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नवगीत

लेकर हाथ तिरंगा/डॉ. बिपिन पाण्डेय

लेकर हाथ तिरंगा। रैली,धरना,हड़तालों में होता है अब दंगा। नहीं बोलने की आज़ादी, लोग लगाते नारे। रोक सड़क की आवाजाही, बैठें पैर पसारे। लोकतंत्र की देखो खूबी, करे झूठ को नंगा। सारे मंचों से जो पढ़ते , जनता का चालीसा। झूठे वादों की चक्की में, सबने उसको पीसा। कोई रोता बदहाली पर, कोई कहता चंगा। […]

बिना आग के हुक्का बैठा/डॉ. बिपिन पाण्डेय

सूनी-सूनी लगती है अब, संबंधों की मंडी। राजमार्ग पर सभी दौड़ते, छोड़-छाड़ पगडंडी। आँगन में भावों की आओ, तुलसी एक लगा दें।। गाँवों की पगडंडी राजमार्ग से प्रश्न कर रही, गाँवों की पगडंडी। कब पहुँचेगा मेरे द्वारे, यह विकास पाखंडी। बूढ़े गाँवों में दिखता है, सुविधाओं का टोटा। बच्चे मार रहे तख्ती पर, अब तक […]

यादों का परजीवी बनकर/डॉ. बिपिन पाण्डेय

करवट लेती यादें रोम रोम में पड़ी सलवटें, करवट लेती यादें। जब तक आग चिलम में बाकी, हुक्का पीना होगा। यादों का परजीवी बनकर, हमको जीना होगा। उर से लिपटी रोतीं रातें, कैसे उन्हें भगा दें? पाट नहीं सकते हम दूरी, बीच दिलों के आई। नौ दिन चले मगर पहुँचे हैं, केवल कोस अढ़ाई। अहम् […]

गीत अभी तक ज़िंदा है/डॉ. बिपिन पाण्डेय

गीत अभी तक ज़िंदा है कैसे अलग करोगे बोलो साँसों का बाशिंदा है, सतयुग त्रेता द्वापर बीते गीत अभी तक ज़िंदा है। लाख यत्न सब करके हारे चलती हैं इसकी साँसें, रोक न पाई दुनिया इसको भले लगाईं पग फाँसें। वधिक पाश में कभी न फँसता ये आज़ाद परिंदा है।। गीत अभी तक ज़िंदा है। […]

सर्वोत्तम उद्योग/अवनीश सिंह चौहान

छार-छार हो पर्वत दुख का ऐसा बने सुयोग गलाकाट इस ‘कंप्टीशन’ में मुश्किल सर्वप्रथम आ जाना शिखर पा गए किसी तरह तो मुश्किल है उस पर टिक पाना   सफल हुए हैं इस युग में जो ऊँचा उनका योग   बड़ी-बड़ी ‘गाला’ महफिल में कितनी हों भोगों की बातें और कहीं टपरे के नीचे सिकुड़ी […]

रेल- ज़िंदगी/अवनीश सिंह चौहान

एक ट्रैक पर रेल ज़िंदगी कब तक? कितना सफ़र सुहाना   धक्का-मुक्की भीड़-भड़क्का बात-बात पर चौका-छक्का   चोट किसी को लेकिन किसकी ख़त्म कहानी किसने जाना   एक आदमी दस मन अंडी लदी हुई है पूरी मंडी   किसे पता है कहाँ लिखा है किसके खाते आबोदाना   बिना टिकट छुन्ना को पकड़े रौब झाड़ […]

चिंताओं का बोझ-ज़िंदगी/अवनीश सिंह चौहान

सत्ता पर क़ाबिज़ होने को कट-मर जाते दल आज सियासत सौदेबाजी जनता में हलचल   हवा चुनावी आश्वासन के लड्डू दिखलाए खलनायक भी नायक बनकर संसद पर छाए   कैसे झूठ खुले, अँजुरी में- भरते गंगा-जल   लाद दिए पिछले वादों पर और नये कुछ वादे चिंताओं का बोझ-ज़िंदगी कोई कब तक लादे   जिये-मरे, […]

श्रम की मण्डी/अवनीश सिंह चौहान

  बिना काम के ढीला कालू मुट्ठी- झरती बालू   तीन दिनों से आटा गीला हुआ भूख से बच्चा पीला   जो भी देखे, घूरे ऐसे ज्यों शिकार को भालू   श्रम की मंडी खड़ा कमेसुर बहुत जल्द बिकने को आतुर   भाव मजूरी का गिरते ही पास आ गए लालू   बीन कमेसुर रहा […]

विज्ञापन की चकाचौंध/अवनीश सिंह चौहान

  सुनो ध्यान से कहता कोई विज्ञापन के पर्चों से   हम जिसका निर्माण करेंगे तेरी वही जरूरत होगी जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा तस-तस कपि की मूरत होगी   भस उड़ती हो, आँख भरी हो लेकिन डर मत मिर्चों से   हमें न मंहगाई की चिंता नहीं कि तुम हो भूखे-प्यासे तुमको मतलब है चीजों […]

कोरोना का डर है लेकिन/अवनीश सिंह चौहान

कोरोना का डर है लेकिन डर-सी कोई बात नहीं   धूल, धुआँ, आँधी, कोलाहल ये काले-काले बादल जूझ रहे जो बड़े साहसी युगों-युगों का लेकर बल   इस विपदा का प्रश्न कठिन, हल अब तक कुछ भी ज्ञात नहीं   लोग घरों से निकल रहे हैं सड़कों पर, फुटपाथों पर एक भरोसा खुद पर दूजा […]

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