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काजर की कोठरी खंड1-5/देवकीनन्दन खत्री

काजर की कोठरी : खंड-1

संध्या होने में अभी दो घंटे की देर है मगर सूर्य भगवान के दर्शन नहीं हो रहे , क्योंकि काली-काली घटाओं ने आसमान को चारों तरफ से घेर लिया है। जिधर निगाह दौड़ाइए मजेदार समा नजर आता है और इसका तो विश्वास भी नहीं होता कि संध्या होने में अभी कुछ कसर है।

ऐसे समय में हम अपने पाठकों को उस सड़क पर ले चलते हैं जो दरभंगे से सीधी बाजितपुर की तरफ गई है।

दरभंगे से लगभग दो कोस के आगे बढ़कर एक बैलगाड़ी पर चार नौजवान और हसीन तथा कमसिन रंडियाँ धानी, काफूर, पेयाजी और फालसई साड़ियाँ पहिरे मुख्तसर गहनों से अपने को सजाए आपुस में ठठोलपन करती बाजितपुर की तरफ जा रही हैं। इस गाड़ी के साथ-ही-साथ पीछे-पीछे एक दूसरी गाड़ी भी जा रही है, जो उन रंडियों के सफरदाओं के लिए थी। सफरदा गिनती में दस थे, मगर गाड़ी में पाँच से ज्यादे के बैठने की जगह न थी, इसलिए पाँच सफरदा गाड़ी के साथ-ही-साथ पैदल जा रहे थे। कोई तंबाकू पी रहा था, कोई गाँजा मल रहा था, कोई इस बात की शेखी बघार रहा था, कि ‘फलाने मुजरे में हमने वह बजाया कि बड़े-बड़े सफरदाओं को मिर्गी आ गई!’ इत्यादि। कभी-कभी पैदल चलनेवाले सफरदा गाड़ी पर चढ़ जाते और गाड़ीवाले नीचे उतर आते, इसी तरह अदल-बदल के साथ सफर तै कर रहे थे। मालूम होता है कि थोड़ी ही दूर पर किसी जिमींदार के यहाँ महफिल में इन लोगों को जाना है, क्योंकि सन्नाटे मैदान में सफर करते समय संध्या हो जाने से इन्हें कुछ भी भय नहीं है और न इस बात का डर है कि रात हो जाने से चोर-चुहाड़ अथवा डाकुओं से कहीं मुठभेड़ न हो जाए।

बैल की किराची गाड़ी चर्खा तो होती ही है, जब तक पैदल चलनेवाला सौ कदम जाए तब तक वह बत्तीस कदम से ज्यादे न जाएगी। बरसात का मौसिम, मजेदार बदली छाई हुई, सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक हरे-हरे धान के खेत दिखाई दे रहे हैं, पेड़ों पर से पपीहे की आवाज आ रही है, ऐसे समय में एक नहीं बल्कि चार-चार नौजवान, हसीन और मदमाती रंडियों का शांत रहना असंभव है, इसी से इस समय इन सभों को चीं-पों करती हुई जानेवाली गाड़ी पर बैठे रहना बुरा मालूम हुआ और वे सब उतरकर पैदल चलने लगीं और बात-की-बात में गाड़ी से कुछ दूर आगे बढ़ गईं। गाड़ी चाहे छूट जाए, मगर सफरदा कब उनका पीछा छोड़ने लगे थे? पैदलवाले सफरदा उनके साथ हुए और हँसते -बोलते जाने लगे।

थोड़ी ही दूर जाने के बाद इन्होंने देखा कि सामने एक सवार सरपट घोड़ा फेंके इसी तरफ आ रहा है। जब वह थोड़ी दूर रह गया तो इन रंडियों को देखकर उसने अपने घोड़े की चाल कम कर दी और जब उन चारों छबीलियों के पास पहुँचा तो घोड़ा रोककर खड़ा हो गया। मालूम होता है कि ये चारों रंडियाँ उस आदमी को बखूबी जानती और पहिचानती थीं, क्योंकि उसे देखते ही वे चारों हँस पड़ी और छबीली जो सबसे कमसिन और हसीन थी, ढिठाई के साथ उसके घोड़े की बाग पकड़कर खड़ी हो गई और बोली, ”वाह वाह! तुम भागे कहाँ जा रहे हो? बिना तुम्हारे मोती !”

‘मोती’ का नाम लिया ही था कि सवार ने हाथ के इशारे से उसे रोका और कहा, ”बाँदी! तुम्हें हम बेवकूफ कहें या भोली?” इसके बाद उस सवार ने सफरदाओं पर निगाह डाली और हुकूमत के तौर पर कहा, ‘तुम लोग आगे बढ़ो।’

अब तो पाठक लोग समझ ही गए होंगे कि उस छबीली रंडी का नाम बाँदी था, जिसने ढिठाई के साथ सवार के घोड़े की लगाम थाम ली थी और चारों रंडियों में हसीन और खूबसूरत थी। इसकी कोई आवश्यकता नहीं कि बाकी तीन रंडियों का नाम भी इसी समय बता दिया जाए, हाँ उस सवार की सूरत-शक्ल का हाल लिख देना बहुत जरूरी है।

सवार की अवस्था लगभग चालीस वर्ष की होगी। रंग काला, हाथ-पैर मजबूत और कसरती जान पड़ते थे। बाल स्याह छोटे-छोटे मगर घूँघरवाले थे, सर बहुत बड़ा और बनिस्बत आगे के पीछे की तरफ से बहुत चौड़ा था। भौवें घनी और दोनों मिली हुईं, आँखें छोटी-छोटी और भीतर की तरफ कुछ घुसी हुई थीं। होंठ मोटे और दाँतों की पंक्ति बराबर न थी, मूंछ के बाल घने और ऊपर की तरफ चढ़े हुए थे। आँखों में ऐसी बुरी चमक थी, जिसे देखने से डर मालूम होता था और बुद्धिमान देखनेवाला समझ सकता था कि यह आदमी बड़ा ही बदमाश और खोटा है, मगर साथ ही इसके दिलावर और खूंखार भी है।

जब सफरदा आगे की तरफ बढ़ गए तो सवार ने बाँदी से हँस के कहा, “तुम्हारी होशियारी जैसी इस समय देखी गई, अगर ऐसी ही बनी रही तो सब काम चौपट करोगी!”

बाँदी: (शर्माकर) नहीं, नहीं, मैं कोई ऐसा शब्द मुँह से न निकालती, जिससे सफरदा लोग कुछ समझ जाते।

सवार: वाह! ‘मोती’ का शब्द मुँह से निकल ही चुका था!

बाँदी: ठीक है मगर.. .. ।

सवार: खैर जो हुआ सो हुआ, अब बहुत सम्हाल के काम करना। अब वह जगह बहुत दूर नहीं है, जहाँ तुम्हें जाना है। (सड़क के बाईं तरफ उँगली का इशारा करके) देखो वह बड़ा मकान दिखाई दे रहा है।

बाँदी : ठीक है मगर यह कहो कि तुम भागे कहाँ जा रहे हो?

सवार : मुझे अभी बहुत काम करना हैं, मौके पर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँगा, हाँ एक बात कान में सुन लो।

सवार ने झुककर बाँदी के कान में कुछ कहा, साथ ही इसके दिल खुश करनेवाली एक आवाज भी आई। बाँदी ने नर्म चपत सवार के गाल पर भाई, सवार ने फुर्ती से घोड़े को किनारे कर लिया तथा फिर दौड़ाता हुआ जिधर जा रहा था, उधर ही को चला गया।

अब हम अपने पाठकों को एक गाँव में ले चलते हैं। यद्यपि यहाँ की आबादी बहुत घनी और लंबी-चौड़ी नहीं है, तथापि जितने आदमी इस मौजे में रहते हैं, सब प्रसन्न हैं, विशेष करके आज तो सभी खुश मालूम पड़ते हैं, क्योंकि इस मौजे के जिमींदार कल्याणसिंह के लड़के हरनंदनसिंह की शादी होनेवाली है? जिमींदार के दरवाजे पर बाजे बज रहे हैं और महफिल का सामान हो रहा है। जिमींदार का मकान बहुत बड़ा और पक्का है, जनाना खंड अलग और मर्दाना मकान, जिसमें सुंदर-सुंदर कई कमरे और कोठरियाँ हैं, अलग है। मर्दाने मकान के आगे मैदान है, जिसमें शामियाना खड़ा है और महफिल का सामान दुरुस्त हो रहा है। मकान के दाहिनी तरफ एक लंबी लाइन खपड़ैल की है, जिसमें कई दालान और कोठरियाँ हैं। एक दालान और तीन कोठरियों में भंडार (खाने की चीजों का सामान) है और एक दालान तथा तीन कोठरियों में इन रंडियों का डेरा पड़ा हुआ है, जो इस महफिल में नाचने के लिए आई हैं और नाचने का समय निकट आ जाने के कारण अपने को हर तरह से सज-धज के दुरुस्त कर रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये रंडियाँ बहुत ही हसीन और खूबसूरत हैं और जिस समय अपना शृंगार करके धीरे-धीरे चलकर महफिल में आ खड़ी होंगी, उस समय नखरे के साथ अधखुली आँखों से जिधर देखेंगी उधर ही चौपट करेंगी, पर फिर भी यह चाहे जो हो, मगर इनका जादू उन्हीं लोगों पर चलेगा, जो दिल के कच्चे और भोले-भाले हैं। जो लोग दिल के मजबूत और इनकी करतूतों तथा नकली मुहब्बत को जाननेवाले और बनावटी, नखरों का हाल अच्छी तरह जानते हैं, उन बुद्धिमानों के दिल पर इनका असर होनेवाला नहीं है, क्योंकि ऐसे आदमी जितनी ज्यादे खूबसूरत रंडी को देखेंगे उसे उतनी ही बड़ी चुड़ैल समझ के हर तरह से बच रहने का भी उद्योग करेंगे।

रात लगभग पहर-भर के जा चकी है। महफिल बरातियों और तमाशबीनों से खचाखच भरी हई है। जिमींदार का लड़का हरनंदनसिंह, जिसकी शादी होनेवाली है, कारचोबी काम की मखमली गद्दी के ऊपर गावतकिये के सहारे बैठा हुआ है। उसके दोनों बगल जिमींदार लोग जो न्योते में आए हैं, कत्तीदार पगड़ी जमाए बैठे उस रंडी से आँखें मिलाने का उद्योग कर रहे हैं, जो महफिल में नाच रही है और जिसका ध्यान बनिस्बत गाने के भाव बताने पर ज्यादे है।

इस समय महफिल में यद्यपि भीड़-भाड़ बहुत है मगर जिमींदार साहब का पता नहीं है, जिनके लड़के की शादी होनेवाली है। दो घंटे तक तो लोग चुपचाप बैठे गाना सुनते रहे, मगर इसके बाद जिमींदार कल्याणसिंह के उपस्थित न होने का कारण जानने के लिए लोगों में कानाफूसी होने लगी और लोग उन्हें बुलाने की नीयत से एकाएकी मकान की तरफ जाने लगे।

आधी रात जाते-जाते महफिल में खलबली पड़ गई। कल्याणसिंह के न आने का कारण जब लोगों को मालूम हुआ, तो सभी घबड़ा गए और एकाएकी करके उस मकान की तरफ जाने लगे जिसमें कल्याणसिंह रहते थे।

अब हम कल्याणसिंह का हाल बयान करते हैं और यह भी लिखते हैं कि वह अपने मेहमानों से अलग रहने पर क्यों मजबूर हुए। संध्या के समय जिमींदार कल्याणसिंह भंडार का इंतजाम देखते हुए उस दालान में पहुँचे, जिसमें रंडियों का डेरा था। वे यद्यपि बिगड़ैल ऐयाश तो न थे, मगर जरा मनचले और हँसमुख आदमी जरूर थे, इसलिए इन रंडियों से भी हँसी-दिल्लगी की दो बातें करने लगे। इसी बीच में नाजुक-अदा बाँदी ने उनके पास आकर अपने हाथ का लगाया हुआ दो बीड़ा पान का खाने के लिए दिया। यह वही बाँदी रंडी थी, जिसका हाल हम पहिले लिख आए हैं।

कल्याणसिंह पान का बीड़ा हाथ में लिए हुए लौटे, तो उस जगह पहुँचे जहाँ महफिल का सामान हो रहा था और उनके नौकर-चाकर दिलोजान से मेहनत कर रहे थे। थोड़ी देर तक वहाँ भी खड़े रहे। यकायक उनके सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने समझा कि मेहनत की हरारत से ऐसा हो रहा है और यह भी सोचा कि महफिल में रात-भर जागना पड़ेगा, इसलिए यदि इसी समय दो घंटे सोकर हरारत मिटा लें तो अच्छा होगा। यह विचार करते ही कल्याणसिंह अपने कमरे में चले गए जो, मर्दाने मकान में दुमंजले पर था। चिराग जल चुका था, कमरे के अंदर एक शमादान जल रहा था। कल्याणसिंह दरवाजा बंद करके एक खिड़की के सामने चारपाई पर जा लेटे, जिसमें से ठंडी -ठंडी बरसाती हवा आ रही थी और महफिल का शामियाना तथा उसमें काम-काज करते हुए आदमी दिखाई दे रहे थे। यह कमरा बहुत बड़ा न था तो भी तीस-चालीस आदमियों के बैठने लायक था। दीवारें रंगीन और उन पर फूल-बूटे का काम होशियार मुसोवर के हाथ का किया हुआ था। कई दीवारगीरें भी लगी हुई थीं। छत में एक झाड़ के चारों तरफ कई कंदीलें लटक रही थीं, जमीन पर साफ-सुफेद फर्श बिछा हुआ था, एक तरफ संगमरमर की चौकी पर लिखने-पढ़ने का सामान भी मौजूद था। बाहरवाली तरफ छोटी-छोटी तीन खिड़कियाँ थीं, जिनमें से मकान के सामनेवाला रमना अच्छी तरह दिखाई देता था। उन्हीं खिड़कियों में से एक खिड़की के आगे चारपाई बिछी हुई थी, जिस पर कल्याणसिंह सो रहे और थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गई।

कल्याणसिंह तीन घंटे तक बराबर सोते रहे, इसके बाद खड़खड़ाहट की आवाज आने के कारण उनकी नींद खुल गई। देखा कि कमरे के एक कोने में छत से कुछ कंकड़ियाँ गिर रही हैं। कल्याणसिंह ने सोचा कि शायद चूहों ने छत में बिल किया होगा और इसी सबब से कंकडियाँ गिर रही हैं, परंतु कोई चिता नहीं, कल-परसों में इसकी मरम्मत करा दी जावेगी, इस समय घंटे-भर और आराम कर लेना चाहिए, यह सोच मुँह पर चादर का पल्ला रख सो रहे और उन्हें नींद फिर आ गई। दो घंटे बाद कमरे के उसी कोने में से जहाँ से कंकडियाँ गिर रही थीं धमाके की आवाज आई जिससे कल्याणसिंह की आँख खुल गई। वह घबड़ाकर उठ बैठे और चारों तरफ देखने लगे, परंतु रोशनी गुल हो जाने के सबब इस समय कमरे में अंधेरा हो रहा था। उन्हें इस बात का ताज्जुब हुआ कि शमादान किसने गुल कर दिया! वह घबड़ाकर उठ खड़े हुए और किसी तरह दरवाजे तक पहुँचे और दरवाजा खोल कमरे के बाहर आए। उस समय एक पहरेदार सिपाही के सिवाय वहाँ और कोई भी न था, सब महफिल में चले गए थे और नौकर-चाकर भी काम-काज में लगे हुए थे। कल्याणसिंह ने सिपाही से लालटेन लाने के लिए कहा। सिपाही तुरंत लालटेन बालकर ले आया और कल्याणसिंह के साथ कमरे के अंदर गया। कल्याणसिंह ने अबकी दफे उस कोने में बेंत का पिटारा पड़ा हुआ देखा, जहाँ से पहिली दफे नींद खुलने की अवस्था में कंकडियाँ गिरने की आवाज आई थी। कल्याणसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह डरते -डरते उस पिटारे के पास गए। पिटारे के चारों तरफ रस्सी लपेटी हुई थी और एक बहुत बड़ा रस्सा भी उसी जगह पड़ा हुआ था, जिसका एक सिरा पिटारे के साथ बँधा हुआ था। जिमींदार ने छत की तरफ देखा तो टूटी हुई दिखाई दी, जिससे यह विश्वास हो गया कि यह पिटारा रस्सी के सहारे इसी राह से लटकाया गया है और ताज्जुब नहीं कि कोई आदमी भी इसी राह से कमरे में आया हो क्योंकि शमादान का बुझना बेसबब न था। कल्याणसिंह ताज्जुब भरी निगाहों से उस पिटारे को देर तक देखते रहे, इसके बाद सिपाही के हाथ से लालटेन ले ली और उससे पिटारा खोलने के लिए कहा। सिपाही ने जो ताकतवर होने के साथ-ही-साथ दिलेर भी था, झटपट पिटारा खोला और ढकना अलग करके देखा तो उसमें बहुत-से कपड़े भरे हुए दिखाई पड़े। मगर उन कपड़ों पर हाथ रखने के साथ ही वह चौंक पड़ा और हटकर अलग खड़ा हो गया। जब कल्याणसिंह ने पूछा कि ‘क्यों क्या हुआ?’ तब उसने दोनों हाथ लालटेन के सामने किए और दिखाया कि उसके दोनों हाथ खून से तर हैं!

कल्याणसिंह: हैं! यह तो खून है!!

सिपाही: जी हाँ, उस पिटारे में जो कपड़े हैं, वे खून से तर हैं और कोई काँटेदार चीज भी उसमें मालूम पड़ती है जो कि मेरे हाथ में सूई की तरह चुभी थी।

कल्याणसिंह: ओफ, निःसंदेह कोई भयानक बात है! अच्छा तुम पिटारे को बाहर ले चलो।

सिपाही: बहुत अच्छा।

सिपाही ने जब उस पिटारे को उठाना चाहा तो बहुत हलका पाया और सहज ही में वह उस पिटारे को कमरे के बाहर ले आया। उस समय तक और भी एक सिपाही तथा दो-तीन नौकर वहाँ आ पहुँचे थे।

कल्याणसिंह की आज्ञानुसार रोशनी ज्यादा की गई और तब उस पिटारे की जाँच होने लगी। निःसंदेह उस पिटारे के अंदर कपड़े थे और उन पर सलमे-सितारे का काम किया हुआ था।

सिपाही: (सलमे-सितारे के काम की तरफ इशारा करके) यही मेरे हाथ में गड़ा था और काँटे की तरह मालूम हुआ था! (एक कपड़ा उठाकर) ओफ! यह तो ओढ़नी है!!

दूसरा: और बिलकुल नई!

तीसरा: ब्याह की ओढ़नी है!

सिपाही: मगर सरकार, इसे मैं पहिचानता हूँ और जरूर पहिचानता हूँ!

कल्याणसिंह: (लंबी साँस लेकर) ठीक है, मैं भी इसे पहिचानता हूँ, अच्छा और निकालो।

सिपाही: (और एक कपड़ा निकाल के) लीजिए यह लहँगा भी है! बेशक वही है!!

कल्याणसिंह: ओफ, यह क्या गजब है! यह कपड़े मेरे घर क्यों आ गए और ये खून से तर क्यों हैं? निःसंदेह ये वही कपड़े हैं जो मैंने अपनी पतोह के वास्ते बनवाए थे और समधियाने भेजे थे। तो क्या खून हुआ? क्या लड़की मारी गई? क्या यह मंगल का दिन अमंगल के साथ बदल गया?

इतना कहकर कल्याणसिंह जमीन पर बैठ गया। नौकरों ने जल्दी से कुर्सी लाकर रख दी और कल्याणसिंह को उस पर बैठाया। धीरे-धीरे बहुत-से आदमी वहाँ आ जुटे और बात-की-बात में यह खबर अंदर-बाहर सब तरफ अच्छी तरह फैल गई। इस खबर ने महफिल में भी हलचल फैला दी और महफिल में बैठे हुए मेहमानों को कल्याणसिंह को देखने की उत्कंठा पैदा हुई। आखिर धीरे-धीरे बहुत-से नौकर-सिपाही और मेहमान वहाँ जुट गए और उस भयानक दृश्य को आश्चर्य के साथ देखने लगे।

काजर की कोठरी : खंड-2

यों तो कल्याणसिंह के बहुत-से मेली-मुलाकाती थे मगर सूरजसिंह नामी एक जिमींदार उनका सच्चा और दिली दोस्त था, जिसकी यहाँ के राजा धर्मसिंह के वहाँ भी बड़ी इज्जत और कदर थी। सूरजसिंह का एक नौजवान लड़का भी था, जिसका नाम रामसिंह था और जिसे राजा धर्मसिंह ने बारह मौजों का तहसीलदार बना दिया था। उन दिनों तहसीलदारों को बहुत बड़ा अख्तियार रहता था, यहाँ तक सैकड़ों मुकदमे दीवानी और फौजदारी के खुद तहसीलदार ही फैसला करके उसकी रिपोर्ट राजा के पास भेज दिया करते थे। रामसिंह को राजा धर्मसिंह बहुत मानते थे। अस्तु, कुछ तो इस सबब से मगर ज्यादे अपनी बुद्धिमानी के सबब उसने अपनी इज्जत और धाक बहुत बढ़ा रक्खी थी। जिस तरह कल्याणसिंह और सूरजसिंह में दोस्ती थी, उसी तरह रामसिंह और हरनंदन में (जिसकी शादी होनेवाली थी) सच्ची मित्रता थी और आज की महफिल में वे दोनों ही बाप-बेटा मौजूद भी थे।

रामसिंह और हरनंदनसिंह दोनों मित्र बड़े ही होशियार, बुद्धिमान, पंडित और वीर पुरुष थे और उन दोनों का स्वभाव भी ऐसा अच्छा था कि जो कोई एक दफे उनसे मिलता और बातें करता वही उनका प्रेमी हो जाता। इसके अतिरिक्त वे दोनों मित्र खूबसूरत भी थे और उनका सुडौल तथा कसरती बदन देखने ही योग्य था।

जब कल्याणसिंह की घबराहट का हाल लोगों को मालूम हुआ और महफिल में खलबली पड़ गई तो सूरजसिंह और हरनंदन भी कल्याणसिंह के पास जा पहुँचे, जो दुखित हृदय से उस पिटारे के पास बैठे हुए थे, जिसमें खून से भरे हुए शादीवाले जनाना कपड़े निकले थे। थोड़ी ही देर में वहाँ बहुत-से आदमियों की भीड़ हो गई, जिन्हें सूरजसिंह ने बड़ी बुद्धिमानी से हटा दिया और एकांत हो जाने पर कल्याणसिंह से सब हाल पूछा। कल्याणसिंह ने जो देखा था या जो कुछ हो चुका था बयान किया और इसके बाद अपने कमरे में ले जाकर वह स्थान भी दिखाया जहाँ पिटारा पाया गया था और साथ ही इसके अपने दिल का शक भी बयान किया।

हरनंदन को जब हाल मालूम हो गया तो वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया और आरामकुर्सी पर बैठ कुछ सोचने लगा। उसी समय कल्याणसिंह के समधियाने से अर्थात लालसिंह के यहाँ से यह खबर आ पहुँची कि ‘सरला’ (जिसकी हरनंदन से शादी होनेवाली थी) घर में से यकायक गायब हो गई और उस कोठरी में जिसमें वह थी सिवाय खून के छींटे और निशानों के और कुछ भी देखने में नहीं आता।

यह मामला निःसंदेह बड़ा भयानक और दुखदाई था। बात-की-बात में यह खबर भी बिजली की तरह चारों तरफ फैल गई। जनानों में रोना-पीटना पड़ गया। घंटे ही भर पहिले जहाँ लोग हँसते-खेलते घूम रहे थे, अब उदास और दुखी दिखाई देने लगे। महफिल का शामियाना उतार लेने के बाद गिरा दिया गया। रंडियों को कुछ दे-दिलाकर सवेरा होने के पहिले ही विदा हो जाने का हुक्म मिला। इसके बाद जब सूरजसिंह और रामसिंह सलाह-विचार करके कल्याणसिंह से विदा हुए और मिलने के लिए हरनंदन के कमरे में आए तो हरनंदन को वहाँ न पाया, हाँ खोज-खबर करने पर मालूम हुआ कि बाँदी रंडी के पास बैठा हुआ दिल बहला रहा है, वही बाँदी रंडी जिसका जिक्र इस किस्से के पहिले ब्यान में आ चुका है और जो आज की महफिल में नाचने के लिए आई थी।

सूरजसिंह और रामसिंह को यह सुनकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि हरनंदन बाँदी रंडी के पास बैठा दिल बहला रहा है! क्योंकि वे हरनंदन के स्वभाव से अनजान न थे और इस बात को भी खूब जानते थे कि वह रंडियों के फेर में पड़ने या उनकी सोहबत को पसंद करनेवाला लड़का नहीं है और फिर ऐसे समय में जबकि चारों तरफ उदासी फैली हुई हो उसका बाँदी के पास बैठकर गप्पें उड़ाना तो हद दर्जे का ताज्जुब पैदा करता था। आखिर सूरजसिंह ने अपने लड़के रामसिंह को निश्चय करने के लिए उस तरफ रवाना किया, जिधर बाँदी रंडी का डेरा था और आप लौटकर पुन: अपने मित्र कल्याणसिंह के पास पहुँचे, जो अपने कमरे में अकेले बैठे कुछ सोच रहे थे।

कल्याणसिंह: (ताज्जुब से) आप लौटे क्यों? क्या कोई दूसरी बात पैदा हुई?

सूरजसिंह: हम लोग हरनंदन से मिलने के लिए उसके कमरे में गए तो मालूम हुआ कि वह बाँदी रंडी के डेरे में बैठा हुआ दिल बहला रहा है।

कल्याणसिंह: (चौंककर) बाँदी रंडी के यहाँ! नहीं, कभी नहीं, वह ऐसा लड़का नहीं है, और फिर ऐसे समय में जबकि चारों तरफ उदासी फैली हुई हो और हम लोग एक भयानक घटना के शिकार हो रहे हों! यह बात दिल में नहीं बैठती।

सूरजसिंह: मेरा भी यही ख्याल है और इसी से निश्चय करने के लिए मैं रामसिंह को उस तरफ भेजकर आपके पास आया हूँ।

कल्याणसिंह: अगर यह बात सच निकली तो बड़े ही शर्म की बात होगी। हँसी-खुशी के दिनों में ऐसी बातों पर लोगों का ध्यान विशेष नहीं जाता और न लोग इस बात को इतना बुरा ही समझते हैं, मगर आज ऐसी आफत के समय में मेरे लड़के हरनंदन का ऐसा करना बड़े शर्म की बात होगी, हर एक छोटा-बड़ा बदनाम करेगा और समधियाने में तो यह बात न मालूम किस रूप से फैलकर कैसा रूपक खड़ा करेगी सो कह नहीं सकते।

सूरजसिंह: बात तो ऐसी ही है मगर फिर भी मैं यही कहता हूँ कि हरनंदन ऐसा लड़का नहीं है। उसे अपनी बदनामी का ध्यान उतना ही रहता है, जितना जुआरी को अपना दाँव पड़ने का उस समय जबकि कौड़ी किसी खिलाड़ी के हाथ से गिरा ही चाहती हो।

इतने ही में हरनंदन को साथ लिए हुए रामसिंह भी आ पहुँचा, जिसे देखते ही कल्याणसिंह ने पूछा, “क्यों जी रामसिंह! हरनंदन से कहाँ मुलाकात हुई?”

रामसिंह: बाँदी रंडी के डेरे में।

कल्याणसिंह: (चौंककर) हैं! (हरनंदन से) क्यों जी तुम कहाँ थे?

हरनंदन: बाँदी रंडी के डेरे में!

इतना सुनते ही कल्याणसिंह की आँखें मारे क्रोध से लाल हो गईं और मुँह से एक शब्द भी निकलना कठिन हो गया। उधर यही हाल सूरजसिंह का भी था। एक तो दुख और क्रोध ने उन्हें पहिले से ही दबा रखा था, मगर इस समय हरनंदन की ढिठाई ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया। वे कुछ कहना ही चाहते थे कि रामसिंह ने कहा-

रामसिंह: (कल्याणसिंह से) मगर हमारे मित्र इस योग्य नहीं हैं कि आपको कभी अपने ऊपर क्रोधित होने का समय दें। यद्यपि अभी तक मुझे कुछ मालूम नहीं हुआ है तथापि मैं इतना कह सकता हूँ कि इनके ऐसा करने का कोई-न-कोई भारी सबब जरूर होगा।

हरनंदन: बेशक ऐसा ही है।

कल्याणसिंह: (आश्चर्य से) बेशक ऐसा ही है!

हरनंदन: जी हाँ!

इतना कह हरनंदन ने कागज का एक पुर्जा जो बहुत मुड़ा और बिगड़ा हुआ था, उनके सामने रख दिया। कल्याणसिंह ने बड़ी बेचैनी से उसे उठाकर पढ़ा और तब यह कहकर अपने मित्र सूरजसिंह के हाथ में दे दिया कि ‘बेशक ऐसा ही है।’ सूरजसिंह ने भी उसे बड़े गौर से पढ़ा और ‘बेशक ऐसा ही है’ कहते हुए अपने लड़के रामसिंह के हाथ में दे दिया और उसे पढ़ने के साथ ही रामसिंह के मुँह से भी यही निकला कि ‘बेशक ऐसा ही है!!’

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जमींदार लालसिंह के घर में बड़ा ही कोहराम मचा हुआ था। उसकी प्यारी लड़की सरला घर में से यकायक गायब हो गई थी और वह भी इस ढंग से कि याद करके कलेजा फटता और विश्वास होता था कि उस बेचारी के खून से किसी निर्दयी ने अपना हाथ रंगा है। बाहर-भीतर हाहाकार मचा हुआ था और इस खयाल से तो और भी ज्यादे रुलाई आती थी कि आज ही उसे ब्याहने के लिए बाजे-गाजे के साथ बरात आवेगी।

लालसिंह मिजाज का बड़ा ही कड़ुआ आदमी था। गुस्सा तो मानो ईश्वर के घर ही से उसके हिस्से में पड़ा था। रंज हो जाना उसके लिए कोई बड़ी बात न थी, जरा-जरा से कसूर पर बिगड़ जाता और बरसों की जान-पहचान तथा मुरौवत का कुछ भी खयाल न करता। यदि विशेष प्राप्ति की आशा न होती तो उसके यहाँ नौकर, मजदूरनी या सिपाही एक भी दिखाई न देता। इसी से प्रगट है कि वह लोगों को देता भी था, मगर उनका दान इज्जत के साथ न होता और लोगों की बेइज्जती का फजीहता करने में ही वह अपनी शान समझता था। यह सबकुछ था मगर रुपए ने उसके सब ऐबों पर जालीलेट का पर्दा डाल रखा था। उसके पास दौलत बेशुमार थी, मगर लड़का कोई भी न था, सिर्फ एक लड़की वही सरला थी जिसके संबंध से आज दो घरों में रोना-पीटना मचा हुआ था। वह अपनी इस लड़की को प्यार भी बहुत करता था और भाई-भतीजे मौजूद रहने पर भी अपनी कुल जायदाद जिसे उसने अपने उद्योग से पैदा किया था, इसी लड़की के नाम लिखकर तथा वह वसीयतनामा राजा के पास रखकर अपने भाई-भतीजों को जो रुपए-पैसे की तरफ से दुखी रहा करते थे, सूखा ही टरका दिया था, हाँ खाने-पीने की तकलीफ वह किसी को भी नहीं देता था। उसके चौके में चाहे कितने ही आदमी बैठकर खाते इसका वह कुछ खयाल न करता बल्कि खुशी से लोगों को अपने साथ खाने में शरीक करता था।

अपनी लड़की सरला के नाम जो वसीयतनामा उसने लिखा था वह भी कुछ अजब ढंग का था। उसके पढ़ने ही से उसके दिल का हाल जाना जाता था। पाठकों की जानकारी के लिए उस वसीयतनामे की नकल हम यहाँ पर देते हैं–

‘मैं लालसिंह

‘अपनी कुल जायदाद जिसे मैंने अपनी मेहनत से पैदा किया है और जो किसी तरह बीस लाख रूपै से कम नहीं है और जिसकी तकमील नीचे लिखी जाती है, अपनी लड़की सरला के नाम से जिसकी उम्र इस वक्त चौदह (14) वर्ष की है वसीयत करता हूँ। इस जायदाद पर सिवाय सरला के और किसी का हक न होगा बशर्ते कि नीचे लिखी शर्तों का पूरा बर्ताव किया जाए-

(1) सरला को अपनी कल जायदाद का मैनेजर अपने पति को बनाना होगा।

(2) सरला अपनी जायदाद (जो मैं उसे देता हूँ) या उसका कोई हिस्सा अपने पति की इच्छा के विरूद्ध खर्च न कर सकेगी और न किसी को दे सकेगी।

(3) सरला के पति को सरला की कुल जायदाद पर बतौर मैनेजरी के हक होगा, न कि बतौर मालिकाना।

(4) सरला का पति अपनी मैनेजरी की तनखाह (अगर चाहे तो) पाँच सौ रूपै महीने के हिसाब से इस जायदाद की आमदनी में से ले सकेगा।

(5) सरला की शादी का बंदोबस्त मैं कल्याणसिंह के लड़के हरनंदनसिंह के साथ कर चुका हूँ और जहाँ तक संभव है अपनी जिंदगी में उसी के साथ कर जाऊँगा। कदाचित इसके पहिले ही मेरा अंतकाल हो जाए तो सरला को लाजिम होगा कि उसी हरनंदनसिंह के साथ शादी करे। अगर इसके विपरीत किसी दूसरे के साथ शादी करेगी तो मेरी कुल जायदाद के (जिसे में इस वसीयतनामे में दर्ज करता हूँ) आधे हिस्से पर हमारे चारों सगे भतीजों–राजाजी, पारसनाथ, धरनीधर और दौलतसिंह का या उनमें से उस वक्त जो हों, का हक हो जाएगा और बाकी के आधे हिस्से पर सरला के उस पति का अधिकार होगा, जिसके साथ कि वह मेरी इच्छा के विरुद्ध शादी करेगी। हाँ, अगर शादी होने के पहिले सरला को हरनंदन की बदचलनी का कोई सबूत मिल जाए तो उसे अख्तियार होगा कि जिसके साथ जी-चाहे शादी करे। उस अवस्था में सरला को मेरी कुल जायदाद पर उसी तरह अधिकार होगा, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है। अगर शादी के बाद हरनंदनसिंह की बदचलनी का कोई सबूत पाया जाए तो सरला को आवश्यक होगा कि उसे अपनी मैनेजरी से खारिज कर दे और अपनी कुल जायदाद राजा के सुपुर्द करके काशी चली जाए और वहाँ केवल एक हजार रुपै महीना राजा से लेकर तीर्थवास करे और यदि ऐसा न करे तो राजा को (जो उस वक्त में यहाँ का मालिक हो) जबरदस्ती ऐसा करने का अधिकार होगा।

(6) सरला के बाद सरला की संपत्ति का मालिक धर्मशास्त्रानुसार होगा।

जायदाद की फिहरिस्त और तारीख इत्यादि

इस वसीयतनामे के पढ़ने ही से पाठक समझ गए होंगे कि लालसिंह कैसी तबीयत का आदमी और अपनी जिद्द का कैसा पूरा था। इस समय उसने जब यकायक सरला के गायब होने का हाल लौंडी की जुबानी सुना तो उसके कलेजे पर एक चोट-सी लगी और वह घबड़ाया हुआ मकान के अंदर चला गया जहाँ औरतों में विचित्र ढंग की घबड़ाहट फैली हुई थी। सरला की माँ उस कोठरी में बेहोश पड़ी हुई थी, जिसमें से सरला यकायक गायब हो गई थी और जहाँ उसके बदले में चारों तरफ खून के और निशान दिखाई दे रहे थे। कई औरतें उस बेचारी के पास बैठी हुईं रो रही थीं, कई उसे होश में लाने की फिक्र कर रही थीं, और कई इस आशा में कि कदाचित सरला कहीं मिल जाए, ऊपर-नीचे और मकान के कोनों में घूम-घूमकर देखभाल कर रही थीं।

जिस समय लालसिंह सरला की कोठरी में पहुँचा और उसने वहाँ की अवस्था देखी, घबड़ा गया और खून के छींटों पर निगाह पड़ते ही उसकी आँखों से आँसू की नदी बह चली। उसे थोड़ी देर तक तो तनोबदन की सुध न रही फिर बड़ी कोशिश से उसने अपने को सँभाला और तहकीकात करने लगा। कई औरतों और लौंडियों के उसने इजहार लिए मगर इससे ज्यादे पता कुछ भी न लगा कि सरला यकायक अपनी कोठरी में से ही कहीं गायब हो गई। उसे किसी ने भी कोठरी के बाहर पैर रखते या कहीं जाते नहीं देखा। जब लालसिंह ने खून के निशान और छींटों पर ध्यान दिया तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ क्योंकि खून के जो कुछ छीटे या निशान थे सब कोठरी के अंदर ही थे, चौकठ के बाहर इस किस्म की कोई बात न थी। वह अपनी स्त्री को होश में लाने और दिलासा देने का बंदोबस्त करके बाहर अपने कमरे में चला आया, जहाँ से उसी समय अपने समधी कल्याणसिंह के पास एक आदमी रवाना करके उसकी जुबानी अपने यहाँ का सब हाल उसने कहला भेजा। .

रात-भर रंज और गम में बीत गया। सरला को खोज निकालने के लिए किसी ने कोई बात उठा न रक्खी, नतीजा कुछ भी न निकला। दूसरे दिन दो पहर बीते वह आदमी भी लौट आया जो कल्याणसिंह के पास भेजा गया था और उसने वहाँ का सब हाल लालसिंह से कहा, जिसे सुनते ही लालसिंह पागल की तरह हो गया और उसके दिल में कोई नई बात पैदा हो गई, मगर जिस समय उस आदमी ने यह कहा कि ‘खून-खराबे का सब हाल मालूम हो जाने पर भी हरनंदनसिंह को किसी तरह का रंज न हुआ और वह एक रंडी के पास, जिसका नाम बाँदी है और जो नाचने के लिए उसके यहाँ गई हुई थी, जा बैठा और हँसी-दिल्लगी में अपना समय बिताने लगा, यहाँ तक कि उसके बाप ने बुलाने के लिए कई आदमी भेजे मगर वह बाँदी के पास से न उठा, आखिर जब स्वयं रामसिंह गए तो उसे जबरदस्ती उठा लाए और लानत-मलामत करने लगें——’ तो लालसिंह की हालत बदल गई। उसके लिए यह खबर बड़ी ही दुखदाई थी। यद्यपि वह सरला के गम में अधमुआ हो रहा था तथापि इस खबर ने उसके बदन में बिजली पैदा कर दी। कहाँ तो वह दीवार के सहारे सुस्त बैठा हुआ सब बातें सुन रहा और आँखों से आँसू की बूँदें गिरा रहा था, कहाँ यकायक सँभलकर बैठ गया, क्रोध से बदन काँपने लगा, आँसू की तरी एकदम गायब होकर आँखों ने अंगारों की सूरत पैदा की और साथ ही इसके वह लंबी-लंबी साँसें लेने लगा।

उस समय लालसिंह के पास उसके चारों भतीजे–राजाजी, पारसनाथ, धरनीधर और दौलतसिंह तथा और भी कई आदमी जिन्हें वह अपना हिती समझता था बैठे हुए थे और सभों की सूरत से उदासी और हमदर्दी झलक रही थी। हरनंदन और बाँदीवाली खबर सुनकर जिस समय लालसिंह क्रोध में आकर चुटीले साँप की तरह फुँकारने लगा उस समय उन लोगों ने भी नमक-मिर्च लगाना आरंभ कर दिया।

एक: देखने-सुनने और बातचीत से तो हरनंदन बड़ा नेक और बुद्धिमान मालूम पड़ता था।

दूसरा: मनुष्य का चित्त अंदर-बाहर से एक नहीं हो सकता।

तीसरा: मुझे तो पहिले ही से उसके चाल-चलन पर शक था, मगर लोगों में उसकी तारीफ इतनी ज्यादे फैली हुई थी कि मैं अपने मुँह से उसके खिलाफ कुछ कहने का साहस नहीं कर सकता था।

चौथा: बुद्धिमान ऐयाशों का यही ढंग रहता है।

पाँचवाँ: असल तो यों है कि हरनंदन को अपनी बुद्धिमानी पर घमंड भी हद्द से ज्यादे है। .

छठा: निःसंदेह ऐसा ही है। उसने तो केवल हमारे लालसिंह जी को धोखा देने के लिए यह रूपक बाँधा हुआ था, नहीं तो वह पक्का बदमाश और—

पारसनाथ: (लालसिंह का भतीजा) अजी मैं एक दफे (लालसिंह की तरफ इशारा करके) चाचा साहब से कह भी चुका था कि हरनंदन को जैसा आप समझे हुए हैं वैसा नहीं है, मगर आपने मेरी बातों पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया उल्टे मुझी को उल्लू बनाने लगे।

लालसिंह: वास्तव में मैं उसे बहुत नेक आदमी समझता था।

पारसनाथ: मैं तो आज भी डंके की चोट कह सकता हूँ कि बेचारी सरला का खून (अगर वास्तव में वह मारी गई है तो) हरनंदन ही की बदौलत हुआ है। अगर मेरी मदद की जाए तो मैं इसको साबित करके दिखा भी सकता हूँ।

लालसिंह: क्या तुम इस बात को साबित कर सकते हो?

पारसनाथ: बेशक!

लालसिंह: तो क्या सरला के मारे जाने में भी तुम्हें कोई शक है?

पारसनाथ: जी हाँ, पूरा-पूरा शक है! मेरा दिल गवाही देता है कि यदि उद्योग के साथ पता लगाया जाएगा तो सरला मिल जाएगी।

लालसिंह: क्या यह काम तुम्हारे किए हो सकता है?

पारसनाथ: बेशक, मगर खर्च बहुत ज्यादे करना होगा !

लालसिंह: यद्यपि मैं तुम पर विश्वास और भरोसा नहीं रखता पर इस बारे में अंधा और बेवकूफ बनकर भी तुम्हारी मार्फत खर्च करने को तैयार हूँ। मगर तुम यह बताओ कि हरनंदन सरला के साथ दुश्मनी करके अपना नुकसान कैसे कर सकता है!

पारसनाथ: इसका बहुत बड़ा सबब है जिसके लिए हरनंदन ने ऐसा किया, वह बड़े आन-बान का आदमी है।

लालसिंह: आखिर वह सबब क्या है सो साफ-साफ क्यों नहीं कहते?

पारसनाथ: (इधर-उधर देखकर) मैं किसी समय एकांत में आपसे कहूँगा।

लालसिंह: अभी इसी जगह एकांत हो जाता है, जो कुछ कहना है तुरंत कहो, क्या तुम नहीं जानते कि इस समय मेरे दिल पर क्या बीत रही है?

इतना कहकर लालसिंह ने औरों की तरफ देखा और उसी समय वे लोग उठकर थोड़ी देर के लिए दूसरे कमरे में चले गए। उस समय पुन: पूछे जाने पर पारसनाथ ने कहा, ”हरनंदन अपनी बुद्धि और विद्या के आगे रुपए की कुछ भी कदर नहीं समझता। वह आपके रुपए का लालची नहीं है बल्कि अपनी तबीयत का बादशाह है। उसका बाप बेशक आपकी दौलत अपनी किया चाहता है मगर हरनंदन को सरला के साथ ब्याह करना मंजूर न था क्योंकि वह अपना दिल किसी और ही को दे चुका है जो एक गरीब की लड़की है और जिसके साथ शादी करना उसका बाप पसंद नहीं करता। इसीलिए उसने इस ढंग से सरला को बदनाम करके पीछा छुड़ाना चाहा है। इस संबंध में और भी बहुत-सी बातें हैं, जिन्हें मैं आपके सामने मुँह से नहीं निकाल सकता क्योंकि आप बड़े हैं और बातें छोटी हैं।”

लालसिंह: (ताज्जुब के साथ) क्या तुम ये सब बातें सच कह रहे हो?

पारसनाथ: मेरी बातों में रत्ती बराबर भी झूठ नहीं है। मैं छाती ठोक के दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि आप खर्च की पूरी -पूरी मदद देंगे तो मैं थोड़े ही दिनों में ये सब बातें सिद्ध करके दिखा दूँगा।

लालसिंह: इस बारे में क्या खर्च पड़ेगा?

पारसनाथ: दस हजार रुपए। अगर जीती-जागती सरला का भी पता लग गया और उसे मैं छुड़ाकर अपने घर ला सका तो पच्चीस हजार रुपए से कम खर्च नहीं पड़ेगा।

लालसिंह: (अपनी छाती पर हाथ रखके) मुझे मंजूर है।

पारसनाथ: तो मैं भी फिर अपनी जान हथेली पर रखकर उद्योग करने के लिए तैयार हूँ।

लालसिंह: अच्छा अब उन लोगों को बुला लेना चाहिए जो दूसरे कमरे में चले गए हैं।

पारसनाथ: जो आज्ञा मगर ये बातें सिवाय मेरे और आपके किसी तीसरे को मालूम न हों।

काजर की कोठरी : खंड-3

रात दो घंटे से ज्यादे नहीं रह गई है। दरभंगा के बाजारों की रौनक अभी मौजूद है, मगर घटती जाती है। हाँ उस बाजार की रौनक कुछ दूसरे ही ढंग पर पलटा खा रही है, जो रंडियों की आबादी से विशेष संबंध रखती है, अर्थात उनके निचले खंड की रौनक से ऊपरवाले खंड की रौनक ज्यादे होती जा रही है।

इस उपन्यास के इस बयान में हमको इसी बाजार से कुछ मतलब है, क्योंकि उस बाँदी रंडी का मकान भी इसी बाजार में है, जिसका जिक्र इस किस्से के पहले और दूसरे बयान में आ चुका है। बाँदी का मकान तीन मरातब का है और उसमें जाने के लिए दो रास्ते हैं, एक तो बाजार की तरफ से और दूसरा पिछवाड़े वाली अंधेरी गली में से।

पहली मरातब में बाजार की तरफ एक बहुत बड़ा कमरा और दोनों तरफ दो कोठरियाँ तथा उन कोठरियों में से दूसरी कोठरियों में जाने का रास्ता बना हुआ है और पिछवाड़े की तरफ केवल पाँच दर का एक दालान है। दूसरी मरातब पर चारों कोनों में चार कोठरियाँ और बीच में चारों तरफ छोटे-छोटे चार कमरे हैं। तीसरी मरातब पर केवल एक बँगला और बाकी का मैदान अर्थात खुली छत है।

इस समय हम बाँदी को इसी तीसरी मरातबवाले बँगले में बैठे देखते हैं। उसके पास एक आदमी और भी है, जिसकी उम्र लगभग पच्चीस वर्ष होगी। कद लंबा, रंग गोरा, चेहरा कुछ खूबसूरत, बड़ी-बड़ी आँखें, (मगर पुतलियों का स्थान स्याह होने के बदले कुछ नीलापन लिए हुए था) भवें दोनों नाक के ऊपर से मिली हुईं, पेशानी सुकड़ी, सर के बाल बड़े-बड़े मगर घुँघराले हैं। बदन के कपड़े–पायजामा, चपकन, रूमाल इत्यादि यद्यपि मामूली ढंग के हैं मगर साफ हैं, हाँ, सिर पर कलाबत्तू कोर का बनारसी दुपट्टा बाँधे हैं, जिससे उसकी ओछी तथा फैल सूफ तबीयत का पता लगता है। यह शख्स बाँदी के पास एक बड़े तकिये के सहारे झुका हुआ मीठी-मीठी बातें कर रहा है।

इस बँगले की सजावट भी बिलकुल मामूली और सादे ढंग की है। जमीन पर गुदगुदा फर्श और छोटे-बड़े कई रंग के बीस-पच्चीस तकिये पड़े हुए हैं, दीवार में केवल एक जोड़ी दीवारगीर भी लगी है, जिसमें रंगीन पानी के गिलास की रोशनी हो रही है। बाँदी इस समय बड़े प्रेम से उस नौजवान की तरफ झुकी हुई बातें कर रही है।

नौजवान : मैं तुम्हारे सर की कसम खाकर कहता हूँ, क्योंकि इस दुनिया में मैं तुमसे बढ़कर किसी को नहीं मानता।

बाँदी : (एक लंबी साँस लेकर) हम लोगों के यहाँ जितने आदमी आते हैं सभी लंबी-लंबी कसमें खाया करते हैं, मगर मुझे उन कसमों की कुछ परवाह नहीं रहती, परंतु तुम्हारी कसमें मेरे कलेजे पर लिखी जाती हैं, क्योंकि मैं तुम्हें सच्चे दिल से प्यार करती हूँ।

नौजवान : यही हाल मेरा है। मुझे इस बात का खयाल हरदम बना रहता है कि बाप-माँ, भाई-बिरादर, देवता-धर्म सबसे बिगड़ जाए तो बिगड़ जाए मगर तुमसे किसी तरह कभी बिगड़ने या झूठे बनने की नौबत न आवे। सच तो यों है कि मैं तुम्हारे हाथ बिक गया हूँ, बल्कि अपनी खुशी और जिंदगी को तुम्हारे ऊपर न्यौछावर कर चुका हूँ और केवल तुम्हारा ही भरोसा रखता हूँ।

देखो, अबकी दफे मेरी माँ सचमुच मेरी दुश्मन हो गई, मगर मैंने उसका कुछ भी खयाल न किया, हाथ लगी रकम के लौटाने का इरादा भी मन में न आने दिया और तुम्हारी खातिर यहाँ तक ला ही छोड़ा। अभी तो मैं कुछ कह नहीं सकता, हाँ, अगर ईश्वर मेरी सुन लेगा और तुम्हारी मेहनत ठिकाने लग जाएगी तो मैं तुम्हें माला-माल कर दूँगा।

बाँदी : मैं तुम्हारी ही कसम खाकर कहती हूँ कि मुझे धन-दौलत का कुछ भी खयाल नहीं। मैं तो केवल तुमको चाहती हूँ और तुम्हारे लिए जान तक देने को तैयार हूँ मगर क्या करूँ मेरी अम्मा बड़ी चांडालिन है। वह एक दिन भी मुझे रुलाए बिना नहीं रहती। अभी कल की बात है कि दोपहर के समय मैं इसी बँगले में बैठी हुई तुम्हें याद कर रही थी, खाना-पीना कुछ भी नहीं किया था, चार-पाँच-दफे मेरी अम्मा कह चुकी थीं मगर मैंने पेट-दर्द का बहाना करके टाल दिया था।

इत्तफाक से न मालूम कहाँ का मारा-पीटा एक सर्दार आ पहुँचा और अम्मा जान को यह जिद्द हुई कि मैं उसके पास अवश्य जाऊँ, जिसे उन्होंने बड़ी खातिर से नीचेवाले कमरे में बैठा रखा था। मगर मुझे उस समय सिवाय तुम्हारे खयाल के और कुछ अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मैं यहाँ बैठी रह गई, नीचे न उतरी, बस अम्मा एकदम यहाँ चली आईं और मुझे हजारों गालियाँ देने लगीं और तुम्हारा नाम ले-लेकर कहने लगीं कि पारसनाथ आवेंगे तो रात-रात – भर बैठी बातें किया करेगी और जब कोई दूसरा सर्दार आकर बैठेगा तो उसे पूछेगी भी नहीं!

आखिर घर का खर्च कैसे चलेगा? इत्यादि बहुत कुछ बक गईं मगर मैंने वह चुप्पी साधी कि सर तक न उठाया, आखिर बहुत बक-झक कर चली गईं। फिर यह भी न मालूम हुआ कि अम्मा ने उस सर्दार को क्या कहकर विदा किया या क्या हुआ। एक दिन की कौन कहे रोज ही इस तरह की खटपट हुआ करती है।

पारसनाथ: खैर थोड़े दिन और सब्र करो, फिर तो मैं उन्हें ऐसा खुश कर दूँगा कि वह भी याद करेंगी। मेरे चाचा की आधी जायदाद भी कम नहीं है। अस्तु, जिस समय वह तुम्हें बेगमों की तरह ठाठबाट से देखेंगी और खजाने की तालियों का झब्बा अपनी करधनी से लटकता हुआ पावेंगी उस समय उन्हें बोलने का कोई मुँह न रहेगा, दिन -रात तुम्हारी बलाएँ लिया करेंगी।

बाँदी : तब भला वह क्या कहने लायक रहेंगी और आज भी वह मेरा क्या कर सकती हैं? अगर बिगड़कर खड़ी हो जाऊँ तो उनके किए कुछ भी न हो, मगर क्या करूँ लोक-निंदा से डरती हूँ।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, ऐसा कदापि न करना ! मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी किसी तरह की बदनामी हो और सर्दार लोग तुम्हारी ढिठाई की घर-घर में चर्चा करें, अब भी मैं तुम्हें रत्ती-भर तकलीफ होने न दूँगा और तुम्हारे घर का खर्चा किसी-न-किसी तरह जुटाता ही रहूँगा।

बाँदी : नहीं जी, मैं तुम्हें अपने खर्चे के लिए भी तकलीफ देना नहीं चाहती, मैं इस लायक हूँ कि बहुत-से सर्दारों को उल्लू बनाकर अपना खर्च निकाल लूँ। तुमसे एक पैसा लेने की नीयत नहीं रखती, मगर क्या करूँ, अम्मा से लाचार हूँ इसी से जो कुछ तुम देते हो लेना पड़ता है। अगर उनके हाथ में मैं यह कहकर कुछ रूपै न दूँ कि ‘पारस बाबू ने दिया है’ तो वे बिगड़ने लगती हैं और कहती हैं कि ‘ऐसे सर्दार का आना किस काम का जो बिना कुछ दिए चला जाए!’

मैंने तुमसे अभी तक तो साफ-साफ नहीं कहा, आज जिक्र आने पर कहती हूँ कि उन्हें खुश करने के लिए मुझे बड़ी-बड़ी तरकीबें करनी पड़ती हैं। और सर्दारों से जो कुछ मिलता है उसका पूरा-पूरा हाल तो उन्हें मालूम हो ही नहीं सकता, इससे उन रकमों से मैं बहुत कुछ बचा रखती हूँ। जिस दिन तुम बिना कुछ दिए चले जाते हो उस दिन अपने पास से उन्हें कुछ देकर तुम्हारा दिया हुआ बता देती हूँ, यही सबब है कि वह ज्यादे चीं-चपड़ नहीं कर सकतीं।

पारसनाथ: यह तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम मुझे जी-जान से चाहती हो और मुझ पर मेहरबानी रखती हो मगर क्या करूँ लाचार हूँ! तो भी इस बात की कोशिश करूँगा कि जब तुम्हारे यहाँ आऊँ, तुम्हारे वास्ते कुछ-न-कुछ जरूर लेता आऊँ।

बाँदी : अजी रहो भी, तुम तो पागल हुए जाते हो! इसी से मैं तुम्हें सब हाल नहीं कहती थी, जब मैं उन्हें किसी-न-किसी तरह खुश कर ही लेती हूँ, तो फिर तुम्हें तशद्दुद करने की क्या जरूरत है?

इसी प्रकार की बातें दोनों में हो रही थीं कि एक नौजवान लौंडी जो घर-भर को बल्कि दुनिया की हर एक चीज को एक ही निगाह (आँख) से देखती थी, मटकती हुई आ पहुँची और बाँदी से बोली, ”बीबी, नीचे छोटे नवाब साहब आए हैं!”

बाँदी : (चौंककर) अरे आज क्या है! कहाँ बैठे हैं?

लौंडी : अम्मा ने उन्हें पूरब वाली कोठरी में बैठाया है और आप भी उन्हीं के पास बैठी हैं।

बाँदी : अच्छा तू चल, मैं अभी आती हूँ! (पारसनाथ की तरफ देख के) बड़ी मुश्किल हुई अगर मैं उनके पास न जाऊँ तो भी आफत, कहें कि ‘लो साहब, रंडी का दिमाग नहीं मिलता!’ इतना ही नहीं, बेइज्जती करने के लिए तैयार हो जाएँ।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, ऐसा न करना चाहिए, लो मैं जाता हूँ, अब तुम भी जाओ। (उठते हुए) ओफ, बड़ी देर हो गई!

बाँदी : पहिले वादा कर लो कि अब कब मिलोगे?

पारसनाथ: कल तो नहीं मगर परसों जरूर मैं आऊँगा।

बाँदी : मेरे सर पर हाथ रखो।

पारसनाथ: (बाँदी के सर पर हाथ रखके) तुम्हारे सर की कसम, परसों जरूर आऊँगा।

दोनों वहाँ से उठ खड़े हुए और निचले खंड में आए। पारसनाथ सदर दरवाजे से होता हुआ अपने घर रवाना हुआ और बाँदी उस कोठरी में चली गई, जिसमें नवाब साहब के बैठाए जाने का हाल लौंडी ने कहा था। दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था और कोठरी के अंदर बाँदी की माँ के सिवाय दूसरा कोई न था। नवाब के आने का तो बहाना-ही-बहाना था। बाँदी को देखकर उसकी माँ ने पूछा, ”गया?”

बाँदी : हाँ, गया। कमबख्त जब आता है, उठने का नाम ही नहीं लेता!

बाँदी की माँ : क्या करेगी बेटी! हम लोगों का काम ही ऐसा ठहरा। अब जाओ कुछ खा-पी लो, हरनंदन बाबू आते ही होंगे, इसीलिए मैंने नवाब साहब का बहाना करवा भेजा था।

बाँदी और उसकी माँ धीरे-धीरे बातें करती खाने के लिए चली गईं।

आधे घंटे के अंदर ही छुट्टी पाकर दोनों फिर उसी कोठरी में आईं और बैठकर यों बातें करने लगीं-

बाँदी : चाहे जो हो मगर सरला किसी दूसरे के साथ शादी न करेगी।

बाँदी की माँ : (हँसकर) दूसरे की बात जाने दो, उसे खास हरिहरसिंह के साथ शादी करनी पड़ेगी, जिसकी सूरत-शक्ल और चाल चलन को वह सपने में भी पसंद नहीं करती!

पाठक! हरिहरसिंह उसी सवार का नाम था, जिसका जिक्र उस उपन्यास के पहिले बयान में आ चुका है और जो बाँदी रंडी से उस समय मिला था जब वह नाचने-गाने के लिए हरनंदनसिंह के घर जा रही थी।

बाँदी अपनी माँ की बातें सुनकर कुछ देर तक सोचती रही और इसके बाद बोली, ‘लेकिन ऐसा न हुआ तब?

बाँदी की माँ : तब पारसनाथ को कुछ भी फायदा न होगा।

बाँदी : पारसनाथ को तो सरला की शादी किसी दूसरे के साथ हो जाने ही से फायदा हो जाएगा, चाहे वह हरिहरसिंह हो चाहे कोई और हो मगर हो पारसनाथ का कोई दोस्त ही।

बाँदी की माँ : अगर ऐसा न हुआ तो वसीयतनामे में झगड़ा हो जाएगा।

बाँदी : अगर सरला का बाप पहिला वसीयतनामा तोड़कर दूसरा वसीयतनामा लिखे, तब?

बाँदी की माँ : इसी खयाल से तो मैंने पारसनाथ से कहा था कि सरला की शादी लालसिंह के जीते-जी न होनी चाहिए और इस बात को वह अच्छी तरह समझ भी गया है।

बाँदी : मगर लालसिंह बड़ा ही काँइयाँ है।

बाँदी की माँ : ठीक है, मगर वह पारसनाथ के फेर में उस वक्त आ जाएगा जब वह उसे यहाँ लाकर तुम्हारे पास बैठे हुए हरनंदन का मुकाबला करा देगा।

बाँदी: लालसिंह जब यहाँ हरनंदन बाबू को देखेगा तो वह उन्हें बिना टोके कभी न रहेगा, और अगर टोकेगा तो हरनंदन बाबू को विश्वास हो जाएगा कि बाँदी ने मेरे साथ दगा की।

बाँदी की माँ : नहीं -नहीं, हरनंदन बाबू को ऐसा समझने का मौका कभी न देना चाहिए ! मगर यही तो हम लोगों की चालाकी है! हमें दोनों तरफ से फायदा उठाना और दोनों को अपना आसामी बनाए रखना ही उचित है।

बाँदी : तो फिर क्या तरकीब की जाए?

बाँदी की माँ : हरनंदन बाबू को सरला का पता बताना और लालसिंह को हरनंदन की सूरत दिखाना, ये दोनों काम एक ही समय में होने चाहिए। इसके बाद हम लोग लालसिंह से बिगड़ जाएँगे और उसे यहाँ से फौरन निकल जाने के लिए कहेंगे, उस समय हरनंदन बाबू को हम लोगों पर शक न होगा।

बाँदी: मगर इसके अतिरिक्त इस बात की उम्मीद कब है कि हरनंदन बाबू से बहुत दिनों तक फायदा होता रहेगा?

बाँदी की माँ : (मुस्कराकर) अरे हम लोग बड़े-बड़े जतियों को मुरुंडा कर लेती हैं, हरनंदन हैं क्या चीज? अगर मेरी तालीम का असर तुझ पर पड़ता रहेगा तो यह कोई बड़ी बात न होगी। .

बाँदी : कोशिश तो जहाँ तक हो सकेगा करूँगी, मगर सुनने में बराबर यही आता है कि हरनंदन बाबू को गाने-बजाने का या रंडियों से मिलने का कुछ भी शौक नहीं है, बल्कि वह रंडियों के नाम से चिढ़ता है।

बाँदी की माँ : ठीक है, इस मिजाज के सैकड़ों आदमी होते हैं और हैं, मगर उनके खयालों की मजबूती तभी तक कायम रहती है जब तक वे किसी-न-किसी तरह हम लोगों के घर में पैर नहीं रखते , और जहाँ एक दफे हम लोगों के आँचल की हवा उन्हें लगी तहाँ उनके खयालों की मजबूती में फर्क पड़ा! एक-दो कौन कहे पचासों जती और ब्रह्मचारियों की खबर तो मैं ले चुकी हूँ। हाँ अगर तेरे किए कुछ हो न सके तो बात ही दूसरी है।

इसी किस्म की बातें हो रही थीं कि लौंडी ने हरनंदन बाबू के आने की खबर दी। सुनते ही बाँदी घबराहट के साथ उठ खड़ी हुई और बीस-पच्चीस कदम आगे बढ़कर बड़ी मुहब्बत और खातिरदारी का बर्ताव दिखाती हुई उसी कोठरी के दरवाजे तक ले आई, जिसमें बैठकर अपनी माँ से बातें कर रही थी और जहाँ उसकी माँ सलाम करने की नीयत से खड़ी थी।

अस्तु, बाँदी की माँ ने हरनंदन बाबू को झुककर सलाम करने के बाद बाँदी से कहा, ‘बाँदी! आपको यहाँ मत बैठाओ जहाँ अक्सर लोग आते -जाते रहते हैं बल्कि ऊपर बँगले ही में ले जाओ क्योंकि वह आप ही के लायक है और आपको पसंद भी है।‘

इतना कहकर बाँदी की माँ हट गई और बाँदी ‘हाँ ऐसा ही करती हूँ’, कहकर हरनंदन बाबू को लिए ऊपरवाले उसी बँगले में चली गई जिसमें थोड़ी देर पहिले पारसनाथ बैठकर बाँदी के साथ ‘चारा-बदलोअल’ कर चुका था।

हरनंदन बाबू बड़ी इज्जत और जाहिरी मुहब्बत के साथ बैठाए गए और इसके बाद उन दोनों में यों बातचीत होने लगी-

बाँदी : कल तो आपने खूब छकाया! दो बजे तक मैं बराबर बैठी इंतजार करती रही, आखिर बड़ी मुश्किल से नींद आई, सो नींद में भी बराबर चौंकती रही।

हरनंदन : हाँ, एक ऐसा टेढ़ा काम आ पड़ा था कि मुझे कल बारह बजे रात तक बाबू जी ने अपने पास से उठने न दिया, उस समय और भी कई आदमी बैठे हुए थे।

बाँदी : तभी ऐसा हुआ! मैं भी यही सोच रही थी कि आप बिना किसी भारी सबब के वादाखिलाफी करनेवाले नहीं हैं।

हरनंदन : मैं अपने वादे का बहुत बड़ा खयाल रखता हूँ और किसी को यह कहने का मौका नहीं दिया चाहता कि हरनंदन वादे के सच्चे नहीं हैं।

बाँदी : इस बारे में तो तमाम जमाना आपकी तारीफ करता है। मुझे आप ऐसे सच्चे सर्दार की सोहबत का फख्र है। अभी कल मेरे यहाँ बी इमामीजान आई थीं। बात-ही-बात में उन्होंने मुझे कह ही तो दिया कि ‘हाँ बाँदी, अब तुम्हारा दिमाग आसमान के नीचे क्यों उतरने लगा! हरनंदन बाबू ऐसे सच्चे सर्दार को पाकर तुम जितना घमंड करो थोडा है!’ मैं समझ गई कि यह डाह से ऐसा कह रही है।

हरनंदन : (ताज्जुब की सूरत बनाकर) इमामीजान को मेरा हाल कैसे मालूम हुआ? क्या तुमने कह दिया था?

बाँदी : (जोर देकर) अजी नहीं, मैं भला क्यों कहने लगी थी? यह काम उसी दुष्ट पारसनाथ का है। उसी ने तुम्हें कई जगह बदनाम किया है। मैं तो जब भी उसकी सूरत देखती हूँ मारे गुस्से के आँखों में खून उतर आता है, यही जी चाहता है कि उसे कच्चा ही खा जाऊँ, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ, तुम्हारे काम का खयाल करके रुक जाती हूँ। कल वह फिर मेरे यहाँ आया था, मैंने अपने क्रोध को बहुत रोका, मगर फिर भी जुबान चल ही पड़ी, बात ही बात में कई जली-कटी कह गई।

हरनंदन : लेकिन अगर उससे ऐसा ही सूखा बर्ताव रखोगी तो मेरा काम कैसे चलेगा?

बाँदी : आप ही के काम का खयाल तो मुझे उससे मिलने पर मजबूर करता है, अगर ऐसा न होता तो मैं उसकी वह दुर्गति करती कि वह भी जन्म-भर याद करता। मगर उसे आप पूरा बेहया समझिए, तुरंत ही मेरी दी हुई गालियों को बिलकुल भूल जाता है और खुशामदें करने लगता है। कल मैंने उसे विश्वास दिला दिया कि मुझसे और आप (हरनंदन) से लड़ाई हो गई और अब सुलह नहीं हो सकती, अब यकीन है कि दो-तीन दिन में आपका काम हो जाएगा।

हरनंदन : अरे हाँ, परसों उसी कमबख़्त की बदौलत एक बड़ी मजेदार बात हुई।

बाँदी : (और आगे खिसककर और ताज्जुब के साथ) क्या, क्या?

हरनंदन : उसी के सिखाने—पढ़ाने से परसों लालसिंह ने एक आदमी मेरे बाप के पास भेजा। उस समय जबकि-उस आदमी से और मेरे बाप से बातें हो रही थीं, इत्तिफाक से मैं भी वहाँ जा पहुँचा। यद्यपि मेरा इरादा तुरंत लौट पड़ने का था मगर मेरे बाप ने मुझे अपने पास बैठा लिया, लाचार उन दोनों की बातें सुनने लगा। उस आदमी ने लालसिंह की तरफ से मेरी बहुत-सी शिकायतें कीं और बात-बात में यही कहता रहा कि ‘हरनंदन बाबू तो बाँदी रंडी को रखे हुए हैं और दिन-रात उसी के यहाँ बैठे रहते हैं, ऐसे आदमी को हमारी लड़की के गायब हो जाने का भला क्या रंज होगा?’

मेरे पिता पहिले तो चुपचाप बैठे देर तक ऐसी बातें सुनते रहे, मगर जब उनको हद से ज्यादे गुस्सा चढ़ आया तब उस आदमी से डपटकर बोले, ”तुम जाकर लालसिंह को मेरी तरफ से कह दो कि अगर मेरा लड़का हरनंदन ऐयाश है तो तुम्हारे, बाप का क्या लेता है? तुम्हारी लड़की जाए जहन्नुम में और अब अगर वह मिल भी जाए तो मैं अपने लड़के की शादी उससे नहीं कर सकता।

जो नौजवान औरत इस तरह बहुत दिनों तक घर से निकलकर गायब रहे वह किसी भले आदमी के घर में ब्याहता बनकर रहने लायक नहीं रहती! अब सुन लो कि मेरे लड़के ने खुल्लमखुला बाँदी रंडी को रख लिया है और उसे ‘बहुत जल्दी यहाँ ले आवेगा ! बस तुम तुरंत यहाँ से चले जाओ, मैं तुम्हारा मुँह देखना नहीं चाहता !!”

इतना सुनते ही वह आदमी उठकर चला गया और तब मेरे बाप ने मुझसे कहा, ”बेटा ! अगर तुम अभी तक बाँदी से कुछ वास्ता न भी रखते थे। तो अब खुल्लमखुल्ला उसके पास आना-जाना शुरू कर दो और अगर तुम्हारी ख्वाहिश हो तो तुम उसे नौकर भी रख लो या यहाँ ले आओ। मैं उसके लिए पाँच सौ रुपए महीने का इलाका अलग कर दूँगा बल्कि थोड़े दिन बाद वह इलाका उसे लिख भी दूँगा, जिसमें वह हमेशा आराम और चैन से रहे। इसके अलावा और जो कुछ तुम्हारी इच्छा हो उसे दो, मैं तुम्हारा हाथ कभी न रोकूँगा–देखें तो सही लालसिंह हमारा क्या कर लेता है!!”

बाँदी : (बड प्यार से हरनंदन का पंजा पकड़कर) सच कहना ! क्या हकीकत में ऐसा हुआ?

हरनंदन : (बाँदी के सर पर हाथ रख के) तुम्हारे सर की कमस, भला मैं तुमसे झूठ बोलूँगा ! तुमसे क्या मैंने कभी और किसी से भी आज तक कोई बात भला झूठ कही है?

बाँदी : (खुशी से) नहीं -नहीं, इस बात को मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूँ कि आप कभी किसी से झूठ नहीं बोलते!

हरनंदन : और फिर इस बात का विश्वास तो और लोगों को भी थोड़ी ही देर में हो जाएगा क्योंकि आज मैं किसी से लुक-छिप के यहाँ नहीं आया हूँ बल्कि खुल्लमखुल्ला आया हूँ। मेरे साथ एक सिपाही और एक नौकर भी आया है जिन्हें मैं नीचे दरवाजे पर इसलिए छोड़ आया हूँ कि बिना मेरी मर्जी के किसी को ऊपर न आने दें।

बाँदी : (ताज्जुब से) हाँ !!

हरनंदन : (जोर देकर) हाँ ! और आज मैं यहाँ बहुत देर तक बैठूँगा, बल्कि तुम्हारा मुजरा भी सुनूँगा। डेरे पर मैं सभों से कह आया हूँ कि ‘मैं बाँदी के यहाँ जाता हूँ, अगर कोई जरूरत आ पड़े तो वहीं मुझे खबर देना।’ मैं तो बाप का हुक्म पाते ही इस तरफ को रवाना हुआ और यहाँ पहुँचकर बड़ी आजादी के साथ घूम रहा हूँ। आज से तुम मुझे अपना ही समझो और विश्वास रखो कि तुम बहुत जल्द अपने को किसी और ही रंग-ढंग में देखोगी।

बाँदी : (खुशी से हरनंदन के गले में हाथ डाल के) यह तो तुमने बड़ी खुशी की बात सुनाई! मगर रुपए-पैसे की मुझे कुछ भी चाह नहीं है, मैं तो सिर्फ तुम्हारे साथ रहने में खुश हूँ, चाहे तुम जिस तरह रखो।

हरनंदन : मुझे भी तुमसे ऐसी ही उम्मीद है। अब जहाँ तक जल्द हो सके तुम उस काम को ठीक करके पारसनाथ को जवाब दे दो और इस मकान को छोड़कर किसी दूसरे आलीशान मकान में रहने का बंदोबस्त करो। अब मुझे सरला का पता लगाने की कोई जरूरत तो नहीं रही, मगर फिर भी मैं अपने बाप को सच्चा किए बिना नहीं रह सकता जिसने मेहरबानी करके मुझे तुम्हारे साथ वास्ता रखने के लिए इतनी आजादी दे रखी है और तुम्हें भी इस बात का खयाल जरूर होना चाहिए। वे चाहते हैं कि सरला लालसिंह के घर पर पहुँच जाए और तब लालसिंह देखें कि हरनंदन सरला के साथ शादी न करके बाँदी के साथ कैसे मजे में जिंदगी बिता रहा है।

बाँदी : जरूर ऐसा होना चाहिए ! मैं आपसे वादा करती हूँ कि चार दिन के अंदर ही सरला का पता लगाके पारसनाथ का मुँह काला करूँगी!

हरनंदन : (बाँदी की पीठ पर हाथ फेरके) शाबाश !!

बाँदी : यद्यपि आपको अब किसी का डर नहीं रहा और बिलकुल आजाद हो गए हैं, मगर मैं आपको राय देती हूँ कि दो-तीन दिन अपनी आजादी को छिपाए रखिए, जिसमें पारसनाथ से मैं अपना काम बखूबी निकाल लूँ।

हरनंदन : खैर जैसा तुम कहोगी वैसा ही करूँगा, मगर इस बात को खूब समझ रखना कि आज से तुम हमारी हो चुकीं, तुम्हारा बिलकुल खर्च मैं अदा करूँगा और तुम्हें किसी के आगे हाथ फैलाने का मौका न दूँगा। आज से मैं तुम्हारा मुशाहरा मुकर्रर कर देता हूँ और तुम भी गैरों के लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर दो।

बाँदी : जो कुछ आपका हुक्म होगा मैं वही करूँगी और जिस तरह रखोगे रहूँगी। मेरा तो कुछ ज्यादे खर्च नहीं है और न मुझे रुपए-पैसे की लालच ही है मगर क्या करूँ अम्मा के मिजाज से लाचार हूँ और उनका हाथ भी जरा शाह-खर्च है।

हरनंदन : तो हर्ज ही क्या है, जब रुपए-पैसे की कुछ कमी हो तो ऐसी बातों पर ध्यान देना चाहिए। जब तक मैं मौजूद हूँ तब तक किसी तरह की फिक्र तुम्हारे दिल में पैदा नहीं हो सकती और न तुम्हारा कोई शौक पूरा हुए बिना रह सकता है, अच्छा जरा अपनी अम्मा को तो बुला लाओ।

बाँदी : बहुत अच्छा, मैं खुद जाकर उन्हें अपने साथ ले आती हूँ।

इतना कहकर बाँदी हरनंदन के मोढ़े पर दबाव डालती हुई उठ खड़ी हुई और कमर को बल देती हुई कोठरी के बाहर निकल गई। थोड़ी देर तक हमारे हरनंदन बाबू को अपने विचार में डूबे रहने का मौका मिला और इसके बाद अपनी अम्माजान को लिए हुए बाँदी आ पहुँची। बाँदी हरनंदन से कुछ दूर हटकर बैठ गई और बुढ़िया आफत की पुड़िया ने इस तरह बातें करना शुरू किया-

बुढ़िया: खुदा सलामत रखे, आले-आले मरातिब हों, मैं तो दिन-रात दुआ करती हूँ, कहिए क्या हुक्म है?

हरनंदन : बड़ी बी ! मैं तुमसे एक बात कहा चाहता हूँ।

बुढ़िया : कहिए, कहिए, क्या बाँदी से कुछ बेअदबी हो गई है?

हरनंदन : नहीं-नहीं, बाँदी बेचारी ऐसी बेअदब नहीं है कि उससे किसी तरह का रंज पहुँचे। मैं उससे बहुत खुश हूँ और इसीलिए मैं उसे हमेशा अपने पास रखना चाहता हूँ।

बुढिया : ठीक है, अगर आप ऐसा अमीर इसे नौकर न रखेगा तो रखेगा कौन? और अमीर लोग तो ऐसा करते ही हैं! मैं तो पहिले ही सोचे हुए थी कि आप ऐसे अमीर उठाईगीरों की तरह चूल्हा रखना पसंद न करेंगे।

हरनंदन : मैं नहीं चाहता कि जिसे मैं अपना बनाऊँ उसे दूसरे के आगे हाथ फैलाना पड़े या कोई दूसरा उसे उँगली भी लगावे।

बुढ़िया : ठीक है, ठीक है, भला ऐसा कब हो सकता है? जब आपकी बदौलत मेरा पेट भरेगा तो दूसरे कमबख़्त को आने ही क्यों दूँगी। आप ही ऐसे सर्दार की खिदमत में रहने के लिए. तो हजारों रूपै खर्च करके मैंने इसे आदमी बनाया है, तालीम दिलवाई हैं, और सच तो यों है कि यह आपके लायक है भी। मैं बड़े तरद्दुद में पड़ी रहती थी और सोचती थी कि यह तो दिन -रात आपके ध्यान में डूबी रहती है और मैं कर्ज के बोझ से दबी जा रही हूँ, आखिर काम कैसे चलेगा? चलो अब मैं हलकी हुई, आप जानें और बाँदी जाने, इसकी इज्जत-हुरमत सब आपके हाथ में है। |

हरनंदन : भला बताओ तो सही कितने रूपै महीने में तुम्हारा अच्छी तरह गुजर हो सकता है? :

बुढिया : ऐ हजूर ! भला मैं क्या बताऊँ? आपसे कौन-सी बात छिपी हुई है? घर में दस आदमी खानेवाले ठहरे, तिस पर महँगी के मारे नाकों में दम हो रहा है। हाथ का फुटकर खर्च अलग ही दिन-रात परेशान किए रहता है। अभी कल की बात है कि छोटे नवाब साहब इसे दो सौ रूपै महीना देने को राजी थे, मगर नाच -मुजरा सब बंद करने को कहते थे, मैंने मंजूर न किया क्योंकि नाच -मुजरे से सैकड़ों रुपए आ जाते हैं तब कहीं घर का काम मुश्किल से चलता है, खाली दो सौ रुपए से क्या हो सकता है।

हरनंदन : खैर नाच-मुजरा तो मेरे वक्त में भी बंद करना ही पड़ेगा मगर आदत बनी रहने के खयाल से खुद सुना करूँगा और उसका इनाम अलग दिया करूँगा। अभी तो मैं इसके लिए चार सौ रुपए महीने का इंतजाम कर देता हूँ, फिर पीछे देखा जाएगा.। मैंने अपना इरादा और अपने बाप का हाल भी बाँदी से कह दिया है, तुम सुनोगी तो खुश होवोगी। (बीस अशरफियाँ बुढ़िया के आगे फेंककर) लो इस महीने की तनखाह पेशगी दे जाता हूँ। अब तुम्हें कोई दूसरा आलीशान मकान भी किराए ले लेना चाहिए जिसका किराया मैं अलग से दूँगा।

बुढ़िया : (अशर्फियों को खुशी-खुशी उठाकर) बस-बस-बस, इतने में मेरे घर का खर्च बखूबी चल जाएगा, नाच-मुजरे की भी जरूरत न रहेगी। बाकी रहा गहना-कपड़ा, सो आप जानिए और बाँदी जाने, जिस तरह रखिएगा रहेगी। अब मैं एक ही दो दिन में अपना और बाँदी का गहना बेचकर कर्जा भी चुका देती हूँ, क्योंकि ऐसे सर्दार की खिदमत में रहनेवाली बाँदी के घर किसी तगादगीर का आना अच्छा नहीं है और मैं यह बात पसंद नहीं करती।

इतना कहकर बुढ़िया उठ गई और हरनंदन बाबू ने उसकी आखिरी बात का कुछ जवाब न दिया।

बुढिया के चले जाने के बाद घंटे-भर तक हरनंदन बाँदी के बनावटी प्यार और नखरे का आनंद लेते रहे और इसके बाद उठकर अपने डेरे की तरफ रवाना हुए।

काजर की कोठरी : खंड-4

दिन आधे घंटे से ज्यादे बाकी है। आसमान पर कहीं-कहीं बादल के गहरे टुकड़े दिखाई दे रहे हैं और साथ ही इसके बरसाती हवा भी इस बात की खबर दे रही है कि यही टुकड़े थोड़ी देर में इकट्ठे होकर जमीन को तराबोर कर देंगे। इस समय हम अपने पाठकों को जिस बाग में ले चलते हैं, वह एक तो मालियों की कारीगरी और शौकीन मालिक की निगरानी तथा मुस्तैदी के सबब खुद ही रौनक पर रहा करता है, दूसरे, आजकल के मौसिम ने उसके जीवन को और भी उभार रखा है।

यह बाग जिसके बीच में एक सुंदर कोठी भी बनी हुई है, हमारे हरनंदन बाबू के सच्चे और दिली दोस्त रामसिंह का है और इस समय वे स्वयं हरनंदन बाबू के हाथ में हाथ दिए और धीरे-धीरे टहलते हुए इस बाग के सुंदर गुलबूटे और क्यारियों का आनंद ले रहे हैं। देखनेवाला तो यही कहेगा कि ‘ये दोनों मित्र इस दुनिया का सच्चा सुख लूट रहे हैं’ मगर नहीं, इस समय ये दोनों एक भारी चिंता में डूबे हुए हैं और किसी कठिन मामले की कार्रवाई पर विचार कर रहे हैं जो कि आगे चलकर उनकी बातचीत से आपको मालूम होगा।

हरनंदन : तुम कहते तो हो मगर ज्यादे खुल चलना भी मुझे पसंद नहीं है।

रामसिंह : ज्यादे खुल चलना जमाने की निगाह में नहीं सिर्फ बाँदी और पारसनाथ की निगाह में।

हरनंदन : हाँ, सो तो होगा ही और होता भी है मगर इस बात की खबर पहिले ही बाबू लालसिंह को ऐसी खूबी के साथ हो जानी चाहिए कि उनके दिल में रंज और शक को जगह न मिलने पावे और वे अपनी जान की हिफाजत का पूरा-पूरा बंदोबस्त भी कर रक्खें, बल्कि मुनासिब तो यह है कि वे कुछ दिन के लिए मुर्दों में अपनी गिनती करा लें।

रामसिंह : (आवाज में जोर देकर) बेशक ऐसा ही होना चाहिए! यह बात परसों ही मेरे दिल में पैदा हुई थी और इस मामले पर दो दिन तक मैंने अच्छी तरह गौर करके कई बातें अपने पिता से आज ही सवेरे कही भी हैं। उन्होंने भी मेरी बात बहुत पसंद की और वादा किया कि ‘कल लालसिंह से मिलने के लिए जाएँगे और वहाँ पहुँचने के पहिले चाचा जी (कल्याणसिंह) से मिलकर अपना विचार भी प्रगट कर देंगे।’

हरनंदन : हाँ, तब कोई चिंता नहीं है, यद्यपि लालसिंह बड़ा उजड्डी और जिद्दी आदमी है, परंतु आशा है कि चाचा जी (रामसिंह के पिता) की बातें उसके दिल में बैठ जाएँगी।

रामसिंह : आशा तो ऐसी ही है। हाँ, मैं यह कहना तो भूल ही गया कि आज मैं महाराज से भी मिल चुका हूँ। ईश्वर की कृपा से जो कुछ मैं चाहता था, महाराज ने उसे स्वीकार कर लिया और तुम्हें बुलाया भी है। सच तो यों है कि महाराज मुझ पर बड़ी ही कृपा रखते हैं।

हरनंदन : निःसंदेह ऐसा ही है और जब महाराज से इतनी बातें हो चुकी हैं तो हम अपना काम बड़ी खूबी के साथ निकाल लेंगे। अच्छा मैं एक बात तुमसे और कहूँगा।

रामसिंह : वह क्या?

हरनंदन : एक आदमी ऐसा होना चाहिए, जिस पर अपना विश्वास हो और जो अपने तौर पर जाकर बाँदी के यहाँ नौकरी कर ले और उसका एतबारी बन जाए।

रामसिंह : ठीक है, मैं तुम्हारा मतलब समझ गया। मैं अपने असामियों ही में से बहुत जल्द किसी ऐसे आदमी का बंदोबस्त करूँगा। भरसक किसी औरत ही का बंदोबस्त किया जाएगा। (कुछ सोचकर) मगर मेरे यार ! इस बात का खटका मुझे हरदम लगा रहता है कि कहीं बाँदी तुम्हें अपने काबू में न कर ले! देखा चाहिए, इस कालिख से तुम अपने पल्ले को कहाँ तक बचाए रहते हो!

हरनंदन : मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकता, मगर नित्य सवेरे उठते ही पहिले ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस बुरी हवा से बचाए रहियो।

रामसिंह : ईश्वर ऐसा ही करे! (आसमान की तरफ देखकर) बादल तो बेहतर घिरे आ रहे हैं।

हरनंदन: हाँ चलो, कोठी की छत पर बैठकर प्रकृति की शोभा देखें।

रामसिंह: अच्छी बात है, चलो।

दोनों मित्र धीरे-धीरे बातें करते हुए कोठी की तरफ रवाना हुए।

काजर की कोठरी : खंड-5

रात दो घंटे से कुछ ज्यादे जा चुकी है। लालसिंह अपने कमरे में अकेला बैठा कुछ सोच रहा है। सामने एक मोमी शमादान जल रहा है तथा कलम-दवात और कागज भी रखा हुआ है। कभी-कभी जब कुछ खयाल आ जाता है, तो उस कागज पर दो-तीन पंक्तियाँ लिख देता है और फिर कलम रखकर कुछ सोचने-विचारने लगता है। कमरे के दरवाजे बंद हैं और पंखा चल रहा है, जिसकी डोरी कमरे से बाहर एक खिदमतगार के हाथ में है। यकायक पंखा रुका और लालसिंह ने सर उठाकर सदर दरवाजे की तरफ देखा। कमरे का दरवाजा खुला और उसने अपने पंखा खिदमतगार को हाथ में एक पुर्जा लिए हुए कमरे के अंदर आते देखा।

खिदमतगार ने पुर्जा लालसिंह के आगे रख दिया जिसने बड़े गौर से पुर्जा पढ़ने के बाद पहिले तो नाक-भौं चढ़ाया तथा फिर कुछ सोच -विचार कर खिदमतगार से कहा, ” अच्छा, आने दे।” इतना कह उसने वह कागज जिस पर लिख रहा था, उठाकर जेब में रख लिया।

खिदमतगार चला गया और उसके बाद ही सूरजसिंह ने कमरे के अंदर पैर रखा। उन्हें देखते ही लालसिंह उठ खड़ा हुआ और मजबूरी के साथ जाहिरी खातिरदारी का बर्ताव करके साहब-सलामत के बाद अपने पास बैठा लिया। इस समय सूरजसिंह अपनी मामूली पौशाक तो पहिरे हुए थे मगर ऊपर से एक बड़ी स्याह चादर से अपने को ढाँके हुए थे।

लालसिंह: आज तो आपने मुझ बदनसीब पर बड़ी कृपा की।

सूरजसिंह: (मुस्कराते हुए) बदनसीब कोई दूसरा ही कमबख़्त होगा, मैं तो इस समय एक खुशनसीब और बुद्धिमान आदमी की बगल में बैठा हुआ बातें कर रहा हूँ, जिससे मिलने के लिए आज चार दिन से सोच-विचार में पड़ा हुआ था।

लालसिंह: (कुछ चौंककर) ताज्जुब है कि आप एक ऐसे आदमी को खुशनसीब कहते हैं, जिसकी एकलौती लड़की ठीक ब्याह वाले दिन इस बेदर्दी के साथ मारी गई है कि जिसकी कैफियत सुनने से दुश्मन को भी रंज हो, और साथ ही इसके जिसके समधी तथा दामाद की तरफ से ऐसा बर्ताव हुआ हो, जिसके बर्दाश्त की ताकत कमीने से कमीना आदमी भी न रख सकता हो ! .

सूरजसिंह: यह सब आपका भ्रम है और जो कुछ आप कह गए हैं, उसमें से एक बात भी सच नहीं है।

लालसिंह: (आश्चर्य से) सो कैसे? क्या सरला मारी नहीं गई? और क्या उस समय आपके हरनंदन बाबू बाँदी रंडी के साथ खुशियाँ मनाते हुए.. ।

सूरजसिंह: (बात काट के) नहीं, नहीं, नहीं! ये दोनों बातें झूठ हैं और आज यही साबित करने के लिए मैं आपके पास आया हूँ।

लालसिंह: कहने के लिए तो मुझे भी लोगों ने यही कहा था कि सरला के मरने में शक है, मगर बिना किसी तरह का सबूत पाए ऐसी बातों का विश्वास कब हो सकता है!

सूरजसिंह : ठीक है, मगर मैं बिना किसी तरह का सबूत पाए ऐसी बातों पर जोर देनेवाला आदमी भी तो नहीं हूँ।

लालसिंह : तो क्या किसी तरह का सबूत इस समय आपके पास मौजूद भी है, जिससे मुझे विश्वास हो जाए कि सरला मारी नहीं गई और हरनंदन ने जो कुछ किया वह उचित था?

सूरजसिंह: ‘जी हाँ।’ इतना कहकर सूरजसिंह ने एक पुर्जा निकालकर लालसिंह के आगे रख दिया। लालसिंह ने उस पुर्जे को बड़े गौर से पढ़ा और ताज्जुब में आकर सूरजसिंह का मुँह देखने लगा।

सूरजसिंह: कहिए, इन हरूफों को आप पहचानते हैं?

लालसिंह: बेशक! बहुत अच्छी तरह पहचानता हूँ!

सूरजसिंह : और इसे आप मेरी बातों का सबूत मान सकते हैं या नहीं?

लालसिंह: मानना ही पड़ेगा, मगर सिर्फ एक बात का सबूत।

सूरजसिंह: दूसरी बात का सबूत भी आप इसी को मानेंगे, मगर उसके बारे में मुझे कुछ जुबानी भी कहना होगा।

लालसिंह: कहिए, कहिए, मैं आपकी बातों पर विश्वास करूँगा, क्योंकि आप प्रतिष्ठित पुरुष हैं और निःसंदेह आपको मेरी भलाई का खयाल है। इस समय यह पुर्जा दिखाकर आपने मेरे साथ वैसा ही सलूक किया, जैसा समय की वर्षा का सूखी हुई खेती के साथ होता है।

सूरजसिंह: यह सुनकर आपको ताज्जुब होगा कि बाँदी के पास हरनंदन के बैठने का कारण यह पुर्जा है। इस तत्त्व को बिना जाने ही लोगों ने उसे बदनाम कर दिया। यों तो आपको भी उसके मिजाज का हाल मालूम ही है, मगर ताज्जुब है कि आप भी बिना सोचे-विचारे दुश्मनों की बातों पर विश्वास कर बैठे!

लालसिंह : बेशक ऐसा ही हुआ और लोगों ने मुझे धोखे में डाल दिया। तो क्या यह पुर्जा हरनंदन के हाथ लगा था?

सूरजसिंह: जी हाँ, जिस समय महफिल में नाचने के लिए बाँदी तैयार हो रही थी, उसी समय उसके कपड़े में से गिरे हुए इस पुर्जे को हरनंदन के नौकर ने उठा लिया था। वह नौकर हिंदी अच्छी तरह पढ़ सकता है अस्तु, उसने जब यह पुर्जा पढ़ा तो ताज्जुब में आ गया। यह पुर्जा तो उसने फौरन लाकर अपने मालिक को दे दिया और उसी समय महफिल का रंग बदरंग हो गया, जैसा कि आप सुन चुके हैं। अब आप ही बताइए कि इस पुर्जे को पढ़ के हरनंदन को सब के पहिले क्या करना उचित था?

लालसिंह : (कुछ सोचकर) ठीक है, उस समय बाँदी के पास जाना ही हरनंदन को उचित था, क्योंकि वह नीति-कुशल लड़का है, इस बात को मैं खूब जानता हूँ।

सूरजसिंह : केवल उसी दिन नहीं, बल्कि जब तक हमारा मतलब न निकले तब तक हरनंदन को बाँदी से मेल रखना ही चाहिए।

लालसिंह : ठीक है, मगर यह काम तो हरनंदन के अतिरिक्त कोई और आदमी भी कर सकता है।

सूरजसिंह : बेशक कर सकता है, मगर वही जिसे उतनी ही फिक्र हो जितनी हरनंदन को। इसके अतिरिक्त बाँदी को जो आशा हरनंदन से हो सकती है, वह किसी दूसरे से कैसे हो सकती है?

इस बात का जवाब तो लालसिंह ने कुछ न दिया मगर सूरजसिंह का पंजा, उम्मीद-भरी खुशी और मुहब्बत से पकड़ के बोला, ‘मेरे मेहरबान सूरजसिंह जी! आज आपका आना मेरे लिए बड़ा ही मुबारक हुआ’। यदि आप आकर इन सब भेदों को न खोलते तो न मालूम मेरी क्या अवस्था होती और मेरे नालायक भतीजे किस तरह मेरी हड्डियाँ चबाते।

उड़ती हुई खबरों और भतीजों की रंगीन बातों ने तो मुझे एकदम से उल्लू बना दिया और बेचारे हरनंदन की तरफ से बड़े-बड़े शक मेरे दिल में बैठा दिए, मगर आज आपकी मेहरबानी ने उन स्याह धब्बों को मिटाकर मेरा दिल हरनंदन की तरफ से साफ कर दिया। आज हरनंदन और बाँदी को हाथ में हाथ दिए सरे बाजार टहलता हुआ भी अगर कोई मुझे दिखा दे तो भी मेरे दिल में उसकी तरफ से कोई शक न बैठेगा, हाँ, बेचारी सरला का पता लगना-न-लगना यह आपकी मेहरबानी और मेरे भाग्य के आधीन है।”

सूरजसिंह: बेचारी सरला का पता लगेगा और जरूर लगेगा। हरनंदन ने खुद मुझे अपने बाप के सामने कहा है कि बाँदी ने सरला को दिखा देने का वादा किया है और इस बात का भी निश्चय दिला दिया है कि सरला पारसनाथ के कब्जे में है।

लालसिंह: (चौंककर) पारसनाथ के कब्जे में !!

सूरजसिंह : जी हाँ। इस बात का निश्चय कर लेने के बाद हरनंदन नहीं चाहता था कि बाँदी के घर में कभी पैर रखे, मगर उसके बाप कल्याणसिंह ने उसे बहुत समझाया और बाँदी के साथ चालबाजी करने का रास्ता बताया तथा उस काम में मैंने भी उसे ताकीद की, तब लाचार होकर उसने बाँदी के यहाँ आना-जाना शुरू किया और ऐसा करने के बाद उसे बहुत-सी बातों का पता लगा।

लालसिंह: (कुछ सोचकर) बेशक ऐसा ही होगा, क्योंकि इस काम में पारसनाथ ही मुझसे ज्यादे बातें किया भी करता है।

सूरजसिंह: अगर आप मुनासिब समझें तो वे बातें भी कह सुनावें जो पारसनाथ ने इस विषय में आपसे कही हैं, क्योंकि मैं उन बातों से हरनंदन को होशियार करूँगा और तब वह अपना काम और भी जल्दी तथा खूबसूरती के साथ निकाल सकेगा।

लालसिंह: बेशक मैं उसकी बातें आपको सुनाऊँगा और आपसे राय करूँगा कि अब मुझे क्या करना चाहिए।

इतना कहकर लालसिंह ने पारसनाथ की बिलकुल बातें जो ऊपर के बयानों में लिखी जा चुकी हैं सूरजसिंह से बयान की और इसके बाद पूछा कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिए?’

सूरजसिंह: इस बात को तो आप भी समझते होंगे कि रंडियाँ कैसी चालबाज और शैतान होती हैं तथा बड़े-बड़े घरों को थोड़े ही दिनों में बर्बाद कर देने की शक्ति उनमें कितनी ज्यादे होती है, क्योंकि आप अपनी नौजवानी का कुछ हिस्सा इन लोगों की सोहबत में गँवाकर हर तरह से होशियार हो चुके हैं।

लालसिंह: जी हाँ, मैं इन कमबख़्तों की करतूतों से खूब वाकिफ हूँ। ऐसे ही कोई सरस्वती के कृपा-पात्र होते हैं जो इनके फंदे से अपने को बचा ले पाते हैं नहीं तो केवल लक्ष्मी के कृपा-पात्रों को तो वे लोग लक्ष्मी का वाहन ही बनाकर दम लेती हैं। तिसमें भी उन रंडियों से तो ईश्वर ही बचावे तो कोई बच सकता है जिनके यहाँ नायिकाओं1 की प्रधानता बनी हुई हो।

सूरजसिंह: बस तो इसी से आप समझ लीजिए कि बाँदी के यहाँ जब पारसनाथ और हरनंदन दोनों जाते हैं, तो बाँदी इस बात को जरूर चाहेगी कि जहाँ तक हो सके दोनों ही से रुपए वसूल करे, मगर उसे ज्यादे पक्ष उसी का रहेगा जिससे ज्यादे आमदनी की सूरत देखेगी। ..

लालसिंह : बेशक!

सूरजसिंह : अस्तु, जब तक वह पारसनाथ के रुपए वसूल करने का मौका देखेगी, तब तक उसको अपना दुश्मन बनाने में भी जहाँ तक होगा टालमटोल करती ही रहेगी, इसलिए सब के पहिले काम वही करना उचित है, जिसमें पारसनाथ रुपए के बारे में बार-बार बाँदी से झूठा बनता रहे …

लालसिंह: (बात काटकर) ठीक है, ठीक है, मैं आपका मतलब समझ गया, वास्तव में ऐसा होना ही चाहिए। हाँ, मुझे एक और भी बहुत ही जरूरी बात पर आपसे सलाह करनी है।

सूरजसिंह: मुझे भी अभी आपसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

इसके बाद सूरजसिंह और लालसिंह में घंटे-भर तक बातचीत होती रही, जिसके अंत में दोनों आदमी एक साथ उठ खड़े हुए। लालसिंह ने अपने दरबारी कपड़े पर से उतारकर पहिरे और हाथ में एक मोटा-सा डंडा लिया, जिसके अंदर गुप्ती बँधी हुई थी, इसके बाद दोनों आदमी कमरे के बाहर निकलकर किसी तरफ को रवाना हो गए।

लेखक

  • देवकीनन्दन खत्री

    बाबू देवकीनन्दन खत्री (18 जून 1861-1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर खून, भूतनाथ जैसी रचनाएं की। 'भूतनाथ' को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'तिलिस्म', ऐय्यार' और 'ऐय्यारी' जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं।

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काजर की कोठरी खंड1-5/देवकीनन्दन खत्री

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