श्याम-बन्धो।
प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के दृगों से।
मत निठुर बने तू सामने लोचनों के॥74॥
नव-नव-कुसुमों के पास जा मुग्ध हो-हो।
गुन-गुन करता है चाव से बैठता है।
पर कुछ सुनता है तू न मेरी व्यथायें।
मधुकर इतना क्यों हो गया निर्दयी है॥75॥
कब टल सकता था श्याम के टालने से।
मुख पर मँडलाता था स्वयं मत्त हो के।
यक दिन वह था औ एक है आज का भी।
जब भ्रमर न मेरी ओर तू ताकता है॥76॥
कब पर-दुख कोई है कभी बाँट लेता।
सब परिचय-वाले प्यार ही हैं दिखाते।
अहह न इतना भी हो सका तो कहूँगी।
मधुकर यह सारा दोष है श्यामता का॥77॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कमल-लोचन क्या कल आ गये।
पलट क्या कु-कपाल-क्रिया गई।
मुरलिका फिर क्यों वन में बजी।
बन रसा तरसा वरसा सुधा॥78॥
किस तपोबल से किस काल में।
सच बता मुरली कल-नादिनी।
अवनि में तुझको इतनी मिली।
मदिरता, मृदुता, मधुमानता॥79॥
चकित है किसको करती नहीं।
अवनि को करती अनुरक्त है।
विलसती तव सुन्दर अंक में।
सरसता, शुचिता, रुचिकारिता॥80॥
निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की।
कथन क्यों न करूँ अयि वंशिके।
निहित है तब मोहक पोर में।
सफलता, कलता, अनुकूलता॥81॥
मुरलिके कह क्यों तव-नाद से।
विकल हैं बनती ब्रज-गोपिका।
किसलिए कल पा सकती नहीं।
पुलकती, हँसती, मृदु बोलती॥82॥
स्वर फुँका तव है किस मंत्र से।
सुन जिसे परमाकुल मत्त हो।
सदन है तजती ब्रज-बालिका।
उमगती, ठगती, अनुरागती॥83॥
तव प्रवंचित है बन छानती।
विवश सी नवला ब्रज-कामिनी।
युग विलोचन से जल मोचती।
ललकती, कँपती, अवलोकती॥84॥
यदि बजी फिर, तो बज ऐ प्रिये।
अपर है तुझ सी न मनोहरा।
पर कृपा कर के कर दूर तू।
कुटिलता, कटुता, मदशालिता॥85॥
विपुल छिद्र-वती बन के तुझे।
यदि समादर का अनुराग है।
तज न तो अयि गौरव-शालिनी।
सरलता, शुचिता, कुल-शीलता॥86॥
लसित है कर में ब्रज-देव के।
मुरलिके तप के बल आज तू।
इसलिए अबलाजन को वृथा।
मत सता, न जता मति-हीनता॥87॥

वंशस्थ छन्द

मदीय प्यारी अयि कुंज-कोकिला।
मुझे बता तू ढिग कूक क्यों उठी।
विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी।
विषादिता, संकुचिता, निपीड़िता॥88॥
प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की।
भला नहीं तो ब्रज-मध्य श्याम की।
कभी बजेगी अब क्यों सु-बाँसुरी।
सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी॥89॥
विषादिता तू यदि कोकिला बनी।
विलोक मेरी गति तो कहीं न जा।
समीप बैठी सुन गूढ़-वेदना।
कुसंगजा, मानसजा, मदंगजा॥90॥
यथैव हो पालित काक-अंक में।
त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय हैं।
तथैव माधो यदु-वंश में मिले।
अशोभना, खिन्न मना मुझे बना॥91॥
तथापि होती उतनी न वेदना।
न श्याम को जो ब्रज-भूमि भूलती।
नितान्त ही है दुखदा, कपाल की।
कुशीलता, आविलता, करालता॥92॥
कभी न होगी मथुरा-प्रवासिनी।
गरीबिनी गोकुल-ग्राम-गोपिका।
भला करे लेकर राज-भोग क्या।
यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता॥93॥
जहाँ न वृन्दावन है विराजता।
जहाँ नहीं है ब्रज-भू मनोहरा।
न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नहीं।
प्रवाहिता भानु-सुता प्रफुल्लिता॥94॥
करील हैं कामद कल्प-वृक्ष से।
गवादि हैं काम-दुधा गरीयसी।
सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा।
महामना, श्यामघना लुभावना॥95॥
जहाँ न वंशी-वट है न कुंज है।
जहाँ न केकी-पिक है न शारिका।
न चाह वैकुण्ठ रखें, न है जहाँ।
बड़ी भली, गोप-लली, समाअली॥96॥
न कामुका हैं हम राज-वेश की।
न नाम प्यारा यदु-नाथ है हमें।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की।
विरागिनी, पागलिनी, वियोगिनी॥97॥
विरक्ति बातें सुन वेदना-भरी।
पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही।
बना रहा है तब बोलना मुझे।
व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी॥98॥
नहीं-नहीं है मुझको बता रही।
नितान्त तेरे स्वर की अधीरता।
वियोग से है प्रिय के तुझे मिली।
अवांछिता, कातरता, मलीनता॥99॥
अत: प्रिये तू मथुरा तुरन्त जा।
सुना स्व-वेधी-स्वर जीवितेश को।
अभिज्ञ वे हों जिससे वियोग की।
कठोरता, व्यापकता, गँभीरता॥100॥
परन्तु तू तो अब भी उड़ी नहीं।
प्रिये पिकी क्या मथुरा न जायगी?
न जा, वहाँ है न पधारना भला।
उलाहना है सुनना जहाँ मना॥101॥

वसंततिलका छन्द

पा के तुझे परम-पूत-पदार्थ पाया।
आई प्रभा प्रवह मान दुखी दृगों में।
होती विवर्ध्दित घटीं उर-वेदनायें।
ऐ पद्म-तुल्य पद-पावन चिन्ह प्यारा॥102॥
कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा।
कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ।
तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था।
कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे॥103॥
माथे चढ़ा मुदित हो उर में लगाऊँ।
है चित्त चाह सु-विभूति उसे बनाऊँ।
तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं।
सानन्द अंजित सुरंजित-लोचनों में॥104॥
लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया।
तीसी-प्रसून-सम श्यामलता सलोनी।
कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी।
तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है॥105॥
संयोग से पृथक हो पद-कंज से तू।
जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है।
त्योंही मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो।
मैं भी अचिन्तित-अचेतनतामयी हूँ॥106॥
होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की।
पाती अलौकिक-पदार्थ वसुंधरा में।
होता स-शान्ति मम जीवन शेष भूत।
लेती पदांक तुझको यदि अंक में मैं॥107॥
हूँ मैं अतीव-रुचि से तुझको उठाती।
प्यारे पदांक अब तू मम-अंक में आ।
हा! दैव क्या यह हुआ? उह! क्या करूँ मैं।
कैसे हुआ प्रिय पदांक विलोप भू में॥108॥
क्या हैं कलंकित बने युग-हस्त मेरे।
क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था।
ए हैं अवश्य अति-निंद्य महा-कलंकी।
जो हैं प्रवंचित हुए पद-अर्चना से॥109॥
मैं भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय! मैंने।
अत्यन्त भ्रान्त बन के इतना न जाना।
जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े हैं।
वे हैं किसी अपर के कब हाथ आते॥110॥
पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया।
मैं बाँधती सरुचि अंचल में तुझे हूँ।
होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता।
देगी प्रकाश तम में फिरते दृगों को॥111॥

मालिनी छन्द

कुछ कथन करूँगी मैं स्वकीया व्यथायें।
बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा।
प्रति-पल बहती ही क्या चली जायगी तू।
कल-कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला॥112॥
कल-मुरलि-निनादी लोभनीयांग-शोभी।
अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तली कांति-शाली।
अयि पुलकित अंके आज भी क्यों न आया।
वह कलित-कपोलों कान्त आलापवाला॥113॥
अब अप्रिय हुआ है क्यों उसे गेह आना।
प्रति-दिन जिसकी ही ओर ऑंखें लगी हैं।
पल-पल जिस प्यारे के लिए हूँ बिछाती।
पुलकित-पलकों के पाँवड़े प्यार-द्वारा॥114॥
मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।
निज उर वह क्यों है संग जैसा बनाता।
विलसित जिसमें है चारु-चिन्ता उसी की।
वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता॥115॥
जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैंने।
वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।
जिस कुँवर बिना हैं याम होते युगों से।
वह छवि दिखलाता क्यों नहीं लोचनों को॥116॥
सब तज हमने है एक पाया जिसे ही।
अयि अलि! उसने है क्या हमें त्याग पाया।
हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती हैं।
वह प्रिय न हमारी ओर क्यों ताक पाया॥117॥
विलसित उर में है जो सदा देवता सा।
वह निज उर में है ठौर भी क्यों न देता।
नित वह कलपाता है मुझे कान्त हो क्यों।
जिस बिन ‘कल’ पाते हैं नहीं प्राण मेरे॥118॥
मम दृग जिसके ही रूप में हैं रमे से।
अहह वह उन्हें है निर्ममों सा रुलाता।
यह मन जिनके ही प्रेम में मग्न सा है।
वह मद उसको क्यों मोह का है पिलाता॥119।

जब अब अपने ए अंग ही हैं न आली।
तब प्रियतम में मैं क्या करूँ तर्कनायें।
जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती।
तब कुछ कहना ही कान्त को अज्ञता है॥120॥
दृग अति अनुरागी श्यामली-मूर्ति के हैं।
युग श्रुति सुनना हैं चाहते चारु-तानें।
प्रियतम मिलने को चौगुनी लालसा से।
प्रति-पल अधिकाती चित्त की आतुरी है॥121॥
उर विदलित होता मत्त वृध्दि पाती।
बहु विलख न जो मैं यामिनी-मध्य रोती।
विरह-दव सताता, गात सारा जलाता।
यदि मम नयनों में वारि-धारा न होती॥122॥
कब तक मन मारूँ दग्ध हो जी जलाऊँ।
निज-मृदुल-कलेजे में शिला क्यों लगाऊँ।
वन-वन विलपूँ या मैं धंसूँ मेदिनी में।
निज-प्रियतम प्यारी मुर्ति क्यों देख पाऊँ॥123॥
तव तट पर आ के नित्य ही कान्त मेरे।
पुलकित बन भावों में पगे घूमते हैं।
यक दिन उनको पा प्रीत जी से सुनाना।
कल-कल-ध्वनि-द्वारा सर्व मेरी व्यथायें॥124॥
विधि वश यदि तेरी धार में आ गिरूँ मैं।
मम तन ब्रज की ही मेदिनी में मिलाना।
उस पर अनुकूला हो, बड़ी मंजुता से।
कल-कुसुम अनूठी-श्यामता के उगाना॥125॥
घन-तन रत मैं हूँ तू असेतांगिनी है।
तरलित-उर तू है चैन मैं हूँ न पाती।
अयि अलि बन जा तू शान्ति-दाता हमारी।
अति-प्रतपित मैं हूँ ताप तू है भगाती॥126॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

रोई आ के कुसुम-ढिग औ भृङ्ग के साथ बोली।
वंशी-द्वारा-भ्रमित बन के बात की कोकिला से।
देखा प्यारे कमल-पग के अंक को उन्मना हो।
पीछे आयी तरणि-तनया-तीर उत्कण्ठिता सी॥127॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त गई गृह-बालिका।
व्यथित ऊद्धव को अति ही बना।
सब सुना सब ठौर छिपे गये।
पर न बोल सके वह अल्प भी॥128॥

16. षोडश सर्ग
वंशस्थ छन्द

विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था।
वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी।
विचित्रता-साथ विराजिता रही।
वसंत वासंतिकता वनान्त में॥1॥
नवीन भूता वन की विभूति में।
विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में।
अनूपता व्यापित थी वसंत की।
निकुंज में कूजित-कुंज-पुंज में॥2॥
प्रफुल्लिता कोमल-पल्लवान्विता।
मनोज्ञता-मूर्ति नितान्त-रंजिता।
वनस्थली थी मकरंद-मोदिता।
अकीलिता कोकिल-काकली-मयी॥3॥
निसर्ग ने, सौरभ ने, पराग ने।
प्रदान की थी अति कान्त-भाव से।
वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को।
मनोज्ञता, मादकता, मदांधता॥4॥
वसंत की भाव-भरी विभूति सी।
मनोज की मंजुल-पीठिका-समा।
लसी कहीं थी सरसा सरोजिनी।
कुमोदिनी-मानस-मोदिनी कहीं॥5॥
नवांकुरों में कलिका-कलाप में।
नितान्त न्यारे फल पत्र-पुंज में।
निसर्ग-द्वारा सु-प्रसूत-पुष्प में।
प्रभूत पुंजी-कृत थी प्रफुल्लता॥6॥
विमुग्धता की वर-रंग-भूमि सी।
प्रलुब्धता केलि वसुंधारोपमा।
मनोहरा थीं तरु-वृन्द-डालियाँ।
नई कली मंजुल-मंजरीमयी॥7॥
अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा।
महत्तव औ गौरव, सत्य-त्याग का।
विचित्रता से करती प्रकाश थी।
स-पत्रता पादप पत्र-हीन की॥8॥
वसंत-माधुर्य-विकाश-वर्ध्दिनी।
क्रिया-मयी, मार-महोत्सवांकिता।
सु-कोंपलें थीं तरु-अंक में लसी।
स-अंगरागा अनुराग-रंजिता॥9॥
नये-नये पल्लववान पेड़ में।
प्रसून में आगत थी अपूर्वता।
वसंत में थी अधिकांश शोभिता।
विकाशिता-वेलि प्रफुल्लिता-लता॥10॥
अनार में औ कचनार में बसी।
ललामता थी अति ही लुभावनी।
बड़े लसे लोहित-रंग-पुष्प से।
पलाश की थी अपलाशता ढकी॥11॥
स-सौरभा लोचन की प्रसादिका।
वसंत-वासंतिका-विभूषिता।
विनोदिता हो बहु थी विनोदिनी।
प्रिया-समा मंजु-प्रियाल-मंजरी॥12॥
दिशा प्रसन्ना महि पुष्प-संकुला।
नवीनता-पूरित पादपावली।
वसंत में थी लतिका सु-यौवना।
अलापिका पंचम-तान कोकिला॥13॥
अपूर्व-स्वर्गीय-सुगंध में सना।
सुधा बहाता धमनी-समूह में।
समीर आता मलयाचलांक से।
किसे बनाता न विनोद-मग्न था॥14॥
प्रसादिनी-पुष्प सुगंध-वर्ध्दिनी।
विकाशिनी वेलि लता विनोदिनी।
अलौकिकी थी मलयानिली क्रिया।
विमोहिनी पादप पंक्ति-मोदिनी॥15॥
वसंत शोभा प्रतिकूल थी बड़ी।
वियोग-मग्ना ब्रज-भूमि के लिए।
बना रही थी उसको व्यथामयी।
विकाश पाती वन-पादपावली॥16॥
दृगों उरों को दहती अतीव थीं।
शिखाग्नि-तुल्या तरु-पुंज-कोंपलें।
अनार-शाखा कचनार-डाल थी।
अपार अंगारक पुंज-पूरिता॥17॥
नितान्त ही थी प्रतिकूलता-मयी।
प्रियाल की प्रीति-निकेत-मंजरी।
बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।
विदारता था तरु कोबिदार का॥18॥
भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।
सशंकता-मुर्ति प्रमोद-नाशिनी।
अतीव थी रक्तमयी अशोभना।
पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा॥19॥
इतस्तत: भ्रान्त-समान घूमती।
प्रतीत होती अवली मिलिन्द की।
विदूषिता हो कर थी कलंकिता।
अलंकृता कोकिल कान्त कंठता॥20॥
प्रसून को मोहकता मनोज्ञता।
नितान्त थी अन्यमनस्कतामयी।
न वांछिता थी न विनोदनीय थी।
अ-मानिता हो मलयानिल-क्रिया॥21॥
बड़े यशस्वी वृष-भानु गेह के।
समीप थी एक विचित्र वाटिका।
प्रबुद्ध-ऊधो इसमें इन्हीं दिनों।
प्रबोध देने ब्रज-देवि को गये॥22॥
वसंत को पा यह शान्त वाटिका।
स्वभावत: कान्त नितान्त थी हुई।
परन्तु होती उसमें स-शान्ति थी।
विकाश की कौशल-कारिणी-क्रिया॥23॥
शनै: शनै: पादप पुंज कोंपलें।
विकाश पा के करती प्रदान थीं।
स-आतुरी रक्तिमता-विभूति को।
प्रमोदनीया-कमनीय श्यामता॥24॥
अनेक आकार-प्रकार से मनो।
बता रही थीं यह गूढ़-मर्म्म वे।
नहीं रँगेगा वह श्याम-रंग में।
न आदि में जो अनुराग में रँगा॥25॥
प्रसून थे भाव-समेत फूलते।
लुभावने श्यामल पत्र अंक में।
सुगंध को पूत बना दिगन्त में।
पसारती थी पवनातिपावनी॥26॥
प्रफुल्लता में अति-गूढ़-म्लानता।
मिली हुई साथ पुनीत-शान्ति के।
सु-व्यंजिता संयत भाव संग थी।
प्रफुल्ल-पाथोज प्रसून-पुंज में॥27॥
स-शान्ति आते उड़ते निकुंज में।
स-शान्ति जाते ढिग थे प्रसून के।
बने महा-नीरव, शान्त, संयमी।
स-शान्ति पीते मधु को मिलिन्द थे॥28॥
विनोद से पादप पै विराजना।
विहंगिनी साथ विलास बोलना।
बँधा हुआ संयम-सूत्र साथ था।
कलोलकारी खग का कलोलना॥29॥
न प्रायश: आनन त्यागती रही।
न थी बनाती ध्वनिता दिगन्त को।
न बाग में पा सकती विकाश थी।
अ-कुंठिता हो कल-कंठ-काकली॥30॥
इसी तपोभूमि-समान वाटिका।
सु-अंक में सुन्दर एक कुंज थी।
समावृता श्यामल-पुष्प-संकुला।
अनेकश: वेलि-लता-समूह से॥31॥
विराजती थीं वृष-भानु-नन्दिनी।
इसी बड़े नीरव शान्त-कुंज में।
अत: यहीं श्री बलवीर-बन्धु ने।
उन्हें विलोका अलि-वृन्द आवृता॥32॥
प्रशान्त, म्लाना, वृषभानु-कन्यका।
सु-मुर्ति देवी सम दिव्यतामयी।
विलोक, हो भावित भक्ति-भाव से।
विचित्र ऊधो-उर की दशा हुई॥33॥
अतीव थी कोमल-कान्ति नेत्र की।
परन्तु थी शान्ति विषाद-अंकिता।
विचित्र-मुद्रा मुख-पद्म की मिली।
प्रफुल्लता-आकुलता-समन्विता॥34॥
स-प्रीति वे आदर के लिए उठीं।
विलोक आया ब्रज-देव-बन्धु को।
पुन: उन्होंने निज-शान्त-कुंज में।
उन्हें बिठाया अति-भक्ति-भाव से॥35॥
अतीव-सम्मान समेत आदि में।
ब्रजेश्वरी की कुशलादि पूछ के।
पुन: सुधी-ऊद्धव ने स-नम्रता।
कहा सँदेसा वह श्याम-मूर्ति का॥36॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

प्राणाधारे परम-सरले प्रेम की मुर्ति राधे।
निर्माता ने पृथक तुमसे यों किया क्यों मुझे है।
प्यारी आशा प्रिय-मिलन की नित्य है दूर होती।
कैसे ऐसे कठिन-पथ का पान्थ मैं हो रहा हूँ॥37॥
जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये हैं।
क्यों धाता ने विलग उनके गात को यों किया है।
कैसे आ के गुरु-गिरि पड़े बीच में हैं, उन्हीं के।
जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यश: थे॥38॥
उत्कण्ठा के विवश नभ को, भूमि को, पादपों को।
ताराओं को, मनुज-मुख को प्रायश: देखता हूँ।
प्यारी! ऐसी न ध्वनि मुझको है कहीं भी सुनाती।
जो चिन्ता से चलित-चित की शान्ति का हेतु होवे॥39॥
जाना जाता परम विधि के बंधनों का नहीं है।
तो भी होगा उचित चित में यों प्रिये सोच लेना।
होते जाते विफल यदि हैं सर्व-संयोग सूत्र।
तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई॥40॥
हैं प्यारी औ ‘मधुर सुख औ भोग की लालसायें।
कान्ते, लिप्सा जगत-हित की और भी है मनोज्ञा।
इच्छा आत्मा परम-हित की मुक्ति की उत्तम है।
वांछा होती विशद उससे आत्म-उत्सर्ग की है॥41॥
जो होता है निरत तप से मुक्ति की कामना से।
आत्मार्थी है, न कह सकते हैं उसे आत्मत्यागी।
जी से प्यारा जगत-हित औ लोक-सेवा जिसे है।
प्यारी सच्चा अवनि-तल में आत्मत्यागी वही है॥42॥
जो पृथ्वी के विपुल-सुख की माधुरी है विपाशा।
प्राणी-सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है।
जो आद्या है नखत द्युति सी व्याप जाती उरों में।
तो होती है लसित उसमें कौमुदी सी द्वितीया॥43॥
भोगों में भी विविध कितनी रंजिनी-शक्तियाँ हैं।
वे तो भी हैं जगत-हित से मुग्धकारी न होते।
सच्ची यों है कलुष उनमें हैं बड़े क्लान्ति-कारी।
पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा॥44॥
है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा।
सारे प्राणी स-रुचि इसकी माधुरी में बँधे हैं।
जो होता है न वश इसके आत्म-उत्सर्ग-द्वारा।
ऐ कान्ते है सफल अवनी-मध्य आना उसी का॥45॥
जो है भावी परम-प्रबला दैव-इच्छा प्रधाना।
तो होवेगा उचित न, दुखी वांछितों हेतु होना।
श्रेय:कारी सतत दयिते सात्तिवकी-कार्य्य होगा।
जो हो स्वार्थोपरत भव में सर्व-भूतोपकारी॥46॥

वंशस्थ छन्द

अतीव हो अन्यमना विषादिता।
विमोचते वारि दृगारविन्द से।
समस्त सन्देश सुना ब्रजेश का।
ब्रजेश्वरी ने उर वज्र सा बना॥47॥
पुन: उन्होंने अति शान्त-भाव से।
कभी बहा अश्रु कभी स-धीरता।
कहीं स्व-बातें बलवीर-बंधु से।
दिखा कलत्रोचित-चित्त-उच्चता॥48॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

मैं हूँ ऊधो पुलकित हुई आपको आज पा के।
सन्देशों को श्रवण करके और भी मोदिता हूँ।
मंदीभूता, उर-तिमिर की ज्ञान आभा।
उद्दीप्ता हो उचित-गति से उज्ज्वला हो रही है॥49॥
मेरे प्यारे, पुरुष, पृथिवी-रत्न औ शान्त धी हैं।
सन्देशों में तदपि उनकी, वेदना, व्यंजिता है।
मैं नारी हूँ, तरल-उर हूँ, प्यार से वंचिता हूँ।
जो होती हूँ विकल, विमना, व्यस्त, वैचित्रय क्या है॥50॥
हो जाती है रजनि मलिना ज्यों कला-नाथ डूबे।
वाटी शोभा रहित बनती ज्यों वसन्तान्त में है।
त्योंही प्यारे विधु-वदन की कान्ति से वंचिता हो।
श्री-हीना मलिन ब्रज की मेदिनी हो गई है॥51॥
जैसे प्राय: लहर उठती वारि में वायु से है।
त्योंही होता चित चलित है कश्चिदावेग-द्वारा।
उद्वेगों में व्यथित बनना बात स्वाभाविकी है।
हाँ, ज्ञानी औ विबुध-जन में मुह्यता है न होती॥52॥
पूरा-पूरा परम-प्रिय का मर्म्म मैं बूझती हूँ।
है जो वांछा विशद उर में जानती भी उसे हूँ।
यत्नों द्वारा प्रति-दिन अत: मैं महा संयता हूँ।
तो भी देती विरह-जनिता-वासनायें व्यथा हैं॥53॥
जो मैं कोई विहग उड़ता देखती व्योम में हूँ।
तो उत्कण्ठा-विवश चित में आज भी सोचती हूँ।
होते मेरे अबल तन में पक्ष जो पक्षियों से।
तो यों ही मैं स-मुद उड़ती श्याम के पास जाती॥54॥
जो उत्कण्ठा अधिक प्रबल है किसी काल होती।
तो ऐसी है लहर उठती चित्त में कल्पना की।
जो हो जाती पवन, गति पा वांछिता लोक-प्यारी।
मैं छू आती परम-प्रिय के मंजु-पादाम्बुजों को॥55॥
निर्लिप्ता हूँ अधिकतर मैं नित्यश: संयता हूँ।
तो भी होती अति व्यथित हूँ श्याम की याद आते।
वैसी वांछा जगत-हित की आज भी है न होती।
जैसी जी में लसित प्रिय के लाभ की लालसा है॥56॥
हो जाता है उदित उर में मोह जो रूप-द्वारा।
व्यापी भू में अधिक जिसकी मंजु-कार्य्यावली है।
जो प्राय: है प्रसव करता मुग्धता मानसों में।
जो है क्रीड़ा अवनि चित की भ्रान्ति उद्विग्नता का॥57॥
जाता है पंच-शर जिसकी ‘कल्पिता-मुर्ति’ माना।
जो पुष्पों के विशिख-बल से विश्व को वेधता है।
भाव-ग्राही ‘मधुर-महती चित्त-विक्षेप-शीला।
न्यारी-लीला सकल जिसकी मानसोन्मादिनी है॥58॥
वैचित्रयों से वलित उसमें ईदृशी शक्तियाँ हैं।
ज्ञाताओं ने प्रणय उसको है बताया न तो भी।
है दोनों से सबल बनती भूरि-आसंग-लिप्सा।
होती है किन्तु प्रणयज ही स्थायिनी औ प्रधाना॥59॥
जैसे पानी प्रणय तृषितों की तृषा है न होती।
हो पाती है न क्षुधित-क्षुधा अन्न-आसक्ति जैसे।
वैसे ही रूप निलय नरों मोहनी-मुर्तियों में।
हो पाता है न ‘प्रणय’ हुआ मोह रूपादि-द्वारा॥60॥
मूली-भूता इस प्रणय की बुध्दि की वृत्तियाँ हैं।
हो जाती हैं समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणों से।
वे होते हैं नित नव, तथा दिव्यता-धाम, स्थायी।
पाई जाती प्रणय-पथ में स्थायिता है इसी से॥61॥
हो पाता है विकृत स्थिरता-हीन हैं रूप होता।
पाई जाती नहिं इस लिए मोह में स्थायिता है।
होता है रूप विकसित भी प्रायश: एक ही सा।
हो जाता है प्रशमित अत: मोह संभोग से भी॥62॥
नाना स्वार्थों सरस-सुख की वासना-मध्य-डूबा।
आवेगों से वलित ममतावान है मोह होता।
निष्कामी है प्रणय-शुचिता-मुर्ति है सात्तिवकी है।
होती पूरी प्रमिति उसमें आत्म-उत्सर्ग की है॥63॥
सद्य: होती फलित, चित में मोह की मत्त है।
धीरे-धीरे प्रणय बसता, व्यापता है उरों में।
हो जाती है विवश अपरा-वृत्तियाँ मोह-द्वारा।
भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है॥64॥
हो जाते हैं उदय कितने भाव ऐसे उरों में।
होती है मोह-वश जिनमें प्रेम की भ्रान्ति प्राय:।
वे होते हैं न प्रणय न वे हैं समीचीन होते।
पाई जाती अधिक उनमें मोह की वासना है॥65॥
हो के उत्कण्ठ प्रिय-सुख की भूयसी-लालसा से।
जो है प्राणी हृदय-तल की वृत्ति उत्सर्ग-शीला।
पुण्याकांक्षा सुयश-रुचि वा धर्म-लिप्सा बिना ही।
ज्ञाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसी को॥66॥
आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सद्वृत्ति-द्वारा।
हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा।
होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है।
पीछे खो आत्म-सुधि लसती आत्म-उत्सर्गता है॥67॥
सद्गंधो से, ‘मधुर-स्वर से, स्पर्श से औ रसों से।
जो हैं प्राणी हृदय-तल में मोह उद्भूत होते।
वे ग्राही हैं जन-हृदय के रूप के मोह ही से।
हो पाते हैं तदपि उतने मत्तकारी नहीं वे॥68॥
व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता।
पाया जाता प्रबल उसका चित्त-चांचल्य भी है।
मानी जाती न क्षिति-तल में है पतंगोपमाना।
भृङ्गों, मीनों द्विरद मृग की मत्तत्ता प्रीतिमत्त॥69॥
मोहों में है प्रबल सबसे रूप का मोह होता।
कैसे होंगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता।
जो है प्यारा प्रणय-मणि सा काँच सा मोह तो है।
ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है॥70॥
दोनों ऑंखें निरख जिसको तृप्त होती नहीं हैं।
ज्यों-ज्यों देखें अधिक जिसकी दीखती मंजुता है।
जो है लीला-निलय महि में वस्तु स्वर्गीय जो है।
ऐसा राका-उदित-विधु सा रूप उल्लासकारी॥71॥
उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा बार लाखों।
कानों की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा।
हृत्तन्त्री में ध्वनित करता स्वर्ग-संगीत जो है।
ऐसा न्यारा-स्वर उर-जयी विश्व-व्यामोहकारी॥72॥
होता है मूल अग जग के सर्वरूपों-स्वरों का।
या होती है मिलित उसमें मुग्धता सद्गुणों की।
ए बातें ही विहित-विधि के साथ हैं व्यक्त होतीं।
न्यारे गंधो सरस-रस, औ स्पर्श-वैचित्रय में भी॥73॥
पूरी-पूरी कुँवर-वर के रूप में है महत्ता।
मंत्रो से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है।
सारे न्यारे प्रमुख-गुण की सात्तिवकी मुर्ति वे हैं।
कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरों में न होगा॥74॥
जो आसक्ता ब्रज-अवनि में बालिकायें कई हैं।
वे सारी ही प्रणय रँग से श्याम के रंजिता हैं।
मैं मानूँगी अधिक उनमें हैं महा-मोह-मग्ना।
तो भी प्राय: प्रणय-पथ की पंथिनी ही सभी हैं॥75॥
मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूँ क्यों।
काढ़ूँ कैसे हृदय-तल से श्यामली-मुर्ति न्यारी।
जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु-तानें।
तो क्यों होंगी शमित प्रिय के लाभ की लालसायें॥76॥
ए ऑंखें हैं जिधर फिरती चाहती श्याम को हैं।
कानों को भी ‘मधुर-रव की आज भी लौ लगी है।
कोई मेरे हृदय-तल को पैठ के जो विलोके।
तो पावेगा लसित उसमें कान्ति-प्यारी उन्हीं की॥77॥
जो होता है उदित नभ में कौमुदी कांत आ के।
या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कहीं हूँ।
शोभा-वाले हरित दल के पादपों को विलोके।
है प्यारे का विकच-मुखड़ा आज भी याद आता॥78॥
कालिन्दी के पुलिन पर जा, या, सजीले-सरों में।
जो मैं फूले-कमल-कुल को मुग्ध हो देखती हूँ।
तो प्यारे के कलित-कर की औ अनूठे-पगों की।
छा जाती है सरस-सुषमा वारि स्रावी-दृगों में॥79॥
ताराओं से खचित-नभ को देखती जो कभी हूँ।
या मेघों में मुदित-बक की पंक्तियाँ दीखती हैं।
तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है।
मानो मुक्ता-लसित-उर है श्याम का दृष्टि आता॥80॥
छू देती है मृदु-पवन जो पास आ गात मेरा।
तो हो जाती परस सुधि है श्याम-प्यारे-करों की।
ले पुष्पों की सुरभि वह जो कुंज में डोलती है।
तो गंधो से बलित मुख की वास है याद आती॥81॥
ऊँचे-ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते।
ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे दृगों के।
नाना-क्रीड़ा-निलय-झरना चारु-छीटें उड़ाता।
उल्लासों को कुँवर-वर के चक्षु में है लसाता॥82॥
कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही।
मेरे प्यासे दृग-युगल के सामने है न लाती।
प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से।
सद्भावों के सहित चित में सर्वदा है लसाती॥83॥
फूली संध्या परम-प्रिय की कान्ति सी है दिखाती।
मैं पाती हूँ रजनि-तन में श्याम का रङ्ग छाया।
ऊषा आती प्रति-दिवस है प्रीति से रंजिता हो।
पाया जाता वर-वदन सा ओप आदित्य में है॥84॥
मैं पाती हँ अलक-सुषमा भृङ्ग की मालिका में।
है आँखों की सु-छवि मिलती खंजनों औ मृगों में।
दोनों बाँहें कलभ कर को देख हैं याद आती।
पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की॥85॥
है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाड़िमों में।
बिम्बाओं में वर अधर सी राजती लालिमा है।
मैं केलों में जघन-युग ही मंजुता देखती हूँ।
गुल्फों की सी ललित सुषमा है गुलों में दिखाती॥86॥
नेत्रोन्मादी बहु-मुदमयी-नीलिमा गात की सी।
न्यारे नीले गगन-तल के अङ्क में राजती है।
भू में शोभा, सुरस जल में, वद्दि में दिव्य-आभा।
मेरे प्यारे-कुँवर वर सी प्रायश: है दिखाती॥87॥
सायं-प्रात: सरस-स्वर से कूजते हैं पखेरू।
प्यारी-प्यारी ‘मधुर-ध्वनियाँ मत्त हो, हैं सुनाते।
मैं पाती हूँ ‘मधुर ध्वनि में कूजने में खगों के।
मीठी-तानें परम-प्रिय को मोहिनी-वंशिका की॥88॥
मेरी बातें श्रवण करके आप उद्विग्न होंगे।
जानेंगे मैं विवश बन के हूँ महा-मोह-मग्ना।
सच्ची यों है न निज-सुख के हेतु मैं मोहिता हूँ।
संरक्षा में प्रणय-पथ के भावत: हूँ सयत्ना॥89॥
हो जाती है विधि-सृजन से इक्षु में माधुरी जो।
आ जाता है सरस रंग जो पुष्प की पंखड़ी में।
क्यों होगा सो रहित रहते इक्षुता-पुष्पता के।
ऐसे ही क्यों प्रसृत उर से जीवनाधार होगा॥90॥
क्यों मोहेंगे न दृग लख के मुर्तियाँ रूपवाली।
कानों को भी ‘मधुर-स्वर से मुग्धता क्यों न होगी।
क्यों डूबेंगे न उर रँग में प्रीति-आरंजितों के।
धाता-द्वारा सृजित तन में तो इसी हेतु वे हैं॥91॥
छाया-ग्राही मुकुर यदि हो, वारि हो चित्र क्या है।
जो वे छाया ग्रहण न करें चित्रता तो यही है।
वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर में जो न रूपादि व्यापें।
तो विज्ञानी, विबुध उनको स्वस्थ कैसे कहेंगे॥92॥
पाई जाती श्रवण करने आदि में भिन्नता है।
देखा जाना प्रभृति भव में भूरि-भेदों भरा है।
कोई होता कलुष-युत है कामना-लिप्त हो के।
त्योंही कोई परम-शुचितावान औ संयमी है॥93॥
पक्षी होता सु-पुलकित है देख सत्पुष्प फूला।
भौंरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूँजता है।
अर्थी-माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता।
तीनों का ही कल-कुसुम का देखना यों त्रिधा है॥94॥
लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की।
कोई होता मदन-वश है मोद में मग्न कोई।
कोई गाता परम-प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो।
यों तीनों की प्रचुर-प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती॥95॥
शोभा-वाले विटप विलसे पक्षियों के स्वरों से।
विज्ञानी है परम-प्रभु के प्रेम का पाठ पाता।
व्याधा की हैं हनन-रुचियाँ और भी तीव्र होतीं।
यों दोनों के श्रवण करने में बड़ी भिन्नता है॥96॥
यों ही है भेद युत चखना, सूँघना और छूना।
पात्रो में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती।
ऐसी ही हैं हृदय-तल के भाव में भिन्नतायें।
भावों ही से अवनि-तल है स्वर्ग के तुल्य होता॥97॥
प्यारे आवें सु-बयन कहें प्यार से गोद लेवें।
ठंढे होवें नयन, दुख हों दूर मैं मोद पाऊँ।
ए भी हैं भाव मम उर के और ए भाव भी हैं।
प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवें॥98॥
जो होता है हृदय-तल का भाव लोकोपतापी।
छिद्रान्वेषी, मलिन, वह है तामसी-वृत्ति-वाला।
नाना भोगाकलित, विविधा-वासना-मध्य डूबा।
जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी-वृत्ति शाली॥99॥
निष्कामी है भव-सुखद है और है विश्व-प्रेमी।
जो है भोगोपरत वह है सात्तिवकी-वृत्ति-शोभी।
ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था।
आत्मोत्सर्गी, हृदय-तल की सात्तिवकी-वृत्ति ही है॥100॥
जिह्ना, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी।
क्यों त्यागेंगे प्रकृति अपने कार्य को क्यों तजेंगे।
क्यों होवेंगी शमित उर की लालसाएँ, अत: मैं।
रंगे देती प्रति-दिन उन्हें सात्तिवकी-वृत्ति में हूँ॥101॥
कंजों का या उदित-विधु का देख सौंदर्य्य ऑंखों।
या कानों से श्रवण करके गान मीठा खगों का।
मैं होती थी व्यथित, अब हूँ शान्ति सानन्द पाती।
प्यारे के पाँव, मुख, मुरली-नाद जैसा उन्हें पा॥102॥
यों ही जो है अवनि नभ में दिव्य, प्यारा, उन्हें मैं।
जो छूती हूँ श्रवण करती देखती सूँघती हूँ।
तो होती हूँ मुदित उनमें भावत: श्याम की पा।
न्यारी-शोभा, सुगुण-गरिमा अंग संभूत साम्य॥103॥
हो जाने से हृदय-तल का भाव ऐसा निराला।
मैंने न्यारे परम गरिमावान दो लाभ पाये।
मेरे जी में हृदय विजयी विश्व का प्रेम जागा।
मैंने देखा परम प्रभु को स्वीय-प्राणेश ही में॥104॥
पाई जाती विविध जितनी वस्तुयें हैं सबों में।
जो प्यारे को अमित रंग औ रूप में देखती हूँ।
तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूँगी।
यों है मेरे हृदय-तल में विश्व का प्रेम जागा॥105॥
जो आता है न जन-मन में जो परे बुध्दि के है।
जो भावों का विषय न बना नित्य अव्यक्त जो है।
है ज्ञाता की न गति जिसमें इन्द्रियातीत जो है।
सो क्या है, मैं अबुध अबला जान पाऊँ उसे क्यों॥106॥
शास्त्रों में है कथित प्रभु के शीश औ लोचनों की।
संख्यायें हैं अमित पग औ हस्त भी हैं अनेकों।
सो हो के भी रहित मुख से नेत्र नासादिकों से।
छूता, खाता, श्रवण करता, देखता, सूँघता है॥107॥
ज्ञाताओं ने विशद इसका मर्म्म यों है बताया।
सारे प्राणी अखिल जग के मुर्तियाँ हैं उसी की।
होतीं ऑंखें प्रभृति उनकी भूरि-संख्यावती हैं।
सो विश्वात्मा अमित-नयनों आदि-वाला अत: है॥108॥
निष्प्राणों की विफल बनतीं सर्व-गात्रोन्द्रियाँ हैं।
है अन्या-शक्ति कृति करती वस्तुत: इन्द्रियों की।
सो है नासा न दृग रसना आदि ईशांश ही है।
होके नासादि रहित अत: सूँघता आदि सो है॥109॥
ताराओं में तिमिर-हर में वह्नि-विद्युल्लता में।
नाना रत्नों, विविध मणियों में विभा है उसी की।
पृथ्वी, पानी, पवन, नभ में, पादपों में, खगों में।
मैं पाती हूँ प्रथित-प्रभुता विश्व में व्याप्त की ही॥110॥
प्यारी-सत्ता जगत-गत की नित्य लीला-मयी है।
स्नेहोपेता परम-मधुरा पूतता में पगी है।
ऊँची-न्यारी-सरल-सरसा ज्ञान-गर्भा मनोज्ञा।
पूज्या मान्या हृदय-तल की रंजिनी उज्ज्वला है॥111॥
मैंने की हैं कथन जितनी शास्त्र-विज्ञात बातें।
वे बातें हैं प्रकट करती ब्रह्म है विश्व-रूपी।
व्यापी है विश्व प्रियतम में विश्व में प्राणप्यारा।
यों ही मैंने जगत-पति को श्याम में है विलोका॥112॥
शास्त्रों में है लिखित प्रभु की भक्ति निष्काम जोहै।
सो दिव्या है मनुज-तन की सर्व संसिध्दियों से।
मैं होती हूँ सुखित यह जो तत्तवत: देखती हूँ।
प्यारे की औ परम-प्रभु की भक्तियाँ हैं अभिन्ना॥113॥

द्रुतविलम्बित छन्द

जगत-जीवन प्राण स्वरूप का।
निज पिता जननी गुरु आदि का।
स्व-प्रिय का प्रिय साधन भक्ति है।
वह अकाम महा-कमनीय है॥114॥
श्रवण, कीर्तन, वन्दन, दासता।
स्मरण, आत्म-निवेदन, अर्चना।
सहित सख्य तथा पद-सेवना।
निगदिता नवध प्रभु-भक्ति है॥115॥

वंशस्थ छन्द

बना किसी की यक मुर्ति कल्पिता।
करे उस की पद-सेवनादि जो।
न तुल्य होगा वह बुध्दि दृष्टि से।
स्वयं उसी की पद-अर्चनादि के॥116॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो हैं उसी के।
सारे प्राणी सरि गिरि लता वेलियाँ वृक्ष नाना।
रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।
भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तमा हैं॥117॥
जी से सारा कथन सुनना आर्त-उत्पीड़ितों का।
रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक-उन्नायकों का।
सच्छास्त्त्रों का श्रवण सुनना वाक्य सत्संगियों का।
मानी जाती श्रवण-अभिधा-भक्ति है सज्जनों में॥118॥
सोये जागें, तम-पतित की दृष्टि में ज्योति आवे।
भूले आवें सु-पथ पर औ ज्ञान-उन्मेष होवे।
ऐसे गाना कथन करना दिव्य-न्यारे गुणों का।
है प्यारी भक्ति प्रभुवर की कीर्तनोपाधिवाली॥119॥
विद्वानों के स्व-गुरु-जन के देश के प्रेमिकों के।
ज्ञानी दानी सु-चरित गुणी सर्व-तेजस्वियों के।
आत्मोत्सर्गी विबुध जन के देव सद्विग्रहों के।
आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या॥120॥
जो बातें हैं भव-हितकरी सर्व-भूतोपकारी।
जो चेष्टायें मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती।
हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना।
विश्वात्मा-भक्ति भव-सुखदा दासता-संज्ञका है॥121॥
कंगालों की विवश विधवा औ अनाथाश्रितों की।
उद्विग्नों की सुरति करना औ उन्हें त्राण देना।
सत्काय्र्यों का पर-हृदय की पीर का ध्यान आना।
मानी जाती स्मरण-अभिधा भक्ति है भावुकों में॥122॥

द्रुतविलम्बित छन्द

विपद-सिन्धु पड़े नर वृन्द के।
दुख-निवारण औ हित के लिए।
अरपना अपने तन प्राण को।
प्रथित आत्म-निवेदन-भक्ति है॥123॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

संत्रास्तों को शरण मधुरा-शान्ति संतापितों को।
निर्बोधो को सु-मति विविधा औषधी पीड़ितों को।
पानी देना तृषित-जन को अन्न भूखे नरों को।
सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना-संज्ञका है॥124॥
नाना प्राणी तरु गिरि लता आदि की बात ही क्या।
जो दूर्वा से द्यु-मणि तक है व्योम में या धरा में।
सद्भावों के सहित उनसे कार्य्य-प्रत्येक लेना।
सच्चा होना सुहृद उनका भक्ति है सख्य-नाम्नी॥125॥

वसन्ततिलका छन्द

जो प्राणी-पुंज निज कर्म्म-निपीड़नों से।
नीचे समाज-वपु के पग सा पड़ा है।
देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा।
है भक्ति लोक-पति की पद-सेवनाख्या॥126॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कह चुकी प्रिय-साधन ईश का।
कुँवर का प्रिय-साधन है यही।
इसलिए प्रिय की परमेश की।
परम-पावन-भक्ति अभिन्न है॥127॥
यह हुआ मणि-कांचन-योग है।
मिलन है यह स्वर्ण-सुगंध का।
यह सुयोग मिले बहु-पुण्य से।
अवनि में अति-भाग्यवती हुई॥128॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

जो इच्छा है परम-प्रिय की जो अनुज्ञा हुई है।
मैं प्राणों के अछत उसको भूल कैसे सकूँगी।
यों भी मेरे परम व्रत के तुल्य बातें यही थीं।
हो जाऊँगी अधिक अब मैं दत्ताचित्ता इन्हीं में॥129॥
मैं मानूँगी अधिक मुझमें मोह-मात्र अभी है।
होती हूँ मैं प्रणय-रंग से रंजिता नित्य तो भी।
ऐसी हूँगी निरत अब मैं पूत-कार्य्यावली में।
मेरे जी में प्रणय जिससे पूर्णत: व्याप्त होवे॥130॥
मैंने प्राय: निकट प्रिय के बैठ, है भक्ति सीखी।
जिज्ञासा से विविध उसका मर्म्म है जान पाया।
चेष्टा ऐसी सतत अपनी बुध्दि-द्वारा करूँगी।
भूलूँ-चूकूँ न इस व्रत की पूत-कार्य्यावली में॥131॥
जा के मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावें।
मेरे प्यारे कुँवर-वर को आप सौजन्य-द्वारा।
मैं ऐसी हूँ न निज-दुख से कष्टिता शोक-मग्ना।
हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियों के दुखों से॥132॥
गोपी गोपों विकल ब्रज की बालिका बालकों को।
आ के पुष्पानुपम मुखड़ा प्राणप्यारे दिखावें।
बाधा कोई न यदि प्रिय के चारु-कर्तव्य में हो।
तो वे आ के जनक-जननी की दशा देख जावें॥133॥
मैं मानूँगी अधिक बढ़ता लोभ है लाभ ही से।
तो भी होगा सु-फल कितनी भ्रान्तियाँ दूर होंगी।
जो उत्कण्ठा-जनित दुखड़े दाहते हैं उरों को।
सद्वाक्यों से प्रबल उनका वेग भी शान्त होगा॥134॥
सत्कर्मी हैं परम-शुचि हैं आप ऊधो सुधी हैं।
अच्छा होगा सनय प्रभु से आप चाहें यही जो।
आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ।
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे॥135॥

द्रुतविलम्बित छन्द

चुप हुई इतना कह मुग्ध हो।
ब्रज-विभूति-विभूषण राधिका।
चरण की रज ले हरिबंधु भी।
परम-शान्ति-समेत विदा हुए॥136॥

17. सप्तदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

ऊधो लौटे नगर मथुरा में कई मास बीते।
आये थे वे ब्रज-अवनि में दो दिनों के लिए ही।
आया कोई न फिर ब्रज में औ न गोपाल आये।
धीरे-धीरे निशि-दिन लगे बीतने व्यग्रता से॥1॥
बीते थोड़ा दिवस ब्रज में एक संवाद आया।
कन्याओं से निधन सुन के कंस का कृष्ण द्वारा।
नाना ग्रामों पुर नगर को फूँकता भू-कँपाता।
सारी सेना सहित मथुरा है जरासन्ध आता॥2॥
ए बातें ज्यों ब्रज-अवनि में हो गई व्यापमाना।
सारे प्राणी अति व्यथित हो, हो गये शोक-मग्न।
क्या होवेगा परम-प्रिय की आपदा क्यों टलेगी।
ऐसी होने प्रति-पल लगीं तर्कनायें उरों में॥3॥
जो होती थी गगन-तल में उत्थिता धूलि यों ही।
तो आशंका विवश बनते लोग थे बावले से।
जो टापें हो ध्वनित उठतीं घोटकों की कहीं भी।
तो होता है हृदय शतधा गोप-गोपांगना का॥4॥
धीरे-धीरे दुख-दिवस ए त्रास के साथ बीते।
लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहों में।
सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम-हाथों।
प्राणों को ले मगध-पति हो भूरि उद्विग्न भागा॥5॥
बारी-बारी ब्रज-अवनि को कम्पमाना बना के।
बातें धावा-मगध-पति की सत्तरा-बार फैलीं।
आया संवाद ब्रज-महि में बार अट्ठार हीं जो।
टूटी आशा अखिल उससे नन्द-गोपादिकों की॥6॥
हा! हाथों से पकड़ अबकी बार ऊबा-कलेजा।
रोते-धोते यह दुखमयी बात जानी सबों ने।
उत्पातों से मगध-नृप के श्याम ने व्यग्र हो के।
त्यागा प्यारा-नगर मथुरा जा बसे द्वारिका में॥7॥
ज्यों होता है शरद त्रातु के बीतने से हताश।
स्वाती-सेवी अतिशय तृष्णावान प्रेमी पपीहा।
वैसे ही श्री कुँवर-वर के द्वारिका में पधारे।
छाई सारी ब्रज-अवनि में सर्वदेशी निराशा॥8॥
प्राणी आशा-कमल-पग को है नहीं त्याग पाता।
सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि में है।
व्यापी भू के उर-तिमिर सी है जहाँ पै निराशा।
हैं आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी॥9॥
आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी।
लाखों ऑंखें पथ कुँवर का आज भी देखती थीं।
मातायें थीं समधिक हुईं शोक दु:खादिकों की।
लोहू आता विकल-दृग में वारि के स्थान में था॥10॥
कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा।
ढालेगा अश्रु कब तक क्यों थाम टूटा-कलेजा।
जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध होके।
कोई होगा बिरत कब लौं विश्व-व्यापी-सुखों से॥11॥
न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की।
ताराओं से खचित नभ की नीलिमा मेघ-माला।
पेड़ों की औ ललित-लतिका-वेलियों की छटायें।
कान्ता-क्रीड़ा सरित सर औ निर्झरों के जलों की॥12॥
मीठी-तानें ‘मधुर-लहरें गान-वाद्यादिकों की।
प्यारी बोली विहग-कुल की बालकों की कलायें।
सारी-शोभा रुचिर-ऋतु की पर्व की उत्सवों की।
वैचित्रयों से बलित धारती विश्व की सम्पदायें॥13॥
संतप्तों का, प्रबल-दुख से दग्ध का, दृष्टि आना।
जो ऑंखों में कुटिल-जग का चित्र सा खींचते हैं।
आख्यानों से सहित सुखदा-सान्त्वना सज्जनों की।
संतानों की सहज ममता पेट-धंधे सहस्रों॥14॥
हैं प्राणी के हृदय-तल को फेरते मोह लेते।
धीरे-धीरे प्रबल-दुख का वेग भी हैं घटाते।
नाना भावों सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से।
वे हैं प्राय: व्यथित-उर की वेदनायें हटाते॥15॥
गोपी-गोपों जनक-जननी बालिका-बालकों के।
चित्तोन्मादी प्रबल-दुख का वेग भी काल पा के।
धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्राय:।
तो भी व्यापी हृदय-तल में श्यामली मूर्ति ही थी॥16॥
वे गाते तो ‘मधुर-स्वर से श्याम की कीर्ति गाते।
प्राय: चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की।
मानी जाती सुतिथि वह थीं पर्व औ उत्सवों की।
थीं लीलायें ललित जिनमें राधिका-कान्त ने की॥17॥
खो देने में विरह-जनिता वेदना किल्विषों के।
ला देने में व्यथित-उर में शान्ति भावानुकूल।
आशा दग्ध जनक-जननी चित्त के बोधने में।
की थी चेष्टा अधिक परमा-प्रेमिका राधिका ने॥18॥
चिन्ता-ग्रस्ता विरह-विधुरा भावना में निमग्ना।
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे होती थीं बहु-उपकृता-नित्य श्री राधिका से।
घंटों आ के पग-कमल के पास वे बैठती थीं॥19॥
जो छा जाती गगन-तल के अंक में मेघ-माला।
जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा।
प्राय: उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा।
तो उन्मत्त-सदृश बन के बालिकायें अनेकों॥20॥
ये बातें थीं स-जल घन को खिन्न हो हो सुनाती।
क्यों तू हो के परम-प्रिय सा वेदना है बढ़ाता।
तेरी संज्ञा सलिल-धार है और पर्जन्य भी है।
ठंढा मेरे हृदय-तल को क्यों नहीं तू बनाता॥21॥
तू केकी को स्व-छवि दिखला है महा मोद देता।
वैसा ही क्यों मुदित तुझसे है पपीहा न होता।
क्यों है मेरा हृदय दुखता श्यामता देख तेरी।
क्यों ए तेरी त्रिविध मुझको मुर्तियाँ दीखती हैं॥22॥
ऐसी ठौरों पहुँच बहुधा राधिका कौशलों से।
ए बातें थीं पुलक कहतीं उन्मना-बालिका से।
देखो प्यारी भगिनि भव को प्यार की दृष्टियों से।
जो थोड़ी भी हृदय-तल में शान्ति की कामना है॥23॥
ला देता है जलद दृग में श्याम की मंजु-शोभा।
पक्षाभा से मुकुट-सुषमा है कलापी दिखाता।
पी का सच्चा प्रणय उर में ऑंकता है पपीहा।
ए बातें हैं सुखद इनमें भाव क्या है व्यथा का॥24॥
होती राका विमल-विधु से बालिका जो विपन्ना।
तो श्री राधा ‘मधुर-स्वर से यों उसे थीं सुनाती।
तेरा होना विकल सुभगे बुध्दिमत्ता नहीं है।
क्या प्यारे की वदन-छवि तू इन्दु में है न पाती॥25॥

मालिनी छन्द

जब कुसुमित होतीं वेलियाँ औ लतायें।
जब ऋतुपति आता आम की मंजरी ले।
जब रसमय होती मेदिनी हो मनोज्ञा।
जब मनसिज लाता मत्त मानसों में॥26॥
जब मलय-प्रसूता-वायु आती सु-सिक्ता।
जब तरु कलिका औ कोंपलों से लुभाता।
जब मधुकर-माला गूँजती कुंज में थी।
जब पुलकित हो हो कूकतीं कोकिलायें॥27॥
तब ब्रज बनता था मूर्ति उद्विग्नता की।
प्रति-जन उर में थी वेदना वृध्दि पाती।
गृह, पथ, वन, कुंजों मध्य थीं दृष्टि आती।
बहु-विकल उनींदी, ऊबती, बालिकायें॥28॥
इन विविध व्यथाओं मध्य डूबे दिनों में।
अति-सरल-स्वभावा सुन्दरी एक बाला।
निशि-दिन फिरती थी प्यार से सिक्त हो के।
गृह, पथ, बहु-बागों, कुंज-पुंजों, वनों में॥29॥
वह सहृदयता से ले किसी मूर्छिता को।
निज अति उपयोगी अंक में यत्न-द्वारा।
मुख पर उसके थी डालती वारि-छींटे।
वर-व्यजन डुलाती थी कभी तन्मयी हो॥30॥
कुवलय-दल बीछे पुष्प औ पल्लवों को।
निज-कलित-करों से थी धारा में बिछाती।
उस पर यक तप्ता बालिका को सुला के।
वह निज कर से थी लेप ठंढे लगाती॥31॥
यदि अति अकुलाती उन्मना-बालिका को।
वह कह मृदु-बातें बोधती कुंज में जा।
वन-वन बिलखाती तो किसी बावली का।
वह ढिग रह छाया-तुल्य संताप खोती॥32॥
यक थल अवनी में लोटती वंचिता का।
तन रज यदि छाती से लगा पोंछती थी।
अपर थल उनींदी मोह-मग्ना किसी को।
वह शिर सहला के गोद में थी सुलाती॥33॥
सुन कर उसमें की आह रोमांचकारी।
वह प्रति-गृह में थी शीघ्र से शीघ्र जाती।
फिर मृदु-वचनों से मोहनी-उक्तियों से।
वह प्रबल-व्यथा का वेग भी थी घटाती॥34॥
गिन-गिन नभ-तारे ऊब आँसू बहा के।
यदि निज-निशि होती कश्चिदर्त्ता बिताती।
वह ढिग उसके भी रात्रि में ही सिधाती।
निज अनुपम राधा-नाम की सार्थता से॥35॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

राधा जाती प्रति-दिवस थीं पास नन्दांगना के।
नाना बातें कथन करके थीं उन्हें बोध देती।
जो वे होतीं परम-व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना।
तो वे आठों पहर उनकी सेवना में बितातीं॥36॥
घंटों ले के हरि-जननि को गोद में बैठती थीं।
वे थीं नाना जतन करतीं पा उन्हें शोक-मग्ना।
धीरे-धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त-पीड़ा।
हाथों से थीं दृग-युगल के वारि को पोंछ देती॥37॥
हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थीं यशोदा।
क्या आवेंगे न अब ब्रज में जीवनाधार मेरे।
तो वे धीरे ‘मधुर-स्वर से हो विनीता बतातीं।
हाँ आवेंगे, व्यथित-ब्रज को श्याम कैसे तजेंगे॥38॥
आता ऐसा कथन करते वारि राधा-दृगों में।
बूँदों-बूँदों टपक पड़ता गाल पै जो कभी था।
जो आँखों से सदुख उसको देख पातीं यशोदा।
तो धीरे यों कथन करतीं खिन्न हो तू न बेटी॥39॥
हो के राधा विनत कहतीं मैं नहीं रो रही हूँ।
आता मेरे दृग युगल में नीर आनन्द का है।
जो होता है पुलक करके आप की चारु सेवा।
हो जाता है प्रकटित वही वारि द्वारा दृगों में॥40॥
वे थीं प्राय: ब्रज-नृपति के पास उत्कण्ठ जातीं।
सेवायें थीं पुलक करतीं क्लान्तियाँ थीं मिटाती।
बातों ही में जग-विभव की तुच्छता थीं दिखाती।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनातीं॥41॥
होती मारे मन यदि कहीं गोप की पंक्ति बैठी।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता।
तो कार्यों में सविधि उनको यत्नत: वे लगातीं।
औ ए बातें कथन करतीं भूरि गंभीरता से॥42॥
जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को हैं।
तो पा भू में पुरुष-तन को, खिन्न हो के न बैठें।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिये कार्य्य ऐसे।
जो प्यारे हैं परम प्रिय के विश्व के प्रेमिकों के॥43॥
जो वे होता मलिन लखतीं गोप के बालकों को।
देतीं पुष्पों रचित उनको मुग्धकारी खिलौने।
दे शिक्षायें विविध उनसे कृष्ण-लीला करातीं।
घंटों बैठी परम-रुचि से देखतीं तद्गता हो॥44॥
पाई जातीं दुखित जितनी अन्य गोपांगनायें।
राधा द्वारा सुखित वह भी थीं यथा रीति होती।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के।
प्यारी-बातें कथन करके वे उन्हें बोध देतीं॥45॥
संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना-कार्य्य में भी।
वे सेवा थीं सतत करती वृध्द-रोगी जनों की।
दीनों, हीनों, निबल विधवा आदि को मनाती थीं।
पूजी जाती ब्रज-अवनि में देवियों सी अत: थीं॥46॥
खो देती थीं कलह-जनिता आधि के दुर्गुणों को।
धो देती थीं मलिन-मन की व्यापिनी कालिमायें।
बो देती थीं हृदय-तल के बीज भावज्ञता का।
वे थीं चिन्ता-विजित-गृह में शान्ति-धारा बहाती॥47॥
आटा चींटी विहग गण थे वारि औ अन्न पाते।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी।
पत्तों को भी न तरु-वर के वे वृथा तोड़ती थीं।
जी से वे थीं निरत रहती भूत-सम्वर्ध्दना में॥48॥
वे छाया थीं सु-जन शिर की शासिका थीं खलों कीं।
कंगालों की परम निधि थीं औषधी पीड़ितों की।
दीनों की थीं बहिन, जननी थीं अनाथाश्रितों की।
आराधया थीं ब्रज-अवनि की प्रेमिका विश्व की थीं॥49॥
जैसा व्यापी विरह-दुख था गोप गोपांगना का।
वैसी ही थीं सदय-हृदया स्नेह ही मुर्ति राधा।
जैसी मोहावरित-ब्रज में तामसी-रात आई।
वैसे ही वे लसित उसमें कौमुदी के समा थीं॥50॥
जो थीं कौमार-व्रत-निरता बालिकायें अनेकों।
वे भी पा के समय ब्रज में शान्ति विस्तारती थीं।
श्री राधा के हृदय-बल से दिव्य शिक्षा गुणों से।
वे भी छाया-सदृश उनकी वस्तुत: हो गई थीं॥51॥
तो भी आई न वह घटिका औ न वे वार आये।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते।
वैसे उन्माद-कर-स्वर से कोकिला भी न बोली॥52॥
जीते भूले न ब्रज-महि के नित्य उत्कण्ठ प्राणी।
जी से प्यारे जलद-तन को, केलि-क्रीड़ादिकों को।
पीछे छाया विरह-दुख की वंशजों-बीच व्यापी।
सच्ची यों है ब्रज-अवनि में आज भी अंकिता है॥53॥
सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे।
राधा जैसी सदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता।
हे विश्वात्मा! भरत-भुव के अंक में और आवें।
ऐसी व्यापी विरह-घटना किन्तु कोई न होवे॥54॥
समाप्त

लेखक

  • अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

    अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। उनके पिता पंडित भोलानाथ उपाध्याय ने सिख धर्म अपना कर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था । हरिऔध जी ने निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास की, किंतु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया और १८८४ में निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक हो गए । सन १८८९ में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी से सन १९३२ में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप में १९३२ से १९४१ तक अध्यापन कार्य किया। उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं: - प्रिय प्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई ।

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प्रिय प्रवास सर्ग11-17/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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