याद बहुत आई मुझे, जब पीपल की छाँव ।
सारे बंधन तोड़कर, पहुँचा अपने गाँव ।।-1
इच्छाओं ने जब धरा, आशाओं का रूप।
साँस-साँस सूरज उगे, पग-पग फैली धूप।।-2
या तो यह अभिशाप है, या कोई वरदान।
पलकों पर आँसू सजे, होंठों पर मुस्कान।।-3
बदल गई कुछ इस तरह नये जगत की चाल।
सच्चाई निर्धन हुई , सदाचार कंगाल।।-4
तालाबों को हो गया, यह कैसा अभिमान।
ख़ुद को घोषित कर दिया, सागर की संतान।।-5
पतझर कुछ ऐसे हुआ, पेड़ों पर आसीन।
टहनी-टहनी हो गई, उनकी पत्रविहीन।।-6
राजा ने जारी किया, यह अद्भुत फ़रमान।
राजमहल पर व्यंग्य है, छप्पर की मुस्कान।।-7
जीवन का सागर बड़ा, मन छोटी-सी नाव।
जितनी इच्छाएँ बढ़ीं, उतना तेज़ बहाव।।-8
जिस चौखट पर है टिका, माथा बारंबार।
उस पर घुटने टेकना मुझे नहीं स्वीकार।।-9
तन के तो उजले लगे, मन के मैले लोग।
भीतर लाखों व्याधियाँ, बाहर से नीरोग।।-10
यदि हो निर्मल भावना और परस्पर प्यार।
अवरोधक बनती नहीं, आँगन की दीवार।।-11
राजनीति में आ गए, क़ातिल और दलाल।
फिर कैसे होगी भला, ये जनता ख़ुशहाल।।-12
डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’
