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कविता

कुकुरमुत्ते/गोविंद पाल

अगर नंद दुलारे नहीं होते तो निराला, निराला नहीं होते पंत, पंत नहीं होता अगर बख्शी नहीं होते जमाना वो था जब हीरे भी थे और जौहरी भी कुछ हीरे को अवश्य वक्त लगा जौहरी तक पंहुचने में पर हीरे ने ही हीरे की कद्र की मुक्तिबोध ने जाना शमशेर को और रामविलास ने मुक्तिबोध […]

खेद के साथ कविता का लौटना/गोविंद पाल

संपादक को भेजी हुई कविता खेद के साथ जब जब लौट आई तब तब मैं भी लौट आया अंधेरों से उजाले में, शायद मेरे जैसे किसी कवि का कविता गढ़ना जैसे पत्थरों को तराशते हुए शिल्पकार की एक गलत चोट से अधगढ़े शिल्प का टूट कर बिखर जाना, इसी तरह कविता का लौटना और मेरा […]

सिर्फ किताबी तालीम लेता हुआ बच्चा/गोविंद पाल

एक सोची समझी साजिश के तहत ठूंस दिया जाता है उनमें किताबी बोझ और बना दिया जाता है यंत्र, सिर्फ किताबी तालीम लेता हुआ बच्चा बड़ा होकर डिग्रियों की बोझ से उकताकर एक दिन बढ़ा लेता है अपना नाखून तब राजनीति के गलियारों में घात लगाये बैठे लोग बेमुद्दत बढ़े हुए उन नाखूनों के सहारे […]

अभी/अनिता रश्मि

सब अपने-अपने कमरों में लटके हुए शान से अपने-अपने सलीबों पर मोबाइल में व्यस्त मोबाइल, लैपटाॅप पर घर के एकांत कोनों से चिपके कितने एकाकी हैं सब विकास की ऊँचाइयाँ सहेजते हुए मुट्ठी में अपनी एकाकी जीवन की सजा भोग रहे वे भीड़ के बीच भीड़ से अलग-थलग स्क्रीन की रौशनी से चकित, ठहरे हुए […]

हम/अनिता रश्मि

वह जो खेतों में बड़ी हसरतों से छींट रहा है बीज कर रहा बुआई है अपनी आस की गठरी अपने पिचके पेट पर बाँधे हुए उस अँकुराती फसल को सहेजता पालता बढ़ाता वह एक उम्मीद के सहारे है हमारी उदर पूर्ति में है उसकी भूख और पेट भरने का अनोखा हिसाब-किताब खेतों के पैर भारी […]

ताखे पर दीया/अनिता रश्मि

चलो पूरी दुनिया में दीया जला आएँ उम्मीद का प्रेम की बाती को मन के तेल में डुबोकर इससे पूर्व कि हो जाए देर जला आएँ दीया वहाँ ओसारे पर, छोटे से ताखे पर भी जो खुलती हुई बाहरी दीवार पर बना है या फिर उस दालान पर सड़क के ठीक किनारे, जहाँ से गुजरेंगे […]

बेतरा/अनिता रश्मि

बाँधकर बेतरा में अपने छउआ-पुता को ये जो शहर की छाती पर सँवारने शहर को घूम रही हैं एक माँ भी हैं बच्चा कब छाती पर, कब पीठ से बँधे बेतरा में समा कंगारू बन जाएगा कह सकते नहीं, ईंट भट्ठों, भवनों सहित सारे बाजार सड़क-गली में छा गईं ये श्रम का अद्भुत ईमानदार प्रतीक […]

ख़ुश्बू चुराते बच्चे/अनिता रश्मि

कोलतार चुपड़ी काली सड़क से दौड़ते हुए आ मिलते वे बच्चे सवेरे-सवेरे जो फूटती किरण के साथ गए थे सुंदर, साफ, उजर यूनिफाॅर्म में कई स्कूलों में पंक्तिबद्ध अपने-अपने बाबा का हाथ थामे गँवीली पगडंडियों से गुजरकर । दुपहरिया होते घर लौटते ही बाबा के संग, छोड़ उन्हें ओसारे पर भागकर आ गए हैं पगडंडी, […]

अब चुप न रहो/अनिता रश्मि

सारे भेद खोलने दो कविता कवियों के कोने अंतरे में घुसकर किसान की आत्महत्या बेटी की भ्रूण हत्या बेटों के आत्मघाती हमले, पँख पसारे बगूलों सा दो फैलने सारे राग-विराग समय के बेटियों ने कैसे आँचल को बना लिया है परचम सुपुत्रों की कैसे खड़ी हो गई लंबी फौज कैसे धरित्री ‘औ’ आकाश सम माता-पिता […]

ये खिलाड़ी लड़कियांँ/अनिता रश्मि

गाय-भैंसिया, बकरी जंगल में चराते-चराते धींगा-मुश्ती करते अभाव से न जाने कब सीख जातीं हाॅकी खेलना, मारना किक गेंद को, कुश्ती लड़ना या उछाल देना आकाश में एक अबूझ सपना मैदान मार लेने का ओलंपिक का ताज जीत लेने का सपना। आम-इमली पर साधते हुए निशाना थाम लेतीं हैं बिरसा का तीर-धनुष न जाने कब, […]

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