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कुण्डलिया छंद

कुंडलिया दोहा और रोला के संयोग से बना छंद है। इस छंद के 6 चरण होते हैं तथा प्रत्येकचरण में 24 मात्राएँ होती है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि कुंडलिया के पहले दो चरण दोहा तथा शेष चार चरण रोला से बने होते है। दोहा के प्रथम एवं तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ […]

न हाथ आएगा फिर जिंदगी का नामोनिशां/बृंदावन राय सरल

पराए दर्द को सीने में पाल कर देखो। तुम अपनी आंख से आँसू निकाल कर देखो।। पराई आबरू लेने का भेद जानोगे, खुद अपनी शान पै कीचड़ उछाल कर देखो।। न हाथ आएगा फिर जिंदगी का नामोनिशां, तुम अपने अज़्म को अब तो मशाल कर देखो।। खिलौना जानके इंसा को तोड़ने वालो, बस एक लाश […]

हर सैनिक में भरे उजाला/बृंदावन राय सरल

विजय दिवस का उत्स निराला। हर सैनिक में भरे उजाला। युद्ध कारगिल हमने जीता , मुँह को किया शत्रु  के काला।। उसके सैनिक मारे नौ सौ हमने ऐसा शौर्य संभाला। फहराकर झंडा चोटी पर, पर्व नया हमने रच डाला। युद्ध हुए अब बरसों बीते, सोच पाक की लेकिन हाला।

अश्क हमारे हुए समुन्दर/बृंदावन राय सरल

अश्क हमारे हुए समुन्दर। इतने ग़म के झरने अंदर। किससे कहें दास्तां  अपनी बहरे गूंगे अपने दिलवर। आजादी है कहने भर को, पहरे बैठे हैं अब हम पर। महँगाई ने हमें निचोड़ा, जिससे आंखें अपनी हैं तर। पिंजरा कहना  झूठ नहीं है,  जिसको समझ रहे हैं हम घर।

झूट की नाव के सफर में सब/बृंदावन राय सरल

मुश्किलें बन रहे उड़ानों में। आशियां जो हैं आसमानों में। मुझको गारा बनाके बाँधा है और खुद छुप गए मचानों में। झूट की नाव के सफर में सब, कौन सच बोलता बयानों में। आज दुनिया उसे आकिल  माने, आब जो रोक ले ढलानों में। आज खुशियों को खा रहा मौसम, जिंदगी है ग़मों के खानों […]

उतरा है वो जरूर किसी आसमान से/बृंदावन राय सरल

रिश्ता जुड़ा है खुशबुओं के खानदान से। झरते हैं फूल इसलिए मेरी ज़ुबान से।। जीते हैं वही शान से मरते हैं शान से। गिरते नहीं हैं लोग जो अपनी ज़ुबान से।। लगता नहीं है हुस्न से वो इस जहान का। उतरा है वो जरूर किसी आसमान से।। अपनी जुबान खोलने के कब्ल सोच ले। लौटा […]

कहीं पांवों में छाले हैं कहीं आंखों में पानी है/बृंदावन राय सरल

नगर में गांव में दर-दर भटकती नौजवानी है। कहीं पांवों में छाले हैं कहीं आंखों में पानी है।। कहां खुशियों के काजल से सँवरना थी सभी आंखें। कहां लोगों की आंखों में ग़मों की राजधानी है।। ग़रीबों के लहू की गंध आती है हवेली से, यही ऊंचे मकानों के महकने की कहानी है।। नहीं है […]

बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं/वृंदावन राय सरल 

कदरें ज़िंदगानी की अपने हाथ मलती हैं शह् र में फसादोॆं की जब हवायेंचलती हैं आग जब भड़कती है दिल मेंशरपसंदी की बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं ज़ह् नियत है बारुदीऔर सोच है आतिश फ्रिक है नई नस्लें आज कैसे पलती हैं बेटियां ग़रीबों की सह रही हैंआये दिन डोलियां पहुंचती हैं अर्थियां […]

  टूटना तय है यहां जब डाल से हर पात का/बृंदावन राय  सरल

टूटना तय है यहां जब डाल से हर पात का क्यों न फिर डटकर करें हम सामना हालात का सैकड़ों बच्चे किया करता है शब में जो यतीम दिन में तोहफे बाँटता है अम्न की सौगा़त का ग़म के ख़ाने में खड़ा था मैंभी तन्हा ज़ख़्म ज़ख़्म तोड़ने निकला था घेरा ज़ुल्म की औकात का […]

बस्ती बस्ती बिषधर काले बैठे हैं/बृंदावन राय सरल

चोटीवाले  दाढ़ी वाले बेैठे हैं बस्ती बस्ती बिषधर काले बैठे हैं भोली चिडिया जाये कहां बच्चे लेकर, डाल डाल पर  कौऐ काले बैठे हैं अंधयारों के सर ऊँचे हैं बस्ती में, खोफज़दा खामोश उजाले बैठे हैं दूर रहेंजो हैं सांपों की जाति के, हम सांपों के दांत निकाले बैठे हैं नादां हैं कुछ लोग सरल […]

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