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सुआ-खंड-5 पद्मावत/जायसी

पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी ॥
कहेसि चलौं जौ लहि तन पाँखा । जिउ लै उड़ा ताकि बन ढाँखा ॥
जाइ परा बन खँड जिउ लीन्हें । मिले पँखि, बहु आदर कीन्हें ॥
आनि धरेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि बिधि राखा ॥
पाइ भुगुति सुख तेहि मन भएऊ । दुख जो अहा बिसरि सब गएऊ ॥
ए गुसाइँ तूँ ऐस विधाता । जावत जीव सबन्ह भुकदाता ॥
पाहन महँ नहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा ॥

तौ लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट ।
पुनि बिसरन भा सुमिरना जब संपति भै भेंट ॥1॥

(बनढाँख=ढाक का जंगल,जंगल, अहा=था)

पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥
सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥
रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥
गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥
टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड़, मधुकर उड़ि भागे ॥
एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥
चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥

उड़ि यह सुअटा कहँ बसा खोजु सखी सो बासु ।
दहुँ है धरती की सरग, पौन न पावै तासु ॥2॥

(पाल=बाँध,किनारा, चिहुर=चिकुर,केश, सँकेता=सँकरा,तंग)

जौ लहि पींजर अहा परेवा । रहा बंदि महँ, कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बंदि हुति छुटै जो पावा । पुनि फिरि बंदि होइ कित आवा?॥
वै उड़ान-फर तहियै खाए । जब भा पँखी, पाँख तन आए ॥
पींजर जेहिक सौंपि तेहि गएउ । जो जाकर सो ताकर भएउ ॥
दस दुवार जेहि पींजर माँहा । कैसे बाँच मँजारी पाहाँ?॥
चहूँ पास समुझावहिं सखी । कहाँ सो अब पाउब, गा पँखी ॥
यह धरती अस केतन लीला । पेट गाढ़ अस, बहुरि न ढीला ॥

जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न पानि ।
तेहि बन सुअटा चलि बसा कौन मिलावै आनि ॥3॥

(हुति=से)

सुए तहाँ दिन दस कल काटी । आय बियाध ढुका लेइ टाटी ॥
पैग पैग भुईं चापत आवा । पंखिन्ह देखि हिए डर खावा ॥
देखिय किछु अचरज अनभला । तरिवर एक आवत है चला ॥
एहि बन रहत गई हम्ह आऊ । तरिवर चलत न देखा काऊ ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं । आवहु यह बन छाँड़ि पराहीं ॥
वै तौ उड़े और बन ताका । पंडित सुआ भूलि मन थाका ॥
साखा देखि राजु जनु पावा । बैठ निचिंत चला वह आवा ॥

पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच ।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच ॥4॥

(ढुका=छिपकर बैठा, आऊ=आयु, काऊ=कभी, खोंचा=
चिड़िया फँसाने का बाँस)

बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥
बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा?॥
यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥

हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ ।
तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ?॥5॥

(डेली=डली,झाबा, डहन=डैना,पर, चिरिहार=बहेलिया,
ढुकत=छिपाता, लगी=लग्गी,बाँस की छड़, फूला=हर्ष
और गर्व से इतराया, अँगूरा=अंकुर)

सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल-गरब जेहि भूले ॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा परा साथ तहँ बैरी केरा ॥
सुख कुरबारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब व्याध तुलाना ॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड़ लाइ पंखिन्ह कहँ धरा?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना । यह न चिंत आगे है मरना ॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा । तब जाना खोंचा हिए गाड़ा ॥

चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ ।
अब जो पाँद परा गिउ, तब रोए का होइ? ॥6॥

(कुरवारि=खोद,खोदकर,चोंच मार-मारकर, तुलाना=
आ पहुँचा, जेहि पाहाँ=जिस (ईश्वर) से, गिउ=ग्रीवा,गला)

सुनि कै उतन आँसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधा बुधि -ओछे ॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी । पढ़ा सुआ कित धरै मजारी?॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला ॥
तादिन व्याध भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नावँ परेवा ॥
भै बियाधि तिसना सँग खाधू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधू ॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा ॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधहि दोष अपाना ॥

सो औगुन कित कीजिए जिउ दीजै जेहि काज ।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली, पखिराज ॥7॥

(खाधु=खाद्य, लोभवै=लोभ ही ने, मस्ट=मौन)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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