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कहानी

कफन चोर/धर्मवीर भारती

सकीना की बुखार से जलती हुई पलकों पर एक आँसू चू पड़ा। ‘‘अब्बा!’’ सकीना ने करीम की सूखी हथेलियों को स्नेह से दबाकर कहा, ‘‘रोते हो! छिह।’’ बूढ़े करीम ने बाँह से अपनी धुँधली आँखें पोंछते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम बुखार में जल रही हो और मैं तुम्हारे ओढ़ने के लिए एक चादर भी न […]

स्वर्ग और पृथ्वी/धर्मवीर भारती

कल्पना ने आश्चर्य में भरकर वातायन के दोनों पट खोल दिए। सामने अनंत की सीमा को स्पर्श करता हुआ विशाल सागर लहरा रहा था। तट पर बिखरी हुई उषा की हलकी गुलाबी आभा से चाँदनी की चंचल लहरें टकराकर लौट रही थीं। प्रशांत नीरवता में केवल चाँदनी की लहरों का मंद-मर्मर गंभीर स्वर नि:श्वासें भर […]

मुरदों का गाँव/धर्मवीर भारती

उस गाँव के बारे में अजीब अफवाहें फैली थीं। लोग कहते थे कि वहाँ दिन में भी मौत का एक काला साया रोशनी पर पड़ा रहता है। शाम होते ही कब्रें जम्हाइयाँ लेने लगती हैं और भूखे कंकाल अँधेरे का लबादा ओढ़कर सड़कों, पगडंडियों और खेतों की मेंड़ों पर खाने की तलाश में घूमा करते […]

गुलकी बन्नो/धर्मवीर भारती

‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !’’ मारे डर के कि कहीं घेघा […]

तारा और किरण/धर्मवीर भारती

वह विस्मित होकर रुक गया। नील जलपटल की दीवारों से निर्मित शयन-कक्ष-द्वार पर झूलती फुहारों की झालरें और उन पर इंद्रधनुष की धारियां। रंग-बिरंगी आभा वाली कोमल शय्या और उस पर आसीन स्वच्छ और प्रकाशमयी वरुणबालिका। उसका गीत रुक गया और वह देखने लगा, सौंदर्य की वह नवनीत ज्योति… वरुणा आगंतुक की ओर एक कुतूहल […]

पानवाला/सुमित्रानंदन पंत

यह पानवाला और कोई नहीं, हमारा चिर-परिचित पीताम्बर है । बचपन से उसे वैसा ही देखते आए हैं। हम छोटे लड़के थे- स्थानीय हाईस्कूल में चौथे-पाँचवें क्लास में पढ़ते थे । मकान की गली पार करने पर सड़क पर पहुँचते ही जो सब से पहली दूकान मिलती, वह पीताम्बर की । हम कई लड़के रहते, […]

बटबाबा/फणीश्वरनाथ रेणु

गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा । शाम को निरधन साहु की दुकान पर इसी पेड़ की चर्चा छिड़ी हुई थी। जब […]

एक रंगबाज गाँव की भूमिका/फणीश्वरनाथ रेणु

सड़क खुलने और बस ‘सर्विस’ चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी “चालू” हो गए हैं…! ‘ए रोक-के ! कहकर “बस’ को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “बस’ की देह पर दो थाप लगा देते ही गाड़ी चल पड़ती है – […]

रसप्रिया/फणीश्वरनाथ रेणु

धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई – अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ….खेतों, मैंदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुन्दरता! मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गई। मोहना ने मुस्कराकर पूछा-तुम्हारी उँगली […]

एक आदिम रात्रि की महक/फणीश्वरनाथ रेणु

न …करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने ‘इस्टिसन’ सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।…ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी…! करमा छींकने […]