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Month: सितम्बर 2023

काम पड़े तो पीछे हटते/डॉ. वेद मित्र शुक्ल

मिट्टी, मौसम, आँखें नम हैं, सबके अपने अपने गम हैं। तिल रखने की जगह नहीं पर, अच्छे लोग बहुत ही कम हैं। आँखों में ख्वाहिशें हजारों, हर पल जीते-मरते हम हैं। उजियारे में भी अंधियारे, कैसे-कैसे होते तम हैं। काम पड़े तो पीछे हटते, वैसे सब ही रखते दम हैं।

कितनी बार बहा बारिश में/डॉ. वेद मित्र शुक्ल

मन है भीग रहा बारिश में, होकर के तनहा बारिश में। पावस रितु की जलन न पूछो, क्या-क्या नहीं सहा बारिश में। कागज की कश्ती सा होकर, कितनी बार बहा बारिश में। ‘आओ, चलो घूम के आयें,’ उसने मुझे कहा बारिश में। यों हैं मेघ छुयें धरती ने, हर इक बूँद गहा बारिश में। सावन की […]

साँसें जल्दी ही हार गयीं/डॉ. वेद मित्र शुक्ल

बादल सा हो इस कदर रहा, जीते जी यारो निडर रहा। बहते पानी सी किस्मत थी, बस पाया कब, दरबदर रहा। सावन, कजरी सब भूल गया, इक कमरा लेकर शहर रहा। साँसें जल्दी ही हार गयीं, जो धूल, धुएं का कहर रहा। पतझड़ भी क्या कर सकता था, यादों का इक जो शजर रहा।

इच्छाओं को भूल गया जब/डॉ. वेद मित्र शुक्ल

ऐसा दोस्त! मुकद्दर देखा, प्यासा एक समंदर देखा। दुख ही अंतिम सत्य मिला है, इस-उसका जिसका दर देखा। इच्छाओं को भूल गया जब, खुद में मस्त कलंदर देखा। सैंतालिस तक अच्छा था, अब- घिन आयी जब खद्दर देखा। टी वी औ अखबारों से जो- दूर रहा, सब सुंदर देखा।

भूले तुलसी-बरगद वाले/डॉ. वेद मित्र शुक्ल

होती है रफ्तार शहर में, मिलना मुश्किल यार शहर में। बाजारों में रौनक पसरी, हैं उदास घर-बार शहर में। जो सबके ही काम बनाए, उन जैसे दो-चार शहर में। गाँवों में चौपाल सजें औ- मिलते हैं अखबार शहर में। हर दिन ही इक सी बेचैनी, मन ढूंढे इतवार शहर में। भूले तुलसी-बरगद वाले- सारे ही […]

हो ‘गणेश’ उत्तीर्ण/भाऊराव महंत

लम्बी-लम्बी सूंड तुम्हारी, सूपे जैसे कान। और सामने लेकर बैठे, मोदक की दूकान। मुँह में एक दाँत है केवल, मटके जैसा पेट। जिसमें भर सकते हैं हम तो, लड्डू सौ-सौ प्लेट। इतना भोग लगाने से भी, होता नहीं अजीर्ण। भोजन खूब पचाने में तुम, हो ‘गणेश’ उत्तीर्ण।।

वेग कहाँ से लाऊँ/भाऊराव महंत

घोड़ागाड़ी,ऑटोरिक्शा, कार, सायकिल, मोटर। बस में बैठा हुआ ड्राइवर- और उसका कंडक्टर।। एम्बुलेंस, ट्रक, रेलगाड़ियाँ, मैट्रो, हैलीकॉप्टर। बड़े-बड़े जहाज पानी के, दमकल-वाहन, ट्रैक्टर। छोटे-बड़े सभी यानों के, सुंदर चित्र बनाऊँ। लेकिन अम्मा उन चित्रों में, वेग कहाँ से लाऊँ।।

 छू-मंतर/भाऊराव महंत

  एक कबूतर छत पर आया, गुटर-गुटर-गू उसने गाया। उस छत पर थी नन्ही मुनिया, देख कबूतर की यह दुनिया। मुनिया ने जैसे बतलाया, ‘छत पर एक कबूतर आया। मुनिया की यह बातें सुनकर, हुआ कबूतर झट छू–मंतर।

 सम्मान/भाऊराव महंत

बहुत बड़ा संसार हमारा, उसमें देश अनेक। दुनिया भर के उन देशों में, भारत भी है एक।। जिसका एक तिरंगा झंडा, और एक है गान। करता है प्रत्येक आदमी, दोनों का सम्मान।। लेकिन जो सम्मान न करते, हम हैं उनसे रुष्ट। ऐसी आदत वालों को तो, कहते हम सब दुष्ट।।

ये बच्चे हैं/भाऊराव महंत

करते रहते ये बच्चे हैं, काम इन्हें जो चाहे दे दो। चंगू-मंगू, गोलू-मोलू, आशा-ऊषा या फिर भोलू। बड़े प्यार से बातें करते, नाम इन्हें जो चाहे दे दो। जितनी होती इन्हें जरूरत, उससे अधिक न इनकी चाहत। ख़ुश हो जाते थोड़े-से में, दाम इन्हें जो चाहे दे दो। इस दुनिया के बच्चे सारे, आसमान के […]

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