प्रारब्ध/कीर्ति श्रीवास्तव
आज फिर उड़ चली हूँ मैं सपनों के पँख लगाए पहले सपने तो थे पर पँख न थे आँखों में आशाएँ लिए ताकती थी खिडक़ी के बाहर और जोहती थी इक तिनके की बाट जो आये और बता जाए अपना अस्तित्व और कर जाए मेरी सहनशीलता को सलाम सुन मेरी पुकार आया वो तिनका और […]