हे सूर्य!
तुम इतने प्रखर,
तेजस्वी,तेजपुंज के
आकर होकर भी
हो कितने सहज..
हे आदित्य!
तुम संसार को
नित्य, नूतन,निरंतर
करते हो पुनर्नवा
स्वर्ण- रश्मियों से
हे भास्कर!
अतुल्य,अद्वितीय
आभा- मुकुट से
कृतार्थ करते हो
कण-कण को, क्षण-क्षण..
हे दिनकर!
तुम परितृप्त,परिपूर्ण
पोषित होते हो
हमारी अनभिज्ञ
उपासना,अर्चना से..
हे दिवाकर!
तुम्हारा अस्त होना
कितना मोहक,अभिराम
दृश्य करता उपस्थित
देखते अपलक,अविराम
हे मार्तंड!
तुम्हारे उदय का साक्षी
है संपूर्ण ब्रह्माण्ड
जड़- चेतन,चल- अचल
अंडज से स्थूल पिंडज भी..
हे मरीचि!
तुम्हारी ऊष्मा से
पुष्पित,पल्लवित
स्पन्दित,आच्छादित
सृष्टि के रंग- रूप
हे प्रभाकर!
स्वीकार करते हो
ग्राम्या निर्मित अर्घ्य
हमारा निवेदन मात्र
सूप सुसज्जित नारियल
हे प्रभाकांत!
प्रभा- संपन्न करो
इस अकिंचन,मूल्यहीन
उपेक्षित,परित्यक्त का
अर्थ विहीन नैवेद्य
हे हिरण्यगर्भ!
आबंटित है तुम्हारी
स्नेह- सिक्त कृपा
अखिल विश्व में
समान रूप से
हे अंशुमालि!
चहूँमुखी विस्तार मिले
आयु,बल,यश,वैभव का
प्रकीर्णन,प्रस्फुटन,समादृत
दशों दिशाओं में..