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निबंध

मारेसि मोहिं कुठाँव/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

जब कैकेयी ने दशरथ से यह वर माँगा कि राम को वनवास दे दो तब दशरथ तिलमिला उठे, कहने लगे कि चाहे मेरा सिर माँग ले अभी दे दूँगा, किन्तु मुझे राम के विरह से मत मार। गोसाईं तुलसीदासजी के भाव भरे शब्दों में राजा ने सिर धुन कर लम्बी साँस भर कर कहा ‘मारेसि […]

कछुआ-धरम/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

‘मनुस्मृति’ में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत्कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या कहीं उठकर चला जाए। यह हिंदुओं के या हिंदुस्तानी सभ्यता के कछुआ धरम का आदर्श है। ध्यान रहे कि मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक-कथा […]

मैं क्यों लिखता हूँ/सुमित्रानंदन पंत

मैं क्यों लिखता हूँ—यह प्रश्न मेरे जैसे व्यक्ति के लिए उतना स्वाभाविक नहीं जितना कि मैं क्यों न लिखूँ। जब लिखने को जी करता है, उसमें सुख मिलता है जो कि एक उपेक्षणीय वस्तु नहीं—तब कोई क्यों न लिखे? किन्तु जागतिक ऊहापोहों के कारण कभी मेरे मन में भी यह बात आती है कि मैं […]

कवि के स्वप्नों का महत्व/सुमित्रानंदन पंत

कवि के स्वप्नों का महत्त्व!—विषय सम्भवतः थोड़ा गम्भीर है। स्वप्न और यथार्थ मानव-जीवन-सत्य के दो पहलू हैं : स्वप्न यथार्थ बनता जाता है और यथार्थ स्वप्न। ‘एक सौ वर्ष नगर उपवन, एक सौ वर्ष विजन वन’—इस अणु-संहार के युग में इस सत्य को समझना कठिन नहीं है। वास्तव में स्वप्न और वास्तविकता के चरणों पर […]

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