दिनभर खायी मछलियाँ, किया रात को जाप।
बगुले ने यूँ धो लिये, अपने सारे पाप।।-1
खेती-बाड़ी का नहीं, जिन्हें तनिक भी ज्ञान|
बना रहे वे नीतियाँ, कैसे बचें किसान?-2
दीपक का होता रहा, हर युग में गुणगान|
किसने रेखांकित किया, बाती का बलिदान||-3
जला उम्रभर दीप- सा, करता रहा उजास|
उसकी खातिर अब कहाँ, वक़्त किसी के पास||-4
कैसे समझेगा भला, वो हिरणों की पीर|
बैठा हुआ मचान पर, हाथों में ले तीर||-5
कोई डूबा बाढ़ में, बुझी किसी की प्यास|
बरसा है मातम कहीं, और कहीं उल्लास||-6
कज़रा, गज़रा आलता, पायल, कंगन, हार|
विधवा होते ही हुए, क्यों सारे बेकार?-7
खून चूसती कुर्सियाँ, नफ़रत बोते मंच|
यही आज का सत्य है, बाकी झूठ प्रपंच||-8
खाली तरकस भाव का, नहीं छंद का ज्ञान|
ऐसे भी तो लोग अब, कहलाते विद्वान||-9
लोकतंत्र घायल पड़ा, राज करें सामंत|
नियम और कानून हैं, अब जैसे गजदंत||-10
जिन्हें पराये दर्द का, नहीं ज़रा अहसास|
उनसे कैसे न्याय की, रख ले कोई आस||-11
सोच रही है द्रौपदी, खड़ी सभा के बीच|
मौन और अट्टहास में, कौन अधिक है नीच||-12
रघुविन्द्र यादव