(समकालीन दोहे की दिशा और दशा के विभिन्न पहलुओं को लेकर गत दिनों सुपरिचित दोहाकार जय चक्रवर्ती से चर्चित दोहाकार शिवकुमार दीपक ने लंबी बात–चीत की। प्रस्तुत हैं उस बात–चीत के प्रमुख अंश)
शिवकुमार दीपक : सर आप देश के ख्यातिलब्ध वरिष्ठ दोहाकार हैं, आप दोहे का उद्भव कहाँ से और कब से मानते हैं ?
जय चक्रवर्ती : दोहा मात्रिक अर्द्धसम छंद है, विद्वानों ने इसकी उत्पत्ति संस्कृत के ‘दोग्धक’ शब्द से मानी है। विद्याधर-शारंगधर द्वारा रचित आदिकालीन अपभ्रंश रचना ‘प्राकृत पैंगलम’ के टीकाकारों ने ‘द्विपदा’ शब्द को दोहे का मूल माना है। कुछ विद्वान मानते हैं कि कालिदास के संस्कृत नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’ में दोहे का सबसे प्राचीन रूप उपलब्ध है। संभवतः दोहा ही वह पहला छंद है जिसमें तुक मिलाने का प्रयास हुआ। पाँचवीं या छठी शताब्दी के पश्चात साहित्य में दोहे का प्रयोग स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
शिवकुमार दीपक : सर अच्छे दोहे की क्या विशेषता होनी चाहिए ?
जय चक्रवर्ती : दोहा अपनी बनावट और बुनावट में लघु-कायिक छंद है। तेरह-ग्यारह, तेरह-ग्यारह के सिर्फ चार चरणों (चौबीस मात्राओं) में आपको बात कहनी होती है। इसलिए एक अच्छे दोहे के लिए अनिवार्य है कि उसमें एक शब्द भी अनावश्यक अथवा भर्ती का नहीं होना चाहिए। हर शब्द अपनी जगह जीवंत और मुस्तैद दिखाई देना चाहिए। आप जो बात कहना चाहते हैं, वह पूरी समग्रता, स्पष्टता और संप्रेषणीयता के साथ उपस्थित होनी चाहिए।…. और सबसे बड़ी बात कि आपके दोहे की मारक क्षमता (किलिंग इंटेक्ट) तीव्र से तीव्रतर होनी चाहिए ताकि पढ़ने या सुनने वाले के दिलोदिमाग में दोहे में कहीं गई बात का असर देर तक बना रहे।
शिवकुमार दीपक : समकालीन दोहे की प्रासंगिकता पर आप का क्या मत है ?
जय चक्रवर्ती : हम जिस समय में जी रहे हैं, वह अत्यंत व्यस्तता का समय है । हर व्यक्ति भागमभाग में लगा हुआ है ,किसी को दो मिनट ठहरकर बात करने, सोचने समझने की फुरसत नहीं है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि समाज के लिए आपका संदेश बिलकुल नपे –तुले और कम से कम शब्दों में हो। हमारे दौर की जो विसंगतियाँ हैं, विद्रूपताएं हैं, आम आदमी के जो दुख-सुख, हर्ष-विषाद, जीवन संघर्ष हैं, सिस्टम का जो मानवता-विरोधी चेहरा है, हमारे जो मानवीय मूल्य हैं , इन सब पर बात करने के लिए आप लंबी-लंबी कथा-कहानियों और कविताओं की जगह यदि दोहे जैसे सधे–सटीक छंद के शिल्प और कथ्य का सही इस्तेमाल कर सकें, तो मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि आप अपनी बात को ज़्यादा प्रभावशाली ढंग से समाज के सामने रख पाएंगे। हमारे पूर्वज कवियों कबीर, रहीम, तुलसी, बिहारी, केशव आदि ने अपने–अपने समय में दोहे की इस ताकत को बखूबी पहचाना और तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप लोगों को सामाजिक भेद भाव, अंधविश्वास, छूआछूत, ऊंच-नीच, धार्मिक पाखंड के विरुद्ध नीति और धर्म को केंद्र में रखकर विपुल मात्रा में दोहों का सृजन किया। आज समय बदल चुका है, और पहले की तुलना में जीवन अधिक कठिन और संघर्षपूर्ण हो गया है। सत्ता-प्रतिष्ठानों तथा पूंजी के गठजोड़ ने आम जनमानस के सामने तरह-तरह की कठिनाइयाँ और परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं। इनके खिलाफ खड़े होने और सवाल उठाने के लिए हमारे आज के अधिकांश कवियों ने दोहे को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। इसलिए पूरी शिद्दत से कहा जा सकता है कि आज का दोहा हिन्दी कविता में एक तरह से केंद्रीय भूमिका का निर्वहन कर रहा है। इस संदर्भ में एक बिलकुल ताज़ा संस्मरण साझा करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। पिछले महीने मध्य प्रदेश के उमरिया जनपद में हरिशंकर परसाई जन्मशताब्दी के अवसर पर आयोजित एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में मैंने अपने कुछ दोहों का पाठ किया, तो श्रोताओं की बेहद उत्साहजनक प्रतिक्रिया से गदगद मंच पर उपस्थित हमारे समय के महत्वपूर्ण आलोचक डॉ. जीवनसिंह ने भी अपने काव्यपाठ में, यह कहते हुए कि मुझे दोहे की ताकत का पता चल गया है, सिर्फ दोहों का ही पाठ किया। समकालीन दोहे की यह है प्रासंगिता।
शिवकुमार दीपक : दोहे की रचना में आप कथ्य और शिल्प में किसे महत्व देते हैं ? दोहों के अभिरचन में किन–किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
जय चक्रवर्ती : दीपक जी, हालाँकि इस प्रश्न का उत्तर आपके दूसरे प्रश्न के उत्तर में दे चुका हूँ । यद्दपि दोहों की अभिरचना में दोहे का शिल्प और कथ्य दोनों महत्वपूर्ण हैं। तथापि किसी एक को चुनने की विवशता हो, और सामने कोई विकल्प न हो, तो मैं (व्यक्तिगत तौर पर) निश्चित रूप से कथ्य को प्राथमिकता दूँगा। एक अच्छा दोहा अपने बाह्य स्वरूप में जितना सरल और सहज दिखाई देता है, अंतर्वस्तु में उतना ही जटिल और गंभीर होता है। एक बार पढ़ लेने के बाद उसकी गूँज‘ बहुत देर और बहुत दूर तक आपके साथ चलती है। “ देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’’ किसी ने यूँ ही नहीं कह दिया होगा। मात्रानुशासन और शब्दानुशासन के स्तर पर एक भी अनावश्यक कम या ज़्यादा मात्रा अथवा एक भी गैर ज़रूरी अथवा निरर्थक शब्द दोहे के सम्पूर्ण सौष्ठव को आघात पहुंचाने के लिए पर्याप्त है। कथ्य के स्तर पर भी दोहे में बहुत सतर्क और सावधान रहने की आवश्यकता है। बात को किस तरह से कहा जाय कि पाठक को लगे कि यह उसकी अपनी बात है, जो वह बहुत दिन से कहना चाहता था, मगर उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। ये शब्द आपने प्रदान कर दिये हैं। यह एहसास आपके दोहे को मौलिकता प्रदान करता है। भाषा के स्तर पर, एक अच्छा दोहा वह है जो अपने समय के साथ जुड़कर चले। अर्थात अपने समय की भाषा, परिस्थितियाँ और जीवन संघर्ष सब कुछ परिलक्षित होना चाहिए। आज के समय में यदि आप पचास साल पहले की भाषा, बिम्ब और प्रतीक इस्तेमाल करेंगे, तो आपकी रचना में जीवंतता कहाँ से आएगी। हमारे पूर्वज कवियों ने अपने दोहों में ‘जाय, पाय, लाय,लगाय, लेय, देय, होय, तोय , खोय, करत, क़हत, सुनत, होत जैसे तुकांत क्रिया-पद धड़ल्ले से प्रयोग किए हैं , क्यों कि उस समय हमारी हिन्दी इस तरह से विकसित नहीं हुई थी । किन्तु आज हम हिन्दी की विशुद्ध खड़ी बोली के युग में हैं, इसलिए एक अच्छे दोहे की रचना में इस तरह के तुकांतों क्रिया-पदों से पूरी तरह बचना चाहिए।
शिवकुमार दीपक : सर आजकल दोहे में सपाटबयानी अधिक देखने को मिल रही है, आपका क्या विचार है?
जय चक्रवर्ती : आपकी बात से सहमत हूँ। जिन्हें सिर्फ लिखने और लाइम लाइट में दिखने की बीमारी है, वे लोग साहित्य के नाम पर खुद के द्वारा इकट्ठा किए गए कचरे के ढेर पर खड़े होकर खुद को बड़ा सिद्ध करने में लगे हुए हैं। सिर्फ दोहा ही नहीं, नवगीत जैसी लोकप्रिय काव्य विधा की साथ भी यही हो रहा है। अल्लम-गल्लम कुछ भी लिखो, ऊपर सिर्फ दोहा शीर्षक लगा दो, दोहा हो गया, ‘नवगीत’ शीर्षक लगा दो नवगीत हो गया। दोहा जैसी लोकप्रिय और अत्यंत तीव्र प्रभावान्विति वाली कविता को तमाम लोगों ने नारों में तब्दील कर दिया है। ऐसे लोग न सिर्फ साहित्य के, अपितु अपने स्वयं के भी दुश्मन हैं। सच्ची और अच्छी कविता नारेबाजी नहीं करती, बल्कि अपनी आँच से पाठक के दिल पर जमी विचारों की पर्त को धीमे-धीमे पिघलाती है। पाठक इस आँच को जितनी अधिक देर तक महसूस करेगा, कविता उतनी ही सार्थक और सफल होगी।
शिवकुमार दीपक : इन दिनों बहुतायत में दोहे लिखे जा रहे हैं, क्या आप दोहे की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हैं ?
जय चक्रवर्ती : दोहे की भौतिक बनावट और उसका स्वरूप इतना सरल–सहज है कि छंद का कोई भी जानकार अपनी बात को दोहे में आसानी से ढाल सकता है । इसे देखते हुए अनेक ‘लिक्खाड़’ किस्म के लोग कथ्य को परे रखकर, सिर्फ तेरह-ग्यारह के गठजोड़ से दोहों का ‘उत्पादन’ कर रहे हैं। मैं ऐसे कई तथाकथित दोहकारों को जानता हूँ, जो कहते हैं कि उन्होंने हजारों–लाखों की संख्या में दोहे लिख डाले हैं। ऐसे ही एक मित्र का हाल ही में प्रकाशित इक्कीस सौ दोहों का एक संग्रह मिला, जिसे उन्हीं के कथनानुसार मात्र तीन महीने में पूरा किया गया। जब मैं उसे पढ़ने बैठा, तो मैंने माथा पीट लिया। इक्कीस सौ में से अगर इक्कीस दोहे भी मुझे ऐसे मिल जाते, जिन्हें कहीं ठीक-ठाक जगह कोट किया जा सकता, तो तसल्ली हो जाती। ज़ाहिर है कि नदी में जब बाढ़ आती है तो अपने साथ बहुत सारा कूड़ा-कचरा बहाकर ले आती है। समय के साथ यह कूड़ा-कचरा बह जाता है और रह जाती है नदी की स्वच्छ चाल और उसका निर्मल नीर। कहना न होगा कि दोहा लिखने वालों की इस बेशुमार भीड़ में कुछ ऐसे रचनाकार भी हैं जिनके दोहे नदी की बाढ़ में बहकर आए कचरे की तरह नहीं हैं, अपितु इन रचनाकारों के पास संवेदना है, तेवर है, चीज़ों को देखने की दृष्टि है और आसन्न खतरों को भाँपने की अंतर्दृष्टि भी। इसलिए मैं आश्वस्त हूँ कि जीवन जितना दुरूह होता जाएगा, समकालीन दोहा उतना ही प्रासंगिक और साहित्य एवं समाज के लिए ज़रूरी होता जाएगा।
शिवकुमार दीपक : सर, आपके कुछ दोहों में ‘मौजूद के साथ वजूद’, ‘याद के साथ बुनियाद’ या ‘जयकार के साथ प्रतिकार’ का तुकांत के रूप में प्रयोग हुआ है, जैसे–
ये जो महफिल है यहाँ, हम भी हैं मौजूद।
हमारा क्यों नहीं, दिखता तुम्हें वजूद।।
हमें भूलिएगा मगर, इतना रखिए याद।
हममें ही है आपके, होने की बुनियाद॥
निश्चित रूप से कथ्य एवं भाव की दृष्टि से उक्त दोहे प्रभावशाली हैं। किन्तु क्या इस प्रकार के प्रयोगों पर आपकी स्वीकारोक्ति है ?
जय चक्रवर्ती : देखिए भाई, मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ, न ही अपने आप में सम्पूर्ण हूँ। संभव है किसी उस्ताद को गज़ल की तर्ज़ पर इन दोहों में भी इस तरह की तकनीकी त्रुटियाँ दिखाई पड़ जाएँ। यदि ऐसा है तो मैं इन्हें पूरे मन और विनम्रता से स्वीकार करता हूँ। अगर इन दोहों के तुकांत बदल दूँ , तो मुझे लगेगा कि जो बात मैं कहना चाहता था, वह कह ही नहीं पाया। इसलिए जहाँ मुझे लगा कि छोटी-छोटी उस्तादीय- कमियों के साथ मुझे अपनी बात पूरी ज़िम्मेदारी से कहनी चाहिए, वहाँ मैंने कथ्य को ऊपर रखा है। अपने दो हज़ार दोहों में से इस तरह के दो-चार दोहों को अपने लेखकीय सरोकारों के साथ मैं इसी तरह रहने देना चाहता हूँ।
शिवकुमार दीपक : सर आपने अपने कुछ दोहों में रदीफ़ और काफिये का प्रयोग किया है । क्या यह दोहों में किया गया कोई नया प्रयोग है ?
जय चक्रवर्ती : नया तो नहीं कहेंगे, हरेराम समीप, ज़हीर कुरैशी जैसे कई दोहाकारों ने इस तरह के दोहों की रचना की है। ये दोहे अपनी भंगिमा,लय, प्रवाह और संप्रेषणीयता के स्तर पर सचमुच बहुत प्रभावशाली लगते हैं और किसी को भी अपने आकर्षण में बांध सकते हैं। किन्तु ऐसे दोहों के सृजन की संभावनाएं और सीमाएं सीमित हैं । हर दोहे को आप इस तरह रदीफ़ और काफिये के साथ नहीं लिख सकते। शायद इसीलिए ऐसे दोहे आपको कहीं-कहीं ही दिखेंगे। मैंने भी इस तरह के रदीफ़ और काफिया से युक्त लगभग पचास दोहे लिखे हैं। दो दोहे यहाँ प्रस्तुत हैं-
चर्चाओं मे हम रहे, यूँ यारों के बीच।
ज्यों खबरें प्रतिपक्ष की, अखबारों के बीच॥
रही चीखती अस्मिता , मक्कारों के बीच।
तूती की आवाज़ ज्यों, नक्कारों के बीच॥
शिवकुमार दीपक : सर अपने मनपसंद पाँच दोहों को उद्धृत करें और बताएं कि ये दोहे आपको क्यों पसंद हैं?
जय चक्रवर्ती : दीपक जी, लगभग साढ़े तीन दशक की अपनी साहित्यिक यात्रा में मैंने जो भी रचा, उसे अपने तमाम जीवनानुभवों के साथ बहुत सोच-समझकर और पर्याप्त ठहर-ठहर कर रचा है मेरा पहला दोहा संग्रह ‘संदर्भों की आग’ वर्ष 2007 में आया। दूसरा ‘ज़िंदा हैं आँखें अभी’ बारह साल बाद 2020 में, और तीसरा अब अर्थात 2023 में प्रेस में जा रहा है। हालाँकि इस मध्य नवगीत, गजल और मुक्तकों के कई संग्रह प्रकाशित हुए। इसके अलावा मेरे सम्पादन में देश के 41 दोहाकारों के तीस-तीस प्रतिनिधि दोहों का संकलन ‘सुनो समय को’ शीर्षक से श्वेतवर्णा प्रकाशन ने 2022 में छापा। मैंने कभी थोक में न दोहे लिखे, न गीत-नवगीत, न गजलें, न मुक्तक। लिखने की तरफ कम, चीजों को बनने और पकने देने की तरफ ज़्यादा ध्यान रहा मेरा। अपनी वैचारिकी और लेखकीय सरोकारों से कभी समझौता नहीं किया। भाषा, व्याकरण, कथ्य और शिल्प के मानकों पर निर्ममता के साथ रखते हुए अपने एक-एक दोहे को पूरी शिद्दत और गंभीरता से बुना है मैंने। अपने दोहों के संबंध में मुझे यह कहना ज़्यादा उपयुक्त लगता है कि ‘दोहों को मैंने नहीं, बल्कि दोहों ने मुझे रचा है। ‘इसलिए ‘मुझे मेरे कौन से दोहे पसंद हैं’ का जवाब मेरे लिए बहुत कठिन है मेरे लिए। फिर भी आपके आदेश का पालन करते हुए अलग-अलग संदर्भों के ये पाँच दोहे प्रस्तुत कर रहा हूँ, और इनका मूल्यांकन आप जैसे सुधी पाठकों पर छोडता हूँ :
जो कुछ कहना था कहा, मुँह पर सीना तान।
एक आइना उम्र– भर, मुझमें रहा जवान॥
अंधों के इज़लास में, गूँगों पर अभियोग।
और फैसला लिख रहे, बिना कान के लोग॥
नुचे पंख लेकर कहाँ , चिड़िया करे अपील।
साथ शिकारी के खड़े, सत्ता और वकील॥
छौनों के सपने छिने, गौरैयों के नीड़।
लालकिला बुनता रहा, वादे,भाषण,भीड़॥
दुनिया–भर की खोज में, भटक रहा है रोज़।
वक़्त मिले तो एक दिन, खुद में खुद को खोज॥
ये और ऐसे अनगिनत दोहे मुझे पसंद हैं, ये महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि पाठकों को पसंद या नहीं हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
शिवकुमार दीपक : कुछ समकालीन अच्छे दोहाकारों के नाम बताएं। युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जय चक्रवर्ती : यह दोहे की सम्प्रेषण शक्ति और मारक क्षमता से उत्पन्न लोकप्रियता का ही सुफल है कि वर्तमान में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी ही नहीं, अनेक भाषाओं के रचनाकार दोहों का सृजन कर रहे हैं। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि शायद ही कोई व्यक्ति, जो छांदस कविता लिखता हो, उसने दस बीस पचास दोहे न लिखे हों। तथापि दोहे के कथ्य और शिल्प के अलावा रचनाकार की लेखकीय जिम्मेदारियों और सामाजिक–साहित्यिक सरोकारों के दृष्टिगत समकालीन दोहाकारों में जो कुछेक नाम खुद-ब-खुद याद आते हैं, उनमें दिनेश शुक्ल, निदा फाजली, डॉ. राधेश्याम शुक्ल, हरेराम समीप, हस्तीमल हस्ती, डॉ. योगेन्द्रदत्त शर्मा, डॉ राजेन्द्र गौतम , बनज कुमार बनज, यश मालवीय, रामबाबू रस्तोगी, अशोक अंजुम, यादराम शर्मा, ज़हीर कुरैशी, डॉ. विनय मिश्र, राजेन्द्र वर्मा, रघुबिन्द्र यादव, युवा कवियों में गरिमा सक्सेना, शुभम श्रीवास्तव ओम, अवनीश त्रिपाठी ,डॉ. शैलेश गुप्त वीर, डॉ. महेश मनमीत, राहुल शिवाय, शिव कुमार दीपक आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
हमारे युवा पीढ़ी के जो रचनाकार दोहे लिख रहे हैं या लिखने की ओर प्रवृत्त होना चाहते हैं, उनसे निवेदन है कि वे दोहे रचें, खूब रचें किन्तु दोहों का ‘उत्पादन’ न करें। लिखने से पहले ठहरकर सोचें कि वे जो लिख रहे हैं, वह क्यों लिख रहे हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आपने कितना लिखा , बल्कि ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आपने क्या और क्यों लिखा। अपने रचनाकर्म में सामाजिक सरोकारों, संवेदनाओं, मानवीय मूल्यों, सिस्टम के खिलाफ सवाल उठाने के साहस और आदमी को आदमी बनाए रखने की ज़िद को शामिल करें। सपाट बयानी करके रातों रात प्रसिद्ध हो जाने के लोभ से बचें।
शिव कुमार दीपक : सर समकालीन दोहे के विभिन्न पहलुओं पर हमसे वार्ता करने के लिए आपका आत्मीय आभार ।
जय चक्रवर्ती : दीपक जी , समकालीन दोहे को लेकर आपने मुझे अपनी बात कहने का अवसर प्रदान किया , आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ।