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देवपाल-दूती-खंड-49 पद्मावत/जायसी

कुंभलनेर-राय देवपालू । राजा केर सत्रु हिय -सालू ॥
वह पै सुना कि राजा बाँधा । पाछिल बैर सँवरि छर साधा ॥
सत्रु-साल तब नेवरै सोई । जौ घर आब सत्रु कै जोई ॥
दूती एक बिरिध तेहि ठाऊँ । बाम्हन जाति, कुमोदिनि नाऊँ ॥
ओहि हँकारि कै बीरा दीन्हा । तोरे बर मैं बर जिउ कीन्हा ॥
तुइ जो कुमोदिनि कँवल के नियरे । सरग जो चाँद बसै तोहि हियरे ॥
चितउर महँ जो पदमिनि रानी । कर बर छर सौं दे मोहिं आनी ॥

रूप जगत-मन-मोहन औ पदमावति नावँ ।
कोटि दरब तिहि देइहौं, आनि करसि एहि ठावँ ॥1॥

(राजा केर=राजा रत्नसेन का, हिय सालू=हृदय में कसकने
वाला, पै=निश्चय, छर=छल, सत्रु-साल तब नेवरै=शत्रु के मन
की कसर तब पूरी पूरी निकलती है, नेवरै=पूरी होती है,
जोइ=जोय,स्त्री)

कुमुदिनि कहा `देखु, हौं सो हौं । मानुष काह, देवता मोहौं ॥
जस काँवरु चमारिनि लोना । को नहिं छर पाढ़त कै टोना ॥
बिसहर नाचहिं पाढ़त मारे । औ धरि मूँदहि घालि पेटारे ॥
बिरिछ चलै पाढ़त कै बोला । नदी उलटि बह, परबत डोला ॥
पढ़त हरै पंडित मन गहिरे । और को अंध, गूँग औ बहिरै ॥
पाढ़त ऐस देवतन्ह लागा । मानुष कहँ पाढ़त सौं भागा?॥
चढ़ि अकास कै काढत पानी । कहाँ जाइ पदमावति रानी’ ॥

दूती बहुत पैज कै बोली पाढ़त बोल ।
जाकर सत्त सुमेरू है, लागे जगत न डोल ॥2॥

(का नहिं छर=कौन नहीं छला गया? पाढ़त कै=पढ़ते हुए,
पाढ़त=पढ़ंत,मंत्र जो पढ़ा जाता है, टोना, मंत्र, जादू, भागा=
बचकर जा सकता है, पैज=प्रतिज्ञा)

दूती बहुत पकावन साधे । मोतिलाडू औ खरौरा बाँधे ॥
माठ, पिराकैं, फैनी, पापर । पहिरे बूझि दूत के कापर ॥
लेइ पूरी भरि डाल अछूती । चितउर चली पैज कै दूती ॥
बिरिध बेस जौ बाँधे पाऊ । कहाँ सो जोबन, कित बेवसाऊ?॥
तन बूढ़ा, मन बूढ़ न होई । बल न रहा, पै लालच सोई ।
कहाँ सो रूप जगत सब राता । कहाँ सो हस्ति जस माता ॥
कहाँ सो तीख नयन, तन ठाढा । सबै मारि जोबन-पन काढा ॥

मुहमद बिरधि जो नइ चलै, काह चलै भुइँ टोह ।
जोबन-रतन हेरान है, मकु धरती महँ होइ ॥3॥

(पकावन=पकवान, साधे=बनवाए, खरौरा=खँडौरा,खाँड या
मिस्री के लड्डू, बूझि=खूब सोच समझकर, कापर कपड़े,
डाल=डला या बड़ा थाल, जौ बाँधे पाऊँ=पैर बाँध दिए,
बेबस कर दिया, बेवसाऊ=व्यवसाय, तन ठाढा=तनी हुई देह)

आइ कुमोदिनी चितउर चढ़ी । जोहन-मोहन पाढ़त पढ़ी ॥
पूछि लीन्ह रनिवास बरोठा । पैठी पँवरी भीतर कोठा ॥
जहाँ पदमिनी ससि उजियारी । लेइ दूती पकवान उतारी ॥
हाथ पसारि धाइ कै भेंटी । “चीन्हा नहिं, राजा कै बेटी?॥
हौं बाम्हनि जेहि कुमुदिनि नाऊँ । हम तुम उपने एकै ठाऊँ ॥
नावँ पिता कर दूबे बेनी । सोइ पुरोहित गँधरबसेनी ॥
तुम बारी तब सिंघलदीपा । लीन्हे दूध पियाइउँ सीपा ॥

ठाँव कीन्ह मैं दूसर कुँभलनेरै आइ ।
सुनि तुम्ह कहँ चितउर महँ, कहिउँ कि भेटौं जाइ ॥4॥

(जोहन-मोहन=देखते ही मोहनेवाला, बरोठा=बैठकखाना,
चीन्हा नहिं=क्या नहीं पहचाना? जेहि=जिसका, उपने=
उत्पन्न हुए, लीन्हे=गोद में लिए, सीपा=सीप में रखकर;
शुक्ति में)

सुनि निसचै नैहर कै कोई । गरे लागि पदमावति रोई ॥
नैन-गगन रबि अँधियारे । ससि-मुख आँसु टूट जनु तारे ॥
जग अँधियार गहन धनि परा । कब लगि सखी नखतन्ह निसि भरा ॥
माय बाप कित जनमी बारी । गीउ तूरि कित जनम न मारी?॥
कित बियाहि दुख दीन्ह दुहेला । चितउर पंथ कंत बँदि मेला ॥
अब एहि जियन चाहि भल मरना । भएउ पहार जन्म दुख भरना ॥
निकसि न जाइ निलज यह जीऊ । देखौं मँदिर सून बिनु पीऊ ॥

कुहुकि जो रोई ससि नखत नैन हैं रात चकोर ।
अबहूँ बोलैं तेहि कुहुक कोकिल, चातक, मोर ॥5॥

(नैहर=मायका;पीहर, नैन-गगन=गगन-नयन, नेत्र-रूपी
आकाश, जनमी=जनी,पैदा की, बारी=लड़की, थुरि=तोड़कर,
मरोड़कर, जनम=जन्मकाल में ही, कंत बँदि=पति की
कैद में, जियन चाहि=जीने की अपेक्षा, कुहुकि=कूक कर,
तहि कुहुक=उसी कूक से,उसी कूक को लेकर)

कुमुदिनि कंठ लागि सुठी रोई । पुनि लेइ रूप-डार मुख धोई ॥
तुइ ससि-रूप जगत उजियारी । मुख न झाँपु निसि होइ अँधियारी ॥
सुनि चकौर-कोकिल-दुख दुखी । घुँघची भई नैन करमुखी ॥
केतौ धाइ मरै कोइ बाटा । सोइ पाव जो लिखा लिलाटा ॥
जो बिधि लिखा आन नहिं होई । कित धावै, कित रौवै कोई ॥
कित कोउ हींछ करै ओ पूजा । जो बिधि लिखा होइ नहिं दूजा ॥
जेतिक कुमुदिनि बैन करेई । तस पदमावति स्रवन न देई ॥

सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल ।
जेहि सिंगार पिय तजिगा जनम न पहिरै भूल ॥6॥

(सुठि=खूब, रूप-डार=चाँदी का थाल या परात, केतौ=
कितना ही, हींछ=इच्छा, बैन करेई=बकवाद करती है,
भूल=भूल, भूलकर भी)

तब पकवान उघारा दूती । पदमावति नहिं छुवै अछूती ॥
मोहि अपने पिय केर खमारू । पान फूल कस होइ अहारू?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटै । बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटै ॥
रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती । और न छुवौं सो हाथ सँकेती ॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजीठी । मुकता लेउँ तौ घुँघची दीठी ॥
नैन करमुहें, राती काया । मोति होहिं घुँघची जेहि छाया ॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे । देखत गा पिउ, गहै न पारे ॥

का तोर छुवौं पकवान, गुड़ करुवा, घिउ रूख ।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेइ सो गएउ पिउ भूख ॥7॥

(उघारा=खोला, खभारू=खभार,शोक, हाथन्ह सेंति=हाथों से,
हाँथ सँकेती=हाथ से बटोरकर, मुकुता लेउँ….दीठी=हाथ में
मोती लेते ही हाथों की ललाई से वह लाल हो जाता है;
राती=लाल, छाया लाल और काली छाया से)

कुमुदिनि रही कँवल के पासा । बैरी सूर, चाँद कै आसा ॥
दिन कुँभिलानि रही, भइ चूरू । बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू ॥
कस तुइ बारि! रहसि कुँभलानी । सूखि बेलि जस पाव न पानी ॥
अबही कँवल करी तुइँ बारी । कोवँरि बैस, उठत पौनारी ॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी । सरवर माहँ रहसि कस सूखी?॥
पान-बेलि बिधि कया जमाई । सींचत रहै तबहि पलुहाई ॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा । बैठु सिघासन, झूलु हिडोरा ॥

हार चीर निति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार ।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार ॥8॥

(कँवल=पद्मावती, बैरी सूर….आसा=कुमुदिनी का बैरी सूर्य है
और वह कुमुदिनी चंद्र की आशा में है अर्थात् उस दूती का
रत्नसेन शत्रु है और वह दूती पद्मावती को प्राप्त करने की
आशा में है, बिगसि रैनि….भूरू=रत्नसेन के अभावरूपी रात
में विकसित या प्रसन्न होकर बातों से भुलाया चाहती है,
रहसि=तू रहती है, कोवँरि=कोमल, पौनारि=मृणाल, बार=देर)

बिहँसि जो जोबन कुमुदिनि कहा । कँवल न बिबगसा, संपुट रहा ॥
ए कुमुदिनि! जोबन तेहि माहा । जो आछै पिउ के सुख-छाहाँ ॥
जाकर छत्र सो बाहर छावा । सो उजार घर कौन बसावा?॥
अहा न राजा रतन अँजोरा । केहिक सिंघासन, केहिक पटोरा? ॥
को पालक पौढ़ै, को माढ़ी? सोवनहार परा बँदि गाढ़ी ॥
चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा । सब सिंगार लेइ साथ सिधारा ॥
कया बेलि तब जानौं जामी । सींचनहार आव घर स्वामी ॥

तौ लहि रहौं झुरानी जौ लहि आव सो कंत ।
एहि फूल, एहि सें र नव होइ उठै बसंत ॥9॥

(अँजोरा=प्रकाशवाला, माढ़ी=मंच,मचिया, बँदि=बंदी में,
एहि फूल=इसी फूल से)

जिनि तुइ, बारि! करसि अस जीऊ । जौ लहि जोबन तौ लहि पीऊ ॥
पुरुष संग आपन केहि केरा । एक कोहाँइ, दुसर सहुँ हेरा ॥
जोबन-जल दिन दिन जस घटा । भँवर छपान, हंस परगटा ॥
सुभर सरोवर जौ लहि नीरा । बहु आदर, पंखी बहु तीरा ॥
नीर घटे पुनि पूछ न कोई । बिरसि जो लीज हाथ रह सोई ॥
जौ लगि कालिंदी, होहि बिरासी । पुनि सुरसरि होइ समुद परासी ॥
जोबन भवँर, फूल तन तोरा । बिरिध पहुँचि जस हाथ मरोरा ॥

कृस्न जो जोबन कारनै गोपितन्ह कै साथ ।
छरि कै जाइहि बानपै, धनुक रहै तोरे हाथ ॥10॥

(कोहाँइ=रूठती है, सहुँ =सामने, भँवर=पानी का भँवर;भौंरे के
समान काले केश, भँवर छपान….परगटा=पानी का भँवर गया
और हंस आया अर्थात् काले केश न रह गए,सफेद बाल हुए,
बिरसि जो लीज=जो बिलस लीजिए,जो बिलास कर लीजिए,
जौ लगि कालिंदि….परासी=जब तक कालिंदी या जमुना है
विलास कर ले फिर तो गंगा में मिलकर, समुद्र में दौड़कर
जाना ही पड़ेगा, अर्थात् जब तक काले बालों का यौवनव है
तब तक विलास कर ले फिर तो सफेद बालोंवाला बुढ़ापा
आवेगा और मृत्यु की ओर झपट ले जायगा, बिरासी,
परासी=तू भागती है अर्थात भागेगी, जोबन भँवर….तोरा=
इस समय जोबनरूपी भौंरा (काले केश) है और फूल सा
तेरा शरीर है, बिरिध=वृद्धावस्था, हाथ मरोरा=इस फूल
को हाथ से मल देगा, बान=तीर वर्ण,कांति, धनुक=
टेढ़ी कमर)

जौ पिउ रतनसेन मोर राजा । बिनु पिउ जोबन कौने काजा ॥
जौ पै जिउ तौ जोबन कहे । बिनु जिउ जोबन काह सो अहे?॥
जौ जिउ तौ यह जोबन भला । आपन जैस करै निरमला ॥
कुल कर पुरुष-सिंघ जेहि खेरा । तेहि थर कैस-सियार बसेरा?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा । सिंघहिं तजि सियार-मुख हेरा ॥
जोबन -नीर घटे का घटा?। सत्त के बर जौ नहिं हिय फटा ॥
सघन मेघ होइ साम बरीसहिं । जोबन नव तरिवर होइ दीसहि ॥

रावन पाप जो जिउ धरा दुवौ जगतमुँह कार ।
राम सत्त जो मन धरा. ताहि छरै को पार? ॥11॥

(आपन जैस=अपने ऐसा, खेरा=घर,बस्ती, थर=स्थल,जगह,)
फार=फाड़े, सत्य के…फटा=यदि सत्त के बल से हृदय न फटे
अर्थात् प्रीति में अंतर न पड़े (पानी घटने से ताल की जमीन
में दरारें पड़ जाती हैं), छरै को पार=कौन छल सकता है))

कित पावसि पुनि जोबन राता । मैँमँत, चढ़ा साम सिर छाता ॥
जोबन बिना बिरिध होइ नाऊँ । बिनु जोबन थाकै सब ठाऊँ ॥
जोबन हेरत मिलै न हेरा । सो जौ जाइ, करै नहिं फेरा ॥
हैं जो केस नग भँवर जो बसा । पुनि बग होहिं, जगत सब हँसा ॥
सेंवर सेव न चित्त करु सूआ । पुनि पछिताहि अंत जब भूआ ।
रूप तोर जग ऊपर लोना । यह जोबन पाहुन चल होना ॥
भोग बिलास केरि यह बेरा । मानि लेहु, पुनि को केहि केरा? ॥

उठत कोंप जस तरिवर तस जोबन तोहि रात ।
तौ लगि रंग लेहु रचि, पुनि सो पियर होइ पात ॥12॥

(राता=ललित, साम सिर छाता=अर्थात् काले केश, थाके=
थक जाता है, बग=बगलों के समान श्वेत, चल होना=चल
देनेवाला है, कोंप=कोंपल,कल्ला, रँग लेहु रचि=रंग लो,भोग-
विलास कर लो)

कुमुदिनि-बैन सुनत हिय जरी । पदमिनि-उरहि आगि जनु परी ॥
रंग ताकर हौं जारौं काँचा । आपन तजि जो पराएहि राँचा ।
दूसर करै जाइ दुइ बाटा । राजा दुइ न होहिं एक पाटा ॥
जेहि के जीउ प्रीति दिढ़ होई । मुख सोहाग सौं बैठे सोई ॥
जोबन जाउ, जाउ सो भँवरा । पिय कै प्रीति न जाइ, जो सँवरा ॥
एहि जग जौ पिउ करहिं न फेरा । ओहि जग मिलहिं जौ दिनदिनहेरा ॥
जोबन मोर रतन जहँ पीऊ । बलि तेहि पिउ पर जोबन जीऊ ॥

भरथरि बिछुरि पिंगला आहि करत जिउ दीन्ह ।
हौं पापिनि जो जियत हौं, इहै दोष हम कीन्ह ॥13॥

(काँचा=कच्चा, राँचा=अनुरक्त हुआ, जाइ दुइ बाटा=दुर्गति को
प्राप्त होता है, जाउ=चाहे चला जाय, भँवरा=काले केश, जो
सँवरा=जिसका स्मरण किया करती हूँ, जौ दिन दिन हेरा=
यदि लगातार ढूँढती रहूँगी)

पदमावति! सो कौन रसौई । जेहि परकार न दूसर होई ॥
रस दूसर जेहि जीभ बईठा । सो जानै रस खाटा मीठा ॥
भँवर बास बहु फूलन्ह लेई । फूल बास बहु भँवरन्ह देई ॥
दूसर पुरुष न रस तुइ पावा । तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा ॥
एक चुल्लू रस भरै न हीया । जौ लहि नहिं फिर दूसर पीया ॥
तोर जोबन जस समुद हिलोरा । देखि देखि जिउ बूड़ै मोरा ॥
रंग और नहिं पाइय बैसे । जरे मरे बिनु पाउब कैसे?॥

देखि धनुक तोर नैना, मोहिं लाग बिष-बान ।
बिहँसि कँवल जो मानै, भँवर मिलावौं आन ॥14॥

(कौनि रसोई=किस काम की रसोई है? जेहि परकार….होई=
जिसमे दूसरा प्रकार न हो,जो एक ही प्रकार की हो, दूसर
पुरुष=दूसरे पुरुष का, बैसे=बैठे रहने से, उद्योग न करने
से, आन=दूसरा)

कुमुदिनि! तुइ बैरिनि, नहिं धाई । तुइ मसि बोलि चढ़ावसि आई ॥
निरमल जगत नीर कर नामा । जौ मसि परै होइ सो सामा ॥
जहँवा धरम पाप नहिं दीसा । कनक सोहाग माँझ जस सीसा ॥
जो मसि परे होइ ससि कारी । सो मसि लाइ देसि मोहिं गोरी ॥
कापर महँ न छूट मसि-अंकू । सो मसि लेइ मोहिं देसि कलंकू ॥
साम भँवर मोर सूरुज करा । और जो भँवर साम मसि-भरा ॥
कँवल भवरि-रबि देखै आँखी । चंदन-बास न बैठै माखी ॥

साम समुद मोर निरमल रतनसेन जगसेन ।
दूसर सरि जो कहावै सो बिलाइ जस फेन ॥15॥

(धाई=धाय,धात्री, मसि चढ़ावसि=मेरे ऊपर तू स्याही पोतती है,
जस सीसा=जैसे सीसा नहीं दिखाई पड़ता है, लाइ लगाकर,
कापर=कपड़ा, सरि=बराबरी का;नदी)

पदमिनि! पुनि मसि बोल न बैना । सो मसि देखु दुहुँ तोरे नना ॥
मसि सिंगार, काजर सब बोला । मसि क बुंद तिल सोह कपोला ॥
लोना सोइ जहाँ मसि-रेखा । मसि पुतरिन्ह तिन्ह सौं जग देखा ॥
जो मसि घालि नयन दुहुँ लीन्ही । सो मसि फेरि जाइ नहिं कीन्हीं ॥
मसि-मुद्रा दुइ कुच उपराहीं । मसि भँवरा जे कवल भँवाहीं ॥
मसि केसहिं, मसि भौंह उरेही । मसि बिनु दसन सोह नहिं देहीं ।
सो कस सेत जहाँ मसि नाही?। सो कस पिंड न जेहि परछाहीं?॥

अस देवपाल राय मसि, छत्र धरा सिर फेर ।
चितउर राज बिसरिगा गएउ जो कुंभलनेर ॥16॥

(घालि लीन्ही=डाल रखी है, मुद्रा=मुहर, उपराहीं=ऊपर,
भँवाहीं=घूमते हैं, कँवल=कमल को, सो कस…..नाहीं=ऐसी
सफेदी कहाँ जहाँ स्याही नहीं, अर्थात् स्याही के भाव के
विना सफेदी की भावना हो ही नहीं सकती, पिंड=साकार
वस्तु या शरीर, जेहि=जिसमें)

सुनि देवपाल जो कुंभलनेरी । पंकजनैन भौंह-धनु फेरी ॥
सत्रु मोरे पिउ कर देवपालू । सो कित पूज सिंघ सरि भालू?॥
दुःख-भरा तन जेत न केसा । तेहि का सँदेस सुनावसि, बेसा?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा । पाहन होइ परै जौ हरुवा ।
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ । सो कस डोलाए डोलै जीऊ?॥
फेरत नैन चेरि सौ छूटी । भइ कूटन कुटनी तस कूटीं ॥
नाक-कान काटेन्हि, मसि लाई । मूँड मूँडि कै गदह चढ़ाई ॥

मुहमद बिधि जेहि गरु गढा का कोई तेहि फूँक ।
जेहि के भार जग थिर रहा, उड़ै न पवन के झूँक ॥17॥

(भौंह=धनु, फेरी=क्रोध से टेढ़ी भौं की, सरि पूज=बराबरी
को पहुँच सकता है, दुःख भरा तन….केसा=शरीर में जितने
रोयें या बाल नहीं उतने दुःख भरे हैं, सोन नदी….गरुवा=
महाभारत में शिला नाम एक ऐसी नदी का उल्लेख है
जिसमें कोई हलकी चीज डाल दी जाय तो भी डूब जाती
है और पत्थर हो जाती है (मेगस्थिनीज ने भी ऐसा ही
लिखा है। गढ़वाल के कुछ सोतों के पानी में इतना रेत
और चूना रहता है कि पढ़ी हुई लकड़ी पर जमकर उसे
पत्थर के रूप में कर देता है) पाहन होइ….हरुवा=हलकी
वस्तु भी हो तो उसमें पड़ने पर पत्थर हो जाती है,
चेरि=दासियाँ, छूटीं=दौड़ीं, कूटन=कुटाई, प्रहार, कुटनी=
कुट्टिनी,दूती, झूँक=झोंका)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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