मैंने स्वयं चाहे कम पत्र लिखे हों; पर दूसरों के लिए पत्र – लेखन मेरा कर्तव्य – सा बन गया है। क्या अपना देहात और क्या पहाड़ी ग्राम, सब जगह मेरी स्थिति अर्जीनवीस जैसी हो जाती है।
कहीं कोई दुःखिनी माँ, दूर देश भाग जानेवाले पुत्र को वात्सल्य भरा उद्गार लिख भेजने के लिए विकल है, कहीं कोई ससुराल की बंदिनी बहू, भाई को सावन में आने की स्मृति दिलाने के लिए आतुर है। कभी कोई एकाकिनी गृहिणी, दूर देश में नई गृहस्थी बसा लेने वाले सहधर्मी के पास, कुशल क्षेम भर लिख भेजने का अनुरोध पहुँचाना चाहती है। कभी कोई रोगी, अपनी सहोदरता की दोहाई देकर, नगरस्थ मजदूर सहोदर को रुपया भेजने के लिए विवश करने की इच्छा रखता है। कहीं कोई चाचा रक्त-संबंध के आधार पर भतीजे से बैल खरीदने में सहायता माँगता है। कहीं कोई बहनोई विवाह संबंध का उल्लेख कर साले से, रेहन रखे खेत छुड़ा देने का अनुरोध करता है।
इस प्रकार पत्र- प्रेषकों के वर्ग में सीमातीत विविधता है। पत्र के विषय इतने भिन्न रहते हैं कि कोई पत्र-लेखन कला का विशेषज्ञ भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएगा। फिर मेरी तो इस कला में उतनी भी गति नहीं, जितनी काव्य में एक तुक्कड़ की होती है। पत्र – लेखन – कला में मेरी घोर अपटुता के साथ जब पत्र – प्रेषकों की दुर्बोधता भी मिल जाती है, तब तो यह कार्य और भी कठिन हो उठता है ।
वे सब एक साथ इतना कह चलते हैं कि न वाक्यों में संगति रहती है, न भावों में स्पष्टता। रोकने-टोकने पर वे समझते हैं कि लिखनेवाले में क्षमता नहीं, अतः पत्र का कोई परिणाम न निकलेगा ।
उनकी अटपटी भाषा और उलझे वाक्यों में खोए इतिवृत्त को क्रमबद्ध करना उनके अस्पष्ट और मिश्रित भावों के साथ उसकी संगति बैठाना तथा उन्हें पत्र का जामा पहनाना सहज नहीं है।
इतिवृत्त को आधुनिक शैली के अनुसार पत्र की रूपरेखा देना भी कठिन है, क्योंकि पत्र – लेखन के संबंध में वे ग्रामीण, परंपरा के विशेषज्ञ ही नहीं, उसके कट्टर अनुयायी भी हैं।
प्रत्येक पत्र के ऊपर चाहे श्री गणेशाय नमः लिखा जाए चाहे श्रीराम पर इस प्रस्तावना के बिना पत्र पत्रता नहीं प्राप्त कर सकता। जिन्हें उद्देश्य करके पत्र लिखा जाता है, वे चाहे दीनता में अतुलनीय हों चाहे कुरूपता में अनुपम पर वे सब ‘सिद्ध श्री सर्वोपमायोग्य’ कहकर ही संबोधित किए जा सकते हैं। पत्र के विषय भी लेखक को कम उलझन में नहीं डालते, क्योंकि कथा का एक सूत्र पकड़ते ही अनेक सूत्र हाथ में आ जाते हैं। पत्र – प्रेषक न जाने कितनी अंतःकथाओं के साथ अपनी कथा कहना चाह है। इतना ही नहीं, कथा की अबाध गति से घटनाओं के क्रम का कोई संबंध नहीं रहता; पर अंतःकथाएँ मुख्य वृत्त से अविच्छिन्न संबंध में बँधी रहती हैं। किसी को किसी संबंधी से रुपया चाहिए- इस एक बात को वह आपबीती अनेक घटनाओं के साथ ही कह सकता है और जमींदार महाजन से लेकर घुरहू-मगरू पासी तक सबको अपनी विपन्नावस्था का गवाह बनाकर ही संतोष पा सकता है।
ऐसे पत्र – प्रेषक अनेक अतीत घटनाओं का इतना सजीव विवरण देते चलते हैं कि बेचारा पत्र – लेखक विस्मित हो उठता है । वह क्या लिखे और क्या न लिखे, यह निर्णय उस पर नहीं छोड़ा जाता। वह कुछ गड़बड़ी कर भी दे तो अंत में वे पत्र सुनाने के लिए अनुनय-विनय कर-करके उसे और भी अधिक असमंजस में डाल देते हैं। जो कुछ वे लिखना चाहते हैं, उसकी इतनी मौखिक आवृत्तियाँ हो चुकती हैं कि वे अपने वक्तव्य के उपेक्षणीय अंश का अभाव भी तुरंत जान लेते हैं।
कागज में इसे लिखने का स्थान नहीं है, यह कहने पर भी छुटकारा मिलना कठिन है । लेखक के मुख पर अपनी अनुनय भरी दृष्टि स्थापित करके और किसी अक्षरहीन कोने में अपनी टेढ़ी-मेढ़ी उँगली रखकर वे उन छूटे हुए विवरण को लिख देने के लिए ऐसा करुण अनुरोध करेंगे जो टाला नहीं जा सकता । मार्जिन या कोनों को खाली छोड़ने के लिए संदेश का कोई अंश छोड़ देना, उनकी दृष्टि में अनुचित है। समूचा कागज जब अक्षरों से लिप-पुत जाता है, तब वे निरुपाय होकर लिखने का अनुरोध बंद करते हैं, इससे पहले नहीं ।
लिखनेवाले के हृदयगत भाव को समझ लेने की समस्या भी कम जटिल नहीं। एक भाव को हृदयंगम करते ही भावों की बाढ़ आ घेरती है । साधारणतः वे ग्रामीण नागरिक बुद्धिजीवियों से अधिक भावुक होते हैं, इसी से संदेश का प्रत्येक अंश उनमें नवीन भावोद्रेक का कारण बन जाता है। कथा के क्रम में कभी उनके हँसने का परिचय मिलता है, कभी क्रंदन का, कभी क्रोध पश्चात्ताप का कभी ममता की तन्मयता का आभास रहता है, कभी उपेक्षाजनित ग्लानि का, कभी दार्शनिक वीतरागता प्रकट होती है, कभी सांसारिक नीतिमत्ता । सारांश यह कि घटना, काल, स्थान आदि के अनुसार भाव में परिवर्तन होता चलता है ।
पर लेखक उनकी ओर से लिखे हुए पत्र में किस भाव की प्रधानता दे, यह जानना सहज नहीं । एक पिता अपने दूरदेशी पुत्र को उसकी कर्तव्यहीनता और उपेक्षा के लिए डाँटना चाहता है । पत्र – लेखक उसकी ओर से कठोर भर्त्सना के शब्द लिखते-लिखते अचानक उन वाक्यों में आँसुओं का गीलापन अनुभव करेगा। फिर सिर उठाकर देखते ही उसके सामने कठोर न्यायाधीश जैसे व्यक्ति के स्थान में एक रोता हुआ, भावुक और दीन पिता आ जाएगा ।
इन दोनों में कौन सत्य है, यही बताना कठिन हो जाता है, तब फिर किसकी बात लिखी जाए, यह जानना तो और भी दूर की बात है ।
लिखने के उपरांत अनेक बार मुझे पत्र फाड़कर फेंक देना पड़ा है, क्योंकि लिखानेवाला व्यक्ति अंत में वह नहीं रहता जो आरंभ में था । ऐसी दशा में वही भेज देना अन्याय ही नहीं, व्यावहारिक दृष्टि से हानिकर भी होता, क्योंकि पानेवाला उसके मन के भाव यथार्थ न समझ सकने के कारण, भ्रांत धारणा बना लेता ।
पत्र – प्रेषक के संबंध में सारी समस्याओं का समाधान कर लेने के उपरांत भी एक कठिनाई रह जाती है । एक व्यक्ति के पत्र में गाँव भर कुछ-न-कुछ लिखाना चाहता है ।
किसी की ओर से पालागन लिखना है, तो किसी की ओर से असीस। किसी की जै रामजी पहुँचाना है, तो किसी की भेंट- अँकबार। कोई ‘पाती आधा मिलन है’ लिखवाकर अपने कवित्व का परिचय देना चाहता है, तो कोई ‘हुइ है सोइ जो राम रचि राखा’ लिखवाकर दार्शनिकता का । कोई बछिया बेचने की सूचना दे देना आवश्यक समझता है, कोई भैंस खरीदने की। किसी के लिए खेत की बेदखली का संवाद भेजना अनिवार्य है, तो किसी के लिए छप्पर गिर जाने का कोई कुआँ उगराने की कथा सुनाने को आकुल है, कोई पोखर सूखने की।
ऐसा व्यक्ति खोजना कठिन होगा, जो परिचित व्यक्ति को कुछ संदेश न भेजना चाहे और छोटे ग्रामों में नागरिक जीवन का विच्छिन्नताजनित अपरिचय संभव ही नहीं होता। इसी कारण सब एक दूसरे से विशेष परिचित ही मिलते हैं। यदि जिसे पत्र लिखा जाता है, उससे विशेष परिचय नहीं तो पत्र लिखानेवाले से तो रहता ही है। इसी नाते सब बड़े-छोटे यथायोग्य लिखवाना नहीं भूलते।
कोई काका से विशेष परिचित होने के कारण भतीजे को कर्तव्य विषयक उपदेश देने के लिए उत्सुक है; कोई भांजे से घनिष्ठता के कारण उसके मामा को प्रणाम लिखवाना चाहता है। कोई मौसी के परिचय के नाते बहनौतिन के पति को असीस पहुँचाने की इच्छुक है, कोई भतीजी की सखी होने के कारण चाची के पितिया-ससुर को पालागन भेजना आवश्यक समझती है। ऐसी दशा में संबंध, असंबंध, परिचय, अपरिचय का अंतर कोई महत्त्व नहीं रखता ।
मेरे जैसे व्यक्ति से कुछ न लिखवाना भी उन्हें अपमानजनक लगता है । साहुजी के आले में तेल में धब्बों से भरे लिफाफे के स्थान में मेरे बैग से बगले के पंख जैसा उजला लिफाफा निकल आता है। हल्दी की पुड़िया खोलकर निकाले हुए कागज की तुलना में मेरी कापी का कागज बड़ा और स्वच्छ जान पड़ता है। पटवारी की चौपाल के कोने में स्थापित बिना ढक्कन की दावात और काले कलम में वह आकर्षण नहीं, जो मेरे चमकीले फाउंटेनपेन में मिलना स्वाभाविक है। पिछौरी के कोने में बाँधकर लाए हुए मैले सिकुड़नदार टिकट के सामने मेरे टिकट ही अधिक विश्वसनीय जान पड़ते हैं। पत्र लेखन के ऐसे उत्कृष्ट साधन लेकर बैठे हुए लेखक से जो कुछ नहीं लिखवाता, वह अपनी लोकाचार विषयक अनभिज्ञता प्रकट करता है । इसी कारण सभी ‘दो आखर’ लिख देने के लिए अनुरोध करने लगते हैं।
मुझे इस तरह जंगम पोस्ट आफिस बनने की कौन-सी आवश्यकता है ! मेरे लिखे पत्र कहीं पहुँच भी सकेंगे या नहीं ! क्या मेरा, ‘टिकट लिफाफा सप्लाई डिपो’ संदिग्ध नहीं है ? क्या मेरी यह अर्जीनवीसी निठल्लेपन का प्रमाण नहीं है ? यह सब प्रश्न उनके हृदय में एक बार भी नहीं उठे ।
परमार्थ की उच्चतम भावना के साथ भी नागरिक जीवन में प्रवेश करने पर व्यक्ति को अविश्वास और संदेह के अनेक पैने तीरों का लक्ष्य बनना पड़ता है। नागरिक जीवन का अकारण संदेह, कर्मनिष्ठा को पंगु और उसका लक्ष्यहीन दुराव, जीवन-दर्शन को भ्रांत कर देता है। इसके विपरीत ग्रामीण जीवन की पुस्तक खुली ही मिलती है। कुछ विषम परिस्थितियाँ अपवाद हो सकती हैं; पर जहाँ जीवन कुछ स्वस्थ है, वहाँ एक ग्रामीण का सहयोग आदान दैन्यरहित होने के कारण सहज है, सहायता का दान गर्वशून्य होने के कारण स्वाभाविक और विचार-विनिमय अकृत्रिम होने के कारण जीवन के अध्ययन का पूरक है।
एक बार मुझे कुछ लिखते देखकर एक वृद्धा अपने दूरदेशी पुत्र को पत्र लिखाने आ बैठी । फिर दूसरे भी आने लगे और अंत में यह कार्य मेरे कर्तव्य की सीमा में आ गया। मैं स्वयं अकारण तो क्या सकारण भी पत्र कम लिखती हूँ। इसी से टिकट, लिफाफे, कार्ड आदि का प्रबंध करने पर भी यह पत्र – लेखन मुझे महँगा नहीं पड़ा।
मेरे बैठने के स्थान अनेक हैं। कभी पीपल के तने का सहारा लेकर उसकी ऊँची जड़ों का सिंहासन बनाती हूँ, कभी आम के नीचे सूखी पत्तियों के बिछोने का । कभी किसी के ओसारे में पड़ी खटिया पर आसीन होती हूँ, कभी किसी के आँगन में तुलसीचौरा के सामने चटाई पर। पत्र लिखने का प्रस्ताव सबसे पहले जो करता है, उसी की इच्छानुसार शेष को चलना पड़ता है। पत्र लिखवानेवाला निकट बैठता है और सब उससे कुछ हटकर आस-पास केवल अभिवादन भेजनेवाले आते-जाते रहते हैं ।
कोई पुर चलाना दूसरे को सौंपकर पालागन लिखाने दौड़ आया, कोई आशीष लिखा देने का स्मरण दिलाकर दाँय चलाने चला गया। कोई अपना संदेश लिखवाने के लिए भरा घड़ा सिर पर और रस्सी हाथ में थामे हुए ही रुक गई। किसी को जै रामजी लिखवाते बेसन पीसने की याद आ गई, कोई रोते हुए लड़के को मोटी-रोटी का टुकड़ा देकर पत्र का उपसंहार सुनने लौट आई। कोई उपदेश वाक्य कहते-कहते बुझी चिलम सुलगाने के लिए उठ गया ।
इस तरह सबका आवागमन होता रहता है। केवल इस समारोह का सूत्रधार आदि से अंत तक कभी हँसता, कभी रोता और कभी उदासीन बैठा रहकर कथा का अवरोह सँभालता है। पत्र लिख जाने पर उसे पूरा सुनाना पड़ता है। इतना ही नहीं, उसके इच्छानुसार जहाँ-तहाँ कुछ-न-कुछ जोड़ना भी आवश्यक हो जाता है। तब वह पत्र को सब प्रकार से अपना प्रमाणित करने के लिए अँगूठे की छाप लगाने को व्याकुल हो उठता है। ऐसे चिह्न व्यवहार जगत् में प्रचलित असत्य से आत्मरक्षार्थ कवच हो सकते हैं; पर पत्र के स्वतः सिद्ध आत्मोद्गार में उनका विशेष महत्त्व नहीं, इसे सब मान नहीं सकते। इसी कारण कभी-कभी नाम के नीचे अँगूठे के चित्र-विचित्र और विविध आकृतियों वाले चिह्न भी सुशोभित हो जाते हैं।
पता लिखना इस पत्र – लेखन गाथा का सबसे कठिन प्रसंग है। किसी के पुकारने का नाम नन्हकू और परिचय का महावीर है। किसी की घर की संज्ञा दुलरुआ और बाहर की भैरोंदीन है। कोई अपने गाँव में घसीटा और परगाँव में राजाराम कहलाता है। कोई ननसार की सिरतजिया और ददसार की दुखिया है। किसी को परिवार वाले रूपमतिया और बाहरवाले कलुइया कहते हैं।
नाम-उपनामों का यह विरोधाभासमूलक गठबंधन हमारे कवि- समाज का स्मरण न दिलाए, तो आश्चर्य की बात होगी। हमारे यहाँ भी एक व्यक्ति, जीवन में अकिंचन, रूप में कोयला, नाम से हीरालाल और उपनाम से शरदेंदु होकर भी उपहासास्पद नहीं माना जाता । अकिंचनता सामाजिक व्यवस्था से संबंध रखती है, रूप प्रकृति का दान है और नाम माता-पिता का उपहार कहा जाएगा। शेष एक उपनाम ही रह जाता है, जिसका संपूर्ण उत्तरदायित्व उन्हीं को सँभालना होगा। संभवतः इसी कारण वे अपने में किसी विशेषता के अभाव या भाव की चिंता न करके संसार की सुंदरतम वस्तु को मिली हुई संज्ञा पर अधिकार जमाना चाहते हैं।
कवि-परंपरा ने जिन शब्दों के प्रति विशेष पक्षपात दिखाया है, उनके प्रति उपनाम – अन्वेषकों का आकर्षण स्वाभाविक ही कहा जाएगा; पर जब उन शब्दों के अर्थ और उनके द्वारा सांकेतिक व्यक्तियों में किसी प्रकार का भी सादृश्य नहीं मिलता, तब उनकी स्थिति विचित्र हो जाती है। सुननेवाले नाम और उपनाम का अंतर न भूल सकें, मानो इसीलिए वे दोनों को एक अविच्छिन्न संबंध में बाँधकर उपस्थित रहते हैं।
पर ग्रामीण नाम और उपनामों की स्थिति इससे भिन्न है । नाम का संबंध तो पंडितजी के पोथी- पत्रे से है; किंतु उपनाम व्यक्ति के रूप, स्वभाव, गुण या दूसरों की उसके प्रति धारणा का यथार्थ चित्र देता है।
जो लबार नाम से पुकारा जाता है, वह इस नाम के उपयुक्त विशेषता से शून्य नहीं हो सकता । जो गुजरिया कही जाती है, वह वेश-भूषा की रंगीनी में गुड़िया से कम नहीं होती। जो कोयली की संज्ञा पाती है, उसका श्यामांगिनी होने के साथ-साथ मधुरभाषिणी होना आवश्यक है। जो नत्थू कहकर संबोधित किया जाता है, उसे जन्म लेते ही नाक में बाली पहनना पड़ा होगा। जो घूरे का उपनाम पा चुका है, उसने बचपन में कठोर उपेक्षा का अनुभव किया होगा। इन उपनामों में कुछ अपवाद भी हो सकते हैं; पर साधारणतः वे व्यक्ति के साथ सामंजस्यपूर्ण स्थिति ही रखते हैं, विरोध-मूलक नहीं ।
पर पत्र लिखते समय यह जानना कठिन हो जाता है कि दूरदेश में एक व्यक्ति ने नाम और उपनाम में से किसे विशेष महत्त्व दिया होगा। जब तक वह परिचित वातावरण में है, तब तक उसकी विशेषताओं के निरीक्षक ही उसका नाम निश्चित कर देते हैं; पर जब केवल उसको अपना परिचय देना है, तब वह इनसे मिले संबोधनों में से किसे स्वीकार करेगा, यह उसकी रुचि और दूसरों के प्रति उसके भाव पर निर्भर रहता है। इस संबंध में पत्र लिखनेवाला और लिखानेवाला दोनों ही अंधकार में रहते हैं ।
नाम की समस्या हल हो जाने पर स्थान की बाधा उपस्थित होती है। प्रायः वे नगर के नाम से अधिक पता नहीं जानते, यह चाहे विस्मय की बात न हो, पर पत्र पानेवाले की ख्याति के संबंध में उनका अडिग विश्वास आश्चर्य में डाले बिना नहीं रहता। किसी को विश्वास है कि उसके लाड़ले बेटे के रूप से सब परिचित होंगे। किसी की दृढ़ धारणा है कि उसके कुश्ती लड़नेवाले भतीजे का नाम नगर-भर जानता होगा। कोई समझता है कि उसके भाई जैसे गवैये की ख्याति डाक-घर तक पहुँच गई होगी। कोई मानता है कि उसके साँप -बिच्छू का विष झाड़नेवाले चाचा से डाकिया अनजान नहीं हो सकता। कोई समझती है कि उसके पति का पशु-चिकित्सा – विशारद होना ही उसका पर्याप्त पता है। कोई कहता है कि उसके हनुमान चालीसा कंठस्थ कर लेनेवाले मामा की विद्वत्ता छिपी नहीं रह सकती ।
इनके प्रिय संबंधियों की दूरदेश के जन-समूह में वही स्थिति है, जो समुद्र में बूँद की होती है, इसे न वे जानते हैं और न मानना चाहते हैं ।
अनेक प्रयत्नों के उपरांत खोज निकाले हुए पते ठिकाने के अनुसार पत्र लिख जाने पर उसे शीघ्र से शीघ्र डाकखाने पहुँचाना आवश्यक हो उठता है । कोई तुरंत पत्र को मिर्जई या साफे में खोंसकर और हाथ में लोटा डोर थामकर तीन मील दूर पोस्ट आफिस की ओर चल देता है । कोई सवेरे जाने के लिए अभी से गठरी बाँध लेता है । कोई पत्र को बकुचे में सुरक्षित रखकर अन्य आवश्यक कार्य निपटाने में लग जाता है । और कोई स्नेह से उँगलियाँ फेर-फेर कर अक्षरों की स्याही फैलाने लगता है।
अनेक बार तो पत्रों को डाकखाने तक पहुँचा देने का कर्तव्य भी मुझे सँभालना पड़ जाता है; पर प्रेषक इस संबंध में जितना अपना विश्वास करते हैं, उतना मेरा नहीं ।
चिट्ठी डालने के लाल बम्बे को पहचानने में उनसे भूल न होगी, इस संबंध में वे आश्वस्त हैं; पर मैं जिसे यह काम सौंपूँगी, वह भूल से पत्र को किसी दूसरे बम्बे में नहीं डाल सकता, इस विषय में उनका संदेह बना ही रहता है। विशेषतः शहर में जहाँ-तहाँ पत्र डालने के और पानी के बंबों का बाहुल्य उन्हें निश्चित होने नहीं देता ।
उत्तर की प्रतीक्षा के दिन तो उन्हें और भी व्यस्त कर देते हैं । जहाँ सप्ताह में एक बार डाकिया आता है, वहाँ के पत्र – प्रेषक प्रायः नित्य ही डाकखाने तक दौड़ लगाते हैं। उनके नाम कोई चिट्ठी नहीं आई, इतना सुनकर संतुष्ट हो जाना भी उनके लिए संभव नहीं। कोई अपना नाम, उपनाम बताने और फिर से सब पते जाँच लेने का हठ करने के कारण डाकबाबू से झिड़की खाता है । कोई पत्र पाने की दुराशा में गोत्र से लेकर गाँव तक के परिचय की अनेक आवृत्तियाँ करके डाकिये का कोप भाजन बनता है।
जो पत्र मेरे पते से आते हैं, उनके संबंध में उत्तर देते-देते मेरा धैर्य भी सीमा तक पहुँचे बिना नहीं रहता ।
कोई पूछता है, उत्तर आने में कै दिन बाकी हैं। कोई जानना चाहता है कि पता लिखने में भूल तो नहीं हुई। किसी का अनुमान है कि पत्र पानेवाले के नाम के साथ उसकी सब विशेषताएँ न जोड़ देने के कारण ही पत्र नहीं पहुँच पाया। किसी को संदेह है कि टिकट पुराना होने के कारण, बाबू ने पत्र को रद्दी में न फेंक दिया हो। किसी को शंका है कि बरसात के कारण पते के अक्षर न धुल गए हों । किसी का विश्वास है कि चिट्ठी भारी हो जाने के कारण बैरंग होकर निरुद्देश्य घूम रही होगी।
उनकी नासमझी पर कभी हँसी आती है, कभी क्रोध । उनकी विवशता पर कभी झुंझलाहट होती है, कभी ग्लानि । अपने भावों और विचारों के विनिमय के लिए इतने आकुल व्यक्तियों को किसने इतना असमर्थ बना डाला ? इतने विशाल जन समूह को वाणी-हीन बनाकर जिन्हें अपनी वाग्विदग्धता का अभिमान है, वे कितने निर्लज्ज हैं ? इस प्रकार के प्रश्न स्वाभाविक ही कहे जाएँगे ।
यह सब तो जैसे-तैसे चल ही रहा था; पर एक दिन जब गुँगिया मेरे आँचल का छोर थामकर विविध हाव-भाव द्वारा पत्र लिख देने का संकेत करने लगी, तब तो मैं स्वयं अवाक् रह गई । क्या कहीं मेरी दुर्दशा की सीमा नहीं है ? क्या अब गूंगों के लिए भी पत्र लिखना होगा ? गुँगिया किसे क्या लिखवाना चाहती है, यह मैं किस प्रकार समझ सकूँगी !
पर जिसे लेकर ये समस्याएँ उठ रही थीं, उसे इन सब के समाधान से कोई सरोकार नहीं था । मुझे इतने पत्र लिखते देखकर ही संभवतः उसका हृदय अपनी करुण विवशता भूल गया था ।
इतनी सुख-दुःख कथाएँ लिख चुकने पर भी एक व्यक्ति, उसके ऐसे प्रत्यक्ष सुख-दुखों की भाषा नहीं जानता है, ऐसा विश्वास गुँगिया के लिए सहज नहीं था ।
मैं उसे अनेक बार देखते-देखते अब उसकी उपस्थिति की अभ्यस्त हो चुकी थी। आते समय वह मेरी प्रतीक्षा में बैठी हुई मिलती थी। जाते समय वह पीछे-पीछे चलकर दूर तक पहुँचाने आती थी। कुछ लिखते समय वह कहीं आसपास में बैठकर बड़े कुतूहल के साथ मेरा क्रियाकलाप देखती थी। पर, मैं अब उसे कौतुकी दर्शकमात्र समझ बैठी थी, इसी से जब उसने स्वयं पत्र – प्रेषक की भूमिका ग्रहण कर ली, तब मैं बड़े असमंजस में पड़ गई।
गुँगिया को यह उपनाम गूँगेपन के कारण मिला है, उसका नाम तो है धनपतिया । उसका पिता रग्घू तेली संपन्न भी था और ईमानदार भी घर में पुष्ट बैलों की जोड़ी थी, कोल्हू चलता था और सरसों से लेकर रेंडी तक सब कुछ पेरा जाता था । रग्घू के तेल की शुद्धता और उसकी खली की उपयोगिता की ख्याति गाँव की सीमा लाँघ चुकी थी।
पहलौठी संतान होने के कारण गुँगिया के जन्म के उपलक्ष में बड़ी धूमधाम रही। नगाड़े वाले लेने आए, डोमनी नाचकर चुनरी ले गई और तेलीपंचों की ज्योंनार में कई पीपे घी खर्च हो गया।
जच्चा को चिरौंजी डालकर हरीरा दिया गया, बबूल का गोंद पाग कर पंजीरी दी गई। जब सवा महीने में माँ बेटी को गोद में लेकर सौरी से निकली, तो परिवारवालों ने जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य को नजर से बचाने के लिए न जाने कितने टोने-टोटके किए। बालिका की इतनी लोई की गई कि उसकी रोमहीन देह मैदा की पिंडी जैसी दिखाई देने लगी। उसके इतना तेल मला गया कि उसके अंगों पर देखनेवालों की दृष्टि फिसलने लगी ।
गदबदे शरीरवाली धनपतिया ने दस महीने की अवस्था तक पहुँचते-न-पहुँचते चलना भी आरंभ कर दिया; पर उसका कंठ पाँच वर्ष की अवस्था पार करने पर भी नहीं फूटा । न वह माँ कह सकी न दादा, न उसके मुख से दूध निकला न हप्पा केवल ऐं ऐं को विशेष ध्वनियों में उच्चारण करके ही वह मन के भाव व्यक्त करना जानती थी।
बोलना आरंभ करने की अवस्था निकल जाने पर माँ-बाप के मुख पर चिंता की छाया पड़ने लगी । गंडे व तावीज़ बाँधे गए। जंतर-मंतर का सहारा लिया गया, झाड़-फूँक का उपचार हुआ। मानता, पूजा, अनुष्ठान आदि की शक्ति – परीक्षा हुई; पर धनपतिया पर वाणी कृपालु न हो सकी। अंत में रग्घू ने शहर ले जाकर डाक्टर को भी दिखाया। गुँगिया के तालू और कौव्वे की बनावट में जो त्रुटि रह गई थी, उसका सुधार विशेष प्रकार के आपरेशन द्वारा ही हो सकता था, जिसके लिए न रग्घू के पास धन था न साहस । परिणामतः धनपतिया गुँगिया बनकर ही बढ़ने लगी। प्रायः गूँगेपन के साथ मिलनेवाली बधिरता उसे न देकर विधाता ने उसके अभिशाप को दूना कर दिया, क्योंकि श्रवणशक्ति के अभाव में मूकता उतनी असह्य नहीं लगती, जितनी उसके साथ। उसकी पीठ पर केवल एक बहिन और हुई जो बोलने का वरदान लेकर आई थी।
गुँगिया ने वाणी के अभाव को मानो समझदारी से भर लिया था। वह इतनी कुशाग्रबुद्धि थी कि जो एक बार देखती, उसे कभी न भूलती, जो एक बार सीखती, उसमें कभी त्रुटि न होने देती । आठ-नौ वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते वह घर के कामों में माँ की सहकारी बन बैठी ।
अब विवाह की समस्या का समाधान आवश्यक हो गया। कन्या के जीवन से चिर- कौमार्य का कलंक दूर करने के लिए रग्घू ने उसी धोखाधड़ी का आश्रय लिया, जो विवाह की हाट के अनुपयुक्त कन्याओं के माता-पिता का ब्रह्मास्त्र है। उसने किसी दूरस्थ गाँव में छोटी कन्या की सगाई करने के उपरांत विवाह के अवसर पर मंडप तले गुँगिया को बैठाकर शेष विधि संपन्न करा दी।
तीन-चार वर्ष के बाद गौने में ससुराल पहुँचकर गुँगिया ने अपनी दयनीय स्थिति का नवीन परिचय पाया। वह जब कुछ न बोल सकी और विवश किए जाने पर ऐं ऐं करने लगी, तब ससुरालवाले धोखा खाने के क्षोभ में आपे से बाहर हो गए।
बहू गूँगी है, उसके बाप ने सबको ठग लिया, इसे गहने छीनकर निकाल दो, आदि उद्गारों में गुँगिया ने अपने जीवन के निठुर अभिशाप की वह छाया देखी, जो नैहर में माँ-बाप की ममता से ढकी हुई थी ।
उसने बड़ी दीनता से सास के पैर पकड़ लिए और लात खाने पर भी उन्हीं में मुख छिपाए हुए रोती रही; पर किसी का हृदय न पसीजा। धोखा तो धोखा ही है। जिसने उनके साथ छल-कपट का व्यवहार किया, वह यदि स्वयं दंड न भोगे, तो उसकी संतान को तो भोगना ही पड़ेगा, अन्यथा न्याय की महिमा कहाँ रहेगी ! अंत में सब गहने-कपड़े रखकर ससुराल वालों ने गुँगिया को उसके पिता के घर भेजकर ही संतोष की साँस ली ।
रग्घू अपने कार्य से पहले ही अनुतप्त था । अन्याय – प्रतिकार के रूप में उसने अपनी दूसरी लड़की का विवाह वहीं कर देने का प्रस्ताव भेजकर संधि कर ली। इस बार कन्या को भली भाँति देख-सुनकर शुभ मुहूर्त में यह विवाह भी हो गया। बूढ़ियाँ कहती हैं कि जब गुँगिया ने अपने चढ़ावे में आए हुए गहने-कपड़ों में सजी हुई बहिन का अपने पति से गठबंधन होते देखा, तब वह मुँह में आँचल हँसकर ही रुलाई रोक सकी।
बहिन के चले जाने पर वह अपनी मूक सेवा से माता-पिता का संताप दूर करने का प्रयत्न करने लगी।
तब से बहुत समय बीत गया। गुँगिया के माँ-बाप भी परलोक सिधार गए और उसके सास-ससुर भी। उसकी बहिन रुकिया ने दो बच्चों को जन्म दिया; पर उनमें एक भी तीन वर्ष से अधिक आयु लेकर नहीं आया। तीसरे का शोक न सहने के विचार से ही संभवतः वह उसे होते ही मातृ-हीन बना गई । घर में उसके पालने का कोई प्रबंध न कर सकने के कारण पिता नवजात शिशु को ससुराल ले गया और उसे गुँगिया की गोद में रखकर रोने लगा ।
अपने ही समान वाणीहीन शिशु की टिमटिमाती हुई आँखों में गुँगिया ने कौन-सा संदेश पढ़ लिया, यह तो वही जाने पर वह उसे लौटा देने का साहस न कर सकी। बहनोई ने दबी जबान से उसे घर ले चलने का प्रस्ताव किया; पर उसके मुख पर अस्वीकृत की कठोर मुद्रा देखकर बीच ही में रुक गया।
गाँववालों ने इस गूँगी माँ का संतान- पालन देखकर दाँतों तले उँगली दबाई । उसने एक बैल बेचकर बच्चे के दूध के लिए दो बकरियाँ खरीदीं, अपने धराऊ कपड़े काटकर उसके लिए झँगूला, टोपी सिलवाए, अपनी हमेल, पहुँची तुड़वाकर, उसके लिए पैंजनी, कर्धनी, कठुला और कड़े गढ़वाए तथा नामकरण के दिन, अपने जोड़े हुए रुपए खर्च करके सबकी दावत कर डाली ।
माँ-बाप के न रहने से गुँगिया का कार – बार वैसे ही धीमा हो गया था, उस पर अब वह शिशु की देख-रेख में व्यस्त हो गई। इस प्रकार संपत्ति घटने के साथ- साथ हुलासी बढ़ने लगा। उसके बाप ने पहले कुछ दिनों तक खोज-खबर ली, फिर वह नई पत्नी और नई संतान के स्नेह में उसे भूल ही गया। गुँगिया ने न उससे कभी कुछ माँगा और न हुलासी के राजसी खर्च में कमी की।
एक अवस्था तक गुँगिया और उसका बेटा दोनों गूँगे थे, अतः एक-दूसरे की बात संकेतों से ही समझते रहे। बोलना सीख जाने पर अबोध बालक माँ के मौन पर विस्मित हुआ, फिर कुछ समझदार होने पर वह लज्जा का अनुभव करने लगा। गाँव के लड़के जब उसे ‘गूँगी का बेटा गूँगा’ कहकर चिढ़ाते, तब वह मर्माहत हो जाता। कभी उन्हें मारने दौड़ता, कभी रोने लगता । जब गुँगिया शोरगुल सुनकर दौड़ आती और विविध चेष्टाओं के साथ ‘ऐं-ऐं’ कहकर उन्हें डाँटना आरंभ करती, तब वे नटखट बालक ‘गूँगा मौसी, गूँगा मौसी’ की रट लगाते हुए भाग खड़े होते ।
हुलासी को घर लाकर वह बेचारी गोद में बैठाती, मटकी से निकाल कर बतासे देती, उँगलियों से बालों की धूल झाड़ती, आँचल से मुख पोंछती और अनेक प्रकार के संकेतों द्वारा उसे समझाने का प्रयत्न करती; पर इस उपचार से बालक का क्षोभ और अधिक बढ़ जाता। कभी वह दोनों हाथों से उसे ढकेलने के उपरांत आँगन में औंधे मुँह पड़कर और अधिक रोने लगता और कभी उसका अंचल खींचकर मचलता हुआ पूछता कि सबकी अम्मा तो बोलती हैं, वही अकेली क्यों गूँगी है। गुँगिया इस प्रश्न का क्या उत्तर दे ! गाँव की किसी भी माँ से वह स्नेह में, यत्न में कम नहीं; पर अपने गूँगेपन के लिए वह क्या सफाई दे !
ज्यों-ज्यों हुलासी बड़ा होता गया, त्यों-त्यों दूसरों के द्वारा अपने जीवन-वृत्त के संबंध में कुछ झूठ, कुछ सच जानता गया। गुँगिया तो कुछ कह नहीं सकती थी, इसी कारण अनेक निर्मूल दंतकथाएँ भी प्रतिवादहीन रह गईं। गुँगिया अपने पति और घर को छीन लेनेवाली बहिन से बहुत रुष्ट थी । प्रतिशोध लेने की इच्छा से ही वह उसके बेटे को बाप से छीन लाई है । हुलासी के प्रति वह जो प्रेम दिखाती है, उसके मूल में भी कुछ दुरभि – संधि अवश्य है । इस प्रकार के संकेतों को पूर्णतः न समझ सकने पर भी बालक का मन गुँगिया अम्मा से विरक्त होने लगा ।
‘परहित धृत जिनके मन माखी’ कहकर गोस्वामीजी ने जिनका परिचय दिया है, उन्हीं का बहुमत होने के कारण गुँगिया का यह थोड़ा-सा सुख भी एक अव्यक्त व्यथा में परिवर्तित हो गया । हुलासी का पिता किस अरक्षित अवस्था में अपने पुत्र को छोड़ गया था, उसने उसके पालने के संबंध में कितनी उपेक्षा दिखाई थी, विमाता ने अपनी संतान का अधिकार सुरक्षित रखने के लिए उसे दूर रखने का कितना प्रयत्न किया था, यह सब उसे बताता ही कौन !
गुँगिया के नीरव स्नेह की गहराई उसकी पहुँच से बाहर थी। इसके अतिरिक्त विशेष दुलार पाने के कारण वह उसके स्नेह को अपना प्राप्य समझने लगा था, उसका दान नहीं ।
एक दिन जब उसने गुँगिया से पूछ ही लिया कि वह उसे उसके बाप से क्यों छीन लाई है, तब गुँगिया के हृदय में विष-बुझा बाण-सा छिद गया; पर वह अपनी व्यथा भी कैसे प्रकट करती ! बोलने के प्रयास में खुला मुँह, विस्मय से भरी आँखें, निराशा से विजड़ित भंगिमा आदि बालक के लिए अबूझ पहेली बनकर रह गए।
बालक के पिता की खोज करने पर पता चला कि वह किसी कारखाने में काम मिल जाने के कारण बाल-बच्चों के साथ कानपुर चला गया है। इसके उपरांत गुँगिया ने अपने ककने गिरवी रखकर उसे पिता के पास भेजने का प्रबंध किया।
हुलासी के लिए नए कपड़े बने । काठ और मिट्टी के रंग-बिरंगे खिलौने एक पिटारे में यत्नपूर्वक सजाए गए। भुने महुए, गुड़धानी, लड्डू आदि मिष्टान्नों की गठरी बाँधी गई । चिकनी काली दोहनी में घी भरा गया। 625गाँव के रिश्ते से काका लगनेवाले एक विज्ञ को बड़ी मनुहार के उपरांत साथ जाने के लिए राजी किया गया। फिर एक दिन पंडितजी के बताए मुहूर्त में असगुन के डर से आँसू रोकती हुई गुँगिया तीन मील चलकर हुलासी और काका को रेल में बैठा आई। उन्हें पहुँचाकर लौटते समय उसके लिए गाँव तक पहुँचना भी कठिन हो गया ।
कभी खेत की मेड़ों पर खड़ी होती, कभी पेड़ों की छाया में बैठती, कभी रोती, कभी हँसती, गुँगिया घर पहुँची और आँगन में तुलसीचौरे पर ही सवेरे तक औंधे मुँह पड़ी रही ।
कई दिन उसका मन उड़ा-सा रहा। जिस दिन उसने काम करने का निश्चय करके द्वार खोला, उसी दिन धूल धूसरित काका के पीछे आते हुए हुलासी पर उसकी दृष्टि पड़ी। बालक के नए कपड़े मैले हो गए थे, मुख कुम्हला गया था। वह दौड़कर बेटे को कंठ से लगाकर शब्दहीन अस्फुट क्रन्दन में अपनी अतीव व्यथा प्रकट करने लगी।
अंत में यात्रा का परिणाम ज्ञात हुआ। दो दिन इधर-उधर भटकने के उपरांत हुलासी के पिता से भेंट हुई। वह एक मैली संकीर्ण गली में दो अँधेरी कोठरियाँ लेकर अपने चार बच्चों और घरवाली के साथ रहता है। इस भूले हुए पुत्र को देखकर उसकी आँखों में जो ममता चमक उठी थी, वह पत्नी की कठोर दृष्टि की छाया में खो गई। रात भर पति-पत्नी में विवाद होता रहा ।
सवेरे विविध तर्कों के द्वारा उसने काका महोदय से पुत्र को लौटा ले जाने का अनुरोध किया । हुलासी की ननसार में जो कुछ है, वह उसी को मिलेगा; पर उन बच्चों का तो वही एक आधार है । हुलासी पिता के घर में भी विमाता के पास रहेगा और ननसार में भी, ऐसी दशा में उसे गुँगिया के साथ रहकर कार-बार, घर – जमीन, रुपया-पैसा आदि सँभालना चाहिए। उसका सौतेला भाई जब कुछ बड़ा हो जाएगा, तो वह भी हुलासी के पास भेज दिया जाएगा। हुलासी की विमाता स्वयं गाँव जाकर रहने के पक्ष में है; पर गुँगिया को यह पसंद न होगा। पर, वह अमर होकर तो आई नहीं है ! उसके बाद वे सब एकत्र होकर उसका कार- बार सँभालेंगे।
इस कठोर व्यावहारिकता के सामने न हुलासी के क्रंदन की चली, न काका के अनुनय की । निरुपाय वे दोनों पराजित सैनिकों के समान क्लांत भाव से लौट पड़े। हुलासी की विमाता ने घी, मिष्टान्न आदि को अपने लिए भेजा हुआ उपहार मानकर रख लिया और खिलौने, नए कपड़े आदि को अपने बच्चों का प्राप्य समझकर उन्हें बाँट दिया।
इस प्रकार हुलासी अकिंचन बनकर ही गुँगिया के पास लौट सका था। उस बेचारी ने बालक के आहत हृदय को अपनी ममता के लेप से अच्छा करने में कुछ उठा नहीं रखा।
इसके अतिरिक्त उसकी प्रिय वस्तुओं को एकत्र करने के लिए वह एड़ी-चोटी का पसीना एक करने लगी; पर बालक के कोमल हृदय में विश्वास का जो तार टूट गया था, उसका जुड़ना सहज नहीं था। जो कुछ अप्राप्य है, उसी को पाने के लिए मनुष्य विकल होता है, इसी नियम से हुलासी का हृदय भी पिता, भाई बहिन के लिए रोता रहता था।
गुँगिया के घर-द्वार और धन के लिए ही पिता ने उसे नहीं रखा, उसके न रहने पर ही वे सब साथ रह सकेंगे आदि विचार भी उसके हृदय को विषाक्त करते रहते थे ।
इस तरह दो वर्ष और भी बीत गए। जब हुलासी कुछ स्वस्थ होकर गुँगिया के काम में हाथ बँटाने लगा था, तभी उसके परिहासप्रिय दुर्भाग्य से एक बाबाजी अपने दो-तीन शिष्यों के साथ वहाँ आ पहुँचे । वे पर्यटन क्रम में वहाँ आए थे; परंतु चतुर्मास बिताने के लिए ठाकुर की अमराई में डेरा डालकर वर्षा बीतने की प्रतीक्षा करने लगे।
ऐसे बाबा-बैरागियों का आगमन गाँववालों के लिए महान् घटना है। कोई दूध की दोहनी भेंट करता था, कोई घी की हँडिया । कोई पका काशीफल उपहार में दे जाता था, कोई गुड़ की भेली। कोई पुराना चावल रख जाता था, कोई चक्की का पिसा, सफेद, गेहूँ का आटा । कोई मालपुओं का भंडारा करने की इच्छा प्रकट करता था, कोई खीरपूरी के भोज की।
यह सब अभ्यर्थना निःस्वार्थ ही नहीं होती थी। सेवा करनेवाले भक्तों में से सभी एक-न-एक वरदान चाहते थे। किसी को बुढ़ौती में पुत्र चाहिए। किसी को और अधिक धन की आवश्यकता थी। कोई अपने पट्टीदार को हराना चाहता था। कोई अपने सगे भाई को विरक्त करने के लिए उच्चाटन – मंत्र माँगता था । कोई किसी को वश में करने के साधन का जिज्ञासु था। कोई रेहन रखे हुए खेत को बिना रुपया चुकाए लौटाने का उपाय पूछता था ! कोई गिरवी रखे गहने को हथियाने के लिए कर्जदार में चित्त-भ्रम उत्पन्न करने का इच्छुक था। कोई बिना औषध के ही रोगमुक्त होने की याचना करता था। सारांश यह कि भक्तों में प्रायः सभी कोई उचित या अनुचित अभिलाषा छिपाए हुए बाबाजी के सामने हाथ जोड़े बैठे रहते थे।
बाबाजी तो मानो ‘आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’ को चरितार्थ करने के लिए अवतीर्ण हुए थे । तंबाकू के पिंड जैसे काले शरीर में राख का अंगराग लगाकर, नकली जटा – जूट का मुकुट धारण कर और चिमटे का राजदंड थामकर वे एक कुशासन पर आसीन होकर इन याचकों के दरबार का संचालन करते। उनके दान की प्रणाली भी कम रहस्यपूर्ण नहीं थी । किसी याचक की ओर प्रसन्न मुद्रा से देख भर लेते, किसी को हाथ के संकेत से आश्वासन देने का अनुग्रह करते, किसी के प्रति चिमटा खनका कर, असन्तोष व्यक्त करते, किसी को धूनी में से चुटकी भर विभूति देकर सन्तुष्ट कर देते; इस प्रकार न उनके पास से कोई पूर्णतः निराश लौट सकता था, न कृतार्थ ।
जिसकी याचना की ओर उनकी लेशमात्र भी उपेक्षा देखी जाती थी, वह दुगुने उत्साह से उनकी सेवा में लग जाता और जिस पर वे विशेष कृपालु रहते थे, वह उस कृपा को स्थायी बनाये रहने के लिए और अधिक उपहार लाता रहता।
स्त्री याचकों के प्रति उनकी कृपा स्वाभाविक रहती थी। कोई ग्रामवधू जब अपने पति की अवज्ञा या अपनी सन्तानहीनता की दुःखगाथा सुनाती, तब उनकी गाँजे के नशे से अरुण आँखें और अधिक अरुण हो जातीं।
तीन-चार किशोर शिष्य उनकी सेवा में दिन-रात एक किए रहते थे। उनमें कोई कौपीनधारी था, कोई अँगोछा लपेटे घूमता था । कोई मुण्डित सिर था, किसी की नकली नई जटा सिर से खिसक खिसक जाती थी। कोई उनके लिए प्रसाद लाते-लाते बीच में थोड़ा चख लेता था और कोई चिलम भरते भरते एक दम लगाए बिना न रहता। गाँव के कुतूहली लड़के बाबाजी को घेरे ही रहते थे। इन्हीं के साथ हुलासी भी वहाँ आने-जाने लगा।
बाबाजी मुखमुद्रा, व्यवहार, कथोपकथन आदि से बहुत कुछ जान लेने की शक्ति रखते थे। हुलासी के सम्बन्ध में वे कितना जान चुके थे, यह कहना तो कठिन है; पर एक दिन उसे प्रथम बार देखने का अभिनय करके वे बोल उठे -“अहा! तू तो बड़ा सिद्ध पुरुष होने वाला है बच्चा ! तेरा ललाट तो दग़दगाता है; पर तेरे मन में – जरा पास आ, तेरी भाग्य रेखा तो देखूँ !”
अजगर की साँस, जैसे उसका आहार बनने योग्य जीव-जन्तु को खींच लात है, वैसे ही बाबाजी की दृष्टि हुलासी को निकट खींच लाई। फिर इस आकर्षण से वह कभी न मुक्त हो सका।
गुंगिया ने भी बाबाजी के पास तिल, गुड़, तेल आदि की सौगात भेजी थी; परन्तु उनसे कुछ पूछने के लिए न उसके पास वाणी थी न इच्छा । हुला जब वहाँ रात-दिन पड़ा रहने लगा तब उसे चिन्ता हुई। एक दिन वह बाबाजी के सामने ही उसे हाथ पकड़कर घसीट लाई; पर दूसरे दिन वह उसकी आज्ञा की उपेक्षा करके फिर वहीं जा पहुँचा। कोई उपाय न रहने पर उसने बाबाजी के सामने फटा आँचल फैलाकर अपने एकमात्र बालक की भिक्षा माँगी।
बाबाजी चाहे करुणार्द्र हो गए हों; चाहे उन्होंने परिहास किया हो; पर यह सत्य है कि उन्होंने हुलासी को घर जाने और वहाँ कभी न आने की आज्ञा देकर दीर्घ निःश्वास लिया। हुलासी तब से वहाँ नहीं देखा गया।
चतुर्मासा पूरा होने के कुछ दिन शेष रहते ही एक दिन सबेरे गाँव वालों ने अमराई को सूना देखा । बाबाजी सम्भवतः रात में ही चले गए थे। उनके जाने का समाचार सुनकर और हुलासी के बिछौने को खाली देखकर गुंगिया ने अपना कपार पीट लिया। गाँव में कहीं उसे न पाकर वह कई मील तक रोती-बिलखती दौड़ी चली गई; पर बाबाजी का कोई चिह्न नहीं मिला। कुछ दिन बाद पता चला कि उसी रात को ऐसी एक साधु मण्डली चार-पाँच मील दूरस्थ स्टेशन से रेल पर सवार होकर चली गई है; पर इससे अधिक समाचार पाना सम्भव न हो सका।
गुंगिया का दुःख भी गाँववालों के कौतुक का कारण बन गया था। कोई चिढ़ाता – “बाबाजी आये गुंगिया !” कोई परिहास में कहता – ” हुलासी का तार आया गुंगिया!” कोई व्यंग्य करता – ” और दूसरे का बेटा लेकर लड़के वाली बन !”
पर गुंगिया हुलासी की प्रतीक्षा के अतिरिक्त और कुछ न जानती थी, न समझती थी। वह गाँव के लड़कों में न जाने क्या खोजती रहती । नया खिलौना देखते ही खरीद लाती और लाल पिटारी में सँभालकर रख देती। नया कपड़ा देखते ही हुलासी के नाप का कुरता सिलवा लेती और तह करके अपने काठ के सन्दूक में धर देती। हुलासी को अच्छी लगनेवाली मिठाइयाँ देखते ही मोल ले लेती और सीके पर रख आती। कभी-कभी रात के सन्नाटे में द्वार खोलकर किसी के आने की आहट सुनती। उसे पूर्ण विश्वास था कि हुलासी निश्चय ही एक दिन उसके पास लौट आवेगा; पर वह नहीं लौटा, तो नहीं लौटा।
जब मैंने गुंगिया को देखा, तब यह घटना बारह-तेरह वर्ष पुरानी हो चुकी थी। हुलासी को उसकी गूँगी मौसी के अतिरिक्त सारा गाँव भूल चुका था ।
अचानक, कई वर्षों के उपरान्त गाँव लौटे हुए एक व्यक्ति ने बताया कि हुलासी कलकत्ते में एक सेठ का दरबान हो गया है। उसने विवाह करके गृहस्थी बसा ली है और उसके कई बच्चे हैं।
इस समाचार में सत्य का कितना अंश था, यह तो कहने वाला ही जाने; पर गाँववालों ने तो इस दन्तकथा में भी गुंगिया को चिढ़ाने का साधन पा लिया । अब हुलासी बड़ी आदमी हो गया है, अब वह गुंगिया को शहर दिखाएगा, मोटर में घुमाएगा आदि कहकर वे परिहास करने लगे; पर गुंगिया के लिए परिहास भी सत्य था।
भागकर कभी माँ की खोज-खबर तक न लेने वाले बेटे पर क्रोधित होना तो दूर की बात है, वह उसके प्रति और भी अधिक ममतामयी हो उठी।
उसका लड़का न जाने कितने कष्ट से दिन बिताता होगा। उस परदेश में किसने उसकी भूख-प्यास की चिन्ता की होगी, किसने उसके कपड़े-लत्ते का ध्यान रखा होगा । उन बैरागियों की टोली ने अवश्य ही उसे घुघ्घू का मांस खिलाकर घुघ्घू बना लिया था। जब उसे घर की सुधि आई होगी, तब लौटने के लिए रुपया-पैसा ही न रहा होगा। अब अवसर मिलते ही वह भला आदमी बन गया। गुँगिया अम्मा जीती है, इसे वह कैसे जान सकता है? गाँव में किसी को लिखते हुए उसे लाज लगती होगी। फिर इतने वर्षों बाद उसे कौन पहचानेगा, यही सोचकर उसने न लिखा होगा। पर उसकी गुँगिया अम्मा को तो इसे पत्र लिखना ही चाहिए। उसका समाचार पाते ही वह दौड़ा चला आवेगा । बहू भी आवेगी ही। बच्चे क्या दादी को देखने के लिए हठ न करेंगे? इसी प्रकार के विचारों में डूबती-उतराती गुँगिया एक दिन पत्र लिखने की इच्छा कर बैठी।
पर उसका पत्र लिखना सहज नहीं था । ‘सिद्ध श्री सर्वोपमायोग्य श्री हुलासी तेली को उसकी गुँगिया अम्मा को आशीष पहुँचे’ लिखने के बाद गाड़ी रुक गई। तुमने भागकर बहुत बुरा किया, क्या यह लिखूँ, पूछने पर गुँगिया ने तर्जनी दिखाकर मना किया। तुमने जो कुछ किया, अच्छा किया, क्या यह लिख दूँ, पूछने पर गुँगिया ने सिर हिलाकर अस्वीकृति प्रकट की । तुम्हारी गुँगिया अम्मा बारह बरस से तुम्हारी राह देख रही है, क्या यह लिखना चाहिए? पूछने पर गुँगिया की अनुकूल सम्मति प्राप्त हुई। बस इसी प्रकार नौसिखिये कवि के समान वाक्य जोड़-जोड़कर तोड़-तोड़कर मैंने पत्र समाप्त किया।
पता किसी को ज्ञात नहीं था, इसी से श्री हुलासीदीन तेली, कलकत्ता, लिखकर गुँगिया से पिण्ड छुड़ाया। चिट्ठी वह स्वयं डाल आई। पर इतने ही से मुझे छुट्टी न मिल सकी; क्योंकि गुँगिया जहाँ-तहाँ मुझे घेर कर उस डेड लेटर आफिस में खोये हुए पत्र के उत्तर के सम्बन्ध में अनेक संकेतात्मक प्रश्न करने लगी ।
मेरी एक सहपाठिनी उन्हीं दिनों कलकत्ते में रहकर डाक्टर युनान से अपनी चिकित्सा करा रही थीं, उन्हीं को मैंने गुँगिया की कथा लिखकर हुलासी को खोजने का काम सौंपा। एक सप्ताह बाद उनका जो उत्तर मिला, वह व्याजनिन्दा से भरा हुआ था। बिना पता-ठिकाना बताए हुए उस जन-समुद्र में हुलासी-जैसे अकिंचन व्यक्ति को खोज लेने की मैंने जो कल्पना की है, वह मेरी अगाध नासमझी का परिचय देती है। ऐसा व्यवहार ज्ञान शून्य व्यक्ति लोक-समस्या में अपने आपको न उलझाकर ही सुखी हो सकता है। हुलासी के पते के स्थान में यह सब उपदेश सुनकर मेरा मन खीज उठा तो आश्चर्य नहीं ।
कुछ दिन और बीत गए। इसी बीच गुँगिया बीमार पड़ गई। उसे कई महीनों से जीर्ण ज्वर आ रहा था, जिसकी परिणति क्षय में हुई। जब वह खटिया से लग गई, तभी उसने काम करना बंद किया। ज्यों-ज्यों खाँसी और कफ का कष्ट बढ़ता गया, त्यों-त्यों आने-जानेवालों की संख्या घटती गई। एक दूर का संबंधी गुँगिया के बैल, कोल्हू आदि का प्रबंध करता था और उसकी कन्या रोगिणी की थोड़ी-बहुत सेवा टहल कर जाती थी।
जब कभी मैं गुँगिया को देखने पहुँच जाती, तब वह अपनी थकावट की चिंता न करके विविध संकेतों और चेष्टाओं द्वारा हुलासी के पत्र की बात पूछती ।
इन्हीं दिनों सहपाठिनी का पत्र आया । उन्होंने लिखा कि हरभजन नामक नए नौकर को हुलासी को खोज निकालने का काम सौंपा गया था । हुलासी का तो अब तक पता न चल सका; पर गुँगिया के संबंध में सब जानकर हरभजन बहुत दुखी हुआ है। उसका घर भी उसी ओर किसी गाँव में है और वह भी दस-बारह वर्ष पहले अपनी माँ को बिना बताए भाग आया था। अब उसकी माँ मर चुकी है; पर गुँगिया को सुख पहुँचाकर वह अपनी माँ की आत्मा को संतोष दे सकेगा, ऐसा उसका विश्वास है। तीसरा दर्जा पास होने के गर्व में वह स्वयं उल्टा सीधा पत्र लिख रहा है। गुँगिया को वह कुछ रुपया भी भेजना चाहता है। उसकी ओर से मालकिन ही भेज दें, यह प्रस्ताव उसे पसंद नहीं, क्योंकि वह अपने पसीने की कमाई में से देना उचित समझता है। सत्यवादी बने रहने के प्रयास में उस मरणासन्न माँ का क्षणिक संतोष न नष्ट करूँगी, ऐसी उन्हें आशा है।
एक सप्ताह के उपरांत हरभजन का पत्र और उसके भेजे दस रुपए भी मिल गए। कलकत्ते से समाचार आया है, सुनकर ही गुँगिया ने भेजनेवाले को हुलासी समझ लिया। इसी से उससे न सत्य कहने की आवश्यकता हुई न असत्य कहने की। हरभजन के पत्र से भी न भेजने वाले का पता चलता था न पानेवाला का । कोई भी ग्रामीण पुत्र अपनी माँ को जो कुछ लिख सकता है वही उसने लिखा- “मइया हम जन्म-जन्म सेवा करके तुमसे उरिन नाहीं हुई सकित है। तुम तौ हमार लेखे विधना हौ । हमार मति बौराय गई नाहिं त हम तुम्हार अस महतारी छाँड़ि कै देस परदेश काहे भटकत फिरित । अब हम तुम्हरे चरनन मा आउब जरूर । छुट्टी मिलै भर की देरी समझौ । तुम कौनउ परकार की चिंता न करौ । तुम्हार आसिरबाद हमारे ऊपर छत्तर जस छावा रहता है। हम कब्बौ विपदा मा न पड़ब तुम्हार बहुरिया और पोता पालागन भेजत है।”
गुँगिया ने उस मैले-फटे कागज के टुकड़े को अस्थिशेष उँगलियों में दबाकर पंजर – जैसे हृदय पर रखकर आँखें मूँद लीं; पर झुर्रियों में सिमटी हुई पलकों के कोनों से बहनेवाली आँसू की पतली धार उसके कानों को छूकर मैल से चीकट तकिये को धोने लगी ।
इसके एक मास बाद वह हुलासी के खिलौनों की खुली पिटारी और कपड़ों से भरे बक्स के बीच में मरी पाई गई। रुपए उसके तकिये के नीचे ज्यों-के-त्यों धरे मिले ।
हरभजन के संबंध में और अधिक जानने का मैंने प्रयत्न किया; पर वह मालकिन के साथ इस ओर लौटा नहीं और वहाँ उसे खोजना हुलासी को खोजने के समान ही असंभव है।
जीवन में मैंने जितने विचित्र व्यक्ति और जैसे रहस्मय इतिवृत्त देखे सुने हैं, उनके सामने कल्पना के सभी निर्माण फीके पड़ सकते हैं; पर गुँगिया मेरे हृदय में जो करुण विस्मय जगा सकी थी, वह फिर नहीं जगा । मेरा पत्र – लेखन क्रम टूटा नहीं। तब मैं अपने विनोद के लिए दूसरों की जीवन-कथा लिखती थी और अब दूसरों के सुख-दुःख पढ़ती हूँ, गुँगिया जैसे व्यक्तित्व को खोजने के लिए। पर संसार में अज्ञान की जितनी आवृत्तियाँ होती हैं उतनी ज्ञान की नहीं, इसी से जीवन रहस्य की झलक देनेवाले क्षणों का प्रत्यावर्त्तन भी सहज नहीं ।
कभी-कभी सोचती हूँ, वह वात्सल्य की अवाक्; पर चिर-स्पंदनशील प्रतिमा क्या मेरी स्मृति में अकेली रहेगी।