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कविता

बचपन/दया शर्मा

बचपन के वो हसीन पल क्षण क्षण क्यों  जाते हैं  ढल। ऐ दिल ! फिर  वहीं  पे चल वो मौसम  क्यों  गया  बदल । कभी हँसना, कभी  रोना कभी  रूँठना तो कभी  मनाना । वो पेड़ों पे चढ कर गिरना चोरी से फलों का खाना। वो कागज की नाव बनाना कभी  हवाई जहाज  चलाना खो […]

प्रकृति/दया शर्मा

प्रकृति करती ज्यों तो किसी का तिरस्कार  नहीं अत्याचार होता जब मानव का उस पर प्रतिशोध में  करती उसका वहिष्कार  यहीं । काश ! मनुष्य  तुम समझ  पाते बदौलत जिसके तुम  स्वस्थ्य  जीवन जीते, दमन  उसी का करने  पर तुलते क्यों दुःख दर्द के  आँसू पीते पेड़ पौधे  जो शुद्ध  हवा  देते उन्हीं को काट […]

वाणी/दया शर्मा

वाणी की महिमा  अपरम्पार है  । इसका अपना  अथाह संसार है। वाणी  दिलों में  चाहत भरती है। कभी ये ही दिलों  को आहत करती है वाणी  से रिश्ते संवरते हैं । कड़वे बोलों  से ये बिखरते  हैं। मीठी वाणी  लोगों  में  मान बढाती  । दुरुपयोग हो वाणी का तो ये समाज में  शान घटाती । […]

फ़ितरत/दया शर्मा

फ़ितरत में जिनके प्यार हो नफरत  भला वे क्यों करें। अच्छे ही हों सब ,इस बात की हसरत भला वे क्यों करें । कौन जाने छूटे  कब साथ किसी का ज़हमत दूरियों की भला क्यों करें! ले कर चलते हैं जो साथ सभी का हिमाक़त  न तोहमत लगाने की हम करें। उल्फ़त ही  क़वायद  है […]

पंछी/दया शर्मा

मैं हूँ  एक नन्ही सी चिड़िया, सारा नभ है मेरा घर उड़ती रहती हूँ  इधर-उधर, इधर-उधर से  उधर इधर।। सुबह सुबह मैं उठ जाती, शोर मचा मैं पँख फैलाती शीतल हवा मुझे बेहद भाती । एक जगह मैं रह न पाती । पिंजरे में  कभी  बन्द की जाती मैं ये कभी समझ न पाती रो […]

वक्त/दया शर्मा

वक्त  जो बीत  जाता है वापस वो आता नहीं । इन्तजार करते हम वक्त  का, वक्त  करता हमारा नहीं। आज अगर समय मेरा  है तो कल तुम्हारा होगा अगर ये मेहरबां है तुम पर तो रोशन तेरा सितारा होगा। वक्त  को कौन जान पाया है कौन इसे बाँध पाया है। इसने कभी राजा को रंक […]

नेमते ज़िस्त/दया शर्मा

गुजर रही थी बेसबब ज़िस्त ये हमारी पाया जो तुम्हें , जीने का तब शऊर आया । बिन तुम्हारे ज़िन्दगी  में  कोई नूर न था। मिले जो तुम खुद को गमों से दूर पाया । बदगुमानियों  का दौर था सामने हमारे तेरे रफ़ाक़त से न खुद को मज़बूर पाया। महफ़िलों की रौनक में डसती तन्हाई […]

हो ‘गणेश’ उत्तीर्ण/भाऊराव महंत

लम्बी-लम्बी सूंड तुम्हारी, सूपे जैसे कान। और सामने लेकर बैठे, मोदक की दूकान। मुँह में एक दाँत है केवल, मटके जैसा पेट। जिसमें भर सकते हैं हम तो, लड्डू सौ-सौ प्लेट। इतना भोग लगाने से भी, होता नहीं अजीर्ण। भोजन खूब पचाने में तुम, हो ‘गणेश’ उत्तीर्ण।।

वेग कहाँ से लाऊँ/भाऊराव महंत

घोड़ागाड़ी,ऑटोरिक्शा, कार, सायकिल, मोटर। बस में बैठा हुआ ड्राइवर- और उसका कंडक्टर।। एम्बुलेंस, ट्रक, रेलगाड़ियाँ, मैट्रो, हैलीकॉप्टर। बड़े-बड़े जहाज पानी के, दमकल-वाहन, ट्रैक्टर। छोटे-बड़े सभी यानों के, सुंदर चित्र बनाऊँ। लेकिन अम्मा उन चित्रों में, वेग कहाँ से लाऊँ।।

 छू-मंतर/भाऊराव महंत

  एक कबूतर छत पर आया, गुटर-गुटर-गू उसने गाया। उस छत पर थी नन्ही मुनिया, देख कबूतर की यह दुनिया। मुनिया ने जैसे बतलाया, ‘छत पर एक कबूतर आया। मुनिया की यह बातें सुनकर, हुआ कबूतर झट छू–मंतर।

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