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कविता

नागार्जुन/कविता/अदम गोंडवी

वामपन्थी सोच का आयाम है नागार्जुन ज़िन्दगी में आस्था का नाम है नागार्जुन ग्रामगन्धी सर्जना उसमें जुलाहे का गुरूर जितना अनगढ़ उतना ही अभिराम है नागार्जुन हम तो कहते हैं उसे बंगाल की खाँटी सुबह केरला की ख़ूबसूरत शाम है नागार्जुन खास इतना है कि सर-आँखों पर है उसका वजूद मुफ़लिसों की झोपड़ी तक आम […]

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको/अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी चल रही है छंद के आयाम […]

अकेलापन/कविता/कुमारी सोनम

उसे अकेलेपन से प्यार था, …… मुझे अकेलेपन से डर लगता था। वो अपने आँसू छिपा लेता था, मैं अपने आँसू बहा देती थी। दोनों मिले दोनों को प्यार हुआ, लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ, उसे अकेलपन से डर लगने लगा, वो अपने आँसू छिपा न सका। उसने कहा था मुझसे ना बहाना आँसू […]

बाल दिवस की बधाई/कविता/वसंत जमशेदपुरी

बाल दिवस की बधाई   कूड़े के ढेर से प्लास्टिक चुनते बच्चे को डिब्बे में मिल गई बासी मिठाई | बाल दिवस की बहुत-बहुत बधाई ||   फीस नहीं भर पाया ड्रेस भी थी पुरानी सरेआम टीचर ने कर दी पिटाई | बाल दिवस की बहुत-बहुत बधाई ||   सो गया फुटपाथ पर बिछा कर […]

जल बचाएँ,जीवन बचाएँ/कविता/वसंत जमशेदपुरी

जल बचाएँ,जीवन बचाएँ जब वर्षा का पानी नदियों में और नदी का पानी समुद्र में समाता है फिर समुद्र का पानी पहले भाप और फिर बादल बन जाता है बादल पुनः बरस कर प्रकृति को सरसाता है फिर समझ में नहीं आता है कि पीने का पानी आखिर कहाँ चला जाता है कहीं यह हमारी […]

कविता/वसंत जमशेदपुरी

ईंट ढंग से जोड़िए यह क्या कर रहे हैं आप धड़ाधड़ ईंट जोड़ रहे हैं न तौल न माप गारा भी  नहीं डाल रहे हैं ठीक से हर ईंट भाग रही है पहले की लीक से कोई तिरछी है तो कोई आड़ी है अंधा भी कह देगा यह मिस्त्री अनाड़ी है अरे!आप घर बना रहे […]

चक्रव्यूह : कुँवर नारायण

माध्यम वस्तु और वस्तु के बीच भाषा है जो हमें अलग करती है, मेरे और तुम्हारे बीच एक मौन है जो किसी अखंडता में हमको मिलाता है : एक दृष्टि है जो संसार से अलग असंख्य सपनों को झेलती है, एक असन्तुष्ट चेतना है जो आवेश में पागलों की तरह भाषा को वस्तु मान, तोड़-फोड़ […]

तीसरा सप्तक : कुँवर नारायण

ये पंक्तियाँ मेरे निकट ये पंक्तियाँ मेरे निकट आईं नहीं मैं ही गया उनके निकट उनको मनाने, ढीठ, उच्छृंखल अबाध्य इकाइयों को पास लाने : कुछ दूर उड़ते बादलों की बेसंवारी रेख, या खोते, निकलते, डूबते, तिरते गगन में पक्षियों की पांत लहराती : अमा से छलछलाती रूप-मदिरा देख सरिता की सतह पर नाचती लहरें, […]

मैं स्त्री हूँ /कविता/नन्दिता शर्मा माजी

मैं स्त्री हूँ, प्रायः घर की देवी भी कहलाती हूँ, कहीं प्रताड़ित, तो कहीं पूजी जाती हूँ, कहीं मेरा मान-सम्मान किया जाता है, कहीं मुझे कोख में ही मार दिया जाता है, कभी बड़े चाव से सोलह श्रृंगार करते है, कभी भरी सभा में मेरा वस्त्र भी हरते है, कभी वंश वृद्धि के लिए सिर […]

संहार शेष है/कविता/नन्दिता शर्मा माजी

कल्कि के धनुष की अभी, टंकार शेष है, कितनी ही सुताओं का, प्रतिकार शेष है, तीर, तलवारों से अभी श्रृंगार शेष है, शस्त्र उठा लो बेटियों, संहार शेष है, अंहकारियों के माथ का अहंकार शेष है, माँ, बहन, बेटियों की, हुंकार शेष है, निर्भया की अस्थियों में, अंगार शेष है, शस्त्र उठा लो बेटियों, संहार […]

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