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जेठ की दुपहर/डॉ मृत्युंजय कोईरी

रामधन कुशवाहा खाट से उठा। हाथ-मुँह धोये, मिर्च भरता के साथ रात का बचाखुचा बासी भात खा लिया और एक लोटा पानी गटगटा गया। सिर पर मशीन उठाया। कंधे में पाइप और कुदाल, हाथ में बाल्टी, रस्सी तथा अन्य सामान पकड़कर खेत की सिंचाई करने निकल पड़ा।

खेत की सिंचाई करने का एक मात्र साधन कुआँ है। कुआँ की गहराई दस हाथ है। मशीन आधे घंटे में कुआँ को चट्टान बना देती। लेकिन कुआँ की एक खासियत है। डेढ़ घंटे में  जहाँ-का-तहाँ पानी पुनः आ जाता। कुआँ के भरोसे ही दो खेत में पेचकी, लौवकी, मिर्च, पालक और धनिया की खेती की थी।

मशीन कुआँ में लगाकर स्टार्ट किया कि बिजली चली जाती है। तब रामधन फसल का घास उखाड़ने लगा। लगभग ग्यारह बजने को है। तब-तक बिजली नहीं आयी। फसल कुम्हलाने लगी। फसल कुम्हलाता देख बाल्टी से पानी खींच-खींच कर फसल के माथे पर छिड़कने लगा। पानी के छींटे गर्म कड़ाई में छींटे मारने के समान छंग-छंग करते हैं। फिर भी वह कुआँ से पानी निकाल-निकाल कर फसल में छींटे मारता रहा। दुपहर हो चला। शरीर से पसीना नदी की भाँति बहता है। आँख में पसीना के आते ही जलन करने लगता। वह बार-बार कपाल के पसीना को पोंछता है। पेड़ पर बैठे पक्षी को किसी ने गुलेल से मारा और पक्षी जमीन पर गिरते ही फड़फड़ाने लगता है। यह देख रामधन फसल में पानी छिड़कना छोड़ पक्षी को पानी पिलाने लगा। फिर कुआँ के सामने एक बाल्टी में पानी रख दिया। पेड़ से पक्षी उतर-उतर कर पीने लगे। रामधन पुनः फसल में पानी छिड़कने लगा। गला सूखने पर बाल्टी का पानी गटगटा लेता। अचानक पैर में कंकड़ या कांटे के चुभने पर मेंड़ से फिसलकर कमर भर नीचे खेत में गिर जाता है। पर आँखों में गम नहीं। वह उठा और बाल्टी को पकड़ लिया।

बहरहाल रस्सी से पानी खींच-खींचकर हाथ से खून रिसने निकलने लगा था। कुआँ से पानी निकालते वक्त अचानक रस्सी हाथ से छूटी। तब निराश होकर नीम के पेड़ की छाँव में जाकर बैठ गया। ‘‘सूरज आज ज्याद ही क्रोधित है। तेज हवा भी चल रही है। हे सूर्य भगवान! आज बिजली भी नहीं आ रही है। आप अपना तेज कम कर लीजिए। अन्यथा मेरी फसल नष्ट हो जायेगी।’’ मन-ही-मन भगवान को स्मरण करता है।

नेवला, साँप और मेढ़क पेड़ की छाँव में बैठे हैं। न मेढ़क को साँप का डर सता रहा और न साँप को नेवला का। प्राणों की चिंता भूल गये हैं। वे गरमी से बेचैन होकर बिल से निकलकर आमने-सामने बैठे हैं। ‘‘ये सब प्रभु की लीला है। हो-न-हो आज की इस प्रचंड गर्मी का कोई रहस्य हो!’’ यह देख रामधन के मन में विचार आया।

रामधन कमर में एक गमछा लपेटा हुआ है। गोराचिट्टा रामधन का देह काला पड़ गया है। देह से पसीना चू रहा है। रामधन स्वर्ण-रेखा नदी के अंदर स्थित काले पत्थर की भाँति बैठा है। जहाँ गंगा मैया बह रही हो ऐसा जान पड़ता है। दस मिनट के अंदर वह जमीन पर लेट गया और आँख लग गयी।

‘‘हर दिन दुपहर होने से पहले नहा-धोकर आ जाते थे। लेकिन आज अब तक नहीं आये हैं। हो-न-हो आज कुछ घटना घटी है।’’ बसंती के मन में यह विचार आते ही घबराहट होने लगी। किंतु बसंती को अंगारे की तरह आतप में पन्द्रह दिनों की कमल जैसी मुन्नी को साथ में लेकर जाने से घबरा जाती। ‘‘कहीं मुन्नी के बाबा कुआँ में तो नहीं गिर गये।’’ ऐसे ख़याल आते ही पति की चिंता से व्याकुल होकर घर में रोने लगी। सूर्यास्त होते ही बच्ची को गोद में लिये, आँसू पोंछते-पोंछते खेत की ओर चल पड़ी। ‘‘सुबह थोड़ा-सा रात का बचाखुचा भात खाकर गये हैं। आज की प्रचंड धूप और तेज हवा में कहीं बेहोश होकर खेत में तो नहीं गिर गये। और कुछ अनहोनी घट गयी। नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।’’ रास्ते में इस तरह के खयाल आते ही बसंती और बेचैन हो उठी। ‘हे भगवान! मेरे पति की रक्षा करना।’ कहती और रो-रोकर दौड़ने लगी।

‘‘पति नीम के पेड़ के सामने जमीन पर लेटा हुआ है। देह कपड़ा की भाँति सूख चुका है। पेड़ के सामने नाग और नागिन नृत्य कर रही है।’’ यह देख मन में शंका हुई, ‘‘कहीं नाग ने मुन्नी के बाबा को डस तो नहीं लिया।’’ बसंती डर से हे भगवान! क्या हो गया मेरे पति को? कहकर जोर-जोर से रोने ली। रोने की आवाज सुनकर रामधन की आँखें खुल गयी। उठकर धीरे से कहा, ‘‘क्या हुआ बसंती? रो क्यों रही है? क्या मुन्नी की तबयीत ठीक नहीं है?’’

‘‘नहीं, नहीं, मुन्नी ठीक है।’’ कहती बसंती की नज़र पुनः उस नाग और नागिन की ओर गई, तब तक वे बिल के अंदर प्रवेश कर चुके थे। इधर-उधर नज़र घुमाती है। पर कहीं नज़र नहीं आ रहे।

‘‘क्या देख ली?’’

‘‘कुछ नहीं!’’

‘‘फिर क्या हुआ है, जो तुम रो रही हो?’’

‘‘हे भोले बाबा! आपको कोटि-कोटि प्रणाम! मेरे मन में जो तरह-तरह के बुरे ख़याल आ रहे थे। वह सब मेरा भ्रम था।’’

‘‘किस ख़याल की बातें कर रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं……’’ कहती आँसू पोंछ लेती है। फिर कहती है, ‘‘ए हो! आप दुपहर को खाना खाने नहीं आये। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। पन्द्रह दिन की मुन्नी को लेकर आने की विचार आते ही, डर जाती थी। दूधमुही बेटी कहीं धूप से जल न जाए। यही सोच-विचार कर खुद को रोक रखी थी। पर आप तो खेत की सिंचाई करने आये थे? फिर सो क्यों रहे थे? कहीं तबीयत ख़राब तो नहीं हो गयी?’’

‘‘तबीयत भगवान की कृपा से ठीक है। पर सुबह से बिजली नहीं है। फसल के पत्ते कुम्हलाने लगे थे, तब …………………..।’’

‘‘बिजली तो उधर है!’’

‘‘हो सकता है। इधर कहीं तार-वार कट गया हो।’’

‘‘लेकिन रामा तो खेत की सिंचाई कर रहा है।’’ कहती बसंती की नज़र खेत पर पड़ी। ‘‘हे राम! ये क्या हो गया, मुन्नी के बाबा? फसल के सारे पत्ते जलकर तले हुए पापड़ बन गये हैं?’’ कहती पुनः रोने लगी।

‘‘बसंती ये अच्छा हुआ। खेत की सारी फसल के पत्ते सूखकर पापड़ बन गये। अब कम-से-कम इस जेठ की दुपहर में सिंचाई करने की झंझट समाप्त हुई।’’

‘‘हे भगवान! ये आप क्या कह रहे हैं? जब मुन्नी गर्भ में थी, तब मैंने प्यार से एक-एक बीज को खेत में बोया था। जैसे आज मैं मुन्नी को प्यार करती हूँ। हे भगवान! हे भगवान!………………!’’ कहती रोती है।

‘‘रो मत बसंती! जेठ में एक दिन भी बारिश नहीं हुई है। आज सूर्य भगवान का प्रचंड रूप। आज नहीं तो कल फसल का नष्ट होना तय था।’’

‘‘लेकिन तन ढकने का कपड़ा और पेट का मांड़ कहाँ से जुगाड़ करेंगे?’’ बोलकर बसंती जोर-जोर से रोने लगी।

‘‘बसंती! मेरा प्राण रहते, तुम चिंता मत करना। खेती में भी क्या ख़ाक कमा रहे थे। केवल दो वक्त का मांड़ और जैसे-तैसे देह ढकने का कपड़ा ही तो जुट रहा था। व्यापारी मनोज! हर सब्जी में कुछ मीनमेख निकालकर हिसाब से कम ही पैसा देता। हाट-बाजार में सब्जी खरीदने वाले गाय-बैल, भेड़-बकरी की तरह पटा-पटाकर लेते। इससे तो अच्छा मजूरी है! सुबह आराम से आठ बजे काम पर जाओ। दुपहर साढ़े ग्यारह-बारह बजे घर आ जाओ। फिर पुनः साढ़े तीन बजे घर से निकलकर चार बजे काम पकड़ो। शाम साढ़े पाँच-छह बजे हाथ में पैसा लेकर घर आ जाओ। कितना आराम है। है न!’’

‘‘मुन्नी के बाबा कहना बहुत आसान है। करना आसान नहीं। खेती करके एक चिथड़ा ही लेने जाते। तब आप कितने गर्व के साथ खरीद लेते। भले हम मांड़ ही पीकर रहते हैं। किंतु हमारे द्वार में काम कराने के लिए बोलने नहीं आते। काम करने जाओगे न! कहकर।’’

‘‘पर अब कुछ नहीं कर सकते हैं, मुन्नी की माँ।’’

‘‘खेत मालिक इस साल का पैसा मांगने एक महीना से आ रहा है। मैंने सब्जी बेचकर अगले सप्ताह देने की बात कही थी। हे भगवान! हे भगवान! ………………!’’ कहती बिलख-बिलख कर रोती है।

‘‘पानी मशीन को बेचकर दे देंगे।’’

‘‘पर बीज दुकानदार को बीज और खाद का पैसा कहाँ से लाकर देंगे?’’

‘‘मैं, किसी का एक रुपया हज़म नहीं करूँगा। किसी का एक पैसा हज़म करना, किसान की नीयत नहीं। पैसा हज़म करके मैं किसान के चरित्र में कंलक बनना नहीं चाहता। मैं, हाड़-तोड़ मेहनत करूँगा। आठ घंटे की जगह बारह घंटे मजूरी करूँगा। फिर भी सब का एक-एक रुपया अदा कर दूँगा।’’

बसंती पत्ते को हाथ में उठाकर विलाप करती है। बसंती का विलाप सुन, रम्भाती हुई गाय रम्भाना बंद कर दी, चहचहाती हुई चिड़िया चहचहाना बंद कर दी, आस-पास के जीव-जंतु और कीड़े-मकोड़े निकल आये हैं।

‘‘बसंती! रोना-धोना बंद करो और घर चलो! समझो! भगवान ने जेठ की दुपहर से मुक्त कर दिया।’’

 

 

 

लेखक

  • डॉ. मृत्युंजय कोईरी

    डॉ. मृत्युंजय कोईरी शिक्षा; स्नातकोत्तर हिन्दी पीएचडी0 कहानी संग्रह-मेंड़, राजेश की बैल, एक बोझा धान सम्प्रति-सहायक प्राध्यापक हिन्दी विभाग

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बहुवचन: 2 विचार “जेठ की दुपहर/डॉ मृत्युंजय कोईरी

  1. यह कहानी किसानों की दास्तां को बयां करती है। कृषक जीवन की उत्कृष्ट कहानी है।

  2. जय कहानी किसानों की संघर्ष को दर्शाता है।। ओर वह मजदूरी करने पर विवश है।।

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