छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कानों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले-पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिन्तन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कण्ठ से उत्तर देती हैं– ‘तुम पचै का का बताई—यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो सम्भवत: वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्तीभर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे 150 वर्ष की असम्भव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।
सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करनेवाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लाछमिन अर्थात लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी।] वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकर की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिमा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कण्ठी-माला देखकर उसका नया नामकरण किया, तब वह भक्तिन जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद् हो उठी।
भक्तिन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उनके स्वभाव को पूर्णत: क्या अंशत: समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव-प्रसिद्ध एक अहीर सूरमा की एकलौती बेटी ही नहीं, विमाता की किंवदन्ती बन जाने वाली ममता की काया में भी पली है। पाँच वर्ष की वय में उसे हँड़िया ग्राम के एक सम्पन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीय युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।
पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावत: ईर्ष्यालु और सम्पत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणान्तक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसे पैरों में जो पंख लगा दिये थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गये। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दु:ख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिये उल्टे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शान्त किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर बिछोह की मर्मव्यथा व्यक्त की।
जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक है। जब उसने गेहुँएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशुण्डी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दण्ड मिलना आवश्यक हो गया।
जिठानियाँ बैठकर लोक चर्चा करतीं, और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती, राँघती और उसकी नन्हीं लड़कियाँ गोबर उठातीं, कंडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने गुड़ की डली के साथ कठौती में मट्ठा पीती उसकी लड़कियाँ चने-बाजरे की घुघरी चबातीं।
इस दण्ड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी के पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली-चबाई की परिणति, उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर घमाघम पीटी-कूटी जातीं; पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्वनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असन्तोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दम्पत्ति के निरन्तर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।
धूम-धाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरान्त, पति ने घरौंदे से खेलती हुई दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उन्तीस वर्ष की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी; पर पत्नी उसे आज बुढ़ऊ कहकर स्मरण करती है। भक्तिन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गई, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गये होंगे, अत: उन्हें बुढऊ न कहना उनका घोर अपमान है।
हाँ, तो भक्तिन के हरे-भरे खेत, मोटी-ताजी गाय-भैंस और फलों से लदे पेड़ देखकर जेठ-जिठौतों के मुँह में पानी भर आना स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ति तो तभी संभव थीं, जब भइयहू दूसरा घर कर लेती; पर जन्म से खोटी भक्तिन इनके चकमें में आई ही नहीं। उसने क्रोध से पाँव पटक-पटककर आँगन को कम्पायमान करते हुए कहा- ‘हम कुकुरी-बिलारी न होयँ, हमारा मन पुसाई तौ हम दूसरे के जाब नाहिं त तुम्हारा पचै के छाती पर होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।’
उसने ससुर, अजिया ससुर और जाने के पीढ़ियों के ससुरगणों की उपार्जित जगह-जमीन में से सुई की नोक के बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त गुरु से कान-फुँकवा, कण्ठी बाँध पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समर्पित कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी समर्पित सुरक्षित रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने बड़े दामाद को घर जमाई बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरम्भ हुआ।
भक्तिन का दुर्भाग्य की उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबन्धन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ानेवाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता है। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसन्द कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरों भाईयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अत: यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी सम्पत्ति की देख-भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरितार्थ करनेवाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।
एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर भींतर से द्वार बन्द कर लिया और उसके समर्थक गाँववालों को बुलाने लगे। अहीर युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुण्डी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गये। तीतरबाज युवक कहता था, वह निमन्त्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उंगलियों के उभार में इस निमन्त्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अन्त में दूध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहें दोनों झूठे; पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चिंत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय-ढोर, खेती-बारी सब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गये कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अन्त में एक बार लगान न पहुँचने पर जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अत: दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।
घुटी हुई चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानों सब प्रकार की आहट सुनने के लिए एक कान कपड़े से बाहर निकाले हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवकधर्म में दीक्षित हुई, तब उसके जीवन के चौथे और सम्भवत: अन्तिम परिच्छेद का जो अर्थ हुआ, इसकी इति अभी दूर है।
भक्तिन की वेश भूषा में गृहस्थ और बैरागी का सम्मिश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया–‘क्या तुम खाना बनाना जानती हो ?’ उत्तर में उसने ऊपर से होठ को सिकोड़े और नीचे के अधर को कुछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा– ‘ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है अउर बाकी का रहा।
दूसरे दिन तड़के ही सिर पर कई लोटे औंधाकर उसने मेरी धुली धोती जल के छींटा से पवित्र कर पहनी और पूर्व के अन्धकार और मेरी दीवार से फूटते हुए सूर्य और पीपल का, दो लोटे जल से अभिनन्दन किया। दो मिनट नाक दबाकर जप करने के उपरान्त जब वह कोयले की मोटी रेखा से अपने साम्राज्य की सीमा निश्चित कर चौके में प्रतिष्ठित हुई तब मैंने समझ लिया कि इस सेवक का साथ टेढ़ी खीर है। अपने भोजन के सम्बन्ध में नितान्त वीतराग होने पर भी मैं पाकविद्या के लिए परिवार भर में प्रख्यात हूँ और कोई भी पाक कुशल दूसरे के काम में नुक्ताचीनी बिना किये रह नहीं सकता। पर जब छूत पाक पर प्राण देनेवाले व्यक्तियों का, बात-बात पर भूखा मरना स्मरण हो आया और भक्तिन की शंकाकुल दृष्टि में छिपे हुए निषेध का अनुभव किया तब कोयले की रेखा मेरे लिए लक्ष्मण के धनुष से खींची हुई रेखा के समान दुर्लघ्य हो उठी। निरुपाय अपने कमरे में बिछौने पर पड़कर और नाक के ऊपर खुली हुई पुस्तक स्थापित कर मैं चौके में पीढ़े पर आसीन अनधिकारी को भूलने का प्रयास करने लगी।
भोजन के समय जब मैंने अपनी निश्चित सीमा के भीतर निर्दिष्ट स्थान ग्रहण कर लिया तब भक्तिन ने प्रसन्नता से लबालब दृष्टि और आत्मतुष्टि से आप्लावित मुस्कराहट के साथ मेरी फूल की थाली में एक अंगुल मोटी और गहरी काली चित्तीदार चार रोटियाँ रखकर उसे टेढ़ी कर गाढ़ी दाल परोस दी । पर जब उसके उत्साह पर तुषारपात करते हुए मैंने रुआँसे भाव से कहा, ‘यह क्या बनाया है’ तब वह हतबुद्धि हो रही ।
रोटियाँ अच्छी सेंकने के प्रयास में कुछ अधिक खरी हो गयी हैं पर अच्छी हैं, तरकारियाँ थीं पर जब दाल बनी है तब उनका क्या काम शाम को दाल न बनाकर तरकारी बना दी जाएगी। दूध-घी मुझे अच्छा नहीं लगता, नहीं तो सब ठीक हो जाता। अब न हो तो अमचूर और लाल मिर्च की चटनी पीस ली जावे । उससे भी काम न चले तो वह गाँव से लायी हुई गठरी में से थोड़ा-सा गुड़ दे देगी। और शहर के लोग क्या कलाबत्तू खाते हैं? फिर वह कुछ अनाड़िन या फूहड़ नहीं। उसके ससुर, पितिया ससुर, अजिया सास आदि ने उसकी पाककुशलता के लिए न जाने कितने मौखिक प्रमाणपत्र दे डाले हैं।
भक्तिन के इस सारगर्भित लेक्चर का प्रभाव यह हुआ कि मैं, मीठे से विरक्ति के कारण बिना गुड़ के और घी से अरुचि के कारण रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर बहुत ठाठ से यूनिवर्सिटी पहुँची और न्यायसूत्र पढ़ते-पढ़ते शहर और देहात के जीवन के इस अन्तर पर विचार करती रही।
अलग भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी थी अपने गिरते हुए स्वास्थ्य और परिवारवालों की चिन्ता निवारण के लिए, पर प्रबन्ध ऐसा हो गया कि उपचार का प्रश्न ही खो गया। इस देहाती वृद्धा ने जीवन की सरलता के प्रति मुझे इतना जाग्रत् कर दिया था कि मैं अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी, सुविधाओं की चिन्ता करना तो दूर की बात।
इसके अतिरिक्त भक्तिन का स्वभाव ही ऐसा बन चुका है कि वह दूसरों को अपने मन के अनुसार बना लेना चाहती है, पर अपने सम्बन्ध में किसी प्रकार के परिवर्तन की कल्पना तक उसके लिए सम्भव नहीं। इसी से आज मैं अधिक देहाती हूँ, पर उसे शहर की हवा नहीं लग पायी। मकई का रात को बना दलिया सवेरे मट्ठे से सौंधा लगता है, बाजरे के तिल लगाकर बनाये हुए पुए गरम कम अच्छे लगते हैं, ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे दानों की खिचड़ी स्वादिष्ट होती है, सफेद महुए की लपसी संसार भर के हलवे को लजा सकती है आदि वह मुझे क्रियात्मक रूप से सिखाती रहती है। पर यहाँ का रसगुल्ला तक भक्तिन के पोपले मुँह में प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका। मेरे रात-दिन नाराज होने पर भी उसने साफ धोती पहनना नहीं सीखा, पर मेरे स्वयं धोकर फैलाये हुए कपड़ों को भी वह तह करने के बहाने सिलवटों से भर देती है। मुझे उसने अपनी भाषा की अनेक दन्तकथाएँ कण्ठस्थ करा दी हैं पर पुकारने पर वह ‘ओय’ के स्थान में ‘जी’ कहने का शिष्टाचार भी नहीं सीख सकी।
भक्तिन अच्छी है यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं। वह सत्यवादी हरिश्चन्द्र नहीं बन सकती पर ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहने में भी विश्वास नहीं करती। मेरे इधर-उधर पड़े पैसे रुपये, भण्डारघर की किसी मटकी में कैसे अन्तर्हित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्तिन जानती है। पर इस सम्बन्ध में किसी के संकेत करते ही वह उसे शास्त्रार्थ के लिए ऐसी चुनौती दे डालती है जिसको स्वीकार कर लेना किसी तर्क-शिरोमणि के लिए भी सम्भव नहीं। यह उसका अपना घर ठहरा- पैसा रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है? उसके जीवन का परम कर्तव्य मुझे प्रसन्न रखना है-जिस बात से मुझे क्रोध आ सकता है उसे कुछ बदलकर इधर-उधर करके बताना क्या झूठ है ? इतनी चोरी और इतना झूठ तो धर्मराज महाराज में भी होगा, नहीं तो वे भगवानजी को कैसे प्रसन्न रख सकते और संसार को कैसे चला सकते!
शास्त्र का प्रश्न भी भक्तिन अपनी सुविधा के अनुसार सुलझा लेती है। मुझे स्त्रियों का सिर घुटना अच्छा नहीं लगता, अतः मैंने भक्तिन को रोका। उसने अकुण्ठित भाव से उत्तर दिया कि शास्त्र में लिखा है । कुतूहलवश मैं पूछ ही बैठी, ‘क्या लिखा है’ तुरन्त उत्तर मिला ‘तीरथ गये मुड़ाये सिद्ध’ कौन-से शास्त्र का यह रहस्यमय सूत्र है, यह जान लेना मेरे लिए सम्भव ही नहीं था। अतः मैं हारकर मौन हो रही और भक्तिन का चूड़ाकर्म हर बृहस्पतिवार को, एक दरिद्र नापित के गंगाजल से धुले अस्तुरे द्वारा यथाविधि निष्पन्न होता रहा ।
पर वह मूर्ख है या विद्याबुद्धि का महत्त्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है। अपने विद्या के अभाव को वह मेरी पढ़ाई-लिखाई पर अभिमान करके भर लेती है। एक बार जब मैंने सब काम करनेवालों से अँगूठे के निशान के स्थान में हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तब भक्तिन बड़े कष्ट में पड़ गयी, क्योंकि एक तो उससे पढ़ने की मुसीबत नहीं उठायी जा सकती थी; दूसरे सब गाड़ीवान दाइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वयोवृद्धता का अपमान था। अतः उसने कहना आरम्भ किया, ‘हमार मलकिन तौ रात-दिन कितबियन माँ गड़ी रहति हैं। अब हमहूँ पढ़े लागब तौ घर-गिरिस्ती कउन देखी-सुनी।’
पढ़ानेवाले और पढ़नेवाले दोनों पर इस तर्क का ऐसा प्रभाव पड़ा कि भक्तिन इन्स्पेक्टर के समान क्लास में घूम-घूमकर किसी के आ इ की बनावट, किसी के हाथ की मन्थरता, किसी के बुद्धि की मन्दता पर टीका-टिप्पणी करने का अधिकार पा गयी। उसे तो अँगूठा निशानी देकर वेतन लेना नहीं होता, इससे बिना पढ़े ही वह पढ़नेवालों की गुरु बन बैठी। वह अपने तर्क ही नहीं, तर्कहीनता के लिए भी प्रमाण खोज लेने में पटु है। अपने आपको महत्त्व देने के लिए ही वह अपनी मालकिन को असाधारणता देना चाहती है, पर इसके लिए भी प्रमाण की खोज-ढूँढ़ आवश्यक हो उठती है। ।
जब एक बार मैं उत्तर – पुस्तकों और चित्रों को लेकर व्यस्त थी तब भक्तिन सबसे कहती घूमी, ‘ऊ बिचरिअउ तौ रातदिन काम माँ झुकी रहति है, अउर तुम पचे घुमती फिरती हौ ! चलौ तनिक तिनुक हाथ बँटाय लेउ ।’ सब जानते थे कि ऐसे कामों में हाथ नहीं बँटाया जा सकता, अतः उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर भक्तिन से पिण्ड छुड़ाया। बस इसी प्रमाण के आधार पर उसकी सब अतिशयोक्तियाँ अमरबेलि सी फैलने लगीं उसकी मालकिन जैसा काम कोई जानता ही नहीं, इसी से तो बुलाने पर भी कोई हाथ बँटाने की हिम्मत नहीं करता ।
पर वह स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती, इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है – इसी से वह द्वार पर बैठकर बार-बार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर – पुस्तकों को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहुँचाती है उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बँटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते तब वह सहायता की इच्छा को क्रियात्मक रूप देती है, इसी से मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसे ही उद्भासित हो उठती है जैसे स्विच दबाने से बल्ब में छिपा आलोक । वह सूने में उसे बार-बार छूकर, आँखों के निकट ले जाकर और सब ओर घुमा-फिराकर मानो अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्टि में व्यक्त आत्मतोष कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता। यह स्वाभाविक भी है। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब बार-बार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती तब वह कभी दही का शर्बत, कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती ।
दिन भर के कार्य भार से छुट्टी पाकर जब मैं कोई लेख समाप्त करने या भाव को छन्दबद्ध करने बैठती हूँ तब छात्रावास की रोशनी बुझ चुकती है, मेरी हिरनी सोना तख्त के पैताने फर्श पर बैठकर पागुर करना बन्द कर देती है, कुत्ता वसन्त छोटी मचिया पर पंजों में मुख रखकर आँखें मूँद लेता है और बिल्ली गोधूली मेरे तकिये पर सिकुड़कर सो रहती है।
पर मुझे रात की निस्तब्धता में अकेला न छोड़ने के विचार से कोने में दरी के आसन पर बैठकर बिजली की चकाचौंध से आँखें मिचमिचाती हुई भक्तिन प्रशान्त भाव से जागरण करती है। वह ऊँघती भी नहीं, क्योंकि मेरे सिर उठाते ही उसकी धुँधली दृष्टि मेरी आँखों का अनुसरण करने लगती है। यदि मैं सिरहाने रखे रैक की ओर देखती हूँ तो वह उठकर आवश्यक पुस्तक का रंग पूछती है, यदि मैं कलम रख देती हूँ तो वह स्याही उठा लाती है और यदि मैं कागज एक ओर सरका देती हूँ तो वह दूसरी फाइल टटोलती है।
बहुत रात गये सोने पर भी मैं जल्दी ही उठती हूँ और भक्तिन को तो मुझसे भी पहले जागना पड़ता है सोना उछल-कूद के लिए बाहर जाने को आकुल रहती है, बसन्त नित्य कर्म के लिए दरवाजा खुलवाना चाहता है, ओर गोधूली चिड़ियों की चहचहाहट में शिकार का आमन्त्रण सुन लेती है ।
मेरे भ्रमण की भी एकान्त साथिन भक्तिन ही रही है। बदरी-केदार आदि के ऊँचे-नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गाँव की धूलभरी पगडण्डी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती। किसी भी परिस्थिति में, किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही मैं भक्तिन को छाया के समान साथ पाती हूँ ।
युद्ध को देश की सीमा में बढ़ते देख जब लोग आतंकित हो उठे तब भक्तिन के बेटी-दामाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुँचे, पर बहुत समझाने-बुझाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी। सबको वह देख आती है, रुपया भेज देती है, पर उनके साथ रहने के लिए मेरा साथ छोड़ना आवश्यक है जो सम्भवतः भक्तिन को जीवन के अन्त तक स्वीकार न होगा ।
जब गतवर्ष युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन-वृत्ति जगा दी थी तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे गाँव चलने का अनुरोध करने आयी। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नयी धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवार में कीलें गाड़कर और उन पर तख्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा बनवाकर और उस पर अपना कम्बल बिछाकर वह मेरे सोने का प्रबन्ध करेगी, मेरे रंग, स्याही, आदि को नयी हँडियों में सँजोकर रख देगी और कागत – पत्रों को छीके में यथाविधि एकत्र कर देगी।
मेरे पास वहाँ जाकर रहने के लिए रुपया नहीं है, यह मैंने भक्तिन के प्रस्ताव को अवकाश न देने के लिए कहा था, पर उसके परिणाम ने मुझे विस्मित कर दिया। भक्तिन ने परम रहस्य का उद्घाटन करने की मुद्रा बनाकर और अपना पोपला मुँह मेरे कान के पास लाकर हौले-हौले बताया कि उसके पाँच बीसी और पाँच रुपया गड़ा रखा है। उसी से वह सब प्रबन्ध कर लेगी। फिर लड़ाई तो कुछ अमरौती खाकर आयी नहीं है। जब सब ठीक हो जाएगा तब यहीं लौट आएँगे ।
भक्तिन की कंजूसी के प्रमाण पुंजीभूत होते-होते पर्वताकार बन चुके थे, परन्तु इस उदारता के डाइनामाइट ने क्षण-भर में उन्हें उड़ा दिया। इतने थोड़े रुपये का कोई महत्त्व नहीं, परन्तु रुपये के प्रति भक्तिन का अनुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे महत्त्व को सीमा तक पहुँचा देता है ।
भक्तिन और मेरे बीच में सेवक- स्वामी का सम्बन्ध है, यह कहना कठिन है, क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया जो स्वामी से चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जानेवाले अँधेरे-उजाले और आँगन में फूलनेवाले गुलाब और आम को सेवक मानना । वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दुःख देते हैं उसी प्रकार भक्तिन का स्वतन्त्र व्यक्तित्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए है।
परिवार और परिस्थितियों के कारण उसके स्वभाव में जो विषमताएँ उत्पन्न हो गयी हैं उनके भीतर से एक स्नेह और सहानुभूति की आभा फूटती रहती है, इसी से उसके सम्पर्क में आनेवाले व्यक्ति उसमें जीवन की सहज मार्मिकता ही पाते हैं। छात्रावास की बालिकाओं में से कोई अपनी चाय बनवाने के लिए उसके चौके के कोने में घुसी रहती है, कोई दूध औटवाने के लिए देहली पर बैठी रहती है, कोई बाहर खड़ी मेरे लिए बने नाश्ते को चखकर उसके स्वाद की विवेचना करती रहती है। मेरे बाहर निकलते ही सब चिड़ियों के समान उड़ जाती हैं और भीतर आते ही यथास्थान विराजमान हो जाती हैं। इन्हें आने में रुकावट न हो सम्भवतः इसी से भक्तिन अपना दोनों जून का भोजन सवेरे ही बनाकर ऊपर के आले में रख देती है और खाते समय चौके का एक कोना धोकर पाकछूत के सनातन नियम से समझौता कर लेती है।
मेरे परिचितों और साहित्यिक बन्धुओं से भी भक्तिन विशेष परिचित है, पर उनके प्रति भक्तिन के सम्मान की मात्रा, मेरे प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर है और सद्भाव उनके प्रति मेरे सद्भाव से निश्चित होता है। इस सम्बन्ध में भक्तिन की सहजबुद्धि विस्मित कर देनेवाली है ।
वह किसी को आकार-प्रकार और वेशभूषा से स्मरण करती है और किसी को नाम के अपभ्रंश द्वारा। कवि और कविता के सम्बन्ध में उसका ज्ञान बढ़ा है पर आदर भाव नहीं। किसी के लम्बे बाल और अस्त-व्यस्त वेशभूषा देखकर वह कह उठती है, ‘का ओहू कवित्त लिख जानत हैं और तुरन्त ही उसकी अवज्ञा प्रकट हो जाती है, ‘तब ऊ कुच्छौ करिहें धरिहैं, ना- बस गली-गली गाउत – बजाउत फिरिहैं ।’
पर सबका दुःख उसे प्रभावित कर सकता है। विद्यार्थी वर्ग में से कोई जब कारागार का अतिथि हो जाता है तब उस समाचार से व्यथित भक्तिन ‘बीता बीता भरे लड़कन का जेहल – कलजुग रहा तौन रहा अब परलय होई जाई उनकर माई का बड़े लाट तक लड़े का चही’ कहकर दिनभर सबको परेशान करती रहती है। बापू से लेकर साधारण व्यक्ति तक सबके प्रति भक्तिन की सहानुभूति एकरस मिलती है।
भक्तिन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे ही डरती है जैसे यमलोक से। ऊँची दीवार देखते ही वह आँख मूँदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमजोरी इतनी प्रसिद्धि पा चुकी है कि लोग मेरे जाने की सम्भावना बता-बताकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह डरती नहीं, यह कहना असत्य होगा, पर डर से भी अधिक महत्त्व मेरे साथ का ठहरता है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी के धोती साबुन से साफ कर ले जिससे मुझे वहाँ उसके लिए लज्जित न होना पड़े। क्या-क्या सामान बाँध ले जिससे मुझे वहाँ किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी को किसी के साथ जाने का अधिकार नहीं, यह आश्वासन भक्तिन के लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन्न नहीं होती जितनी अपने साथ न जा सकने की सम्भावना से अपमानित । भला ऐसा अन्धेर हो सकता है ! जहाँ मालिक वहाँ नौकर-मालिक को ले जाकर बन्द कर देने में इतना अन्याय नहीं पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बराबर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने पर भक्तिन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। किसी की माई यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी तो नहीं लड़ी पर भक्तिन का तो बिना लड़े काम ही नहीं चल सकता।
ऐसे विषम प्रतिद्वन्द्वियों की स्थिति कल्पना में भी दुर्लभ है।
मैं प्रायः सोचती हूँ कि जब ऐसा बुलावा आ पहुँचेगा जिसमें न धोती साफ करने का अवकाश रहेगा न सामान बाँधने का, न भक्तिन को रुकने का अधिकार होगा न मुझे रोकने का, तब चिर विदा के अन्तिम क्षणों में यह देहातिन वृद्धा क्या करेगी और मैं क्या कहूँगी ?
भक्तिन की कहानी अधूरी है पर उसे खोकर मैं इसे पूरी नहीं करना चाहती।