फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’
फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के, मुस्करा देते है गुमसुम आईने दीवार के। रंग क्या-क्या पेश आए हमको इस संसार के, हमने जिनको घर का समझा निकले वो बाज़ार के। अब सफ़र का लुत्फ़ भी जाता रहा अफ़सोस है, हम दिवाने क्यूँ हुए दुनिया तेरी रफ़्तार के। किस क़दर महँगाई है हम मुफ़लिसों […]