आज भी मेट्रो में आज बहुत भीड़ है। वैसे कश्मीरी गेट आने से पहले भीड़ तो हो ही जाती है। यहाँ से कई लाइन्स जो जुड़ी हैं। जहाँ तक देखो अपने सपनों का पीछा करते चेहरों की भीड़ नज़र आती है। वह अब तक मोबाइल में न्यूज हंट सर्च कर रही थी, अब उसकी निगाहें गेट पर हैं और कान उद्घोषणा पर। तीस हजारी मेट्रो स्टेशन के आने की उद्घोषणा के साथ वह गेट पर आ खड़ी हुई। यहाँ उतरने वालों में कई लोग काले कोट पहने हुए हैं। उसने तनिक गर्व से हाथ में टंगे अपने कोट को निहारा और मेट्रो से उतरकर वह भी काले कोट वाली उस भीड़ में शामिल हो गई जो मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलकर तीसहजारी कोर्ट के बड़े से गेट की ओर बढ़ रही थी।
कुछ कदम चलने पर एकदम दायीं ओर जाते पतले रास्ते के ठीक अंतिम छोर पर है चैम्बर, यानी उसके सपनों की दुनिया का द्वार। जब से वह कोर्ट जाने लगी है लगता है एक नयी दुनिया का दरवाज़ा उसके सामने खुल गया है। यही तो उसकी इच्छाओं का आसमान है। असीमित, अपरिमित। हर रोज एक नया अनुभव, सच्चाई के कितने कितने चेहरे और बुराई के कितने कितने रूप। रोज तरह-तरह के केस और उनसे जुड़ी तमाम बातें। उसके मन का संसार है यह। बहुत ध्यान से सब गुनती है तृषा। सब घोलकर पी जाने की उत्सुकता से भरा रहता है उसका मन।
जिस सीमित दायरे में वह पलकर बड़ी हुई उसके लिए यह परिवर्तन लगभग आँख खोल देने वाला है। छोटे चाचा क्रिमिनल लॉयर हैं, ये उन्ही की इच्छा और बढ़ावे का परिणाम है कि आज तृषा की भी ख़ास दिलचस्पी है इस क्षेत्र में। वरना घर से स्कूल और स्कूल से घर का रास्ता नापने वाली चुप्पा तृषा ने कब सोचा था कि वह एक दिन वकालत पढ़ेगी।
नया आसमान मिला तो सहेजकर रखे गये अपने पंखों को उड़ान के लिए तौलने का हौंसला जागने लगा है तृषा में। पर वह जानती है इस उड़ान के लिए अभी तैयार होना है उसे। रोज के घटनाक्रम से उसके अनुभवों में भी इजाफ़ा हो रहा है। अभी कल ही की बात है कि एक एनजीओ के प्रतिनिधि ने अपने एक प्रस्ताव के साथ बार काउंसिल के कई लोगों के साथ मीटिंग की। तृषा भी थी वहाँ। अच्छा लगा उसे। उसे लगा वह हमेशा से यही सब तो करना चाहती थी। कितना कुछ करना है उसे। अभी तो महज शुरुआत है।
“लॉन्ग वे टू गो टिन्नी।” चाचा बोलते हैं तो वह सहमति में सिर हिला देती है। अपने परिवार की पहली लड़की है वह जिसे इस नयी दुनिया में प्रवेश मिला और तृषा केवल घर रसोई की चहारदीवारी में रह जाने के लिए नहीं बनी, ये छोटे चाचा ने ही उसे सिखाया। यूँ भी चाचा परिवार के बाकी पारम्परिक पुरुषों से बिल्कुल अलग हैं।
इस ‘लॉन्ग वे’ पर बढ़ा पहला कदम यानी ये कोर्ट का रास्ता किसी रेस्क्यू से कम नहीं रहा उसके लिए। कम से कम अपनी उन उलझनों से तो बाहर निकली है तृषा जो अब तक उसे उलझाये हुए थीं। न…ऐसी कोई खास उलझन नहीं उसके व्यक्तित्व में पर फिर क्या है ये सब, जो उलझाता है उसे। पैरों में किसी अनजान जंगली लता-सा आ लिपटता है। मतलब जैसे सब कुछ पूरी तरह संदेह के दायरे में नहीं वैसे ही सब कुछ सामान्य भी नहीं। इसी संदेह और सामान्य के बीच उलझती वह एक चौबीस साल की हंसती बोलती खेलती एक लड़की है जो एक ट्रेनी एडवोकेट है। बाईस में ग्रेजुएशन पूरी की। एक साल लेट। दादी बताती हैं बीमार पड़ गई थी वह बचपन में। बहुत बीमार। शायद ढाई साल की रही होगी। बहुत पूछने पर भी दादी को याद नहीं आता क्या बीमारी थी और न ही उसे। तब कुछ साल बस घर में बीते उसके। स्कूली पढ़ाई कुछ लेट शुरू हुई।
दादी कहती है “कुछ फरक नी पड़ता टिन्नी एक दो साल से….”।
ठीक ही तो कहती हैं दादी। मम्मी होतीं तो वे भी यही कहतीं पर मम्मी नहीं रही कुछ साल पहले। पर क्या मम्मी सचमुच कुछ कहतीं या अपनी उदास मुस्कान के साये तले उसके माथे पर एक उदास चुंबन जड़कर फिर खामोश हो जातीं।
उसने मम्मी के रहते भी कभी उन्हें बहुत बोलते नहीं पाया। दबंग दादी और बड़े संयुक्त परिवार में घुटी, सहमी जिन्दगी जीती मम्मी जैसे किसी बड़े अपराधबोध में दबी जिन्दगी काटती रहीं। क्या था वह? अपराधबोध या पितृसत्ता का खौफ़ नहीं जानती तृषा। उसके परिवार में यही चलन है। स्त्रियाँ सहमी हुई दिनचर्या पूरा करती हैं और पुरुष व्यवसाय या जायदाद संभालने में लगे रहते हैं। उनका पति होने का राज रात के अंधेरों में ही दफ्न रहता, अगर सबकी दो या तीन संतानें न हो गई होतीं। हालाँकि बाकी औरतें मम्मी जितनी खामोश और उदास तो नहीं। मम्मी की चुप्पी और वाचाल आँखें विचित्र सा विरोधाभास रचती प्रतीत होती थीं। जैसे भीतर ही भीतर घुल रही थीं मम्मी। उनकी बड़ी-बड़ी पनीली आँखें नहीं भुला पाती तृषा, जिनमें ममता के विशाल सागर में अक्सर एक किश्ती के भंवर में डूबते जाने का मंजर तृषा से कभी नहीं छुपा। ये किश्ती किसी अनचाहे सुख की थी, किसी अनचीन्हे प्रेम की थी या उनके मौन की ये भेद उनके साथ ही चला गया।
एक और बात, वे जब तक रहीं, तृषा को लेकर उनकी अतिरिक्त सतर्कता और उनका अतिरिक्त प्रोटेक्टिव होना खीज से भर देता था उसे। जैसे दमघोंटू सुरक्षा के नाम पर पिंजरे में कैद हो वह किसी बुलबुल सी जिसे सात तालों में छुपाकर रखने की मम्मी की सनक उसे कभी समझ नहीं आई। खानदान की बड़ी बेटी थी वह ऐसा इसलिए नहीं था। बचपन के उन दिनों में उसे ही नहीं उसके छोटे भाई मयंक को भी, और बाद में तन्मय आया तो उसे भी, न घर से बाहर मोहल्ले पड़ोस में जाने की इज़ाज़त थी न कहीं और। स्कूल से घर और घर से सीधे स्कूल।
यूँ भी कॉलोनी से उनका घर बीच में एक सड़क के चलते थोड़ा कटा हुआ सा लगता। था तो कॉलोनी में ही पर सबसे अलग था और ठीक सामने चलती सड़क। कुछ तो कॉलोनी से तनिक दूरी और कुछ खानदान के पुरुषों का अजीब सा रूखा, शक्की व्यवहार, कॉलोनी में एक दूसरे के घर घूमती महिलाएं इधर का रुख कम ही करतीं। हाँ, दादी जरूर जब तब मन्दिर चली जाती थीं। कॉलोनी की महिलाओं से यही एकमात्र सम्पर्क था उनके परिवार का। इस घर की महिलाओं ने जैसे खुद हो परिवेश के अनुसार ही ढाल लिया था। रचबस गईं थी अपने एकांत में जैसे यही दायरा, यही घर उनकी समूची दुनिया था।
मम्मी की नजरों के दायरे में, घर के बड़े से आंगन में वह जहाँ चाहे हिरणी सी कुलांचे भर सकती थी ठीक वैसे ही जैसे कल्पना के लिए उसके पास बड़ा आसमान था पर इस घर आंगन के बाहर की दुनिया का तात्पर्य उसके लिए सदा स्कूल ही रहा। और आसमान, वह तो तयशुदा खांचा भर रहा। ट्यूटर दीदी भी घर पर ही आती रहीं। घर से स्कूल और स्कूल से घर की रूटीन के बाद भी मम्मी की खोजी आँखों से एक पल भी ओझल नही हो पाती थी तृषा। जैसे किसी दायरे में कैद साँस भर लेने की ऑक्सीजन ही उसका अधिकार क्षेत्र थी। उसका ज्यादातर समय काम में व्यस्त मम्मी के साथ नहीं दादी के साथ बीतता।
टीनेज के कौतूहल से भरे जिज्ञासु समय के पास ढेर सारे सवालों की पोटली थी और मम्मी के पास खाली हाथ। ऐसे में तृषा अपनी सवालों की पोटली को ले जाकर दादी के सामने खाली कर देती। दादी के पास मौन की चादर न थी। चुप्पी का कोहरा भी नहीं। पर सवालों के नन्हे नवांकुरों को संतुष्टि के जल से सींचती दादी के पास भी कुछ सवाल अनकहे, अनसुने दम तोड़ देते, तृषा साफ महसूस करने लगी थी।
फिर टीनेज की दुम से बंधे हुए वे साल और मम्मी की बीमारी, सब कुछ तृषा को एक सपने सा लगता है। एक बुरा सपना, उन बुरे सपनों की ही एक कड़ी जो तृषा को बचपन से सताते हैं। विचित्र से सपने। लू भरी गरम तपती दोपहर, कोई दूर आइसक्रीम की आवाज़ लगाता स्वर, रेल की पटरियाँ और उसकी रूह को सुखा देने वाला एक अस्पष्ट सा विकृत चेहरा…और आसमान का रंग लाल…..उसे डरा देने वाला ललछौंआ आसमान। उस आसमान की लाल छाया उसका खून सुखा देती थी। उन दिनों की यादें इतनी विकृत हैं कि तृषा वहाँ लौटने की बिल्कुल भी इच्छुक नहीं। एक बार टीवी पर रेंगते हुए बिच्छु को देखा था तो कैसी वितृष्णा से भर उठी थी। ऑंखें बंद की तो कोई दृश्य नहीं अहसास हुआ जो उस रात बुरे सपने में बदल गया। जिस्म पर रेंगते सेंकडों बिच्छुओं से भर गई थी वह रात। उस पूरी रात मम्मी के पहलू में काँपते हुए करवट बदलती रही तृषा।
वे रातें अब पीछे छूट चुकी हैं। पहले वे कुछ दृश्य रहे होंगे अब महज कौंध भर है। इलाज चलता रहा। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, सपने कम होते गये और तृषा की बेचैनी भी। लेकिन सब कहाँ बीत पाया, कुछ तो था जैसे वक्त के मरहम तले सूखता कोई अधखुला जख्म रह गया था जिसके अदृश्य निशान आज भी तृषा अपनी आत्मा पर महसूस करती है, शायद जिसकी टीस से पनीली हो जाती थीं अक्सर मम्मी की आँखें और डूब जाती थी एक अनचीन्हे भंवर में उनके मौन की किश्ती।
तृषा उन पैनिक अटैक्स के दौर से भी गुजर चुकी है। वही भयानक पैनिक अटैक्स, जो उसे अपने साथ की सामान्य लड़कियों से अलग खड़ा कर देते हैं। उसकी इन्ही मानसिक उलझनों का एक सिरा जाकर जुड़ता है उन पैनिक अटैक्स से जो अब बीते समय के पन्नों पर कहीं सुषुप्त ज्वालामुखी से सुस्ता रहे हैं।
पहली बार कब हुआ याद नहीं आता तृषा को पर जहाँ तक याददाश्त लौटती है वह एक रात है। आठ साल की रही होगी वह। मौसेरी बहन स्मिता दी का विवाह था और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़नी थी उन्हें। वह मम्मी, पापा, उसका भाई मयंक और छोटे चाचा। मौसी के यहाँ पहली बार जा रही थी तृषा। कितने खुश थे वह और मयंक। कल्पना में हिलोरों की पींगे थे और चाव से भरा था उसका नन्हा मन। फिर जैसे ही स्टेशन पर पहुँचे अजीब सा होने लगा था उसका मन। नामालूम सी स्मृतियों की एक झील में जलजला सा आया। तभी उसकी नजर पटरियों पर पड़ी और उसके गिर्द जैसे अँधेरे का एक घेरा सा घिरने लगा था। उस घेरे में अकेली होती गई तृषा। और कोई न था, न मम्मी, न पापा, न मयंक न चाचा बस वह…और कौन….नहीं जानती तृषा…और कौन था उस घेरे में?
सब उसके नज़दीक थे पर वहाँ कोई न था। एकाएक घेरा तंग होने लगा और उसका दम घुटने लगा। वह चेहरा उसके करीब आ रहा था, और करीब बेहद करीब, वे बड़ी बड़ी लाल डरावनी आँखें….इतनी लाल कि नेपथ्य में आसमान का रंग बदलने लगा डरावने लाल रंग में….उसकी सांसे रुक गईं। अगले पल उसकी चेतना लौटी तो वह जोर-जोर से चीख रही थी।
“मम्मीssssss… “
बड़ी मुश्किल से उसे काबू किया गया। मम्मी और चाचा उसी समय उसे लेकर स्टेशन से सीधे डॉक्टर के पास पहुँचे और फिर घर लौट गए थे। कई दिन डर और ख़ामोशी की कैद में रही वह मम्मी का पल्लू पकड़े रहती। दादी उसे सौ तरह से बहलातीं और मम्मी की पनीली आँखों का पानी जब तब उनके गालों पर लकीरें छोड़ता रहता।
फिर एक दिन स्कूल के बाहर ये हुआ। दीपाली को आइसक्रीम खानी थी और स्कूल बस की तरफ जाते उनके कदम आइसक्रीम की रेहड़ी तक पहुँच गये। तृषा कभी आइसक्रीम नहीं खाती ये सब बच्चों के लिए विस्मय की बात थी। बच्चे और आइसक्रीम नहीं खाते? धत्त… क्या ऐसे भी बच्चे होते हैं? हँस देती दीपाली ये सुनकर कि उसकी गली कभी आइसक्रीम वाला नहीं आता। किसी शाम नहीं। दीपाली के चेहरे का विस्मय सहानुभूति में बदल रहा है और तृषा के चेहरे पर अजीब सी शर्मिंदगी है। ओह माय गॉड, सब सोच रहे होंगे, कितनी बैकवर्ड है वह।
मम्मी की सख्त हिदायत रोकती है कि छुट्टी होने पर सीधे स्कूल बस में आना है पर दीपाली की जिद और इसरार उसके कदम खींच रहे हैं। आज उसके सकुचाये कदम दीपाली के साथ स्कूल बस से कुछ कदम दूर खड़े आइसक्रीम की रेहड़ी की ओर बढ़ गये। पर उसके करीब पहुँचते ही पता नहीं उसका हुआ, क्या नहीं। उसका दम घुटने लगा, वही तंग घेरा, वही अजनबी चेहरा और बड़ी-बड़ी, लाल डरावनी आँखें। उसके बाद उसे होश नहीं क्या हुआ।
कई दिन बाद स्कूल लौटी तो दीपाली बताती है वह जोर-जोर चीख रही थी। उसका जबड़ा भिन्चता चला गया था और चेहरा डर से विकृत हो गया था।
“और… और बताओ न….क्या हुआ था मुझे…”
उसके बाद दीपाली के पास भी सांत्वना से भरे स्पर्श के अतिरिक्त कोई उत्तर नहीं। किसी के पास कोई उत्तर नहीं उसे क्या हो जाता है?
इन दिनों मम्मी की पनीली आँखें क्रोध की ज्वाला में जलते हुए उसे दो अंगारों सी लग रही हैं। जानती है तृषा, बेहद नाराज़ हैं माँ। क्यों गई तृषा….सीधे घर क्यों नहीं लौटी? एकाएक वे अंगारे उनके आंसुओं में बुझकर राख हो रहे हैं। अब वहाँ मम्मी की सिसकियाँ हैं जो दादी की आँखों के इशारों के आगे दम तोड़ रही हैं। आत्मग्लानि में डूबने के अतिरिक्त तृषा और कुछ नहीं कर पाई।
उसके बाद उसने कभी आइसक्रीम नहीं खाई। कभी भी नहीं। बड़ी हो गई तब भी नहीं।
पैनिक अटैक वक़्त के साथ कम होते चले गये पर न वह कभी नहीं जान पाई ट्रेन और आइसक्रीम कब क्यों उसके जीवन में वर्जित, प्रतिबंधित शब्दों में बदल गये। अपने दायरे में कैद क्या वह एक मानसिक रोगी रही है? क्या है उसका अतीत? उसने पढ़ा कि हर मानसिक रोग की तह में कोई घटना, कोई अतीत जरूर होता है पर तृषा को लाख सोचने पर भी कुछ याद नहीं आता। और जिस कौंध का सिरा भी अब छूट रहा है उससे कोई दृश्य, कोई घटना, कोई कहानी बुनने का हुनर तृषा के पास नहीं। अब तो जिज्ञासा भी नहीं।
स्कूल में ही थीं जब मम्मी नहीं रहीं। मम्मी के जाने के बाद दादी की भूमिका बदल गई थी। अब वही दादी भी थीं तृषा की और वही मम्मी भी। केवल दादी की भूमिका ही नहीं बदली, पूरा घर एक बदलाव से गुजर रहा था। उसका कॉलेज खत्म हो चुका था, और वह क़ानूनी पढ़ाई के साथ छोटे चाचा को असिस्ट भी कर रही है। उसकी एलएलबी खत्म होगी तो वह घर की दूसरी एडवोकेट बनेगी। मयंक उसी साल इंजीनियरिंग पढ़ने बैंगलोर चला गया। मझले चाचा चाची तो बहुत पहले आगरा बस बस गये थे। वहाँ की पुश्तैनी जायदाद सँभालने के लिए भी तो कोई चाहिए न और छोटे चाचा चाची यहीं ऊपर के पोर्शन में शिफ्ट हो गए हैं।
वह और दिनों सा सामान्य सा दिन था। संडे था तो तृषा को आज कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। आज कोर्ट नहीं जाना था तृषा को तो सुबह से रसोई में घुसी थी। उस दिन दादी को सुबह से बेचैनी हो रही थीं। तृषा ने उनकी डलिया तैयार की तो बेमन से मंदिर हो आईं पर लौटते हुए आंगन में ही बेहोश होकर गिर पड़ीं तो घर भर में कोहराम मच गया।
दुनिया भर का स्नेह समेटे दादी के विशाल दिल की धड़कनें जैसे थककर कुछ ठिठक गईं थीं। अस्पताल और घर के बीच मानों एक रास्ता बिछ गया था जिस पर दो दिन सब भूलकर दौड़ती रही है तृषा। दादी की बीमारी के सब कागजों की एक पुरानी फाइल थी जो कहीं नहीं मिल रही थी। उस दिन पापा का फोन आया। खीज रहे थे वे कि घर भर में कहाँ खो गई फाइल। अरे, हार्ट पेशेंट की फाइल है कोई सुई तो नहीं कि खो गई। कैसे खो गई, कहाँ खो गई।
तृषा खोज में लग गई। उसके विचार पटल पर पापा का सख्त चेहरा और उदास आँखें कौंध रही हैं। ऐसे ही हो जाते हैं पापा गुस्से में। कोई गुस्से में भी उदास और विवश कैसे लग सकता है पर पापा लगते हैं ऐसे तृषा को। जैसे कुछ न कर पाने की विवशता उन्हें खाये जाती है और क्रोध की लाख परतों के तले भी वे उसे छुपा नहीं पाते हैं। जाने क्यों उनकी सख्ती और रूखापन तब तृषा को अनायास ही ओढ़ा हुआ लगने लगता है। उसे ‘फादर हैज अ बैड नाईट’ के, सख्ती के खोल में गुम उदास, परेशान पिता याद आने लगते हैं। बिल्कुल ऐसे ही तो हैं पापा। लंबे-चौड़े विशाल पापा, भीतर एक कोमल सा परेशान मन छिपाए हैं जिसकी परेशानी वे कभी किसी से नहीं बांटते। मम्मी के जाने के बाद अपनी पढ़ाई के दौरान पापा को एक अलग ही तरह से जानने पहचानने लगी है तृषा।
कभी लगता है पापा की हँसी कहीं खो गई है। घर में पापा की कोई चीज गुम हो जाये तो तृषा घर में उसे ऐसे ढूँढती है जैसे उस सन्दूक की चाबी ढूंढ रही हो जिसमें पापा की हँसी कैद है। जैसे ही चाबी मिलती है, राहत का एक खुशनुमा रंग पापा के बड़े से सख्त चेहरे पर पसर जाता है, बिल्कुल धूप के सुनहरी टुकड़े की तरह। तृषा के मन को हरियाता हुआ। खिल उठती है तृषा उसे लगता है, जैसे सचमुच उसने पापा की हँसी को कुछ पल को सही, ढूंढ निकाला है।
तृषा घर में फाइल ढूंढ रही है जिसे खुद दादी ने कहीं रख छोड़ा दिवाली की सफाई के दौरान। हर जगह पर फाइल नहीं मिली। तृषा को याद आया, दादी ने कुछ फाइल्स स्टोर रूम के कोने में रखी पुरानी अलमारी में भी रखी हैं जिन्हें छूने की इज़ाज़त बच्चों को नहीं। अब बस वही तो बची। पर उसकी चाबी कहाँ है?
अभी पापा का तीसरा फोन आया कि वह चाबी पूजाघर में तलाश करे। ग्रेट आईडिया….धत्त….ये तृषा को क्यों नहीं सूझा….बुद्धू कहीं की। छोटी चाची भी ढूंढकर थक चुकी थीं और रसोई में अब लंच की तैयारी में लग गईं।
थोड़ा ढूंढने पर मन्दिर के आले में एक टिन के पुराने छोटे डिब्बे में तृषा को मिल गई एक चाबी। स्टोर रूम की उस कोने वाली छोटी अलमारी में लगाया तो उस परेशान समय में तसल्ली की एक लम्बी साँस भरी उसने। जैसे अलीबाबा के खजाने की चाबी हो। इस घर में कोई चीज खो जाये तो ऐसे ही युद्धस्तर पर ढूंढ मच जाती है और अक्सर तृषा ही उसे ढूंढकर निकालती है। अब तो लगता है किसी दिन भूसे में सुई ढूँढने जैसी कोई काल्पनिक प्रतियोगिता हो तो तृषा ही जीतेगी। बस फाइल मिल जाये, दादी जल्द ठीक हो जायें।
तृषा अलमारी खंगाल रही है।
ह्म्म्म….तो ये घर और गाँव के प्रॉपर्टी के पेपर्स की फाइल है….
ये दादाजी की विल….
ये बड़ी बुआ के तलाक के मुकदमे की फाइल जो अब रही नहीं…
और ये… ये क्या…?
ये भी….किसी मुकदमे की फाइल है….पर किसका मुकदमा? ये सब…..? ओह माय गॉड….
उत्सुकता अब तृषा की परेशानी पर हावी है। ये तो किसी बच्ची के साथ।।। …..पर किसके साथ….क्या…. और ये सब न्यूज़पेपर कटिंग्स…?
एक विचित्र पहेली सी है ये फाइल। तृषा सब भूल गई है। प्याज की परतों की तरह एक-एक पृष्ठ के साथ ये कौन सी छुपी हुई दुनिया का राज खुल रहा तृषा के सामने। कौन सा राज है जिसे दादी ने सात तालों में इस तरह सम्भालकर रखा और तृषा को भनक तक न लगने दी।
तृषा की स्मृतियों में कौंध भर के बीच की खाली जगह भर रही है। विस्मृत दृश्य उभर रहे हैं अपनी स्पष्टता के साथ….
अब वह एडवोकेट तृषा नहीं, ढाई साल की नन्ही बच्ची है जिसकी गर्भवती मम्मी अपनी खराब तबियत के कारण बिस्तर पर है और दादी उनके सिरहाने की आराम कुर्सी पर सोई हैं। मंझली चाची घर पर नहीं हैं।
“आइसक्रीssss म ……”
बाहर रोड पर लू से भरे नीरव सन्नाटे में गूंजती आइसक्रीम वाले की आवाज़ दूर जा रही है। पता नहीं कब वह कमरे से निकलकर बाहर निकल गई न दादी जान पाती हैं न माँ। तपते आंगन में नंगे नन्हे तलवों की जलन भी तृषा को रोक नहीं पा रही है। ढाई साल की नन्ही तृषा दौड़ते हुए आंगन पार करती है….अब वह सड़क पर है।
सड़क के पार खड़ा आइसक्रीम वाला, खाली सड़क पर डग भरते उसके नन्हे कदम और आइसक्रीम की रेहड़ी की रुकी हुई छाया भर है सड़क पर। ख़ुशी के अतिरेक में झूम उठी है नन्ही तृषा। वह दौड़ती चली जा रही है…..
इसके बाद जो हुआ वह उसकी स्मृतियों में नहीं अख़बार की कतरनों में दर्ज है।
…..एक ढाई साल की बच्ची को अगवा करके ले गये एक आइसक्रीम वाले ने रेप किया और फिर मरी समझकर रेल की पटरियों पर फेंक दिया।….. बच्ची एक अरसा अस्पताल में रही….. और सात साल कैद हुई उस आइसक्रीम वाले को।
तमाम कतरने…. और…
उसकी कैद को बढ़ाने के लिए बार-बार की अपीलों के मुकदमें के तमाम पेपर। ऍफ़ आई आर से लेकर सेशन कोर्ट और हाई कोर्ट तक के सब कागज़ हैं उस फाइल में। मानो उसकी सवालों की बेचैन पोटली के सारे जवाब। उसके तन मन की तमाम गांठों के सिरे….
“ये हौंसला कैसे रुके…..sssss… “
तृषा के मोबाइल की कॉलर ट्यून पूरे घर में गूंज रही है। पापा का चौथा फोन आ रहा है। ये गर्मियों की एक और लू से झुलसी दोपहर है। बाहर फिर नीरव सन्नाटा है और तृषा….वह तो जैसे यहाँ है ही नहीं। वह तो दूर एक रेल की पटरी पर पड़ी है। घायल और निश्चेष्ट। उसकी नन्ही सी लहूलुहान देह दर्द के दरिया में डूबी है। जो तंग घेरा बचपन से उसके दु:स्वप्नों पर छाया रहा, उसकी कैद आज टूट गई है। टूट गया है वो घेरा और वो चेहरा आज स्पष्ट है पर दूर जा रहा है तृषा से। दृश्य और चेतना के बाहर कहीं शिथिल हो रही है तृषा की देह और उसका मन।
उन पलों में जैसे एक पूरा जीवन जी लिया तृषा ने। आज कहीं कोई ठिठकन नहीं थी। कहीं कोई बाधा नहीं। सब साफ़ और स्पष्ट है। स्मृतियों की हर्डल्स भरी दौड़ में जैसे हर हर्डल को पार कर लिया उसने। दर्द की एक नदी के प्रवाह में बहती किसी अकेली नाव की तरह उसकी स्मृतियों ने बीते हुए हर पल को जैसे फिर से जिया। कराहते हुए मन से अपने अतीत के दर्द और तकलीफ़ से भरे उस मनहूस समय का एक-एक पल फिर-फिर जिया तृषा ने। जैसे हर पल एक नई मौत। हर पल वह कितनी बार मरी और कितनी बार जी उठी वही जानती है। वे लाल डरावनी आँखें…..उसके पैनिक अटैक्स और उसके वे बुरे सपने….. आज कोई रहस्य बाकी न था…..जाने कितने गुंजलकों के सिरे सुलझते हुए देखे, कितनी गांठों के बंध खुले। आज सारे सिरे मिल गये।
उसकी आँखें खुली तो तूफान बीत चला था। उसके बाद की मुर्दा शांति और नीरवता ने पूरे घर में पाँव पसार लिये थे। पापा, चाचा, चाची सब उसे घेरे खड़े हैं। मयंक और चाचा का बेटा तन्मय भी, जो शायद दादी के हार्ट अटैक की खबर से आये हैं। दादी का घायल नेह, मम्मी की चुप्पी, पापा की उदास आँखों की विवशता भरी इबारत, कुछ भी छिपा नहीं आज तृषा से।
पास बैठ चुके पापा उसके सिर पर हाथ फेर रहे हैं। उनकी आँखों में आज मम्मी की आँखों में भंवर में डूबती किश्ती का सा मंजर है पर तृषा ने हाथ बढ़ाकर उनकी आँखें पोंछ दीं। उसकी खुद की आँखें डबडबा रही थीं।
यकीन नहीं होता वह इतना बड़ा सदमा कैसे झेल गई। उसे मम्मी की बेतरह याद आ रही है, मन हो रहा है एक बार मम्मी के गले से चिपटकर रो पड़े तृषा जिनसे सदा शिकायतें रहीं उसे। दादी की भी याद, जिनके पास न होने ने उसे टिन्नी नही तृषा होने पर विवश कर दिया है। अपने दर्द को घूंट-घूंट पी रही थी तृषा टिन्नी होना चाहती है। कुछ कहना चाहती है वह पर शब्द धीमे से उसका हाथ छुड़ाकर कहीं दूर चले जा रहे हैं। ये अगले कुछ पल मौन ही संवाद था और मौन भाषा, शायद सवाल और जवाब भी।
बाहर शाम हो चली थी। कुछ पल पापा को देखते हुए एकाएक तृषा को कुछ याद आया। उसने उठने की कोशिश की और पापा के रोकते-रोकते भी वह संयत कदमों से उठकर अलमारी के पास पहुँची और दादी की मेडिकल फाइल निकालकर पापा को सौप दी। पापा ने आगे बढ़कर उसे गले लगाकर अपने बाहुपाश में भींच लिया और किसी बच्चे से बिलख उठे जैसे वही उसके अपराधी हों। तृषा को लगा बरसों से पापा की उदास आँखों की विवशता जैसे आज बांध तोड़कर बह निकली। इतने बरसों बाद भी पापा के पास कहने को आज भी शब्द नहीं और पर तृषा के लिए आज कुछ भी सुनना जैसे बाकी न रहा।
“मैं ठीक हूँ पापा, आप जाइए, हॉस्पिटल के लिए देर हो रही है।” किसी सुरंग से आती, डूबती हुई उस आवाज़ के अतिरिक्त कमरे में पिन ड्राप साइलेंस था।
पापा ने उसके कंधे पर हाथ धरकर उसे आराम करने का इशारा किया और फाइल मयंक को थमा दी। मयंक और तन्मय बाहर निकल गये। बाहर गाड़ी की आवाज़ बाहर के नीरव सन्नाटे में गूंज उठी है।
वह बिस्तर से उठी तो बाहर आंगन में फैले अँधेरे के साथ रात के आने को महसूस किया उसने। वह तूफान अब थम चुका है जिसने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था पर अपने निशाँ पीछे छोड़ गया है। कुछ आराम करने से उसके मन की सलवटें अब बैठने लगी हैं। झील में पड़ा कंकड़ अब शायद तलहटी में जा बैठा है। हलचल अभी भी बाकी है पर सतह पर एक लंबी उदास खामोशी पसरी है और पूरे घर में भी। चाची सूप लेकर आयीं तो अधलेटी हो गई तृषा।
उसने नजर दौड़ाई, पापा शायद हॉस्पिटल में हैं। चाची उसके सिरहाने पर बैठ गईं। सामने सोफे पर बैठे चाचा उसके करीब आ बैठे। सिर पर हाथ फिराते हुए वे उससे यूँ नज़रें चुरा रहे हैं जैसे बच रहे हों उसके किसी अप्रत्याशित सवाल से। किन्तु सवालों की पोटली खोलने का तृषा का मन भी नहीं।
बिना पोटली खोले ही इन कुछ घंटों में उसने सब जान लिया। वही सच जो कब से अपरिभाषित सा गुंथा हुआ था इस घर की शाश्वत उदासी में। जो न मम्मी कभी कह पाई न दादी। बाकी रात भर उसके पास रहीं चाची ने बताया। सब कुछ।
अगले दिन चाचा ब्रेकफास्ट के बाद हॉस्पिटल जाने के लिए निकल रहे थे। आहिस्ता से चलते हुए तृषा उनके करीब जा पहुँची।
“चाचा….. वो एक एनजीओ का प्रस्ताव आया था न उस दिन। वही कि उन्हें रेप की शिकार बच्चियों के लिए वकीलों की एक टीम तैयार करनी है। उस प्रोजेक्ट को मुझे दे दीजिये चाचा। वह टीम मैं बनाऊंगी। मैं लडूंगी उन बच्चियों के केस और मैं उसके लिए वकीलों को तैयार करूंगी। आप साथ तो देंगे न?”
चाचा का हाथ थामे तृषा की आवाज़ में एक कम्पन जरूर है पर उसके इरादों में चट्टान की सी दृढ़ता है जो उसके चेहरे पर परिलक्षित हो रही है। चाचा के चेहरे का दर्द पिघलकर गर्व के रंग में विलीन होने लगा। उन्होंने उसके हाथों को अपने दोनों हाथों में थामा और फिर आगे बढ़कर उसका माथा चूम लिया।
सचमुच आज तृषा बड़ी हो गई है….बहुत बड़ी…इतनी बड़ी कि कोई उलझन आज उसके पंखों को बांध नहीं सकती न उसके पाँवों में बेड़ी बनकर उलझ सकती… उसका काला अतीत भी नहीं।
बाहर आंगन में खिली धूप अब किनारे पर लगे फूलों की क्यारी पर सुनहरा रंग बरसा रही है। उसने आँखें बंद की और पाया आज उसके हिस्से के आसमान पर कोई ललछौंआ बादल नहीं। छंट गये हैं सारे बादल। आज उसके आसमान का रंग साफ़, स्पष्ट और नीला है। इतना स्पष्ट कि उसे अपनी मंजिल दूर से दिखाई पड़ रही है। सितारों से आगे।