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प्रिय प्रवास भूमिका/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

विचार-सूत्र

सहृदय वाचकवृन्द!

मैं बहुत दिनों से हिन्दी भाषा में एक काव्य-ग्रन्थ लिखने के लिए लालायित था। आप कहेंगे कि जिस भाषा में ‘रामचरित-मानस’, ‘सूरसागर’, ‘रामचन्द्रिका’, ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘पद्मावत’ इत्यादि जैसे बड़े अनूठे काव्य प्रस्तुत हैं, उसमें तुम्हारे जैसे अल्पज्ञ का काव्य लिखने के लिए समुत्सुक होना वातुलता नहीं तो क्या है? यह सत्य है, किन्तु मातृभाषा की सेवा करने का अधिकार सभी को तो है; बने या न बने, सेवा-प्रणाली सुखद और हृदय-ग्राहिणी हो या न हो, परन्तु एक लालायित-चित्त अपनी प्रबल लालसा को पूरी किये बिना कैसे रहे? जिसके कान्त-पादांबुजों को निखिल-शास्त्र-पारंगत पूज्यपाद महात्मा तुलसीदास, कवि-शिरोरत्न महात्मा सूरदास, जैसे महाजनों ने परम सुगंधित अथच उत्फुल्ल पाटल प्रसून अर्पण कर अर्चना की है| कविकुल-मण्डली-मण्डन केशव, देव, बिहारी, पद्माकर इत्यादि सहृदयों ने अपनी विकच-मल्लिका चढ़ा कर भक्ति-गद्गद-चित्त से आराधना की है,क्या उसकी मैं एक नितान्त साधरण पुष्प द्वारा पूजा नहीं कर सकता? यदि ‘स्वान्त: सुखाय’ मैं ऐसा कर सकता हूँ तो अपनी टूटी-फूटी भाषा में एक हिन्दी काव्य-ग्रन्थ भी लिख सकता हूँ; निदान इसी विचार के वशीभूत होकर मैंने ‘प्रियप्रवास’ नामक इस काव्य की रचना की है।

काव्य-भाषा

यह काव्य खड़ी बोली में लिखा गया है। खड़ी बोली में छोटे-छोटे कई काव्य-ग्रन्थ अब तक लिपिबध्द हुए हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश सौ-दो सौ पद्यों में ही समाप्त हैं, जो कुछ बड़े हैं वे अनुवादित हैं मौलिक नहीं। सहृदय कवि बाबू मैथलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथवध’ निस्सन्देह मौलिक ग्रन्थ है, परन्तु यह खण्ड-काव्य है। इसके अतिरिक्त ये समस्त ग्रन्थ अन्त्यानुप्रास विभूषित हैं, इसलिए खड़ी बोलचाल में मुझको एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता देख पड़ी, जो महाकाव्य हो; और ऐसी कविता में लिखा गया हो जिसे भिन्नतुकान्त कहते हैं। अतएव मैं इस न्यूनता की पूर्ति के लिए कुछ साहस के साथ अग्रसर हुआ और अनवरत परिश्रम करके इस ‘प्रियप्रवास’ नामक ग्रन्थ की रचना की; जो कि आज आप लोगों के कर-कमलों में सादर समर्पित है। मैंने पहले इस ग्रन्थ का नाम ‘ब्रजांगना-विलाप’ रखा था, किन्तु कई कारणों से मुझको यह नाम बदलना पड़ा, जो इस ग्रन्थ के समग्र पढ़ जाने पर आप लोगों को स्वयं अवगत होंगे। मुझमें महाकाव्यकार होने की योग्यता नहीं, मेरी प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी नहीं जो महाकाव्य के लिए उपयुक्त उपस्कर संग्रह करने में कृतकार्य्य हो सके, अतएव मैं किस मुख से यह कह सकता हूँ कि ‘प्रियप्रवास’ के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य न होने की न्यूनता दूर हो गई। हाँ, विनीत भाव से केवल इतना ही निवेदन करूँगा कि महाकाव्य का आभास-स्वरूप यह ग्रन्थ सत्रह सर्गों में केवल इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इसको देखकर हिन्दी-साहित्य के लब्धाप्रतिष्ठ सुकवियों और सुलेखकों का ध्यान इस त्रुटि के निवारण करने की ओर आकर्षित हो। जब तक किसी बहुज्ञ मर्म्मस्पर्शिनी-सुलेखनी द्वारा लिपिबध्द होकर खड़ी बोली में सर्वांग सुन्दर कोई महाकाव्य आप लोगों को हस्तगत नहीं होता, तब तक यह अपने सहज रूप में आप लोगों के ज्योति-विकीर्णकारी उज्ज्वल चक्षुओं के सम्मुख है, और एक सहृदय कवि के कण्ठ से कण्ठ मिलाकर यह प्रार्थना करता है, ‘जबलौं फुलै न केतकी; तबलौं बिलम करील।’

कविता-प्रणाली

यद्यपि वर्तमान पत्र और पत्रिकाओं में कभी-कभी एक आध भिन्नतुकान्त कविता किसी उत्साही युवक कवि की लेखनी से प्रसूत होकर आजकल प्रकाशित हो जाती है, तथापि मैं यह कहूँगा कि भिन्नतुकान्त कविता भाषा-साहित्य के लिए एक बिल्कुल नई वस्तु है; और इस प्रकार की कविता में किसी काव्य का लिखा जाना तो ‘नूतनं नूतनं पदे पदे’ है। इसलिए महाकाव्य लिखने के लिए लालायित होकर जैसे मैंने बालचापल्य किया है, उसी प्रकार अपनी अल्प विषया-मति साहाय्य से अतुकान्त कविता में महाकाव्य लिखने का यत्न करके मैं अतीव उपहासास्पद हुआ हूँ। किन्तु, यह एक सिध्दान्त है कि ‘अकरणात् मन्दकरणम् श्रेय:’ और इसी सिध्दान्त पर आरूढ़ होकर मुझसे उचित वा अनुचित यह साहस हुआ है। किसी कार्य्य में सयत्न होकर सफलता लाभ करना बड़े भाग्य की बात है, किन्तु सफलता न लाभ होने पर सयत्न होना निन्दनीय नहीं कहा जा सकता। भाषा में महाकाव्य और भिन्नतुकान्त कविता में लिखकर मेरे जैसे विद्या बुध्दि के मनुष्य का सफलता लाभ करना यद्यपि असंभव बात है किन्तु इस कार्य्य के लिए सयत्न होना गर्हित नहीं हो सकता, क्योंकि ‘करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।’ जो हो परन्तु यह ‘प्रियप्रवास’ ग्रन्थ आद्योपान्त अतुकान्त कविता में लिखा गया है- अत: मेरे लिए यह पथ सर्वथा नूतन है, अतएव आशा है कि विद्वद्जन इसकी त्रुटियों पर सहानुभूतिपूर्वक दृष्टिपात करेंगे।

संस्कृत के समस्त काव्य-ग्रन्थ अतुकान्त अथवा अन्त्यानुप्रासहीन कविता से भरे पड़े हैं। चाहे लघुत्रयी, रघुवंश आदि, चाहे बृहत्रयी किरातादि, जिसको लीजिए उसी में आप भिन्नतुकान्त कविता का अटल राज्य पावेंगे। परन्तु हिन्दी काव्य-ग्रन्थों में इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है। उसमें आप अन्त्यानुप्रासहीन कविता पावेंगे ही नहीं। अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण-सुखद होते हैं और कथन को भी मधुरतर बना देते हैं। ज्ञात होता है कि हिन्दी-काव्य-ग्रन्थों में इसी कारण अन्त्यानुप्रास की इतनी प्रचुरता है। बालकों की बोलचाल में, निम्न जातियों के साधरण कथन और गान तक में आप इसका आदर देखेंगे, फिर यदि हिन्दी काव्य-ग्रन्थों में इसका समादर अधिकता से हो तो आश्चर्य क्या है? हिन्दी ही नहीं, यदि हमारे भारतवर्ष की प्रान्तिक भाषाओं बँगला, पंजाबी, मरहठी, गुजराती आदि पर आप दृष्टि डालेंगे तो वहाँ भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादार पावेंगे; उर्दू और फारसी में भी इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। अरबी का तो जीवन ही अन्त्यानुप्रास है, उसके पद्य-भाग को कौन कहे, गद्य-भाग में भी अन्त्यानुप्रास की बड़ी छटा है। मुसलमानों के प्रसिध्द धर्म्म-ग्रन्थ कुरान को उठा लीजिए, यह गद्य-ग्रन्थ है; किन्तु इसमें अन्त्यानुप्रास की भरमार है। चीनी, जापानी जिस भाषा को लीजिए, एशिया छोड़कर यूरोप और अफ्रीका में चले जाइए, जहाँ जाइयेगा वहीं कविता में अन्त्यानुप्रास का समादर देखियेगा। अन्त्यानुप्रास की इतनी व्यापकता पर भी समुन्नत भाषाओं में भिन्नतुकान्त कविता आदृत हुई है, और इस प्रकार की कविता में उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखे गये हैं। संस्कृत की बात मैं ऊपर कह चुका हूँ; बँगला में इस प्रकार की कविता से भूषित ‘मेघनाद वध’ नाम का एक सुन्दर काव्य है। अंगरेजी में भी भिन्नतुकान्त कविता में लिखित कई उत्तमोत्तम पुस्तकें हैं।

कहा जाता है, भिन्नतुकान्त कविता सुविधा के साथ की जा सकती है; और उसमें विचार स्वतन्त्रता, सुलभता और अधिक उत्तमता से प्रकट किये जा सकते हैं। यह बात किसी अंश में सत्य है, परन्तु मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि केवल इसी विचार से अन्त्यानुप्रास विभूषित कविता की आवश्यकता नहीं है। यदि अन्त्यानुप्रास आदर की वस्तु न होता, तो वह कदापि संसारव्यापी न होता; उसका इतना समादृत होना ही यह सिध्द करता कि वह आदरणीय है। इसके अतिरिक्त एक साधरण वाक्य को भी अन्त्यानुप्रास सरस कर देता है। हाँ, भाषा सौकर्य्य साधन के लिए उसको प्रकार की कविता से विभूषित करने के उद्देश्य से अतुकान्त कविता के भी प्रचलित होने की आवश्यकता है; और मैंने इसी विचार से इस ‘प्रियप्रवास’ ग्रन्थ की रचना, इस प्रकार की कविता में की है।

काव्यवृत्त

मैंने ऊपर निवेदन किया है कि संस्कृत कविता का अधिकांश भिन्नतुकान्त है, इसलिए यह स्पष्ट है कि भिन्नतुकान्त कविता लिखने के लिए संस्कृत-वृत्त बहुत ही उपयुक्त है। इसके अतिरक्त भाषा छन्दों में मैंने जो एक आध अतुकान्त कविता देखी, उसको बहुत ही भद्दी पाया; यदि कोई कविता अच्छी मिली भी तो उसमें वह लावण्य नहीं मिला, जो संस्कृत-वृत्तों में पाया जाता है; अतएव मैंने इस ग्रन्थ को संस्कृत-वृत्तों में ही लिखा है। यह भी भाषा-साहित्य में एक नई बात है। जहाँ तक मैं अभिज्ञ हूँ अब तक हिन्दी-भाषा में केवल संस्कृत-छन्दों में कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया है। जब से हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है, तब से लोगों की दृष्टि संस्कृत-वृत्तों की ओर आकर्षित है, तथापि मैं यह कहूँगा कि भाषा में कविता के लिए संस्कृत-छन्दों का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नहीं देखा जाता। हम लोगों के आचार्यवत् मान्य श्रीयुत् पण्डित बाल कृष्ण भट्ट अपनी द्वितीय साहित्य-सम्मेलन की स्वागत-सम्बंधिनी वक्तृता में कहते हैं

आजकल छन्दों के चुनाव में भी लोगों की अजीब रुचि हो रही है; इन्द्रवज्रा, मन्द्राक्रान्ता, शिखरिणी आदि संस्कृत छन्दों का हिन्दी में अनुकरण हममें तो कुढ़न पैदा करता है।

( द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का कार्यविवरण 2 भाग ; पृ. 8)

‘प्रियप्रवास’ ग्रन्थ 15 अक्तूबर, सन् 1909 ई. को प्रारम्भ और कार्य्य-बाहुल्य से 24 फरवरी, सन् 1913 ई. को समाप्त हुआ है। जिस समय आधे ग्रन्थ को मैं लिख चुका था, उस समय माननीय पण्डित जी का उक्त वचन मुझे दृष्टिगोचर हुआ। देखते ही अपने कार्य्य पर मुझको कुछ क्षोभ-सा हुआ, परन्तु मैं करता तो क्या करता, जिस ढंग से ग्रन्थ प्रारम्भ हो चुका था, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता था। इसके अतिरिक्त श्रध्देय पण्डित जी का उक्त विचार मुझको सर्वांश में समुचित नहीं जान पड़ा, क्योंकि हिन्दी-भाषा के छन्दों से संस्कृत-वृत्त खड़ी बोली की कविता के लिए अधिक उपयुक्त हैं, और ऐसी अवस्था में सर्वथा त्याज्य नहीं कहे जा सकते। मैं दो एक वर्तमान भाषा-साहित्य-अनुरागियों की अनुमति नीचे प्रकाशित करता हूँ। इन अनुमतियों के पठन से भी मेरे उस सिध्दान्त की पुष्टि होती है, जिसको अवलम्बन कर मैंने संस्कृत-वृत्तों में अपना ग्रन्थ रचा है। उदीयमान युवक कवि पं. लक्ष्मीधर वाजपेयी वि. सम्वत् 1968 में प्रकाशित अपने ‘हिन्दी मेघदूत’ की भूमिका के पृष्ठ 3, 4 में लिखते हैं

जब तक खड़ी बोली की कविता में संस्कृत के ललित-वृत्तों की योजना न होगी तब तक भारत के अन्य प्रान्तों के विद्वान् उससे सच्चा आनन्द कैसे उठा सकते हैं? यदि राष्ट्रभाषा हिन्दी के काव्य-ग्रन्थों का स्वाद अन्य प्रान्तवालों को भी चखाना है, तो उन्हें संस्कृत के मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, मालिनी, पृथ्वी, वसंततिलका, शार्दूलविक्रीड़ित आदि ललित वृत्तों से अलंकृत करना चाहिए। भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान् संस्कृत-भाषा के वृत्तों से अधिक परिचित हैं, इसका कारण यही है कि संस्कृत भारतवर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है। भाषा का गौरव बढ़ाने के लिए काव्य में अनके प्रकार के ललित वृत्तों और नूतन छन्दों का भी समावेश होना चाहिए।

साहित्यमर्मज्ञ, सहृदयवर, समादरणीय श्रीयुत पण्डित मन्नन द्विवेदी, सम्वत् 1970 में प्रकाशित ‘मर्यादा’ की ज्येष्ठ, आषाढ़ की मिलित संख्या के पृष्ठ 96 में लिखते हैं

यहाँ एक बात बतला देना बहुत जरूरी है। जो बेतुकान्त की कविता लिखे, उसको चाहिए कि संस्कृत के छन्दों को काम में लाये। मेरा ख्याल है कि हिन्दी पिंगल के छन्दों में बेतुकान्त कविता अच्छी नहीं लगती। स्वर्गीय साहित्याचार्य पं. अम्बिकादत्त जी व्यास ऐसे विद्वान् भी हिन्दी-छन्दों में अच्छी बेतुकान्त कविता नहीं कर सके। कहना नहीं होगा कि व्यास जी का ‘कंसवध’ काव्य बिलकुल रद्दी हुआ है।

अब रही यह बात कि संस्कृत-छन्दों का प्रयोग मैं उपयुक्त रीति से कर सका हूँ या नहीं, और उनके लिखने में मुझको यथोचित सफलता हुई है या नहीं। मैं इस विषय में कुछ लिखना नहीं चाहता, इसका विचार भाषा-मर्म्मज्ञों के हाथ है। हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि आद्य उद्योग में असफल होने की ही अधिक आशंका है।

भाषा-शैली

‘प्रियप्रवास’ की भाषा संस्कृत-गर्भित है। उसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है। अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में ‘प्रियप्रवास’ लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रन्थ लिखा जाता। कोई भाषा-मर्म्मज्ञ सोचेंगे इस प्रकार संस्कृत-शब्दों को ठूँसकर भाषा के प्रकृत रूप को नष्ट करने की चेष्टा करना नितान्त गर्हित कार्य है। उक्त वक्तृता में भट्ट जी एक स्थान पर कहते हैं

दूसरी बात जो मैं आजकल खड़ी बोली के कवियों में देख रहा हूँ, वह समासबध्द, क्लिष्ट संस्कृत-शब्दों का प्रयोग है, यह भी पुराने कवियों की पध्दति के प्रतिकूल है।

इस विचार के लोगों से मेरी यह प्रार्थना है कि क्या मेरे इस एक ग्रन्थ से ही भाषा-साहित्य की शैली परिवर्तित हो जावेगी? क्या मेरे इस काव्य की लेख-प्रणाली ही अब से सर्वत्र प्रचलित और गृहीत होगी? यदि नहीं, तो इस प्रकार का तर्क समीचीन न होगा। हिन्दी-भाषा में सरल पद्य में एक से एक सुन्दर ग्रन्थ हैं। जहाँ इस प्रकार के अनेक ग्रन्थ हैं, वहाँ एक ग्रन्थ ‘प्रियप्रवास’ के ढंग का भी सही। इसके अतिरिक्त मैं यही कहूँगा कि क्या ऐसे संस्कृत-गर्भित ग्रन्थ हिन्दी में अब तक नहीं लिखे गये हैं? और क्या जनसमाज में वे समाप्त नहीं हैं? क्या रामचरितमानस, विनय पत्रिका और रामचन्द्रिका से भी ‘प्रियप्रवास’ अधिक संस्कृत-गर्भित है? क्या जिस प्रकार की संस्कृत-गर्भित खड़ी बोली की कविता आजकल सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं, ‘प्रियप्रवास’ की कविता दुरूहता में उससे आगे निकल गई है? यह ग्रन्थ न्यायदृष्टि से पढ़कर यदि मीमांसा की जावेगी तो कहा जावेगा कभी नहीं, और ऐसी दशा में मुझे आशा है कि इस विषय में मैं विशेष दोषी न समझा जाऊँगा। कुछ संस्कृत-वृत्तों के कारण और अधिकतर मेरी रुचि से इस ग्रन्थ की भाषा संस्कृत-गर्भित है, क्योंकि अन्य प्रान्तवालों में यदि समादर होगा तो ऐसे ही ग्रन्थों का होगा। भारतवर्ष भर में संस्कृत-भाषा आदृत है। बँगला, मरहठी, गुजराती, वरन् तमिल और पंजाबी तक में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। इन संस्कृत शब्दों को यदि अधिकता से ग्रहण करके हमारी हिन्दी-भाषा उन प्रान्तों के सज्जनों के सम्मुख उपस्थित होगी तो वे साधरण हिन्दी से उसका अधिक समादर करेंगे, क्योंकि उसके पठन-पाठन में उनको सुविधा होगी और वे उसको समझ सकेंगे। अन्यथा हिन्दी के राष्ट्र-भाषा होने में दुरूहता होगी, क्योंकि सम्मिलन के लिए भाषा और विचार का साम्य ही अधिक उपयोगी होता है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य प्रान्तवालों से घनिष्ठता का विचार करके हम लोग अपने प्रान्तवालों की अवस्था और अपनी भाषा के स्वरूप को भूल जावें। यह मैं मानूँगा कि इस प्रान्त के लोगों की शिक्षा के लिए और हिन्दी भाषा के प्रकृत-रूप की रक्षा के निमित्त, साधरण वा सरल हिन्दी में लिखे गये ग्रन्थों की ही अधिक आवश्यकता है; और यही कारण है कि मैंने हिन्दी में कतिपय संस्कृत-गर्भित ग्रन्थों की प्रयोजनीयता बतलाई है। परन्तु यह भी सोच लेने की बात है कि क्या यहाँ वालों को उच्च हिन्दी से परिचित कराने के लिए ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता नहीं है, और यदि है तो मेरा यह ग्रन्थ केवल इसी कारण से उपेक्षित होने योग्य नहीं। जो सज्जन मेरे इतना निवेदन करने पर भी अपनी भौंह की बंकता निवारण न कर सकें, उनसे मेरी यह प्रार्थना है कि वे ‘वैदेही-वनवास’ के कर-कमलों में पहुँचने तक मुझे क्षमा करें, इस ग्रन्थ को मैं अत्यन्त सरल हिन्दी और प्रचलित छन्दों में लिख रहा हूँ।

मैंने ऊपर लिखा है कि क्या ‘रामचरितमानस’ ‘रामचंद्रिका’ और ‘विनयपत्रिका’ से भी ‘प्रियप्रवास’ अधिक संस्कृत-गर्भित है, मेरे इस वाक्य से संभव है कि कुछ भ्रम उत्पन्न होवे, और यह समझा जावे कि मैं इन पूज्य-ग्रन्थों के वन्दनीय ग्रन्थकारों से स्पर्द्धा कर रहा हूँ और अपने काँच की हीरक-खण्ड के साथ तुलना करने में सयत्न हूँ। अतएव मैं यहाँ स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर देता हूँ कि मेरे उक्त वाक्य का मर्म्म केवल इतना ही है कि संस्कृत-शब्दों के बाहुल्य से कोई ग्रन्थ अनादृत नहीं हो सकता। यह और बात है कि संस्कृत-शब्दों का प्रयोग उचित रीति और चारु-रूपेण न हो सके, और इस कारण से कोई ग्रन्थ हास्यास्पद और निन्दनीय बन जावे।

कवितागत स्वारस्य

हिन्दी के कतिपय साहित्यसेवियों का यह भी विचार है कि खड़ी बोली में सरस और मनोहर कविता नहीं हो सकती। पूज्य पण्डित जी अपने उक्त भाषण में ही एक स्थान पर लिखते हैं

खड़ी बोली की कविता पर हमारे लेखकों का समूह इस समय टूट पड़ा है। आजकल के पत्रों और मासिक-पत्रिकाओं में बहुत-सी इस तरह की कवितायें छपी हैं, परन्तु इनमें अधिकतर ऐसी हैं जिनको कविता कहना ही कविता की मानो हँसी करना है; हमें तो काव्य के गुण इनमें बहुत कम जँचते हैं।

मेरे विचार में खड़ी बोली में एक इस प्रकार का कर्कशपन है कि कविता

के काम में ला उसमें सरसता सम्पादन करना प्रतिभावान के लिए भी कठिन है, तब तुकबन्दी करनेवालों की कौन कहे।

इन सज्जनों का विचार यह है कि ‘मधुर कोमलकांत पदावली’ जिस
कविता में न हो वह भी कोई कविता है! कविता तो वही है जिसमें कोमल शब्दों का विन्यास हो, जो ‘मधुर अथच कान्तपदावली द्वारा अलंकृत हो। खड़ी बोली में अधिकतर संस्कृत-शब्दों का प्रयोग होता है, जो हिन्दी के शब्दों की अपेक्षा कर्कश होते हैं। इसके व्यतीत उसकी क्रिया भी ब्रजभाषा की क्रिया से रूखी
और कठोर होती है; और यही कारण है कि खड़ी बोली की कविता सरस नहीं होती और कविता का प्रधान गुण माधुर्य और प्रसाद उसमें नहीं पाया जाता। यहाँ पर मैं यह कहूँगा कि पदावली की कान्तता, ‘मधुरता, कोमलता केवल
पदावली में ही सन्निहित है, या उसका कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और
उसके हृदय से भी है? मेरा विचार है कि उसका कुछ सम्बन्ध नहीं, वरन् बहुत कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से है। कर्पूरमंजरीकार प्रसिध्द राजशेखर कवि अपनी प्रस्तावना में प्राकृत-भाषा की कोमलता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं

परुसा सक्कअबंधा पाउअबन् धो बिहोइ सुउमारो।

पुरुसांणं महिलाणं जेत्तिय मिहन्तरं तेत्तिय मिमाणम्॥

इस श्लोक के साथ निम्नलिखित संस्कृत रचनाओं को मिलाकर पढ़िए

इतर पापफलानि यथेच्छया वितरतानि सहे चतुरानन।

अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख॥

विद्या विनयोपेता हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य।

काद्बचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानंदम्॥

वारिजेनेव सरसी शशि नेत्र निशीथिनी।

यौवनेनेव वनिता नयेन श्रीर्मनोहरा॥

आयाति याति पुनरेव जलं प्रयाति

पद्मां कुराणि विचिनोति धु नोति पक्षौ।

उन्मत्तवद् भ्रमति कूजति मन्दमन्दम्

कान्तावियोगवि धु रो निशि चक्रवाक:॥

कतिपय पंक्तियाँ दोनों के गद्य की भी देखिए

एसा अहं देवदामिहुणम् रोहिणीमि अलद्बछणम् मक्खीकदुअ अज्जउत्तम् प्पसादेमि, अज्ज प्पहुदि अज्जउत्तीजम् इत्थिअम् कामेदि जा अ अज्जउत्तस्स समागमप्पणइणी ताएम एपीदिवन्धेण वत्ति दव्वम्।

विक्रोमर्वशी

अहं खलु सिध्दादेशजनितपरित्रासेन राज्ञा पालकेन घोषादानीय विशसने गूढ़ागारे बन्धनेन बध्द: तस्माच्च प्रियसुहृत्शविलकप्रसादेन-बन्धनात् विमुक्तोस्मि।

मृच्छकटिक

अब बतलाइए कोमल-कान्त-पदावली और सरसता किसमें अधिक है? उक्त प्राकृत श्लोक का रचयिता कहता है किसंस्कृत की रचना परुष और प्राकृत की सुकुमार होती है, पुरुष स्त्री में जो अन्तर है वही अन्तर इन दोनों में है। परन्तु दोनों भाषाओं की ऊधर्व लिखित कपितप पंक्तियों को पढ़कर आप अभिज्ञ हुए होंगे कि उसके कथन में कितनी सत्यता है। कोमल-कान्त पद कौन हैं? वही जिनके उच्चारण में मुख को सुविधा हो और जो श्रुतिकटु न हो। संयुक्ताक्षर और टवर्ग जिस रचना में जितने न्यून होंगे वह रचना उतनी ही कोमल और कान्त होगी; और वे जितने अधिक होंगे उतनी ही अधिक वह कर्कश होगी। अब आप देखें शब्द-संख्या निर्देश से प्राकृत और संस्कृत के उध्दृत श्लोकों और वाक्यों में से किसमें युक्ताक्षर और टवर्ग अधिक हैं। आप प्राकृत श्लोक और वाक्य में ही अधिक पावेंगे, और ऐसी दशा में यह सिध्द है कि प्राकृत से संस्कृत की ही पदावली कोमल, ‘मधुर और कान्त है।

मैं कतिपय प्राकृत वाक्यों को उनके संस्कृत अनुवाद सहित नीचे लिखता हूँ। आप इनको भी पढ़कर देखिए किसमें कोमलता और ‘मधुरता अधिक है। और प्राकृत एवं संस्कृत के उन शब्दों को विशेष मनोनिवेश-पूर्वक पढ़िए जिनके नीचे लकीर खींची हुई है, और इस बात की मीमांसा कीजिए कि एक-दूसरे का रूपान्तर होने पर भी उनमें कौन कान्त है

अज्जस्सज्जेब पिअबअस्सेन चुण बुङ्ढेण।

आर्य्यस्यैव प्रियवयस्येन चूर्ण वृध्देन।

आ:दासीए पुत्त चुणबुङ्ढा कदाणुक्खु तुम कुबिदेणरणा पालयेण

णवं बहु केस कलावं बिअ ससुअन्ध ं कप्पिजन्तं पेक्सिस्सं।

आ: दास्या: पुत्र चूर्ण वृध्द कदानु खलु त्वां कुपितेन राज्ञा

पालकेननवव धू केशकलापमिव ससुगन्ध ं छेद्यमानं प्रेक्षिष्ये।

अम्हारिस जण जोग्गेण बम्हणेण ऊबनिमन्तितेण।

अस्मादृश जन योग्येन ब्राह्मणेन उपनिमन्त्रितेन॥

द्दादेहं शलिल जलेहिं पाणिएहिं उज्जाणेउबबण काणणेणिशणे

णालीहिसहजुबदी हिइत्थिआहिंगन्धव्बोबिअशुदेहिअङ्गकेहि

स्नातोहं सलिलजलं पानीय: उद्याने उपवन कानने निशण्णे।

नारीभि: सह युवतीभि: स्त्री भिर्गन्धर्व इव सुहितैरङ्गकै:।

हत्थशद्बजदो मुहशद्बजदो इन्द्रियशद्बजदो शेक्खु माणुशे।

किं कलेदि लाअउले तश्श पललोओ हत्थे णिच्चले।

हस्तसंयत: मुखसंयत इन्द्रियसंयत: सखलु मनुष्य:।

किं करोति राजकुलं तस्य परलोको हस्ते निश्चल:॥

मृच्छकटिक

यदि कहा जावे कि संस्कृत-श्लोकों और वाक्यों के चुनने में जिस सहृदयता से काम लिया गया है, प्राकृत के श्लोकों और वाक्यों के चुनने में वैसा नहीं किया गया, तो पहले तो यह तर्क इसलिए उचित न होगा कि प्राकृत वाक्यों या श्लोकों का ही अनुवाद तो संस्कृत में नीचे दिया गया है। दूसरे मैं इस तर्क के समाधन के लिए कतिपय प्राकृत और संस्कृत के मनोहर श्लोकों और वाक्यों को नीचे लिखता हूँ। आप उनको मिलाइए, और देखिए कि दोनों की सरसता और कोमलता में कितना अन्तर है

असारे सार मतिनो सारे चासार दस्सिनो।

ते सारे नाधि गच्छन्ति मिच्छा संकप्पगोचरा॥ 1 ॥

अप्पमादेन मघवा देवानं सेद्वतं गतो।

अप्पमादं परां सन्ति पमादो गरहितो सदा॥ 2 ॥

नपुष्पगं धो पटिवातमेति न चन्दनं तग्गर मल्लिका वा।

सतं च गं धो पटिवातमेति सब्बादिसा सप्पुरिसोपवायति॥ 3 ॥

उदकं हि नयन्ति नेतिका उसुकारानमयन्ति तेजनं।

दारुनमयन्ति तच्छका अत्तानं दमयन्ति पण्डिता॥ 4 ॥

मासे मासे सहस्सेनयो यजेथ सतं समम्।

एकं च भावितत्तान मुहुत्तामपि पूजये॥ 5 ॥

धम्मपद

रणन्त मणिणेउरं झणझणन्तहारच्छडं।

कलक्कणिद किंकिणी मुहर मेहलाडम्बरं।

विलोल बलआवलीजणिदमंजुसिंजारवं।

णकस्समणमोहणं ससिमुहीअहिन्दोलणम्॥ 6 ॥

क़र्पूरमंजरी

अलिरसौ नलिनीवनवल्लभ: कुमुदिनीकुलकेलिकलारस:।

विधिवशेन विदेशमुपागत: कुटजपुष्परसं बहुमन्यते॥ 1 ॥

केवानसन्तिभुवितामरसावतंसाहंसावलीबलयिनोबल सन्निवेशा।

किंचातकोफलमवेक्ष्यसवज्रपातांपौरन्दरीमुपगतोनववारिधाराम्॥ 2 ॥

निर्वाणदीपे किमु तैलदानं चौरे गते वा किमु साव धन म्।

वयोगते किं वनिताविलास: पयोगते किं खलु सेतुबंध:॥ 3 ॥

वरमसिधारा तरुतलवासो वरमिह भिक्षा वरमुपवास:।

वरमपि घोरे नरके पतनं न च धनगर्वितबान्धवशरणम्॥ 4 ॥

विहाररासखेदभेद धी रतीर मारुता।

गतागिरामगोचरे यदीयनीरचारुता।

प्रवाहसाहचर्य्य पूत मेदिनी नदी नदा

धु नोतु नो मनोमलंकलिन्दनन्दिनी सदा॥ 5 ॥

क़ाव्यसंग्रह

शिलीमुखेस्मिंस्तवनामवांछिते मृगोपनीते मृगशावलोचना।

प्रमोदमाप्तेयमितो विलोकिते करे चकोरीव तुषारदी धि तै:॥ 1 ॥

मनसिजवरबीर बैजयन्त्यास्त्रिाभुवनदुर्लभविभ्रमैकभूमे:।

कुचमुकुलविचित्र पत्र वल्लीपरिचित एष सदा शशिप्रभाया:॥ 2 ॥

साहसांकचरित

णम् पहादा रअणीं ता सिग्धाम् सअणम् परिच्चआमि। अधवा लहु लहु उत्थिदाबि किं कारिस्समणमे उद्ददेसुम पहादकरणीये सुम्हथ्यपादाओप्सरन्ति, कामो दाणिम् सकामोभोदु, जेण असच्चसन्धे जणेपिअसही सुध्दहिअआपदं कारिदा।

शकुन्तला नाटक

सैवाहं कादम्बरीयानेन कुमारेण मत्तमदमुखरमधुकरकुलकलकोलाहलाकुलिते, कोककामिनीकरुणकूजिते विरहिजनमनोदु:खेविकचदलारविन्द निस्यन्दसुगन्ध मन्दगन्धवाहानन्दितदशदिशि प्रदोषसमये विकसितकुसुममामोदमुकुलित- मानिनीमानग्रहोन्मोचनहस्ते, कुसुमायुधे।

क़ादम्बरी

यदि इन श्लोकों और गद्य अवतरणों को पढ़कर यह युक्ति उपस्थित की जावे कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई? प्राकृत भाषा की उत्पत्ति का कारण यही है न कि संस्कृत के कठिन शब्दों को सर्वसाधरण यथा रीति उच्चारण नहीं कर सकते थे, वे उच्चारण सौकर्य्य-साधन और मुख की सुविधा के लिए उसे कुछ कोमल और सरल कर लेते थे क्योंकि मनुष्य का स्वभाव सरलता और सुविधा को प्यार करता है; तो यह सिध्द है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति ही सरलता और कोमलतामूलक है। अर्थात् प्राकृत भाषा उसी का नाम है जो संस्कृत के कर्कश शब्दों को कोमल स्वरूप में ग्रहण कर जन-साधरण के सम्मुख यथाकाल उपस्थित हुई है; और ऐसी अवस्था में यह निर्विवाद है कि संस्कृत भाषा से प्राकृत कोमल और कान्त होगी। मैं इस युक्ति को सर्वांश में स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं हूँ। यह सत्य है कि प्राकृत भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत के कर्कश स्वरूप को छोड़कर कोमल हो गये हैं। किन्तु कितने शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत शब्दों का मुख्य रूप त्याग कर उच्चारण-विभेद से नितान्त कर्ण-कटु हो गये हैं और यही शब्द मेरे विचार में प्राकृत वाक्यों को संस्कृत वाक्यों से अधिकांश स्थलों पर कोमल नहीं होने देते।

निम्नलिखित शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत का कर्कश रूप छोड़कर प्राकृत में कोमल और कान्त हो गये हैं :

1 संस्कृत प्राकृत संस्कृत प्राकृत संस्कृत प्राकृत

धर्म्म धम्म गर्ब गब्ब पुत्र पुत्त

गन्धर्ब्ब गन्धाब्ब दशिन: दस्सिनो अप्रमादेन अप्पमादेन

2 प्रशंसन्ति पसंसन्ति प्रमाद: प्रमादो सर्व सब्ब

किन्तु निम्नलिखित शब्द नितान्त श्रुति-कटु हो गये हैं :

संस्कृत प्राकृत संस्कृत प्राकृत

प्रियवयस्येन पिअवअस्सेण वृध्देन बुङ्ढेण

वृध्द बुङ्ढा कदानु कदाणु

खलु क्खु कुपितेन कुबिदेण

राज्ञा रणा पालकेन पालयेण

नव णव मिव बिअ

जन जण योग्येन जोग्गेण

सलिल शलिल पानीयै: पाणिएहि

उद्याने उज्जाणे उपबन उबबण

उपनिमंत्रितेन उबणिमन्तिदेण स्नातोहं ह्वादेहं

इन दोनों प्रकार के उद्धात शब्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो गया कि प्राकृत में संस्कृत के यदि अनेक शब्द कर्कश से कोमल हो गये हैं, तो उच्चारण-विभिन्नता, जल-वायु और समय-स्रोत के प्रभाव से बहुत से शब्द कोमल बनने के स्थान पर परम कर्ण-कटु बन गये हैं। संस्कृत के न, ध्द, व, य इत्यादि के स्थान पर प्राकृत भाषा में ण, ड, ढ, ब, अ इत्यादि का प्रयोग उसको बहुत ही श्रुति-कटु कर देता है, और ऐसी अवस्था में जिस युक्ति का उल्लेख किया गया है, वह केवल एकांश में मानी जा सकती है, सर्वांश में नहीं। और जब यह युक्ति सर्वांश में गृहीत नहीं हुई, तो जिस सिध्दान्त का प्रतिपादन मैं ऊपर से करता आया हूँ वही निर्विवाद ज्ञात होता है, और हमको इस बात के स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है कि प्राकृत भाषा से संस्कृत भाषा परुष नहीं है। तथापि राजशेखर जैसा वावदूक विद्वान् उसको प्राकृत से परुष बतलाता है, इसका क्या कारण है?

मैं समझता हूँ इसके निम्नलिखित कारण हैं :

1. एक संस्कार जो सहस्रों वर्ष तक भारतवर्ष में फैला था, और जो प्राकृत को संस्कृत की जननी और उससे उत्तम बतलाता था।

2. प्राकृत का सर्वसाधरण की भाषा अथवा अधिकांश उसका निकटवर्ती होना।

3. बोलचाल में अधिक आने के कारण प्राकृत का संस्कृत की अपेक्षा बोधगम्य होना।

और इसीलिए मेरा यह विचार है कि पदावली की कान्तता, कोमलता और ‘मधुरता केवल पदावली में ही सन्निहित नहीं है। वरन् उसका बहुत कुछ सम्बन्ध संस्कार और हृदय से भी है। सम्भव है कि मेरा यह विचार इन कतिपय पंक्तियों द्वारा स्पष्टतया प्रतिपादित न हुआ हो। इसके अतिरिक्त यह कदापि सर्वसम्मत न होगा कि प्राकृत से संस्कृत परुष नहीं है, अतएव मैं एक दूसरे पथ से अपने इस विचार को पुष्ट करने की चेष्टा करता हूँ।

जिस प्राकृत भाषा के विषय में यह सिध्दान्त हो गया था कि :

सा मागधी मूलभाषा नरेय आदि कप्पिक।

ब्राह्मणमसूटल्लाप समबुध्दच्चापि भाषरे॥

पतिसम्बिध अत्तृय, नामक पाली ग्रन्थ में जिस भाषा के विषय में लिखा गया है कि यह भाषा देवलोक, नरलोक, प्रेतलोक और पशु जाति में सर्वत्र ही प्रचलित है, किरात, अन्धक, योणक, दामिल, प्रभृति भाषा परिवर्तनशील हैं। किन्तु मागधी आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है, इसलिए अपरर्वत्तनीय और चिरकाल से समानरूपेण व्यवहृत है। मागधी भाषा को सुगम समझकर बुध्ददेव ने स्वयं पिटकनिचय को सर्वसाधरण के बोध-सौकर्य्य के लिए इस भाषा में व्यक्त किया था। जिस प्राकृत को राजशेखर जैसा असाधरण विद्वान् संस्कृत से कोमल और ‘मधुर होने का प्रशंसापत्र देता है, काल पाकर वह अनादृत क्यों हुई? उसका प्रचार इतना न्यून क्यों हो गया कि उसके ज्ञाताओं की संख्या उँगलियों पर गिनी जाने योग्य हो गई? ‘मधुरता, कोमलता, कान्तता किसको प्यारी नहीं है, सुविधा का आदर कौन नहीं करता; फिर सुविधामूलक ‘मधुर कोमलकान्त भाषा का व्यवहार क्यों कवियों की रचनाओं आदि में दिन-दिन अल्प होता गया? कहा जावेगा कि प्राकृत भाषा की प्रिय-दुहिता परम सरला और मनोहरा हिन्दी भाषा का प्रचार ही इस द्रास का कारण है। परन्तु प्रश्न तो यह है कि यह प्रिय दुहिता अपनी जन्मदायिनी से इतनी विरक्त क्यों हो गई कि दिन-दिन उसके शब्दों को त्याग कर संस्कृत शब्दों को ग्रहण करने लगी; काल पाकर क्यों थोड़े प्राकृत शब्द भी अपने मुख्य रूप में उसमें शेष न रहे, और उस संस्कृत के अनेक शब्द उसमें क्यों भर गये जो कि परुष कही जाती है।

उस काल के ग्रन्थों में केवल एक ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो, अब हम लोगों को प्राप्त है, अतएव मैं उसी ग्रन्थ के कुछ पद्यों को यहाँ उध्दृत करता हूँ। आप लोग इनको पढ़कर देखिए कि किस प्रकार उस समय प्राकृत भाषा के शब्दों का व्यवहार न्यून और कैसे संस्कृत के शब्दों का समादर अधिक हो चला था। आज कल प्राकृत भाषा हम लोगों को इतनी अपरिचिता है कि उसके बहुत से शब्दों का व्यवहार करने के कारण ही, हम लोग अनुराग के साथ ‘पृथ्वीराज रासो’ को नहीं पढ़ सकते और उससे घबड़ाते हैं।

श्लोक

आसामहीब कब्बी नवनव कित्तिाय संग्रहं ग्रन्थं।

सागरसरिसतरंगी वोहथ्थयं उक्तियं चलयं॥

दोहा

काव्य समुद कविचन्द कृकृत युगति समप्पन ज्ञान।

राजनीति वोहिथ सुफल पार उतारन यान॥

सत्ता सहस नष सिष सरस सकल आदि मुनि दिष्य।

घट बढ़ मत कोऊ पढ़ौ मोहि दूसन न बसिष्य॥

चन्द की रचना में तो प्राकृत शब्द मिलते भी हैं, वरन् कहीं-कहीं अधिकता से मिलते हैं, किन्तु महाकवि चन्द के पश्चात् के जितने कवियों की कवितायें मिलती हैं उनमें प्राकृत भाषा के शब्दों का व्यवहार बिल्कुल नहीं पाया जाता। कारण इसका यह है कि इस समय प्राकृत भाषा का व्यवहार उठ गया था और हिन्दी का राज्य हो गया था। इस काल की रचना में अधिकांश हिन्दी-शब्द ही पाये जाते हैं; हिन्दी शब्द के साथ आते हैं तो संस्कृत के शब्द आते हैं, प्राकृत के शब्द बिलकुल नहीं आते। महात्मा तुलसीदास, भक्तवर सूरदास और कविवर केशवदास की रचना में तो कहीं-कहीं हिन्दी शब्दों से भी अधिक संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।

पहले आप इन तीनों महोदयों के प्रथम की रचनाओं को देखिये

तरवर से एक एक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया।

बाप का उसके नाम जो पूछा आधा नाम बताया॥

सर्व सलोना सब गुन नीका। वा बिन सब जग लागे फीका॥

वाके सिर पर होवे कोन। ए सखि साजन ? ना सखि लोन॥

सिगरी रैन मोहि संग जागा। भोर भया तो बिछुरन लागा॥

वाके बिछुरत फाटत हीया। ए सखि साजन ? ना सखि दीया॥

अमीर खुसरो

क्या पढ़ियै क्या गुनियै। क्या वेद पुराना सुनियै॥

पढ़े सुने क्या होई। जो सहज न मिलियो सोई॥

हरि का नाम न जपसि गँवारा। क्या सोचै बारम्बारा॥

अंधि यारे दीपक चहियै। इक वस्तु अगोचर लहियै॥

वस्तु अगोचर पाई। घट दीपक रह्यो समाई॥

कह कबीर अब जाना। जब जाना तो मन माना॥

हृदय कपट मुख ज्ञानी। झूठे कहा बिलोवसि पानी॥

काया माँजसि कौन गुना। जो घट भीतर है मलना॥

लौकी अठ सठ तीरथ न्हाई। कौरापन तऊ न जाई॥

कह कबीर बीचारी। भवसागर तार मुरारी॥

क़बीरसाहब

नागमती चित्त ौर पथ हेरा। पिउ जो गये फिर कीन न फेरा॥

सुआ काल ह्नै लैगा पीऊ। पीउ न जात जात बरु जीऊ॥

भयो नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा॥

करन बान लीनो कै छंदू। भरथहिं भो झलमला अनंदू॥

लै कंतहिं भा गरुर अलोपी। विरह वियोग जियहिं किमि गोपी॥

का सिर बरनों दिपइ मयंकू। चाँद कलंकी वह निकलंकू॥

तेही लिलार पर तिलक बईठा। दुइज पास मानो ध्रुव डीठा॥

मलिक मुहम्मद जायसी

अब आप उक्त तीनों महोदयों की रचनाओं को देखिए। इनमें संस्कृत शब्दों की कितनी प्रचुरता है

जमुना जल बिहरति ब्रज-नारी

तट ठाड़े देखत नँदनन्दन ‘ मधुर -मुरलि कर धरी॥

मोर मुकुट श्रवनन मणि कुण्डल जलज-माल उर भ्राजत।

सुन्दर सुभग श्याम तन नव घन बिच बग-पाँति विराजत॥

उर बनमाल सुभग बहु भाँतिन सेत लाल सित पीत।

मनो सुरसरि तट बैठे शुक बरन बरन तजि भीत॥

पीतांबर कटि मैं छुद्रावलि बाजत परम रसाल।

सूरदास मनो कनकभूमि ढिग बोलत रुचिर मराल॥

भक्तवर सूरदास

सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥

सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जीके॥

चितवन चारु मार मद हरनी। भावत हृदय जात नहिं बरनी॥

कलकपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला॥

कुमुद-बं धु कर निन्दक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥

भाल विशाल तिलक झलकाहीं। कच विलोकि अलि अवलि लजाहीं॥

रेखा रुचिर कम्बु कल ग्रीवा। जनु त्रिभुवन सोभा की सींवा॥

महात्मा तुलसीदास

हरि कर मंडन सकल दुख खंडन

मुकुर महि मंडल को कहत अखण्ड मति।

परम सुबास पुनि पीयुख निवास

परिपूरन प्रकास केसोदास भू अकाश गति॥

बदन मदन कैसो श्री जू को सदन जहँ ,

सोदर सुभोदर दिनेस जू को मीत अति।

सीता जू के मुख सुखमा की उपमा को

कहि कोमल न कमल अमल न रजनिपति॥

क़विवर केशवदास

यदि अभिनिविष्ट चित्त से इस विषय में विचार किया जावे तो स्पष्टतया यह बात हृदयङ्गम होगी कि संस्कृत-शब्दों के समादर और प्राकृत शब्दों में अप्रीति का मुख्य कारण बौध्द-धर्म को पराजित कर पुन: वैदिक धर्म्म का प्रतिष्ठा-लाभ करना है; जिसने संस्कृत की ममता पुन: जागरित कर दी। जब वैदिक-धर्म्म के साथ-साथ संस्कृत-भाषा का फिर आदर हुआ, तब यह असम्भव था कि प्राकृत शब्दों के स्थान पर फिर संस्कृत-शब्दों से अनुराग न प्रकट किया जाता। सर्वसाधरण की बोलचाल की भाषा का त्याग असम्भव था, किन्तु यह सम्भव था कि उसमें उपयुक्त संस्कृत-शब्द ग्रहण कर लिये जावें। निदान उस काल और उसके परवर्ती काल के कवियों की रचनायें मैंने जो ऊपर उध्दृत की हैं उनमें आप ये ही बातें पावेंगे।

प्राकृत कोमल, कान्त और ‘मधुर होकर भी क्यों त्यक्त हुई? इसलिए कि सर्वसाधरण का संस्कार और हृदय उसके अनुकूल न रहा, इसलिए कि वह बोलचाल की भाषा से दूर जा पड़ी और बोधगम्य न रही। संस्कृत के शब्द बोलचाल की भाषा से और भी दूर पड़ गये थे; और वह भी बोधगम्य नहीं थे; किन्तु, धार्मिक-संस्कार ने उसके साथ सहानुभूति की, और इस सहानुभूति-जनित-हृदय-ममता ने उसको पुन: समादर का पान दिया। एक बात और है मुख-सुविधा और श्रवन-सुखदाता मानसिक श्रम के सम्मुख आदृत और वांछनीय नहीं होती, और कान्तता एवं कोमलता धार्मिक किंवा जाति-भाषा-मूलक संस्कार और तज्जनितहृदय-ममता के सामने स्थान और सम्मान नहीं पाती। मुख और श्रवण मन के अनुचर हैं। जिस कविता के पठन करने में मुख को सुविधा हुई, सुनने में कान को आनन्द हुआ, किन्तु समझने में मन को श्रम करना पड़ा, तो वह कविता अवश्य उद्वेगकर होगी, और यदि अपार श्रम करके भी मन उसको न समझ सका तो उसकी कान्तता और कोमलता उसकी दृष्टि में कठोरता, दुरूहता और जटिलता की मूर्ति छोड़ और क्या होगी? इसके विपरीत वह यदि लिखने पढ़ने किंवा बोलचाल की भाषा की निकटवर्त्तिनी हो, मन के श्रम का आधार न हो, और उसमें मुख-सुविधाकारक अथच श्रवण्-सुखद शब्द पर्याप्त न भी पाये जावें तो भी वह कविता आदृत और गृहीत होगी; और उसके श्रवण-कटु एवं मुख-असुविधाकारक शब्द कोमल और कान्त बन जावेंगे, क्योंकि सुविधा ही प्रधान है।

जब इस व्यापार में धार्मिक किंवा जातिभाषा-मूलक संस्कार भी आकर सम्मिलित हो जाता है, तब इसका रंग और गहरा हो जाता है। ब्रजभाषा ऐसी ‘मधुर भाषा दूसरी नहीं मानी जाती, किन्तु कुछ लोगों का विचार है कि फारसी के समान ‘मधुर भाषा संसार में दूसरी नहीं है। इस भाषा का प्रसिध्द विद्वान और कवि अलीहजीं जब हिन्दुस्तान में आया, तो उसको ब्रजभाषा के माधुर्य की प्रशंसा सुनकर कुछ स्पर्द्धा हुई। वह ब्रज-प्रान्त में इस कथन की सत्यता की परीक्षा के लिये गया। मार्ग में उसको एक ग्वालिन जल ले जाते हुए मिली, जिसके पीछे पीछे एक छोटी कोमल बालिका यह कहती हुई दौड़ रही थी, ‘मायरे माय गैल साँकरी पगन मैं काँकरी गड़तु हैं।’ इस बालिका का कथन सुनकर वे चक्कर में आ गये और सोचा कि जहाँ की गँवार बालिकाओं का ऐसा सरस भाषण है, वहाँ के कवियों की वाणी का क्या कहना! परन्तु उनके सहधार्मियों ने इसी परम लावण्यमती, कोमला अथच मनोहरा ब्रजभाषा का क्या समादर किया, उन्होंने चुन-चुन कर इसके शब्दों को अपनी कविता में से निकाल बाहर किया और उसके स्थान पर फारसी, अरबी के अकोमल और श्रुति-कटु शब्दों को भर दिया।

सबसे पहले मुसलमान कवि जिन्होंने हिन्दी-भाषा में कविता करने के लिए लेखनी उठाई, अमीर खुसरो थे। यह कवि तेरहवें शतक में हुआ है। इसकी कविता का रंग देखिए

खालिकबारी सिरजनहार। वाहिद एक बेदाँ करतार।

रसूल पयम्बर जान बसीठ। यार दोस्त बोली जा ईठ॥

जेहाल मिस्कीं मफुन तग़ाफुल। दुराय नैना बनाय बतियाँ।

किताबे हिंज़राँ न दारम् ऐ जाँ। न लेहु काहे लगाय छतियाँ॥

दक्षिण का सादी नामक एक आदिम उर्दू कवि बतलाया जाता है। उसकी कविता का नमूना यह है

हम तुम्हन को दिल दिया , तुम दिल लिया और दुख दिया।

हम यह किया तुम वह किया , ऐसी भली यह मीत है॥

वली भी उर्दू का आदिम कवि है, उसकी कविता का भी उदाहरण अवलोकन कीजिए

दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन।

जा कहो कोई मुहम्मद शाह सों॥

इन दोनों के उपरान्त ही शाह मुबारक का समय है, उसकी कविता का ढंग यह है

मत कष्ह्न सेतीं हाथ में ले दिल हमारे को।

जलता है क्यों पकड़ता है जालिम अंगारे को॥

ऊपर की कविताओं से प्रकट है कि पहले मुसलमान कवियों ने जो रचना की है, उसमें या तो हिन्दी-पदों और शब्दों को बिल्कुल फारसी पदों या शब्दों से अलग रखा है, या फारसी अरबी शब्दों को मिलाया है तो बहुत ही कम; अधिकांश हिन्दी शब्दों से ही काम लिया है, किन्तु आगे चलकर समय ने पलटा खाया और निम्नलिखित प्रकार की कविता होने लगी

नूर पैदा है जमाले यार के साया तले।

गुल है शरमिन्दा रुखे दिलदार के साया तले॥

नासिंख़

आफ ता बे हश्र है या रब कि निकाला गर्म गर्म।

कोई ऑंसू दिलजलों के दीदये ग़मनाक से॥

न लौह गोर पै मस्ती के हो न हो तावीज़।

जो हो तो ख़िश्ते खुमे मैं कोई निशाँ के लिये॥

ज़ौक

खमोशी में निहाँ खूँगश्ता लाखों आरजूयें हैं।

चिराग़े मुर्दा हूँ मैं बेज़बाँ गोरे ग़रीबाँ का॥

नक्श्श नाज़े बुतेतन्नाजश् ब आग़ोश र की ब।

पायताऊस पये जामये मानी माँगे॥

यह तूफा ं गाह जोशेइजतिराबे शाम तनहाई।

शोआये आफ ता बे सुब्हमहशरतारे बिस्तर है॥

लबे ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा जुँबानी।

क या मत कुश्तये लाले बुताँ का ख्वाबे संगीं है॥

ग़ालिब

अब प्रश्न यह है कि वह कौन-सी बात है कि जिसके कारण ब्रजभाषा का, कि किसके माधुर्य पर अलीहजीं ऐसा उदार हृदय पारसी कवि लोट-पोट हो गया था, पीछे मुसलमान कवियों द्वारा तिरस्कार हुआ। क्यों, उन्होंने उसके कोमल कान्त पदों के स्थान पर फारसी और अरबी के श्रुति-कटु शब्दों का व्यवहार करना उचित समझा? क्या उन्होंने ब्रजभाषा के सुविधापूर्वक उच्चारित होने वाले ग, ख, ज, फ, इत्यादि अक्षरों से निर्मित शब्दों के स्थान पर गैन, ख़े, .जे, फे इत्यादि श्रुतिकंठ-विदीर्णकारी अक्षरों से मिलित शब्दों का आदर किया? इसका उत्तर इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि अरबी और फारसी भाषा में उसके अक्षरों और शब्दों में, उनके धार्मिक और जातिभाषा-मूलक संस्कार ही ने उन्हें उनसे आदृत बनाया, इनमें जो उनकी हृदय-ममता है उसी ने उन्हें इनको अंगीकृत करने के लिए बाध्य किया।

जो कुछ अब तक कहा गया, उससे यह बात भली प्रकार सिध्द हो गई कि किसी पदावली की कोमलता, कान्तता, ‘मधुरता का बहुत कुछ सम्बन्ध, संस्कार और हृदय से है। इस अवसर पर यह कहा जा सकता है कि कोमलता, कान्तता इत्यादि का सम्बन्ध हृदय या संस्कार से नहीं है, वास्तव में उसका सम्बन्ध पदावली से ही है। हाँ, उसके आदृत या अनादृत होने का सम्बन्ध निस्सन्देह संस्कार और हृदय से है। क्योंकि यदि दो बालक ऐसे उपस्थित किये जावें कि जिनमें एक सुन्दर हो और दूसरा असुन्दर, तो निज अपत्य होने के कारण असुन्दर बालक में पिता की हृदय-ममता हो सकती है, उसका स्वाभाविक संस्कार उसे निज पुत्र को आदर और सम्मान-दृष्टि से देखने के लिए बाध्य कर सकता है, किन्तु इससे वह सुन्दर नहीं हो जावेगा; सुन्दर बालक को ही सुन्दर कहा जावेगा। इसी प्रकार किसी अकान्त और अकोमल पद को किसी का संस्कार और हृदय-भाव कान्त और कोमल नहीं बना सकता; क्योंकि न्याय-दृष्टि कोमल और कान्त को ही कोमल और कान्त कह सकती है। जब सबको अपना ही अपत्य सुन्दर ज्ञात होता है तो इससे यह सिध्द है कि उसको दूसरे के अपत्य के सौन्दर्य्य की अनुभूति नहीं होती; और जब अनुभूति नहीं होती तो उसकी दृष्टि में उसका सौन्दर्य्य ही क्या? इसी प्रकार जब किसी पदावली की कान्तता, ‘मधुरता और कोमलता की अनुभूति ही नहीं होती, तो उसकी कान्तता, ‘मधुरता, कोमलता ही क्या? वास्तव में बात यह है कि ऐसे स्थानों पर संस्कार और हृदय ही प्रधान होता है।

पीयूषवर्षी कवि बिहारीलाल के निम्नलिखित दोहे कितने सुन्दर और मनोहरहैं

बड़े बड़े छबि छाकु छकि छिगुनी छोर छुटैन।

रहे सुरँग रँग रँग वही , नहँदी महँदी नैन॥

सतर भौंह रूखे बचन , करति कठिन मन नीठि।

कहा कहौं ह्नै जात हरि हेरि हँसोंहीं डीठि॥

बतरस लालच लाल की , मुरली धरी लुकाय।

सौंह करै भौंहनि हँसै , देन कहै , नटि जाय॥

यक भींगे चहले परे , बूड़े बहे हजार।

किते न औगुन जग करे , नै बै चढ़ती बार॥

परन्तु आधुनिक पाठशालाओं के विद्यार्थियों और वर्तमान खड़ी बोली के अनुरागियों के सामने इनको रखिये, देखिये वह इनका कितना आदर करते हैं। मैंने देखा है कि आजकल के खड़ी बोली के रसिक ब्रजभाषा की कविता से उतना ही घबड़ाते हैं, जितना कि वह किसी अपरिचित किंवा अल्प परिचित भाषा की कविता से घबड़ा सकते हैं। कारण इसका क्या है? कारण इसका यही है कि लिखने-पढ़ने और बोलचाल की भाषा से वह दूर पड़ गई है। इन दोहों का माधुर्य, लालित्य, और कोमलता अथच कान्तता निर्विवाद है; किन्तु जब वह इनको समझते ही नहीं, यदि समझने की चेष्टा करते हैं तो मन को विशेष श्रम करना पड़ता है, फिर उनकी दृष्टि में इनकी कोमलता और कान्तता ही क्या? किन्तु यदि इन दोहों के स्थान पर कोई संस्कृत-गर्भित खड़ी बोली की कविता रख दीजिये, तो देखिये वह उसको पढ़ कर कितना मुग्ध होते हैं और कितना आनन्दानुभव करते हैं; अतएव उनको उसी में कोमलता और कान्तता दृष्टिगत होती है। और यही कारण है कि आजकल संस्कार और हृदय-ममता दोनों खड़ी बोली की ओर आकर्षित हो गई हैं; कि जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण खड़ी बोली की कविता का समधिक प्रचार है।

जिन प्राचीन विद्वान् सज्जनों का संस्कार ब्रजभाषा के माधुर्य और कान्तता के विषय में दृढ़ हो गया है, और इस कारण उसकी ममता उनके हृदय में बध्दमूल है, वे यदि कहें कि खड़ी बोली की कविता कर्कश होती है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या। ऐसे ही जिन्होंने ब्रजभाषा का अभूतपूर्व रस आस्वादन नहीं किया है, जो ब्रजभाषा की रचना में दुर्बोधता उपलब्ध करते हैं, वे यदि खड़ी बोली का समादर और प्यार करें और उसे ही कान्त और कोमल समझें तो इसमें भी कोई आश्चर्य्य नहीं, सदा ऐसा ही होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा। अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है; इस समय खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अतएव मैंने भी ‘प्रियप्रवास’ को खड़ी बोली में ही लिखा है। सम्भव है कि उसमें अपेक्षित कोमलता और कान्तता न हो, परन्तु इससे यह सिध्दान्त नहीं हो सकता कि खड़ी बोली में सुन्दर कविता हो ही नहीं सकती। वास्तव बात यह है कि यदि उसमें कान्तता और ‘मधुरता नहीं आई है तो यह मेरी विद्या, बुध्दि और प्रतिभा का दोष है, खड़ी बोली का नहीं।

ग्रन्थ का विषय

इस ग्रन्थ का विषय श्रीकृकृष्णचन्द्र की मथुरा-यात्रा है; और इसी से इसका नाम ‘प्रियप्रवास’ रखा गया है। कथा-सूत्र से मथुरा-यात्रा के अतिरिक्त उनकी और ब्रज-लीलायें भी यथास्थान इसमें लिखी गई हैं। जिस विषय के लिखने के लिए महर्षि व्यासदेव, कवि-शिरोमणि सूरदास और भाषा के अपर मान्य कवियों तथा विद्वानों ने लेखनी की परिचालना की है, उसके लिए मेरे जैसे मंदधी का लेखनी उठाना नितान्त मूढ़ता है। परन्तु जैसे रघुवंश लिखने के लिए लेखनी उठा कर कवि-कुल-गुरु कालिदास ने कहा था, मणौवज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गति:। उसी प्रकार इस अवसर पर मैं भी स्वच्छ हृदय से यही कहूँगा अति अपार जे सरित वर, जो नृप सेतु कराहिं। चढ़ि पिपीलिका परम लघु, बिनु श्रम पारहिं जाहिं॥ रहा यह कि वास्तव में मैं पार जा सका हूँ या बीच ही में रह गया हूँ, किंवा उस पावन सेतु पर चलने का साहस करके निन्दित बना हूँ, इसकी मीमांसा विबुध जन करें। मेरा विचार तो यह है कि मैंने इस मार्ग में भी अनुचित दुस्साहस किया है, अतएव तिरस्कृत और कलंकित होने की ही आशा है। हाँ, यदि मर्म्मज्ञ विद्वज्जन इसको उदार दृष्टि से पढ़कर उचित संशोधन करेंगे, तो आशा है कि किसी समय में इस ग्रन्थ का विषय भी रसिकों के लिए आनन्दकारक होगा।

हम लोगों का एक संस्कार है, वह यह कि जिनको हम अवतार मानते हैं, उनका चरित्र जब कहीं दृष्टिगोचर होता है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून से न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते हैं, जिसमें उसके ब्रह्मत्व का निरूपण हो। जो सज्जन इस विचार के हों, वे मेरे प्रेमाम्बुप्रश्रवण, प्रेमाम्बुप्रवाह और प्रेमाम्बुवारिधि नामक ग्रन्थों को देखें; उनके लिए यह ग्रन्थ नहीं रचा गया है। मैंने श्रीकृष्णचन्द्र को इस ग्रन्थ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं। अवतारवाद की जड़ मैं श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक मानता हूँ यद् यद् विभूतिमत्सत्तवं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छत्वं मम तेजोंशसंभवम्; अतएव जो महापुरुष है, उसका अवतार होना निश्चित है। मैंने भगवान् श्रीकृष्ण का जो चरित अंकित किया है, उस चरित का अनुधावन करके आप स्वयं विचार करें कि वे क्या थे, मैंने यदि लिखकर आपको बतलाया कि वे ब्रह्म थे, और तब आपने उनको पहचाना तो क्या बात रही! आधुनिक विचारों के लोगों को यह प्रिय नहीं है कि आप पंक्ति-पंक्ति में तो भगवान् श्रीकृष्ण को ब्रह्म लिखते चलें और चरित्र लिखने के समय कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तु समर्थ: प्रभु: के रंग में रँगकर ऐसे कार्य्ययों का कर्ता उन्हें बनावें कि जिनके करने में एक साधरण विचार के मनुष्य को भी घृणा होवे। संभव है कि मेरा यह विचार समीचीन न समझा जावे, परन्तु मैंने उसी विचार को सम्मुख रखकर इस ग्रन्थ को लिखा है, और कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे कि आधुनिक लोग भी सहमत हो सकें। आशा है कि आप लोग दयार्द्र हृदय से मेरे उद्देश्य को समझने की चेष्टा करेंगे और मुझको वृथा वाग्वाण का लक्ष्य न बनावेंगे।

वर्णन-शैली

रुचि-वैचित्रय-स्वाभाविक है।कोई संक्षेप वर्णन को प्यार करता है, कोई विस्तृत वर्णन को। किसी को कालिदास की प्रणाली प्रिय है, किसी को भवभूति की। संक्षेप वर्णन से जो हृदय पर क्षणिक गहरा प्रभाव पड़ता है कोई उसको आदर देता है, कोई उस विस्तृत वर्णन से मुग्ध होता है, जिसमें कि पूरी तौर पर रस का परिपाक हुआ हो। निदान किसी ग्रन्थ की वर्णन-शैली का प्रभाव किसी मनुष्य पर उसकी रुचि के अनुसार पड़ता है। जो विस्तृत वर्णन को नहीं प्यार करता वह अवश्य किसी ग्रन्थ के विस्तृत वर्णन को पढ़कर ऊब जावेगा; इसी प्रकार जिसको किसी रस का संक्षेप वर्णन प्रिय नहीं, वह अवश्य एक ग्रन्थ के संक्षेप वर्णन को पढ़कर अतृप्त रह जावेगा। और यही कारण है कि प्रतिष्ठित ग्रन्थकारों की समालोचनायें भी नाना रूपों में होती हैं। मैंने अपने ग्रन्थ में वर्णन के विषय में मध्य पथ ग्रहण किया है, किन्तु इस दशा में भी संभव है कि किसी सज्जन को कोई प्रसंग संक्षेप में वर्णन किया जान पड़े और किसी को कोई कथा भाग अनुचित विस्तार से लिखा गया ज्ञात हो। मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँगा, यदि ग्रन्थ के सहृदय पाठकगण इस विषय में मुझे समुचित सम्मति देंगे, जिसमें कि दूसरी आवृत्ति में मैं अपने वर्णनों पर उचित मीमांसा कर सकूँ।

कवितागत कतिपय शब्द

अब मैं इस ग्रन्थ की कविता में व्यवहृत किये गये कुछ शब्दों के विषय में विचार करना चाहता हूँ। सब भाषाओं में गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, कारण यह है कि छन्द के नियम में बँधा जाने से ऐसी अवस्था प्राय: उपस्थित हो जाती है, कि जब उसमें शब्दों को तोड़-मरोड़ कर रखना पड़ता है, या उसमें कुछ ऐसे शब्द सुविधा के लिए रख देने पड़ते हैं, जो गद्य में व्यवहृत नहीं होते। यह हो सकता है कि जो शब्द तोड़ या मरोड़कर रखना पड़े वह, या गद्य में अव्यवहृत शब्द कविता में से निकाल दिया जावे, परन्तु ऐसा करने में बड़ी भारी कठिनता का सामना करना पड़ता है; और कभी-कभी तो यह दशा हो जाती है कि ऐसे शब्दों के स्थान पर दश शब्द रखने से भी काम नहीं चलता। इसलिए कवि उन शब्दों को कविता में रखने के लिए बाध्य होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि उन शब्दों के पर्य्यायवाची दूसरे शब्द उसी भाषा में मौजूद होते हैं, और यदि वे शब्द उन शब्दों के स्थान पर रख दिये जावें, तो किसी शब्द को विकलांग बनाकर या गद्य में अव्यवहृत शब्द रखने के दोष से कवि मुक्त हो सकता है; परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी कवि को समय पर वे शब्द स्मरण नहीं आते, और वह विकलांग अथवा गद्य में अव्यवहृत शब्द रख कर ही काम चलाता है। और यही कारण है कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है। कवि-कर्म्म बहुत ही दुरूह है। जब कवि किसी कविता का एक चरण निर्माण करने में तन्मय होता है, तो उस समय उसको बहुत ही दुर्गम और संकीर्ण मार्ग से होकर चलना पड़ता है। प्रथम तो छन्द की गिनी हुई मात्रा अथवा गिने हुए वर्ण उसका हाथ-पाँव बाँध देते हैं, उसकी क्या मजाल कि वह उसमें से एक मात्रा घटा या बढ़ा देवे, अथवा एक गुरु को लघु के स्थान पर या एक गुरु के स्थान पर एक लघु को रख देवे। यदि वह ऐसा करे तो वह छन्द-रचना का अधिकारी नहीं। जो इस विषय में सतर्क होकर वह आगे बढ़ा, तो हृदय के भावों और विचारों को उतनी ही मात्रा वा उतने ही वर्णों में प्रकट करने का झगड़ा सामने आया, इस समय जो उलझन पड़ती है, उसको कवि-हृदय ही जानता है। यदि विचार नियत मात्रा अथवा वर्णों में स्पष्टतया न प्रकट हुआ, तो उसका यह दोष लगा कि उसका वाच्यार्थ साफ नहीं, यदि कोमल वर्णों में वह स्फुरित न हुआ, तो कविता श्रुतिकटु हो गई। यदि उसमें कोई घृणाव्यंजक शब्द आ गया तो अश्लीलता की उपाधि शिर पर चढ़ी, यदि शब्द तोड़े-मरोड़े गये तो च्युतदोष ने गला दबाया, यदि उपयुक्त शब्द न मिले तो सौ-सौ पलटा खाने पर भी एक चरण का निर्माण दुस्तर हो गया, यदि शब्द यथा-स्थान न पड़े तो दूरान्वय दोष ने ऑंखें दिखायीं। कहाँ तक कहें, ऐसी कितनी बातें हैं, जो कविता रचने के समय कवि को उद्विग्न और चिन्तित करती हैं, और यही कारण है कि प्रसिध्द ‘बहारदानिश’ ग्रन्थ के रचयिता ने बड़ी सहृदयता से एक स्थान पर यह शेर लिखा है

बराय पाकिये लफ्श्जे शबे बरोजश् आरन्द

कि मुर्ग माही बाशन्द खुफ्श्ता ऊबेदार॥

इसका अर्थ यह है कि कवि एक शब्द को परिष्कृत करने के लिए उस रात्रि को जागकर दिन में परिणत करता है, जिसको चिड़ियाँ और मछलियाँ तक निद्रा देवी के शान्तिमय अङ्क में शिर रखकर व्यतीत करती हैं।यदि कवि-कर्म्म इतना कठोर न होता, तो कवि-कुल-गुरु कालिदास जैसे असाधरण विद्वान और विद्या-बुध्दि-निधन, ‘त्रायम्बकम् संयमिनं ददर्श’ इस लोक-खण्ड में ‘त्रयम्बकम्’ के स्थान पर ‘त्रायम्बकम्’ न लिख जाते, जो कि ‘त्रयम्बकम्’ का अशुध्द रूप है। यदि इस त्रयम्बकम् के स्थान पर वह त्रिलोचनम् लिखते तो कविता सर्वथा निर्दोष होती; किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, जिससे यह सिध्द होता है, कि कविता करने के समय बहुत चेष्टा करने पर भी उनको यह शुध्द और कोमल शब्द स्मरण नहीं आया, और इसी से उन्होंने एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया जो च्युत-दोष से दूषित है। किसी-किसी ने लिखा है कि उस काल में एक ऐसा व्याकरण प्रचलित था कि जिसके अनुसार ‘त्रयम्बकम्’ शब्द भी अशुध्द नहीं है, किन्तु यह कथन ऐसे लोगों का उस समय तक मान्य नहीं है, जब तक कि वह व्याकरण का नाम बतला कर उस सूत्र को भी न बतला दें कि जिसके द्वारा यह प्रयोग भी शुध्द सिध्द हो। इस विचार के लोग यह समझते हैं कि यदि कवि-कुल-गुरु कालिदास की रचना में कोई अशुध्दि मान ली गई, तो फिर उनकी विद्वत्ता सर्वमान्य कैसे होगी। उनकी वह प्रतिष्ठा जो संसार की दृष्टि में एक चकितकर वस्तु है, कैसे रहेगी। अतएव येन केन प्रकारेण वे लोग एक साधरण दोष को छिपाने के लिए एक बहुत बड़ा अपराध करते हैं, जिसको विबुध समाज नितान्त गर्हित समझताहै।

इस विचार के लोग भाव-राज्य के उस मनोमुग्धकर-उपवन पर दृष्टि नहीं डालते, कि जिसके अंक में सदाशय और सद्विचार रूपी हृदय-विमोहक प्रफुल्ल-प्रसूनों के निकटवर्ती दो-चार दोष-कण्टकों पर कोई दृष्टिपात ही नहीं करता। कवि किसी भाषा-हीन शब्द को यथाशक्ति तो रखता नहीं; जब रखता है तो विवश होकर रखता है। जिसकी रचना अधिकांश सुन्दर है, जिसके भाव लोक-विमुग्धकर और उपकारक हैं, उसकी रचना में यदि कहीं कोई दोष आ जावे तो उस पर कौन सहृदय दृष्टिपात करता है, और यदि दृष्टिपात करता है तो वह सहृदय नहीं

जड़ चेतन गुन दोष मय , विश्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय , परिहरि बारि बिकार॥

संसार में निर्दोष कौन वस्तु है? सभी में कुछ न कुछ दोष हैं, जो शरीर बड़ा प्यारा है; उसी को देखिए, उसमें कितना मल है। चन्द्रमा में कलंक है, सूर्य में धब्बे हैं, फूल में कीड़े हैं; तो क्या ये संसार की आदरणीय वस्तुओं में नहीं हैं? वरन् जितना इनका आदर है, अन्य का नहीं है। कवि-कर्म्म-कुशल कालिदास की रचना इतनी अपूर्व और प्यारी है, इतनी सरस और सुन्दर है, इतनी उपदेशमय और उपकारक है, कि उसमें यदि एक दोष नहीं, सैकड़ों दोष होवें, तो भी वे स्निग्ध-पत्रावली-परिशोभित, मनोरम-पुष्प-फल-भार-विनम्र पादप के, दश पाँच नीरस, मलीन, विकृत पत्तों समान दृष्टि डालने योग्य न होंगे। फिर उन दोषों के विषय में बात बनाने से क्या लाभ? मैं यह कह रहा था कि कवि-कर्म्म नितान्त दुरूह है। अलौकिक प्रतिभाशाली कालिदास जैसे जगन्मान्य कवि भी इस दुरूहता-वारिधि-सन्तरण में कभी-कभी क्षम नहीं होते। जिनका पदानुसरण करके लोग साहित्य-पथ में पाँव रखना सीखते हैं, उन हमारे संस्कृत और हिन्दी के धुरन्धर और मान्य साहित्याचार्यों की मति भी इस संकीर्ण स्थल पर कभी-कभी कुण्ठित होती है, और जब ऐसों की यह गति है तो साधरण कवियों की कौन कहे? मैं कवि कहलाने योग्य नहीं, टूटी-फूटी कविता करके कोई कवि नहीं हो सकता, फिर यदि मुझसे भ्रम प्रमाद हो, यदि मेरी कविता में अनेक दोष होवें तो क्या आश्चर्य! अतएव आगे जो मैं लिखूँगा, उसके लिखने का यह प्रयोजन नहीं है, कि मैं रूपान्तर से अपने दोषों को छिपाना चाहता हूँ, प्रत्युत् उसके लिखने का उद्देश्य कतिपय शब्दों के प्रयोग पर प्रकाश डालना मात्रा है।

कतिपय क्रिया

हिन्दी गद्य में देखने के अर्थ में अधिकांश देखना धातु के रूपों का ही व्यवहार होता है, कोई-कोई कभी अवलोकना, विलोकना, दरसना, जोहना, लखना धातु के रूपों का भी प्रयोग करते हैं; किन्तु इसी अर्थ के द्योतक निरखना और निहारना धातु के रूपों का व्यवहार बिलकुल नहीं होता। अतएव इन कतिपय क्रियाओं के रूपों का व्यवहार कोई-कोई खड़ी बोली के पद्य में करना उत्तम नहीं समझते, किन्तु मेरा विचार है कि इन कतिपय क्रियाओं से भी यदि खड़ी बोली के पद्यों में संकीर्ण स्थलों पर काम लिया जावे तो उसके विस्तार और रचना में सुविधा होगी। मैं ऊपर दिखला चुका हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, अतएव इनको ब्रजभाषा की क्रिया समझकर तज देना मुझे उचित नहीं जान पड़ता और इसी विचार से मैंने अपनी कविता में देखने के अर्थ में इन क्रियाओं के रूपों का व्यवहार भी उचित स्थान पर किया है। ऐसी ही कुछ और क्रियाएँ हैं, जो ब्रजभाषा की कविता में तो निस्सन्देह व्यवहृत होती हैं, परन्तु खड़ी बोली के गद्य में इनका व्यवहार सर्वथा नहीं होता; या यदि होता है तो बहुत न्यून। किन्तु मैंने अपनी कविता में इनको भी निस्संकोच स्थान दिया है। मेरा विचार है कि इन क्रियाओं के व्यवहार से खड़ी बोली का पद्य-भण्डार सुसम्पन्न और ललित होने के स्थान पर क्षति-ग्रस्त और असुन्दर न होगा। ये क्रियाएँ लसना, विलसना, रचना, विराजना, सोहना, बगरना, बलजाना, तजना इत्यादि हैं। आधुनिक खड़ी बोली के कविता-लेखकों में से यद्यपि कई एक अपर सज्जनों को भी इनको काम में लेता देखा जाता है, किन्तु इन लोगों में अधिकांश वे सज्जन हैं, जो ब्रजभाषा से कुछ परिचित हैं। जिन्होंने ब्रजभाषा का कोमल-कान्त-वदन बिल्कुल नहीं देखा, उनकी कविता में इन क्रियाओं का प्रयोग कथंचित् होता है। मैं अपने कथन की पुष्टि गद्य के अवतरणों और आधुनिक वर्तमान कवियों की कविताओं का अपेक्षित अंश उठाकर, कर सकता हूँ किन्तु ऐसा करने में यह लेख बहुत विस्तृत हो जावेगा। ब्रजभाषा की क्रियाओं का प्रयोग खड़ी बोली में उसके नियमानुसार होना चाहिए; ब्रजभाषा के नियमानुसार नहीं, अन्यथा वह अवैध और भ्रामक होगा।

कुछ वर्णों का हलन्त प्रयोग

हिन्दी भाषा के कतिपय सुप्रसिध्द गद्य-पद्य लेखकों को देखा जाता है कि ये इसका, उसका इत्यादि को इस्का, उस्का इत्यादि और करना, धरना इत्यादि को कर्ना, धर्ना इत्यादि लिखने के अनुरागी हैं। पद्य में ही संकीर्ण स्थलों पर वे ऐसा नहीं करते, गद्य में भी इसी प्रकार इन शब्दों का व्यवहार वे उचित समझते हैं। खड़ी बोली की कविता के लब्धाप्रतिष्ठ प्रधान लेखक श्रीयुत पं. श्रीधर पाठक लिखित नीचे की कतिपय गद्य-पद्य की पंक्तियों को देखिये

यह एक प्रेम-कहानी आज आपको भेंट की जाती है निस्सन्देह इस्में ऐसा तो कुछ भी नहीं जिस्से यह आपको एक ही बार में अपना सके

नम्र भाव से कीनी उस्ने विनय समेत प्रणाम

चला साथ योगी के हर्षित जहँ उस्का विश्राम

नहीं बड़ा भण्डार मढ़ी में कीजै जिस्की रखवाली

दोनों जीव पधारे भीतर जिन्के चरित अमोल

एकान्तवासी योगी

हमारे उत्साही नवयुवक पण्डित लक्ष्मीधर जी वाजपेयी ने भी अपने ‘हिन्दी मेघदूत’ में कई स्थानों पर इस प्रणाली को ग्रहण किया है; नीचे के पद्यों को अवलोकन कीजिए

उस्का नीला जल पट तट श्रोणि से तू हरेगा

उस्के शांतीहर शिखर पै तू लखेगा सखा यों

जिस्की सेवा उचित रति के अंत में मत्करों से

वाजपेयी जी की कविता वर्णवृत्त में लिखी गई है, जिसमें लघु गुरु नियत संख्या से आते हैं, इसलिए यदि उन्होंने दो दीर्घ रखने के लिए कविता में उसका, उसके, जिसकी के स्थान पर उस्का, उस्के, जिस्की लिखा तो उनका यह कार्य्य विवशतावश है। ऐसे स्थलों पर यह प्रयोग अधिक निन्दनीय नहीं है, किन्तु गद्य में अथवा वहाँ, जहाँ कि शुध्द रूप में ये शब्द लिखे जा सकते हैं, इन शब्दों का संयुक्त रूप में प्रयोग मैं उचित नहीं समझता; इसके निम्नलिखित कारण हैं

1. यह कि गद्य की भाषा में जो शब्द जिस रूप में व्यवहृत होते हैं, मुख्य अवस्थाओं को छोड़कर पद्य की भाषा में भी उन शब्दों का उसी रूप में व्यवहृत होना समीचीन, सुसंगत और बोधगम्य होगा।

2. यह कि उसको, जिसमें, जिसको इत्यादि शब्दों को प्राचीन और आधुनिक अधिकांश गद्य-पद्य लेखक इसी रूप में लिखते आते हैं, फिर कोई कारण नहीं है कि इस प्रचलित प्रणाली का बिना किसी मुख्य हेतु के परित्याग किया जावे।

3. यह कि हिन्दी भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति यथासंभव संयुक्ताक्षरत्व से बचकर रहने की है, अतएव उसके सर्वनामों इत्यादि को जो कि समय-प्रवाह-सूत्र से संयुक्त रूप में नहीं हैं, संयुक्त रूप में परिणत करना दुर्बोधता और क्लिष्टता सम्पादन करना होगा।

अब रही यह बात कि यदि वास्तव में हिन्दी में कुछ अकारान्त वर्ण, शब्द-खण्ड और धातु-चिह्न के प्रथम के अक्षर हलन्तवत् बोले जाते हैं, तो कोई कारण नहीं है, कि उच्चारण के अनुसार वे लिखे न जावें। इस विषय में मेरा यह निवेदन है कि इन वर्णों, शब्द-खण्डों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षरों का ऐसा उच्चारण हिन्दी के जन्म-काल से ही है, या कुछ काल से हो गया है? और यदि जन्म-काल से ही है,तो इसके व्याकरण-रचयिताओं और लेखकों ने इस विषय में अमनोनिवेश क्यों किया? यदि उन्होंने मनोनिवेश नहीं भी किया तो एक वास्तव और युक्तिसंगत बात के ग्रहण करने में इस समय संकोच क्या? और यदि उसके ग्रहण में संकोच उचित नहीं, तो केवल पद्य में ही वे क्यों ग्रहण किये जावें, गद्य में भी क्यों न गृहीत हों? इन प्रश्नों के उत्तर में अधिक न लिखकर मैं केवल इतना ही कहूँगा कि इन वर्णों, शब्द-खण्डों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षरों को भाषाव्याकरण् कत्तर्ओं ने स्वर-संयुक्त माना है, हलन्तवत् नहीं। क्योंकि हलन्तवत् क्या? कोई व्यंजन या तो स्वर-संयुक्त होगा या हलन्त, और जब उन्होंने उनको स्वर-संयुक्त मानकर ही उनके सब रूप बनाये हैं, तो अब उनके विषय में एक नवीन पध्दति स्थापित करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती; क्योंकि व्याकरण उच्चारण के अनुकूल ही बनता है, उससे प्रतिकूल नहीं। समय पाकर उच्चारण में भिन्नता अवश्य हो जाती है और उस समय व्याकरण भी बदलता है, परन्तु इन वर्णों, शब्द-खण्डों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षर के लिए अभी वे दिन नहीं आये हैं। सोचिए, यदि इसको, जिसको इत्यादि को इस्को, जिस्को लिखें और करना, धारना, चलना इत्यादि को कर्ना, धर्ना, चल्ना इत्यादि लिखने लगें, तो हिन्दी भाषा में कितना बड़ा परिवर्तन उपस्थित होगा।

समादरणीय पाठक जी का एक लेख खड़ी बोली की कविता पर प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्य्य विवरण में मुद्रित हुआ है, उसके पृष्ठ 32 में एक स्थान पर उन्होंने इस विषय पर विचार करते हुए ऐसे शब्दों के विषय में यह लिखाहै:

भाषा के शील संरक्षण की दृष्टि से पद्य लिखने में आवश्यकतानुसार बोलने की रीति अवलम्बन करने से कोई आपत्ति तो नहीं उपस्थित होती।

इस सब जगड्बाल के प्रदर्शन से मेरा अभिप्राय यह नहीं है, कि हमारी भाषा के पद्य में इस प्रकार शब्द व्यवहार करना चाहिए, किन्तु बुधजनों के विचार के लिए यह मेरी केवल एक प्रस्तावना मात्र है।

ये दोनों वाक्य यह स्पष्ट बतला देते हैं कि प्रशंसित पाठक जी भी गद्य में इस प्रकार शब्दों को लिखना उचित नहीं समझते; पद्य में भी वह आवश्यकतानुसार ऐसा प्रयोग आपत्ति-रहित मानते हैं। पाठक जी के निम्नलिखित वाक्यांशों से भी यही बात सिध्द होती है।

आजकल मैं ऐसे स्थान पर हूँ कि उदाहरण नहीं दे सकता।, दूसरा वह जिसमें भाषा का यह गुण अपेक्षित-सा देखने में आता है, मिश्रित वा खिचड़ी भाषा के पद्य में यह योग्यता नहीं आ सकती, ऐसी भाषा का प्रयोग उत्कृष्ट काव्य में कदापि न करना चाहिए। ( हि.सा.स.वि. प्रथम भाग, पृ‑ 29)

उसके मन में सर्वोत्तम है उसका ही प्रिय जन्मस्थान

उनके उर के मध्य मूर्खता का अंकुर भी बोता है

श्रान्तपथिक , पृ. 4,13

अब मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि कुछ अकारान्त वर्ण जैसे बस, अब जतन इत्यादि के स, ब, न आदि, कुछ ऐसे शब्द-खण्ड के अन्त्याक्षर जिन पर बोलने में आघात-सा पड़ता है, जैसे गलबाहीं, मन-भावना इत्यादि के गल और मन आदि, कुछ ऐसे वर्ण जो धातु-चिह्न के पहले रहते हैं जैसे करना, धरना, चलना इत्यादि के र, ल आदि, यदि आवश्यकतानुसार उच्चारण का ध्यान करके पद्य में हलन्त कर लिये जावें तो उससे कुछ सुविधा होगी या नहीं? और ऐसे प्रयोग का हिन्दी भाषा के पद्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? मैं प्रशंसित पाठक जी के उक्त लेख में से ही एक पद्य यहाँ उठाता हूँ, आप इसे अवलोकन कीजिए

प इत्ने प भी तो नहिं मन हुआ शान्त उनका।

वस् अब् क्या करना था जब जतन कोई नहिं चला।

इस पद्य में इतने को इत्ने, पर को प बस को बस् और अब को अब् किया गया है। यह संस्कृत का शिखरिणी छन्द है। यगण, भगण, नगण, सगण, मगण, लघु गुरु का शिखरिणी छंद होता है। श्रुतबोध में इसका लक्षण यह लिखा है

यदि प्राच्यो ह्र्स्व स्तुलितकमले पद्बचरव:।

ततो वर्णा: पद्बच प्रकृतिसुकुमाराङ्ग लघव:॥

त्रयोन्ये चोपान्त्या: सुतनुजघने भोगसुभगे।

रसैरीशै यस्यां भवति विरति: सा शिखरिणी॥

इसलिए यदि ऊपर के दोनों चरण निम्नलिखित रीति से लिखे जावें तो निर्दोष होंगे; जैसे वे लिखे गये हैं, उस रीति से लिखने में छन्दो-भङ्ग होता है

परित्ने प भी तो नहिं मन हुआ शान्त उनका।

बसब क्या कर्ना था जब जतन कोई नहिं चला॥

प्रथम प्रकार से लिखने में पहले चरण में दो लघु के उपरान्त चार गुरु पड़ते हैं, किन्तु उक्त नियमानुसार एक लघु के पश्चात् पाँच गुरु होने चाहिए। इस लिए यह चरण खंड ‘परित्ने पर भी’ कर दिया जावे तो दोष निवृत्त हो जाता है। इसी प्रकार ‘बस् अब क्या करना था’। यों लिखने से दूसरे चरण के प्रथम खंड में पहले तीन गुरु फिर दो लघु और बाद को दो गुरु पड़ते हैं, अतएव यह चरण खंड भी सदोष है, यह जब यों लिखा जावे कि ‘बसब क्या कर्ना था’ तो ठीक होगा। किन्तु यह बतलाइए कि इस प्रकार शब्द-विन्यास कहाँ तक समुचित होगा। संस्कृत के यत्, तत् की भाँति पर को प, बस को बस् और अब को अब् लिखकर एक गुरु बना लेना कहाँ तक युक्तिसंगत और हिन्दी भाषा की प्रणाली के अनुकूल है, इसको सहृदय पाठक स्वयं विचारें। इन्हीं दोनों चरणों में मन, उनका, जब और जतन भी हैं, किन्तु ये मन्, उन्का, जब् और जतन् नहीं बनाये गये। मुख्य कारण यह है कि ऐसा करने से छन्द और सदोष हो जाता तथा उसकी भङ्गता का पारा और ऊँचा चढ़ जाता। इसलिए उनके रूप परिवर्तन की आवश्यकता नहीं हुई। यदि यह प्रणाली भाषा पद्य में चलाई जावे तो उसमें कितनी जटिलता और दुरूहता आ जावेगी इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं; कथित दोनों बातें ही इसका पर्य्याप्त प्रमाण हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति हलन्त को प्राय: सस्वर बना लेने की है। यदि उसकी इस प्रकृति पर दृष्टि न रखकर उसके सस्वर वर्णों को भी हलन्त बनाकर उसे संस्कृत का रूप दिया जाने लगे तो उसका हिन्दीपन तो नष्ट हो ही जायगा, साथ ही वह संस्कृत भाषा के हलन्त वर्णों के समान संधिसाहाय्य से सौन्दर्य-सम्पादन करने के स्थान पर नितान्त असुविधामूलक पध्दति ग्रहण करेगी और अपनी स्वाभाविक सरलता खो देगी।

संस्कृत के निम्नलिखित पद्यों को देखिए, इनमें किस प्रकार हलन्त वर्णों ने सस्वर व्यद्बजन का रूप ग्रहण किया है; और इस परिवर्तन से इन पदों में कितना माधुर्य आ गया है। हिन्दी में किसी हलन्त वर्ण को यह सुयोग कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी प्रकृति ही ऐसी नहीं है। उदाहरण के लिए नीचे की कविता के दोनों चरण ही पर्याप्त हैं

वसुधामपि हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमतीमिवापराम्।

इति यथाक्रममाविरभून्म धु र्द्रुमवतीमव र्ती य्य वनस्थलीम्।

रघुवंश

मामपि दहत्येकायमहर्निशिमनल इवापत्यतासमु्द्भव: शोक:।

शून्यमिव प्रतिभाति मे जगत् अफलमिव पश्यामि राज्यम्।

क़ादम्बरी

जो उर्दू के ढंग का पद्य सुधी पाठक जी ने संगीत शाकुन्तल से उठाया है, उसको भी मैं नीचे लिखता हूँ, आप लोग इसे भी देखिए

पर इस्से पूछ ले क्या इसका मन है।

तू सोचे जा न कर चिन्ता कुछ इसकी॥

इस पद्य में इससे को इस्से कर दिया गया है; किन्तु दोनों की ही चार मात्रायें हैं, इसलिए इस पद्य में यदि इस्से के स्थान पर इससे ही रहता तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता जैसा कि पद्य के दूसरे चरण के इसकी, और इसी चरण के ‘इसका’ के इसी रूप में लिखे जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ा। यह उन्नीस मात्रा का मात्रिक छन्द है, इसके चरणों में दो-दो मात्रा अधिक हैं। इससे जो तौल कर न पढ़ा जावे, तो इनमें छन्दोभङ्ग होता है। परन्तु यह छन्दोभङ्ग-दोष उनमें के इससे, इसका, इसकी को इस्से, इस्का, इस्की कर देने से दूर नहीं हो सकता, क्योंकि मात्रा दोनों रूपों में ही समान हैं फिर उसको यह रूप देने से क्या लाभ? हाँ, यदि वे निम्नलिखित प्रकार से लिखे जावें तो निस्सन्देह उनकी सदोषता दूर हो जावेगी, परन्तु ऐसी अवस्था में शब्दार्थ के समझने में कितनी उलझन होगी, यह अविदित नहीं है

प , इससे पूछ ले क्या इसक मन है।

तु सोचे जा , न कर चिन्ता कुछिसकी॥

संस्कृत के वर्णवृत्त और हिन्दी के मात्रिक छन्दों की नियमावली इतनी सुन्दर और तुली हुई है, और उसमें लघु गुरु वर्णों के संस्थान और मात्राओं की संख्या इस रीति से नियत की गई है कि यदि सावधनी से कार्य्य किया जावे, तो उनकी रचना में छन्दोभङ्ग हो ही नहीं सकता। दूसरी बात यह कि जब पद्य-रचना हो गई तो जैसे चाहिए पढ़िए, दूसरे से पढ़वाइए, इसके पढ़ने में उलझन होगी ही नहीं। क्योंकि उसमें एक लघु गुरु अक्षर का हेर-फेर नहीं, एक मात्रा घट-बढ़ नहीं, फिर छन्दोभङ्ग कैसे होगा; और जब छन्दोभङ्ग नहीं होगा तो उलझन क्यों होगी? किन्तु उर्दू पद्यों की रचना वजन पर होती है, न उनमें लघु, गुरु का नियम है, न मात्राओं का; केवल कुछ वजन नियत हैं, उन्हीं वजश्नों को कैंडा मानकर उसी कैंडे पर उसमें कविता की जाती है। जैसे, एक वजन बताया गया, मफष्ऊलफषयलातुन मफष्ऊलफषयलातुन अब इसी वजन पर उर्दू के कवि को कविता करनी पड़ती है, उसको यह ज्ञात नहीं है कि कितने अक्षर और मात्रा से इस वजन का छन्द बनेगा। यह प्रणाली उसने अरबी और फारसी से ली है। अभ्यास एक अद्भुत वस्तु है, उससे सब कुछ हो सकता है; और उसी के द्वारा केवल वजन के आश्रय से अरबी फारसी में बिना छन्दोभङ्ग के बड़ी सुन्दर कवितायें लिखी गई हैं। उनमें एक मात्रा की भी घटी-बढ़ी नहीं पाई जाती; वजन पर ही उनकी अधिकांश कविता छन्दों-गति विषय में सर्वथा निर्दोष हैं। परन्तु उर्दू में केवल वजन ने बड़ी उलझन पैदा की है; मुख्य कर उन लोगों के लिए जो वर्णवृत्त और मातृक छन्द पढ़ने के अभ्यस्त हैं। उर्दू कवियों ने वजन पर काम किया है, इसलिए भाषा की क्रियाओं और शब्दों को बेतरह दबा-दुबू और तोड़-फोड़ डाला है। क्योंकि वजन के कैंड़े पर वे प्राय: ठीक नहीं उतर सके। उर्दू भाषा में लिखे गये छन्द को कोई मनुष्य उस समय तक शुध्दता से कदापि नहीं पढ़ सकता, जब तक कि उसको वजन न ज्ञात हो। यदि कोई अक्षरों और मात्राओं के सहारे शब्दों का शुध्द उच्चारण करके उर्दू के पद्यों को पढ़ना चाहेगा, तो अधिकांश स्थलों पर उसका पतन होगा। मिर्जा ग़ालिब का एक शे’र है

यह कहाँ की दोस्ती है जो बने हैं दोस्त नासेह।

कोई चाराकार होता कोई ग़म गुसार होता॥

यह शे’र यदि निम्नलिखित प्रकार से लिख दिया जावे तब तो उसको सब शुध्दतापूर्वक पढ़ लेंगे, अन्यथा बिना वजन पर दृष्टि डाले उसका ठीक-ठीक पढ़ना असंभव है

य कहाँ की दोस्ती है जुबनेह दोस्त नासह।

को चारकार होता को ग़म गुसार होता॥

यह हिन्दी भाषा का चौबीस मात्रा का दिग्पाल छन्द है, जिसमें बारह-बारह मात्राओं पर विराम होता है। किन्तु आप देखें, चौबीस मात्रा का छन्द बनाकर लिखने में उक्त शेर के कुछ शब्द कितने विकृत हुए हैं और किस प्रकार उनमें दुर्बोधता आ गई है। अतएव बोध के लिए शब्दों का शुध्द रूप में लिखा जाना ही समुचित और आवश्यक ज्ञात होता है। हाँ, पढ़ने के लिए उस वजन का अवलम्बन करना पड़ेगा जो कि दिग्पाल छन्द का है, चाहे शब्दों और रसना को कितना ही दबाना पड़े, निदान यही प्रणाली प्रचलित भी है। जब उर्दू बह्न में लिखे गये शेर, या हिन्दी-भाषा के पद्य, लिखे चाहे जिस प्रकार से जावें, पढ़े वजन के अनुसार ही जावेंगे तो फिर शब्दों को विकृत करने से क्या प्रयोजन? मैं समझता हूँ इस विषय में वही पध्दति अवलम्बनीय है, जो अब तक प्रचलित और सर्वसम्मतहै।

मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कभी-कभी मात्रिक छन्दों में भी स्वर संयुक्त वर्ण को हलन्तवत् पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहती है, और कहीं कहीं इस छन्द में भी वर्णवृत्त के समान नियमित स्थान पर नियत रीति से लघु, गुरु रखने से ही काम चलता है। किन्तु उर्दू बह्न के वजन ही जब इस काम को पूरा कर देते हैं, तो शब्दों को विकृत कर के बोध में व्याघात उत्पन्न करना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता। वजन के अनुकूल शब्दों को विकृत करके कविता को ठीक कर लेना यद्यपि छन्द की गति के लिए अवश्य उपयोगी होगा, परन्तु उससे जो शब्दों में विकृति होगी, वह बड़ी ही दुर्बोधता और जटिलतामूलक होगी; अतएव ऐसी अवस्था में वजन का आश्रय ही वांछनीय है, शब्द की विकृति नहीं; निदान इस समय यही प्रणाली प्रचलित और गृहीत है।

मैंने इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर ‘प्रियप्रवास’ में इसको, जिसको, करना इत्यादि को इसी रूप में लिखा है; उनको संयुक्ताक्षर का रूप नहीं दिया है। न, जन, मन, मदन, बस, अब इत्यादि के अन्तिम अक्षरों को कहीं गुरु बनाने के लिए हलन्त किया है, आशा है मेरी यह प्रणाली बुधजन द्वारा अनुमोदित समझी जायेगी।

हलन्त वर्णों का सस्वर प्रयोग

मैं ऊपर लिख आया हूँ कि हिन्दी भाषा की यह स्वाभाविकता है कि वह प्राय: युक्त वर्णों को सारल्य के लिए अयुक्त बना लेती है और हलन्त वर्ण को सस्वर कर लेती है; गर्व, मर्म, धर्म, दर्प, मार्ग इत्यादि का गरब, मरम, धरम, दरप, मारग इत्यादि लिखा जाना इस बात का प्रमाण है। यद्यपि आजकल की भाषा अर्थात् गद्य में ये शब्द प्राय: शुध्द रूप में ही लिखे जाते हैं, किन्तु साधरण बोलचाल में वे अपभ्रंश रूप में ही काम देते हैं। खड़ी बोलचाल की कविता में गद्य के संसर्ग से वे शुध्द रूप में ही लिखे जाने लगे हैं। किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनके अपभ्रंश रूप से भी काम लिया जाता है। मेरे विचार में यह दोनों प्रणाली ग्राह्य है। हलन्त वर्ण को सस्वर करके लिखने और युक्त वर्ण को अयुक्त वर्ण का रूप देने की प्रथा प्राचीन है। उसके पास आचायों और प्रधान काव्य-कर्ताओं द्वारा व्यवहार किये जाने की सनद भी है, जैसा कि निम्नलिखित पद्य-खण्डों के अवलोकन करने से अवगत होगा

शुक से मुनि शारद से बकता ]

चिरजीवन लोमस से अ धि काने।

ग़ोस्वामी तुलसीदास

आपने करम करि उतरोंगो पार ,

तो पै हम करतार करतार तुम काहे को।

सेनापति

राति ना सुहात ना सुहात परभात आली ,

जब मन लागि जात काहू निरमोही सों।

पद्माकर

जो विपति हूँ मैं पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं।

ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संशय नहीं॥

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)

निदान इसी प्रणाली का अवलम्बन करके मैंने भी ‘प्रियप्रवास’ में मरम इत्यादि शब्दों का प्रयोग संकीर्ण स्थलों पर किया है। ऐसा प्रयोग मेरी समझ में उस दशा में यथाशक्ति न करना चाहिए, जहाँ वह परिवर्ततित रूप में किसी दूसरे अर्थ का द्योतक होवे। जैसा कि कविवर बिहारीलाल के निम्नलिखित पद्य का समर शब्द है, जो स्मर का अशुध्द रूप है और कामदेव के अर्थ में ही प्रयुक्त है; परन्तु अपने वास्तव अर्थ संग्राम की ओर चित्त को आकर्षित करता है

धस्यो मनो हिय घर समर डयोढ़ी लसत निसान

हिन्दी-भाषा की कथित प्रकृति पर दृष्टि रखकर ही प्राचीन कतिपय लेखकों ने पद्य क्या गद्य में भी अनेक शब्दों के हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना प्रारम्भ कर दिया था। मुख्यत: वे उस हलन्त वर्ण को प्राय: सस्वर करके लिखते थे जो कि किसी शब्द के अन्त में होता था। इस बात को प्रमाणित करने के लिए मैं मार्मिक लेखक स्वर्गीय श्रीयुत पंडित प्रतापनारायण मिश्र लिखित कतिपय पंक्तियाँ उनके प्रसिध्द ‘ब्राह्मण’ मासिक पत्र के खंड 4, संख्या 1, 2 से नीचे अविकल उध्दृत करता हूँ

तो कदाचित कोई परमेश्वर का नाम भी न ले

आप को चन्द्र सूर्य इन्द्र करण व हातिम बनाया करते हैं ?

छोटे-बड़े दरिद्री धनी मूर्ख विद्वान सब का यही सिध्दान्त है

पृष्ठ संख्या 10

सभी या तो प्रत्यक्ष ही विषवत या परम्परा द्वारा कुछ न कुछ नाश करनेवाले

बंधनरहित होने पर भी भगवान का नाम दामोदर क्यों पड़ा

संख्या 2, पृष्ठ 2

द्रुपदतनया को केशाकरषण एवं वनवास आदि का दुख सहना पड़ा

यदि थोड़े से लोग उसके चाहनेवाले हैं भी तो निर्बल निरधन बदनाम

संख्या 2, पृष्ठ 3

यद्यपि कभी कभी विद्वान , धनवान और प्रतिष्ठावान लोग भी उसके यहाँ जा रहते हैं

संख्या 2, पृष्ठ 5

उसके चाहनेवाले उसे सारे जगत की भाषा से उत्तम माने बैठे हैं

संख्या 2, पृष्ठ 6

इससे निरलज्ज हो के साफ-साफ लिखते हैं।

संख्या 1, पृष्ठ 4

किन्तु आजकल गद्य में किसी हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना तो उठता ही जा रहा है, प्रत्युत पद्य में भी इसका प्रचार हो चला है। मध्य के हलन्त वर्ण की बात तो दूर रही, इन दिनों किसी शब्द के अन्त्यस्थित हलन्त को भी कतिपय आधुनिक प्रधान लेखक सस्वर लिखना नहीं चाहते। कदाचित्, विद्वान्, विषवत्, भगवान्, धनवान्, प्रतिष्ठावान्, जगत् इत्यादि शब्दों के अन्तिम वर्ण को भी वे अब संस्कृत की रीति के अनुसार हलन्त ही लिखते हैं। आजकल वही लोग ऐसा नहीं करते जो संस्कृत कम जानते हैं अथवा प्राचीन प्रणाली के अनुमोदक हैं, अन्यथा प्राय: हिन्दी-लेखक इसी पथ के पान्थ हैं। मैं यह कहूँगा कि इस प्रथा का जितना अधिक सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रचार हो रहा है, उतना ही संस्कृत से अनभिज्ञ लेखक को हिन्दी लिखना एक प्रकार से दुस्तर हो चला है और इस मार्ग में कठिनता उत्पन्न हो गई है; परन्तु समय के प्रवाह को कौन रोक सकता है? पद्य में अब भी यह प्रणाली सर्वतोभावेन गृहीत नहीं हुई है; उदाहरण स्वरूप अग्रलिखित पद्यों पर दृष्टिपात कीजिए

विधेय बन्धु विद्वान साधु -समुदाय एक सपना पाया।

इस प्रकार हो विज्ञ जगत में नहीं किसी पर मरता हूँ।

तो भी किन्तु कदाचित यदि बहु देशों का हम करें मिलान।

परिमित इच्छावान वहाँ के योग्य वहाँ का है वासी।

दीन उसे बेंचे है औ धनवान मोल को माँगे है।

पं. श्रीधर पाठक (श्रान्तपथिक)

थे नियम विद्या विनय के और हम विद्वान थे।

धर्म्मनिष्ठा थी सभी गुणवान थे श्रीमान थे॥

सरस्वती , भाग 14, खंड 2, संख्या 5, पृ. 633

मैंने भी ‘प्रियप्रवास’ में कदाचित्, महत् इत्यादि शब्दों का प्रयोग आवश्यक स्थलों पर उनके अन्तिम हलन्त वर्ण को सस्वर बना कर किया है। मेरा विचार है कि कविता के लिए इतनी सुविधा आवश्यक है, यों तो हिन्दी की गठन-प्रणाली का ध्यान करके इनका गद्य में भी इस प्रकार लिखा जाना सर्वथा असंगत नहींहै।

शाब्दिक विकलांगता

इस ग्रन्थ में जायेंगे, वैसाही, वैसीही इत्यादि के स्थान पर जायँगे, वैसिही, वैसही इत्यादि भी कहीं-कहीं लिखा गया है। यह शाब्दिक विकलांगता पद्य में इस सिध्दान्त के अनुसार अनुचित नहीं समझी जाती अपि माषं मषं कुर्य्यात् छन्दोभङ्गं न कारयेत्। अतएव इस विषय में मैं विशेष कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं समझता। केवल ‘जायँगे’ के विषय में इतना कह देना चाहता हूँ कि अधिकांश लेखक गद्य में भी इस क्रिया को इसी प्रकार लिखते हैं। नीचे के वाक्यों को देखिए

अरे वेणुवेत्राक , पकड़ इस चन्दनदास को , घरवाले आप ही रो पीट कर चले जायँगे

कृभारतेन्दु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)

धार्मिक अथवा सामाजिक विषयों पर विचार न किया जायगा , हिन्दी समाचार पत्रों में छापने के लिए भेज दी जाय

द्वि. हि. सा. स. वि. प्रथम भाग , पृष्ठ 50-51

अब इसके प्रतिकूल प्रयोगों को देखिए :

कहीं भी इतने लाल नहीं होते कि वे बोरियों में भरे जावे ं।

हिन्दी भाषा के उत्तमोत्तम लेखों के साथ गिना जाव े।

धीरे-धीरे अपने सिध्दान्त के कोसों दूर हो जावेंगे ।

द्वि. हि. सा. स. वि. की भूमिका , पृ. 1, 2, 4

मेरे ही प्रभाव से भारत पायेगा परमोज्ज्वल ज्ञान।

मिट अवश्य ही जायेगा यह अति अनर्थकारी अज्ञान।

जिसमें इस अभागिनी का भी हो जावे अब बेड़ा पार।

श्रीयुत् पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी

मेरा विचार है कि जायँगे, जायगा, दी जाय इत्यादि के स्थान पर जायेंगे या जावेंगे, जायेगा वा जावेगा, दी जाये वा दी जावे इत्यादि लिखना अच्छा है, क्योंकि यह प्रयोग ऐसी सब क्रियाओं में एक-सा होता है, किन्तु प्रथम प्रयोग इस प्रकार की अनेक क्रियाओं में एक-सा नहीं हो सकता। जैसे जाना धातु का रूप तो जायँगे, जायगा इत्यादि बन जावेगा; परन्तु आना, पीना इत्यादि धातुओं का रूप इस प्रकार न बन सकेगा, क्योंकि आयगा, पीयगा इत्यादि नहीं लिखा जाता। आयेगा या आवेगा, पीयेगा या पीवेगा इत्यादि ही लिखा जाता है।

विशेषण-विभिन्नता

हिन्दी भाषा के गद्य-पद्य दोनों में विशेषण के प्रयोग में विभिन्नता देखी जाती है। सुन्दर स्त्री या सुन्दरी स्त्री, शोभित लता या शोभिता लता, दोनों लिखा जाता है। निम्नलिखित गद्य-पद्य को देखिए इनमें आपको दोनों प्रकार का प्रयोग मिलेगा:

अभी जो इसने अपने कानों को छूनेवाली चद्बचल चितवन से मुझे देखा

जो स्त्रियाँ ऐसी सुन्दर हैं उन पर पुरुष को आसक्त कराने में कामदेव को अपना धनुष नहीं चढ़ाना पड़ता।

क़र्पूरमंजरी पृ. 10,11

निरवलम्बा, शोकसागरमग्ना, अभागिनी अपनी जननी की दुरवस्था एक बार तो ऑंखें खोलकर देखो।

तुम लोग अब एक बेर जगतविख्याता, ललनाकुलकमलकलिका-प्रकाशिका राजानिचयपूजितपादपीठा, सरलहृदया, आर्द्रचित्ता, प्रजारंजन-कारिणी, दयाशीला, आर्य्यस्वामिनी, राज राजेश्वरी महारानी विक्टोरिया के चरणकमलों में अपने दु:ख को निवेदन करो।

भारत जननी , पृष्ठ 9, 11

धूनी तपै आग की ज्वाला चद्बचल शिखा झलकती है

कोमल , मृदुल , मिष्टवाणी से दुख का हेतु परखता है

अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेमसुधा बरसाता था

एकान्तवासी योगी (पं. श्रीधर पाठक)

जयति पतिप्रेमपनप्रानसीता।

नेहनिधि रामपद प्रेमअवलम्बिनी सततसहवास पतिव्रत पुनीता

पं. श्रीधर पाठक

भृकुटी विकट मनोहर नासा

सोह नवल तन सुन्दर सारी

मोह नदी कहँ सुन्दर तरनी

सकल परमगति के अधिकारी

पुनि देखी सुरसरी पुनीता

मम धमदा पुरी सुखरासी

नखनिर्गता सुरबन्दिता त्रायलोकपावन सुरसरी

महात्मा तुलसीदास

इस सर्वसम्मत प्रणाली पर दृष्टि रखकर ही इस ग्रन्थ में भी विशेषणों का प्रयोग उभय रीति से किया गया है।

हिन्दी-प्रणाली प्रस्तुत शब्द

कुछ शब्द इसमें ऐसे भी प्रयुक्त हुए हैं, जो सर्वथा हिन्दी प्रणाली पर निर्मित हैं। संस्कृत-व्याकरण का उनसे कुछ सम्बन्ध नहीं है। यदि उसकी पध्दति के अनुसार उनके रूपों की मीमांसा की जावेगी तो वे अशुध्द पाये जावेंगे, यद्यपि हिन्दी भाषा के नियम से वे शुध्द हैं। ए शब्द मृगदृगी, दृगता इत्यादि हैं। मृगदृगी का मृगदृषी, दृगता का दृक्ता शुध्द रूप है; परन्तु कवितागत सौकर्य्य-सम्पादन के लिए उनका वही रूप रखा गया है। हिन्दी भाषा के गद्य-पद्य दोनों में इसके उदाहरण मिलेंगे, एक यहाँ पर दिया जाता है

ऐसी रुचिर-दृगी मृगियों के आगे शोभित भले प्रकार।

बाबू मैथिलीशरण गुप्त (सरस्वती , भाग 8, संख्या 6, पृष्ठ 244)

शब्द-विन्यास विभिन्नता

शब्द-विन्यास में भी विभिन्नता इस ग्रन्थ में आप लोगों को मिलेगी; ऐसा अधिकतर पद्य की भाषा का विचार करके और कहीं-कहीं छन्द की अवस्था पर दृष्टि रखकर हुआ है। ‘रोये बिना न छन भी मन मानता था’, ‘रोना महा अशुभ जान पयान बेला’ यदि मैं इन चरणों में छन के स्थान पर क्षण, पयान के स्थान पर प्रयाण लिखता तो इनके लालित्य में कितना अन्तर पड़ जाता। इसी प्रकार यदि मैं ‘सचेष्ट होते भर वे क्षणेक थे’ इस चरण में क्षणेक के स्थान पर छनेक लिख देता तो इसके ओज और रस में कितना विभेद होता; और यही कारण है कि आप इस ग्रन्थ में कहीं छन कहीं क्षण, कहीं भाग कहीं भाग्य, कहीं पयान कहीं प्रयाण इत्यादि विभिन्न प्रयोग देखेंगे।

मैंने इस विषय का पूर्ण ध्यान रखा है कि ग्रन्थ की भाषा एक प्रकार की हो; और यथाशक्य मैंने ऐसा किया भी है, तथापि रस और अवसर के अनुसरण से आप इस ग्रन्थ की भाषा को स्थान-स्थान पर परिवर्तित पावेंगे। मैंने ऊपर कहा है कि जिस पद्य में मुझको जिस प्रकार का शब्द रखना उचित जान पड़ा, मैंने उसमें वैसा ही शब्द रखा है; परन्तु नहीं कह सकता कि मैं अपने उद्देश्य में कहाँ तक कृतकार्य्य हुआ हूँ, और सहृदय कवि एवं विद्वानों को मेरी यह परिपाटी कहाँ तक उचित जान पड़ेगी। मेरा यह भी विचार हुआ था कि मैं ब्रजभाषा की प्रणाली के अनुसार ण, श इत्यादि को न, स इत्यादि से बदल कर इस ग्रन्थ की भाषा को विशेष कोमल कर दूँ। रमणीय, श्रवण, शोभा, शक्ति इत्यादि को रमनीय स्रवन, सोभा, सक्ति करके लिखूँ। परन्तु ऐसा करने से प्रथम तो इस ग्रन्थ की भाषा वर्तमान-काल की गद्य की भाषा से अधिक भिन्न हो जाती, दूसरे इसमें जो संस्कृत का यत्किंचित् रंग है वह न रहता और भद्दापन एवं अमनोहारित्व आ जाता। इस समय जितना ‘रमणीय’ शब्द श्रुतिसुखद और प्यारा ज्ञात होता है उतना रमनीय नहीं; जो ‘शोभा’ लिखने में सौन्दर्य्य और समादर है वह ‘सोभा’ लिखने में नहीं। अतएव कोई कारण नहीं था कि मैं सामयिक प्रवृत्ति और प्रवाह पर दृष्टि न रखकर एक स्वतन्त्रता पथ ग्रहण करता। किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है

दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा सितापि मधुरेव।

तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनोवाति यत्र संलग्नम्॥

इस ग्रन्थ में आप कहीं-कहीं बहुवचन में भी यह और वह का प्रयोग देखेंगे, इसी प्रकार कहीं-कहीं यहाँ के स्थान पर याँ, वहाँ के स्थान पर वाँ, नहीं के स्थान पर न और वह के स्थान पर सो का प्रयोग भी आप को मिलेगा। उर्दू के कवि एकवचन और बहुवचन दोनों में यह और वह लिखते हैं; और यहाँ और वहाँ के स्थान पर प्राय: याँ और वाँ का प्रयोग करते हैं; परन्तु मैंने ऐसा संकीर्ण स्थलों पर ही किया है। हिन्दी भाषा के आधुनिक पद्य-लेखकों को भी ऐसा करते देखा जाता है। मेरा विचार है कि बहुवचन में ए और वे का प्रयोग ही उत्तम है और इसी प्रकार यहाँ और वहाँ लिखा जाना ही यथाशक्य अच्छा है; अन्यथा चरण संकीर्ण स्थलों पर अनुचित नहीं, परन्तु वहीं तक वह ग्राह्य है जहाँ तक कि मर्यादित हो। नहीं और वह के स्थान पर न और सो के विषय में भी मेरा यही विचार है। उक्त शब्दों के व्यवहार के उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य और गद्य नीचे लिखे जाते हैं

जिन लोगों ने इस काम में महारत पैदा की है, वह लफ.जों को देखकर साफ पहचान लेते हैं।

ख्यालात का मरतबा जवान से अव्वल है, लेकिन जब तक वह दिल में हैं, माँ के पेट में अधूरे बच्चे हैं।

या यह दोनों जबानें एक जबान से इस तरह निकली होंगी, जिस तरह एक बाप की दो बेटियाँ जुदा हो गईं।

वरना खाना-बदोशी के आलम में खुशबाश जिन्दगी बसर करते हैं, और जंगलों के चरिन्द और पहाड़ों के परिन्द ऐसी बोलियाँ बोलते हैं।

सखुनदान .फा रस , सफहा 2, 3, 25

वह झाड़ियाँ चमन की वह मेरा आशियाना।

वह बाग़ की बहारें वह सबका मिलके गाना॥

( सरस्वती पत्रिका)

तो वाँ जर्श्रा जर्श्रा यह करता है एलाँ।

हवा याँ की थी जिन्दगी बख्श दौराँ॥

कि आती हो वाँ से न ज र सारी दुनिया।

ज मा ना की गरदिश से है किसको चारा॥

कभी याँ सिकन्दर कभी याँ है दारा।

मुसद्दसहाली

है धन्य वही परमात्मा जो याँ तक लाया हमें।

सरस्वती पत्रिका , भाग 8, संख्या 1, पृष्ठ 25

जाइ न बरनि मनोहर जोरी। दरस लालसा सकुच न थोरी॥

महात्मा तुलसीदास

रूप सुधा इकली ही पियै पियहूँ को न आरसी देखन देत है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

न स्वर्ग भी सुखद जो परतन्त्रता है।

पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी

इके तो कियो वायु सेवन को मानहुँ अपर प्रकारा है

सबै सो अहो एक तेरे निहोरे

पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी

और जो है सो है ही, किन्तु पाठक जरा इस कथन को ध्यानपूर्वक देखें।

अभ्युदय , भाग 8, संख्या 3, पृ. 3, कालम 3

ब्रजभाषा-शब्द-प्रयोग

आजकल के कतिपय साहित्य-सेवियों का विचार है कि खड़ी बोली की कविता इतनी उन्नत हो गई है और इस पद पर पहुँच गई है कि उसमें ब्रजभाषा के किसी शब्द का प्रयोग करना उसे अप्रतिष्ठित बनाना है; परन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। ब्रजभाषा कोई पृथक् भाषा नहीं है, इसके अतिरिक्त उर्दू-शब्दों से उसके शब्दों का हिन्दी भाषा पर विशेष स्वत्व है। अतएव कोई कारण नहीं है कि उर्दू के शब्द तो निस्संकोच हिन्दी में गृहीत होते रहें और ब्रजभाषा के उपयुक्त और मनोहर शब्दों के लिए भी उसका द्वार बन्द कर दिया जावे। मेरा विचार है कि खड़ी बोलचाल का रंग रखते हुए जहाँ तक उपयुक्त एवं मनोहर शब्द ब्रजभाषा के मिलें, उनके लेने में संकोच न करना चाहिए। जब उर्दू भाषा सर्वथा ब्रजभाषा के शब्दों से अब तक रहित नहीं हुई तो हिन्दी भाषा उससे अपना सम्बन्ध कैसे विच्छिन्न कर सकती है। इसके व्यतीत मैं यह भी कहूँगा कि उपयुक्त और आवश्यक शब्द किसी भाषा का ग्रहण करने के लिए सदा हिन्दी भाषा का द्वार उन्मुक्त रहना चाहिए; अन्यथा वह परिपुष्ट और विस्तृत होने के स्थान पर निर्बल और संकुचित हो जावेगी। सहृदय कवि भिखारीदास कहते हैं

तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।

इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार॥

इस सिध्दान्त द्वारा परिचालित होकर मैंने ब्रजभाषा के विलग, बगर इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी कहीं-कहीं किया है, आशा है मेरा यह अनुचित साहस न समझा जायगा।

ह्र स्व वर्णों का दीर्घ बनाना

संस्कृत का यह नियम है कि उसके पद्य में कहीं-कहीं ह्र्स्व वर्ण का प्रयोग दीर्घ की भाँति किया जाता है। सहृदयवर बाबू मैथिलीशरण गुप्त के निम्नलिखित पद्य के उन शब्दों को देखिए जिनके नीचे लकीर खिंची हुई है। प्रथम चरण के घ, द्वितीय चरण के ‘श, तृतीय चरण के त्र और चतुर्थ चरण के व तथा ति ह्र्स्व वर्णों का उच्चारण इन पद्यों के पढ़ने में दीर्घ की भाँति होगा

निदाघ ज्वाला से विचलित हुआ चातक अभी।

भुलाने जाता था निज विमल वंश-व्रत सभी॥

दिया पत्र द्वारा नव बल मुझे आज तुमने।

सुसाक्षी हैं मेरे विदित कुल-देव ग्रह पति॥

इस प्रकार के प्रयोगों का व्यवहार यद्यपि हिन्दी भाषा में आजकल सफलता से हो रहा है; और लोगों का विचार है कि यदि संस्कृत के वृत्तों की खड़ी बोली के पद्य के लिए आवश्यकता है, तो इस प्रणाली के ग्रहण की भी आवश्यकता है; अन्यथा बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ेगा और एक सुविधा हाथ से जाती रहेगी। मैं इस विचार से सहमत हूँ; परन्तु इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि जहाँ तक संभव हो, ऐसा प्रयोग कम किया जावे; क्योंकि इस प्रकार का प्रयोग हिन्दी-पद्य में एक प्रकार की जटिलता ला देता है। आप लोग देखेंगे कि ऐसे प्रयोगों से बचने की इस ग्रन्थ में मैंने कितनी चेष्टा की है।

दोषक्षालन चेष्टा

इस ग्रन्थ के लिखने में शब्दों के व्यवहार का जो पथ ग्रहण किया गया है, मैंने यहाँ पर थोड़े में उसका दिग्दर्शन मात्रा किया है। इस ग्रन्थ के गुण-दोष के विषय में न तो मुझको कुछ कहने का अधिकार है और न मैं इतनी क्षमता ही रखता हूँ कि इस जटिल मार्ग में दो-चार डग भी उचित रीत्या चल सकूँ। शब्द-दोष, वाक्य-दोष, अर्थ-दोष और रस-दोष इतने गहन हैं और इतने सूक्ष्म इसके विचार एवं विभेद हैं कि प्रथम तो उनमें यथार्थ गति होना असम्भव है; और यदि गति हो जावे, तो उस पर दृष्टि रखकर काव्य करना नितान्त दुस्तर है। यह धुरन्धर और प्रगल्भ विद्वानों की बात है, मुझ-से अबोधो की तो इस पथ में कोई गणना ही नहीं जेहि मारुत गिरि मेरु उडाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं। श्रध्देय स्वर्गीय पण्डित सुधाकर द्विवेदी, प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्य्य-विवरण के पृष्ठ 37 में लिखते हैं

हिन्दी और संस्कृत काव्यों में जितने भेद हैं, उन सब पर ध्यान देकर जो काव्य बनाया जावे तो शायद एकाध दोहा या श्लोक काव्य-लक्षण से निर्दोष ठहरे।

जब यह अवस्था है, तो मुझ-से अल्पज्ञ का अपनी साधरण कविता को निर्दोष सिध्द करने की चेष्टा करना मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं हो सकता। अतएव मेरी इन कतिपय पंक्तियों को पढ़कर यह न समझना चाहिए कि मैंने इनको लिखकर अपने ग्रन्थ को निर्दोष सिध्द करने की चेष्टा की है। प्रथम तो अपना दोष अपने को सूझता नहीं, दूसरे कवि-कर्म्म महा कठिन; ऐसी अवस्था में यदि कोई अलौकिक प्रतिभाशाली विद्वान् भी ऐसी चेष्टा करे तो उसे उपहासास्पद होना पड़ेगा। मुझ-से ज्ञानलव-दुर्विदग्ध की तो कुछ बात ही नहीं।

विनीत

‘ हरिऔध ‘

लेखक

  • अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

    अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। उनके पिता पंडित भोलानाथ उपाध्याय ने सिख धर्म अपना कर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था । हरिऔध जी ने निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास की, किंतु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया और १८८४ में निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक हो गए । सन १८८९ में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी से सन १९३२ में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप में १९३२ से १९४१ तक अध्यापन कार्य किया। उनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं: - प्रिय प्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई ।

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प्रिय प्रवास भूमिका/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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