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जगत रेल में चल रहे, भांति भांति के लोग/दिलजीत सिंह रील

खींचे इंजिन राम का, चले जगत की रेल।
लाख चुरासी सीट की,कस कर रखे नकेल।।

जगत रेल में चल रहे, भांति भांति के लोग।
जैसा भाड़ा कोच का, वैसी सुविधा भोग।।

चलता इंजिन ऐकला, आपस में कर मेल ।
डिब्बा डिब्बा जोड़ कर, सरपट दौड़े रेल ।।

रेल पटरियों पर चले, जीवन भी इक रेल।
साधो पटरी राम की, करे राम से मेल।।

चला मुसाफिर शीष धर, पाप पुण्य का भार।
यात्रा उसकी सुखद हो, राम करेंगे पार।।

राम -नाम का पास है, बैठो भव की रेल ।
फर्जी पकड़े जाएंगे , मिले गर्भ की जेल।‌।

टिकिट कटा कर बैठिए, रहे सफर आसान।
दूत पकड़ ले जाएगा,खींच खींच कर कान।।

पटरी से जब रेल का, बैठा सही जुगाड़।
लांघ गये सब यात्री , नाले नदी पहाड़ ।।

मालिक तेरी रेल के, हम यात्री अन्जान।
जैसा भी तुझको जपा, उसे किराया जान।।

यह जीवन की रेल है, करो सफर निर्भीक।
दुर्घटना घटती नहीं, जब तक पटरी ठीक।‌।

राम भरोसे चल रही, इस जीवन की रेल ।
धक्का मुक्की है कहीं, भारी पेलम–पेल ।।

दिलजीत सिंह रील

लेखक

जगत रेल में चल रहे, भांति भांति के लोग/दिलजीत सिंह रील

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