+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

Day:

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं/दुष्यंत कुमार

नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं वो देखते है तो लगता है नींव हिलती है मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन ये बर्फ आंच के आगे पिघल न जाए कहीं चले हवा तो किवाड़ों को बंद […]

घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है/दुष्यंत कुमार

घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है एक नदी जैसे दहानों तक पहुंचती है अब इसे क्या नाम दें , ये बेल देखो तो कल उगी थी आज शानों तक पहुंचती है खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है अब लपट शायद मकानों तक पहुंचती है आशियाने को सजाओ तो समझ लेना, बरक कैसे आशियानों तक […]

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए/दुष्यंत कुमार

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए । खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए । दुकानदार तो […]

फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है/दुष्यंत कुमार

फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है, वातावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है, जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है हमको पता भी नहीं था , वो आग ठण्डी पड़ी थी, जिस आग पर आज […]

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ/दुष्यंत कुमार

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ । मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ । गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ । क्या वज़ह है प्यास […]

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ/दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं जिन्हें रात-दिन स्मरण कर […]

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं/दुष्यंत कुमार

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं हवा में सनसनी घोले हुए हैं तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो क़ुरान-ओ-उपनिषद् खोले हुए हैं मज़ारों से दुआएँ माँगते हो अक़ीदे किस क़दर पोले हुए हैं हमारे हाथ तो काटे गए थे हमारे […]

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही/दुष्यंत कुमार

खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा या यूँ […]

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली/दुष्यंत कुमार

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है बंद […]

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है/दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है एक चादर साँझ ने […]