मैं दुआ करता हूँ
बढ़ चढ़कर श्रम करता हूँ
करता हूँ गुलामी या चापलूसी भी
उसके उत्थान के लिये
जो पहले से ही मुझसे बहुत ऊपर है
इसलिये कि
वो और ऊपर उठे……
आसमान की ऊँचाइयों तक…
कह सकूँ मैं गर्व से
कि सुनो! सुनो!! सुनो!!!
….उसको मै जानता हूँ
जिसको जानने में दुनिया लगी है l
पर हर बार
उसके हर कदम के साथ
मैं बौना होता जाता हूँ
नीचे गिरता जाता हूँ
गिरता ही गिरता जाता हूँ
क्योंकि
उसके विकास की हर राह
गुजरती है मेरी नींव से
हिल जाता है मेरा वजूद
बिखर जाती है मेरी दुनिया
उसकी बिल्डिंगों के सुन्दरीकरण हेतु
हर बार टूटता है मेरा झोपड़ा
साथ ही टूटता हूँ मैं l
फिर भी कुचले वजूद
रोक नहीं पाते होठों पर आई मुस्कान को
दिल के सुकून को
अपनेपन के मायाजाल को
एक बार फिर से
मेरी ख़्वाहिश पूरी हुई है
मेरे ही किसी अपने के
साम्राज्य का विस्तार हो रहा है
……और मेरी भी भूमिका है उसमें
मैं एक बार फिर उजड़ा हूँ
उसके विकास में l
डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’