अर्द्ध शताब्दि होने आई, जब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ का
लिखना प्रारम्भ किया था। उसके पश्चात् भी बहुत दिनों
तक महाभारत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर मैंने अनेक
रचनाएँ कीं। उन्हें लेकर कौरव-पाण्डवों की मूल कथा
लिखने की बात भी मन में आती रही परन्तु उस प्रयास
के पूरे होने में सन्देह रहने से वैसा उत्साह न होता था।
अब से ग्यारह-बारह वर्ष पहले पर-शासन के विद्वेष्टा के
रूप में जब मुझे राजवन्दी बनना पड़ा, तब कारागार में
ही सहसा वह विचार संकल्प में परिणत हो गया काम
भी हाथ में ले लेने से इस पर पूरा समय न लगा सका।
आगे भी अनेक कारणों से क्रम का निर्वान न कर सका।
एक अतिरिक्त बाधा और आ गई। अपनी जिन पूर्व-कृतियों
के सहारे यह काम सुविधापूर्वक कर लेने की मुझे आशा
थी। वह भी पूरी न हुई। ‘जयद्रथ-वध’ से तो मैं कुछ भी
न ले सका। युद्ध का प्रकरण मैंने और ही प्रकार से लिखा।
अन्य रचनाओं में भी मुझे बहुत हेर-फेर करने पड़े। कुछ
तो नये सिरे से पूरी की पूरी फिर लिखनी पड़ी तथापि
इससे अन्त में मुझे सन्तोष ही हुआ और इसे मैंने अपनी
लेखनी का क्रम विकास ही समझा।
जिन्हें अपने लेखों में कभी कुछ परिवर्तन करने की
आवश्यकता नहीं जानपड़ती, उनके मानसकि विकास
की पहले ही इतिश्री हो चुकी होती है। अन्यथा एक
अवस्था तक मनुष्य की बुद्धि पोषण प्राप्त करती है,
नये-नये अनुभव और विचार आते रहते हैं और अपनी
सीमाओं में अनुशीलन भी वृद्धि पाता है। द्रष्टाओं की
दूसरी बात है। परन्तु मेरे ऐसे साधारण जन के लिए
यह स्वाभाविक ही है। कुछ दिन पूर्व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ
ठाकुर की एक पाण्डुलिपि के कुछ पृष्ठों के प्रतिबिम्ब
प्रकाशित हुए थे। उनमें अनेक स्थलों पर काट-कूट
दिखाई देती थी। यह अलग बात है कि उनकी काट-कूट
में भी चित्रणकला फूट उठती थी।
किसी समय हमारे मन में कोई भाव ऐसे सूक्ष्म रूप में
आता है कि उसे हम ठीक ठीक पकड़ नहीं पाते। आगे
स्पष्ट हो जाने की आशा से उसे जैसे तैसे ग्रहण कर
लेना पड़ता है। कभी किसी भाव को प्रकट करने के
लिए उसी समय उपयुक्त शब्द नहीं उठते। आपबीती
ही कहूँ। कुणाल का एक गीत मैं लिख रहा था। उसकी
टेक यों बनी-
नीर नीचे से निकलता-देख लो यह रहँट चलता।
लिखने के अनन्तर भी जैसे लिखना पूरा नहीं लगा।
सोचना भी नहीं रुका। तब इस प्रकार परिवर्तन हुआ-
तोय तल से ही निकलता।
‘नीचे से’ के स्थान पर ‘तल से’
ठीक हुआ जान पड़ा, तथापि चिन्तन शान्त नहीं हुआ !
अन्त में
तत्त्व तल से ही निकलता।
वन जाने पर ही सन्तोष हुआ। अस्तु।
अपने पात्रों का आलेखन मैं कैसा कर सका, इस सम्बन्ध
में मुझे कुछ नहीं कहना है। वह पाठकों के सम्मुख है।
उसके विषय में स्वयं पाठक जो कुछ कहेंगे, उसे सुनने
के लिए मैं अवश्य प्रस्तुत रहूँगा। इस समय तो उनकी
सेवा में यही निवेदन है कि वे कृपा कर मेरा अभिवादन
स्वीकार करें-जय भारत !
मैथिलीशरण
जय भारत
‘‘जीवन-यशस्-सम्मान-धन-सन्तान सुख मर्म के;
मुझको परन्तु शतांश भी लगते नहीं निज धर्म के !
(युधिष्ठिर)
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव झाँसी जिला स्थित चिरगाँव नामक गांव में 3 अगस्त, सन् 1886 ई0 में हुआ था| इनके पिता का नाम प्रेम गुप्ता तथा माता का नाम काशीबाई गुप्ता था| काव्य-रचना की ओर छोटी अवस्था से ही इनका झुकाव था| आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से इन्होंने हिन्दी काव्य की नवीन धारा को पुष्ट कर उसमें अपना विशेष स्थान बना लिए थे| इनकी कविताओ में देश भक्ति एवं राष्ट्र प्रेम की प्रमुख विशेषता होने के कारण इन्हें हिंदी-साहित्य ने ‘राष्ट्रकवि’ का सम्मान दिया| राष्ट्रपति ने इन्हें संसद् सदस्य मनोनीत किया| इस महान कवि की मृत्यु 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० मे हो गई| मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक परिचय
search मैथिलीशरण गुप्त की रचना-संग्रह विशाल है| इनकी विशेष ख्याति रामचरित पर आधारित महाकाव्य ‘साकेत’ के कारण प्राप्त हुई है| ‘जयद्रथ वध’, ‘द्वापर’, ‘अनघ’, ‘पंचवटी’, ‘सिद्धराज’, ‘भारत-भारती’, ‘यशोधरा’ आदि गुप्तजी की अनेक प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं| ‘यशोधरा’ एक चम्पूकाव्य कृति है| जिसमें गुप्त जी ने महान महात्मा बद्ध के चरित्र का वर्णन किया है|
मैथिलीशरण गुप्त जी का पहला काव्य-संग्रह ‘भारत-भारती’ था, जिसमें भारत की दुर्दशा एवं भ्रष्टाचार का वर्णन हुआ है| माइकेल मधुसूदन की वीरांगना, मेघनाद-वध, विरहिणी ब्रजांगना, और नवीन चन्द्र के पलाशीर युद्ध का इन्होंने विस्तृत अनुवाद किये हैं| देश कालानुसार बदलती भावनाओं तथा विचारों को भी अपनी रचना में स्थान देने की इनमें क्षमता है| छायावाद के आगमन के साथ गुप्तजी की कविता में भी लाक्षणिक वैचित्र्य और मनोभावों की सूक्ष्मता की मार्मिकता आयी| गीति काव्य की ओर मैथिलीशरण गुप्त का झुकाव रहा है| प्रबन्ध के भीतर ही गीति-काव्य का समावेश करके गुप्तजी ने भाव-सौन्दर्य के मार्मिक स्थलों से परिपूर्ण ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ जैसे उत्कृष्ट काव्य-कृतियों का सृजन किया| गुप्तजी के काव्य की यह प्रमुख विशेषता रही है कि गीति काव्य के तत्त्वों को अपनाने के कारण उसमें सरसता आयी है, पर प्रबन्ध की धारा की भी उपेक्षा नहीं हुई| गुप्तजी के कवित्व के विकास के साथ इनकी भाषा का बहुत परिमार्जन हुआ। उसमें धीरे-धीरे लाक्षणिकता, संगीत और लय के तत्त्वों का प्राधान्य हो गया|
देश-प्रेम गुप्त जी की कविता का प्रमुख स्वर है| ‘भारत-भारती’ में प्राचीन भारत के संस्कृति का प्रेरणादायक चित्रण किया है| इस रचना में व्यक्त देश-प्रेम ही इनकी परवर्ती रचनाओं में देश-प्रेम और नवीन राष्ट्रीय भावनाओं में परिपूर्ण हो गया| इनकी कविता में वर्तमान की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट दर्शन होते हैं| गाँधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है| अपने काव्यों की कथावस्तु गुप्तजी ने वर्तमान जीवन से न लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है| ये अतीत की गौरव-गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिए मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपनाते हैं|
मैथिलीशरण गुप्त की चरित्र कल्पना में कहीं भी अलौकिकता शक्तियों के लिए स्थान नहीं है| इनके सारे चरित्र मानव ही होते हैं, उनमें देवता और राक्षस नहीं होते हैं| इनके राम, कृष्ण, गौतम आदि सभी प्राचीन और चिरकाल से हमारे महान पुरुष पात्र हैं, इसीलिए वे जीवन प्रेरणा और स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ‘साकेत’ के राम ‘ईश्वर’ होते हुए भी तुलसी की भाँति ‘आराध्य’ नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं| राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय थे| खड़ी बोली को काव्य के साँचे में ढालकर परिष्कृत करने का कौशल इन्होंने दिखाया, वह विचारणीय योग्य है| इन्होंने देश प्रेम की एकता को जगाया और उसकी चेतना को वाणी दी है। ये भारतीय संस्कृति के महान एवं परम वैष्णव होते हुए भी विश्व-एकता की भावना से ओत-प्रोत थे| हिंदी साहित्य में यह सच्चे मायने में इस देश के सच्चे राष्ट्रकवि थे।