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जब से यारों की मंदी है/दिलजीत सिंह रील

जब से यारों की मंदी है ।
शुक्र-गुजारों की मंदी है।।

टूट रहे रिश्तों के बन्धन ।
सद् व्यवहारों की मंदी है।।

लाठी ही एक सहारा है ।
बरखुरदारों की मंदी है।।

सूरज -सूरज गृहण लगा है
नव-उजियारों की मंदी है।।

साकार करें जो सपनों को।
उन अय्यारों की मंदी है।।

सड़कें नाप रहे व्यापारी ।
धन,व्यापारों की मंदी है।।

उजड़ा गुलशन क्या महकेगा।
अब्रे-बहारों की मंदी है।।

सच्चाई के साथ खड़े हों।
उन अखबारों की मंदी है।।

तुलसी सूर कबीरा जैसे ।
रचनाकारों की मंदी है।।

दलजीत सिंह रील

लेखक

जब से यारों की मंदी है/दिलजीत सिंह रील

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