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कितना लगान बाक़ी है/डॉ. राकेश जोशी  

मंज़िलों का निशान बाक़ी है और इक इम्तहान बाक़ी है एक पूरा जहान पाया है एक पूरा जहान बाक़ी है आसमां, तुम रहो ज़रा बचकर अब भी उसकी उड़ान बाक़ी है तन तो सारा निचोड़ आया हूँ मन की सारी थकान बाक़ी है खेत बंजर कभी नहीं होगा एक भी गर किसान बाक़ी है खंडहर […]

हो शहर में कोई एक ऐसी नदी/डॉ. राकेश जोशी  

आदमी के लिए ज़िंदगानी तो लिख धूप कोई कभी आसमानी तो लिख छुट्टियों में भला, जाएं बच्चे कहाँ हर किसी के लिए एक नानी तो लिख हो शहर में कोई एक ऐसी नदी जिससे सबको मिले थोड़ा पानी तो लिख आज फिर बैठकर कोई कविता सुना और जनता हुई है सयानी तो लिख ये ज़मीं, […]

कुछ बुझे चूल्हे बताते रह गए/डॉ. राकेश जोशी  

या मकानों का सफ़र अच्छा रहा या ख़ज़ानों का सफ़र अच्छा रहा जो ज़बां लेकर चले थे, मिट गए बे-ज़बानों का सफ़र अच्छा रहा भूख के किस्से ग़रीबों ने सुने दास्तानों का सफ़र अच्छा रहा झुग्गियों में पल रही है सभ्यता आसमानों का सफ़र अच्छा रहा कुछ बुझे चूल्हे बताते रह गए कारख़ानों का सफ़र […]

जिस क़दर लोगों की थीं मजबूरियां कुछ/डॉ. राकेश जोशी  

कल ज़मीं पर आज-से दंगल नहीं थे आज जो भी हैं सफ़र में, कल नहीं थे देखकर ये खुश हुआ मन, क्यारियों में ढेर-सारी सब्ज़ियाँ थीं, फल नहीं थे आज बस्ती में कहीं पानी नहीं है कल तो पानी था मगर कल नल नहीं थे थी सड़क चौड़ी बहुत, पर रास्ते में वो पुराने पेड़, […]

खेतों में हल लेकर निकलो/डॉ. राकेश जोशी  

ख़ंजर को ख़ंजर कहना है ऐसा अब अक्सर कहना है सहमे-सहमे, डरे हुए हो डर को भी अब डर कहना है शीशों के इस शहर में आकर पत्थर को पत्थर कहना है खेतों में हल लेकर निकलो बंजर को बंजर कहना है जंगल में तुम सबको जाकर बंदर को बंदर कहना है सर्दी के ही […]

योजनाएं क्यों बनीं/डॉ. राकेश जोशी

                  आपने गिरवी रखे जो खेत वो बंजर तो दें और फ़सलों का हमें इक ख़्वाब ही सुंदर तो दें ऑनलाइन ज़िंदगी है हर किसी की आजकल ऑनलाइन ही सही पर बेघरों को घर तो दें ख़ूब चिड़ियों को डराएं, ख़ूब फेंकें जाल भी  पर, उन्हें भी […]

छुपाते हम कहाँ पर आँसुओं को/डॉ. राकेश जोशी

तेरी दावत में गर खाना नहीं था तुझे तंबू भी लगवाना नहीं था मेरा कुरता पुराना हो गया है मुझे महफ़िल में यूं आना नहीं था इमारत में लगा लेता उसे मैं मुझे पत्थर से टकराना नहीं था ये मेरा था सफ़र, मैंने चुना था मुझे काँटों से घबराना नहीं था समझ लेता मैं ख़ुद […]

हमारे गाँव सुंदर कब बनेंगे/डॉ. राकेश जोशी

इन ग़रीबों के लिए घर कब बनेंगे तोड़ दें शीशे, वो पत्थर कब बनेंगे कब बनेंगे ख़्वाब जो सच हो सकें और चिड़ियों के लिए पर कब बनेंगे लो, बन गए सुंदर हमारे शहर सब पर, हमारे गाँव सुंदर कब बनेंगे शर्म से झुकते हुए सर हैं हज़ारों गर्व से उठते हुए सर कब बनेंगे […]

अपने घर के दरवाज़े की तख़्ती पर/डॉ. राकेश जोशी

दीवारों से कान लगाकर बैठे हो पहरे पर दरबान लगाकर बैठे हो इससे ज़्यादा क्या बेचोगे दुनिया को सारा तो सामान लगाकर बैठे हो दुःख में डूबी आवाज़ें न सुन पाए ऐसा भी क्या ध्यान लगाकर बैठे हो बेच रहा हूँ मैं तो अपने कुछ सपने तुम तो संविधान लगाकर बैठे हो हमने तो गिन […]

क़लम का कारख़ाना क्यों/डॉ. राकेश जोशी

अगर लिखना मना है तो क़लम का कारख़ाना क्यों अगर पढ़ना मना है तो यहाँ काग़ज़ बनाना क्यों इसी दुनिया में बेहतर इक नई दुनिया बसाने को यहाँ तक आ गए हैं तो यहाँ से लौट जाना क्यों वहाँ लेकर ही क्यों आया जहाँ फिसलन ही फिसलन है ये जनता है, नहीं समझी, तू राजा […]

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