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कुत्ते की आवाज़/फणीश्वरनाथ रेणु

मेरा गांव ऐसे इलाके में जहां हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की – कोशी, पनार, महानन्दा और गंगा की – बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरती पर गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरों के हज़ारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अन्दाज़ लगाते हैं।
परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता। किन्तु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक – ब्वॉय स्काउट, स्वयंसेवक, राजनीतिक कार्यकर्त्ता अथवा रिलीफ़वर्कर की हैसियत से बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूं। और लिखने की बात ? हाई स्कूल में बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार पाने से लेकर – ‘धर्मयुग’ में ‘कथादशक’ के अन्तर्गत बाढ़ की पुरानी कहानी को नए पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूं। जय गंगा (1947), डायन कोशी (48) हड्डियों का पुल (48) आदि छुटपुट रिपोर्ताज़ के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश-लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं। किन्तु गांव में रहते हुए बाढ़ से घिरने, बहने, भंसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ। वह तो पटना शहर में 1967 में ही हुआ, जब अट्ठारह घंटे की अविराम वृष्टि के कारण पुनपुन का पानी राजेन्द्रनगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात् बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा; पटना का पश्चिमी इलाका छाती-भर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, सिगरेट, पीने का पानी और कांपोज़ की गोलियां जमाकर बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे।
सुबह सुना, राजभवन और मुख्यमन्त्री-निवास प्लवित हो गया है। दोपहर में सूचना मिली, गोलघर जल से घिर गया है ! (यों, सूचना बंगला में इस वाक्य से मिली थी – ‘‘जानो ! गोलघर डूबे गेछे !’’) और पांच बजे जब कॉफ़ी हाउस जाने के लिए (तथा शहर का हाल मालूम करने) निकला तो रिक्शेवाले ने हंसकर कहा – ‘‘अब कहां जाइएगा ? कॉफ़ी हाउस में तो ‘अबले’ पानी आ गया होगा !’’
‘‘चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है,’’ कहकर हम रिक्शा पर बैठ गए। साथ में नई कविता के एक विशेषज्ञ व्याख्याता-आचार्य-कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत अनर्गल-अनगढ़ गद्यमय स्वगतोक्ति से कभी बोर नहीं होते (धन्य हैं !)।
मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल, ट्रक, टमटम, साइकिल, रिक्शा पर और पैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं, लोग पानी देखकर लौट रहे हैं। देखने वालों की आंखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा – ‘पानी कहां तक आ गया है ?’ देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत – ‘‘फ्रेज़र रोड पर आ गया ! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृष्णपुरी, पाटलिपुत्र कॉलोनी, बोरिंग रोड, इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं…अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा !…छाती-भर पानी है। विमेंस कॉलिज के पास ‘डुबाव-पानी’ है…।आ रहा है !…आ गया !!…घुस गया…डूब गया…बह गया !’’
हम जब कॉफ़ी हाउस के पास पहुंचे, कॉफ़ी हाउस बन्द कर दिया गया था। सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-झाग-फेन में उलझा पानी तेज़ी से सरकता आ रहा था। मैंने कहा – ‘‘आचार्य जी, आगे जाने की ज़रूरत नहीं। वह देखिए – आ रहा है…मृत्यु का तरल दूत !’’
आतंक के मारे दोनों हाथ बरबस जुड़ गए और सभय प्रणाम-निवेदन में मेरे मुंह से कुछ अस्फुट शब्द निकले (हां, मैं बहुत कायर और डरपोक हूं !)।
रिक्शावाला बहादुर है। कहता है – ‘‘चलिए न-थोड़ा और आगे !’’
भीड़ का एक आदमी बोला – ‘‘ए रिक्शा, करेंट बहुत तेज़ है। आगे मत जाओ !’’
मैंने रिक्शावाले से अनुनय-भरे स्वर में कहा – ‘‘लौटा ले भैया। आगे बढ़ने की ज़रूरत नहीं।’’
रिक्शा मोड़कर हम ‘अप्सरा’ सिनेमा-हॉल (सिनेमा-शो बन्द !) के बगल से गांधी मैदान की ओर चले। पैलेस होटल और इंडियन एयर लाइंस दफ़्तर के सामने पानी भर रहा था। पानी की तेज़ धार पर लाल-हरे ‘नियन’ विज्ञापनों की परछाइयां सैकड़ों रंगीन सांपों की सृष्टि कर रही थीं। गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हज़ारों लोग खड़े देख रहे थे। दशहरा के दिन रामलीला के ‘राम’ के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं उससे कम नहीं थे…गांधी मैदान के आनन्द-उत्सव, सभा- सम्मेलन और खेल-कूद की सारी स्मृतियों पर धीरे-धीरे एक गैरिक आवरण आच्छादित हो रहा था। हरियाली पर शनैः-शनैः पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था। कि इसी बीच एक अधेड़, मुस्टंड और गंवार ज़ोर-ज़ोर से बोल उठा – ‘‘ईह ! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियां बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गए…अब बूझो !’’
मैंने अपने आचार्य-कवि मित्र से कहा – ‘‘पहचान लीजिए। यही है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र जोड़ दीजिए…’’
शाम के साढ़े सात बज चुके और आकाशवाणी के पटना-केन्द्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था। पान की दुकानों के सामने खड़े लोग चुपचाप, उत्कर्ण होकर सुन रहे थे…
‘‘…पानी हमारे स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुच चुका है और किसी भी क्षण स्टूडियो में प्रवेश कर सकता है।’’
समाचार दिल दहलानेवाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएं उभरी। किन्तु हम तुरन्त ही सहज हो गए; यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आए, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नज़र नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटे हुए लोग आम दिनों की तरह हंस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हां, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किए जा रहे थे। रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेंपों पर सामान लादे जा रहे थे। ख़रीद-बिक्री बन्द हो चुकी थी। पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गई थी। आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था।
…पानवाले के आदमक़द आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नज़र आ रही थीं। मुझे लगा, अब हम यहां थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहां खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हंस सकते थे – ‘ज़रा इन बुज़दिलों का हुलिया देखो ?’ क्योंकि वहां ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं – ‘‘एक बार डूब ही जाए !…धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाए कहीं !…सब पाप धुल जाएगा…चलो, गोलघर के मुंडेरे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जाएं…विस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं ?…भई, यही माक़ूल मौका है। इनकम टैक्सवालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए। आसामी बा-माल…’’
राजेन्द्रनगर चौराहे पर ‘मैगजिन कॉर्नर’ की आखि़री सीढ़ियों पर पत्र-पत्रिकाएं पूर्ववत् बिछी हुई थीं। सोचा, एक सप्ताह की ख़ुराक एक ही साथ ले लूँ। क्या-क्या ले लूं ?…हेडली चेज़, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच जर्मन सिखा देनेवाली किताबें, अथवा ‘योग’ सिखानेवाली कोई सचित्र किताब ? मुझे इस तरह किताबों को उलटते-पलटते देखकर दुकान का नौजवान मालिक कृष्णा पता नहीं क्यों मुस्कराने लगा। किताबों को छोड़ कई हिन्दी-बंगला और अंगरेज़ी सिने पत्रिकाएं लेकर लौटा। मित्र से विदा होते हुए कहा – ‘‘पता नहीं, कल हम कितने पानी में रहें…।बहरहाल, जो कम पानी में रहेगा वह ज़्यादा पानी में फंसे मित्र की सुधि लेगा।’’
फ़्लैट में पहुंचा ही था कि ‘जनसम्पर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुई राजेन्द्रनगर पहुंच चुकी थी। हमारे ‘गोलम्बर’ के पास कोई भी आवाज़ चारों बड़े ब्लॉकोें की इमारतों से टकराकर मंडराती हुई, चार बार प्रतिध्वनित होती है। सिनेमा अथवा लॉटरी की प्रचार गाड़ी यहां पहुंचते ही – ‘भाइयो’ पुकारकर एक क्षण के लिए चुप हो जाती है। पुकार मंडराती हुई प्रतिध्वनित होती है – भाइयो…भाइयो… भाइयो.. ! एक अलमस्त जवान रिक्शाचालक है जो अक्सर रात के सन्नाटे में सवारी पहुंचाकर लौटते समय इस गोलम्बर के पास अलाप उठता है – ‘सुन मोरे बंधु रे-ए-ए…सुन मोरे मितवा-वा-वा-य…’
गोलम्बर के पास जन-सम्पर्क की गाड़ी से ऐलान किया जाने लगा – ‘भाइयो ! ऐसी सम्भावना है…कि बाढ़ का पानी…रात्रि के क़रीब बारह बजे तक…लोहानीपुर, कंकड़बाग…और राजेन्द्रनगर में…घुस जाए। अतः आप लोग सावधान हो जाएं।’
(प्रतिध्वनि। सावधान हो जाएं ! सावधान हो जाएं !!…)
मैंने गृहस्वामिनी से पूछा – ‘‘गैस का क्या हाल है ?’’
‘‘बस, उसी का डर है। अब खत्म ही होनेवाला है। असल में सिलिंडर में ‘मीटर-उटर’ की तरह कोई चीज़ नहीं होने से कुछ पता नहीं चलता। लेकिन, अन्दाज़ है कि एक या दो दिन…कोयला है। स्टोव है। मगर किरासन एक ही बोतल…’’
‘‘फ़िलहाल, बहुत है…बाढ़ का भी यही हाल है। मीटर-उटर की तरह कोई चीज़ नहीं होने से पता नहीं चलता कि कब आ धमके।’’ – मैंने कहा।
सारे राजेन्द्रनगर में ‘सावधान-सावधान’ ध्वनि कुछ देर गूंजती रही। ब्लॉक के नीचे की दुकानों से सामान हटाए जाने लगे। मेरे फ़्लैट के नीचे के दुकानदार ने पता नहीं क्यों, इतना काग़ज़ इकट्ठा कर रखा था। एक अलाव लगाकर सुलगा दिया। हमारा कमरा धुएं से भर गया।
फ़ुटपाथ पर खुली चाय की झुग्गी दुकानों में सिगड़ियां सुलगी हुई थीं और यहां बहुत रात तक मंडली बनाकर ज़ोर-ज़ोर से बातें करने का रोज़ का सिलसिला जारी था। बात के पहले या बाद में बगै़र कोई गाली जोड़े यहां नहीं बोला जाता – ‘गांधी मैदान (सरवा) एकदम लबालब भर गया…(अरे तेरी मतारी का) करंट में इतना जोर का फोर्स है कि (ससुरा) रिक्शा लगा कि उलटियै जाएगा…गांजा फुरा गया का हो रामसिंगार ? चल जाए एक चिलम ‘बालचरी-माल’ – फिर यह शहर (बेट्चः) डूबे या उबरे।’
बिजली ऑफ़िस के ‘वाचमैन साहेब’ ने पच्छिम की ओर मुंह करके ब्लॉक नम्बर एक के नीचे जमी दूसरी मंडली के किसी सदस्य से ठेठ मगही में पूछा – ‘‘का हो ! पनियां आ रहलौ है ?’’
ज़वाब में एक कुत्ते ने रोना शुरू किया। फिर दूसरे ने सुर में सुर मिलाया। फिर तीसरे ने। करुण आर्त्तनाद की भयोत्पादक प्रतिध्वनियां सुनकर सारी काया सिहर उठी। किन्तु एक साथ क़रीब एक दर्जन मानवकंठों से गालियों के साथ प्रतिवाद के शब्द निकले – ‘‘मार स्साले को। अरे चुप…चौप !’’ (प्रतिध्वनि: चौप ! चौप ! चौप !!)
कुत्ते चुप हो गए। किन्तु आनेवाले संकट को वे अपने ‘सिक्स्थ सेंस’ से भांप चुके थे…अचानक बिजली चली गई। फिर तुरत ही आ गई…शुक्र है !
भोजन करते समय मुझे टोका गया – ‘‘की होलो ? खाच्छो ना केन ?’’
‘‘खाच्छि तो…खा तो रहा हूं।’’ – मैंने कहा – ‘‘याद है ! उस बार जब पुनपुन का पानी आया था तो सबसे अधिक इन कुत्तों की दुर्दशा हुई थी।’’
हमें ‘भाइयो ! भाइयो ! सम्बोधित करता हुआ जन-सम्पर्कवालों का स्वर फिर गूंजा। इस बार ‘ऐसी सम्भावना है’ के बदले ‘ऐसी आशंका है’ कहा जा रहा था। और ऐलान में ‘ख़तरा’ और ‘होशियार’ दो नए शब्द जोड़ दिए गए थे…आशंका ! खतरा ! होशियार…
रात के साढ़े दस-ग्यारह बजे तक मोटर-गाड़ियां, रिक्शे, स्कूटर, सायकिल तथा पैदल चलनेवालों की ‘आवाजाही’ कम नहीं हुई। और दिन तो अब तक सड़क सूनी पड़ जाती थी !…पानी अब तक आया नहीं ? सात बजे शाम को फ्रेज़र रोड से आगे बढ़ चुका था।
‘‘का हो रामसिंगार, पनियां आ रहलौ है ?’’
‘‘न आ रहलौ है।’’
सारा शहर जगा हुआ है, पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूं…हां, पीरमुहानी या सालिमपुर-अहरा अथवा जनककिशोर-नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज़ आ रही है। लगता है, एक-डेढ़ बजे रात तक पानी राजेन्द्रनगर पहुंचेगा।
सोने की कोशिश करता हूं। लेकिन नींद आएगी भी ? नहीं, कांपोज़ की टिकिया अभी नहीं। कुछ लिखूं ? किन्तु क्या लिखूं कविता ? शीर्षक – बाढ़ की आकुल प्रतीक्षा ? धत्त !
नींद नहीं, स्मृतियां आने लगीं – एक-एक कर। चलचित्र, के बेतरतीब दृश्यों की तरह !…
…1947…मनिहारी (तब पूर्णिया अब कटिहार ज़िला !) के इलाके़ में गुरु जी (स्व। सतीसनाथ भादुड़ी) के साथ गंगा मैया की बाढ़ से पीड़ित क्षेत्र में हम नाव पर जा रहे हैं। चारों ओर पानी ही पानी। दूर, एक ‘द्वीप’ जैसा बालूचर दिखाई पड़ा। हमने कहा, वहां चलकर ज़रा चहलक़दमी करके टांगें सीधी कर लें। भादुड़ी जी कहते हैं – ‘‘किन्तु, सावधान !…ऐसी जगहों पर क़दम रखने के पहले यह मत भूलना कि तुमसे पहले ही वहां हर तरह के प्राणी शरणार्थी के रूप में मौजूद मिलेंगे’’ और सचमुच – चींटी-चींटे से लेकर सांप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार तक यहां पनाह ले रहे थे…भादुड़ी जी की हिदायत थी – हर नाव पर ‘पकाही घाव’ (पानी में पैर की उंगलियां सड़ जाती हैं। तलवों में भी घाव हो जाता है।) की दवा, दियासलाई की डिबिया और किरासन तेल रहना चाहिए और, सचमुच हम जहां जाते, खाने-पीने की चीज़ से पहले ‘पकाही घाव’ की दवा और दियासलाई की मांग होती…1949…उस बार महानन्दा की बाढ़ से घिरे बापसी थाना के एक गांव में हम पहुंचे। हमारी नाव पर रिलीफ़ के डॉक्टर साहब थे। गांव के कई बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैंप में ले जाता था। एक बीमार नौजवान के साथ उसका कुत्ता भी ‘कुंई-कुंई’ करता हुआ नाव पर चढ़ आया। डॉक्टर साहब कुत्ते को देखकर ‘भीषण भयभीत’ हो गए और चिल्लाने लगे – ‘‘आ रे ! कुकुर नहीं, कुकुर नहीं…कुकुर को भगाओ !’’ बीमार नौजवान छप्-से पानी में उतर गया – ‘‘हमारा कुकुर नहीं जाएगा तो हम हुं नहीं जाएगा।’’ फिर कुत्ता भी छपाक् पानी में गिरा – ‘हमारा आदमी नहीं जाएगा तो हम हुं नहीं जाएगा’…परमान नदी की बाढ़ में डूबे हुए एक ‘मुसहरी’ (मुसहरों की बस्ती) में हम राहत बांटने गए। ख़बर मिली थी वे कई दिनों से मछली और चूहों को झुलसाकर खा रहे हैं। किसी तरह जी रहे हैं। किन्तु टोले के पास जब हम पहुंचे तो ढोलक और मंजीरा की आवाज़ सुनाई पड़ी। जाकर देखा, एक ऊंची जगह ‘मचान’ बनाकर स्टेज की तरह बनाया गया है। ‘बलवाही’ नाच हो रहा था। लाल साड़ी पहनकर काला-कलूटा ‘नटुआ’ दुलहिन का हाव-भाव दिखला रहा था; यानी, वह ‘धानी’ है। ‘घरनी’ धानी घर छोड़कर मायके भागी जा रही है और उसका घरवाला (पुरुष) उसको मनाकर राह से लौटाने गया है। घरनी कहती है – ‘‘तुम्हारी बहन की जुबान बड़ी तेज़ है। दिन-रात ख़राब गाली बकती रहती है और तुम्हारी बुढ़िया मां बात के पहले तमाचा मारती है। मैं तुम्हारे घर लौटकर नहीं जाती।’’ तब घरवाला उससे कहता है, यानी गा-गाकर समझाता है – ‘चल गे धानी घर घुरी, बहिनिक देवै टांग तोड़ी धानी गे, बुढ़िया के करवै घर से बा-हा-र’(ओ धानी, घर लौट चलो ! बहन के पैर तोड़ दूंगा और बुढ़िया को घर से बाहर निकाल दूंगा !) इस पद के साथ ही ढोलक पर द्रुत ताल बजने लगा – ‘धागिड़गिड़ धागिड़गिड़चकैके चकधुम चकैके चकधुम-चकधुम चकधुम !’ कीचड़-पानी में लथपथ भूखे-प्यासे नर-नारियों के झुंड में मुक्त खिलखिलाहट लहरें लेने लगती है। हम रिलीफ़ बांटकर भी ऐसी हंसी उन्हें दे सकेंगे क्या ! (शास्त्री जी, आप कहां हैं ? बलवाही नाच की बात उठते ही मुझे अपने परम मित्र भोला शास्त्री की याद हमेशा क्यों आ जाती है ? यह कभी बाद में !)…एक बार, 1937 में, सिमरवनी-शंकरपुर में बाढ़ के समय ‘नाव’ को लेकर लड़ाई हो गई थी। मैं उस समय ‘बालचर’ (ब्वाय स्काउट) था। गांव के लोग नाव के अभाव में केले के पौधों का ‘भेला’ बनाकर किसी तरह काम चला रहे थे और वहीं सवर्ण जमींदार के लड़के नाव पर हारमोनियम-तबला के साथ ‘झिझिर’ (जल-विहार) करने निकले थे। गांव के नौजवानों ने मिलकर उनकी नाव छीन ली थी। थोड़ी मारपीट भी हुई थी…और 1967 में जब पुनपुन का पानी राजेन्द्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली-टोली किसी फ़िल्म में देखे हुए कश्मीर का आनन्द घर-बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था – केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेस्कैफ़े के पाउडर को मथ रही थी – ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद। दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पांवों को फैलाकर बांस की लग्गी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़नेवाली लड़की के सामने, अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक ‘डायलॉग’ बोल रहा था। पूरे वॉल्युम में बजते हुए ‘ट्रांज़िस्टर’ पर गाना आ रहा था – ‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी हो जी !’ हमारे ब्लाक के पास गोलम्बर में नाव पहुंची ही थी कि अचानक चारों ब्लाक की छतों पर खड़े लड़कों ने एक ही साथ किलकारियों, सीटियों, फब्तियों की वर्षा कर दी और इस गोलम्बर में किसी भी आवाज की प्रतिध्वनि मंडरा-मंडराकर गूंजती है। सो सब मिलाकर स्वयं ही जो ध्वनि-संयोजन हुआ उसे बड़े-से-बड़ा गुणी संगीत निर्देशक बहुत कोशिश के बावजूद नहीं कर पाते। उन फूहड़ युवकों की सारी ‘एक्ज़िबिशनिज़्म’ तुरत छूमंतर हो गई और युवतियों के रंगे लाल-लाल ओंठ और गाल काले पड़ गए। नाव पर अकेला ट्रांज़िस्टर था जो पूरे दम के साथ मुखर था – ‘नैया तोरी मंझधार, होश्यार होश्यार !’
‘‘का हो रामसिंगार, पनियां आ रहलौ है ?’’
‘‘ऊंहूं, न आ रहलौ है।’’
ढाई बज गए, मगर पानी अब तक आया नहीं। लगता है कहीं अटक गया, अथवा जहां तक आना था आकर रुक गया, अथवा तटबन्ध पर लड़ते हुए इंजीनियरों की जीत हो गई शायद, या कोई दैवी चमत्कार हो गया ! नहीं तो पानी कहीं भी जाएगा तो किधर से ? रास्ता तो इधर से ही है…चारों ब्लाकों के प्रायः सभी फ़्लैटों की रोशनी जल रही है, बुझ रही है। सभी जगे हुए हैं। कुत्ते रह-रहकर सामूहिक रुदन शुरू करते हैं और उन्हें रामसिंगार की मंडली डांटकर चुप करा देती है। चौप…चौप !
मुझे अचानक अपने उन मित्रों और स्वजनों की याद आई जो कल से ही पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी, बोरिंग रोड के अथाह जल में घिरे हैं…जितेन्द्र जी, विनीता जी, बाबू भैया, इंदिरा जी, पता नहीं कैसे हैं – किस हाल में हैं वे ! शाम को एक बार पड़ोस में जाकर टेलिफोन करने के लिए चोंगा उठाया – बहुत देर तक कई नम्बर डायल करता रहा। उधर सन्नाटा था एकदम। कोई शब्द नहीं – ‘टुंग फुंग’ कुछ भी नहीं।
बिस्तर पर करवट लेते हुए फिर एक बार मन में हुआ, कुछ लिखना चाहिए। लेकिन क्या लिखना चाहिए ? कुछ भी लिखना सम्भव नहीं और क्या ज़रूरी है कि कुछ लिखा ही जाए ? नहीं। फिर स्मृतियों को जगाऊं तो अच्छा…पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना के चकरदाहा गांव के पास छाती-भर पानी में खड़ी एक आसन्नप्रसवा हमारी ओर गाय की तरह टुकुर-टुकुर देख रही थी…
नहीं, अब भूली-बिसरी याद नहीं। बेहतर है, आंखें मूंदकर सफ़ेद भेड़ों के झुंड देखने की चेष्टा करूं…उजले-उजले, सफे़द भेड़…सफ़ेद भेड़ों के झुंड। झुंड…किन्तु सभी उजले भेड़ अचानक काले हो गए। बार-बार आंखें खोलता हूं, मूंदता हूं। काले को उजला करना चाहता हूं। भेड़ों के झुंड भूरे हो जाते हैं। उजले भेड़…उजले भेड़…काले भूरे…किन्तु उजले…उजले…गेहुंए रंग के भेड़… !
‘‘आई द्याखो – एसे गेछे जल !’’ – झकझोरकर मुझे जगाया गया।
घड़ी देखी, ठीक साढ़े पांच बज रहे थे। सवेरा हो चुका था…आ रहलौ है ! आ रहलौ है पनियां। पानी आ गेलौ। हो रामसिंगार ! हो मोहन ! हो रामचन्नर – अरे हो…
आंखें मलता हुआ उठा,। पच्छिम की ओर, थाना के सामने सड़क पर मोटी डोरी की शक्ल में – मुंह में झाग-फेन लिए – पानी आ रहा है; ठीक वैसा ही जैसा शाम को कॉफ़ी हाउस के पास देखा था। पानी के साथ-साथ चलता हुआ, किलोल करता हुआ बच्चों का एक दल…उधर, पच्छिम-दक्षिण कोने पर – दिनकर अतिथिशाला से और आगेे – भंगी बस्ती के पास बच्चे कूद क्यों रहे हैं ? नहीं, बच्चे नहीं, पानी है। वहां मोड़ है, थोड़ा अवरोध है – इसलिए पानी उछल रहा है…पच्छिम-उत्तर की ओर, ब्लॉक नम्बर एक के पास-पुलिस चौकी के पिछवाड़े में पानी का पहला रेला आया…ब्लॉक नम्बर चार के नीचे सेठ की दुकान के बाएं बाजू में लहरें नाचने लगीं।
अब मैं दौड़कर छत पर चला गया। चारों ओर शोर-कोलाहल-कलरव-चीख़-पुकार और पानी का कलकल रव। लहरों का नर्त्तन। सामने फ़ुटपाथ को पारकर अब पानी हमारे पिछवाड़े में सशक्त बहने लगा है। गोलम्बर के गोल पार्क के चारों ओर पानी नाच रहा है…आ गया, आ गया ! पानी बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, चढ़ रहा है, करेंट कितना तेज़ है ? सोन का पानी है। नहीं, गंगा जी का है। आ गैलो…
सामने की दीवार की ईंटें जल्दी-जल्दी डूबती जा रही हैं। बिजली के खम्भे का काला हिस्सा डूब गया। ताड़ के पेड़ का तना क्रमशः डूबता जा रहा है…डूब रहा है।
…अभी यदि मेरे पास मूवी कैमरा होता, अगर एक टेप-रेकॉर्डर होता ! बाढ़ तो बचपन से ही देखता आया हूं, किन्तु पानी का इस तरह आना कभी नहीं देखा। अच्छा हुआ जो रात में नहीं आया। नहीं तो भय के मारे न जाने मेरा क्या हाल होता…देखते ही देखते गोल पार्क डूब गया। हरियाली लोप हो गई। अब हमारे चारों ओर पानी नाच रहा था…भूरे रंग के भेड़ों के झंुड। भेड़ दौड़ रहे हैं – भूरे भेड़। वह चायवाले की झोंपड़ी गई, गई, चली गई। काश, मेरे पास एक मूवी कैमरा होता, एक टेप-रेकॉर्डर होता…तो क्या होता ? अच्छा है, कुछ भी नहीं। क़लम थी, वह भी चोरी चली गई। अच्छा है, कुछ भी नहीं – मेरे पास।
अचानक सारी देह में कंपकंपी शुरू हुई। पानी के बढ़ने की यह रफ़्तार है तो पता नहीं पानी कितना बढ़े। वहां कोई बैठा थोड़ी है कि रोक देगा – अब नहीं, बस अब, हो गया। ‘ग्राउंड-फ़्लोर’ में छाती-भर पानी है। इसके बाद भी यदि पानी बढ़ता गया तो दूसरी मंज़िल तक न भी आए – कंट्रेक्टर द्वारा निर्मित यह मकान निश्चय ही ढह जाएगा। 1967 में पुनपुन का पानी एक सप्ताह तक झेल चुके हैं ये मकान। हर साल घनघोर वर्षा के बाद कई दिनों तक घुटने-भर पानी में डूबे रहते हैं। और सरज़मीन ठोस नहीं – ‘गार्बेज’ भरकर नगर बसाया गया है…पुनपुन की बाढ़ इसके ‘पासंग’ बराबर भी नहीं थी। दोनों ओर से तेज़ धारा गुज़र रही है। पानी चक्राकार नाच रहा है, अर्थात् दोनों ओर गड्डे गहरे हो रहे हैं…बेबस कुत्तों का सामूहिक रुदन, बहते हुए सूअर के बच्चों की चिचियाहट, कोलाहल- कलरव-कुहराम !…हो रामसिंगार, रिक्शवा बहलो हो। घर-घर-घर !
…कल एक पत्र गांव भेज दिया था। किन्तु कल एक कप कॉफ़ी नहीं पी सका। कल ‘दोसा’ खाने को बहुत मन कर रहा था…कोक पीने की इच्छा हो रही है। कंठ सूख रहा है। प्रियजनों की याद आ रही है।
थर-थर कांपता हुआ छत से उतरकर फ़्लैट में आया और ठाकुुर रामकृष्ण देव के पास जाकर बैठ गया – ‘ठाकुर ! रक्षा करो। बचाओ इस शहर को…इस जलप्रलय में…’
‘‘अरे दुर साला। कांदछिस केन ?…रोता क्यों है ! बाहर देख ! साले ! तुम लोग थोड़ी-सी मस्ती में जब चाहो तब राह-चलते ‘कमर दुलिए-दुलिए (कमर लचकाकर, कूल्हे मटकाकर) ट्वीस्ट नाच सकते हो। रंबा-संबा-हीरा-टीरा और उलंग नृत्य कर सकते हो और बृहत सर्वग्रासी महामत्ता रहस्यमयी प्रकृति कभी नहीं नाचेगी ?…ए-बार नाच देख ! भयंकरी नाच रही है – ता-ता थेई-थेेई, ता-ता थेई-थेई। तीव्रा तीव्रवेगा शिवनर्त्तकी गीतप्रिया वाद्यरता प्रेतनृत्यपरायणा नाच रही है। जा, तू भी नाच !’’
अगरबत्ती जलाकर, शंख फूंकता हूं – नाचो मां !…उलंगिनी नाचे रणरंगे, आमरा नृत्य करि संगे। ता-ता थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई…मदमत्ता मातंगिनी उलंगिनी – जी भरकर नाचो !
बाहर कलरव-कोलाहल बढ़ता ही जाता है। मोटर, ट्रक, ट्रैक्टर, स्कूटर पानी की धारा को चीरती, गरजती-गुर्राती गुज़रती हैं…सुबह सात बजे ही धूप इतनी तीखी हो गई ? सांस लेने में कठिनाई हो रही है। सम्भवतः ऐसी घड़ी में वातावरण में ऑक्सिजन की कमी हो जाती है। उमस, पसीना, कम्पन, धड़कन ? तो, क्या…तो क्या ?
अब, तुमुल तरंगिनी के तरल नृत्य और वाद्य की ध्वनियों को शब्दों में बांधना असम्भव है ! अब…अब…सिर्फ़…हिल्लोल-कल्लोल-कलकल कुलकुल-छहर-छहर- झहर-झहर-झरझर-अर, र-र-र है-ए-ए धिग्रा-ध्रिंग-धातिन-धा तिन धा-आ-आहै मैया-गे-झांय-झांरय-झघ-झघ झांय झिझिना-झिझिना कललकुलल-कुलकुल- बां-आं-य-बां-ऑ-म-भौ-ऊं-ऊं…चंेईं-चेईं छछना-छछना-हा-हा-हा ततथा-ततथा- कलकल-कुलकुल… !!
पानी बढ़ना रुक गया है ? ऐं ? रुक गया है ? बीस मिनट हो गए। पानी जस-का-तस, जहां-का-तहां है ? कम-से-कम अभी तो रुक गया है।
…तू-ऊ-ऊ-ऊ ! फिर मैंने शंखध्वनि की ? नहीं, रेलवे-लाइन पर एक इंजन तार स्वर में चीख रहा है – तू-ऊ-ऊ-ऊ-ऊ !
कड़वी चाय के साथ कांपोज़ की दो टिकिया लेकर बिछावन पर लेट जाता हूं।

लेखक

  • हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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कुत्ते की आवाज़/फणीश्वरनाथ रेणु

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