है वो फूल जैसी कोमल, बेहद ख़ूबसूरत और महकदाऱ, कि,
हम तो सोच भी नहीं सकते, कि यहाँ तो हजारों कतार में हैं,
हम जैसे हैं कई, जो हैं उनकी क़ातिल अदाओं से घायल,
लेकिन फ़िर भी उनके दीदार-ए-हुस्न के इंतज़ार में हैं,
इक अरसे से लगे हैं जितने भी, हैं वो पूरी शिद्दत लिये हुए,
कुछ कह नहीं सकते, क्योंकि अभी तो सबके सब मझधार में हैं,
ख़्वाब है ग़र इन आँखों में कहीं, तो यक़ीनन है उसी का,
पास आकर छू गई हो जैसे, शायद वो चल रही बयार में है,
चाहूँ भी ग़र मैं, तो लाख चाहकर भी उसे गले लगा सकता ही नहीं,
वो तो है किसी “देव” जैसी अदृश्य और बेहिसाब रफ़्तार में है,
है वो फूल जैसी कोमल/देवेंद्र जेठवानी