याद बहुत आई मुझे, जब पीपल की छाँव/डॉ कृष्णकुमार नाज़

याद बहुत आई मुझे, जब पीपल की छाँव ।

सारे  बंधन  तोड़कर,  पहुँचा  अपने  गाँव ।।-1

इच्छाओं ने जब धरा, आशाओं  का  रूप।

साँस-साँस सूरज उगे, पग-पग फैली धूप।।-2

या तो यह अभिशाप है, या कोई  वरदान।

पलकों पर आँसू सजे, होंठों पर मुस्कान।।-3

बदल गई कुछ इस तरह नये जगत की चाल।

सच्चाई   निर्धन   हुई ,    सदाचार   कंगाल।।-4

तालाबों  को हो  गया, यह  कैसा  अभिमान।

ख़ुद को घोषित कर दिया, सागर की संतान।।-5

पतझर कुछ ऐसे हुआ, पेड़ों पर आसीन।

टहनी-टहनी  हो  गई, उनकी  पत्रविहीन।।-6

राजा ने जारी किया, यह  अद्भुत  फ़रमान।

राजमहल पर व्यंग्य है, छप्पर की मुस्कान।।-7

जीवन का सागर बड़ा, मन छोटी-सी नाव।

जितनी  इच्छाएँ बढ़ीं, उतना  तेज़  बहाव।।-8

जिस चौखट पर है टिका, माथा बारंबार।

उस पर घुटने टेकना मुझे नहीं  स्वीकार।।-9

तन के तो उजले लगे, मन के मैले लोग।

भीतर लाखों व्याधियाँ, बाहर से नीरोग।।-10

यदि हो निर्मल भावना और परस्पर प्यार।

अवरोधक बनती नहीं, आँगन की दीवार।।-11

राजनीति में आ गए, क़ातिल और दलाल।

फिर कैसे होगी भला, ये जनता ख़ुशहाल।।-12

डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’

याद बहुत आई मुझे, जब पीपल की छाँव/डॉ कृष्णकुमार नाज़

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *