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बंधन-मोक्ष; पद्मावती-मिलन-खंड-54 पद्मावत/जायसी

पदमावति मन रही जो झूरी। सुनत सरोवर-हिय गा पूरी ॥
अद्रा महि-हुलास जिमि होई । सुख सोहाग आदर भा सोई ॥
नलिन नीक दल कीन्ह अँकूरू । बिगसा कँवल उवा जब सूरू ॥
पुरइनि पूर सँवारे पाता । औ सिर आनि धरा बिधि छाता ॥
लागेउ उदय होइ जस भोरा । रैनि गई, दिन कीन्ह अँजोरा ॥
अस्ति अस्ति कै पाई कला । आगे बली कटक सब चला ॥
देखि चाँद पदमिनि रानी । सखी कुमोद सबै बिगसानी ॥

गहन छूट दिनिअर कर, ससि सौं भएउ मेराव ।
मँदिर सिंघासन साजा, बाजा नगर बधाव ॥1॥

(झूरी रही=सूख रही थी, अस्ति अस्ति=वाहवाह, दिनिअर=
दिनकर,सूर्य)

बिहँसि चाँद देइ माँग सेंदूरू । आरति करै चली जहँ सूरू ॥
औ गोहन ससि नखत तराईं । चितउर कै रानी जहँ ताईं ॥
जनु बसंत ऋतु पलुही छूटीं । की सावन महँ भीर बहूटी ॥
भा अनंद, बाजा घन तूरू । जगत रात होइ चला सेंदूरू ॥
डफ मृदंग मंदिर बहु बाजे । इंद्र सबद सुनि सबै सो लाजै ॥
राजा जहाँ सूर परगासा । पदमावति मुख-कँवल बिगासा ॥
कवँल पाँय सूरुज के परा । सूरुज कवँल आनि सिर धरा ॥

सेंदुर फूल तमोल सौं, सखी सहेली साथ ।
धनि पूजे पिउ पायँ दुइ, पिउ पूजा धनि माथ ॥2॥

पूजा कौनि देउँ तुम्ह राजा? । सबै तुम्हार; आव मोहि लाजा ॥
तन मन जोबन आरति करऊँ । जीव काढ़ि नेवछावरि धरऊँ ॥
पंथ पूरि कै दिस्टि बिछावौं । तुम पग धरहु, सीस मैं लावौं ॥
पायँ निहारत पलक न मारौं । बरुनी सेंति चरन-रज झारौं ॥
हिय सो मंदिर तुम्हरै, नाहा । नैन-पंथ पैठहु तेहि माहाँ ॥
बैठहु पाट छत्र नव फेरी । तुम्हरे गरब गरुइ मैं चेरी ॥
तुम जिउ, मैं तन जौ लहि मया । कहै जो जीव करै सौ कया ॥

जौ सूरज सिर ऊपर, तौ रे कँवल सिर छात ।
नाहिं त भरे सरोवर, सूखे पुरइन-पात ॥3॥

(आरति=आरती, पूरि कै=भरकर, सेंति=से, तुम्हरै=तुम्हारा ही,
गरुइ=गरुई, गौरवमयी, छात=छत्र,कमल के बीच छत्ता होता
भी है)

परसि पाय राजा के रानी । पुनि आरति बादल कहँ आनी ॥
पूजे बादल के भुजदंडा । तुरय के पायँ दाब कर-खंडा ॥
यह गजगवन गरब जो मोरा । तुम राखा, बादल औ गोरा ॥
सेंदुर-तिलक जो आँकुस अहा । तुम राखा, माथे तौ रहा ॥
काछ काछि तुम जिउ पर खेला । तुम जिउ आनि मँजूषा मेला ॥
राखा छात, चँवर औधारा । राखा छुत्रघंट-झनकारा ॥
तुम हनुवत होइ धुजा पईठे । तब चितउर पिय आय बईठे ॥

पुनि जगमत्त चढ़ावा, नेत बिछाई खाट ।
बाजत गाजत राजा,आइ बैठ सुखपाट ॥4॥

(तुरयके….कर खंडा=बादल के घोड़े के पैर भी दाबे अपने हाथ से,
सेंदुर तिलक …अहा=सींदूर की रेखा जो मुझ गजगामिनी के सिर
पर अंकुश के समान है अर्थात् मुझ पर दाब रखनेवाले मेरे स्वामी
का (अर्थात् सौभाग्य का) सूचक है, तुम जिउ…मेला=तुमने मेरे
शरीर में प्राण डाले, औधारा=ढारा, छुद्रघंट=घुँघरूदार करधनी
नेत=रेशमी चादर)

निसि राजै रानी कंठ लाई । पिउ मरि जिया, नारि जनु पाई ॥
रति रति राजै दुख उगसारा । जियत जीउ नहिं होउँ निनारा ॥
कठिन बंदि तुरुकन्ह लेइ गहा । जौ सँवरा जिउ पेट न रहा ॥
घालि निगड़ ओबरी लेइ मेला । साँकरि औ अँधियार दुहेला ॥
खन खन करहिं सडासन्ह आँका । औ निति डोम छुआवहिं बाँका ॥
पाछे साँप रहहि चहुँ पासा । भोजन सोइ, रहै भर साँसा ॥
राँध न तहँवा दूसर कोई । न जनों पवन पानि कस होई ॥

आस तुम्हारि मिलन कै, तब सो रहा जिउ पेट ।
नाहिं त होत निरास जौ,कित जीवन, कित भेंट? ॥5॥

(रति रति=रत्ती रत्ती,थोड़ा थोड़ा करके सब, उगसारा=निकाला,
खोला,प्रकट किया, निगड़=बेड़ी, ओबरी=तंग कोठरी, आँका करहि=
दागा करते थे, बाँका=हँसिए की तरह झुका हुआ टेढ़ा औजार
जिससे घरकार बाँस छीलते हैं, भोजन सोइ…साँसा=भोजन इतना
ही मिलता था जितने से साँस या प्राण बना रहे, राँध=पास)

तुम्ह पिउ! आइ-परी असि बेरा । अब दुख सुनहु कँवल-धनि केरा ॥
छोड़ि गएउ सरवर महँ मोहीं । सरवर सूखि गएउ बिनु तोहीं ॥
केलि जो करत हंस उड़ि गयऊ । दिनिअर निपट सो बैरी भयऊ ॥
गईं तजि लहरैं पुरइनि-पाता । मुइउँ धूप, सिर रहेउ न छाता ॥
भइउँ मीन,तन तलफै लागा । बिरह आइ बैठा होइ कागा ॥
काग चोंच, तस सालै, नाहा । जब बंदि तोरि साल हिय माहाँ ॥
कहों`काग! अब तहँ लेइ जाही । जहँवा पिउ देखै मोहिं खाही’ ॥

काग औ गिद्ध न खंडहिं, का मारहं, बहु मंदि?।
एहि पछितावै सुठि मुइउँ, गइउँ न पिउ सँग बंदि ॥6॥

(तुम्ह पिउ…बेरा=तुम पर तो ऐसा समय पड़ा, न खंडहिं=
नहीं खाते थे,नहीं चबाते थे, का मारहिं, बहु मंदि=वे मुझे
क्या मारते,मैं बहुत क्षीण हो रही थी)

तेहि ऊपर का कहौं जो मारी । बिषम पहार परा दुख भारी ॥
दूती एक देवपाल पठाई । बाह्मनि-भेस छरै मोहिं आई ॥
कहै तोरि हौं आहुँ सहेली । चलि लेइ जाउँ भँवर जहँ, बेली!॥
तब मैं ज्ञान कीन्ह, सत बाँधा । ओहि कर बोल लाग बिष-साँधा ॥
कहूँ कँवल नहिं करत अहेरा । चाहै भँवर करै सै फेरा ॥
पाँच भूत आतमा नेवारिउँ । बारहिं बार फिरत मन मारिउँ ॥
रोइ बुझाइउँ आपन हियरा । कंत न दूर, अहै सुठि नियरा ॥

फूल बास, घिउ छीर जेउँ नियर मिले एक ठाइँ ।
तस कंता घट-घर कै जिइउँ अगिनि कहँ खाइँ ॥7॥

(मारी=मार,चोट, साँधा=सना,मिला, कहूँ कँवल…सै फेरा=चाहै
भौंरा (पुरुष) सौ जगह फेरे लगाए पर कमल (स्त्री) दूसरों को
फँसाने नहीं जाता, पाँच भूत…मारिउँ=फिर योगिनी बनकर उस
योगिनी के साथ जाने की इच्छा हुई पर अपने शरीर और
आत्मा को घर बैठे ही वश किया और योगिनी होकर द्वार-
द्वार फिरने की इच्छा को रोका, जेउँ=ज्यों, जिस प्रकार,
फुल बास…खाइ=जैसे फल में महँक और दुध में घी मिला
रहता है वैसे ही अपने शरीर में तुम्हें मिला समझकर इतना
संताप सहकर मैं जीती रही)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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