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पद्य

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के, मुस्करा देते है गुमसुम आईने दीवार के। रंग क्या-क्या पेश आए हमको इस संसार के, हमने जिनको घर का समझा निकले वो बाज़ार के। अब सफ़र का लुत्फ़ भी जाता रहा अफ़सोस है, हम दिवाने क्यूँ हुए दुनिया तेरी रफ़्तार के। किस क़दर महँगाई है हम मुफ़लिसों […]

गरदनें भी कमाल करती हैं/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

गरदनें भी कमाल करती हैं, चाकुओं से सवाल करती हैं। एक वहशत है जिसकी सदियों से, बस्तियाँ देखभाल करती हैं। दुनिया कपड़े बदलती है अपने, सम्तें जब ख़ुद को लाल करती हैं। तेरे आँगन की फ़ाख़्ताएँ अब, मेरे घर में धमाल करती हैं। उसकी आँखों की ख़ैर हो मौला, उसकी आँखें सवाल करती हैं।

अब भला कौन पड़ोसी की ख़बर रखता है/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

अब भला कौन पड़ोसी की ख़बर रखता है, आज हर शख़्स सितारों पे नज़र रखता है। खूब पछताऐगा यह गाँव से जाने वाला, हर नगर जलती हुई राहगुज़र रखता है। एक मुद्दत से न ली अपने बुजुर्गों की ख़बर, यूँ तो वो सारे ज़माने की ख़बर रखता है। हक़परस्ती की हिमायत में वही बोलेगा, अपने […]

शह्र के चैरास्तों पर लाल-पीली बत्तियाँ/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

शह्र के चैरास्तों पर लाल-पीली बत्तियाँ, रहनुमाई कर रहीं हैं रंग-रंगीली बत्तियाँ। आज भी घर अपने शायद देर से पहुँचूँगा मैं, रास्ता रोके खड़ी हैं लाल-पीली बत्तियाँ। बिछ गईं गलियों में लाशें और घरौंदे जल चुकेे, आ गईं पुरशिस को कितनी लाल-नीली बत्तियाँ। बन्द कर कमरे की खिड़की आ मेरे पहलू में आ, खोल दे […]

चूल्हा-चौका-फ़ाइल-बच्चे दिनभर उलझी रहती है/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

चूल्हा-चौका-फ़ाइल-बच्चे दिनभर उलझी रहती है, वो घर में और दफ़्तर में अब आधी-आधी रहती है। मिल कर बैठें दुख-सुख बाँटें इतना हमको वक़्त कहाँ, दिन उगने से रात गये तक आपा-धापी रहती है। जिस दिन से तक़रार हुई उन सियह गुलाबी होंठों में, दो कजरारी आँखों के संग छत भी जागी रहती है। जब से […]

बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है दफ़्तर से लौटकर वो, फिर घर को देखती है वह देखती है ख़तरे, धरती के आसमां के जब घर को देखती है, बाहर को देखती है कितनी ही सिलवटों से वो जूझती है भीतर जब सिलवटों को ओढ़े बिस्तर को देखती है जिस देवता पे उसने ख़ुद […]

आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी मौत से भी आज बदतर ज़िंदगी होने लगी जाल ख़ुद ही था बनाया क़ैद ख़ुद उसमें हुए फिर बताओ अब तुम्हें क्यों बेबसी होने लगी याद को अब याद करके याद भी धुँधला रही लग रहा तुमसे मिले जैसे सदी होने लगी चाँद, सूरज थे बने सबके लिये […]

उत्सव के दिन बहुत अकेले बैठे उत्सव/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

उत्सव के दिन बहुत अकेले बैठे उत्सव आँसू की झीलों में कैसे डूबे उत्सव सन्नाटे में बीती होली, दीवाली, छठ शहर गये हैं गाँवों के बेचारे उत्सव कैलेण्डर में टँगे-टँगे ही रहते हैं अब शहरों की भागादौड़ी में खोये उत्सव नकली मुस्कानों को ओढ़े फिरते चेहरे अवसादों की सीलन में हैं सीले उत्सव पोता-पोती घर […]

रोज़ ढलकर भी नहीं इक पल ढला सूरज/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

रोज़ ढलकर भी नहीं इक पल ढला सूरज घाटियों से चोटियों तक फिर चला सूरज ठान बैठे बैर मुझसे आज कुछ जुगनू देखकर हैरान हैं मुझमें पला सूरज रोशनी भरता है सबकी ज़िंदगी में वो रोज़ तपती भट्टियों में है जला सूरज बादलों की ओट में कैसे थे बहकावे गुम गया क्यों, आज वादे से […]

आँखों में ख़्वाब, पाँवों में छालों को पाल कर/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

आँखों में ख़्वाब, पाँवों में छालों को पाल कर लायी हूँ मैं अँधेरे से सूरज निकाल कर लड़की का जिस्म पहले तो शीशे का कर दिया फिर उसको वो डराता है पत्थर उछालकर ये ज़ख्म तो दवाई से भर पाएगा नहीं दिल की है चोट, दिल से ही तू देखभाल कर जिसको जहां में हमने […]

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