दोनों पहले कभी नहीं मिली थीं, मगर इस तरह बातें कर रहीं थीं जैसे बचपन की सहेलियाँ हों।मानव सुलभ स्वभाव ऐसा ही तो है, अपने काम का मस्तिष्क व व्यवहार खोज ही लेता है। फिर ख़ूब बतियाता है और आनन्द का अनुभव करता है।
ट्रेन का वह डिब्बा आज गुलज़ार था।एक बर्थ पर खाना-ख़ज़ाना चल रहा था तो दूसरी बर्थ पर सिलाई -कढ़ाई।
कहीं गहना प्रदर्शन था तो कहीं घर परिवार की तीमारदारी के क़िस्से।
मगर इस जीवंत डिब्बे में भी, एक बर्थ ऐसी थी जिस पर एक वृद्ध और दूसरी अधेड़, दो महिलाएँ एकदम चुप बैठीं थी।वृद्ध महिला बार-बार अपनी उँगलियों की झुर्रियों से झाँकती अँगूठियों को निहारती थी। वहीं अधेड़ महिला आते- जाते लोगों को देखती, अपने कटे बालों को बीच-बीच में हाथ से झटकती, अपने कपड़े ठीक करती और फिर पर्स से कुछ निकाल कर खा लेती।
अगले स्टेशन पर जब रेलगाड़ी रुकी तो एक सलीक़ेदार, गौरवर्णा युवती बोगी में आयी। जगह ख़ाली देखकर वह इस वृद्ध महिला को नमस्ते कहकर पूछने लगी, “क्या मैं यहाँ बैठ जाऊँ चाचीजी?”
तमतमाते हुए वृद्धा बोली, “बैठना है बैठ जाओ, जगह दिख नहीं रही क्या, वैसे मैं कोई तुम्हारी चाची नहीं हूँ, समझी।”
“आँटी तो मैं बोलूँगी नहीं, इसलिए चाचीजी कहा, आप कहें तो मौसीजी पुकारूँ।”
“अजीब लड़की हो, ज़बरदस्ती के रिश्ते बना रही हो, ऐसे ही लोग ठग होते हैं। मैं तुम्हारी मौसी-वौसी नहीं हूँ, जान लो।…” वृद्धा की बात ख़त्म भी न हुई थी कि अधेड़ महिला बीच में ही बोल पड़ी, “जी , जी आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, आजकल चोरनियाँ ऐसे ही भेष बदल कर घूमती रहती हैं।”
अब तक वह सभ्रांत युवती अपना सामान करीने से सीट के नीचे लगाकर बैठ गयी थी। उसने मुस्कुरा कर दोनों महिलाओं को देखा जो अब अपने अपने निंदा पुराण साझा करने लगीं थी। उनकी बातों को अनसुना कर वह अपने पर्स से किताब निकाल कर तन्मयता से पढ़ने लगी। उसे यह ध्यान भी नहीं रहा कि कौन अगल-बग़ल से आ-जा रहा है।
कुछ देर बाद अचानक दरवाज़े के पास से चिल्लाने की आवाज़ आई। चोर-चोर, मेरा पर्स छीनकर, चलती गाड़ी से उतर गया, कोई पकड़ो। लेडिस कम्पार्टमेंट होने के कारण आसपास कोई पुरुष नहीं था जो तुरंत चोर के पीछे दौड़ता।
युवती ने जब शोर सुना तब उसकी एकाग्रता टूटी और उसने पाया कि वृद्धा चिल्ला रही हैं-चोर चोर, कोई तो मदद करो।
युवती ने तुरंत चेन खींची मगर तब तक चोर फ़रार हो चुका था।
वृद्धा के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। वह बोलती जा रहीं थी- मोबाइल, पैसे, घर की चाबियाँ सब कुछ ले गया मुआ। अब घर कैसे जाऊँगी, फ़ोन नम्बर भी याद नहीं है कि बेटी को बुलाऊँ स्टेशन।
युवती ने रोती हुई वृद्धा को सहारा दिया और सीट पर बिठाया। कुछ शांत होकर वृद्धा ने अपनी हम मस्तिष्क, सफ़र में बनी सहेली से कहा, बहन क्या तुम मुझे कुछ रुपये दे सकती हो, अपना एकाउंट नम्बर भी दे देना, बेटी से कहकर डलवा दूँगी। निंदा पुराण में तन्मयता से साथ देने वाली धनाढ्य सहेली तुरंत ही ग़रीबी की देवी बन गयी थी।
युवती ने कहा, “चाचीजी कितने रुपये चाहिए , बताइए मैं देती हूँ और उसने पाँच सौ के चार नोट उनके हाथ पर रख दिये।”
“नहीं नहीं बिटिया बस पाँच सौ, स्टेशन से घर तक ही तो जाना है। ईश्वर तुम्हारा भला करे, सदा सुखी रहो, ख़ूब फूलो-फलो बिटिया।
अपना एकाउंट नम्बर भी दे दो।”
” आपको चाचीजी कहा है न, और आपने भी आशीर्वाद दिया है अभी- अभी, अमूल्य है जो मेरे लिए। इस भतीजी की तरफ से ये आप रख लीजिए चाचीजी।
ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकी और वह अधेड़ महिला उतर गयी।
अब इस बर्थ पर भी रिश्तों और मानवता की ताज़गी थी।