झड़ियां लगीं जो सावन में/मो. शकील अख़्तर
उगा रहे हैं सभी आंखों में बबूलों को कि जिस से नोच सकेंगे बदन के फूलों को चलन जो देखा ज़माने का बदचलन जैसा तो मैं ने तर्क किया जीने के उसूलों को तलाई बूंदों की झड़ियां लगीं जो सावन में कुंवारियों ने शजर पे लगाया झूलों को वो जो कि अस्मतों को पाएमाल करता […]