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प्रिय प्रवास सर्ग1-10/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

1. प्रथम सर्ग

दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥1॥
विपिन बीच विहंगम वृंद का।
कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ।
ध्वनिमयी-विविधा विहगावली।
उड़ रही नभ-मंडल मध्य थी॥2॥
अधिक और हुई नभ-लालिमा।
दश-दिशा अनुरंजित हो गई।
सकल-पादप-पुंज हरीतिमा।
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई॥3॥
झलकने पुलिनों पर भी लगी।
गगन के तल की यह लालिमा।
सरि सरोवर के जल में पड़ी।
अरुणता अति ही रमणीय थी॥4॥
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी।
किरण पादप-शीश-विहारिणी।
तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला।
गगन-मंडल मध्य शनैः शनैः॥5॥
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कंदरा।
कलित कानन केलि निकुंज को।
बज उठी मुरली इस काल ही।
तरणिजा तट राजित कुंज में॥6॥
कणित मंजु-विषाण हुए कई।
रणित शृंग हुए बहु साथ ही।
फिर समाहित-प्रान्तर-भाग में।
सुन पड़ा स्वर धावित-धेनु का॥7॥
निमिष में वन-व्यापित-वीथिका।
विविध-धेनु-विभूषित हो गई।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी।
विलसता जिनके दल साथ था॥8॥
जब हुए समवेत शनैः शनैः।
सकल गोप सधेनु समंडली।
तब चले ब्रज-भूषण को लिये।
अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को॥9॥
गगन मंडल में रज छा गई।
दश-दिशा बहु शब्द-मयी हुई।
विशद-गोकुल के प्रति-गेह में।
बह चला वर-स्रोत विनोद का॥10॥
सकल वासर आकुल से रहे।
अखिल-मानव गोकुल-ग्राम के।
अब दिनांत विलोकित ही बढ़ी।
ब्रज-विभूषण-दर्शन-लालसा॥11॥
सुन पड़ा स्वर ज्यों कल-वेणु का।
सकल-ग्राम समुत्सुक हो उठा।
हृदय-यंत्र निनादित हो गया।
तुरत ही अनियंत्रित भाव से॥12॥
बहु युवा युवती गृह-बालिका।
विपुल-बालक वृद्ध व्यस्क भी।
विवश से निकले निज गेह से।
स्वदृग का दुख-मोचन के लिए॥13॥
इधर गोकुल से जनता कढ़ी।
उमगती पगती अति मोद में।
उधर आ पहुँची बलबीर की।
विपुल-धेनु-विमंडित मंडली॥14॥
ककुभ-शोभित गोरज बीच से।
निकलते ब्रज-बल्लभ यों लसे।
कदन ज्यों करके दिशि कालिमा।
विलसता नभ में नलिनीश है॥15॥
अतसि पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद नील-सरोरुह रंजिनी।
नवल-सुंदर-श्याम-शरीर की।
सजल-नीरद सी कल-कांति थी॥16॥
अति-समुत्तम अंग समूह था।
मुकुर-मंजुल औ मनभावना।
सतत थी जिसमें सुकुमारता।
सरसता प्रतिबिंबित हो रही॥17॥
बिलसता कटि में पट पीत था।
रुचिर वस्त्र विभूषित गात था।
लस रही उर में बनमाल थी।
कल-दुकूल-अलंकृत स्कंध था॥18॥
मकर-केतन के कल-केतु से।
लसित थे वर-कुंडल कान में।
घिर रही जिनकी सब ओर थी।
विविध-भावमयी अलकावली॥19॥
मुकुट मस्तक था शिखि-पक्ष का।
मधुरिमामय था बहु मंजु था।
असित रत्न समान सुरंजिता।
सतत थी जिसकी वर चंद्रिका॥20॥
विशद उज्ज्वल उन्नत भाल में।
विलसती कल केसर-खौर थी।
असित-पंकज के दल में यथा।
रज-सुरंजित पीत-सरोज की॥21॥
मधुरता-मय था मृदु-बोलना।
अमृत-सिंचित सी मुस्कान थी।
समद थी जन-मानस मोहती।
कमल-लोचन की कमनीयता॥22॥
सबल-जानु विलंबित बाहु थी।
अति-सुपुष्ट-समुन्नत वक्ष था।
वय-किशोर-कला लसितांग था।
मुख प्रफुल्लित पद्म समान था॥23॥
सरस-राग-समूह सहेलिका।
सहचरी मन मोहन-मंत्र की।
रसिकता-जननी कल-नादिनी।
मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी॥24॥
छलकती मुख की छवि-पुंजता।
छिटकती क्षिति छू तन की घटा।
बगरती बर दीप्ति दिगंत में।
क्षितिज में क्षणदा-कर कांति सी॥25॥
मुदित गोकुल की जन-मंडली।
जब ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।
निरखने मुख की छवि यों लगी।
तृषित-चातक ज्यों घन की घटा॥26॥
पलक लोचन की पड़ती न थी।
हिल नहीं सकता तन-लोम था।
छवि-रता बनिता सब यों बनी।
उपल निर्मित पुत्तलिका यथा॥27॥
उछलते शिशु थे अति हर्ष से।
युवक थे रस की निधि लूटते।
जरठ को फल लोचन का मिला।
निरख के सुषमा सुखमूल की॥28॥
बहु-विनोदित थीं ब्रज-बालिका।
तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़तीं।
बलि गईं बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥29॥
मुरलिका कर-पंकज में लसी।
जब अचानक थी बजती कभी।
तब सुधारस मंजु-प्रवाह में।
जन-समागम था अवगाहता॥30॥
ढिग सुसोभित श्रीबलराम थे।
निकट गोप-कुमार-समूह था।
विविध गातवती गरिमामयी।
सुरभि थीं सब ओर विराजती॥31॥
बज रहे बहु-शृंग-विषाण थे।
क्वणित हो उठता वर-वेणु था।
सरस-राग-समूह अलाप से।
रसवती-बन थी मुदिता-दिशा॥32॥
विविध-भाव-विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहु दर्शक-मंडली।
अति मनोहर थी बनती कभी।
बज किसी कटि की कलकिंकिणी॥33॥
इधर था इस भाँति समा बँधा।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही।
अब न था उसमें रवि राजता।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं॥34॥
अरुणिमा-जगती-तल-रंजिनी।
वहन थी करती अब कालिमा।
मलिन थी नव-राग-मयी-दिशा।
अवनि थी तमसावृत हो रही॥35॥
तिमिर की यह भूतल-व्यापिनी।
तरल-धार विकास-विरोधिनी।
जन-समूह-विलोचन के लिए।
बन गई प्रति-मूर्ति विराम की॥36॥
द्युतिमयी उतनी अब थी नहीं।
नयन की अति दिव्य कनीनिका।
अब नहीं वह थी अवलोकती।
मधुमयी छवि श्री घनश्याम की॥37॥
यह अभावुकता तम-पुंज की।
सह सकी न नभस्थल तारका।
वह विकाश-विवर्द्धन के लिए।
निकलने नभ मंडल में लगी॥38॥
तदपि दर्शक-लोचन-लालसा।
फलवती न हुई तिलमात्र भी।
यह विलोक विलोचन दीनता।
सकुचने सरसीरुह भी लगे॥39॥
खग-समूह न था अब बोलता।
विटप थे बहुत नीरव हो गए।
मधुर मंजुल मत्त अलाप के।
अब न यंत्र बने तरु-वृंद थे॥40॥
विगह औ विटपी-कुल मौनता।
प्रकट थी करती इस मर्म को।
श्रवण को वह नीरव थे बने।
करुण अंतिम-वादन वेणु का॥41॥
विहग-नीरवता-उपरांत ही।
रुक गया स्वर शृंग विषाण का।
कल-अलाप समापित हो गया।
पर रही बजती वर-वंशिका॥42॥
विविध-मर्म्मभरी करुणामयी।
ध्वनि वियोग-विराग-विवोधिनी।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगंत में।
फिर समीरण में वह भी मिली॥43॥
ब्रज-धरा-जन जीवन-यंत्रिका।
विटप-वेलि-विनोदित-कारिणी।
मुरलिका जन-मानस-मोहिनी।
अहह नीरवता निहिता हुई॥44॥
प्रथम ही तम की करतूत से।
छवि न लोचन थे अवलोकते।
अब निनाद रुके कल-वेणु का।
श्रवण पान न था करता सुधा॥45॥
इसलिए रसना-जन-वृंद की।
सरस-भाव समुत्सुकता पगी।
ग्रथन गौरव से करने लगी।
ब्रज-विभूषण की गुण-मालिका॥46॥
जब दशा यह थी जन-यूथ की।
जलज-लोचन थे तब जा रहे।
सहित गोगण गोप-समूह के।
अवनि-गौरव-गोकुल ग्राम में॥47॥
कुछ घड़ी यह कांत क्रिया हुई।
फिर हुआ इसका अवसान भी।
प्रथम थी बहु धूम मची जहाँ।
अब वहाँ बढ़ता सुनसान था॥48॥
कर विदूरित लोचन लालसा।
स्वर प्रसूत सुधा श्रुति को पिला।
गुण-मयी रसनेन्द्रिय को बना।
गृह गये अब दर्शक-वृंद भी॥49॥
प्रथम थी स्वर की लहरी जहाँ।
पवन में अधिकाधिक गूँजती।
कल अलाप सुप्लावित था जहाँ।
अब वहाँ पर नीरवता हुई॥50॥
विशद-चित्रपटी ब्रजभूमि की।
रहित आज हुई वर चित्र से।
छवि यहाँ पर अंकित जो हुई।
अहह लोप हुई सब-काल को॥51॥

2. द्वितीय सर्ग
द्रुतविलंबित छंद

गत हुई अब थी द्वि-घटी निशा।
तिमिर-पूरित थी सब मेदिनी।
बहु विमुग्ध करी बन थी लसी।
गगन मंडल तारक-मालिका॥1॥
तम ढके तरु थे दिखला रहे।
तमस-पादप से जन-वृंद को।
सकल गोकुल गेह-समूह भी।
तिमिर-निर्मित सा इस काल था॥2॥
इस तमो-मय गेह-समूह का।
अति-प्रकाशित सर्व-सुकक्ष था।
विविध ज्योति-निधान-प्रदीप थे।
तिमिर-व्यापकता हरते जहाँ॥3॥
इस प्रभा-मय-मंजुल-कक्ष में।
सदन की करके सकला क्रिया।
कथन थीं करतीं कुल-कामिनी।
कलित कीर्ति ब्रजाधिप-तात की॥4॥
सदन-सम्मुख के कल ज्योति से।
ज्वलित थे जितने वर-बैठके।
पुरुष-जाति वहाँ समवेत हो।
सुगुण-वर्णन में अनुरक्त थी॥5॥
रमणियाँ सब ले गृह–बालिका।
पुरुष लेकर बालक-मंडली।
कथन थे करते कल-कंठ से।
ब्रज-विभूषण की विरदावली॥6॥
सब पड़ोस कहीं समवेत था।
सदन के सब थे इकठे कहीं।
मिलित थे नरनारि कहीं हुए।
चयन को कुसुमावलि कीर्ति की॥7॥
रसवती रसना बल से कहीं।
कथित थी कथनीय गुणावली।
मधुर राग सधे स्वर ताल में।
कलित कीर्ति अलापित थी कहीं॥8॥
बज रहे मृदु मंद मृदंग थे।
ध्वनित हो उठता करताल था।
सरस वादन से वर बीन के।
विपुल था मधु-वर्षण हो रहा॥9॥
प्रति निकेतन से कल-नाद की।
निकलती लहरी इस काल थी।
मधुमयी गलियाँ सब थीं बनी।
ध्वनित सा कुल गोकुल-ग्राम था।10॥
सुन पड़ी ध्वनि एक इसी घड़ी।
अति-अनर्थकरी इस ग्राम में।
विपुल वादित वाद्य-विशेष से।
निकलती अब जो अविराम थी॥11॥
मनुज एक विघोषक वाद्य की।
प्रथम था करता बहु ताड़ना।
फिर मुकुंद-प्रवास-प्रसंग यों।
कथन था करता स्वर–तार से॥12॥
अमित विक्रम कंस नरेश ने।
धनुष-यज्ञ विलोकन के लिए।
कुल समादर से ब्रज-भूप को।
कुँवर संग निमंत्रित है किया॥13॥
यह निमंत्रण लेकर आज ही।
सुत-स्वफल्क समागत हैं हुए।
कल प्रभात हुए मथुरापुरी।
गमन भी अवधारित हो चुका॥14॥
इस सुविस्तृत-गोकुल ग्राम में।
निवसते जितने वर-गोप हैं।
सकल को उपढौकन आदि ले।
उचित है चलना मथुरापुरी॥15॥
इसलिए यह भूपनिदेश है।
सकल-गोप समाहित हो सुनो।
सब प्रबंध हुआ निशि में रहे।
कल प्रभात हुए न विलंब हो॥16॥
निमिष में यह भीषण घोषणा।
रजनि-अंक-कलंकित-कारिणी।
मृदु-समीरण के सहकार से।
अखिल गोकुल-ग्राममयी हुई॥17॥
कमल-लोचन कृष्ण-वियोग की।
अशनि-पात-समा यह सूचना।
परम-आकुल-गोकुल के लिए।
अति-अनिष्टकरी घटना हुई॥18॥
चकित भीत अचेतन सी बनी।
कँप उठी कुलमानव-मंडली।
कुटिलता कर याद नृशंस की।
प्रबल और हुई उर-वेदना॥19॥
कुछ घड़ी पहले जिस भूमि में।
प्रवहमान प्रमोद-प्रवाह था।
अब उसी रस प्लावित भूमि में।
बह चला खर स्रोत विषाद का॥20॥
कर रहे जितने कल गान थे।
तुरत वे अति कुंठित हो उठे।
अब अलाप अलौकिक कंठ के।
ध्वनित थे करते न दिगंत को॥21॥
उतर तार गए बहु बीन के।
मधुरता न रही मुरजादि में।
विवशता-वश वादक-वृंद के।
गिर गए कर के करताल भी॥22॥
सकल-ग्रामवधू कल कंठता।
परम-दारुण-कातरता बनी।
हृदय की उनकी प्रिय-लालसा।
विविध-तर्क वितर्क-मयी हुई॥23॥
दुख भरी उर-कुत्सित-भावना।
मथन मानस को करने लगी।
करुण प्लावित लोचन कोण में।
झलकने जल के कण भी लगे॥24॥
नव-उमंग-मयी पुर-बालिका।
मलिन और सशंकित हो गई।
अति-प्रफुल्लित बालक-वृंद का।
वदन-मंडल भी कुम्हला गया॥25॥
ब्रज धराधिप तात प्रभात ही।
कल हमें तज के मथुरा चले।
असहनीय जहाँ सुनिए वहीं।
बस यही चरचा इस काल थी॥26॥
सब परस्पर थे कहते यही।
कमल-नेत्र निमंत्रित क्यों हुए।
कुछ स्वबंधु समेत ब्रजेश का।
गमन ही, सब भाँति यथेष्ट था॥27॥
पर निमंत्रित जो प्रिय हैं हुए।
कपट भी इसमें कुछ है सही।
दुरभिसंधि नृशंस-नृपाल की।
अब न है ब्रज-मंडल में छिपी॥28॥
विवश है करती विधि वामता।
कुछ बुरे दिन हैं ब्रज-भूमि के।
हम सभी अतिही-हतभाग्य हैं।
उपजती नित जो नव-व्याधि है॥29॥
किस परिश्रम और प्रयत्न से।
कर सुरोत्तम की परिसेवना।
इस जराजित-जीवन-काल में।
महर को सुत का मुख है दिखा॥30॥
सुअन भी सुर विप्र प्रसाद से।
अति अपूर्व अलौकिक है मिला।
निज गुणावलि से इस काल जो।
ब्रज-धरा-जन जीवन प्राण है॥31॥
पर बड़े दुख की यह बात है।
विपद जो अब भी टलती नहीं।
अहह है कहते बनती नहीं।
परम-दग्धकरी उर की व्यथा॥32॥
जनम की तिथि से बलवीर की।
बहु-उपद्रव हैं ब्रज में हुए।
विकटता जिन की अब भी नहीं।
हृदय से अपसारित हो सकी॥33॥
परम-पातक की प्रतिमूर्ति सी।
अति अपावनतामय-पूतना।
पय-अपेय पिला कर श्याम को।
कर चुकी ब्रज-भूमि विनाश थी॥34॥
पर किसी चिर-संचित-पुण्य से।
गरल अमृत अर्भक को हुआ।
विष-मयी वह होकर आप ही।
कवल काल-भुजंगम का हुई॥35॥
फिर अचानक धूलिमयी महा।
दिवस एक प्रचंड हवा चली।
श्रवण से जिसकी गुरु-गर्जना।
कँप उठा सहसा उर दिग्वधू॥36॥
उपल वृष्टि हुई तम छा गया।
पट गई महि कंकर-पात से।
गड़गड़ाहट वारिद-व्यूह की।
ककुभ में परिपूरित हो गई॥37॥
उखड़ पेड़ गए जड़ से कई।
गिर पड़ीं अवनी पर डालियाँ।
शिखर भग्न हुए उजड़ीं छतें।
हिल गए सब पुष्ट निकेत भी॥38॥
बहु रजोमय आनन हो गया।
भर गए युग-लोचन धूलि से।
पवन-वाहित-पांशु-प्रहार से।
गत बुरी ब्रज-मानव की हुई॥39॥
घिर गया इतना तम-तोम था।
दिवस था जिससे निशि हो गया।
पवन-गर्जन औ घन-नाद से।
कँप उठी ब्रज-सर्व वसुंधरा॥40॥
प्रकृति थी जब यों कुपिता महा।
हरि अदृश्य अचानक हो गए।
सदन में जिस से ब्रज-भूप के।
अति-भयानक-क्रंदन हो उठा॥41॥
सकल-गोकुल था यक तो दुखी।
प्रबल-वेग प्रभंजन-आदि से।
अब दशा सुन नंद-निकेत की।
पवि-समाहत सा वह हो गया॥42॥
पर व्यतीत हुए द्विघटी टली।
यह तृणावरतीय विडंबना।
पवन-वेग रुका तम भी हटा।
जलद-जाल तिरोहित हो गया॥43॥
प्रकृति शांत हुई वर व्योम में।
चमकने रवि की किरणें लगीं।
निकट ही निज सुंदर सद्म के।
किलकते हँसते हरि भी मिले॥44॥
अति पुरातन पुण्य ब्रजेश का।
उदय था इस काल स्वयं हुआ।
पतित हो खर वायु-प्रकोप में।
कुसुम-कोमल बालक जो बचा॥45॥
शकट-पात ब्रजाधिप पास ही।
पतन अर्जुन से तरु राज का।
पकड़ना कुलिशोषम चंचु से।
खल बकासुर का बलवीर को॥46॥
वधन-उद्यम दुर्जय-वत्स का।
कुटिलता अघ संज्ञक-सर्प की।
विकट घोटक की अपकारिता।
हरि निपातन यत्न अरिष्ट का॥47॥
कपट-रूप-प्रलंब प्रवंचना।
खलपना-पशुपालक-व्योम का।
अहह ए सब घोर अनर्थ थे।
ब्रज-विभूषण हैं जिनसे बचे॥48॥
पर दुरंत-नराधिप कंस ने।
अब कुचक्र भयंकर है रचा।
युगल बालक संग ब्रजेश जो।
कल निमंत्रित हैं मख में हुए॥49॥
गमन जो न करें बनती नहीं।
गमन से सब भाँति विपत्ति है।
जटिलता इस कौशल जाल की।
अहह है अति कष्ट प्रदायिनी॥50॥
प्रणतपाल कृपानिधि श्रीपते।
फलद है प्रभु का पद-पद्म ही।
दुख-पयोनिधि मज्जित का वही।
जगत में परमोत्तम पोत है॥51॥
विषम संकट में ब्रज है पड़ा।
पर हमें अवलंबन है वही।
निबिड़ पामरता, तम हो चला।
पर प्रभो बल है नख-ज्योति का॥52॥
विपद ज्यों बहुधा कितनी टली।
प्रभु कृपाबल त्यों यह भी टले।
दुखित मानस का करुणानिधे।
अति विनीत निवेदन है यही॥53॥
ब्रज-विभाकर ही अवलंब हैं।
हम सशंकित प्राणि-समूह के।
यदि हुआ कुछ भी प्रतिकूल तो।
ब्रज-धरा तमसावृत हो चुकी॥54॥
पुरुष यों करते अनुताप थे।
अधिक थीं व्यथिता ब्रज-नारियाँ।
बन अपार-विषाद-उपेत वे।
बिलख थीं दृग वारि विमोचतीं॥55॥
दुख प्रकाशन का क्रम नारि का।
अधिक था नर के अनुसार ही।
पर विलाप कलाप बिसूरना।
बिलखना उनमें अतिरिक्त था॥56॥
ब्रज-धरा-जन की निशि साथ ही।
विकलता परिवर्द्धित हो चली।
तिमिर साथ विमोहक शोक भी।
प्रबल था पल ही पल रो रहा॥57॥
विशद-गोकुल बीच विषाद की।
अति-असंयत जो लहरें उठीं।
बहु विवर्द्धित हो निशि–मध्य ही।
ब्रज-धरातलव्यापित वे हुईं॥58॥
विलसती अब थी न प्रफुल्लता।
न वह हास विलास विनोद था।
हृदय कंपित थी करती महा।
दुखमयी ब्रज-भूमि-विभीषिका॥59॥
तिमिर था घिरता बहु नित्य ही।
पर घिरा तम जो निशि आज की।
उस विषाद-महातम से कभी।
रहित हो न सकी ब्रज की धरा॥60॥
बहु-भयंकर थी यह यामिनी।
बिलपते ब्रज भूतल के लिए।
तिमिर में जिसके उसका शशी।
बहु-कला युत होकर खो चला॥61॥
घहरती घिरती दुख की घटा।
यह अचानक जो निशि में उठी।
वह ब्रजांगण में चिर काल ही।
बरसती बन लोचनवारि थी॥62॥
ब्रज-धरा-जन के उर मध्य जो।
विरह-जात लगी यह कालिमा।
तनिक धो न सका उस को कभी।
नयन का बहु-वारि-प्रवाह भी॥63॥
सुखद थे बहु जो जन के लिए।
फिर नहीं ब्रज के दिन वे फिरे।
मलिनता न समुज्वलता हुई।
दुख-निशा न हुई सुख की निशा॥64॥

3. तृतीय सर्ग
द्रुतविलंबित छंद

समय था सुनसान निशीथ का।
अटल भूतल में तम-राज्य था।
प्रलय-काल समान प्रसुप्त हो।
प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत थी॥1॥
परम-धीर समीर-प्रवाह था।
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ।
गति हुई अथवा अति-धीर थी।
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के॥2॥
सकल-पादप नीरव थे खड़े।
हिल नहीं सकता यक पत्र था।
च्युत हुए पर भी वह मौन ही।
पतित था अवनी पर हो रहा॥3॥
विविध-शब्द-मयी वन की धरा।
अति-प्रशांत हुई इस काल थी।
ककुभ औ नभ-मंडल में नहीं।
रह गया रव का लवलेश था॥4॥
सकल-तारक भी चुपचाप ही।
बितरते अवनी पर ज्योति थे।
बिकटता जिस से तम-तोम की।
कियत थी अपसारित हो रही॥5॥
अवश तुल्य पड़ा निशि अंक में।
अखिल-प्राणि-समूह अवाक था।
तरु-लतादिक बीच प्रसुप्ति की।
प्रबलता प्रतिबिंबित थी हुई॥6॥
रुक गया सब कार्य-कलाप था।
वसुमती-तल भी अति-मूक था।
सचलता अपनी तज के मनों।
जगत था थिर होकर सो रहा॥7॥
सतत शब्दित गेह समूह में।
विजनता परिवर्द्धित थी हुई।
कुछ विनिद्रित हो जिनमें कहीं।
झनकता यक झींगुर भी न था॥8॥
बदन से तज के मिष धूम के।
शयन-सूचक श्वास-समूह को।
झलमलाहट-हीन-शिखा लिए।
परम-निद्रित सा गृह-दीप था॥9॥
भनक थी निशि-गर्भ तिरोहिता।
तम-निमज्जित आहट थी हुई।
निपट नीरवता सब ओर थी।
गुण-विहीन हुआ जनु व्योम था॥10॥
इस तमोमय मौन निशीथ की।
सहज-नीरवता क्षिति-व्यापिनी।
कलुपिता ब्रज की महि के लिए।
तनिक थी न विराम प्रदायिनी॥11॥
दलन थी करती उसको कभी।
रुदन की ध्वनि दूर समागता।
वह कभी बहु थी प्रतिघातता।
जन-विवोधक-कर्कश-शब्द से॥12॥
कल प्रयाण निमित्त जहाँ-तहाँ।
वहन जो करते बहु वस्तु थे।
श्रम-सना उनका रव-प्रायश:।
कर रहा निशि-शांति विनाश था॥13॥
प्रगटती बहु-भीषण मूर्ति थी।
कर रहा भय तांडव नृत्य था।
बिकट-दंट भयंकर-प्रेत भी।
बिचरते तरु-मूल-समीप थे॥14॥
वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी।
भय-प्रदर्शन थी करती महा।
निकलती जिससे अविराम थी।
अनल की अति-त्रासकरी-शिखा॥15॥
तिमिर-लीन-कलेवर को लिए।
विकट-दानव पादप थे बने।
भ्रममयी जिसकी विकरालता।
चलित थी करती पवि-चित्त को॥16॥
अति-सशंकित और सभीत हो।
मन कभी यह था अनुमानता।
ब्रज समूल विनाशन को खड़े।
यह निशाचर हैं नृप-कंस के॥17॥
अति-भयानक-भूमि मसान की।
बहन थी करती शव-राशि को।
बहु-विभीषणता जिनकी कभी।
दृग नहीं सकते अवलोक थे॥18॥
बिकट-दंत दिखाकर खोपड़ी।
कर रही अति-भैरव-हास थी।
विपुल-अस्थि-समूह विभीषिका।
भर रही भय थी बन भैरवी॥19॥
इस भयंकर-घोर-निशीथ में।
विकलता अति-कातरता-मयी।
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही।
निपट-नीरव-नंद-निकेत में॥20॥
सित हुए अपने मुख-लोम को।
कर गहे दुखव्यंजक भाव से।
विषम-संकट बीच पड़े हुए।
बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥21॥
हृदय-निर्गत वाष्प समूह से।
सजल थे युग-लोचन हो रहे।
बदन से उनके चुपचाप ही।
निकलती अति-तप्त उसास थी॥22॥
शयित हो अति-चंचल-नेत्र से।
छत कभी वह थे अवलोकते।
टहलते फिरते स-विषाद थे।
वह कभी निज निर्जन कक्ष में॥23॥
जब कभी बढ़ती उर की व्यथा।
निकट जा करके तब द्वार के।
वह रहे नभ नीरव देखते।
निशि-घटी अवधारण के लिए॥24॥
सब-प्रबंध प्रभात-प्रयाण के।
यदिच थे रव-वर्जित हो रहे।
तदपि रो पड़ती सहसा रहीं।
विविध-कार्य-रता गृहदासियाँ॥25॥
जब कभी यह रोदन कान में।
ब्रज-धराधिप के पड़ता रहा।
तड़पते तब यों वह तल्प पै।
निशित-शायक-विद्धजनो यथा॥26॥
ब्रज-धरा-पति कक्ष समीप ही।
निपट-नीरव कक्ष विशेष में।
समुद थे ब्रज-वल्लभ सो रहे।
अति-प्रफुल्ल मुखांबुज मंजु था॥27॥
निकट कोमल तल्प मुकुंद के।
कलपती जननी उपविष्ट थी।
अति-असंयत अश्रु-प्रवाह से।
वदन-मंडल प्लावित था हुआ॥28॥
हृदय में उनके उठती रही।
भय-भरी अति-कुत्सित-भावना।
विपुल-व्याकुल वे इस काल थीं।
जटिलता-वश कौशल-जाल की॥29॥
परम चिंतित वे बनती कभी।
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से।
व्यथित था उनको करता कभी।
परम-त्रास महीपति-कंस का॥30॥
पट हटा सुत के मुख कंज की।
विचकता जब थीं अवलोकती।
विवश सी जब थीं फिर देखती।
सरलता, मृदुता, सुकुमारता॥31॥
तदुपरांत नृपाधम-नीति की।
अति भयंकरता जब सोचतीं।
निपतिता तब होकर भूमि में।
करुण क्रंदन वे करती रहीं॥32॥
हरि न जाग उठें इस सोच से।
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं।
इसलिए उन का दुख-वेग से।
हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥
महरि का यह कष्ट विलोक के।
धुन रहा सिर गेह-प्रदीप था।
सदन में परिपूरित दीप्ति भी।
सतत थी महि-लुंठित हो रही॥34॥
पर बिना इस दीपक-दीप्ति के।
इस घड़ी इस नीरव-कक्ष में।
महरि का न प्रबोधक और था।
इसलिए अति पीड़ित वे रहीं॥35॥
वरन कंपित-शीश प्रदीप भी।
कर रहा उनको बहु-व्यग्र था।
अति-समुज्वल-सुंदर-दीप्ति भी।
मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥
जब कभी घटता दुख-वेग था।
तब नवा कर वे निज-शीश को।
महि विलंबित हो कर जोड़ के।
विनय यों करती चुपचाप थीं॥37॥
सकल-मंगल-मूल कृपानिधे।
कुशलतालय हे कुल-देवता।
विपद संकुल है कुल हो रहा।
विपुल वांछित है अनुकूलता॥38॥
परम-कोमल-बालक श्याम ही।
कलपते कुल का यक चिन्ह है।
पर प्रभो! उसके प्रतिकूल भी।
अति-प्रचंड समीरण है उठा॥39॥
यदि हुई न कृपा पद-कंज की।
टल नहीं सकती यह आपदा।
मुझ सशंकित को सब काल ही।
पद-सरोरुह का अवलंब है॥40॥
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही।
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है।
यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही।
अति अपेक्षित है इस काल भी॥41॥
समझ के पद-पंकज-सेविका।
कर सकी अपराध कभी नहीं।
पर शरीर मिले सब भाँति में।
निरपराध कहा सकती नहीं॥42॥
इस लिये मुझसे अनजान में।
यदि हुआ कुछ भी अपराध हो।
वह सभी इस संकट-काल में।
कुलपते! सब ही विधि क्षम्य है॥43॥
प्रथम तो सब काल अबोध की।
सरल चूक उपेक्षित है हुई।
फिर सदाशय आशय सामने।
परम तुच्छ सभी अपराध हैं॥44॥
सरलता-मय-बालक श्याम तो।
निरपराध, नितांत-निरीह है।
इस लिये इस काल दयानिधे।
वह अतीव-अनुग्रह-पात्र है॥45॥

मालिनी छंद

प्रमुदित मथुरा के मानवों को बना के।
सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के।
निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो।
जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी हमारे॥46॥
प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा।
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से।
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज-पूजा।
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥47॥

द्रुतविलंबित छंद

यह प्रलोभन है न कृपानिधे।
यह अकोर प्रदान न है प्रभो।
वरन है यह कातर–चित्त की।
परम-शांतिमयी-अवतारणा॥48॥
कलुष-नाशिनि दुष्ट-निकंदिनी।
जगत की जननी भव–वल्लभे।
जननि के जिय की सकला व्यथा।
जननि ही जिय है कुछ जानता॥49॥
अवनि में ललना जन जन्म को।
विफल है करती अनपत्यता।
सहज जीवन को उसके सदा।
वह सकंटक है करती नहीं॥50॥
उपजती पर जो उर व्याधि है।
सतत संतति संकट-शोच से।
वह सकंटक ही करती नहीं।
वरन जीवन है करती वृथा॥51॥
बहुत चिंतित थी पद-सेविका।
प्रथम भी यक संतति के लिए।
पर निरंतर संतति-कष्ट से।
हृदय है अब जर्जर हो रहा॥52॥
जननि जो उपजी उर में दया।
जरठता अवलोक-स्वदास की।
बन गई यदि मैं बड़भागिनी।
तब कृपाबल पाकर पुत्र को॥53॥
किस लिये अब तो यह सेविका।
बहु निपीड़ित है नित हो रही।
किस लिये, तब बालक के लिये।
उमड़ है पड़ती दुख की घटा॥54॥
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना।
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है।
दलन को उसके भव-वल्लभे।
अब न क्या बल है तव बाहु में॥55॥
स्वसुत रक्षण औ पर-पुत्र के।
दलन की यह निर्म्मम प्रार्थना।
बहुत संभव है यदि यों कहें।
सुन नहीं सकती ‘जगदंबिका’॥56॥
पर निवेदन है यह ज्ञानदे।
अबल का बल केवल न्याय है।
नियम-शालिनि क्या अवमानना।
उचित है विधि-सम्मत-न्याय की॥57॥
परम क्रूर-महीपति-कंस की।
कुटिलता अब है अति कष्टदा।
कपट-कौशल से अब नित्य ही।
बहुत-पीड़ित है ब्रज की प्रजा॥58॥
सरलता-मय-बालक के लिए।
जननि! जो अब कौशल है हुआ।
सह नहीं सकता उसको कभी।
पवि विनिर्मित मानव-प्राण भी॥59॥
कुबलया सम मत्त-गजेन्द्र से।
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी।
वह महा सुकुमार कुमार से।
रण-निमित्त सुसज्जित है हुआ॥60॥
विकट-दर्शन कज्जल-मेरु सा।
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी।
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है।
यक पयो-मुख बालक के लिये॥61॥
व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं।
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ।
मृदु-कुरंगम शावक से कभी।
पतन हो न सका हिम शैल का॥62॥
विदित है बल, वज्र-शरीरता।
बिकटता शल तोशल कूट की।
परम है पटु मुष्टि-प्रहार में।
प्रबल मुष्टिक संज्ञक मल्ल भी॥63॥
पृथुल-भीम-शरीर भयावने।
अपर हैं जितने मल कंस के।
सब नियोजित हैं रण के लिए।
यक किशोरवयस्क कुमार से॥64॥
विपुल वीर सजे बहु-अस्त्र से।
नृपति-कंस स्वयं निज शस्त्र ले।
विबुध-वृन्द विलोड़क शक्ति से।
शिशु विरुध्द समुद्यत हैं हुए॥65॥
जिस नराधिप की वशवर्तिनी।
सकल भाँति निरन्तर है प्रजा।
जननि यों उसका कटिबध्द हो।
कुटिलता करना अविधेय है॥66॥
जन प्रपीड़ित हो कर अन्य से।
शरण है गहता नरनाथ की।
यदि निपीड़न भूपति ही करे।
जगत में फिर रक्षक कौन है?॥67॥
गगन में उड़ जा सकती नहीं।
गमन संभव है न पताल का।
अवनि-मध्य पलायित हो कहीं।
बच नहीं सकती नृप-कंस से॥68॥
विवशता किससे अपनी कहूँ।
जननि! क्यों न बनूँ बहु-कातरा।
प्रबल-हिंसक-जन्तु-समूह में।
विवश हो मृग-शावक है चला॥69॥
सकल भाँति हमें अब अम्बिके!
चरण-पंकज ही अवलम्ब है।
शरण जो न यहाँ जन को मिली।
जननि, तो जगतीतल शून्य है॥70॥
विधि अहो भवदीय-विधन की।
मति-अगोचरता बहु-रूपता।
परम युक्ति-मयीकृति भूति है।
पर कहीं वह है अति-कष्टदा॥71॥
जगत में यक पुत्र बिना कहीं।
बिलटता सुर-वांछित राज्य है।
अधिक संतति है इतनी कहीं।
वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ॥72॥
कलप के कितने वसुयाम भी।
सुअन-आनन हैं न विलोकते।
विपुलता निज संतति की कहीं।
विकल है करती मनु जात को॥73॥
सुअन का वदनांबुज देख के।
पुलकते कितने जन हैं सदा।
बिलखते कितने सब काल हैं।
सुत मुखांबुज देख मलीनता॥74॥
सुखित हैं कितनी जननी सदा।
निज निरापद संतति देख के।
दुखित हैं मुझ सी कितनी प्रभो।
नित विलोक स्वसंतति आपदा॥75॥
प्रभु, कभी भवदीय विधन में।
तनिक अन्तर हो सकता नहीं।
यह निवेदन सादर नाथ से।
तदपि है करती तव सेविका॥76॥
यदि कभी प्रभु-दृष्टि कृपामयी।
पतित हो सकती महि-मध्य हो।
इस घड़ी उसकी अधिकारिणी।
मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है॥77॥
प्रकृति प्राणस्वरूप जगत्पिता।
अखिल-लोकपते प्रभुता निधे।
सब क्रिया कब सांग हुई वहाँ।
प्रभु जहाँ न हुई पद-अर्चना॥78॥
यदिच विश्व समस्त-प्रपंच से।
पृथक से रहते नित आप हैं।
पर कहाँ जन को अवलम्ब है।
प्रभु गहे पद-पंकज के बिना॥79॥
विविध-निर्जर में बहु-रूप से।
यदिच है जगती प्रभु की कला।
यजन पूजन से प्रति-देव के।
यजित पूजित यद्यपि आप हैं॥80॥
तदपि जो सुर-पादप के तले।
पहुँच पा सकता जन शान्ति है।
वह कभी दल फूल फलादि से।
मिल नहीं सकती जगतीपते॥81॥
झलकती तव निर्मल ज्योति है।
तरणि में तृण में करुणामयी।
किरण एक इसी कल-ज्योति की।
तम निवारण में क्षम है प्रभो॥82॥
अवनि में जल में वर व्योम में।
उमड़ता प्रभु-प्रेम-समुद्र है।
कब इसी वरवारिधि बूँद का।
शमन में मम ताप समर्थ है॥83॥
अधिक और निवेदन नाथ से।
कर नहीं सकती यह किंकरी।
गति न है करुणाकर से छिपी।
हृदय की मन की मम-प्राण की॥84॥
विनय यों करतीं ब्रजपांगना।
नयन से बहती जलधार थी।
विकलतावश वस्त्र हटा हटा।
वदन थीं सुत का अवलोकती॥85॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को।
त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ दुख भी दुर्दान्त था हो रहा।
ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं।
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥

द्रुतविलम्बित छन्द

विकलता उनकी अवलोक के।
रजनि भी करती अनुताप थी।
निपट नीरव ही मिष ओस के।
नयन से गिरता बहु-वारि था॥87॥
विपुल-नीर बहा कर नेत्र से।
मिष कलिन्द-कुमारि-प्रवाह के।
परम-कातर हो रह मौन ही।
रुदन थी करती ब्रज की धरा॥88॥
युग बने सकती न व्यतीत हो।
अप्रिय था उसका क्षण बीतना।
बिकट थी जननी धृति के लिए।
दुखभरी यह घोर विभावरी॥89॥

4. चतुर्थ सर्ग
द्रुतविलम्बित छन्द

विशद-गोकुल-ग्राम समीप ही।
बहु-बसे यक सुन्दर-ग्राम में।
स्वपरिवार समेत उपेन्द्र से।
निवसते वृषभानु-नरेश थे॥1॥
यह प्रतिष्ठित-गोप सुमेर थे।
अधिक-आदृत थे नृप-नन्द से।
ब्रज-धरा इनके धन-मन से।
अवनि में अति-गौरविता रही॥2॥
यक सुता उनकी अति-दिव्य थी।
रमणि-वृन्द-शिरोमणि राधिका।
सुयश-सौरभ से जिनके सदा।
ब्रज-धरा बहु-सौरभवान थी॥3॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय-कलिका राकेन्दु-विम्बनना।
तन्वंगी कल-हासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला पुत्तली।
शोभा-वारिधि की अमूल्य-मणि सी लावण्य लीला मयी।
श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मुर्ति थीं॥4॥
फूले कंज-समान मंजु-दृगता थी मत्त कारिणी।
सोने सी कमनीय-कान्ति तन की थी दृष्टि-उन्मेषिनी।
राधा की मुसकान की ‘मधुरता थी मुग्धता-मुर्ति सी।
काली-कुंचित-लम्बमान-अलकें थीं मानसोन्मादिनी॥5॥
नाना-भाव-विभाव-हाव-कुशला आमोद आपूरिता।
लीला-लोल-कटाक्ष-पात-निपुणा भ्रूभंगिमा-पंडिता।
वादित्रादि समोद-वादन-परा आभूषणाभूषिता।
राधा थीं सुमुखी विशाल-नयना आनन्द-आन्दोलिता॥6॥
लाली थी करती सरोज-पग की भूपृष्ठ को भूषिता।
विम्बा विद्रुम को अकान्त करती थी रक्तता ओष्ठ की।
हर्षोत्फुल्ल-मुखारविन्द-गरिमा सौंदर्य्यआधार थी।
राधा की कमनीय कान्त छवि थी कामांगना मोहिनी॥7॥
सद्वस्त्रा-सदलंकृकृता गुणयुता-सर्वत्र सम्मानिता।
रोगी वृध्द जनोपकारनिरता सच्छास्त्रा चिन्तापरा।
सद्भावातिरता अनन्य-हृदया-सत्प्रेम-संपोषिका।
राधा थीं सुमना प्रसन्नवदना स्त्रीजाति-रत्नोपमा॥8॥

द्रुतविलम्बित छन्द

यह विचित्र-सुता वृषभानु की।
ब्रज-विभूषण में अनुरक्त थी।
सहृदया यह सुन्दर-बालिका।
परम-कृष्ण-समर्पित-चित्त थी॥9॥
ब्रज-धराधिप औ वृषभानु में।
अतुलनीय परस्पर-प्रीति थी।
इसलिए उनका परिवार भी।
बहु परस्पर प्रेम-निबध्द था॥10॥
जब नितान्त-अबोध मुकुन्द थे।
विलसते जब केवल अंक में।
वह तभी वृषभानु निकेत में।
अति समादर साथ गृहीत थे॥11॥
छविवती-दुहिता वृषभानु की।
निपट थी जिस काल पयोमुखी।
वह तभी ब्रज-भूप कुटुम्ब की।
परम-कौतुक-पुत्तलिका रही॥12॥
यह अलौकिक-बालक-बालिका।
जब हुए कल-क्रीड़न-योग्य थे।
परम-तन्मय हो बहु प्रेम से।
तब परस्पर थे मिल खेलते॥13॥
कलित-क्रीड़न से इनके कभी।
ललित हो उठता गृह-नन्द का।
उमड़ सी पड़ती छवि थी कभी।
वर-निकेतन में वृषभानु के॥14॥
जब कभी काल-क्रीड़न-सूत्र से।
चरण-नूपुर औ कटि-किंकिणी।
सदन में बजती अति-मंजु थी।
किलकती तब थी कल-वादिता॥15॥
युगल का वय साथ सनेह भी।
निपट-नीरवता सह था बढ़ा।
फिर यही वर-बाल सनेह ही।
प्रणय में परिवर्तित था हुआ॥16॥
बलवती कुछ थी इतनी हुई।
कुँवरि-प्रेम-लता उर-भूमि में।
शयन भोजन क्या, सब काल ही।
वह बनी रहती छवि-मत्त थी॥17॥
वचन की रचना रस से भरी।
प्रिय मुखांबुज की रमणीयता।
उतरती न कभी चित से रही।
सरलता, अतिप्रीति सुशीलता॥18॥
मधुपुरी बलवीर प्रयाण के।
हृदय-शैल-स्वरूप प्रसंग से।
न उबरी यह बेलि विनोद की।
विधि अहो भवदीय विडम्बना॥19॥

शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

काले कुत्सित कीट का कुसुम में कोई नहीं काम था।
काँटे से कमनीय कंज कृति में क्या है न कोई कमी।
पोरों में अब ईख की विपुलता है ग्रंथियों की भली।
हा! दुर्दैव प्रगल्भते! अपटुता तूने कहाँ की नहीं॥20॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कमल का दल भी हिम-पात से।
दलित हो पड़ता सब काल है।
कल कलानिधि को खल राहु भी।
निगलता करता बहु क्लान्त है॥21॥
कुसुम सा प्रफुल्लित बालिका।
हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।
वह मलीन सकल्मष हो गया।
प्रिय मुकुन्द प्रवास-प्रसंग से॥22॥
सुख जहाँ निज दिव्य स्वरूप से।
विलसता करता कल-नृत्य है।
अहह सो अति-सुन्दर सद्म भी।
बच नहीं सकता दुखलेश से॥23॥
सब सुखाकर श्रीवृषभानुजा।
सदन-सज्जित-शोभन-स्वर्ग सा।
तुरत ही दुख के लवलेश से।
मलिन शोक-निमज्जित हो गया॥24॥
जब हुई श्रुति-गोचर सूचना।
ब्रज धराधिप तात प्रयाण की।
उस घड़ी ब्रज-वल्लभ प्रेमिका।
निकट थी प्रथिता ललिता सखी॥25॥
विकसिता-कलिका हिमपात से।
तुरत ज्यों बनती अति म्लान है।
सुन प्रसंग मुकुन्द प्रवास का।
मलिन त्यों वृषभानुसुता हुईं॥26॥
नयन से बरसा कर वारि को।
बन गईं पहले बहु बावली।
निज सखी ललिता मुख देख के।
दुखकथा फिर यों कहने लगीं॥27॥

मालिनी छन्द

कल कुवलय के से नेत्रवाले रसीले।
वररचित फबीले पीते कौशेय शोभी।
गुणगण मणिमाली मंजुभाषी सजीले।
वह परम छबीले लाडिले नन्दजी के॥28॥
यदि कल मथुरा को प्रात ही जा रहे हैं।
बिन मुख अवलोके प्राण कैसे रहेंगे।
युग सम घटिकायें वार की बीतती थीं।
सखि! दिवस हमारे बीत कैसे सकेंगे॥29॥
जन मन कलपाना मैं बुरा जानती हूँ।
परदुख अवलोके मैं न होती सुखी हूँ।
कहकर कटु बातें जी न भूले जलाया।
फिर यह दुखदायी बात मैंने सुनी क्यों?॥30॥
अयि सखि! अवलोके खिन्नता तू कहेगी।
प्रिय स्वजन किसी के क्या न जाते कहीं हैं।
पर हृदय न जानें दग्ध क्यों हो रहा है।
सब जगत हमें है शून्य होता दिखाता॥31॥
यह सकल दिशायें आज रो सी रही हैं।
यह सदन हमारा, है हमें काट खाता।
मन उचट रहा है चैन पाता नहीं है।
विजन-विपिन में है भागता सा दिखाता॥32॥
रुदनरत न जानें कौन क्यों है बुलाता।
गति पलट रही है भाग्य की क्यों हमारे।
उह! कसक समाई जा रही है कहाँ की।
सखि! हृदय हमारा दग्ध क्यों हो रहा है॥33॥
मधुपुर-पति ने है प्यार ही से बुलाया।
पर कुशल हमें तो है न होती दिखाती।
प्रिय-विरह-घटायें घेरती आ रही हैं।
घहर घहर देखो हैं कलेजा कँपाती॥34॥
हृदय चरण तो मैं चढ़ा ही चुकी हूँ।
सविधि-वरण की थी कामना और मेरी।
पर सफल हमें सो है न होती दिखाती।
वह कब टलता है भाल में जो लिखा है॥35॥
सविधि भगवती को आज भी पूजती हूँ।
बहु-व्रत रखती हूँ देवता हूँ मनाती।
मम-पति हरि होवें चाहती मैं यही हूँ।
पर विफल हमारे पुण्य भी हो चले हैं॥36॥
करुण ध्वनि कहाँ की फैल सी क्यों गई है।
सब तरु मन मारे आज क्यों यों खड़े हैं।
अवनि अति-दुखी सी क्यों हमें है दिखाती।
नभ-पर दुख-छाया-पात क्यों हो रहा है॥37॥
अहह सिसकती मैं क्यों किसे देखती हूँ।
मलिन-मुख किसी का क्यों मुझे है रुलाता।
जल जल किसका है छार-होता कलेजा।
निकल निकल आहें क्यों किसे बेधती हैं॥38॥
सखि, भय यह कैसा गेह में छा गया है।
पल-पल जिससे मैं आज यों चौंकती हूँ।
कँप कर गृह में की ज्योति छाई हुई भी।
छन-छन अति मैली क्यों हुई जा रही है॥39॥
मनहरण हमारे प्रात जाने न पावें।
सखि! जुगुत हमें तो सूझती है न ऐसी।
पर यदि यह काली यामिनी ही न बीते।
तब फिर ब्रज कैसे प्राणप्यारे तजेंगे॥40॥
सब-नभ-तल-तारे जो उगे दीखते हैं।
यह कुछ ठिठके से सोच में क्यों पड़े हैं।
ब्रज-दुख अवलोके क्या हुए हैं दुखारी।
कुछ व्यथित बने से या हमें देखते हैं॥41॥
रह-रह किरणें जो फूटती हैं दिखाती।
वह मिष इनके क्या बोध देते हमें हैं।
कर वह अथवा यों शान्ति का हैं बढ़ाते।
विपुल-व्यथित जीवों की व्यथा मोचने को॥42॥
दुख-अनल-शिखायें व्योम में फूटती हैं।
यह किस दुखिया का हैं कलेजा जलाती।
अहह अहह देखो टूटता है न तारा।
पतन दिलजले के गात का हो रहा है॥43॥
चमक-चमक तारे धीर देते हमें हैं।
सखि! मुझ दुखिया की बात भी क्या सुनेंगे?
पर-हित-रत-हो ए ठौर को जो न छोड़ें।
निशि विगत न होगी बात मेरी बनेगी॥44॥
उडुगण थिर से क्यों हो गये दीखते हैं।
यह विनय हमारी कान में क्या पड़ी है?
रह-रह इनमें क्यों रंग आ-जा रहा है।
कुछ सखि! इनको भी हो रही बेकली है॥45॥
दिन फल जब खोटे हो चुके हैं हमारे।
तब फिर सखि! कैसे काम के वे बनेंगे।
पल-पल अति फीके हो रहे हैं सितारे।
वह सफल न मेरी कामनायें करेंगे॥46॥
यह नयन हमारे क्या हमें हैं सताते।
अहह निपट मैली ज्योति भी हो रही है।
मम दुख अवलोके या हुए मंद तारे।
कुछ समझ हमारी काम देती नहीं है॥47॥
सखि! मुख अब तारे क्यों छिपाने लगे हैं।
वह दुख लखने की ताब क्या हैं न लाते।
परम-विफल होके आपदा टालने में।
वह मुख अपना हैं लाज से या छिपाते॥48॥
क्षितिज निकट कैसी लालिमा दीखती है।
बह रुधिर रहा है कौन सी कामिनी का।
बिहग विकल हो-हो बोलने क्यों लगे हैं।
सखि! सकल दिशा में आग सी क्यों लगी है॥49॥
सब समझ गई मैं काल की क्रूरता को।
पल-पल वह मेरा है कलेजा कँपाता।
अब नभ उगलेगा आग का एक गोला।
सकल-ब्रज-धार को फूँक देता जलाता॥50॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

हा! हा! ऑंखों मम-दुख-दशा देख ली औ न सोची।
बातें मेरी कमलिनिपते! कान की भी न तूने।
जो देवेगा अवनितल को नित्य का सा उँजाला।
तेरा होना उदय ब्रज में तो अंधेरा करेगा॥51॥
नाना बातें दुख शमन को प्यार से थी सुनाती।
धीरे-धीरे नयन-जल थी पोंछती राधिका का।
हा! हा! प्यारी दुखित मत हो यों कभी थी सुनाती।
रोती-रोती विकल ललिता आप होती कभी थी॥52॥
सूख जाता कमल-मुख था होठ नीला हुआ था।
दोनों ऑंखें विपुल जल में डूबती जा रही थीं।
शंकायें थीं विकल करती काँपता था कलेजा।
खिन्ना दीना परम-मलिना उन्मना राधिका थीं॥53॥

5. पंचम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।
शाखा डोली तरु निचय की कंज फूले सरों में।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े तामसी रात बीती॥1॥
फूली फैली लसित लतिका वायु में मन्द डोली।
प्यारी-प्यारी ललित-लहरें भानुजा में विराजीं।
सोने की सी कलित किरणें मेदिनी ओर छूटीं।
कूलों कुंजों कुसुमित वनों में जगी ज्योति फैली॥2॥
प्रात: शोभा ब्रज अवनि में आज प्यारी नहीं थी।
मीठा-मीठा विहग रव भी कान को था न भाता।
फूले-फूले कमल दव थे लोचनों में लगाते।
लाली सारे गगन-तल की काल-व्याली समा थी॥3॥
चिन्ता की सी कुटिल उठतीं अंक में जो तरंगें।
वे थीं मानो प्रकट करतीं भानुजा की व्यथायें।
धीरे-धीरे मृदु पवन में चाव से थी न डोली।
शाखाओं के सहित लतिका शोक से कंपिता थी॥4॥
फूलों-पत्तों सकल पर हैं वारि बूँदें दिखातीं।
रोते हैं या विटप सब यों ऑंसुओं को दिखा के।
रोई थी जो रजनि दुख से नंद की कामिनी के।
ये बूँदें हैं, निपतित हुईं या उसी के दृगों से॥5॥
पत्रों पुष्पों सहित तरु की डालियाँ औ लतायें।
भींगी सी थीं विपुल जल में वारि-बूँदों भरी थीं।
मानो फूटी सकल तन में शोक की अश्रुधारा।
सर्वांगों से निकल उनको सिक्तता दे बही थी॥6॥
धीरे-धीरे पवन ढिग जा फूलवाले द्रुमों के।
शाखाओं से कुसुम-चय को थी धरा पै गिराती।
मानो यों थी हरण करती फुल्लता पादपों की।
जो थी प्यारी न ब्रज-जन को आज न्यारी व्यथा से॥7॥
फूलों का यों अवनि-तल में देख के पात होना।
ऐसी भी थी हृदय-तल में कल्पना आज होती।
फूले-फूले कुसुम अपने अंक में से गिरा के।
बारी-बारी सकल तरु भी खिन्नता हैं दिखाते॥8॥
नीची-ऊँची सरित सर की बीचियाँ ओस बूँदें।
न्यारी आभा वहन करती भानु की अंक में थीं।
मानो यों वे हृदय-तल के ताप को थीं दिखाती।
या दावा थी व्यथित उर में दीप्तिमाना दुखों की॥9॥
सारा नीला-सलिल सरि का शोक-छाया पगा था।
कंजों में से मधुप कढ़ के घूमते थे भ्रमे से।
मानो खोटी-विरह-घटिका सामने देख के ही।
कोई भी थी अवनत-मुखी कान्तिहीना मलीना॥10॥

द्रुतविलम्बित छन्द

प्रगट चिन्ह हुए जब प्रात के।
सकल भूतल औ नभदेश में।
जब दिशा सितता-युत हो चली।
तममयी करके ब्रजभूमि को॥11॥
मुख-मलीन किये दुख में पगे।
अमित-मानव गोकुल ग्राम के।
तब स-दार स-बालक-बालिका।
व्यथित से निकले निज सद्म से॥12॥
बिलखती दृग वारि विमोचती।
यह विषाद-मयी जन-मण्डली।
परम आकुलतावश थी बढ़ी।
सदन ओर नराधिप नन्द के॥13॥
उदय भी न हुए जब भानु थे।
निकट नन्दनिकेतन के तभी।
जन समागम ही सब ओर था।
नयन गोचर था नरमुण्ड ही॥14॥

वसन्ततिलका छन्द

थे दीखते परम वृध्द नितान्त रोगी।
या थी नवागत वधू गृह में दिखाती।
कोई न और इनको तज के कहीं था।
सूने सभी सदन गोकुल के हुए थे॥15॥
जो अन्य ग्राम ढिग गोकुल ग्राम के थे।
नाना मनुष्य उन ग्राम-निवासियों के।
डूबे अपार-दुख-सागर में स-बामा।
आके खड़े निकट नन्द-निकेत के थे॥16॥
जो भूरि भूत जनता समवेत वाँ थी।
सो कंस भूप भय से बहु कातरा थी।
संचालिता विषमता करती उसे थी।
संताप की विविध-संशय की दुखों की॥17॥
नाना प्रसंग उठते जन-संघ में थे।
जो थे सशंक सबको बहुश: बनाते।
था सूखता धार औ कँपता कलेजा।
चिन्ता अपार चित में चिनगी लगाती॥18॥
रोना महा-अशुभ जान प्रयाण-काल।
ऑंसू न ढाल सकती निज नेत्र से थी।
रोये बिना न छन भी मन मानता था।
डूबी दुविधा जलधि में जन मण्डली थी॥19॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता सी।
थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपों में।
आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले।
धीरे-धीरे सजनक कढ़े सद्म में से मुरारी॥20॥
आते ऑंसू अति कठिनता से सँभाले दृगों के।
होती खिन्ना हृदय-तल के सैकड़ों संशयों से।
थोड़ा पीछे प्रिय तनय के भूरि शोकाभिभूता।
नाना वामा सहित निकलीं गेह में से यशोदा॥21॥
द्वारे आया ब्रज नृपति को देख यात्रा निमित्त।
भोला-भाला निरख मुखड़ा फूल से लाडिलों का।
खिन्ना दीना परम लख के नन्द की भामिनी को।
चिन्ता डूबी सकल जनता हो उठी कम्पमाना॥22॥
कोई रोया सलिल न रुका लाख रोके दृगों का।
कोई आहें सदुख भरता हो गया बावला सा।
कोई बोला सकल-ब्रज के जीवनाधार प्यारे।
यों लोगों को व्यथित करके आज जाते कहाँ हो॥23॥
रोता-धोता विकल बनता एक आभीर बूढ़ा।
दीनों के से वचन कहता पास अक्रूर के आ।
बोला कोई जतन जन को आप ऐसा बतावें।
मेरे प्यार कुँवर मुझसे आज न्यारे न होवें॥24॥
मैं बूढ़ा हूँ यदि कुछ कृपा आप चाहें दिखाना।
तो मेरी है विनय इतनी श्याम को छोड़ जावें।
हा! हा! सारी ब्रज अवनि का प्राण है लाल मेरा।
क्यों जीयेंगे हम सब उसे आप ले जायँगे जो॥25॥
रत्नों की है न तनिक कमी आप लें रत्न ढेरों।
सोना चाँदी सहित धन भी गाड़ियों आप ले लें।
गायें ले लें गज तुरग भी आप ले लें अनेकों।
लेवें मेरे न निजधन को हाथ मैं जोड़ता हूँ॥26॥
जो है प्यारी अवनि ब्रज की यामिनी के समाना।
तो तातों के सहित सब गोपाल हैं तारकों से।
मेरा प्यारा कुँवर उसका एक ही चन्द्रमा है।
छा जावेगा तिमिर वह जो दूर होगा दृगों से॥27॥
सच्चा प्यारा सकल ब्रज का वंश का है उँजाला।
दीनों का है परमधन औ वृध्द का नेत्रतारा।
बालाओं का प्रिय स्वजन औ बन्धु है बालकों का।
ले जाते हैं सुरतरु कहाँ आप ऐसा हमारा॥28॥
बूढ़े के ए वचन सुनके नेत्र में नीर आया।
ऑंसू रोके परम मृदुता साथ अक्रूर बोले।
क्यों होते हैं दुखित इतने मानिये बात मेरी।
आ जावेंगे बिवि दिवस में आप के लाल दोनों॥29॥
आई प्यारे निकट श्रम से एक वृध्दा-प्रवीणा।
हाथों से छू कमल-मुख को प्यार से लीं बलायें।
पीछे बोली दुखित स्वर से तू कहीं जा न बेटा।
तेरी माता अहह कितनी बावली हो रही है॥30॥
जो रूठेगा नृपति ब्रज का वास ही छोड़ दूँगी।
ऊँचे-ऊँचे भवन तज के जंगलों में बसूँगी।
खाऊँगी फूल फल दल को व्यंजनों को तजूँगी।
मैं ऑंखों से अलग न तुझे लाल मेरे करूँगी॥31॥
जाओगे क्या कुँवर मथुरा कंस का क्या ठिकाना।
मेरा जी है बहुत डरता क्या न जाने करेगा।
मानूँगी मैं न सुरपति को राज ले क्या करूँगी।
तेरा प्यारा-वदन लख के स्वर्ग को मैं तजूँगी॥32॥
जो चाहेगा नृपति मुझ से दंड दूँगी करोड़ों।
लोटा-थाली सहित तन के वस्त्र भी बेंच दूँगी।
जो माँगेगा हृदय वह तो काढ़ दूँगी उसे भी।
बेटा, तेरा गमन मथुरा मैं न ऑंखों लखूँगी॥33॥
कोई भी है न सुन सकता जा किसे मैं सुनाऊँ।
मैं हूँ मेरा हृदयतल है हैं व्यथायें अनेकों।
बेटा, तेरा सरल मुखड़ा शान्ति देता मुझे है।
क्यों जीऊँगी कुँवर, बतला जो चला जायगा तू॥34॥
प्यारे तेरा गमन सुन के दूसरे रो रहे हैं।
मैं रोती हूँ सकल ब्रज है वारि लाता दृगों में।
सोचो बेटा, उस जननि की क्या दशा आज होगी।
तेरे जैसा सरल जिस का एक ही लाडिला है॥35॥
प्राचीन की सदुख सुनके सर्व बातें मुरारी।
दोनों ऑंखें सजल करके प्यार के साथ बोले।
मैं आऊँगा कुछ दिन गये बाल होगा न बाँका।
क्यों माता तू विकल इतना आज यों हो रही है॥36॥
दौड़ा ग्वाला ब्रज नृपति के सामने एक आया।
बोला गायें सकल बन को आप की हैं न जाती।
दाँतों से हैं न तृण गहती हैं न बच्चे पिलाती।
हा! हा! मेरी सुरभि सबको आज क्या हो गया है॥37॥
देखो-देखो सकल हरि की ओर ही आ रही हैं।
रोके भी हैं न रुक सकती बावली हो गई हैं।
यों ही बातें सदुख कहके फूट के ग्वाल रोया।
बोला मेरे कुँवर सब को यों रुला के न जाओ॥38॥
रोता ही था जब वह तभी नन्द की सर्व गायें।
दौड़ी आईं निकट हरि के पूँछ ऊँचा उठाये।
वे थीं खिन्ना विपुल विकला वारि था नेत्र लाता।
ऊँची ऑंखों कमल मुख थीं देखती शंकिता हो॥39॥
काकातूआ महर-गृह के द्वार का भी दुखी था।
भूला जाता सकल-स्वर था उन्मना हो रहा था।
चिल्लाता था अति बिकल था औ यही बोलता था।
यों लोगों को व्यथित करके लाल जाते कहाँ हो॥40॥
पक्षी की औ सुरभि सब की देख ऐसी दशायें।
थोड़ी जो थी अहह! वह भी धीरता दूर भागी।
हा हा! शब्दों सहित इतना फूट के लोग रोये।
हो जाती थी निरख जिसको भग्न छाती शिला की॥41॥
आवेगों के सहित बढ़ता देख संताप-सिंधु।
धीरे-धीरे ब्रज-नृपति से खिन्न अक्रूर बोले।
देखा जाता ब्रज दुख नहीं शोक है वृध्दि पाता।
आज्ञा देवें जननि पग छू यान पै श्याम बैठें॥42॥
आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर बातें।
जेठे-भ्राता सहित जननी-पास गोपाल आये।
छू माता के पग कमल को धीरता साथ बोले।
जो आज्ञा हो जननि अब तो यान पै बैठ जाऊँ॥43॥
दोनों प्यारे कुँवरवर के यों बिदा माँगते ही।
रोके ऑंसू जननि दृग में एक ही साथ आयें।
धीरे बोलीं परम दुख से जीवनाधार जाओ।
दोनों भैया विधुमुख हमें लौट आके दिखाओ॥44॥
धीरे-धीरे सु-पवन बहे स्निग्ध हों अंशुमाली।
प्यारी छाया विटप वितरें शान्ति फैले वनों में।
बाधायें हों शमन पथ की दूर हों आपदायें।
यात्रा तेरी सफल सुत हो क्षेम से गेह आओ॥45॥
ले के माता-चरणरज को श्याम औ राम दोनों।
आये विप्रों निकट उनके पाँव की वन्दना की।
भाई-बन्दों सहित मिलके हाथ जोड़ा बड़ों को।
पीछे बैठे विशद रथ में बोध दे के सबों को॥46॥
दोनों प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा।
आवेगों से विपुल विवशा हो उठीं नन्दरानी।
ऑंसू आते युगल दृग से वारि-धारा बहा के।
बोलीं दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दु:खों से॥47॥

मालिनी छन्द

अहह दिवस ऐसा हाय! क्यों आज आया।
निज प्रियसुत से जो मैं जुदा हो रही हूँ।
अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी।
यह अनुपम थाती मैं तुम्हें सौंपती हूँ॥48॥
सब पथ कठिनाई नाथ हैं जानते ही।
अब तक न कहीं भी लाडिले हैं पधारे।
‘मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना।
कुछ पथ-दुख मेरे बालकों को न होवे॥49॥
खर पवन सतावे लाडिलों को न मेरे।
दिनकर किरणों की ताप से भी बचाना।
यदि उचित जँचे तो छाँह में भी बिठाना।
मुख-सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे॥50॥
विमल जल मँगाना देख प्यासा पिलाना।
कुछ क्षुधित हुए ही व्यंजनों को खिलाना।
दिन वदन सुतों का देखते ही बिताना।
विलसित अधरों को सूखने भी न देना॥51॥
युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले।
अति अधिक न दौड़ें यान धीरे चलाना।
बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे।
परम मृदुल मेरे बालकों का कलेजा॥52॥
प्रिय! सब नगरों में वे कुबामा मिलेंगी।
न सुजन जिनकी हैं वामता बूझ पाते।
सकल समय ऐसी साँपिनों से बचाना।
वह निकट हमारे लाडिलों के न आवें॥53॥
जब नगर दिखाने के लिए नाथ जाना।
निज सरल कुमारों को खलों से बचाना।
संग-संग रखना औ साथ ही गेह लाना।
छन सुअन दृगों से दूर होने न पावें॥54॥
धनुष मख सभा में देख मेरे सुतों को।
तनिक भृकुटि टेढ़ी नाथ जो कंस की हो।
अवसर लख ऐसे यत्न तो सोच लेना।
न कुपित नृप होवें औ बचें लाल मेरे॥55॥
यदि विधिवश सोचा भूप ने और ही हो।
यह विनय बड़ी ही दीनता से सुनाना।
हम बस न सकेंगे जो हुई दृष्टि मैली।
सुअन युगल ही हैं जीवनाधार मेरे॥56॥
लख कर मुख सूखा सूखता है कलेजा।
उर विचलित होता है विलोके दुखों के।
शिर पर सुत के जो आपदा नाथ आई।
यह अवनि फटेगी औ समा जाऊँगी मैं॥57॥
जगकर कितनी ही रात मैंने बिताई।
यदि तनिक कुमारों को हुई बेकली थी।
यह हृदय हमारा भग्न कैसे न होगा।
यदि कुछ दुख होगा बालकों को हमारे॥58॥
कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।
थर-थर कँपती थी औ लिये अंक में थी।
यदि सुखित न यों भी देखती लाल को थी
सब रजनि खड़े औ घूमते ही बिताती॥59॥
निज सुख अपने मैं ध्यान में भी न लाई।
प्रिय सुत सुख ही से मैं सुखी हूँ कहाती।
मुख तक कुम्हलाया नाथ मैंने न देखा।
अहह दुखित कैसे लाडिले को लखूँगी॥60॥
यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।
हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।
पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।
यह विनय इसी से नाथ मैंने सुनाई॥61॥
अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या मैं।
अनुचित मुझसे है नाथ होता बड़ा ही।
निज युग कर जोड़े ईश से हूँ मनाती।
सकुशल गृह लौटें आप ले लाडिलों को॥62॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

सारी बातें अति दुखभरी नन्द अर्धाङ्गिनी की।
लोगों को थीं व्यथित करती औ महा कष्ट देती।
ऐसा रोई सकल-जनता खो बची धीरता को।
भू में व्यापी विपुल जिससे शोक उच्छ्वासमात्रा॥63॥
आविर्भूता गगन-तल में हो रही है निराशा।
आशाओं में प्रकट दुख की मुर्तियाँ हो रही हैं।
ऐसा जी में ब्रज-दुख-दशा देख के था समाता।
भू-छिद्रों से विपुल करुणा-धार है फूटती सी॥64॥
सारी बातें सदुख सुन के नन्द ने कामिनी को।
प्यारे-प्यारे वचन कहके धीरता से प्रबोध।
आई थी जो सकल जनता धर्य्य दे के उसे भी।
वे भी बैठे स्वरथ पर जा साथ अक्रूर को ले॥65॥
घेरा आके सकल जन ने यान को देख जाता।
नाना बातें दुखमय कहीं पत्थरों को रुलाया।
हाहा खाया बहु विनय की और कहा खिन्न हो के।
जो जाते हो कुँवर मथुरा ले चलो तो सभी को॥66॥
बीसों बैठे पकड़ रथ का चक्र दोनों करों से।
रासें ऊँचे तुरग युग की थाम लीं सैकड़ों ने।
सोये भू में चपल रथ के सामने आ अनेकों।
जाना होता अति अप्रिय था बालकों का सबों को॥67॥
लोगों को यों परम-दुख से देख उन्मत्त होता।
नीचे आये उतर रथ के नन्द औ यों प्रबोध।
क्यों होते हो विकल इतना यान क्यों रोकते हो।
मैं ले दोनों हृदय धन को दो दिनों में फिरूँगा॥68॥
देखो लोगों, दिन चढ़ गया धूप भी हो रही है।
जो रोकोगे अधिक अब तो लाल को कष्ट होगा।
यों ही बातें मृदुल कह के औ हटा के सबों को।
वे जा बैठे तुरत रथ में औ उसे शीघ्र हाँका॥69॥
दोनों तीखे तुरग उचके औ उड़े यान को ले।
आशाओं में गगन-तल में हो उठा शब्द हाहा।
रोये प्राणी सकल ब्रज के चेतनाशून्य से हो।
संज्ञा खो के निपतित हुईं मेदिनी में यशोदा॥70॥
जो आती थी पथरज उड़ी सामने टाप द्वारा।
बोली जाके निकट उसके भ्रान्त सी एक बाला।
क्यों होती है भ्रमित इतनी धूलि क्यों क्षिप्त तू है।
क्या तू भी है विचलित हुई श्याम से भिन्न हो के॥71॥
आ आ, आके लग हृदय से लोचनों में समा जा।
मेरे अंगों पर पतित हो बात मेरी बना जा।
मैं पाती हूँ सुख रज तुझे आज छूके करों से।
तू आती है प्रिय निकट से क्लान्ति मेरी मिटा जा॥72॥
रत्नों वाले मुकुट पर जा बैठती दिव्य होती।
धूलि छा जाती अलक पर तू तो छटा मंजु पाती।
धूलि तू है निपट मुझ सी भाग्यहीना मलीना।
आभा वाले कमल-पग से जो नहीं जा लगी तू॥73॥
जो तू जाके विशद रथ में बैठ जाती कहीं भी।
किंवा तू जो युगल तुरगों के तनों में समाती।
तो तू जाती प्रिय स्वजन के साथ ही शान्ति पाती।
यों होहो के भ्रमित मुझ सी भ्रान्त कैसे दिखाती॥74॥
हा! मैं कैसे निज हृदय की वेदना को बताऊँ।
मेरे जी को मनुज तन से ग्लानि सी हो रही है।
जो मैं होती तुरग अथवा यान ही या ध्वजा ही।
तो मैं जाती कुँवर वर के साथ क्यों कष्ट पाती॥75॥
बोली बाला अपर अकुला हा! सखी क्या कहूँ मैं।
ऑंखों से तो अब रथ ध्वजा भी नहीं है दिखाती।
है धूली ही गगन-तल में अल्प उदीयमाना।
हा! उन्मत्ते! नयन भर तू देख ले धूलि ही को॥76॥
जी होता है विकल मुँह को आ रहा है कलेजा।
ज्वाला सी है ज्वलित उर में ऊबती मैं महा हूँ।
मेरी आली अब रथ गया दूर ले साँवले को।
हा! ऑंखों से न अब मुझको धूलि भी है दिखाती॥77॥
टापों का नाद जब तक था कान में स्थान पाता।
देखी जाती जब तक रही यान ऊँची पताका।
थोड़ी सी भी जब तक रही व्योम में धूलि छाती।
यों ही बातें विविध कहते लोग ऊबे खड़े थे॥78॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त महा दुख में पगी।
बहु विलोचन वारि विमोचती।
महरि को लख गेह सिधारती।
गृह गई व्यथिता जनमंडली॥79॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

धाता द्वारा सृजित जग में हो धारा मध्य आके।
पाके खोये विभव कितने प्राणियों ने अनेकों।
जैसा प्यारा विभव ब्रज ने हाथ से आज खोया।
पाके ऐसा विभव वसुधा में न खोया किसी ने॥80॥

6. षष्ठ सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

धीरे-धीरे दिन गत हुआ पद्मिनीनाथ डूबे।
दोषा आई फिर गत हुई दूसरा वार आया।
यों ही बीतीं विपुल घड़ियाँ औ कई वार बीते।
कोई आया न मधुपुर से औ न गोपाल आये॥1॥
ज्यों-ज्यों जाते दिवस चित का क्लेश था वृध्दिपाता।
उत्कण्ठा थी अधिक बढ़ती व्यग्रता थी सताती!
होतीं आके उदय उर में घोर उद्विग्नतायें।
देखे जाते सकल ब्रज के लोग उद्भ्रान्त से थे॥2॥
खाते-पीते गमन करते बैठते और सोते।
आते-जाते वन अवनि में गोधनों को चराते।
देते-लेते सकल ब्रज की गोपिका गोपजों के।
जी में होता उदय यह था क्यों नहीं श्याम आये॥3॥
दो प्राणी भी ब्रज-अवनि के साथ जो बैठते थे।
तो आने की न मधुवन से बात ही थे चलाते।
पूछा जाता प्रतिथल मिथ: व्यग्रता से यही था।
दोनों प्यारे कुँवर अब भी लौट के क्यों न आये॥4॥
आवासों में सुपरिसर में द्वार में बैठकों में।
बाजारों में विपणि सब में मंदिरों में मठों में।
आने ही की न ब्रजधन के बात फैली हुई थी।
कुंजों में औ पथ अ-पथ में बाग में औ बनों में॥5॥
आना प्यारे महरसुत का देखने के लिए ही।
कोसों जाती प्रतिदिन चली मंडली उत्सुकों की।
ऊँचे-ऊँचे तरु पर चढ़े गोप ढोटे अनेकों।
घंटों बैठे तृषित दृग से पंथ को देखते थे॥6॥
आके बैठी निज सदन की मुक्त ऊँची छतों में।
मोखों में औ पथ पर बने दिव्य वातायनों में।
चिन्तामग्ना विवश विकला उन्मना नारियों की।
दो ही ऑंखें सहस बन के देखती पंथ को थीं॥7॥
आके कागा यदि सदन में बैठता था कहीं भी।
तो तन्वंगी उस सदन की यों उसे थी सुनाती।
जो आते हो कुँवर उड़ के काक तो बैठ जा तू।
मैं खाने को प्रतिदिन तुझे दूध औ भात दूँगी॥8॥
आता कोई मनुज मथुरा ओर से जो दिखाता।
नाना बातें सदुख उससे पूछते तो सभी थे।
यों ही जाता पथिक मथुरा ओर भी जो जनाता।
तो लाखों ही सकल उससे भेजते थे सँदेसे॥9॥
फूलों पत्तों सकल तरुओं औ लता बेलियों से।
आवासों से ब्रज अवनि से पंथ की रेणुओं से।
होती सी थी यह ध्वनि सदा कुंज से काननों से।
मेरे प्यारे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये॥10॥

मालिनी छन्द

यदि दिन कट जाता बीतती थी न दोषा।
यदि निशि टलती थी वार था कल्प होता।
पल-पल अकुलाती ऊबती थीं यशोदा।
रट यह रहती थी क्यों नहीं श्याम आये॥11॥
प्रति दिन कितनों को पंथ में भेजती थीं।
निज प्रिय सुत आना देखने के लिए ही।
नियत यह जताने के लिए थे अनेकों।
सकुशल गृह दोनों लाडिले आ रहे हैं॥12॥
दिन-दिन भर वे आ द्वार पै बैठती थीं।
प्रिय पथ लखते ही वार को थीं बिताती।
यदि पथिक दिखाता तो यही पूछती थीं।
मम सुत गृह आता क्या कहीं था दिखाया॥13॥
अति अनुपम मेवे औ रसीले फलों को।
बहु ‘मधुर मिठाई दुग्ध को व्यंजनों को।
पथश्रम निज प्यारे पुत्र का मोचने को।
प्रतिदिन रखती थीं भाजनों में सजा के॥14॥
जब कुँवर न आते वार भी बीत जाता।
तब बहुत दुख पा के बाँट देती उन्हें थीं।
दिन-दिन उर में थी वृध्दि पाती निराशा।
तम निबिड़ दृगों के सामने हो रहा था॥15॥
जब पुरबनिता आ पूछती थी सँदेसा।
तब मुख उनका थीं देखती उन्मना हो।
यदि कुछ कहना भी वे कभी चाहती थीं।
न कथन कर पातीं कंठ था रुध्द होता॥16॥
यदि कुछ समझातीं गेह की सेविकायें।
बन विकल उसे थीं ध्यान में भी न लातीं।
तन सुधि तक खोती जा रही थीं यशोदा।
अतिशय बिमना औ चिन्तिता हो रही थीं॥17॥
यदि दधि मथने को बैठती दासियाँ थीं।
मथन-रव उन्हें था चैन लेने न देता।
यह कह-कह के ही रोक देतीं उन्हें वे।
तुम सब मिल के क्या कान को फोड़ दोगी॥18॥
दुख-वश सब धंधो बन्द से हो गये थे।
गृह जन मन मारे काल को थे बिताते।
हरि-जननि-व्यथा से मौन थीं शारिकायें।
सकल सदन में ही छा गई थी उदासी॥19॥
प्रतिदिन कितने ही देवता थीं मनाती।
बहु यजन कराती विप्र के वृन्द से थीं।
नित घर पर कोई ज्योतिषी थीं बुलाती।
निज प्रिय सुत आना पूछने को यशोदा॥20॥
सदन ढिग कहीं जो डोलता पत्र भी था।
निज श्रवण उठाती थीं समुत्कण्ठिता हो।
कुछ रज उठती जो पंथ के मध्य यों ही।
बन अयुत-दृगी तो वे उसे देखती थीं॥21॥
गृह दिशि यदि कोई शीघ्रता साथ आता।
तब उभय करों से थामतीं वे कलेजा।
जब वह दिखलाता दूसरी ओर जाता।
तब हृदय करों से ढाँपती थीं दृगों को॥22॥
मधुवन पथ से वे तीव्रता साथ आता।
यदि नभ-तल में थीं देख पाती पखेरू।
उस पर कुछ ऐसी दृष्टि तो डालती थीं।
लख कर जिसको था भग्न होता कलेजा॥23॥
पथ पर न लगी थी दृष्टि ही उत्सुका हो।
न हृदय तल ही की लालसा वर्ध्दिता थी।
प्रतिपल करता था लाडिलों की प्रतीक्षा।
यक यक तन रोऑं नँद की कामिनी का॥24॥
प्रतिपल दृग देखा चाहते श्याम को थे।
छन-छन सुधि आती श्याम मुर्ति की थी।
प्रति निमिष यही थीं चाहती नन्दरानी।
निज वदन दिखावे मेघ सी कान्तिवाला॥25॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

रो रो चिन्ता-सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
ऑंखों को थीं सजल रखतीं उन्मना थीं दिखाती।
शोभा वाले जलद-वपु की हो रही चातकी थीं।
उत्कण्ठा थी परम प्रबला वेदना वर्ध्दिता थी॥26॥
बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली।
आके ऑंसू दृग-युगल में थे धारा को भिगोते।
आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गंधा को ले।
प्रात: वाली सुपवन इसी काल वातायनों से॥27॥
आके पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया।
चाहा सारा-कलुष तन का राधिका के मिटाना।
जो बूँदें थीं सजल दृग के पक्ष्म में विद्यमाना।
धीरे-धीरे क्षिति पर उन्हें सौम्यता से गिराया॥28॥
श्री राधा को यह पवन की प्यार वाली क्रियायें।
थोड़ी सी भी न सुखद हुईं हो गईं वैरिणी सी।
भीनी-भीनी महँक मन की शान्ति को खो रही थी।
पीड़ा देती व्यथित चित को वायु की स्निग्धता थी॥29॥
संतापों को विपुल बढ़ता देख के दुखिता हो।
धीरे बोलीं सदुख उससे श्रीमती राधिका यों।
प्यारी प्रात: पवन इतना क्यों मुझे है सताती।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से॥30॥
कालिन्दी के कल पुलिन पै घूमती सिक्त होती।
प्यारे-प्यारे कुसुम-चय को चूमती गंध लेती।
तू आती है वहन करती वारि के सीकरों को।
हा! पापिष्ठे फिर किसलिए ताप देती मुझे है॥31॥
क्यों होती है निठुर इतना क्यों बढ़ाती व्यथा है।
तू है मेरी चिर परिचिता तू हमारी प्रिया है।
मेरी बातें सुन मत सता छोड़ दे बामता को।
पीड़ा खो के प्रणतजन की है बड़ा पुण्य होता॥32॥
मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्रवाले।
जाके आये न मधुवन से औ न भेजा सँदेसा।
मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दु:ख-कथा श्याम को तू सुनादे॥33॥

हो पाये जो न यह तुझसे तो क्रिया-चातुरी से।
जाके रोने विकल बनने आदि ही को दिखा दे।
चाहे ला दे प्रिय निकट से वस्तु कोई अनूठी।
हा हा! मैं हूँ मृतक बनती प्राण मेरा बचा दे॥34॥
तू जाती है सकल थल ही बेगवाली बड़ी है।
तू है सीधी तरल हृदया ताप उन्मूलती है।
मैं हूँ जी में बहुत रखती वायु तेरा भरोसा।
जैसे हो ऐ भगिनि बिगड़ी बात मेरी बना दे॥35॥
कालिन्दी के तट पर घने रम्य उद्यानवाला।
ऊँचे-ऊँचे धवल-गृह की पंक्तियों से प्रशोभी।
जो है न्यारा नगर मथुरा प्राणप्यारा वहीं है।
मेरा सूना सदन तज के तू वहाँ शीघ्र ही जा॥36॥
ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कुंजें मिलेंगी।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेंगी तुझे वे।
तो भी मेरा दुख लख वहाँ जा न विश्राम लेना॥37॥
थोड़ा आगे सरस रव का धाम सत्पुष्पवाला।
अच्छे-अच्छे बहु द्रुम लतावान सौन्दर्य्यशाली।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमाना न होना॥38॥
जाते-जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे।
तो जा के सन्निकट उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
धीरे-धीरे परस करके गात उत्ताप खोना।
सद्गंधो से श्रमित जन को हर्षितों सा बनाना॥39॥
संलग्ना हो सुखद जल के श्रान्तिहारी कणों से।
ले के नाना कुसुम कुल का गंध आमोदकारी।
निधधूली हो गमन करना उध्दता भी न होना।
आते-जाते पथिक जिससे पंथ में शान्ति पावें॥40॥
लज्जाशीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये।
होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना।
होठों की औ कमल-मुख की म्लानतायें मिटाना॥41॥
जो पुष्पों के ‘मधुर-रस को साथ सानन्द बैठे।
पीते होवें भ्रमर भ्रमरी सौम्यता तो दिखाना।
थोड़ा सा भी न कुसुम हिले औ न उद्विग्न वे हों।
क्रीड़ा होवे न कलुषमयी केलि में हो न बाधा॥42॥
कालिन्दी के पुलिन पर हो जो कहीं भी कढ़े तू।
छू के नीला सलिल उसका अंग उत्ताप खोना।
जी चाहे तो कुछ समय वाँ खेलना पंकजों से।
छोटी-छोटी सु-लहर उठा क्रीड़ितों को नचाना॥43॥
प्यारे-प्यारे तरु किसलयों को कभी जो हिलाना।
तो हो जाना मृदुल इतनी टूटने वे न पावें।
शाखापत्रों सहित जब तू केलि में लग्न हो तो।
थोड़ा सा भी न दुख पहुँचे शावकों को खगों के ॥44॥
तेरी जैसी मृदु पवन से सर्वथा शान्ति-कामी।
कोई रोगी पथिक पथ में जो पड़ा हो कहीं तो।
मेरी सारी दुखमय दशा भूल उत्कण्ठ होके।
खोना सारा कलुष उसका शान्ति सर्वाङ्ग होना॥45॥
कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे-धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को॥46॥
उद्यानों में सु-उपवन में वापिका में सरों में।
फूलोंवाले नवल तरु में पत्र शोभा द्रुमों में।
आते-जाते न रम रहना औ न आसक्त होना।
कुंजों में औ कमल-कुल में वीथिका में वनों में॥47॥
जाते-जाते पहुँच मथुरा-धाम में उत्सुका हो।
न्यारी-शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना।
तू होवेगी चकित लख के मेरु से मन्दिरों को।
आभावाले कलश जिनके दूसरे अर्क से हैं॥48॥
जी चाहे तो शिखर सम जो सद्य के हैं मुँडेरे।
वाँ जा ऊँची अनुपम-ध्वजा अङ्क में ले उड़ाना।
प्रासादों में अटन करना घूमना प्रांगणों में।
उद्युक्ता हो सकल सुर से गेह को देख जाना॥49॥
कुंजों बागों विपिन यमुना कूल या आलयों में।
सद्गंधो से भरित मुख की वास सम्बन्ध से आ।
कोई भौंरा विकल करता हो किसी कामिनी को।
तो सद्भावों सहित उसको ताड़ना दे भगाना॥50॥
तू पावेगी कुसुम गहने कान्तता साथ पैन्हे।
उद्यानों में वर नगर के सुन्दरी मालिनों को।
वे कार्यों में स्वप्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी।
जो श्रान्ता हों सरस गति से तो उन्हें मोह लेना॥51॥
जो इच्छा हो सुरभि तन के पुष्प संभार से ले।
आते-जाते स-रुचि उनके प्रीतमों को रिझाना।
ऐ मर्मज्ञे रहित उससे युक्तियाँ सोच होना।
जैसे जाना निकट प्रिय के व्योम-चुम्बी गृहों के॥52॥
देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना।
नाना वाद्यों ‘मधुर-स्वर की मुग्धता को बढ़ाना।
किम्वा ले के रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को।
धीरे-धीरे ‘मधुररव से मुग्ध हो हो बजाना॥53॥
नीचे फूले कुसुम तरु के जो खड़े भक्त होवें।
किम्वा कोई उपल-गठिता-मूर्ति हो देवता की।
तो डालों को परम मृदुता मंजुता से हिलाना।
औ यों वर्षा कर कुसुम की पूजना पूजितों को॥54॥
तू पावेगी वर नगर में एक भूखण्ड न्यारा।
शोभा देते अमित जिसमें राज-प्रासाद होंगे।
उद्यानों में परम-सुषमा है जहाँ संचिता सी।
छीने लेते सरवर जहाँ वज्र की स्वच्छता हैं॥55॥
तू देखेगी जलद-तन को जा वहीं तद्गता हो।
होंगे लोने नयन उनके ज्योति-उत्कीर्णकारी।
मुद्रा होगी वर-वदन की मूर्ति सी सौम्यता की।
सीधे सीधे वचन उनके सिक्त होंगे सुधा से॥56॥
नीले फूले कमल दल सी गात की श्यामता है।
पीला प्यारा वसन कटि में पैन्हते हैं फबीला।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बढ़ाती।
सद्वस्त्त्रों में नवल-तन की फूटती सी प्रभा है॥57॥
साँचे ढाला सकल वपु है दिव्य सौंदर्य्यशाली।
सत्पुष्पों सी सुरभि उस की प्राण संपोषिका है।
दोनों कंधो वृषभ-वर से हैं बड़े ही सजीले।
लम्बी बाँहें कलभ-कर सी शक्ति की पेटिका हैं॥58॥
राजाओं सा शिर पर लसा दिव्य आपीड़ होगा।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलों की।
नाना रत्नाकलित भुज में मंजु केयूर होंगे।
मोतीमाला लसित उनका कम्बु सा कंठ होगा॥59॥
प्यारे ऐसे अपर जन भी जो वहाँ दृष्टि आवें।
देवों के से प्रथित-गुण से तो उन्हें चीन्ह लेना।
थोड़ी ही है वय तदपि वे तेजशाली बड़े हैं।
तारों में है न छिप सकता कंत राका निशा का॥60॥
बैठे होंगे जिस थल वहाँ भव्यता भूरि होगी।
सारे प्राणी वदन लखते प्यार के साथ होंगे।
पाते होंगे परम निधियाँ लूटते रत्न होंगे।
होती होंगी हृदयतल की क्यारियाँ पुष्पिता सी॥61॥
बैठे होंगे निकट जितने शान्त औ शिष्ट होंगे।
मर्य्यादा का प्रति पुरुष को ध्यान होगा बड़ा ही।
कोई होगा न कह सकता बात दुर्वृत्तता की।
पूरा-पूरा प्रति हृदय में श्याम आतंक होगा॥62॥
प्यारे-प्यारे वचन उनसे बोलते श्याम होंगे।
फैली जाती हृदय-तल में हर्ष की बेलि होगी।
देते होंगे प्रथित गुण वे देख सद्दृष्टि द्वारा।
लोहा को छू कलित कर से स्वर्ण होंगे बनाते॥63॥
सीधे जाके प्रथम गृह के मंजु उद्यान में ही।
जो थोड़ी भी तन-तपन हो सिक्त होके मिटाना।
निर्धूली हो सरस रज से पुष्प के लिप्त होना।
पीछे जाना प्रियसदन में स्निग्धता से बड़ी ही॥64॥
जो प्यारे के निकट बजती बीन हो मंजुता से।
किम्वा कोई मुरज-मुरली आदि को हो बजाता।
या गाती हो ‘मधुर स्वर से मण्डली गायकों की।
होने पावे न स्वर लहरी अल्प भी तो विपिन्ना॥65॥
जाते ही छू कमलदल से पाँव को पूत होना।
काली-काली कलित अलकें गण्ड शोभी हिलाना।
क्रीड़ायें भी ललित करना ले दुकूलादिकों को।
धीरे-धीरे परस तन को प्यार की बेलि बोना॥66॥
तेरे में है न यह गुण जो तू व्यथायें सुनाये।
व्यापारों को प्रखर मति और युक्तियों से चलाना।
बैठे जो हों निज सदन में मेघ सी कान्तिवाले।
तो चित्रों को इस भवन के ध्यान से देख जाना॥67॥
जो चित्रों में विरह-विधुरा का मिले चित्र कोई।
तो जाके निकट उसको भाव से यों हिलाना।
प्यारे हो के चकित जिससे चित्र की ओर देखें।
आशा है यों सुरति उनका हो सकेगी हमारी॥68॥
जो कोई भी इस सदन में चित्र उद्यान का हो।
औ हों प्राणी विपुल उसमें घूमते बावले से।
तो जाके सन्निकट उसके औ हिला के उसे भी।
देवात्मा को सुरति ब्रज के व्याकुलों की कराना॥69॥
कोई प्यारा-कुसुम कुम्हला गेह में जो पड़ा हो।
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसी को।
यों देना ऐ पवन बतला फूल सी एक बाला।
म्लाना ही हो कमल पग को चूमना चाहती है॥70॥
जो प्यारे मंजु-उपवन या वाटिका में खड़े हों।
छिद्रों में जा क्वणित करना वेणु सा कीचकों को।
यों होवेगी सुरति उनको सर्व गोपांगना की।
जो हैं वंशी श्रवण रुचि से दीर्घ उत्कण्ठ होतीं॥71॥
ला के फूले कमलदल को श्याम के सामने ही।
थोड़ा-थोड़ा विपुल जल में व्यग्र हो हो डुबाना।
यों देना ऐ भगिनि जतला एक अंभोजनेत्र।
ऑंखों को हो विरह-विधुरा वारि में बोरती है॥72॥
धीरे लाना वहन करके नीप का पुष्प कोई।
औ प्यारे के चपल दृग के सामने डाल देना।
ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशंकिता हो।
कैसी होती विरहवश मैं नित्य रोमांचिता हूँ॥73॥
बैठे नीचे जिस विटप के श्याम होवें उसी का।
कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना।
यों प्यारे को विदित करना चातुरी से दिखाना।
मेरे चिन्ता-विजित चित का क्लान्त हो काँप जाना॥74॥
सूखी जाती मलिन लतिका जो धरा में पड़ी हो।
तो पाँवों के निकट उसको श्याम के ला गिराना।
यों सीधे से प्रकट करना प्रीति से वंचिता हो।
मेरा होना अति मलिन औ सूखते नित्य जाना॥75॥
कोई पत्ता नवल तरु का पीत जो हो रहा हो।
तो प्यारे के दृग युगल के सामने ला उसे ही।
धीरे-धीरे सँभल रखना औ उन्हें यों बताना।
पीला होना प्रबल दुख से प्रोषिता सा हमारा॥76॥
यों प्यारे को विदित करके सर्व मेरी व्यथायें।
धीरे-धीरे वहन करके पाँव की धूलि लाना।
थोड़ी सी भी चरणरज जो ला न देगी हमें तू।
हा! कैसे तो व्यथित चित को बोध मैं दे सकूँगी॥77॥
जो ला देगी चरणरज तो तू बड़ा पुण्य लेगी।
पूता हूँगी भगिनि उसको अंग में मैं लगाके।
पोतूँगी जो हृदय तल में वेदना दूर होगी।
डालूँगी मैं शिर पर उसे ऑंख में ले मलूँगी॥78॥
तू प्यारे का मृदुल स्वर ला मिष्ट जो है बड़ा ही।
जो यों भी है क्षरण करती स्वर्ग की सी सुधा को।
थोड़ा भी ला श्रवणपुट में जो उसे डाल देगी।
मेरा सूखा हृदयतल तो पूर्ण उत्फुल्ल होगा॥79॥
भीनी-भीनी सुरभि सरसे पुष्प की पोषिका सी।
मूलीभूता अवनितल में कीर्ति कस्तूरिका की।
तू प्यारे के नवलतन की वास ला दे निराली।
मेरे ऊबे व्यथित चित में शान्तिधारा बहा दे॥80॥
होते होवें पतित कण जो अंगरागादिकों के।
धीरे-धीरे वहन करके तू उन्हीं को उड़ा ला।
कोई माला कलकुसुम की कंठसंलग्न जो हो।
तो यत्नों से विकच उसका पुष्प ही एक ला दे॥81॥
पूरी होवें न यदि तुझसे अन्य बातें हमारी।
तो तू मेरी विनय इतनी मान ले औ चली जा।
छू के प्यारे कमलपग को प्यार के साथ आ जा।
जी जाऊँगी हृदयतल में मैं तुझी को लगाके॥82॥
भ्रांता हो के परम दुख औ भूरि उद्विग्नता से।
ले के प्रात: मृदुपवन को या सखी आदिकों को।
यों ही राधा प्रगट करतीं नित्य ही वेदनायें।
चिन्तायें थीं चलित करती वर्ध्दिता थीं व्यथायें॥83॥

7. सप्तम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

ऐसा आया यक दिवस जो था महा मर्म्मभेदी।
धाता ने हो दुखित भव के चित्रितों को विलोका।
धीरे-धीरे तरणि निकला काँपता दग्ध होता।
काला-काला ब्रज-अवनि में शोक का मेघ छाया॥1॥
देखा जाता पथ जिन दिनों नित्य ही श्याम का था।
ऐसा खोटा यक दिन उन्हीं वासरों मध्य आया।
ऑंखें नीची जिस दिन किये शोक में मग्न होते।
देखा आते सकल-ब्रज ने नन्द गोपादिकों को॥2॥
खो के होवे विकल जितना आत्म-सर्वस्व कोई।
होती हैं खो स्वमणि जितनी सर्प को वेदनायें।
दोनों प्यारे कुँवर तज के ग्राम में आज आते।
पीड़ा होती अधिक उससे गोकुलाधीश को थी॥3॥
लज्जा से वे प्रथित-पथ में पाँव भी थे न देते।
जी होता था व्यथित हरि का पूछते ही सँदेसा।
वृक्षों में हो विपथ चल वे आ रहे ग्राम में थे।
ज्यों-ज्यों आते निकट महि के मध्य जाते गड़े थे॥4॥
पाँवों को वे सँभल बल के साथ ही थे उठाते।
तो भी वे थे न उठ सकते हो गये थे मनों के।
मानो यों वे गृह गमन से नन्द को रोकते थे।
संक्षुब्ध हो सबल बहती थी जहाँ शोक-धारा॥5॥
यानों से हो पृथक तज के संग भी साथियों का।
थोड़े लोगों सहित गृह की ओर वे आ रहे थे।
विक्षिप्तों सा वदन उनका आज जो देख लेता।
हो जाता था वह व्यथित औ था महा कष्ट पाता॥6॥
आँसू लाते कृशित दृग से फूटती थी निराशा।
छाई जाती वदन पर भी शोक की कालिमा थी।
सीधे जो थे न पग पड़ते भूमि में वे बताते।
चिन्ता द्वारा चलित उनके चित्त की वेदनायें॥7॥
भादोंवाली भयद रजनी सूचि-भेद्या अमा की।
ज्यों होती है परम असिता छा गये मेघ-माला।
त्योंही सारे ब्रज-सदन का हो गया शोक गाढ़ा।
तातों वाले ब्रज नृपति को देख आता अकेले॥8॥
एकाकी ही श्रवण करके कंत को गेह आता।
दौड़ी द्वारे जननि हरि की क्षिप्त की भाँति आईं।
वोहीं आये ब्रज अधिप भी सामने शोक-मग्न।
दोनों ही के हृदयतल की वेदना थी समाना॥9॥
आते ही वे निपतित हुईं छिन्न मूला लता सी।
पाँवों के सन्निकट पति के हो महा खिद्यमाना।
संज्ञा आई फिर जब उन्हें यत्न द्वारा जनों के।
रो रो हो हो विकल पति से यों व्यथा साथ बोलीं॥10॥

मालिनी छन्द

प्रिय-पति वह मेरा प्राणप्यारा कहाँ है।
दुख-जलधि निमग्ना का सहारा कहाँ है।
अब तक जिसको मैं देख के जी सकी हूँ।
वह हृदय हमारा नेत्र-तारा कहाँ है॥11॥
पल-पल जिसके मैं पंथ को देखती थी।
निशि-दिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती।
उर पर जिसके है सोहती मंजुमाला।
वह नवनलिनी से नेत्रवाला कहाँ है॥12॥
मुझ विजित-जरा का एक आधार जो है।
वह परम अनूठा रत्न सर्वस्व मेरा।
धन मुझ निधनी का लोचनों का उँजाला।
सजल जलद की सी कान्तिवाला कहाँ है॥13॥
प्रतिदिन जिसको मैं अंक में नाथ ले के।
विधि लिखित कुअंकों की क्रिया कीलती थी।
अति प्रिय जिसको हैं वस्त्र पीला निराला।
वह किसलय के से अंगवाला कहाँ है॥14॥
वर-वदन विलोके फुल्ल अंभोज ऐसा।
करतल-गत होता व्योम का चंद्रमा था।
मृदु-रव जिसका है रक्त सूखी नसों का।
वह मधु-मय-कारी मानसों का कहाँ है॥15॥
रस-मय वचनों से नाथ जो गेह मध्य।
प्रति दिवस बहाता स्वर्ग-मंदाकिनी था।
मम सुकृति धरा का स्रोत जो था सुधा का।
वह नव-घन न्यारी श्यामता का कहाँ है॥16॥
स्वकुल जलज का है जो समुत्फुल्लकारी।
मम परम-निराशा-यामिनी का विनाशी।
ब्रज-जन विहगों के वृन्द का मोद-दाता।
वह दिनकर शोभी रामभ्राता कहाँ है॥17॥
मुख पर जिसके है सौम्यता खेलती सी।
अनुपम जिसका हूँ शील सौजन्य पाती।
परदुख लख के है जो समुद्विग्न होता।
वह कृति सरसी का स्वच्छ सोता कहाँ है॥18॥
निविड़तम निराशा का भरा गेह में था।
वह किस विधु मुख की कान्ति को देख भागा।
सुखकर जिससे है कामिनी जन्म मेरा।
वह रुचिकर चित्रों का चितेरा कहाँ है॥19॥
सह कर कितने ही कष्ट औ संकटों को।
बहु यजन कराके पूज के निर्जरों को।
यक सुअन मिला है जो मुझे यत्न द्वारा।
प्रियतम! वह मेरा कृष्ण प्यारा कहाँ है॥20॥
मुखरित करता जो सद्म को था शुकों सा।
कलरव करता था जो खगों सा वनों में।
सुध्वनित पिक सा जो वाटिका को बनाता।
वह बहु विधा कंठों का विधाता कहाँ है॥21॥
सुन स्वर जिसका थे मत्त होते मृगादि।
तरुगण-हरियाली थी महा दिव्य होती।
पुलकित बन जाती थी लसी पुष्प-क्यारी।
उस कल मुरली का नादकारी कहाँ है॥22॥
जिस प्रिय वर को खो ग्राम सूना हुआ है।
सदन सदन में हा! छा गई है उदासी।
तम वलित मही में है न होता उँजाला।
वह निपट निराली कान्तिवाला कहाँ है॥23॥
वन-वन फिरती हैं खिन्न गायें अनेकों।
शुक भर-भर ऑंखें गेह को देखता है।
सुधि कर जिसकी है शारिका नित्य रोती।
वह श्रुचि रुचि स्वाती मंजु मोती कहाँ है॥24॥
गृह-गृह अकुलाती गोप की पत्नियाँ हैं।
पथ-पथ फिरते हैं ग्वाल भी उन्मना हो।
जिस कुँवर बिना मैं हो रही हूँ अधीरा।
वह छवि खनि शोभी स्वच्छ हीरा कहाँ है॥25॥
मम उर कँपता था कंस-आतंक ही से।
पल-पल डरती थी क्या न जाने करेगा।
पर परम-पिता ने की बड़ी ही कृपा है।
वह निज कृत पापों से पिसा आप ही जो॥26॥
अतुलित बलवाले मल्ल कूटादि जो थे।
वह गज गिरि ऐसा लोक-आतंक-कारी।
अनु दिन उपजाते भीति थोड़ी नहीं थे।
पर यमपुर-वासी आज वे हो चुके हैं॥27॥
भयप्रद जितनी थीं आपदायें अनेकों।
यक यक करके वे हो गईं दूर यों ही।
प्रियतम! अनसोची ध्यान में भी न आई।
यह अभिनव कैसी आपदा आ पड़ी है॥28॥
मृदु किसलय ऐसा पंकजों के दलों सा।
वह नवल सलोने गात का तात मेरा।
इन सब पवि ऐसे देह के दानवों का।
कब कर सकता था नाथ कल्पान्त में भी॥29॥
पर हृदय हमारा ही हमें है बताता।
सब शुभ-फल पाती हूँ किसी पुण्य ही का।
वह परम अनूठा पुण्य ही पापनाशी।
इस कुसमय में है क्यों नहीं काम आता॥30॥
प्रिय-सुअन हमारा क्यों नहीं गेह आया।
वर नगर छटायें देख के क्या लुभाया?।
वह कुटिल जनों के जाल में जा पड़ा है।
प्रियतम! उसको या राज्य का भोग भाया॥31॥
‘मधुर वचन से औ भक्ति भावादिकों से।
अनुनय विनयों से प्यार की उक्तियों से।
सब मधुपुर-वासी बुध्दिशाली जनों ने।
अतिशय अपनाया क्या ब्रजाभूषणों को?॥32॥
बहु विभव वहाँ का देख के श्याम भूला।
वह बिलम गया या वृन्द में बालकों के।
फँस कर जिसमें हा! लाल छूटा न मेरा।
सुफलक-सुत ने क्या जाल कोई बिछाया॥33॥
परम शिथिल हो के पंथ की क्लान्तियों से।
वह ठहर गया है क्या किसी वाटिका में।
प्रियतम! तुम से या दूसरों से जुदा हो।
वह भटक रहा है क्या कहीं मार्ग ही में॥34॥
विपुल कलित कुंजें भानुजा कूलवाली।
अतुलित जिनमें थी प्रीति मेरे प्रियों की।
पुलकित चित से वे क्या उन्हीं में गये हैं।
कतिपय दिवसों की श्रान्ति उन्मोचने को॥35॥
विविध सुरभिवाली मण्डली बालकों की।
मम युगल सुतों ने क्या कहीं देख पाई।
निज सुहृद जनों में वत्स में धेनूओं में।
बहु बिलम गये वे क्या इसी से न आये?॥36॥
निकट अति अनूठे नीप फूले फले के।
कलकल बहती जो धार है भानुजा की।
अति-प्रिय सुत को है दृश्य न्यारा वहाँ का।
वह समुद उसे ही देखने क्या गया है?॥37॥
सित सरसिज ऐसे गात के श्याम भ्राता।
यदुकुल जन हैं औ वंश के हैं उँजाले।
यदि वह कुलवालों के कुटुम्बी बने तो।
सुत सदन अकेले ही चला क्यों न आया॥38॥
यदि वह अति स्नेही शील सौजन्य शाली।
तज कर निज भ्राता को नहीं गेह आया।
ब्रजअवनि बता दो नाथ तो क्यों बसेगी।
यदि बदन विलोकूँगी न मैं क्यों बचूँगी॥39॥
प्रियतम! अब मेरा कंठ में प्राण आया।
सच-सच बतला दो प्राण प्यारा कहाँ है?।
यदि मिल न सकेगा जीवनाधार मेरा।
तब फिर निज पापी प्राण मैं क्यों रखूँगी॥40॥
विपुल धन अनेकों रत्न हो साथ लाये।
प्रियतम! बतला दो लाल मेरा कहाँ है।
अगणित अनचाहे रत्न ले क्या करूँगी।
मम परम अनूठा लाल ही नाथ ला दो॥41॥
उस वर-धन को मैं माँगती चाहती हूँ।
उपचित जिससे है वंश की बेलि होती।
सकल जगत प्राणी मात्रा का बीज जो है।
भव-विभव जिसे खो है वृथा ज्ञात होता॥42॥
इन अरुण प्रभा के रंग के पाहनों की।
प्रियतम! घर मेरे कौन सी न्यूनता है।
प्रति पल उर में है लालसा वर्ध्दमाना।
उस परम निराले लाल के लाभ ही की॥43॥
युग दृग जिससे हैं स्वर्ग सी ज्योति पाते।
उर तिमिर भगाता जो प्रभापुंज से है।
कल द्युति जिसकी है चित्त उत्ताप खोती।
वह अनुपम हीरा नाथ मैं चाहती हूँ॥44॥
कटि-पट लख पीले रत्न दूँगी लुटा मैं।
तन पर सब नीले रत्न को वार दूँगी।
सुत-मुख-छवि न्यारी आज जो देख पाऊँ।
बहु अपर अनूठे रत्न भी बाँट दूँगी॥45॥
धन विभव सहस्रों रत्न संतान देखे।
रज कण सम हैं औ तुच्छ हैं वे तृणों से।
पति इन सबको त्यों पुत्र को त्याग लाये।
मणि-गण तज लावे गेह ज्यों काँच कोई॥46॥
परम-सुयश वाले कोशलाधीश ही हैं।
प्रिय-सुत बन जाते ही नहीं जी सके जो।
वह हृदय हमारा बज्र से ही बना है।
वह तुरत नहीं जो सैकड़ों खंड होता॥47॥
निज प्रिय मणि को जो सर्प खोता कभी है।
तड़प-तड़प के तो प्राण है त्याग देता।
मम सदृश मही में कौन पापीयसी है।
हृदय-मणि गँवा के नाथ जो जीविता हूँ॥48॥
लघुतर-सफरी भी भाग्य वाली बड़ी है।
अलग सलिल से हो प्राण जो त्यागती है।
अहह अवनि में मैं हूँ महा भाग्यहीना।
अब तक बिछुड़े जो लाल के जी सकी हूँ॥49॥
परम पतित मेरे पातकी-प्राण ए हैं।
यदि तुरत नहीं हैं गात को त्याग देते।
अहह दिन न जानें कौन सा देखने को।
दुखमय तन में ए निर्म्ममों से रुके हैं॥50॥
विधिवश इन में हा! शक्ति बाकी नहीं है।
तन तज सकने की हो गये क्षीण ऐसे।
वह इस अवनी में भाग्यवाली बड़ी है।
अवसर पर सोवे मृत्यु के अंक में जो॥51॥
बहु कलप चुकी हूँ दग्ध भी हो चुकी हूँ।
जग कर कितनी ही रात में रो चुकी हूँ।
अब न हृदय में है रक्त का लेश बाकी।
तन बल सुख आशा मैं सभी खो चुकी हूँ॥52॥
विधु मुख अवलोके मुग्ध होगा न कोई।
न सुखित ब्रजवासी कान्ति को देख होंगे।
यह अवगत होता है सुनी बात द्वारा।
अब बह न सकेगी शान्ति-पीयूष धारा॥53॥
सब दिन अति-सूना ग्राम सारा लगेगा।
निशि दिवस बड़ी ही खिन्नता से कटेंगे।
समधिक ब्रज में जो छा गई है उदासी।
अब वह न टलेगी औ सदा ही खलेगी॥54॥
बहुत सह चुकी हूँ और कैसे सहूँगी।
पवि सदृश कलेजा मैं कहाँ पा सकूँगी।
इस कृशित हमारे गात को प्राण त्यागो।
बन विवश नहीं तो नित्य रो रो मरूँगी॥55॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

हा! वृध्दा के अतुल धन हो! वृध्दता के सहारे।
हा! प्राणों के परम-प्रिय हा! एक मेरे दुलारे।
हा! शोभा के सदन सम हा! रूप लावण्यवाले।
हा! बेटा हा! हृदय-धन हा! नेत्र-तारे हमारे॥56॥
कैसे होके अलग तुझसे आज भी मैं बची हूँ।
जो मैं ही हूँ समझ न सकी तो तुझे क्यों बताऊँ।
हाँ जीऊँगी न अब, पर है वेदना एक होती।
तेरा प्यारा वदन मरती बार मैंने न देखा॥57॥
यों ही बातें स-दुख कहते अश्रुधारा बहाते।
धीरे-धीरे यशुमति लगीं चेतना-शून्य होने।
जो प्राणी थे निकट उनके या वहाँ, भीत होके।
नाना यत्नों सहित उनको वे लगे बोध देने॥58॥
आवेगों से बहु विकल तो नन्द थे पूर्व ही से।
कान्ता को यों व्यथित लख के शोक में और डूबे।
बोले ऐसे वचन जिनसे चित्त में शान्ति आवे।
आशा होवे उदय उर में नाश पावे निराशा॥59॥
धीरे-धीरे श्रवण करके नन्द की बात प्यारी।
जाते जो थे वपुष तज के प्राण वे लौट आये।
ऑंखें खोलीं हरि-जननि ने कष्ट से, और बोलीं।
क्या आवेगा कुँवर ब्रज में नाथ दो ही दिनों में॥60॥
सारी बातें व्यथित उर की भूल के नन्द बोले।
हाँ आवेगा प्रिय-सुत प्रिये गेह दो ही दिनों में।
ऐसी बातें कथन कितनी और भी नन्द ने कीं।
जैसे-तैसे हरि-जननि को धीरता से प्रबोध॥61॥
जैसे स्वाती सलिल-कण पा वृष्टि का काल बीते।
थोड़ी सी है परम तृषिता चातकी शान्ति पाती।
वैसे आना श्रवण करके पुत्र का दो दिनों में।
संज्ञा खोती यशुमति हुईं स्वल्प आश्वासिता सी॥62॥
पीछे बातें कलप कहती काँपती कष्ट पाती।
आईं लेके स्वप्रिय पति को सद्म में नंद-वामा।
आशा की है अमित महिमा धन्य है दिव्य आशा।
जो छू के है मृतक बनते प्राणियों को जिलाती॥63॥

8. अष्टम सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द

यात्रा पूरी स-दुख करके गोप जो गेह आये।
सारी-बातें प्रकट ब्रज में कष्ट से कीं उन्होंने।
जो आने की विवि दिवस में बात थी खोजियों ने,
धीरे-धीरे सकल उसका भेद भी जान पाया॥1॥
आती बेला वदन सबने नन्द का था विलोका।
ऑंखों में भी सतत उसकी म्लानता घूमती थी।
सारी-बातें श्रवणगत थीं हो चुकीं आगतों से।
कैसे कोई न फिर असली बात को जान जाता॥2॥
दोनों प्यारे न अब ब्रज में आ सकेंगे कभी भी।
ऑंखें होंगी न अब सफला देख के कान्ति प्यारी।
कानों में भी न अब मुरली की सु-तानें पड़ेंगी।
प्राय: चर्चा प्रति सदन में आज होती यही थी॥3॥
गो गोपी के सकल ब्रज के श्याम थे प्राणप्यारे।
प्यारी आशा सकल पुर की लग्न भी थी उन्हीं में।
चावों से था वदन उनका देखता ग्राम सारा।
क्यों हो जाता न उर-शतधा आज खोके उन्हीं को॥4॥
बैठे नाना जगह कहते लोग थे वृत्त नाना।
आवेगों का सकल पुर में स्रोत था वृध्दि पाता।
देखो कैसे करुण-स्वर से एक आभीर बैठा।
लोगों को है सकल अपनी वेदनायें सुनाता॥5॥

द्रुतविलम्बित छन्द

जब हुआ ब्रजजीवन-जन्म था।
ब्रज प्रफुल्लित था कितना हुआ।
उमगती कितनी कृति-मूर्ति थीं।
पुलकते कितने नृप नंद थे॥6॥
विपुल सुन्दर-बन्दनवार से।
सकल द्वार बने अभिराम थे।
विहँसते ब्रज-सद्म-समूह के।
वदन में दसनावलि थी लसी॥7॥
नव रसाल-सुपल्लव के बने।
अजिर में वर-तोरण थे बँधे।
विपुल-जीह विभूषित था हुआ।
वह मनो रस-लेहन के लिए॥8॥
गृह गली मग मंदिर चौरहों।
तरुवरों पर थी लसती ध्वजा।
समुद सूचित थी करती मनो।
वह कथा ब्रज की सुरलोक को॥9॥
विपणि हो वर-वस्तु विभूषिता।
मणि मयी अलका सम थी लसी।
पर-वितान विमंडित ग्राम की।
सु-छवि थी अमरावति-रंजिनी॥10॥
सजल कुंभ सुशोभित द्वार थे।
सुमन-संकुल थीं सब वीथियाँ।
अति-सु-चर्चित थे सब चौरहे।
रस प्रवाहित सा सब ठौर था॥11॥
सकल गोधन सज्जित था हुआ।
वसन भूषण औ शिखिपुच्छ से।
विविध-भाँति अलंकृत थी हुई।
विपुल-ग्वाल मनोरम मण्डली॥12॥
‘मधुर मंजुल मंगल गान की।
मच गई ब्रज में बहु धूम थी।
सरस औ अति ही मधुसिक्त थी।
पुलकिता नवला कलकंठता॥13॥
सदन उत्सव की कमनीयता।
विपुलता बहु याचक-वृन्द की।
प्रचुरता धन रत्न प्रदान की।
अति मनोरम औ रमणीय थी॥14॥
विविध भूषण वस्त्र विभूषिता।
बहु विनोदित ग्राम-वधूटियाँ।
विहँसती, नृप गेह-पधारती।
सुखद थीं कितना जनवृन्द को॥15॥
ध्वनित भूषण की मधु मानता।
अति अलौकिकता कलतान की।
‘मधुर वादन वाद्य समूह का।
हृदय के कितना अनुकूल था॥16॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

या मैंने था दिवस अति-ही-दिव्य ऐसा विलोका।
या ऑंखों से मलिन इतना देखता वार मैं हूँ।
जो ऐसा ही दिवस मुझको अन्त में था दिखाना।
तो क्यों तूने निठुर विधना! वार वैसा दिखाया॥17॥
हा! क्यों देखा मुदित उतना नन्द-नन्दांगना को।
जो दोनों को दुखित इतना आज मैं देखता हूँ।
वैसा फूला सुखित ब्रज क्यों म्लान है नित्य होता।
हा! क्यों ऐसी दुखमय दशा देखने को बचा मैं॥18॥
या देखा था अनुपम सजे द्वार औ प्रांगणों को।
आवासों को विपणि सबको मार्ग को मंदिरों को।
या रोते से विषम जड़ता मग्न से आज ए हैं।
देखा जाता अटल जिनमें राज्य मालिन्य का है॥19॥
मैंने हो हो सुखित जिनको सज्जिता था बिलोका।
क्यों वे गायें अहह! दुख के सिंधु में मज्जिता हैं।
जो ग्वाले थे मुदित अति ही मग्न आमोद में हो।
हा! आहों से मथित अब मैं क्यों उन्हें देखता हूँ॥20॥
भोलीभाली बहु विधा सजी वस्त्र आभूषणों से।
गानेवाली ‘मधुर स्वर से सुन्दरी बालिकायें।
जो प्राणी के परम मुद की मूर्तियाँ थीं उन्हें क्यों।
खिन्ना-दीना मलिन-वसना देखने को बचा मैं॥21॥
हा! वाद्यों की ‘मधुरध्वनि भी धूल में जा मिली क्या।
हा! कीला है किस कुटिल ने कामिनी-कण्ठ प्यारा।
सारी शोभा सकल ब्रज की लूटता कौन क्यों है?।
हा! हा! मेरे हृदय पर यों साँप क्यों लोटता है॥22॥
आगे आओ सहृदय जनों, वृध्द का संग छोड़ो।
देखो बैठी सदन कहती क्या कई नारियाँ हैं।
रोते-रोते अधिकतर की लाल ऑंखें हुई हैं।
जो ऊबी है कथन पहले हूँ उसी का सुनाता॥23॥

द्रुतविलम्बित छन्द

जब रहे ब्रजचन्द छ मास के।
दसन दो मुख में जब थे लसे।
तब पड़े कुसुमोपम तल्प पै।
वह उछाल रहे पद कंज थे॥24॥
महरि पास खड़ी इस तल्प के।
छवि अनूपम थीं अवलोकती।
अति मनोहर कोमल कंठ से।
कलित गान कभी करती रहीं॥25॥
जब कभी जननी मुख चूमतीं।
कल कथा कहतीं चुमकारतीं।
उमँगना हँसना उस काल का।
अति अलौकिक था ब्रजचन्द का॥26॥
कुछ खुले मुख की सुषमा-मयी।
यह हँसी जननी-मन-रंजिनी।
लसित यों मुखमण्डल पै रही।
विकच पंकज ऊपर ज्यों कला॥27॥
दसन दो हँसते मुख मंजु में।
दरसते अति ही कमनीय थे।
नवल कोमल पंकज कोष में।
विलसते विवि मौक्तिक हों यथा॥28॥
जननि के अति वत्सलता पगे।
ललकते विवि लोचन के लिए।
दसन थे रस के युग बीज से।
सरस धार सुधा सम थी हँसी॥29॥
जब सुव्यंजक भाव विचित्र के।
निकलते मुख-अस्फुट शब्द थे।
तब कढ़े अधरांबुधि से कई।
जननि को मिलते वर रत्न थे॥30॥
अधर सांध्य सु-व्योम समान थे।
दसन थे युगतारक से लगे।
मृदु हँसी वर ज्योति समान थी।
जननि मानस की अभिनन्दिनी॥31॥
विमल चन्द विनिन्दक माधुरी।
विकच वारिज की कमनीयता।
वदन में जननी बलवीर के।
निरखती बहु विश्व विभूति थीं॥32॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

मैंने ऑंखों यह सब महा मोद नन्दांगना का।
देखा है औ सहस मुख से भाग को है सराहा।
छा जाती थी वदन पर जो हर्ष की कान्त लाली।
सो ऑंखों को अकथ रस से सिंचिता थी बनाती॥33॥
हा! मैं ऐसी प्रमुद-प्रतिमा मोद-आन्दोलिताको।
जो पाती हूँ मलिन वदना शोक में मज्जिता सी।
तो है मेरा हृदय मलता वारि है नेत्र लाता।
दावा सी है दहक उठती गात-रोमावली में॥34॥
जो प्यारे का वदन लख के स्वर्ग-सम्पत्ति पाती।
लूटे लेती सकल निधियाँ श्यामली-मूर्ति देखे।
हा! सो सारे अवनितल में देखती हैं अंधेरा।
थोड़ी आशा झलक जिसमें है नहीं दृष्टि आती॥35॥
हा! भद्रे! हा! सरलहृदये! हा! सुशीला यशोदे।
हा! सद्वृत्तो! सुरद्विजरते! हा! सदाचार-रूपे।
हा! शान्ते! हा परम-सुव्रते! है महा कष्ट देता।
तेरा होना नियति कर से विश्व में वंचिता यों॥36॥
बोली बाला अपर विधि की चाल ही है निराली।
ऐसी ही है मम हृदय में वेदना आज होती।
मैं भी बीती भगिनि, अपनी आह! देती सुना दूँ।
संतप्ता ने फिर बिलख से बात आरंभ यों की॥37॥

द्रुतविलम्बित छन्द

जननि-मानस पुण्य-पयोधि में।
लहर एक उठी सुख-मूल थी।
बहु सु-वासर था ब्रज के लिए।
जब चले घुटनों ब्रज-चन्द थे॥38॥
उमगते जननी मुख देखते।
किलकते हँसते जब लाड़िले।
अजिर में घुटनों चलते रहे।
बितरते तब भूरि विनोद थे॥39॥
विमल व्योम-विराजित चंद्रमा।
सदन शोभित दीपक की शिखा।
जननि अंक विभूषण के लिए।
परम कौतुक की प्रिय वस्तु थी॥40॥
नयन रंजन अंजन मंजु सी।
छविमयी रज श्यामल गात की।
जननि थीं कर से जब पोंछतीं।
उलहती तब वेलि विनोद की॥41॥
जब कभी कुछ लेकर पाणि में।
वदन में ब्रजनन्दन डालते।
चकित-लोचन से अथवा कभी।
निरखते जब वस्तु विशेष को॥42॥
प्रकृति के नख थे तब खोलते।
विविध ज्ञान मनोहर ग्रन्थि को।
दमकती तब थी द्विगुणी शिखा।
महरि मानस मंजु प्रदीप की॥43॥
कुछ दिनों उपरान्त ब्रजेश के।
चरण भूपर भी पड़ने लगे।
नवल नूपुर औ कटिकिंकिणी।
ध्वनित हो उठने गृह में लगी॥44॥
ठुमुकते गिरते पड़ते हुए।
जननि के कर की उँगली गहे।
सदन में चलते जब श्याम थे।
उमड़ता तब हर्ष-पयोधि था॥45॥
क्वणित हो करके कटिकिंकिणी।
विदित थी करती इस बात को।
चकितकारक पण्डित मण्डली।
परम अद्भुत बालक है यही॥46॥
कलित नूपुर की कल-वादिता।
जगत को यह थी जतला रही।
कब भला न अजीब सजीवता।
परस के पद पंकज पा सके॥47॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

ऐसा प्यारा विधु छवि जयी आलयों का उँजाला।
शोभावाला अतुल-सुख का धाम माधुर्यशाली।
जो पाया था सुअन सुभगा नन्द-अर्धांगिनी ने।
तो यत्नों के बल न उनका कौन था पुण्य जागा॥48॥
देखा होगा जिस सु-तिय ने नन्द के गेह जाके।
प्यारी लीला जलद-तन की मोद नन्दांगना का।
कैसे पाते विशद फल हैं पुण्यकारी मही में।
जाना होगा इस विषय को तद्गता हो उसी ने॥49॥
प्राय: जाके कुँवर-छवि मैं मत्त हो देखती थी।
मदोन्मत्ता महिषि-मुख को देख थी स्वर्ग छूती।
दौड़े माँ के निकट जब थे श्याम उत्फुल्ल जाते।
तो वे भी थीं ललक उनको अंक ले मुग्ध होती॥50॥
मैं देवी की इस अनुपमा मुग्धता में रसों की।
नाना धारें समुद लख थी सिक्त होती सुधा से।
ऑंखों में है भगिनि, अब भी दृश्य न्यारा समाया।
हा! भूली हूँ न अब तक मैं आत्म-उत्फुल्लता को॥51॥
जाना जाता सखि यह नहीं कौन सा पाप जागा।
सोने ऐसा सुख-सदन जो आज है ध्वंस होता।
अंगों में जो परम सुभगा थी न फूली समाती।
हा! पाती हूँ विरह-दव में दग्ध होती उसी को॥52॥
हा! क्या सारे दिवस सुख के हो गये स्वर्गवासी।
या डूबे जा सलिल-निधि के गर्भ में वे दुखी हो।
आके छाई महिषि-मुख में म्लानता है कहाँ की।
हा! देखूँगी न अब उसको क्या खिले पद्म सा मैं॥53॥
सारी बातें दुखित बनिता की भरी दु:ख गाथा।
धीरे-धीरे श्रवण करके एक बाला प्रवीणा।
हो हो खिन्ना विपुल पहले धीरता-त्याग रोई।
पीछे आहें, भर विकल हो यों व्यथा-साथ बोली॥54॥

द्रुतविलम्बित छन्द

निकल के निज सुन्दर सद्म से।
जब लगे ब्रज में हरि घूमने।
जब लगी करने अनुरंजिता।
स्वपथ को पद पंकज लालिमा॥55॥
तब हुई मुदिता शिशु-मण्डली।
पुर-वधू सुखिता बहु हर्षिता।
विविध कौतुक और विनोद की।
विपुलता ब्रज-मंडल में हुई॥56॥
पहुँचते जब थे गृह में किसी।
ब्रज-लला हँसते मृदु बोलते।
ग्रहण थीं करती अति-चाव से।
तब उन्हें सब सद्म-निवासिनी॥57॥
‘मधुर भाषण से गृह-बालिका।
अति समादर थी करती सदा।
सरस माखन औ दधि दान से।
मुदित थी करती गृह-स्वामिनी॥58॥
कमल लोचन भी कल उक्ति से।
सकल को करते अति मुग्ध थे।
कलित क्रीड़न नूपुर नाद से।
भवन भी बनता अति भव्य था॥59॥
स-बलराम स-बालक मण्डली।
विहरते बहु मंदिर में रहे।
विचरते हरि थे अकले कभी।
रुचिर वस्त्र विभूषण से सजे॥60॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

ऐसे सारी ब्रज-अवनि के एक ही लाडिले को।
छीना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला।
हा! क्यों घोला गरल उसने स्निग्धकारी रसों में।
कैसे छींटा सरस कुसुमोद्यान में कंटकों को॥61॥
लीलाकारी, ललित-गलियों, लोभनीयालयों में।
क्रीड़ाकारी कलित कितने केलिवाले थलों में।
कैसे भूला ब्रज-अवनि को कूल को भानुजा के।
क्या थोड़ा भी हृदय मलता लाडिले का न होगा॥62॥
क्या देखूँगी न अब कढ़ता इंदु को आलयों में।
क्या फूलेगा न अब गृह में पद्म सौंदर्य्यशाली।
मेरे खोटे दिवस अब क्या मुग्धकारी न होंगे।
क्या प्यारे का अब न मुखड़ा मंदिरों में दिखेगा॥63॥
हाथों में ले ‘मधुर दधि को दीर्घ उत्कण्ठता से।
घंटों बैठी कुँवर-पथ जो आज भी देखती है।
हा! क्या ऐसी सरल-हृदया सद्म की स्वामिनी की।
वांछा होगी न अब सफला श्याम को देख ऑंखें॥64॥
भोली भाली सुख सदन की सुन्दरी बालिकायें।
जो प्यारे के कल कथन की आज भी उत्सुका हैं।
क्रीड़ाकांक्षी सकल शिशु जो आज भी हैं स-आशा।
हा! धाता, क्या न अब उनकी कामना सिध्द होगी॥65॥
प्रात: वेला यक दिन गई नन्द के सद्म मैं थी।
बैठी लीला महरि अपने लाल की देखती थीं।
न्यारी क्रीड़ा समुद करके श्याम थे मोद देते।
होठों में भी विलसित सिता सी हँसी सोहती थी॥66॥
ज्योंही ऑंखें मुझ पर पड़ीं प्यार के साथ बोलीं।
देखो कैसा सँभल चलता लाडिला है तुम्हारा।
क्रीड़ा में है निपुण कितना है कलावान कैसा।
पाके ऐसा वर सुअन मैं भाग्यमाना हुई हूँ॥67॥
होवेगा सो सुदिन जब मैं ऑंख से देख लूँगी।
पूरी होतीं सकल अपने चित्त की कामनायें।
ब्याहूँगी मैं जब सुअन को औ मिलेगी वधूटी।
तो जानूँगी अमरपुर की सिध्दि है सद्म आई॥68॥
ऐसी बातें उमग कहती प्यार से थीं यशोदा।
होता जाता हृदय उनका उत्स आनंद का था।
हा! ऐसे ही हृदय-तल में शोक है आज छाया।
रोऊँ मैं या यह सब कहूँ या मरूँ क्या करूँ मैं॥69॥
यों ही बातें विविध कह के कष्ट के साथ रो के।
आवेगों से व्यथित बन के दु:ख से दग्ध हो के।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के दर्शनाशा सहारे।
प्यारे से हो पृथक अपने वार को थे बिताते॥70॥

9. नवम सर्ग
शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द

एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह में।
उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी।
ऊधो-संज्ञक-ज्ञान-वृध्द उनके जो एक सन्मित्र थे।
वे आये इस काल ही सदन में आनन्द में मग्न से॥1॥
आते ही मुख-म्लान देख हरि का वे दीर्घ-उत्कण्ठ हो।
बोले क्यों इतने मलीन प्रभु हैं? है वेदना कौन सी।
फूले-पुष्प-विमोहिनी-विचकता क्या हो गई आपकी।
क्यों है नीरसता प्रसार करती उत्फुल्ल-अंभोज में॥2॥
बोले वारिद-गात पास बिठला सम्मान से बन्धु को।
प्यारे सर्व-विधन ही नियति का व्यामोह से है भरा।
मेरे जीवन का प्रवाह पहले अत्यन्त-उन्मुक्त था।
पाता हूँ अब मैं नितान्त उसको आबद्ध कर्तव्य में॥3॥
शोभा-संभ्रम-शालिनी-ब्रज-धार प्रेमास्पदा-गोपिका।
माता-प्रीतिमयी प्रतीति-प्रतिमा, वात्सल्य-धाता-पिता।
प्यारे गोप-कुमार, प्रेम-मणि के पाथोधि से गोप वे।
भूले हैं न, सदैव याद उनकी देती व्यथा है हमें॥4॥
जी में बात अनेक बार यह थी मेरे उठी मैं चलूँ।
प्यारी-भावमयी सु-भूमि ब्रज में दो ही दिनों के लिए।
बीते मास कई परन्तु अब भी इच्छा न पूरी हुई।
नाना कार्य-कलाप की जटिलता होती गई बाधिका॥5॥
पेचीले नव राजनीति पचड़े जो वृध्दि हैं पा रहे।
यात्रा में ब्रज-भूमि की अहह वे हैं विघ्नकारी बड़े।
आते वासर हैं नवीन जितने लाते नये प्रश्न हैं।
होता है उनका दुरूहपन भी व्याघातकारी महा॥6॥
प्राणी है यह सोचता समझता मैं पूर्ण स्वाधीन हूँ।
इच्छा के अनुकूल कार्य्य सब मैं हूँ साध लेता सदा।
ज्ञाता हैं कहते मनुष्य वश में है काल कर्म्मादि के।
होती है घटना-प्रवाह-पतित-स्वाधीनता यंत्रिता॥7॥
देखो यद्यपि है अपार, ब्रज के प्रस्थान की कामना।
होता मैं तब भी निरस्त नित हूँ व्यापी द्विधा में पड़ा।
ऊधो दग्ध वियोग से ब्रज-धरा है हो रही नित्यश:।
जाओ सिक्त करो उसे सदय हो आमूल ज्ञानाम्बु से॥8॥
मेरे हो तुम बंधु विज्ञ-वर हो आनन्द की मुर्ति हो।
क्यों मैं जा ब्रज में सका न अब भी हो जानते भी इसे।
कैसी हैं अनुरागिनी हृदय से माता, पिता गोपिका।
प्यारे है यह भी छिपी न तुमसे जाओ अत: प्रात ही॥9॥
जैसे हो लघु वेदना हृदय की औ दूर होवे व्यथा।
पावें शान्ति समस्त लोग न जलें मेरे वियोगाग्नि में।
ऐसे ही वर-ज्ञान तात ब्रज को देना बताना क्रिया।
माता का स-विशेष तोष करना और वृध्द-गोपेश का॥10॥
जो राधा वृष-भानु-भूप-तनया स्वर्गीय दिव्यांगना।
शोभा है ब्रज प्रान्त की अवनि की स्त्री-जाति की वंशकी।
होगी हा! वह मग्नभूत अति ही मेरे वियोगाब्धिा में।
जो हो संभव तात पोत बन के तो त्राण देना उसे॥11॥
यों ही आत्म प्रसंग श्याम-वपु ने प्यारे सखा से कहा।
मर्य्यादा व्यवहार आदि ब्रज का पूरा बताया उन्हें।
ऊधो ने सब को स-आदर सुना स्वीकार जाना किया।
पीछे हो करके बिदा सुहृद से आये निजागार वे॥12॥
प्रात:काल अपूर्व-यान मँगवा औ साथ ले सूत को।
ऊधो गोकुल को चले सदय हो स्नेहाम्बु से भींगते।
वे आये जिस काल कान्त-ब्रज में देखा महा-मुग्ध हो।
श्री वृन्दावन की मनोज्ञ-मधुरा श्यामायमाना-मही॥13॥
चूड़ायें जिसकी प्रशान्त-नभ में थीं देखती दूर से।
ऊधो को सु-पयोद के पटल सी सधर्म की राशि सी।
सो गोवर्धन श्रेष्ठ-शैल अधुना था सामने दृष्टि के।
सत्पुष्पों सुफलों प्रशंसित द्रुमों से दिव्य सर्वाङ्ग हो॥14॥
ऊँचा शीश सहर्ष शैल करके था देखता व्योम को।
या होता अति ही स-गर्व वह था सर्वोच्चता दर्प से।
या वार्ता यह था प्रसिध्द करता सामोद संसार में।
मैं हूँ सुन्दर मान दण्ड ब्रज की शोभा-मयी-भूमि का॥15॥
पुष्पों से परिशोभमान बहुश: जो वृक्ष अंकस्थ थे।
वे उद्धोषित थे सदर्प करते उत्फुल्लता मेरु की।
या ऊँचा करके स-पुष्प कर को फूले द्रुमों व्याज से।
श्री-पद्मा-पति के सरोज-पग को शैलेश था पूजता॥16॥
नाना-निर्झर हो प्रसूत गिरि के संसिक्त उत्संग से।
हो हो शब्दित थे सवेग गिरते अत्यन्त-सौंदर्य्य से।
जो छीटें उड़तीं अनन्त पथ में थीं दृष्टि को मोहती।
शोभा थी अति ही अपूर्व उनके उत्थान की, ‘पात’ की॥17॥
प्यारा था शुचि था प्रवाह उनका सद्वारि-सम्पन्न हो।
जो प्राय: बहता विचित्र-गति के गम्य-स्थलों-मध्य था।
सीधे ही वह था कहीं विहरता होता कहीं वक्र था।
नाना-प्रस्तर खंड साथ टकरा, था घूम जाता कहीं॥18॥
होता निर्झर का प्रवाह जब था सर्वत्ता उद्भिन्न हो।
तो होती उसमें अपूर्व-ध्वनि थी उन्मादिनी कर्ण की।
मानो यों वह था सहर्ष कहता सत्कीर्ति शैलेश की।
या गाता गुण था अचिन्त्य-गति का सानन्द सत्कण्ठ से॥19॥
गर्तों में गिरि कन्दरा निचय में, जो वारि था दीखता।
सो निर्जीव, मलीन, तेजहत था, उच्छ्वास से शून्य था।
पानी निर्झर का समुज्ज्वल तथा उल्लास की मूर्ति था।
देता था गति-शील-वस्तु गरिमा यों प्राणियों को बता॥20॥
देता था उसका प्रवाह उर में ऐसी उठी कल्पना।
धारा है यह मेरु से निकलती स्वर्गीय आनन्द की।
या है भूधर सानुराग द्रवता अंकस्थितों के लिए।
ऑंसू है वह ढालता विरह से किम्वा ब्रजाधीश के॥21॥
ऊधो को पथ में पयोद-स्वप्न सी गंभीरता पूरिता।
हो जाती ध्वनि एक कर्ण-गत थी प्राय: सुदूरागता।
होती थी श्रुति-गोचरा अब वही प्राबल्य पा पास ही।
व्यक्ता हो गिरि के किसी विवर से सद्वायु-संसर्गत:॥22॥
सद्भावाश्रयता अचिन्त्य-दृढ़ता निर्भीकता उच्चता।
नाना-कौशल-मूलता अटलता न्यारी-क्षमाशीलता।
होता था यह ज्ञात देख उसकी शास्ता-समा-भंगिमा।
मानो शासन है गिरीन्द्र करता निम्नस्थ-भूभाग का॥23॥
देतीं मुग्ध बना किसे न जिनको ऊँची शिखायें हिले।
शाखाएँ जिनकी विहंग-कुल से थीं शोभिता शब्दिता।
चारों ओर विशाल-शैल-वर के थे राजते कोटिश:।
ऊँचे श्यामल पत्र-मान-विटपी पुष्पोपशोभी महा॥24॥
जम्बू अम्ब कदम्ब निम्ब फलसा जम्बीर औ ऑंवला।
लीची दाड़िम नारिकेल इमिली औ शिंशपा इंगुदी।
नारंगी अमरूद बिल्व बदरी सागौन शालादि भी।
श्रेणी-बध्द तमाल ताल कदली औ शाल्मली थे खड़े॥25॥
ऊँचे दाड़िम से रसाल-तरु थे औ आम्र से शिंशपा।
यों निम्नोच्च असंख्य-पादप कसे वृन्दाटवी मध्य थे।
मानो वे अवलोकते पथ रहे वृन्दावनाधीश का।
ऊँचा शीश उठा अपार-जनता के तुल्य उत्कण्ठ हो॥26॥

वंशस्थ छन्द

गिरीन्द्र में व्याप विलोकनीय थी।
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी।
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी।
असेत जम्बालिनि-कूल जम्बु की॥27॥
सुपक्वता पेशलता अपूर्वता।
फलादि की मुग्धकरी विभूति थी।
रसाप्लुता सी बन मंजु भूमि को।
रसालता थी करती रसाल की॥28॥
सुवर्तुलाकार विलोकनीय था।
विनम्र-शाखा नयनाभिराम थी।
अपूर्व थी श्यामल-पत्र-राशि में।
कदम्ब के पुष्प-कदम्ब की छटा॥29॥
स्वकीय-पंचांग प्रभाव से सदा।
सदैव नीरोग वनान्त को बना।
किसी गुणी-वैद्य समान था खड़ा।
स्वनिम्बता-गर्वित-वृक्ष-निम्ब का॥30॥
लिये हथेली सम गात-पत्र में।
बड़े अनूठे-फल श्यामरंग के।
सदा खड़ा स्वागत के निमित्त था।
प्रफुल्लितों सा फलवान फालसा॥31॥
सुरम्य-शाखाकल-पल्लवादि में।
न डोलते थे फल मंजु-भाव से।
प्रकाश वे थे करते शनै: शनै:।
सदम्बु-निम्बू-तरु की सदम्बुता॥32॥
दिखा फलों की बहुधा अपक्वता।
स्वपत्तिायों की स्थिरता-विहीनता।
बता रहा था चलचित्त वृत्ति के।
उतावलों की करतूत ऑंवला॥33॥
रसाल-गूदा छिलका कदंश में।
कु-बीज गूदा मधुमान-अंक में।
दिखा फलों में, वर-पोच-वंश का।
रहस्य लीची-तरु था बता रहा॥34॥
विलोल-जिह्वा-युत रक्त-पुष्प से।
सुदन्त शोफी फल भग्न-अंक से।
बढ़ा रही थी वन की विचित्रता।
समाद्रिता दाड़िम की द्रुमावली॥35॥
हिला-स्व-शाखा नव-पुष्प को खिला।
नचा सु-पत्रावलि औ फलादि ला।
नितान्त था मानस पान्थ मोहता।
सुकेलि-कारी तरु-नारिकेल का॥36॥
नितान्त लघ्वी घनता विवर्ध्दिनी।
असंख्य-पत्रावलि अंकधारिणी।
प्रगाढ़-छाया-मय पुष्पशोभिनी।
अम्लान काया-इमिली सुमौलि थी॥37॥
सु-चातुरी से किसके न चित्त को।
निमग्न सा था करता विनोद में।
स्वकीय न्यारी-रचना विमुग्ध हो।
स्व-शीश-संचालन-मग्न शिंशपा॥38॥
सु-पत्र संचालित थे न हो रहे।
नहीं-स-शाखा हिलते फलादि थे।
जता रही थी निज स्नेह-शीलता।
स्व-इंगितों से रुचिरांग इंगुदी॥39॥
सुवर्ण-ढाले-तमगे कई लगा।
हरे सजीले निज-वस्त्र को सजे।
बड़े-अनूठेपन साथ था खड़ा।
महा-रँगीला तरु-नागरंग का॥40॥
अनेक-आकार-प्रकार-रंग के।
सुधा-समोये फल-पुंज से सजा।
विराजता अन्य रसाल तुल्य था।
समोदकारी अमरूद रोदसी॥41॥
स्व-अंक में पत्र प्रसून मध्य में।
लिये फलों व्याज सु-मूर्ति शंभु की।
सदैव पूजा-रत सानुराग था।
विलोलता-वर्जित-वृक्ष-बिल्व का॥42॥
कु-अंगजों की बहु-कष्टदायिता।
बता रही थी जन-नेत्र-वान को।
स्व-कंटकों से स्वयमेव सर्वदा।
विदारिता हो बदरी-द्रुमावली॥43॥
समस्त-शाखा फल फूल मूल की।
सु-पल्लवों की मृदुता मनोज्ञता।
प्रफुल्ल होता चित था नितान्त ही।
विलोक सागौन सुगीत सांगता॥44॥
नितान्त ही थी नभ-चुम्बनोत्सुका।
द्रुमोच्चता की महनीय-मुर्ति थी।
खगादि की थी अनुराग-वर्ध्दिनी।
विशालता-शालविशाल-काय की॥45॥
स्वगात की श्यामलता विभूति से।
हरीतिमा से घन-पत्र-पुंज की।
अछिद्र छायादिक से तमोमयी।
वनस्थली को करता तमाल था॥46॥
विचित्रता दर्शक-वृन्द-दृष्टि में।
सदा समुत्पादन में समर्थ था।
स-दर्प नीचा तरु-पुंज को दिखा।
स्व-शीश उत्तोलन ताल वृन्द का॥47॥
सु-पक्व पीले फल-पुंज व्याज से।
अनेक बालेंदु स्वअङ्क में उगा।
उड़ा दलों व्याज हरी-हरी ध्वजा।
नितांत केला कल-केलि-लग्न था॥48॥
स्वकीय आरक्त प्रसून-पुंज से।
विहंग भृङ्गादिक को भ्रमा-भ्रमा।
अशंकितों सा वन-मध्य था खड़ा।
प्रवंचना-शील विशाल-शाल्मली॥49॥
बढ़ा स्व-शाखा मिष हस्त प्यार का।
दिखा घने-पल्लव की हरीतिमा।
परोपकारी-जन-तुल्य सर्वदा।
सशोक का शोक अ-शोक मोचता॥50॥
विमुग्धकारी-सित-पीत वर्ण के।
सुगंध-शाली बहुश: सु-पुष्प से।
असंख्य-पत्रावलि की हरीतिमा।
सुरंजिता थी प्रिय-पारिजात की॥51॥
समीर-संचालित-पत्र-पुंज में।
स्वगात की मत्तकरी-विभूति से।
विमुग्ध हो विह्नलताभिभूत था।
मधूक शाखी-मधुपान-मत्त सा॥52॥
प्रकाण्डता थी विभु कीर्ति-वर्ध्दिनी।
अनंत-शाखा-बहु-व्यापमान थी।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की।
विलोलता-पीपल-पल्लवोद्भवा॥53॥
असंख्य-न्यारे-फल-पुंज से सजा।
प्रभूत-पत्रावलि में निमग्न सा।
प्रगाढ़ छायाप्रद औ जटा-प्रसू।
विटानुकारी-वट था विराजता॥54॥
महा-फलों से सजके वनस्थली।
जता रही थी यह बुध्दि-मंत को।
महान-सौभाग्य प्रदान के लिए।
प्रयोगिता है पनसोपयोगिता॥55॥
सदैव दे के विष बीज-व्याज से।
स्वकीय-मीठे-फल के समूह को।
दिखा रहा था तरु वृन्द में खड़ा।
स्व-आततायीपन पेड़ आत का॥56॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

प्यारे-प्यारे-कुसुम-कुल से शोभमाना अनूठी।
काली नीली हरित रुचि की पत्तियों से सजीली।
फैली सारी वन अवनि में वायु से डोलती थीं।
नाना-लीला निलय सरसा लोभनीया-लतायें॥57॥

वंशस्थ छन्द

स्व-सेत-आभा-मय दिव्य-पुष्प से।
वसुन्धरा में अति-मुक्त संज्ञका।
विराजती थी वन में विनोदिता।
महान-मेधाविनि-माधवी-लता॥58॥
ललामता कोमलकान्ति-मानता।
रसालता से निज पत्र-पुंज की।
स्वलोचनों को करती प्रलुब्ध थी।
प्रलोभनीया-लतिका लवंग की॥59॥
स-मान थी भूतल में विलुण्ठिता।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु-अंक से।
तमाल के से असितावदात की।
प्रियोपमा श्यामलता प्रियंगु की॥60॥
कहीं शयाना महि में स-चाव थी।
विलम्बिता थी तरु-वृन्द में कहीं।
सु-वर्ण-मापी-फल लाभ कामुका।
तपोरता कानन रत्तिाका लता॥61॥
सु-लालिमा में फलकी लगी दिखा।
विलोकनीया-कमनीय-श्यामता।
कहीं भली है बनती कु-वस्तु भी।
बता रही थी यह मंजु-गुंजिका॥62॥

द्रुतविलम्बित छन्द

नव निकेतन कान्त-हरीतिमा।
जनयिता मुरली-मधु-सिक्त का।
सरसता लसता वन मध्य था।
भरित भावुकता तरु वेणुका॥63॥
बहु-प्रलुब्ध बना पशु-वृन्द को।
विपिन के तृण-खादक-जन्तु को।
तृण-समा कर नीलम नीलिमा।
मसृण थी तृण-राजि विराजती॥64॥
तरु अनेक-उपस्कर सज्जिता।
अति-मनोरम-काय अकंटका।
विपिन को करती छविधाम थीं।
कुसुमिता-फलिता-बहु-झाड़ियाँ॥65॥

शिखरणी छन्द

अनूठी आभा से सरस-सुषमा से सुरस से।
बना जो देती थी बहु गुणमयी भू विपिन को।
निराले फूलों की विविध दलवाली अनुपमा।
जड़ी बूटी हो हो बहु फलवती थीं विलसती॥66॥

द्रुतविलम्बित छन्द

सरसतालय-सुन्दरता सने।
मुकुर-मंजुल से तरु-पुंज के।
विपिन में सर थे बहु सोहते।
सलिल से लसते मन मोहते॥67॥
लसित थीं रस-सिंचित वीचियाँ।
सर समूह मनोरम अंक में।
प्रकृति के कर थे लिखते मनो।
कल-कथा जल केलि कलाप की॥68॥
द्युतिमती दिननायक दीप्ति से।
स द्युति वारि सरोवर का बना।
अति-अनुत्ताम कांति निकेत था।
कुलिश सा कल-उज्ज्वल-काँच सा॥69॥
परम-स्निग्ध मनोरम-पत्र में।
सु-विकसे जलजात-समूह से।
सर अतीव अलंकृत थे हुए।
लसित थीं दल पै कमलासना॥70॥
विकच-वारिज-पुंज विलोक के।
उपजती उर में यह कल्पना।
सरस भूत प्रफुल्लित नेत्र से।
वन-छटा सर हैं अवलोकते॥71॥

वंशस्थ छन्द

सुकूल-वाली कलि-कालिमापहा।
विचित्र-लीला-मय वीचि-संकुला।
विराजमाना बन एक ओर थी।
कलामयी केलिवती-कलिंदजा॥72॥
अश्वेत साभा सरिता-प्रवाह में।
सु-श्वेतता हो मिलिता प्रदीप्ति की।
दिखा रही थी मणि नील-कांति में।
मिली हुई हीरक-ज्योति-पुंज सी॥73॥
विलोकनीया नभ नीलिमा समा।
नवाम्बुदों की कल-कालिमोपमा।
नवीन तीसी कुसुमोपमेय थी।
कलिंदजा की कमनीय श्यामता॥74॥
न वास किम्वा विष से फणीश के।
प्रभाव से भूधर के न भूमि के।
नितांत ही केशव-ध्यान-मग्न हो।
पतंगजा थी असितांगिनी बनी॥75॥
स-बुद्बुदा फेन-युता सु-शब्दिता।
अनन्त-आवर्त्त-मयी प्रफुल्लिता।
अपूर्वता अंकित सी प्रवाहिता।
तरंगमालाकुलिता-कलिंदजा॥76॥
प्रसूनवाले, फल-भार से नये।
अनेक थे पादप कूल पै लसे।
स्वछायया जो करते प्रगाढ़ थे।
दिनेशजा-अंक-प्रसूत-श्यामता॥77॥
कभी खिले-फूल गिरा प्रवाह में।
कलिन्दजा को करता स-पुष्प था।
गिरे फलों से फल-शोभिनी उसे।
कभी बनाता तरु का समूह था॥78॥
विलोक ऐसी तरुवृंद की क्रिया।
विचार होता यह था स्वभावत:।
कृतज्ञता से नत हो स-प्रेम वे।
पतंगजा-पूजन में प्रवृत्त हैं॥79॥
प्रवाह होता जब वीचि-हीन था।
रहा दिखाता वन-अन्य अंक में।
परंतु होते सरिता तरंगिता।
स-वृक्ष होता वन था सहस्रधा॥80॥
न कालिमा है मिटती कपाल की।
न बाप को है पड़ती कुमारिका।
प्रतीति होती यह थी विलोक के।
तमोमयी सी तनया-तमारि को॥81॥

मालिनी छन्द

कलित-किरण-माला, बिम्ब-सौंदर्य्य-शाली।
सु-गगन-तल-शोभी सूर्य का, या शशी का।
जब रवितनया ले केलि में लग्न होती।
छविमय करती थी दर्शकों के दृगों को॥82॥

वंशस्थ छन्द

हरीतिमा का सु-विशाल-सिंधु सा।
मनोज्ञता की रमणीय-भूमि सा।
विचित्रता का शुभ-सिध्द-पीठ सा।
प्रशान्त वृन्दावन दर्शनीय था॥83॥
कलोलकारी खग-वृन्द-कूजिता।
सदैव सानन्द मिलिन्द गुंजिता।
रहीं सुकुंजें वन में विराजिता।
प्रफुल्लिता पल्लविता लतामयी॥84॥
प्रशस्त-शाखा न समान हस्त के।
प्रसारिता थी उपपत्ति के बिना।
प्रलुब्ध थी पादप को बना रही।
लता समालिंगन लाभ लालसा॥85॥
कई निराले तरु चारु-अंक में।
लुभावने लोहित पत्र थे लसे।
सदैव जो थे करते विवर्ध्दिता।
स्व-लालिमा से वन की ललामता॥86॥
प्रसून-शोभी तरु-पुंज-अंक में।
लसी ललामा लतिका प्रफुल्लिता।
जहाँ तहाँ थी वन में विराजिता।
स्मिता-समालिंगित कामिनी समा॥87॥
सुदूलिता थी अति कान्त भाव से।
कहीं स-एलालतिका-लवंग को।
कहीं लसी थी महि मंजु अंक में।
सु-लालिता सी नव माधवी-लता॥88॥
समीर संचालित मंद-मंद हो।
कहीं दलों से करता सु-केलि था।
प्रसून-वर्षा रत था, कहीं हिला।
स-पुष्प-शाखा सु-लता-प्रफुल्लिता॥89॥
कहीं उठाता बहु-मंजु वीचियाँ।
कहीं खिलाता कलिका प्रसून की।
बड़े अनूठेपन साथ पास जा।
कहीं हिलाता कमनीय-कंज था॥90॥
अश्वेत ऊदे अरुणाभ बैंगनी।
हरे अबीरी सित पीत संदली।
विचित्र-वेशी बहु अन्य वर्ण के।
विहंग से थी लसिता वनस्थली॥91॥
विभिन्न-आभा तरु रंग रूप के।
विहंगमों का दल व्योम-पंथ हो।
स-मोद आता जब था दिगंत से।
विशेष होता वन का विनोद था॥92॥
स-मोद जाते जब एक पेड़ से।
द्वितीय को तो करते विमुग्ध थे।
कलोल में हो रत मंजु-बोलते।
विहंग नाना रमणीय रंग के॥93॥
छटामयी कान्तिमती मनोहरा।
सु-चन्द्रिका से निज-नील पुच्छ के।
सदा बनाता वन को मनोज्ञ था।
कलापियों का कुल केकिनी लिये॥94॥
कहीं शुकों का दल बैठ पेड़ की।
फली-सु-शाखा पर केलि-मत्त हो।
अनके-मीठे-फल खा कदंश को।
गिरा रहा भू पर था प्रफुल्ल हो॥95॥
कहीं कपोती स्व-कपोत को लिये।
विनोदिता हो करती विहार थी।
कहीं सुनाती निज-कंत साथ थी।
स्व-काकली को कल कंठ-कोकिला॥96॥
कहीं महा-प्रेमिक था पपीहरा।
कथा-मयी थी नव शारिका कहीं।
कहीं कला-लोलुप थी चकोरिका।
ललामता-आलय-लाल थे कहीं॥97॥
महा-कदाकार बड़े-भयावने।
सुहावने सुन्दरता-निकेत से।
वनस्थली में पशु-वृन्द थे घने।
अनेक लीला-मय औ लुभावने॥98॥
नितान्त-सारल्य-मयी सुमुर्ति में।
मिली हुई कोमलता सु-लोमता।
किसे नहीं थी करती विमोहिता।
सदंगता-सुन्दरता-कुरंग की॥99॥
असेत-ऑंखें खनि-भूरि भाव की।
सुगीत न्यारी-गति की मनोज्ञता।
मनोहरा थी मृग-गात-माधुरी।
सुधारियों अंकित नाति-पीतता॥100॥
असेत-रक्तानन-वान ऊधमी।
प्रलम्ब-लांगूल विभिन्न-लोम के।
कहीं महा-चंचल क्रूर कौशली।
असंख्य-शाखा-मृग का समूह था॥101॥
कहीं गठीले-अरने अनेक थे।
स-शंक भूरे-शशकादि थे कहीं।
बड़े-घने निर्जन-वन्य-भूमि में।
विचित्र-चीते चल-चक्षु थे कहीं॥102॥
सुहावने पीवर-ग्रीव साहसी।
प्रमत्त-गामी पृथुलांग-गौरवी।
वनस्थली मध्य विशाल-बैल थे।
बड़े-बली उन्नत-वक्ष विक्रमी॥103॥
दयावती पुण्य भरी पयोमयी।
सु-आनना सौम्य-दृगी समोदरा।
वनान्त में थीं सुरभी सुशोभिता।
सधी सवत्सा-सरलातिसुन्दरी॥104॥
अतीव-प्यारे मृदुता-सुमूर्ति से।
नितान्त-भोले चपलांग ऊधमी।
वनान्त में थे बहु वत्स कूदते।
लुभावने कोमल-काय कौतुकी॥105॥

बसन्ततिलका छन्द

जो राज पंथ वन-भूतल में बना था।
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे।
ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी॥106॥

वंशस्थ छन्द

परन्तु वे पादप में प्रसून में।
फलों दलों वेलि-लता समूह में।
सरोवरों में सरि में सु-मेरु में।
खगों मृगों में वन में निकुंज में॥107॥
बसी हुई एक निगूढ़-खिन्नता।
विलोकते थे निज-सूक्ष्म-दृष्टि से।
शनै: शनै: जो बहु गुप्त रीति से।
रही बढ़ाती उर की विरक्ति को॥108॥
प्रशस्त शाखा तरु-वृन्द की उन्हें।
प्रतीत होती उस हस्त तुल्य थी।
स-कामना जो नभ ओर हो उठा।
विपन्न-पाता-परमेश के लिए॥109॥
कलिन्दजा के सु-प्रवाह की छटा।
विहंग-क्रीड़ा कल नाद-माधुरी।
उन्हें बनाती न अतीव मुग्ध थी।
ललामता-कुंज-लता-वितान की॥110॥
सरोवरों की सुषमा स-कंजता।
सु-मेरु औ निर्झर आदि रम्यता।
न थी यथातथ्य उन्हें विमोहती।
अनन्त-सौन्दर्य्य-मयी वनस्थली॥111॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

कोई-कोई विटप फल थे बारहो मास लाते।
ऑंखों द्वारा असमय फले देख ऐसे द्रुमों को।
ऊधो होते भ्रम पतित थे किन्तु तत्काल ही वे।
शंकाओं को स्व-मति बल औ ज्ञान से थे हटाते॥112॥

वंशस्थ छन्द

उसी दिशा से जिस ओर दृष्टि थी।
विलोक आता रथ में स-सारथी।
किसी किरीटी पट-पीत-गौरवी।
सु-कुण्डली श्यामल-काय पान्थ को॥113॥
अतीव-उत्कण्ठित ग्वालबाल हो।
स-वेग जाते रथ के समीप थे।
परन्तु होते अति ही मलीन थे।
न देखते थे जब वे मुकुन्द को॥114॥
अनेक गायें तृण त्याग दौड़ती।
सवत्स जाती वर-यान पास थीं।
परन्तु पाती जब थीं न श्याम को।
विषादिता हो पड़ती नितान्त थीं॥115॥
अनेक-गायों बहु-गोप-बाल की।
विलोक ऐसी करुणामयी-दशा।
बड़े-सुधी-ऊद्धव चित्त मध्य भी।
स-खेद थी अंकुरिता अधीरता॥116॥
समीप ज्यों ज्यों हरि-बंधु यान के।
सगोष्ठ था गोकुल ग्राम आ रहा।
उन्हें दिखाता निज-गूढ़ रूप था।
विषाद त्यों-त्यों बहु-मुर्ति-मन्त हो॥117॥
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते।
स-धेनू आते गृह ग्वाल-बाल थे।
दिगन्त में गोरज थी विराजिता।
विषाण नाना बजते स-वेणु थे॥118॥
खड़े हुए थे पथ गोप देखते।
स्वकीय-नाना-पशु-वृन्द का कहीं।
कहीं उन्हें थे गृह-मध्य बाँधते।
बुला-बुला प्यार उपेत कंठ से॥119॥
घड़े लिये कामिनियाँ, कुमारियाँ।
अनेक-कूपों पर थीं सुशोभिता।
पधारती जो जल ले स्व-गेह थीं।
बजा-बजा के निज नूपुरादि को॥120॥
कहीं जलाते जन गेह-दीप थे।
कहीं खिलाते पशु को स-प्यार थे।
पिला-पिला चंचल-वत्स को कहीं।
पयस्विनी से पय थे निकालते॥121॥
मुकुन्द की मंजुल कीर्ति गान की।
मची हुई गोकुल मध्य धूम थी।
स-प्रेम गाती जिसको सदैव थी।
अनेक-कर्माकुल प्राणि-मण्डली॥122॥
हुआ इसी काल प्रवेश ग्राम में।
शनै: शनै: ऊद्धव-दिव्य यान का।
विलोक आता जिसको, समुत्सुका।
वियोग-दग्ध-जन-मण्डली हुई॥123॥
जहाँ लगा जो जिस कार्य्य में रहा।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा।
विलोकने को घन-श्याम-माधुरी॥124॥
विलोकते जो पशु-वृन्द पन्थ थे।
तजा उन्होंने पथ का विलोकना।
अनेक दौड़े तज धेनू बाँधना।
अबाधिता पावस आपगोपमा॥125॥
रहे खिलाते पशु धेनू-दूहते।
प्रदीप जो थे गृह-मध्य बालते।
अधीर हो वे निज-कार्य्य त्याग के।
स-वेग दौड़े वदनेन्दु देखने॥126॥
निकालती जो जल कूप से रही।
स रज्जु सो भी तज कूप में घड़ा।
अतीव हो आतुर दौड़ती गई।
ब्रजांगना-वल्लभ को विलोकने॥127॥
तजा किसी ने जल से भरा घड़ा।
उसे किसी ने शिर से गिरा दिया।
अनेक दौड़ीं सुधि गात की गँवा।
सरोज सा सुन्दर श्याम देखने॥128॥
वयस्क बूढ़े पुर-बाल बालिका।
सभी समुत्कण्ठित औ अधीर हो।
स-वेग आये ढिग मंजु यान के।
स्व-लोचनों की निधि-चारु लूटने॥129॥
उमंग-डूबी अनुराग से भरी।
विलोक आती जनता समुत्सुका।
पुन: उसे देख हुई प्रवंचिता।
महा-मलीना विमनाति-कष्टिता॥130॥
अधीर होने हरि-बन्धु भी लगे।
तथापि वे छोड़ सके न धीर को।
स्व-यान को त्याग लगे प्रबोधने।
समागतों को अति-शांत भाव से॥131॥

बसंततिलका छन्द

यों ही प्रबोध करते पुरवासियों का।
प्यारी-कथा परम-शांत-करी सुनाते।
आये ब्रजाधिप-निकेतन पास ऊधो।
पूरा प्रसार करती करुणा जहाँ थी॥132॥

मालिनी छन्द

करुण-नयन वाले खिन्न उद्विग्न ऊबे।
नृपति सहित प्यारे बंधु औ सेवकों के।
सुअन-सुहृद-ऊधो पास आये यहाँ ही।
फिर सदन सिधारे वे उन्हें साथ लेके॥133॥
सुफलक-सुत ऐसा ग्राम में देख आया।
यक जन मथुरा ही से बड़ा-बुध्दिशाली।
समधिक चित-चिंता गोपजों में समाई।
सब-पुर-उर शंका से लगा व्यग्र होने॥134॥
पल-पल अकुला के दीर्घ-संदिग्ध होके।
विचलित-चित से थे सोचते ग्रामवासी।
वह परम अनूठे-रत्न आ ले गया था।
अब यह ब्रज आया कौन-सा रत्न लेने॥135॥

10. दशम सर्ग
द्रुतविलम्बित छन्द

त्रि-घटिका रजनी गत थी हुई।
सकल गोकुल नीरव-प्राय था।
ककुभ व्योम समेत शनै: शनै:।
तमवती बनती ब्रज-भूमि थी॥1॥
ब्रज-धराधिप मौन-निकेत भी।
बन रहा अधिकाधिक-शान्त था।
तिमिर भी उसके प्रति-भाग में।
स्व-विभुता करता विधि-बध्द था॥2॥
हरि-सखा अवलोकन-सूत्र से।
ब्रज-रसापति-द्वार-समागता।
अब नहीं दिखला पड़ती रही।
गृह-गता-जनता अति शंकिता॥3॥
सकल-श्रांति गँवा कर पंथ की।
कर समापन भोजन की क्रिया।
हरि सखा अधुना उपनीत थे।
द्युति-भरे-सुथरे-यक-सद्म में॥4॥
कृश-कलेवर चिन्तित व्यस्त घी।
मलिन आनन खिन्नमना दुखी।
निकट ही उनके ब्रज-भूप थे।
विकलताकुलता-अभिभूत से॥5॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

आवेगों से विपुल विकला शीर्ण काया कृशांगी।
चिन्ता-दग्ध व्यथित-हृदया शुष्क-ओष्ठा अधीरा।
आसीना थीं निकट पति के अम्बु-नेत्र यशोदा।
खिन्ना दीना विनत-वदना मोह-मग्ना मलीना॥6॥

द्रुतविलम्बित छन्द

अति-जरा विजिता बहु-चिन्तिता।
विकलता-ग्रसिता सुख-वंचिता।
सदन में कुछ थीं परिचारिका।
अधिकृता-कृशता-अवसन्नता॥7॥
मुकुर उज्ज्वल-मंजु निकेत में।
मलिनता-अति थी प्रतिबिम्बिता।
परम-नीरसता-सह-आवृता।
सरसता-शुचिता-युत-वस्तु थी॥8॥
परम-आदर-पूर्वक प्रेम से।
विपुल-बात वियोग-व्यथा-हरी।
हरि-सखा कहते इस काल थे।
बहु दुखी अ-सुखी ब्रज-भूप से॥9॥
विनय से नय से भय से भरा।
कथन ऊद्धव का मधु में पगा।
श्रवण थीं करती बन उत्सुका।
कलपती-कँपती ब्रजपांगना॥10॥
निपट-नीरव-गेह न था हुआ।
वरन हो वह भी बहु-मौन ही।
श्रवण था करता बलवीर की।
सुखकरी कथनीय गुणावली॥11॥

मालिनी छन्द

निज मथित-कलेजे को व्यथा साथ थामे।
कुछ समय यशोदा ने सुनी सर्व-बातें।
फिर बहु विमना हो व्यस्त हो कंपिता हो।
निज-सुअन-सखा से यों व्यथा-साथ बोलीं॥12॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

प्यासा-प्राणी श्रवण करके वारि के नाम ही को।
क्या होता है पुलकित कभी जो उसे पी न पावे।
हो पाता है कब तरणि का नाम है त्राण-कारी।
नौका ही है शरण जल में मग्न होते जनों की॥13॥
रोते-रोते कुँवर-पथ को देखते-देखते ही।
मेरी ऑंखें अहह अति ही ज्योति-हीना हुई हैं।
कैसे ऊधो भव-तम-हरी ज्योति वे पा सकेंगी।
जो देखेंगी न मृदु-मुखड़ा इन्दु-उन्माद-कारी॥14॥
सम्वादों से श्रवण-पुट भी पूर्ण से हो गये हैं।
थोड़ा छूटा न अब उनमें स्थान सन्देश का है।
सायं प्रात: प्रति-पल यही एक-वांछा उन्हें है।
प्यारी-बातें ‘मधुर-मुख की मुग्ध हो क्यों सुनें वे॥15॥
ऐसे भी थे दिवस जब थी चित्त में वृध्दि पाती।
सम्वादों को श्रवण करके कष्ट उन्मूलनेच्छा।
ऊधो बीते दिवस अब वे, कामना है बिलीना।
भोले भाले विकच मुख की दर्शनोत्कण्ठता में॥16॥
प्यासे की है न जल-कण से दूर होती पिपासा।
बातों से है न अभिलषिता शान्ति पाता वियोगी।
कष्टों में अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाता।
जो होती है तदुपरि व्यथा सो महा दुर्भगा है॥17॥

मालिनी छन्द

सुत सुखमय स्नेहों का समाधार सा है।
सदय हृदय है औ सिंधु सौजन्य का है।
सरल प्रकृति का है शिष्ट है शान्त धी है।
वह बहु विनयी, है ‘मूर्ति’ आत्मीयता की॥18॥
तुम सम मृदुभाषी धीर सद्बंधु ज्ञानी।
उस गुण-मय का है दिव्य सम्वाद लाया।
पर मुझ दुख-दग्ध भाग्यहीनांगना की।
यह दुख-मय-दोषा वैसि ही है स-दोषा॥19॥
हृदय-तल दया के उत्स-सा श्याम का है।
वह पर-दुख को था देख उन्मत्त होता।
प्रिय-जननि उसी की आज है शोक-मग्ना।
वह मुख दिखला भी क्यों न जाता उसे है॥20॥
मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है।
नव-किसलय-सा है स्नेह के वत्स-सा है।
सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही।
अहह हृदय माँ-सा स्निग्ध तो भी नहीं है॥21॥
कर निकर सुधा से सिक्त राका शशी के।
प्रतपित कितने ही लोक को हैं बनाते।
विधि-वश दुख-दाई काल के कौशलों से।
कलुषित बनती है स्वच्छ-पीयूष-धारा॥22॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

मेरे प्यारे स-कुशल सुखी और सानन्द तो हैं?।
कोई चिन्ता मलिन उनको तो नहीं है बनाती?।
ऊधो छाती बदन पर है म्लानता भी नहीं तो?।
जी जाती हैं हृदयतल में तो नहीं वेदनायें?॥23॥
मीठे-मेवे मृदुल नवनी और पक्वान्न नाना।
उत्कण्ठा के सहित सुत को कौन होगी खिलाती।
प्रात: पीता सु-पय कजरी गाय का चाव से था।
हा! पाता है न अब उसको प्राण-प्यारा हमारा॥24॥
संकोची है अति सरल है धीर है लाल मेरा।
होती लज्जा अमित उसको माँगने में सदा थी।
जैसे लेके स-रुचि सुत को अंक में मैं खिलाती।
हा! वैसी ही अब नित खिला कौन माता सकेगी॥25॥
मैं थी सारा-दिवस मुख को देखते ही बिताती।
हो जाती थी व्यथित उसको म्लान जो देखती थी।
हा! ऐसे ही अब वदन को देखती कौन होगी।
ऊधो माता-सदृश ममता अन्य की है न होती॥26॥
खाने पीने शयन करने आदि की एक-वेला।
जो जाती थी कुछ टल कभी तो बड़ा खेद होता।
ऊधो ऐसी दुखित उसके हेतु क्यों अन्य होगी।
माता की सी अवनितल में है अ-माता न होती॥27॥
जो पाती हूँ कुँवर-मुख के जोग मैं भोग-प्यारा।
तो होती हैं हृदय-तल में वेदनायें-बड़ी ही।
जो कोई भी सु-फल सुत के योग्य मैं देखती हूँ।
हो जाती हूँ परम-व्यथिता, हूँ महादग्ध होती॥28॥
जो लाती थीं विविध-रँग के मुग्धकारी खिलौने।
वे आती हैं सदन अब भी कामना में पगी सी।
हा! जाती हैं पलट जब वे हो निराशा-निमग्ना।
तो उन्मत्त-सदृश पथ की ओर मैं देखती हूँ॥29॥
आते लीला निपुण-नट हैं आज भी बाँध आशा।
कोई यों भी न अब उनके खेल को देखता है।
प्यारे होते मुदित जितने कौतुकों से सदा ही।
वे ऑंखों में विषम-दव हैं दर्शकों के लगाते॥30॥
प्यारा खाता रुचिर नवनी को बड़े चाव से था।
खाते-खाते पुलक पड़ता नाचता-कूदता था।
ए बातें हैं सरस नवनी देखते याद आती।
हो जाता है मधुरतर औ स्निग्ध भी दग्धकारी॥31॥
हा! जो वंशी सरस रव से विश्व को मोहती थी।
सो आले में मलिन वन औ मूक हो के पड़ी है।
जो छिद्रों से अमृत बरसा मूर्ति थी मुग्धता की।
सो उन्मत्त परम-विकला उन्मना है बनाती॥32॥
प्यारे ऊधो सुरत करता लाल मेरी कभी है?।­
क्या होता है न अब उसको ध्यान बूढ़े-पिता का।
रो, रो हो-हो विकल अपने वार जो हैं बिताते।
हा! वे सीधे सरल-शिशु हैं क्या नहीं याद आते॥33॥
कैसे भूलीं सरस-खनि सी प्रीति की गोपिकायें।
कैसे भूले सुहृदपन के सेतु से गोप-ग्वाले।
शान्ता धीरा ‘मधुरहृदया प्रेम-रूपा रसज्ञा।
कैसे भूली प्रणय-प्रतिमा-राधिका मोहमग्ना॥34॥
कैसे वृन्दा-विपिन बिसरा क्यों लता-वेलि भूली।
कैसे जी से उतर ब्रज की कुंज-पुंजे गई हैं।
कैसे फूले विपुल-फल से नम्र भूजात भूले।
कैसे भूला विकच-तरु सो अर्कजा-कूल वाला॥35॥
सोती-सोती चिहुँक कर जो श्याम को है बुलाती।
ऊधो मेरी यह सदन की शारिका कान्त-कण्ठा।
पाला-पोसा प्रति-दिन जिसे श्याम ने प्यार से है।
हा! कैसे सो हृदय-तल से दूर यों हो गई है॥36॥
जा कुंजों में प्रति-दिन जिन्हें चाव से था चराया।
जो प्यारी थीं ब्रज-अवनि के लाडिले को सदा ही।
खिन्ना, दीना, विकल वन में आज जो घूमती हैं।
ऊधो कैसे हृदय-धन को हाय! वे धेनू भूलीं॥37॥
ऐसा प्राय: अब तक मुझे नित्य ही है जनाता।
गो गोपों के सहित वन से सद्म है श्याम आता।
यों ही आ के हृदय-तल को बेधता मोह लेता।
मीठा-वंशी-सरस-रव है कान से गूँज जाता॥38॥
रोते-रोते तनिक लग जो ऑंख जाती कभी है।
हा! त्योंही मैं दृग-युगल को चौंक के खोलती हूँ।
प्राय: ऐसा प्रति-रजनि में ध्यान होता मुझे है।
जैसे आ के सुअन मुझको प्यार से है जगाता॥39॥
ऐसा ऊधो प्रति-दिन कई बार है ज्ञात होता।
कोई यों है कथन करता लाल आया तुम्हारा।
भ्रान्ता सी मैं अब तक गई द्वार पै बार लाखों।
हा! ऑंखों से न वह बिछुड़ी-श्यामली-मुर्ति देखी॥40॥
फूले-अंभोज सम दृग से मोहते मानसों को।
प्यारे-प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते।
ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय! होती मुझे है।
जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरों से॥41॥
आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल मेरा।
लीलायें था विविध करता धूम भी था मचाता।
ऊधो बातें न यक पल भी हाय! वे भूलती हैं।
हा! छा जाता दृग-युगल में आज भी सो समाँ है॥42॥
मैं हाथों से कुटिल-अलकें लाल की थी बनाती।
पुष्पों को थी श्रुति-युगल के कुण्डलों में सजाती।
मुक्ताओं को शिर मुकुट में मुग्ध हो थी लगाती।
पीछे शोभा निरख मुख की थी न फूले समाती॥43॥
मैं प्राय: ले कुसुमकलिका चाव से थी बनाती।
शोभा-वाले विविध गजरे क्रीट औ कुण्डलों को।
पीछे हो हो सुखित उनको श्याम को थी पिन्हाती।
औ उत्फुल्ला ग्रथित-कलिका तुल्य थी पूर्ण होती॥44॥
पैन्हे-प्यारे-वसन कितने दिव्य-आभूषणों को।
प्यारी-वाणी विहँस कहते पूर्ण-उत्फुल्ल होते।
शोभा-शाली-सुअन जब था खेलता मन्दिरों में।
तो पा जाती अमरपुर की सर्व सम्पत्तिा मैं थी॥45॥
होता राका-शशि उदय था फूलता पद्म भी था।
प्यारी-धारा उमग बहती चारु-पीयूष की थी।
मेरा प्यारा तनय जब था, गेह में नित्य ही तो।
वंशी-द्वारा ‘मधुर-तर था स्वर्ग-संगीत होता॥46॥
ऊधो मेरे दिवस अब वे हाय! क्या हो गये हैं।
हा! यों मेरे सुख-सदना को कौन क्यों है गिराता।
वैसे प्यारे-दिवस अब मैं क्या नहीं पा सकूँगी।
हा! क्या मेरी न अब दुख की यामिनी दूर होगी॥47॥
ऊधो मेरा हृदय-तल था एक उद्यान-न्यारा।
शोभा देती अमित उसमें कल्पना-क्यारियाँ थीं।
न्यारे-प्यारे-कुसुम कितने भाव के थे अनेकों।
उत्साहों के विपुल-विटपी थे महा मुग्धकारी॥48॥
सच्चिन्ता की सरस-लहरी-संकुला-वापिका थी।
नाना चाहें कलित-कलियाँ थीं लतायें उमंगें।
धीरे-धीरे ‘मधुर हिलती वासना-वेलियाँ थीं।
सद्वांछा के विहग उसके मंजु-भाषी बड़े थे॥49॥
भोला-भाला मुख सुत-वधू-भाविनी का सलोना।
प्राय: होता प्रकट उसमें फुल्ल-अम्भोज-सा था।
बेटे द्वारा सहज-सुख के लाभ की लालसायें।
हो जाती थीं विकच बहुधा माधवी-पुष्पिता सी॥50॥
प्यारी-आशा-पवन जब थी डोलती स्निग्ध हो के।
तो होती थीं अनुपम-छटा बाग के पादपों की।
हो जाती थीं सकल लतिका-वेलियाँ शोभनीया।
सद्भावों के सुमन बनते थे बड़े सौरभीले॥51॥
राका-स्वामी सरस-सुख की दिव्य-न्यारी-कलायें।
धीरे-धीरे पतित जब थीं स्निग्धता साथ होतीं।
तो आभा में अतुल-छवि में औ मनोहारिता में।
हो जाता सो अधिकतर था नन्दनोद्यान से भी॥52॥
ऐसा प्यारा-रुचिर रस से सिक्त उद्यान मेरा।
मैं होती हूँ व्यथित कहते आज है ध्वंस होता।
सूखे जाते सकल-तरु हैं नष्ट होती लता है।
निष्पुष्पा हो विपुल-मलिना वेलियाँ हो रही हैं॥53॥
प्यारे-पौधो कुसुम-कुल के पुष्प ही हैं न लाते।
भूले जाते विहग अपनी बोलियाँ हैं अनूठी।
हा! जावेगा उजड़ अति ही मंजु-उद्यान मेरा।
जो सींचेगा न घन-तन आ स्नेह-सद्वारि-द्वारा॥54॥
ऊधो आदौ तिमिर-मय था भाग्य-आकाश मेरा।
धीरे-धीरे फिर वह हुआ स्वच्छ सत्कान्ति-शाली।
ज्योतिर्माला-बलित उसमें चन्द्रमा एक न्यारा।
राका श्री ले समुदित हुआ चित्त-उत्फुल्ल-कारी॥55॥
आभा-वाले उस गगन में भाग्य दुर्वृत्तता की।
काली-काली अब फिर घटा है महा-घोर छाई।
हा! ऑंखों से सु-विधु जिससे हो गया दूर मेरा।
ऊधो कैसे यह दुख-मयी मेघ-माला टलेगी॥56॥
फूले-नीले-वनज-दल सा गात का रंग-प्यारा।
मीठी-मीठी मलिन मन की मोदिनी मंजु-बातें।
सोंधो-डूबी-अलक यदि है श्याम की याद आती।
ऊधो मेरे हृदय पर तो साँप है लोट जाता॥57॥
पीड़ा-कारी-करुण-स्वर से हो महा-उन्मना सी।
हा! रो-रो के स-दुख जब यों शारिका पूछती है।
वंशीवाला हृदय-धन सो श्याम मेरा कहाँ है।
तो है मेरे हृदय-तल में शूल सा विध्द होता॥58॥
त्यौहारों को अपर कितने पर्व औ उत्सवों को।
मेरा प्यारा-तनय अति ही भव्य देता बना था।
आते हैं वे ब्रज-अवनि में आज भी किन्तु ऊधो।
दे जाते हैं परम दुख औ वेदना हैं बढ़ाते॥59॥
कैसा-प्यारा जनम दिन था धूम कैसी मची थी।
संस्कारों के समय सुत के रंग कैसा जमा था।
मेरे जी में उदय जब वे दृश्य हैं आज होते।
हो जाती तो प्रबल-दुख से मूर्ति मैं हूँ शिला की॥60॥
कालिंदी के पुलिन पर की मंजु-वृंदावटी की।
फूले नीले-तरु निकर की कुंज की आलयों की।
प्यारी-लीला-सकल जब हैं लाल की याद आती।
तो कैसा है हृदय मलता मैं उसे क्यों बताऊँ॥61॥
मारा मल्लों-सहित गज को कंस से पातकी को।
मेटीं सारी नगर-वर की दानवी-आपदायें।
छाया सच्चा-सुयश जग में पुण्य की बेलि बोई।
जो प्यारे ने स-पति दुखिया-देवकी को छुड़ाया॥62॥
जो होती है सुरत उनके कम्प-कारी दुखों की।
तो ऑंसू है विपुल बहता आज भी लोचनों से।
ऐसी दग्ध परम-दुखिता जो हुई मोदिता है।
ऊधो तो हूँ परम सुखिता हर्षिता आज मैं भी॥63॥
तो भी पीड़ा-परम इतनी बात से हो रही है।
काढ़े लेती मम-हृदय क्यों स्नेह-शीला सखी है।
हो जाती हूँ मृतक सुनती हाय! जो यों कभी हूँ।
होता जाता मम तनय भी अन्य का लाडिला है॥64॥
मैं रोती हूँ हृदय अपना कूटती हूँ सदा ही।
हा! ऐसी ही व्यथित अब क्यों देवकी को करूँगी।
प्यारे जीवें पुलकित रहें औ बनें भी उन्हीं के।
धाई नाते वदन दिखला एकदा और देवें॥65॥
नाना यत्नों अपर कितनी युक्तियों से जरा में।
मैंने ऊधो! सुकृति बल से एक ही पुत्र पाया।
सो जा बैठा अरि-नगर में हो गया अन्य का है।
मेरी कैसी, अहह कितनी, मर्म्म-वेधी व्यथा है॥66॥
पत्रों-पुष्पों रहित विटपी विश्व में हो न कोई।
कैसी ही हो सरस सरिता वारि-शून्या न होवे।
ऊधो सीपी-सदृश न कभी भाग फूटे किसी का।
मोती ऐसा रतन अपना आह! कोई न खोवे॥67॥
अंभोजों से रहित न कभी अंक हो वापिका का।
कैसी ही हो कलित-लतिका पुष्प-हीना न होवे।
जो प्यारा है परम-धन है जीवनाधार जो है।
ऊधो ऐसे रुचिर-विटपी शून्य वाटी न होवे॥68॥
छीना जावे लकुट न कभी वृध्दता में किसी का।
ऊधो कोई न कल-छल से लाल ले ले किसी का।
पूँजी कोई जनम भर की गाँठ से खो न देवे।
सोने का भी सदन न बिना दीप के हो किसी का॥69॥
उद्विग्ना औ विपुल-विकला क्यों न सो धेनू होगी।
प्यारा लैरू अलग जिसकी ऑंख से हो गया है।
ऊधो कैसे व्यथित-अहि सो जी सकेगा बता दो।
जीवोन्मेषी रतन जिसके शीश का खो गया है॥70॥
कोई देखे न सब-जग के बीच छाया अंधेरा।
ऊधो कोई न निज-दृग की ज्योति-न्यारी गँवावे।
रो रो हो हो विकल न सभी वार बीतें किसी के।
पीड़ायें हों सकल न कभी मर्म्म-वेधी व्यथा हो॥71॥
ऊधो होता समय पर जो चारु चिन्ता-मणी है।
खो देता है तिमिर उर का जो स्वकीया प्रभा से।
जो जी में है सुरसरित सी स्निग्ध-धारा बहाता।
बेटा ही है अवनि-तल में रत्न ऐसा निराला॥72॥
ऐसा प्यारा रतन जिसका हो गया है पराया।
सो होवेगी व्यथित कितना सोच जी में तुम्हीं लो।
जो आती हो मुझ पर दया अल्प भी तो हमारे।
सूखे जाते हृदय-तल में शान्ति-धारा बहा दो॥73॥
छाता जाता ब्रज-अवनि में नित्य ही है अंधेरा।
जी में आशा न अब यह है कि मैं सुखी हो सकूँगी।
हाँ, इच्छा है तदपि इतनी एकदा और आके।
न्यारा-प्यारा-वदन अपना लाल मेरा दिखा दे॥74॥
मैंने बातें यदिच कितनी भूल से की बुरी हैं।
ऊधो बाँध सुअन कर है ऑंख भी है दिखाई।
मारा भी है कुसुम-कलिका से कभी लाडिले को।
तो भी मैं हूँ निकट सुत के सर्वथा मार्जनीया॥75॥
जो चूके हैं विविध मुझसे हो चुकीं वे सदा ही।
पीड़ा दे दे मथित चित को प्रायश: हैं सताती।
प्यारे से यों विनय करना वे उन्हें भूल जावें।
मेरे जी को व्यथित न करें क्षोभ आ के मिटावें॥76॥
खेलें आ के दृग युगल के सामने मंजु-बोलें।
प्यारी लीला पुनरपि करें गान मीठा सुनावें।
मेरे जी में अब रह गई एक ही कामना है।
आ के प्यारे कुँवर उजड़ा गेह मेरा बसावें॥77॥
जो ऑंखें हैं उमग खुलती ढूँढ़ती श्याम को हैं।
लौ कानों को मुरलिधर की तान ही की लगी है।
आती सी है यह ध्वनि सदा गात-रोमावली से।
मेरा प्यारा सुअन ब्रज में एकदा और आवे॥78॥
मेरी आशा नवल-लतिका थी बड़ी ही मनोज्ञा।
नीले-पत्तों सकल उसके नीलमों के बने थे।
हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमेदकों के।
पन्नों द्वारा रचित उसकी सुन्दरी डंठियाँ थीं॥79॥
ऐसी आशा-ललित-लतिका हो गई शुष्क-प्राया।
सारी शोभा सु-छवि-जनिता नित्य है नष्ट होती।
जो आवेगा न अब ब्रज में श्याम-सत्कान्ति-शाली।
होगी हो के विरस वह तो सर्वथा छिन्न-मूला॥80॥
लोहू मेरे दृग-युगल से अश्रु की ठौर आता।
रोयें-रोयें सकल-तन के दग्ध हो छार होते।
आशा होती न यदि मुझको श्याम के लौटने की।
मेरा सूखा-हृदयतल तो सैकड़ों खंड होता॥81॥
चिंता-रूपी मलिन निशि की कौमुदी है अनूठी।
मेरी जैसी मृतक बनती हेतु संजीवनी है।
नाना-पीड़ा-मथित-मन के अर्थ है शांति-धारा
आशा मेरे हृदय-मरु की मंजु-मंदाकिनी है॥82॥
ऐसी आशा सफल जिससे हो सके शांति पाऊँ।
ऊधो मेरी सब-दुख-हरी-युक्ति-न्यारी वही है।
प्राणाधारा अवनि-तल में है यही एक आशा।
मैं देखूँगी पुनरपि वही श्यामली मुर्ति ऑंखों॥83॥
पीड़ा होती अधिकतर है बोध देते जभी हो।
संदेशों से व्यथित चित है और भी दग्ध होता।
जैसे प्यारा-वदन सुत का देख पाऊँ पुन: मैं।
ऊधो हो के सदय मुझको यत्न वे ही बता दो॥84॥
प्यारे-ऊधो कब तक तुम्हें वेदनायें सुनाऊँ।
मैं होती हूँ विरत यह हूँ किन्तु तो भी बताती।
जो टूटेगी कुँवर-वर के लौटने की सु-आशा।
तो जावेगा उजड़ ब्रज औ मैं न जीती बचूँगी॥85॥
सारी बातें श्रवण करके स्वीय-अर्धांगिनी की।
धीरे बोले ब्रज-अवनि के नाथ उद्विग्न हो के।
जैसी मेरे हृदय-तल में वेदना हो रही है।
ऊधो कैसे कथन उसको मैं करूँ क्यों बताऊँ॥86॥
छाया भू में निविड़-तम था रात्रि थी अर्ध्द बीती।
ऐसे बेले भ्रम-वश गया भानुजा के किनारे।
जैसे पैठा तरल-जल में स्नान की कामना से।
वैसे ही मैं तरणि-तनया-धार के मध्य डूबा॥87॥
साथी रोये विपुल-जनता ग्राम से दौड़ आई।
तो भी कोई सदय बन के अर्कजा में न कूदा।
जो क्रीड़ा में परम-उमड़ी आपगा तैर जाते।
वे भी सारा-हृदय-बल खो त्याग वीरत्व बैठे॥88॥
जो स्नेही थे परम-प्रिय थे प्राण जो वार देते।
वे भी हो के त्रासित विविधा-तर्कना मध्य डूबे।
राजा हो के न असमय में पा सका मैं सु-साथी।
कैसे ऊधो कु-दिन अवनी-मध्य होते बुरे हैं॥89॥
मेरे प्यारे कुँवर-वर ने ज्यों सुनी कष्ट-गाथा।
दौड़े आये तरणि-तनया-मध्य तत्काल कूदे।
यत्नों-द्वारा पुलिन पर ला प्राण मेरा बचाया।
कर्तव्यों से चकित करके कूल के मानवों को॥90॥
पूजा का था दिवस जनता थी महोत्साह-मग्ना।
ऐसी वेला मम-निकट आ एक मोटे फणी ने।
मेरा दायाँ-चरण पकड़ा मैं कँपा लोग दौड़े।
तो भी कोई न मम-हित की युक्ति सूझी किसीको॥91॥
दौड़े आये कुँवर सहसा औ कई-उल्मुकों से।
नाना ठौरों वपुष-अहि का कौशलों से जलाया।
ज्योंही छोड़ा चरण उसने त्यों उसे मार डाला।
पीछे नाना-जतन करके प्राण मेरा बचाया॥92॥
जैसे-जैसे कुँवर-वर ने हैं किये कार्य्य-न्यारे।
वैसे ऊधो न कर सकते हैं महा-विक्रमी भी।
जैसी मैंने गहन उनमें बुध्दि-मत्त विलोकी।
वैसी वृध्दों प्रथित-विबुधो मंत्रदों में न देखी॥93॥
मैं ही होता चकित न रहा देख कार्य्यावली को।
जो प्यारे के चरित लखता, मुग्ध होता वही था।
मैं जैसा ही अति-सुखित था लाल पा दिव्य ऐसा।
वैसा ही हूँ दुखित अब मैं काल-कौतूहलों से॥94॥
क्यों प्यारे ने सदय बन के डूबने से बचाया।
जो यों गाढ़े-विरह-दुख के सिन्धु में था डुबोना।
तो यत्नों से उरग-मुख के मध्य से क्यों निकाला।
चिन्ताओं से ग्रसित यदि मैं आज यों हो रहा हूँ॥95॥

वंशस्थ छन्द

निशान्त देखे नभ स्वेत हो गया।
तथापि पूरी न व्यथा-कथा हुई।
परन्तु फैली अवलोक लालिमा।
स-नन्द ऊधो उठ सद्म से गये॥96॥

द्रुतविलम्बित छन्द

विवुधा ऊद्धव के गृह-त्याग से।
परि-समाप्त हुई दुख की कथा।
पर सदा वह अंकित सी रही।
हृदय-मंदिर में हरि-विधेय के॥97॥

लेखक

  • अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

    अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। उनके पिता पंडित भोलानाथ उपाध्याय ने सिख धर्म अपना कर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था । हरिऔध जी ने निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास की, किंतु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया और १८८४ में निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक हो गए । सन १८८९ में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी से सन १९३२ में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप में १९३२ से १९४१ तक अध्यापन कार्य किया। उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं: - प्रिय प्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई ।

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प्रिय प्रवास सर्ग1-10/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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