नदी अपना मार्ग
स्वयं बनाती है
कोई नहीं पुचकारता
उछालता उसे
कोई उसकी ठेस पर
मरहम नहीं लगाता
दुलारना तो दूर
कोई आंख भर
देखता भी नहीं
तो क्या
नदी रुक जाती है
या हार मान लेती है
कोई उसे मार्ग भी
नहीं बताता
चट्टानों से भिड़ना
उसकी नियति है
और उसे
अपनी नियति या
नियंता से
कोई उलाहना नहीं
उसे तो
स्वीकार्य है
स्वयं का
आत्मसात
यही परिणति है
जो उसे सिंधु की
विशालता से
उसका परिचय
करवाती है
और वह
सर्वस्व न्यौछावर
करने के बावजूद
बिंदु से सिंधु के
अंक में समाहित
हो जाती है
सदा- सर्वदा के लिए
और हो जाती है
परिपूर्ण..
परिणति/डॉ. शिप्रा मिश्रा