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कातिल/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

यह भी सिद्ध हो चुका है कि

इंसानी शक्ल सिर्फ चमचे-जैसी ही नहीं होती

बल्कि दोनों तलवारें पकड़े लाल आंखोंवाली

कुछ मूर्तियां भी मोम की होती हैं

जिन्हें हल्का-सा सेंक देकर भी कोई

जैसे सांचे में चाहे ढाल सकता है

 

लेकिन गद्दारी की सजा तो सिर्फ एक ही होती है

 

मैं रोने वाला नहीं, कवि हूं

किस तरह चुप रह सकता हूं

मैं कब मुकरता हूं कि मैं कत्ल नहीं करता

मैं कातिल हूं उनका जो इंसानियत को कत्ल करते हैं

हक को कत्ल करते हैं

सच को कत्ल करते हैं

देखो, इंजीनियरो! डॉक्टरो! अध्यापको!

अपने छिले हुए घुटनों को देखो

जो कुछ सफेद या नीली दहलीजों पर

टेकने से छिले हैं

अपने चेहरे की ओर देखो

जो केवल एक याचना का बिंब है

हर छिमाही दफ़्तरों में रोटी के लिए

गिड़गिड़ाता बिंब!

हम भिखारियों की कोई सुधरी हुई किस्म हैं

लेकिन फिर भी हर दर से हमें दुत्कार दिया जाता है

अपनी ही नजरों को अपनी आंखों से मिलाओ

और देखो, क्या यह सामना कर सकती हैं?

मुझे देशद्रोही भी कहा जा सकता है

लेकिन मैं सच कहता हूं, यह देश अभी मेरा नहीं है

यहां के जवानों या किसानों का नहीं है

यह तो केवल कुछ ही ‘आदमियों’ का है

और हम अभी आदमी नहीं हैं, बड़े निरीह पशु हैं

हमारे जिस्म में जोंकों ने नहीं

पालतू मगरमच्छों ने गहरे दांत गड़ाए हैं

उठो, अपने घर के धुओं!

खाली चूल्हों की ओर देखकर उठो

उठो काम करनेवाले मजदूरो, उठो!

खेमों पर लाल झंडे लहराकर

बैठने से कुछ न होगा

इन्हें अपने रक्त की रंगत दो

(हड़तालें तो मोर्चे के लिए सिर्फ कसरत होती हैं)

उठो मेरे बच्चो, विद्यार्थियो, जवानो, उठो!

देखो मैं अभी मरा नहीं हूं

यह एक अलग बात है कि मुझे और मेरे एक बच्चे को

जो आपका भी भाई था

हक के एवज में एक जरनैली सड़क के किनारे

गोलियों के पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है

आपने भी यह ‘बड़ी भारी

पुलिस मुठभेड़’ पढ़ी होगी

और आपने देखा है कि राजनीतिक दल

दूर-दूर से मरियल कुत्ते की तरह

पल दो पल न्यायिक जांच के लिए भौंके

और यहां का कानून सिक्के का है

जो सिर्फ आग से ही ढल सकता है

भौंकने से नहीं

क्यों झिझकते हो, आओ उठें…

मेरी ओर देखो, मैं अभी जिंदा हूं

लहरों की तरह बढ़ें

इन मगरमच्छों के दांत तोड़ डालें

लौट जाएं

फिर उठें, और जो इन मगरमच्छों की रक्षा करता है

हुक्म देने के लिए

उस पिलपिले चेहरे का मुंह खुलने से पहले

उसमें बन्दूक की नाली ठोंक दें।

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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