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प्रेमचंद के फटे जूते/हरिशंकर परसाई

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।

पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ – फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।

मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है!

फोटो ही खिचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिचाते। फोटो न खिचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।

तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!

मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों उपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है यह?
क्या होरी का गोदान हो गया?
क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?

चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा – ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था—‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?

मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।

तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
तुम्हारी यह पांव की अंगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूं।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?

मैं समझता हूं। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूं, अंगुली का इशारा समझता हूं, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूं!

लेखक

  • हरिशंकर परसाईजी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 ईस्वी को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के इटारसी के निकट जमावी नामक ग्राम में हुआ था। परसाई जी की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही हुई और नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। खण्डवा में 6 माह तक अध्यापन कार्य किया तथा सन् 1941 से 1943 ई० तक 2 वर्ष जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालेज में शिक्षण कार्य किया। सन् 1943 ई० में वहीं मॉडल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। सन् 1952 ई० में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वर्ष 1953 से 1957 ई० तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। सन् 1957 ई० में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरुआत की। कलकत्ता के ललित कला महाविद्यालय से सन् 1960 ई० में डिप्लोमा किया। अध्यापन-कार्य में ये कुशल थे, किन्तु आस्था के विपरीत अनेक बातों का अध्यापन इनको यदा-कदा खटक जाता था। 10 अगस्त, सन् 1995 ईस्वी को इनका निधन हो गया। हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय साहित्य में इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अध्यापन कार्य के साथ-साथ ये साहित्य सृजन की ओर मुड़े और जब यह देखा कि इनकी नौकरी इनके साहित्यिक कार्य में बाधा पहुँचा रही है तो इन्होंने नौकरी को तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करके साहित्य-साधना में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसके प्रकाशक व संपादक ये स्वयं थे। वर्षों तक विषम आर्थिक परिस्थिति में भी पत्रिका का प्रकाशन होता रहा और बाद में बहुत घाटा हो जाने पर इसे बन्द कर देना पड़ा। सामयिक साहित्य के पाठक इनके लेखों को वर्तमान समय की प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं। परसाई जी नियमित रूप से ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए अपनी रचनाएँ लिखते रहे। परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर इन्होंने पेरिस-प्रवास किया। ये उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे। हरिशंकर परसाई की प्रमुख रचनाएं परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं— कहानी संग्रह — 1. हँसते हैं, रोते हैं, 2. जैसे उनके दिन फिरे आदि। उपन्यास — 1. रानी नागफनी की कहानी, 2. तट की खोज आदि। निबंध-व्यंग्य — 1. तब की बात और थी, 2. भूत के पाँव पीछे, 3. बेईमान की परत, 4. पगडंडियों का जमाना, 5. सदाचार की तावीज, 6 शिकायत मुझे भी है, 7. और अन्त में आदि। परसाई जी द्वारा रचित कहानी, उपन्यास तथा निबंध व्यक्ति और समाज की कमजोरियों पर चोट करते हैं। समाज और व्यक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियाँ होती हैं जो जीवन को आडम्बरपूर्ण और दूभर बना देती हैं। इन्हीं विसंगतियों का पर्दाफाश परसाई जी ने किया है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी हमारे व्यक्तित्त्व को विघटित कर देती हैं। परसाई जी के लेख पढ़ने के बाद हमारा ध्यान इन विसंगतियों और कमजोरियों की ओर बरबस चला जाता है। हरिशंकर परसाई की भाषा शैली परसाई जी एक सफल व्यंग्यकार हैं और व्यंग्य के अनुरूप ही भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में भाषा के बोलचाल के शब्दों एवं तत्सम तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्चकोटि का है। अर्थवत्ता की दृष्टि से इनका शब्द चयन अति सार्थक है। लक्षणा एवं व्यंजना का कुशल उपयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक पहुँचाने में समर्थ रहा है। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं में शैली के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं— व्यंग्यात्मक शैली — परसाई जी की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य का आश्रय लिया है। सामाजिक तथा राजनीतिक फरेबों पर भी इन्होंने अपने व्यंग्य से करारी चोट की है। इस शैली की भाषा मिश्रित है। सटीक शब्द चयन द्वारा लक्ष्य पर करारे व्यंग्य किए गए हैं। विवरणात्मक शैली — प्रसंगवश, कहीं-कहीं, इनकी रचनाओं में शैली के इस रूप के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा मिश्रित है। उद्धरण शैली — अपने कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शैली के इस रूप का उन्मुक्त भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने रचनाओं में गद्य तथा पद्य दोनों ही उद्धरण दिये हैं। इस शैली के प्रयोग से इनकी रचनाओं में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। सूक्ति कथन शैली — सूक्तिपरक कथनों के द्वारा परसाई जी ने विषय को बड़ा रोचक बना दिया है। कहीं इनकी सूक्ति तीक्ष्ण व्यंग्य से परिपूर्ण होती है तो, कहीं विचार और संदेश लिए हुए होती है।

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