आज अचानक हमें अचम्भित,
सुबह-सुबह कर गयी सँवरकी।
कफ़ ने जकड़ी ऐसे छाती,
खाँस-खाँस मर गयी सँवरकी।
जूठन धो-धोकर,खुद्दारी,
बच्चे दो-दो पाल रही थी।
विवश जरूरत जान बूझकर,
बीमारी को टाल रही थी।
कल ही की तो बात शाम को
ठीक-ठाक घर गयी सँवरकी।
लाचारी पी-पीकर काढ़ा
ढाँढस रही बँधाती मन को।
आशंकित थी, दीमक बनकर,
टीबी चाट रही है तन को।
संघर्षों से पिण्ड छुड़ाकर
भव सागर तर गयी सँवरकी।
करवानी थी जाँच खून की,
मदद पाँच सौ माँग रही थी।
हमको लगा गरीबी शायद,
रच फिर कोई स्वाँग रही थी,
फूट-फूट कर रोई पीछे,
सम्मुख हँसकर गयी सँवरकी।
देती रही दुहाई सेवा,
कुटिल स्वार्थ ने व्यथा न जानी।
करती रही याचना झोली
अडिग रहा बटुआ अभिमानी।
वैभव के पनघट से लेकर,
खाली गागर गयी सँवरकी।
खड़ी हुई लज्जित निष्ठुरता,
शव के आगे शीश झुकाये।
पूछ रहा सामर्थ्य स्वयं से,
अब वह किससे खेद जताये।
जाते-जाते, पढ़ा प्रेम के,
ढाई आखर गयी सँवरकी।
—-धीरज श्रीवास्तव
बहुत ही मार्मिक