चांद थककर सो गया था बादलों की ओट में कुछ क्षणों के लिए ….पर आकाश जगमगा रहा था, टिमटिमाते अनगिनत सितारों से । चमक ऐसी लुभावनी जितनी भारतीय सेना आधुनिक हथियारों से लेस जगमगा रही थी…पूरी तैयारी के साथ…पूरे जोश से ।
नीचे जमीन पर घुप्प अंधेरा …इतना कि हाथ को हाथ न सूझे। । सिपाही अपनी-अपनी पोजीशन पर तैनात थे । कैप्टन अमरेंद्र की आँखें सूक्ष्मता से स्थिति का जायजा ले रही थी ।
“ सिपाहियों …आगे ट्रेंच ” । कैप्टन की धीमी फुसफुसाहट । “ अंदर जाना है…झुककर… टुकड़ी अंदर । सब तैयार ? जय भारत माता की ..”।
धीरे-धीरे सभी सिपाही अंदर अपने हथियार की नोक तानकर झुक गए ।
“ जय भारत माता की…यस कैप्टन सब तैयार” ।
अंधकार को चीरती गोलियों की आवाजें । आग उगलते बारूद । दिल दहलाते शोले । धरती कांप सी जा रही थी ।
“सुबेदार…वीरेंद्र सिंग …तुम मुझे कवर दो । कमॉन क्विक…” कैप्टन तेजी से आगे बढे ।
‘क्षमा सर …मैं आगे रहूँगा सरजी” ।
“ पागल न बनो … ऑर्डर ईस ऑर्डर … यहाँ जान नहीं दुश्मन हमारा लक्ष्य है” ।
“ पर आप इस टुकडी के लिए उतने ही जरूरी हो सर । लक्ष्य वही रहेगा । थोडी सी अदला-बदली । मैं आगे और आप कवर करेंगे” ।
“ नो । सजा हो सकती है तुम्हें ऑर्डर न मानने के जुर्म में । कैप्टन मैं हूँ या तुम ?”
“ सर ! आपकी आज्ञा सर आँखों पर लेकिन मैं आगे ” ।
सुबेदार वीरू कैप्टन के आगे हो आया और हथियार संभाला ।
दोनों ओर से वार …नेहले पर देहला … घात-प्रतिघात । । वातावरण थर्राने लगा । भयभीत और अप्रत्याशित … ।
इतने में बिजली सी सनसनाती गोली आई और वीरू के सीने पर लगी । वह खून से लथपथ लेकिन, न वार करना छोड़ा न पीछे ही हटा । पर अगले ही क्षण दर्द से छटपटाता कटे वृक्ष की भांति जमीन पर गिर पड़ा ।
“सुखना …अ…अ। ” कैप्टन की चीख गूँज उठी । “ वीरू घायल हो गया…उसे ट्रेंच के अंदर…” ।
चारों और खून का फव्वारा । धरती खून से रंग गई …और…और … शन्नो चीख मारकर उठ बैठी ।
पूरा बदन पसीने से लथपथ । हड़बड़ी में उसने बाहर देखा … रात गुम होने की कगार पर थी । चारों ओर हल्की चम्पई रोशनी । “उफ्फ… सुबह का सपना ? सुबह का सपना सच होता है । ईश्वर न करे यह सच हो” । दर्द में उसके मुँह से सिसकारी निकल गई । आजकल इसी तरह के भयानक सपने आ रहे थे ।
अचानक फोन की घंटी बजी । रीढ़ की हड्डी में ठंडी सी सिरहन दौड़ आई । गर्भ में शिशु भी अकड़ गया । भंयकर पीड़ा होने लगी । पूरे नौ महीने का गर्भ … अब तो प्रसव कभी भी हो सकता था .. । इसीलिए आजकल नींद कहाँ आती थी ?
फोन लगातार बज रहा था पर उठाने की हिम्मत कहाँ थी? । रूह तक फड़फड़ा रही थी ।
अपनी कंपकंपी पर काबू पाकर बडी मुश्किल से उसने अपने बदन को घसीटा और फोन उठाया ।
“ भाभी” वहाँ से आवाज आई । “मैं सुखना … जंग खत्म हो गई है … हमारी फतह हुई’ ।
उसे लगा सुखना की आवाज जैसे दूर से आ रही हो । आंखें मुंदी जा रही थी ।
“ वो कैसे हैं भय्या ? पूछना चाहा पर मुँह से बोल न निकले । बस होंठ कांप कर रह गए । कुछ अपशकुन सुनने की आशंका दिल की धड़कन तेज किए जा रही थी ।
उस तरफ से बस हांफ़ने की आवाज सुन कर वह समझ गया । देर न करते हुए जल्दी से बोला, “ भाभी …आपका फौलादी शेर एकदम चंगा है …बस थोड़ा सा घायल हो गया है । गोली ठीक सीने पर लगी पर वो तो शेर है न …और रक्षा कवच के कारण जान बच गई । आपका होने वाला बच्चा किस्मत वाला है …किस्मत वाला । बस एक दो दिन । ठीक होते ही बात करेगा आपका शेर । और हाँ, दोनों साथ आएंगे … जब छोटा शेर आ जाएगा । अब फोटो खींचने का जिम्मा भी तो मेरा । चाचा जो हूँ । चिंता न करना । रखता हूँ…जय माता दी” ।
फोन कब कट गया पता ही न चला पर शन्नो अब भी उसे चिपटाए माथे से लगाए हांफ रही थी । अंदर बंद रुलाई अब और न रुक सकी । बांध तोड़कर उफनती बाहर आ गई । आंसुओं से मुंह तरबतर हो गया । वह तेज-तेज रोए जा रही थी । आंसू थे कि रुक ही न रहे थे । एक ही धुन…एक ही नाम …वीरु…वीरु…वीरु …। उसका रोम-रोम वीरू बन गया । पेट को सहलाती उसका नाम जपे जा रही थी और…और …बीच -बीच में अपनी हथेलियों को चूमे जा रही थी ।
इन्हीं हथेलियों में …हाँ… इन्हीं हथेलियों में वह अपना चेहरा छुपा लेता था …हमेशा …प्यार से ।
न अश्रु ही थमे और न ही होंठ ..।
भ्रम था या सच? जो भी था उसे जिला गया ।
एक बार फिर मन दोहराने लगा…वीरू के शब्द जो जाते वक्त उसने उससे कहे थे , “ शन्नो …समझो जंग में अगर मुझे कुछ हो गया तो… तुम्हें मेरा सपना पूरा करना है …लड़का हो या लड़की ….मेरा बच्चा बड़ा होकर सेना में ही जाएगा…समझी । लड़की हुई तो डॉक्टर बनेगी और घायलों की सेवा करेगी । और हाँ… मैं जानता हूँ लड़की ही होगी ” । और फिर झुककर फूला हुआ पेट चूम लिया था उसने ।
याद आ रहा था …एक एक शब्द…एक एक अक्षर । कुछ ही क्षण तो थे वे …पर अविस्मरणीय ! उन क्षणों की स्मृति में एक जीवन बिताया जा सकता था …हाँ …पूरा एक जीवन ।
“ शुभ-शुभ बोलो जी” । शन्नो ने और कुछ कहने से पहले ही उसके होंठों पर उंगली रख दी थी। ।
“ जो तुम चाहो वैसा ही होगा । विश्वास करो । पर अब कभी ऐसे अपशकुन न बोलना । मेरी प्रतीक्षा ढाल बनकर तुम्हारी रक्षा करेगी…तुम्हें कुछ न होगा जी”। उसने उसे कसकर चिपटा लिया था और…उसकी जकड़ में पिघल गई थी वह कुछ क्षणों के लिए ही सही ।
वही…वही आखिरी बार था । और…फिर… फिर तो वह चला गया था ।
‘कितनी बार तुझे समझा चुकी कि पहली जचगी माँ के घर होवे है, पर इस सूबेदारनी को समझ ही नहीं आवे” ।
उसकी तंद्रा टूटी । सामने सासु माँ दूध लिए खड़ी थी ।
“वीरू बोल कर गया है कि मेरी घरवाली का ख्याल रखना । अब कुछ उलट सीध हो जाए तो मैं किसी को मुँह दिखाने को न रहूँगी । पर ये माने तो न । रात भर चिल्लाती रही । न जाने क्या देखती है सपने में? चिंता न कर बहू … मेरा वीरू शेर है शेर । ” बूढ़ी कमला केसर डाला दूध का कटोरा थमाते बोली ।
शन्नो क्षण में दूध गटक गई । “हाँ माँ …पर अब खाली दूध से काम न चलेगा । तेरी पोती तो पेट में ही परेड करे है । कुछ और भी खिला दे …बडी भूख लागे है… तेरे शेर की लाड़ली भी भूखी है ” । वह रोते-रोते हंस पडी ।
सूरज क्षितिज पर आ गया …एक बार फिर अंधेरे को कुचल कर,जीत का तिरंगा फैलाता हुआ ।
आज बहुत दिनों के बाद सुबेदार का आँगन हंसी की किलकारियों से गूँज रहा था ।
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