जीवनदाता प्रकृति से, करें नहीं खिलवाड़ ।
सारे स्वारथ सिद्ध हों , सदा उसी की आड़ ।।-1
नदियां बहती थी यहां , लेकर शीतल नीर ।
कलुषित हम ने कर दिया, समझ सके कब पीर ।।-2
कूड़ा करकट गंदगी, फेंकी नदिया तीर ।
जल को दूषित कर चले, फोड़ रहे तकदीर ।।-3
धूल धुएँ से भर रही, शहरों की अब वायु ।
जीना तो मुश्किल हुआ, अल्प हो रही आयु ।।-4
खनन करें पर्वत जमीं, दोहन करते नीर ।
तभी प्रकृति से मिल रही, भूकम्पों की पीर ।।-5
जंगल काटे शहर हित, बिके खेत खलिहान ।
प्रकृति संपदा लूट कर, मानव के मुस्कान ।।-6
प्लास्टिक के उपयोग से, होता है नुकसान ।
पशु पक्षी या मनुज की, मुश्किल होगी जान ।।-7
जन जन में आक्रोश है, समझ न आई भूल ।
रौंदा है जब प्रकृति को, झेल रहे अब शूल ।।-8
स्वच्छ धरा हम दे सकें, सुखी रहे संतान ।
वृक्षारोपण कीजिए, फैले हरित वितान ।।-9
धरा, गगन, जल, वायु ही, जीवन के आधार ।
‘पन्त’ इन्ही के कोप से, कांप जाय संसार ।।-10
इक दूजे के संग ही, जीना है आसान ।
‘पन्त’ खुले हैं प्रेम से, उन्नति के सोपान ।।-11
ज्योतिर्मयी पन्त